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________________ १७० ] [ पक्यणसारो तृष्णा से जल प्राप्ति की इच्छा को भांति, विषयों से सुख को चाहते हैं। (जसे हरिण मृग-तृष्णा से जल प्राप्ति की इच्छा कर दुःखी होता है, वैसे हो संसारी जीव विषयों से सुख की इच्छा करके दुःखी होते हैं, क्योंकि विषयों में सुख नहीं है, किन्तु आकुलता रूप दुःख ही है)। उस (तृष्णा) के दुःख रूप संताप के वेग को सहन न कर सकने से, जोंक की मांति, विषयों को तब तक भोगते हैं जब तक कि मरण को प्राप्त नहीं हो जाते । भावार्थ-जैसे जोंक (गोंध), वास्तव में तृष्णा जिसका बीज है और जो तृष्णा विजयशील है, ऐसे दुःखांकुर से क्रमशः व्याप्त होती हुई दूषित रक्त को चाहती है, और उसी को पीती हुई मरण पर्यंत दुःख को पाती है। उसी प्रकार ये (निरतिशय) पुण्यशाली जीव भी पापशाली जीवों की भांति, तृष्णा जिसका बीज है और जो विजय को प्राप्त है, ऐसे दुखांकुर के द्वारा क्रमशः व्याप्त होते हुए विषयों को चाहते हुए और उनको ही भोगते हुए मरण-पर्यंत दुःख पाते हैं। इस कारण से (निरतिशय) पुण्य सुखाभास रूप दुःख का साधन है। विशेषार्थ-गाथा ४४ में ग्रंथकार स्वयं 'पुण्य का फल अरिहंत पद है' ऐसा कह चुके हैं । इस गाथा में निरतिशय पुण्य का कथन है, जो कि भोगों की वांछा से किया जाता है। तात्पर्यवृत्ति अथ पुण्यानि दुःखकारणानीति पूर्वोक्त मेवाथं विशेषेण समर्थयतिः ते पुण उदिण्णतण्हा सहजशुद्धात्मतृप्तेरभावात्ते निखिलसंसारिजीवाः पुनरुदोगतृष्णा: सन्तः दुहिता तहाहि स्वसंवित्तिस मुत्पन्नपारमार्थिकसुखाभावात्पूर्वोक्ततृष्णाभिर्दु खिताः सन्तः । कि कुर्वन्ति ? विसयसोक्खाणि इच्छंति निविषयपरमात्मसुखाद्विलक्षणानि विषयसुखानि इच्छन्ति । न केवलमिच्छन्ति अणुहति य अनुभवन्ति च । किं पर्यन्तम् ? आमरणं मरणपर्यन्तं । कथंभुताः ? दुक्खसंतत्ता दुःखसंतप्ता इति । अवार्थ:-यथा तृष्णोद्रे फेण प्रेरिताः जलौकसः कीलालमभिलषन्त्यस्तदेवानुभवन्त्यश्चामरणं दुःखिता भवन्ति, तथा निजशुद्धात्मसंवित्तिपराङ्मुखा जीवा अपि मृगतृष्णाभ्योऽमांसीव विषयानभिलषन्तस्तथैवानुभवन्तश्चामरणं दुःखिता भवन्ति । तत एतदायातं तृष्णातकोत्पादकत्वेन पुण्यानि वस्तुतो दुःखकारणानि इति ॥७॥ उत्थानिका-आगे पुण्यकर्म मिथ्यादष्टि जीवों के लिये दुःख के कारण हैं, इस ही पूर्व के भाव को विशेष करके समर्थन करते हैं। अन्वय सहित विशेषार्थ--(पुण) तथा फिर (ते) वे अज्ञानी सर्व संसारी जीव (उदिण्णतण्हा) स्वाभाविक शुद्ध आत्मा में तृप्ति को न पाकर तृष्णा को उठाए हुए (तण्हाहि
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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