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________________ ३६४ ] [ पवयणसारो नामविरोधेन सद्भावात् स्निग्धो वा रूक्षो वा स्यात् । तत एव तस्य पिण्डपर्यायपरिणतिरूपाद्विप्रवेशादित्वानुभूतिः । अथैवं स्निग्धरूक्षत्वं पिण्डत्वसाधनम् ॥ १६३॥ भूमिका – अब इस संदेह को दूर करते हैं कि "परमाणुद्रथ्यों को पिण्ड पर्यायरूप परिणति कैसे होती है ? — अन्वयार्थ – [ परमाणुः ] परमाणु [ यः अप्रदेश: ] जो कि अदेशी ( बहु प्रदेशी नहीं ) है [ प्रदेशमात्रः ] प्रदेशमात्र है [] जर [वन्दः ] स्वयं अशब्द है, [स्मिग्धः वा रूक्षः वा ] वह स्निग्ध अथवा रूक्ष होता हुआ [ द्विप्रदेशादित्वम् अनुभवति ] द्विप्रदेशादित्व का अनुभव करता है (अर्थात् द्वणुक आदि स्कंधों रूप परिणत होता है ) । टीका - वास्तव में परमाणु द्वयादि ( दो-तीन आदि) प्रदेशों के अभाव के कारण प्रदेशी है, एक प्रदेश के सद्भाव के कारण प्रदेशमात्र है और स्वयं अनेक परमाणुद्रव्या(म शब्दपर्यायरूप प्रगट होने को संभय न होने से, अशब्द है । क्योंकि ( वह परमाणु ) अविरोधपूर्वक चार स्पर्श, पांच रस, दो गंध और पांच वर्णों के सद्भाव के कारण स्निग्ध अथवा रूक्ष होता है, इसीलिये हो उसके पिण्ड पर्याय परिणतिरूप द्विप्रदेशादित्य की अनुभूति होती है। इस प्रकार स्निग्धरूक्षत्व पिण्डत्व का कारण है ॥ १६३॥ तात्पर्यवृत्ति अथ यद्यात्मा पुद्गलानां पिण्डं न करोति तहि कथं पिण्डपर्यायपरिणतिरिति प्रश्ने प्रत्युत्तरं ददाति अपदेसो अप्रदेशः । स क: ? परमाणू पुद्गलपरमाणुः ? पुनरपि कथंभूतः । पदेसमेतो य द्वितीयादिप्रदेशाभावात् प्रदेशमात्रश्च । पुनश्च कि रूपः ? सयमसद्दो य स्वयं व्यक्तिरूपेणाशब्दः । एवं विशेषणत्रयविशिष्टः सन् षिद्धो वा रुखो वा स्निग्धो वा रूक्षों वा यतः कारणात्संभवति ततः कारणात् । दुपदेसावित्तमणुह्वविद्विप्रदेशादिरूपं बन्धमनुभवतीति । तथा यथायमात्मा शुद्धबुद्वैकस्वभावेन बन्धरहितोऽपि पश्चादशुद्धनयेत स्निग्धस्थानीयरागभावेन रूक्षस्थानीयद्वेषभावेन यदा परिणमति तदा परमागमकथितप्रकारेण बन्धमनुभवति । तथा परमाणुरपि स्वभावेन बन्धरहितोऽपि यदा बन्धकारणभूत स्निग्धरूक्षगुणेन परिणतो भवति तदा पुद्गलान्तरेण सह विभावपर्यायरूपं बन्धमनुभवतीत्यर्थः ।। १६३ ॥ उत्थानिका - यदि आत्मा पुदुगलों को पिंडरूप नहीं करता है तो किस तरह पिंड की पर्याय होती है इस प्रश्न का उत्तर देते हैं अन्वय सहित विशेषार्थ - ( परमाणू ) पुद्गल का अविभागी अखंड परमाणु ( जो अपदेसो) जो बहुत प्रदेशों से रहित है ( पदेसमेत्तो य ) एक प्रदेशमात्र है और ( सयमसद्दो) स्वयं व्यक्तरूप से शब्द पर्याय से रहित है (मिद्धो वा लुक्खो वा ) स्निग्ध होता है या रूक्ष
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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