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________________ पवयणसारो ] [ २६७ किं भव्यते ? अतभावः संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेद इति । तथा मुक्तजीवे योऽसौ शुद्धसत्तागुणस्तवाचकेन सत्ताशब्देन मुक्तजीबो बाच्यो न भवति कोवलज्ञानादिगणो वा सिद्धपर्यायो वा मुक्तजीवकेवलज्ञानादि। गुणसिद्धपर्यायश्च शुद्धसत्तागुणो वाच्यो न भवति । इत्येवं परस्परं प्रदेशाभेदेऽपि योऽसौ संज्ञादिभेदः संस्तस्य पूर्वोक्तलक्षणतभावस्याभावस्तदभावो भण्यते । स च तदभाव: पुनरपि कि भण्यते ? अतद्भावः संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेद इत्यर्थः । यथात्र शुद्धात्मनि शुद्धसत्तागुणेन सहाभेद; स्थापितस्तथा यथासम्भवं सर्वद्रव्येषु ज्ञातव्य इत्यभिप्रायः ॥१०७।। उत्थानिका-आगे अन्यत्त्व का विशेष विस्तार के साथ कथन करते है अन्वय सहित विशेषार्थ— (सहव्व) सत्ता रूप द्रव्य है। (सच्च गुणो) और सत्ता रूप गुण है, (सच्चेव पज्जओत्ति) तथा सत्ता रूप पर्याय है, ऐसा (वित्थारो) सत्ता का विस्तार है (बलु) निश्चय करके (तस्स अभावो) जो उस सत्ता का परस्पर अभाव है (सो भावो) वह उसका अभाव रूप (असम्भावो) अन्यत्व है। जैसे मोती के हार में सत्ता गुण की जगह पर जो उसमें सफेदी का गुण है सो प्रदेशों को अपेक्षा एक रूप है तो भी उसको भेद करके इस तरह कहते हैं कि यह सफेद हार है, यह सफेद सूत है, यह सफेद मोती है तथा जो हार सूत या मोती है इन सीमों के साथ प्रदेशों का भेद न होते हुए सफेद गुण कहा जाता है यह एकता या तन्मयपमा का लक्षण है । तत-अभाव का क्या अर्थ है? हार सूत तथा मोती का शुक्ल गुण के साय तन्मयपना या प्रदेशों का अभिन्नपना यह अर्थ है । तैसे मुक्त-आत्मा नाम के पदार्च में जो कोई शुद्ध सत्ता गुण है यह प्रदेशों के अभेद होते हुए इस तरह कहा जाता ई-सत्ता लक्षण परमात्मा पदार्थ, सत्ता लक्षण केवलज्ञानावि गुण, सत्ता लक्षण सिद्ध पर्याय । जो कोई परमात्म पदार्थ व केवलज्ञानादि गुण व पर्याय है इन तीनों के साथ शुद्ध सता गुण कहा जाता है, यह तद्भाव या एकता का लक्षण है। तद्भाव का क्या प्रयोजन है ? परमात्मा पदार्थ, केवलज्ञानादि गुण, सिद्धत्व पर्याय न तीनों का शुद्ध सत्ता नामा गुण के साथ संज्ञा संख्या लक्षण प्रयोजन को अपेक्षा भेद होते हुए भी और प्रदेशों की अपेक्षा तन्मयपना होते हुए भी, निश्चय करके जो इस तद्भाव मा एकता का संज्ञा संख्या आदि की अपेक्षा से प.स्पर अभाव है उसको तद्भाव या नस एकता का अभाव या अतद्धाय या अन्यत्व कहते हैं। इस अन्यत्व का संज्ञा लक्षण प्रयोजनादि की अपेक्षा जो स्वरूप है उसको दृष्टांत देकर बताते हैं। जैसे मोती के हार में जो कोई शुक्ल गुण है उसका वाचक जो शुक्ल नाम का दो सनर का शब्द है उस शब्द से हार या सूत्र या मोती कोई वाच्य नहीं है अर्थात् शुक्ल
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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