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________________ पवयणसारो ] वर्तमानान् । क्य? मानुषे क्षेत्रे । तथाहि-साम्प्रतमत्र भरतक्षेत्र तीर्थकराभावात् पञ्चमहाविदेहस्थित सीमन्धरस्वामितीर्थकरपरमदेवप्रभतितीर्थकरैः सह तानेव पञ्चपरमेष्ठिनो नमस्करोमि । कया ? करणभूतया मोक्षलक्ष्मीस्वयंवरमण्डपभूते जिनदीक्षाक्षणे मङ्गलाचारभूतया अनन्त ज्ञानादिसिद्धगुणभावनारूपया सिद्धभक्त्या, तर्थव निर्मलसमाधिपरिणतपरमयोगिगुणभावनालक्षणया योगभक्त्या चेति । एवं पूर्वविदेहतीर्थकरनमस्कारमुख्यत्वेन माथा गतेत्यभिप्रायः ॥३॥ अथ किया कृत्वा । कम् ! णमो नमस्कारम् । केभ्यः ? अरहताणं सिद्धाणं तह गणहराणं अज्झावपवगाणं साहूणं व अर्हत्सिद्धगणधरोपाध्यायसाधुभ्यश्चैव । कतिसख्योपेतेभ्यः ? सम्वेसि सर्वेभ्यः। इति पूर्वगाथात्रयेण कृतपञ्चपरमेष्ठिनमस्कारोपसंहारोऽयम् ॥४।। एवं पञ्चपरमेष्ठनमस्कारं कृत्वा कि करोमि ? उवसंपयामि उपसपद्ये समाश्रयामि । किम् ? सम्म साम्यं चारित्रम् । यस्मात् कि भवति ? जत्तो णियाणसंपत्ती यस्मानिर्वाणसंप्राप्तिः । कि कृत्वा पूर्व ? समासिज्ज समासाद्य प्राप्य । कम् ? विसुद्धणाणदंसणपहाणासमं विशुद्धज्ञानदर्शनलक्षणप्रधानाश्रमम् । केषां सम्बंधित्वेन ? तेसि तेषां पूर्वोतपरमेष्ठिनामिति । तथाहि--अहमाराधकः, एते चाहदादय आराध्या, इत्याराध्याराधकविकल्परूपो द्वतनमस्कारो मण्यते । रागाद्यपाधिविकल्प रहितपरमसमाधिवलेनात्मन्येवाराध्या राधमभावः पुनरर्वतनमस्कारो भण्यते। इत्येवलक्षणं पूर्वोक्तगाथात्रयकथितप्रकारेण पञ्चपरमेष्ठिसम्बंधिनं द्वैताद्वैतनमस्कारं कृत्वा । तत: किं करोमि ? रागादिभ्यो मिलोऽयं स्वात्मोत्थसुखस्वभाव: परमात्मेति भेदज्ञानं, स स एन पर्व प्रकारोपादेश इति रुचिरूपं सम्यक्त्वमित्युक्तलक्षण ज्ञानदर्शनस्वभावं, मठचैत्यालयादिलक्षणव्यवहाराश्रमाद्विलक्षणं, भावाश्रमरूपं प्रधानाश्रमं प्राप्य, तत्पूर्वकं कमायातमपि सरागचारित्रं पुण्यबन्धकारण मिति ज्ञात्वा परिहत्य निश्चलशुद्धात्मानुभुतिस्वरूपं वीतरागचारित्रमहमाधयामीति भावार्थः । एवं प्रथमस्थले नमस्कारमुख्यत्वेन गाथापञ्चकं गतम् ॥५॥ ___ अन्वय सहित विशेषार्थ—(एस) यह जो मैं ग्रन्थकार इस ग्रन्थ को करने का उद्यमी हुआ हूँ और अपने ही द्वारा अपने आत्मा का अनुभव करने में लवलीन है सो (सुरासुरमणुसिंववंदिदं) तीन जगत् में पूजने योग्य अनंतज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि गुणों के आधारभूत अहंत पद में विराजमान होने के कारण से तथा इस पद के चाहने वाले तीन भुवन के बड़े पुरुषों द्वारा भले प्रकार जिनके चरण कमलों की सेवा की गई है इस कारण से स्वर्गवासी देवों और भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी देवों के इन्द्रों से वंदनीक, (घोयधाइकम्ममलं) परम आत्म-लवलीनतारूप समाधिमाध से जो रागद्वेषादि मलों से रहित निश्चय आत्मीक सुखरूपी अमृतमय निर्मल जल उत्पन्न होता है, उससे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्त राय इन चार धातियाकर्मों के मल को धोने वाले अथवा दूसरों के पापरूपी मल के धोने के लिए निमित्त कारण होने वाले, (धम्मस्स कत्तार) रागादि से शून्य निज आत्मतत्व में परिणमन रूप निश्चय धर्म के उपादान कर्ता अथवा दूसरे जीवों को उत्तम क्षमा आदि अनेक प्रकार धर्म का उपदेश देने वाले (तित्थं) तीर्थ अर्यात देखे, सुने, अनुभवे इन्द्रियों के विषय सुख की इच्छा रूप जल के प्रवेश से दूरवर्ती,
SR No.090360
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorShreyans Jain
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages688
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, & Religion
File Size19 MB
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