Book Title: Charcha Sagar
Author(s): Champalal Pandit
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वर्गीय पंडित चंपालालजी विरचित चर्चासागर सौजन्य से श्रीमती मंजुदेवी बड़जात्या W/O अजितकुमारजी बड़जात्या, बम्बई भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद् Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर प्रथमें प्रमाणरूपसे दिये हुए प्रथोंके नाम जिनके लोक लिखे हैं। बर्ग संख्या प्रन्योंके माम चर्चा संख्या पंधोंके नाम १ आदिपुराण, लध्यादिपुराण, त्रिलोकसार २५ धर्मरसिक, हरिवंशपुराण, आदिपुराण २ पपपुराण ( रविषेणाचार्य विरचित) २६ अमरसिक, कुटकर ३ षट्पाहुडको टीका २७ धर्मरसिक ४ चारित्रसार । इन्द्रनंदि कृत नीतिसार २८ मोक्षशास्त्र, मूलाचार प्रदीपक ५ स्फुट गाथा तथा इलोक। २९ मोक्षशास्त्र, मूलाचार प्रदीपक ६ लघु पद्मपुराण। ३० मूलाचार प्रदीपक । मोक्षशास्त्र ७ चारित्रसार, नीतिसार । ३१ मूलाचार प्रदोपक । ८ इन्द्रनंदिविरचित्त प्रायश्चित्त ग्रन्थ । ३२ ॥ ९ पद्मपुराण, लघुपद्मपुराण ३३ रनकरण्डश्रावकाचार १. पद्मपुराण लघुपद्मपुराण ३४ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा । उसको टोका ११ पदमदिपंचविंशतिका ३५ प्रश्नोत्तरोपासकाचार १२ पदमनंदिपंचविंशतिका ३६ पूजाके मंत्र। १३ फुटकर गाथा ३७ यशस्तिलकचंपू १४ सुदर्शन चरित्र ३८ पंचमंगल १५ सुदशन चरित्र ३९ मोक्षशास्त्र १६ सुदर्शन चरित्र ४. मोक्षशास्त्र १७ सुदर्शन चरित्र १८ पदमपुराण ४१ प्रश्नोत्तरश्रावकाचार । पमरसिक। धर्मामृतश्रावकाचार । १९ पद्मनंदिपंचविंशतिका, नीतिसार स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा तथा उसकी टीका । २० पदमनंदिपंचविंशतिका ४२ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाको टीका । धर्मरसिक, यशस्तिलक। २१ फुटकर श्लोक, मोकशास्त्र, धर्मरसिक ४३ वसुनंदिश्रावकाचार २२ धर्मरसिक, फुटकर, क्रियाकोक्ष, फुटकर ४४ त्रिलोकसार । फुटकर श्लोक। २३ धर्मरसिक ४५ मोक्षशास्त्र फुटकर गाथा । २५ फुटकर (जिनसेनाचार्य स्चन) ४६ सिद्धांतसार दीपक। त्रिलोकप्राप्ति Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१०] 5-यारी चर्चा संख्या ग्रंथोंके नाम ४७ त्रिलोकसार सिद्धांतसारदीपक, विलोकप्रणिहरि पुराण आदि । ४८ फुटकर श्लोक ४९ ५० धर्मरसिक । धर्मरसिक ५१ फुटकरगाथा ५२ फुटकरगाथा ५३ मोक्षशास्त्र | श्रुतसागरी टीका । ५४ महापुराण । सिद्धांतसार दोपक । ५५ महापुराण ५६ महापुराण ५७ महापुराण ५८ त्रिवर्णाचार ५९ सिद्धांतसार ६० सिद्धांतसार ६१ सिद्धांतसार ६२ सिद्धांतसार त्रिलोकसार ६३ सिद्धांतसार दीपक, त्रिलोकसार ६४ जंबूचरित्र ६५ फुटकर श्लोक ६६ , ६७ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्ता ४८ मूलाचार मूलाचार प्रदीपक ६९ सिद्धांतसार ७० गोम्मटसार ७१ बृहद्हरिवंशपुराण ७२ फुटकर श्लोक चर्चा संख्या ७३ फुटकर इलोक भावप्रकाश ७४ भावप्रकाश ७५ पदमपुराण ( सोमसेन कृत ) ७६ पद्मपुराण, मूलाचार, मूलाचारकी टीका, मूलाधार प्रदीपक ७७ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा ७८ मोक्षशास्त्र ७९ मोक्षशास्त्र ८० जैनरत्नाकर ८१ मोक्षशास्त्र | पंचमंगल ८२ रत्नाकर ८३ वसुनंदिश्रावकाचार ८४ पुरुषार्थसिद्धपाय प्रत्थोंके नाम ८५ पुरुषार्थसिद्धयुपाय ८६ पुरुषार्थसिद्धयुपाय, चूहदहरिवंशपुराण ८७ रत्नाकर | स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा ८८ रत्नाकर ८९ मोक्षशास्त्र २० धर्मोपदेश पीयूष रत्नाकर अन्य श्रावकाचार ९१ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा । त्रिलोकसार । मूलाचार ९.२ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा । गोम्मटसार ९३ फुटकर श्लोक, स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा । ९४ त्रिलोकसार । मूलाचार सिद्धांतसारप्रदीपक २५ सिद्धांतसार दीपक । लघुपदमपुराण ९६ उत्तरपुराण ९७ रयणसार ९८ पटपाहुड ९९. मोक्षपाहुड w Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११] चर्चा संख्या १०० मोक्षपाहुड १०१ मोक्षपाहुड १०२ लघुआदिपुराण ('सकलकोति कृत) पार्श्वपुराण सम्यक नाम १०३ सिद्धांतसार, गोम्मटसार १०४ आदिपुराण, लब्ध्यादिपुराण, पारखं पुराण १०५ प्रतिष्ठाशास्त्र, नरेन्द्रसेनकृत प्रतिष्ठापाठ १०६ पद्मनंदिपंचविशतिका १०७ आदिपुराण, सिद्धांतसार १०८ प्रश्नोत्तरोपासकाचार १०९ दीक्षा कल्प ११० गोम्मटसार | १११ सिद्धांतसार दीपक ११२ मूलाचार प्रदीपक। मूलाचार । ११३ गोम्मटसारकी टीका । वेद, भारत, मार्कण्डेयपुराण, अरण्यक, प्रभासखंड शिक्पुराण, वाल्मीकि रामायण, अद्भुत रामायण, गीता, वेद, पुराण, वेदांत ११४ पुराण ११५ गोम्मटसार ११६ गोम्मटसार ११६ गोम्मटसार ११८ गोम्मटसार ११९ गोम्मटसार १२० गोम्मटसार १२१ मोक्षशास्त्र, गोम्मटसार १२२ गोम्मटसार १२३ गोम्मटसार १२४ गोम्मटसार संख्या १२५ गोम्मटसार १२६ गोम्मटसार १२७ गोम्मटसार १२८ गोम्मटसार १२९ गोम्मटसार १३० गोम्मटसार १३१ गोम्मटसार १३२ अनंतव्रतको उद्यापन विधि ( पंचनन्दि कृत ) वसुनन्दिश्रावकाचार तथा उसको टोका । मोक्षशास्त्र | प्रत्यकि नाम १३३ वसुनंदिश्रावकाचार | व्रतकथा कोश १३४ वसुनंदिश्रावकाचार । लघु आदिपुराण १३५ वसुनंदिश्रावकाचार १३६ उमास्वामिश्रावकाचार १३७ उमास्वामिश्रावकाचार १३८ उमास्वामिश्रावकाचार, भावसंग्रह, यशस्तिलक चंपू । पूजाग्रन्थ, पूजासार, जिनसंहिता प्रतिष्ठापाठ। त्रिवर्णाचार। सूक्तिमुक्तावली । १३९ उमास्वामिश्रावकाचार १४० उमास्वामिश्रावकाचार १४१ फुटकर श्लोक १४२ उमास्वामिश्रावकाचार | धर्मरसिक १४३ उमास्वामिश्रावकाचार १४४ समास्यामिश्रावकाचार १४५ उमास्वामिश्रावकाचार । फुटकर श्लोक १४६ उमास्वा निश्रावकाचार १४७ उमास्वामिश्रावकाचार ૪૮ " " [११ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५७ सिबपूजा १५८ . चर्चा संस्था प्रज्योकिमान पदसिंख्या पोंक माम १४९ पूजाके मन्त्र ईर्यापथशुद्धिपाठ दर्शनपाठ मंत्र एक संधिकृत घनाकयाकोश, श्रीपालचरित्र उत्तरपुराण, यशस्तिलक चंपू। जिनसंहिता, पूजासार, धर्मरसिक पूजाविधि जिनयशकल्प धर्मरसिक । देवपूजा व्रतकथाकोश निर्वाणकांड प्राकृत । पूजाके प्रतिष्ठापाठ महाभिषेक, शान्तिचापूजा पाठ । नित्यपूजा, सिद्धपूजा, मक्तामर स्तोत्र । फुटकर श्लोक । । १५० फुटकर श्लोक प्रतिष्ठापाठके है शुभचंद्र विरचित सहस्रगुणी पूजा, सकलकीर्ति विरचित १५१ पूजासार शांतिपुराण। प्रतिष्ठासार, वसुनंदिकृत प्रतिष्ठापाठ ! माव१५२ शांतिचक्रपूजा लघुस्नपन संग्रह, पदमनंदिपंचविंशतिका । धर्मकीतिकत नंदीश्वरपूजा। मुक्तावली पूजा, अभय दिकृत श्रेयोविधान, प्रभाकरसेन प्रति१४४ पूजासार ष्ठापाठ। माशाधर विरचित जिन यज्ञकल्प त्रिाल चतुर्वि१५५ पजासार, वास्नपन शतिका पूजा। योगींद्रदेवकृत प्राकृत श्रावकाचार बादिपुराण । पूजासार एक सैषिकूत जिनसंहिता शांतिचक्रविधान 1 अकृत्रिम चैत्यालयको भाषापूजा, सुपार्श्वनाथको पूजा, चंद्रप्रभकी पूजा, शीतलनाथकी पूजा, श्रेयांसनाथकी पूजा, वासुपूज्यकी १५९ फुटकर श्लोक पूजा। दिमलनायको पूजा, अनन्तनाथकी पूजा, शांतिनाथको पूजा, अरहनाथको पूजा, बरिष्ट नेमिनाषकी पूजा, महायोरको १६१ फुटकर श्लोक पूजा। शांतिचक ऋषिमंडल पंचकल्याण कर्मदहन षोडश१६२ पूजासार कारण दशलक्षण रत्नत्रय साद्वितयद्वीप, इन्द्रध्यज पंचमेक १६३ (ये सब पंच एक संधि कृत जिनसंहिता पूजासार जिनयज्ञ- नन्दीश्वर बादि सबकी पूजाओं में है। वसुनंदि सिवांतचक्रवर्ती १६४ कल्पविद्यानुवाद, णमोकार कल्प, बसुनंदि प्रतिष्ठापाठ कृत जिनसंहिता, व्रतकथाकोश, वसुनंदिश्रावकाचार, सिद्धांत१६५ विवर्णाचार, शांतिचक्र, रत्नाकर आदि शास्त्रोंसे लिखे हैं। सार दीपक, षट्कर्मोपदेश रत्नमाला । वसुपालकी कथा, मदना१६९ विश्वकाक्षरीवर्णकोश, एकाक्षरीकोश,स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी वलोको कथा, उमास्वामोश्रावकाचार सारसंग्रह, षट्पाइड। टीका । कासंत्र आदि व्याकरणके सूत्रश्लोक, परमतके श्लोक, योगोन्द्रदेव श्रावकाचार, महापुराण, तस्वार्थसार, चैत्यभक्तिपदमावती कल्प, त्रिवर्णाचार, जानार्णव, जिनसंहिता, पूजासार पाठ, श्रीपालको कथा, विद्याधरकी कथा, ब्राह्मणी शेठकी पुत्री जिनयज्ञकल्प, जिन प्रतिष्ठापाठ, शांतिचक्र महाभिषेक। माया- कुम्हारको कथा । पुरंदर विधानवतको कथा, सुभाषित ग्रन्थ । वीज कल्प। फुटकर श्लोक कथा। १६७ अमरकोश, बालबोधपंचांग, व्याकरणके सूत्र, दर्शनपाठ। १६९ बमनंदिश्रावकाचार | धर्मरसिक । १६८ त्रिवर्णाचार, प्रतिष्ठापाठ, आदिपुराण, जिनयज्ञकल्पकी वृत्ति । १७० जिन प्रतिष्ठापाठ, इन्द्रध्वज, सार्धद्वितय द्वीपक्षेत्रपूजा, शांति अजतपुराण, फुटकर श्लोक, जिनयज्ञकल्पा पूजासार, आरा- चक्र, लघुस्नपन, मध्यस्नपन, वहस्नपन, पंचकल्याण, चतुविशति Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चा संख्या प्रत्योंके माम पूजा, जिनयशकल्प, जिन संहिता, पूजासार, त्रिवर्गांचार, हवनपाठ, आदिपुराण, पार्श्वपुराण ( प्रभाचंद्र कुता ) हरिवंशपुराण पद्मपुराण लघुपद्मपुराण यशस्तिलक चंपू उत्तरपुराण श्रीपाल चरित्र पांडवपुराण ( भद्रबाहुकृत ) नवग्रह स्तोत्र । त्रिलोकसार । गोमट्टसार । १७१ फुटकर श्लोक १७२ पूजासार जिनसंहिता १७३ पूजासार जिन संहिता १७४ पूजासार जिनसंहिता १७५ जिन संहिता १७६ जिन संहिता १७७ पूजासार १७८ जिन संहिता १७९ जिनसंहिता १८० जनसंहिता १८१ जिनसंहिता १८२ जिन्संहिता लंघनपथ्य निर्णय शास्त्र १८३ फुटकर १८४ विचार वाँ अध्याय, यशस्तिलक चंपू चर्चासमाधान आदिपुराण, पद्मनंदिपंचविशतिका, पद्मपुराण, अकलंक प्रायश्चित्त २८५ प्रायश्चित चूलिका प्राकृत १८६ प्रायश्चिस चूलिका प्राकृत १८७ प्रायश्चित भूलिका प्राकृत १८ मूलाचारकी टीका १८९ मूलाचारको टीका १९० त्रिवर्णाचार, भावप्रकाश चर्चा संवा १९१ त्रिवर्णाचार १९२ त्रिवर्णाचार १९३ त्रिलोकसार प्रत्योंके नाम १९४ मूलाचार १९५ मूलाचार, त्रिलोकसार १९६ मूलाचार भाषा चोपाई १९७ मूलाचार १०८ मुलाचार स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा १०९ मूलाचार, शारीरिक शास्त्र २०० वसुदिश्रावकाचार अन्य मतके शास्त्र शार्ङ्गधर संहिता, भाव प्रकाश, वैद्यरत्नभाषा २०१ आदिपुराण, सिद्धांतसार दीपक २०२ सिद्धांतसार दीपक २०३ अमरकोष, धन्वंतरी निघंटु २०४ कलापव्याकरण, ज्ञानसमुद्र, ज्ञानार्णव, एकाक्षरी वर्णमात्राकोष विष्णुपंजर मार्कंडेय पुराण, मातृका निघंटु । एकाक्षरीकोष, मूलाचार, सामायिक पाठ महाभारत, विष्णुपुराण, नीतिसार २०५ फुटकर श्लोक २०६ त्रिलाकप्रज्ञप्ति २०७ फुटकर श्लोक, भारत. मनुस्मृति, मार्कण्डेयपुराण, शिवधनं, श्राद्धकल्प, परमतके धर्मशास्त्र भागवत । शावर संहिता । शार्ङ्गधर कथित सुभाषित संहिता | वसुनंदिश्रावकाचार, भावप्रकाश " २०८ २०९ " २१० धर्मप्रश्नोत्तर, नीतिसार २११ एकचर्चाको पुस्तक [१३] Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] संख्या प्रभोंके नाम २१२ भगवती आराधना रत्नमाला १३ सिद्धतिसार दीपक २१४ सिद्धांतसारोपक २१५ सिद्धांतसारदीपक २१६ सिद्धांतसादोपक, त्रिलोकसार २१७ सिद्धांतसार दीपक २१८ सिद्धांत सरदीपक २१९ सिद्धांतसादोपक २२० सिद्धांतसार दीपक २२१ सिद्धांतसार दीपक चर्चा संख्या प्रत्योंके नाम २३५ धर्म रसिक, नोतिशतक, सप्तम्यसनचरित्र, फुटकर श्लोक २३६ नीतिमार, क्टपाहुड २३७ नीतिशतक २३८ त्रिलोकसार २३९ त्रिलोकसार २४० षट्पाहुठ २४१ मोक्षशास्त्र २४२ मोक्षशास्त्र २४३ श्रुतसागरी टोका, पुरुषार्थसिद्धघुपाय २४४ आत्मानुशासन २४५ आत्मानुशासन २४६ सारचतुविशतिका, ज्ञानार्णव, हरिवंशपुराण २०७ ज्ञानार्णवकी टोका २२२ सिद्धांतसारदीपक २२३ मोक्षशास्त्र, सिद्धांतसारदीपक २२४ सिद्धांतसार दीपक २२५ सिद्धांत सारदीपक २२६ फुटकर इलोक २२७ सिद्धांतसार दीपक २२८ सिद्धांतसारोपक । माघमंदि मुनिकृत जयमाला, सिद्धांतसार संग्रह, कथाकोश आराधना । वनारसीविलास २२९ वसुनंदिश्रावकाचार, भद्रबाहुचरित्र प्रश्नोत्तरोपासकाचार फुटकर गाथायें, उत्तरपुराण, पद्मपुराण, आराधना कथाकोश पार्श्वनाथ पुराण, षट्पाहुड भद्रबाहुचरित्र, नीतिशतक, हरिवंशपुराण, लघु हरिवंशपुराण २५१ बोध पाहुड, योगसार, वाणिक्य जैनगीता, श्वेतांबरोंका गाथा 'भाषाछंद श्वेताम्बर सूत्र महान् सीतसूत्र, भत्तपत्तसूत्र, मातृधर्मकथासूत्र प्रश्नव्याकरणसूत्र, दशवेकालिकसूत्र सुदर्शन चरित्र, महावीर चरित्र, आसकाध्ययनसूत्र, णमोधुणं ज्ञातुस्वरूप, आवश्यक सूत्र, रायसेणीसूत्र, समवायसूत्र, सामायिक को पाटी जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, लघु चोणिक्य । २३. त्रिलोकसार । मोक्षशास्त्र २३१ फुटकर श्लोक [ १४ २३२ आदिपुराण लघुआदिपुराण सिद्धांतसारदीपक, पार्श्वपुराण २५२ शिवपुराण, प्रभासपुराण, भर्तृहरि काव्य दक्षिणमूर्ति, सहस्रहरिवंशपुराण, शांतिपाठ २३३ नोतिसार २३४ नोतिसार धर्मरसिक नाम महिम्नस्तोत्र ( दुर्वाण कुल ) भागवत नगरखंड २४८ सार चतुविदातिका २४९ वसुनंदिश्रावकाचार, अन्य श्रावकाचार, धर्मामृत श्रावकाचार धर्मोपदेश, पीयूषवकर, श्रावकचार, नीतिसार, कुन्दकुन्द २५० पद्मनंदिपंच विशतिका ज्ञानार्णव, आत्मानुशासन, ज्ञानतरंगिणी स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाकी टीका, तत्त्वज्ञानतरंगिणी २५३ महापुराण २५४ कालज्ञान, नीतिशास्त्र । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चा विषय सूची चर्चा संख्या पृष्ठ संख्या चर्चा संख्या चर्चा पृष्ठ संख्या १ अष्टमंगल द्रव्य कौन कौन हैं। ४ | २० मुनि भोजनके समय हाथ क्यों मिला लेते हैं। २ श्री महाबीर स्वामोने जम्मकल्याणकके समय इन्द्रका संदेह २१ मालामें १०८ हो दाने क्यों होते हैं दूर करनेके लिये अपने पैरका अंगठा दबाकर मेरु पर्वतको २२ जपमें मालाको किस प्रकार जपना चाहिये कंपायमान किया या नहीं? २३ जपमें णमोकार मंत्रका जप किस प्रकार करना चाहिये। २५ ३ भगवान के माता पिताके नीहार है या नहीं? ६ | २४ जपके बाबिक उपांशु और मानस भेदोंका स्वरूप क्या ४ केशलोंचमें कहाँके केशलोंच होते हैं और कहाँक नहीं | है। ये जप किसके लिये किये जाते हैं और इनका क्या फल है २५ ५ तीर्थकर पंचमुष्टि लोच कहाँका करते हैं । २५ जप किस आसन पर बैठकर करना चाहिये ६ काटिशिला कहाँ है? २६ जप कहां करना चाहिये । ७ मुनिराज बिना पीछीके चलें या नहीं? २७ जप करते समय, विघ्न आ जाय तो उसका प्रायश्चित्त ८ मुनिराज जलमें प्रवेश करें या नहीं, नावमें बैठे या नहीं १० । क्या है। ९ खरदूषणके पास चौदह हजार विद्यायें थीं या नहीं ११ | २८ बाईस परोष किस किस कर्मके उदयसे होती हैं १० लंका लवणोदधिमें है या उपसमुद्र में |२९ मुनिराजके एक समय में अधिकसे अधिक कितनी परोषह ११ अरहंत देवको पूजा न करनेवाला और पात्रदान न देनेवाला होतो हैं किस योग्य है। १३ । ३० बाईस परीषह किस गुणस्थानमें होती हैं १२ श्रावकोंको प्रातःकाल सबसे पहिले क्या करना चाहिये १४ २१ चारों गतियों में रहनेवाले जोबोंके किस किस परीषहका उदय है ३४ १३ जो देवदर्शन किये बिना ही भोजन कर लेते हैं वे कैसे हैं ? १५ । ३२ जीवोंके निकलन्पर भी निगोदराशि घटती क्यों नहीं तथा १४ केवलीके ९ लब्धियाँ हैं परन्तु उनके दान भोग आदि हैं जोगेंके जानेपर भी सिद्धराशि बढ़ती क्यों नहीं या नहीं ? ३३ यम नियमका स्वरूप क्या है १५ सामान्य केवलीको नमस्कार किस प्रकार करना चाहिये। १६ ३४ अबासका लक्षण क्या है। १६ सामान्यकेवलोकी गंधकुटीमें गणधर होते हैं या नहीं १७ | ३५ यदि उपवास में जल पी ले तो उसका फल क्या है १७ सामान्य केबलीको गंधकुटीमें मानस्तंभ होता है या नहीं १७ । ३६ पंचोपचारो पूजाका स्वरूप क्या है १८ तीर्थकरके समवशरणमें जो गणधर केवली ऋद्धिधारी आदि ३७ देवपूजाको छह क्रियाएं कौनसो हैं की संख्या बतलाई है वह समवसरणको है या उनके ३८ सिद्धालय कहाँ हैं, वात वलपमें या वात वलयके ऊपर समयको १८ | ३९ सिद्ध जीव वात वलयसे आगे क्यों नहीं जाते १९ इस पंचमकालके मुनि कहाँ ठहरें १८ । ४० ध्यानको स्थिति कितनी है Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चा 22 र परोक्ष कौन हैं कितनी ५२ शेनोंको आ पर्चा संख्या चर्चा पुष्ठ संख्या पर्चा संख्या पृष्ठ संख्या ४१ चारों आश्रम कौन हैं उनका क्या स्वरूप है | ५९ अवसर्पिणी कालमें मनुष्योंकी आयु किस हिसाबसे घटती। ४२ ब्रह्मचारी किस रंगके वस्त्र या लंगोट रखें। ५७ ४३ केवलिसमुद्यात किस गुणस्थानमें होता है ६. पंचम कालके उत्पन्न हुए जोव मरकर विदेशमें उत्पन्न ॥ जिन प्रतिमाके अगल बगल लक्ष्मी सरस्वतीकी मूर्ति रहती होकर मोक्ष जा सकते या नहीं ऐसे १ भवावतारो जीव है सो ठीक है या नहीं हैं या नहीं पांचों ज्ञानोंमेंसे प्रत्यक्ष कौन है और परोक्ष कौन हैं ४९६१ढाई द्वीपमें चक्रवतियों की संख्या कितनी होती है ४६ सिद्धपरमेष्ठोको अवगाहना अंतिम शरीरसे कितनी । ६२ स्वर्गलाकमें सम्यग्दृष्टी और मिच्यादृष्टी जीव उत्पन्न होते हैं दोनोंको आयु समान होतो है या हीनाधिक बारहवें ४७ पैंतालीस लाख योजनके पाँच स्थान कौन कौन हैं स्वर्ग तक आयु क्यों बढ़तो है ४८ एक एक लाख योजनके तीन स्थान कौन कौन है आयुके दो भेद हैं निधित निःकांचित सो इनमेंसे किस आयु ४९ अनंतानंत सिद्धोंसे भी सिद्धशिला भरतो क्यों नहीं बालेस स्थिति घटतो बढ़ती है। ५० मुनिराज आहारके समय कौनसी मुद्रा धारण करते हैं ९२ | ६३ भवनत्रिकको आयु किस प्रकार घटती बढ़ती है। मुनिराज आहारके लिए श्रावकके घर जाकर बिना पडगा. ६४ मरनेके समय सम्यग्दृष्टो देवोंकी माला मुरझाती है या हन किये कितनी देर तक हर सकते हैं नहीं ५१ भगवान के जन्म समयसे पहिले पन्द्रह महीने तक जो रलों- १५ अता या खडाम पहिनकर मन्दिरमें जानेसे कैसा पाप की वर्षा होती है सो प्रतिदिन कितनी बार और किस किस लगता है समय । तथा कितने रत्नोंकी ५३ | ६६ देव शास्त्र गुरुको समुच्चय पूजामें सरस्वती और गुरुकी ५२ केवली भगवानको दिव्यध्वनि प्रति दिन कितनी बार | पूजा किस किस दिशामें करनी चाहिये खिरतो हैं ५३ | ६७ मुनिराज उपशमश्रेणो कितनी बार चढ़ते हैं ऐसे मुनि कितने ५३ स्वयंभूरमण समुद्रका शालिसिक्थ मत्स्य बिना हिंसा किये ___ समय तक संयम धारण करते हैं और कब मोक्ष जाते हैं। सातवें नरकमें क्यों जाता है | ६८ मुनिराजके आहारके समयका प्रमाण क्या है ५४ नाभिरायको रानो मरदेवीका विवाह हुमा था या नहीं। ६९ पुलाकादि मुनियोंके कौन कौन गुणस्थान होते हैं। किस युगलियाकी स्त्रोसे विवाह हुमा या | ७० एक दिनमें एक महीनेमें एक वर्ष में मनुष्योंके कितने श्वा५५ युगके प्रारम्भमें अयोध्याकी रचना किसने की सोच्छवास होते हैं। ५६ क्या भरत चक्रवर्तीके तीन करोड गायें पों ७१ एक सौ सत्तर विजयाओं पर रहनेवाले विद्याधरोंकी आयु ५७ क्या भरत चक्रवर्तीके एक करोठ चालियां थीं | काय समान होता है या होनाधिक ८ स्नानके कौन कौन भेद हैं ७२ गर्मज जीवों में मनुष्यको उत्पत्ति किस प्रकार होती है ६७ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चा संध्या पुष्ठ संख्याबळ संख्या पृष्ठ संख्या #. एकही गर्भमें स्त्री पुरुष नपुसक कैसे होते हैं, एक स्त्रीके दो । ९० ऐलक श्रावकको किस प्रकार भोजन करना चाहिये। १० बालक किस प्रकार होते हैं । ९१ असंख्यात समुद्रोंमेंसे किन किन समुद्रों में जलचर ७४ इस मनुष्य के शरीरमें क्या-क्या पदार्थ है जोव है और किनमें नहीं। ७५ तीर्थकर गृहस्थावस्थामें अवधिज्ञानको विचार या नहीं ९२ संसारी जोव एक अन्तमुहर्तमें उत्कृष्ट जन्म मरण ७६ क्या देवों में भी दुर्गति जातिके देव होते हैं। कितने करता है। ७७ आत्माके तीन भेद कौनसे हैं। ९३ चौबीस तीर्थकरोंमसे बालब्रह्मचारी तीर्थकर कौन कौन हैं १०२ । ७८ जीवोंके भाव कौन कौन हैं और उनका स्वरूप क्या है। ५४ लवणोदधि, कालोदषि और स्वयंभरमण समुद्रका जल ७९ नारकी और सम्पूर्छन जीवोंके कौनसा लिंग होता है। ७७ सारा है बाकीफे समुद्रोंका जल केसा है। घृतोदधि क्षीरो. ८० शिशुपालने कृष्णको कौनसी सौ गालियां दी । दधिका स्वाद घी व दूधके समान है या ईखके समान १०३ ८१ ढाई द्वीपके विद्याधर और चारणऋविषारी मानुषोत्तर ९५ भवनत्रिक देव ऊपर कहाँ तक जाते हैं १०४ पर्वतसे आगे क्यों नहीं जा सकते ७९ | १६ वासुपूज्य स्वामी चंपापुरसे मोक्ष पधारे या मंदारगिरि जब ये लोग मेरु पर्वतके शिक्षर सक निन्यानबे हजार | पर्वतसे । योषन तक चढ़ जाते हैं परन्तु सत्रहो इकईस योजन | ९७ पात्रदान कुपात्रदानका फल तो सुना है परन्तु लोभी को ऊंचा मानुषोत्तर क्यों नहीं पार किया जाता। ८० दिया हुआ दान कैसा। मुक्त ओक धर्मद्रव्यके अभाव से लोकके ऊपर नहीं जाते | ९८ दर्शन शान जोदका लक्षण है चारित्र किसका लक्षण है। १०१ परन्तु मानुषोत्तरके बाहर न जामे में क्या कारण है। ९९ इस पंचम काळमें मुनि कौनसे स्वर्ग तक खा सकते हैं) १०७ ८२ पुण्यका विशेष स्वरूप क्या है। १.. मिष्यावृष्टियोंके बाझ चिन्ह कौन कौन हैं 1८३ दिव्रत और देशव्रतमें क्या अन्तर है। १.१ सम्यग्दृष्टियोंके विशेष चिन्ह क्या हैं। ८४ हिंसाका त्याग और उसका ज्ञान किस प्रकार है १०२ समवशरमके मानस्तंभादिककी ऊँचाईका प्रमाण ५ हिंसाका फल हीनाधिक क्यों होता है क्या है। १०८ ८६ असत्य भाषणके त्यागोको कौन-कौन कथन नहीं कहने । १०३ नियनिगोद और इतर निगोदमें क्या अन्तर है १०३ क्या गंधोदक लगाकर हाथ धो डालना चाहिए ११ ८७ ब्रह्मचर्यको नौ बाढ़ और अठारह हजार भेद कौन । | १०५ कैसी प्रतिमा प्रतिष्ठा योग्य है फेसी नहीं है यदि प्रतिमा कौन । खंडित हो जाय तो उसकी पूजा स्तुतिका विषान किस। ८ भांग पीनेमें क्या दोष है प्रकार है ८९ संसारी जोव मरकर कितनी देर बाद नया शरीर वा १.६ इस पंचम कालमें साक्षात् केवली नहीं हैं फिर उनको आहार ग्रहण कर लेते हैं पूषा भक्ति किस प्रकार करनी चाहिए १०५ १०७ चाहिये। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चा संख्या पृष्ठ संख्या पर्चा संस्था पृष्ठ संख्या १०७ भरतने कितने ब्राह्मण बनाये ११७ चौदह मार्गणा और चौदह गुणस्थानों में सांतराके आठ १०८ पांचों महाविद्वानों में ब्राह्मण हैं या नहीं। सामायिक | भेद कौन हैं उनका स्वरूप संख्या विधान क्या है। १३१ छह भेद कौन-कौन हैं ११४११८ चक्रवती अचाका आदिक अनेक रानियों होती हैं और १०१ घरमें जो बारह अंगुल तककी प्रतिमा रहती है उनको वे पटरानीके महलोंमें रहते हैं फिर अन्य रानियोंक ऊँचाईका क्या फल है पुत्रादिक किस प्रकार होते हैं ११० तीसरे गुणस्थानमें न मरण है न वायुबंध है फिर तोसरे ११९ आहारक शरीरको उत्कृष्ट जघन्य स्थिति कितनी है १३४ गुणस्थान वाला मरकर अन्यगतिमें किस प्रकार १२० आहारक शरीरके समय मुनि गमनागमन करें या नहीं, जाता है विक्रिया ऋसिसे विक्रिया करें या नहीं १३४ १११ पकश्रेणी चढ़ने वाले योगीश्वरोके श्रेणी चढ़ते समय १२१ औदारिक, वैकियिक, आहारक, तेजस, कार्मणको उत्कृष्ट कौनसा संहनन होता है। जघन्य स्थिति कितनी है। ११२ अविका आचार्य, साधुओंको वंदना किस प्रकार करती है। कितनी दूरसे करती है | १२२ एक एक देवके कमसे कम और अधिकसे अधिक कितनो। १२३ सदाशिव आदि अन्य मत वाले जीवका स्वरूप किस देवांगनायें होती हैं। प्रकार मानते हैं। | १२३ नरक और देवदतिमें कषायोंके उदयकालकी जघन्य ये सब वेदको मानते हैं फिर सबका मत विरुद्ध क्यों है उस्कृष्ट स्थिति कितनी है। इनमें विरोध कहाँ कहाँ है। १९ | १२४ परिहारविशुबि संयमका स्वरूप निरक्ति उत्पत्ति आदि १४ श्री सम्मेदशिखरको यात्राका सबसे उत्कृष्ट फल क्या है १२४ क्या है। वर्षाऋतुमें जघन्य साधु भी गमन नहीं करते फिर अभव्यको यात्रा क्यों नहीं होती। १२८ परिहार विशुद्धि वाला क्यों करता है। १३६ जिस भव्यने नरकायुका बंष कर लिया है उसको यात्रा होतो है या नहीं। १२५ इन्द्रियोंके विषय कहीं तेईस और कहीं सत्ताईस लिखें कैसे वस्त्र पहिनकर यात्रा करनी चाहिये १२९ है सो इनमें विशेषता क्या है। रावणमे नरकायुका वध कर लिया था फिर भी वह । १२६ नारकियों के शरीरका रंग कैसा है। यंदनाके लिए गया था। १२९ १२७ पृथ्वीकायादिक जीवोंके शरीरका रंग कैसा है ११५ निवल्पपर्याप्तक, लब्ध्यपर्याप्तक किस कर्मके उदयसे । १२८ विग्रहगतिमें रहने वाले अनाहारक जीवोंके कार्मण योग १२९ के शरीरका वर्ण कैसा है ११६ निवस्यपर्याप्तक लन्ध्यपर्याप्तकके कौनसा गुणस्थान । १२९ मिश्रयोग वाले जीवके शरीरका बर्ण कैसा है होता है। १३१ | १३० कृष्णादि छहों लेश्यावालोंके लक्षण क्या क्या है १४. १३९ Human Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ बा संख्या पृष्ठ संख्या संख्या ११चारों हो गलिवाले जीवोंके वर्तमानकी अपनी आयुमें यदि वेदो तीन चार हाथ ऊँची बना लो जाय और अन्यगतिका म्युबंध किस कालमें होता है और किस फिर खड़े होकर पूजा की जाय तो क्या दोष है। किस आयुका होता है। १४२ पूजाका फल तो भावोंसे लगता है फिर इतना विवाद १३२ दशलाक्षणिक आदि व्रतोंके पूर्ण होनेपर प्रतिष्ठा क्यों करना चाहिये। पूर्वक उद्यापन करनेकी आज्ञा है यदि किसीसे प्रतिष्ठा १४१ पूजा करनेवाला पूजनके लिये वस्त्र किस प्रकार न हो सके तो वह व्रतोंको किस प्रकार करे धारण करता है। १३३ यदि कोई व्रत कुछ दिन करनेके बाद छूट जाय तो १४२ वस्त्रों में ऐसा कौनसा दोष है जिसके कारण उसे छोड़ उसका क्या प्रायश्चित्त है। दुबारा पालन करनेको देना चाहिये। विधि क्या है। । १४३ त्रिकाल पूजाकी विधि क्या है। व्रत भंग करनेसे कौनसा पाप लगता है। १४४ पायंकालको जो दीप चूपसे पूजा की जाती है उसकी १३४ भगवानकी पूजा निक्षेप विधियोंसे किस प्रकार की विधि क्या है। जाती है। १४६ | १४५ भगवान की पूजामें कैसे पुष्प चढ़ाने चाहिये और तसे । १३५ इस पंचम कालमें अतदाकार स्थापना करनी चाहिये नहीं। या नहीं। पुष्प किस प्रकार बढ़ाने चाहिये। १३६ भगवानकी पूजाके समय स्नानादि किस विधि से करने १४६ प्रात:कालकी पूजामें जल चंदनसे हो पूजाका विधान चाहिये। बतलाया परन्तु पूजा अष्ट द्रव्यसे करनी चाहिये। १३७ दक्षिण, पश्चिम वा विदिशाओंको ओर मुंह करके जब विधान जल चंदनसे है फिर अष्ट द्रव्यसे कोन भगवामकी पूजा क्यों नहीं करनी चाहिये। १५३ करेगा। ११८ भगवानको पूजा बैठकर करनी चाहिये या खड़े होकर । १५५ | १७ भगवानका ध्यान और वंदना किस विषिसे करनी खड़े होकर पूजा करनेमें क्या दोष है। १५७ चाहिये। १९ बैठकर पूजा करने में पूजा करने वालेको दृष्टि भगवान- १४८ स्त्रियों के लिये ध्यान वंदना करने की विधि क्या है। के ऊपर नहीं रह सकती क्योंकि भगवान ऊँचे १४९ गृहस्थों को जो पहले पूजा करनेको विधि बतलाई है विराजमान रहते हैं और बैठकर पूजा करने वाला वह संक्षिप्त विधि है इसकी विशेष विधि क्या है। नीचा रहेगा। इसलिये बैठकर पूजा करना ठोक ईयर्यापथ शुद्धि पाठ दर्शनपाठ १४. यदि प्रतिमाजी सेल हाथको ऊंचाई पर न हो नोची पांतिचक्र पूजा हों तो क्या करना चाहिये। सकलोकरण विधान मागिन्यारा नहीं। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ 18. . N . - परी पृष्ठ संख्यापी संख्या पृष्ठ संस्था । अग्निमंडल यंत्र १७४ | १९२ मंगलाघ्य किसको कहते हैं जलमंडल यंत्र २०] १९ नंद्यावर्तक स्वस्तिक किसको कहते हैं अंग न्यास १७६ | १५४ आचमनको विधि क्या है दिशाबंधन १७७ १५५ नीराजन द्रव्यको विधि क्या है। कवच १५६ सौषधिमें कौन कौन औषधियाँ है आह्वान मुद्रासहित १७७ १५७ सिद्धचकके यन्त्रका स्वरूप क्या है स्थापना मुद्रासहित १५८ शान्तिचक्र यन्त्रका स्वरूप क्या है सन्निधिकरण महामहिम २५९ कलिकुदंश स्वामीका यन्त्र और उनकी विधि। १७८ १६. ऋषिमंडलका स्वरूप क्या है और उसका आराधन सरस्वती पूजा १७९ किस प्रकार है २०८ १७९ १५१ चिन्तामणि चाकका क्या स्वरूप है सिद्धार्थन १७९ १६२ मणधरवलय यन्त्रका स्वरूप तथा आराधन तिलक लगानेकी विधि किस प्रकार है। किसको किस प्रकार तिलक लगाना चाहिये १८० १६३ षोडसकारण यन्त्रकी विषि तथा पूजाकी विधि क्या है २१५ वस्त्राभरण पारण ११४ दशलामणिक धर्मके यन्त्रकी विधि तथा अर्चनादिकका अभिषेक विधि १८२ क्या स्वरूप है गुरुमुद्राका स्वरूप १८३ | शांतिचक्र स्थित देवताओंका पूजन १६५ रलत्रय यन्त्रको विधि तपा उसको पूजाको विधि क्या है २२२ मूल विद्याका जप १६६ पूजा यन्त्रोंमें मन्त्रोंमें ओं और ह्रीं सब जगह आते हैं जयमाला सो इनका स्वरूप क्या है, इनमें कौनसे परमेष्ठो हैं, शांतिपाठ कौनसे देव हैं, ये मन्त्र मुख्य क्यों हैं १२४ विसर्जन ओंकार पर अनुस्वार होना चाहिए अर्द्ध चन्द्राकार जिनालयमें जाकर पूजा करना कला कैसो बीजाक्षरोंका नाम जिनालयके कर्तव्य १६७ 'दर्शनं देवदेवस्य दर्शनं पापनाशनम्' इसमें दर्शन १९४ शब्द दो बार लिखा है इसलिए एक बारका दर्शन १५० अष्टांग पंचांग और पश्वर्वशायि नमस्कारका स्वरूप क्या है शब्द व्यर्थ है। यदि दर्तन शब्द निकाल दिया जाय तो अक्षर कम हो जाते हैं इसने मालम होता A १५१ अर्घ्य और पाच किसको कहते हैं है कि यह किसी साधारण विद्वानका बनाया है इ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चा ११ २७६ पुष्ठ संवा संध्या १५८ पहले पूजा में लिखा है कि पूजा करने पालेको भगवान यदि हम कोई महारम्भोंको छोड़कर थोड़ेसे आरम्भ वाले के चरण स्पर्शित गुष्पलाला कंमें धारण करती कार्य कर लेते हैं तो क्या हानि है २७२ चाहिए, प्रभुके चरण स्पर्शित दमका तिलक लगाना क्षीरकदंबकी कपा चाहिए वा सब शरीरमें आभूषणोंकी रचना करनी चाहिए इस पंचम कालमें जैन शास्त्रोंमें अनेक श्लोक मिला दिये तथा जिनपादार्चनके अक्षत ललाटमें लगाना चाहिए ऐसा हैं ऐसे कहनेवालेका समाधान लिखा है सो यह लिखना अत्यन्त विपरीत है इसमें प्रत्यक्ष हम लोग जल थोड़ा खरचते हैं तथा चढ़ाते नहीं, दीपक निर्माल्यका दोष आता है। निर्माल्यके समान और कोई जलाते नहीं, रात्रिपूजन करते नहीं, अच्छी बातें करते हैं, पाप नहीं इसलिए ऐसा कहना भी पाप है। भगवानके बुरी छोड़ देते हैं इसका समाधान २८१ चरणों में चन्दन लगाना चरणस्पर्शित पुष्पमाला पह- हमलोग जिनबिंबके चरणोंसे गन्धपुष्प हटाकर उसे नाना अत्यन्त विपरीत है इसलिए नहीं मानना निर्दोषकर पूजा करते हैं इसका समाधान २८२ । चाहिए अभिषेक करना जन्मकल्याणका कार्य है इसका यदि कोई तिलकन करे तो क्या दोष है २४२ समाषान २८५ भगवानके चरणोंपर गंध लगाना सरागातका कारण १६९ पूजामें वर्भ डाम दूध गोमय भस्मपिक सरसों आदि पदार्थ अनेक दोष उत्पन्न करने वाला है २४३ लिखे हैं सो ये पदार्थ तो अपवित्र हैं हिसा आदि अनेक भगवानके चरणों पर गन्ध लगाना कहाँ कहा है २४३ दोषों से भरे है इसलिये इमको पूजामें क्यों लेना हमारे भाव भगवानके चरणों पर चंदन लगानेके नहीं हैं चाहिये । तथा पूजाके अष्ट द्रव्य कौन कौन हैं ३०२ तो वैसे ही पूजा करनेमें क्या हानि है दाभके मैद ३०६ भगवानके चरणों पर चन्दन लगाने और पुष्प चढ़ानेका १७० पूजाकी विधि में यक्ष, यक्षिणो, असुरेंद्र, इन्द्र, दिकपाल, कथन महापापरूप है इसी प्रकार कोई-कोई रात्रि पूजन नवग्रह, क्षेत्रपाल आदिका स्थापन पूजन लिखा है सो करना कहते हैं सो महापापका कारण है इसे नहीं मानना यह तो जैनियोंके करने योग्य नहीं है यह तो मिथ्याचाहिए। दृष्टियोंका काम है। यह तो मिथ्यावृष्टियोंने मिला मनि बनमें हो रहते हैं मन्दिरोंमें नहीं इसका समाधान २५५ दिया है सम्यग्दृष्टि तो प्राणान्त होनेपर भी इनकी सचित्त पूजाका साधन पूजादिक नहीं करता इसका समाधान अभिषेकादिमें महारम्भ होता है इसका समाधान २५७ शास्त्रोंमें लिखा है तो हम क्या करें हम कुदेवोंको अचित्त द्रव्योंमें निरबा पूजा हो सकती है फिर क्यों नहीं मानते। नहीं करनी चाहिये। २१७ | ११ मंत्र शब्दका अर्थ क्या है अभिवेकका वर्णम शास्त्रोंमें कहा लिया है १८५२ पूजा करनेवाला कैसा होना चाहिये ARRAJanाचनाचामनाribe माहिए २१६ . Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२] ?=====V7 — पृष्ठ संख्या ३१४ चर्चा संख्या चर्चा १७३ कैसे पुरुषको पूजा नहीं करनी चाहिये fife के मार्गको न जाननेके लिये पूजा करने का निषेध लिखा सो इसका क्या कारण है जनसंहिताका अर्थ क्या हैं १७४ यदि पूजा करनेके योग्य मनुष्य न मिले और अयोग्य मनुष्य पूजा कर ले तो क्या हानि है नित्यपूजा और प्रतिष्ठादि करनेवालों १७५ पूजा करते समय यदि किसीके हाथसे प्रतिमा पृथिवीपर गिर जाय तो उसका प्रायश्चित्त क्या है १७६ यदि पूजा करते समय मंत्रपूर्वक नैवेद्यादिक चढ़ाने में किसीसे वह नैवेद्यादि पृथिवी पर गिर जाय, नियत स्थानपर न चढ़ाया जा सके तो उसका क्या प्रायश्चित है। १७७ यदि कोई होन जातिका अस्पृश्य मनुष्य जिनबिन का स्पर्श कर लेवे दो उस मूर्तिका क्या करना चाहिये १७८ यदि स्पृश्य मनुष्य बिना स्नान किये जिनप्रतिमा का स्नान कर लेवे तो क्या करना चाहिये १७९ यदि किसीके हाथसे प्रतिमाका भंग हो जाय तो क्या करना चाहिये १८० यदि क्षेत्रपालादिक यक्षोंको पूजाका द्रव्य गिर जाय तो क्या करना चाहिये १८१ यदि जिनमंदिरमें हड्डी, मांस आदिके गिर जानेसे वह दूषित हो जाय अथवा उसमें चांडाल आदि अस्पृश्य मनुष्य घुस जांय तो क्या करना चाहिये १८२ भगवानको पूजा तीनों समय की जाती है यदि किसी समय वा दो समय वा एक दो चार आठ पंद्रह दिन एक महीने आदि तक प्रतिभाजीकी पूजन न हो तो क्या करना चाहिये । ३१६ ३१६ ३१७ ३१५ ६१८ ३१८ ३१९ ३१९ ३२० ३२० ३२० ३२१ चर्चा जो लोग इसके सिवाय और प्रायश्चित्त लेते हैं उसमें क्या हानि है चर्चा संख्या पृष्ठ संस्था १८३ यदि कोई मनुष्ध प्रायश्चित्तको विधि न करें तो क्या हो १८४ यदि किसी श्रावक-श्राविकासे अनाचार व हीनाचार बन जाय तो उसको क्या करना चाहिये । इस प्रायश्चिसमें गोदान बार ब्राह्मणोंको देना बत लाया है सो यह तो जैनधर्मसे बाह्य है ऐसा श्रद्धान मिथ्या है यदि सम्यग्दृष्टी ब्राह्मण न मिलें तो क्या करना चाहिये जिनमंदिरों में गोदान करना कहीं लिखा है। प्रायश्चित्त ग्रन्थों में शिर मुंडन क्यों लिखा है यह तो अन्य मतियों यहाँ है । १८५ मुनियोंके प्रायश्चितकी विधि क्या है १८६ अर्जिकाओके व्रताचरणमें कोई दोष लगे तो उसके प्रायश्चितकी विधि क्या है १८७ अर्जिका रजस्वला समय क्या करे १८८ जैनमत में गृहस्थोंके सूतक पातकके विचारकी विधि क्या है १८९ गोत्र वालेको सुतक किस प्रकार पालना चाहिये मुनिको अपने गुरु आदिके मरनेका सूतक किस प्रकार है तथा राजाके घर मृत्यु आदिका सूतक किस प्रकार है १९० गृहस्थोंके घर स्त्रियों रजस्वला होती हैं उनके योग्य अयोग्य अम्बरणकी विधि किस प्रकार है ३२२ ३२३ १२४ ३१० ३३१ ३३१ ३४१ ३४१ ३५८ ३५८ ३६० ३६२ ३६२ ३६३ SHRE [ २२ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ बळ संख्या पर्चा पृष्ठ संख्याबळ संख्या पृष्ठ संख्या १९१ यदि रजस्वला स्त्रीके पास मालक हो तो उसके स्पर्शा- | कुलकरोंको मनु कहते है सो कुलकर और मनुको निरुक्ति स्पर्शको शद्धि किस प्रकार दै ३९८ १५२ यदि रजस्वला रोगिणी हो, अशक्त हो तो उसको २०२ मिथ्यात्व आदि चौदहों गुणस्थानों में कौन कौन संहनन स्नानादिक किस प्रकार करना चाहिये होते हैं। ३७९ १९३ नब अनुदिशोंके नाम क्या हैं ३६.. | २०३ समवशरणमें जो अशोक, चंपक, आम्र, सप्तच्छद जातिके १९४ जिन देवोंको आयु सागरोंकी है उनका आहार उतने वृक्ष हैं सो सप्तच्छद कौनसा वृक्ष है। हजार वर्ष बाद और श्वासोच्छवास उतने ही पक्ष बाद २०४ पंच नमस्कार मन्त्र अनेक महिमामोंसे भरा है सो इसके होता है परन्तु जिनकी आयु पल्योंकी है उनके आहार अक्षरोंको रचनाका स्वरूप क्या है इसमें कौन-कौन देव हैं और श्वासोच्छवासका क्या नियम है किस धातुम बना है उनका क्या अर्थ है क्या फल है। ३८१ १९५ क्या तीसरे नरकसे निकले हुए जीव तीर्थकर हो २०५ तीर्थंकर आदि पदवीधर पुरुषों पर जो चमर हुलाये जाते सकते हैं ३७१ है उनका प्रमाण क्या है १९६ मनुष्य किस किस गतिसे आकर हो सकता है तथा २०६ स्वयंभूरमण द्वोप और समुद्रके पशुपक्षियोंकी आयु उत्कृष्ट किस किस गतिसे नहीं होता होती है परन्तु यहाँके पशुपक्षियोंको कितनो है ४०९ १९७ अन्यमतके तमसो परिव्राजक आदि जो कुतप करते हैं । । २०७ कोई कोई लोग कहते हैं कि मांस भक्षणमें कोई पाप नहीं वे मरकर ऊपर स्वर्गमें कहाँ तक जा सकते हैं। ३७३ है क्योंकि जिस प्रकार अन्न प्राणियों का शरीर है उसी १९८ क्या एफेन्द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय तकके सब जीव तोनों प्रकार मांस भी प्राणियोंका शरीर है, मांस खाने में एक लाकमें भरे हैं जीवको हिसासे अनेक जीवोंका पेट भर जाता है और पहले लिखा है कि देवोंके केश उत्पन्न नहीं होते सो केशों अन्न खान्से अनेक जीवोंसे एक मनुष्यका पेट भरता है में ऐसा क्या दोष है इसलिए मांस भक्षणका निषेध करना ठीक नहीं है। क्या बिना केशोंके देवोंका मुंह बुरा मालूम होता है ३७६ इसका समाधान २०० आश्रमों में रहने वाले स्यागी गृहस्योंके बालकों को पांच वेद आदि शास्त्रों में लिखी हुई हिंसाका निषेध उदंबर और मद्य, मांस, शहदका त्याग करा देते हैं परन्तु श्रावके लिये को हुई हिंसाका निषेध कितने ही अनाचारी किसी रोगमें वैद्योंके कहनेसे औषधि क्षत्रियों का धर्म मांस खाना शिकार खेलना नहीं है में शहद खा लेते हैं सो क्या ठोक है। ३७६ परमतके ग्रन्थोंसे मास्का निषेध ४१९ शहदके बदले क्या लेना चाहिये। आयु पूर्ण हुए बिना जीव मरता हो नहीं इसका समाधान ४३५ । २०१ कोई कोई लोग ऋषभदेव तीर्थकरको तथा भरत चक्र यह जीव पंच तत्वोंसे बना है इससे हिंसा अहिंसा कोई वर्तीको भी कुलकर कहते हैं सो क्या यह ठीक है ३७८ चीज नहीं है इसका समाधान M १३ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] चर्चा संख्या wwf शक्तिके लिये जीव मरनेका समाधान दूध, दही आदि मांस समान नहीं है अपने आप मरे हुए जोव खाने में पाप नहीं इसका समाधान पृष्ठ संख् ४४० Yo मांस खानेमें पाप है मारकर ४४१ २०८ कोई कोई कहते हैं कि ज्ञान दर्शन दोनों एक हैं भिन्नभिन्न नहीं है इसलिए केवली भगवानके अनन्तचतुष्टय नहीं बन सकते । Ye यदि केवली भगवान त्रिकालवर्ती पदार्थों को देखते जानते हैं और फिर भी नरकादिके जोवोंका उद्धार नहीं करते, उनका दुख दूर करनेके लिए अवतार नहीं लेते तो कहना चाहिए कि वे बड़े निर्दयी हैं उन्हें हमारे ईश्वरके समान अवतार धारणकर सबकी रक्षा करनी चाहिये ४४४ २०५ कोई कहते हैं कि तुम्हारे निच गुरु प्रत्यक्ष रागी द्वेषो हैं ૧ जो नवधा भक्ति करता है उसके यहाँ बाहार लेते हैं जो 'नमोस्तु' नहीं करता उसके घर आहार नहीं लेते हैं यह उनका अभिमान या रागद्वेष है इसका समाधान २१० मुनिराज अपने पास सदा पोछी रखते हैं उसके वियोग में वे प्रायश्चित लेते हैं सो पोछी में ऐसा क्या गुण है २११ सिद्धक्षेत्रमें सबसे पहले कैलाश बतलाया है जहाँसे ऋषभदेव मोक्ष गये हैं तथा उसपर भरत चक्रवतीने बहत्तर चैत्यालय बनाये हैं तथा अन्यमती भी कैलाशको मानते हैं सो यह कहाँ है. ४४६ ४४७ २१२ शास्त्रों में पुरुषोंका उत्कृष्ट आहार बत्तीस ग्रास तक बतलाया है इसी प्रकार स्त्रियोंके बाहारका प्रमाण क्या है एक प्रासका प्रमाण क्या है 4 ४४८ चर्चा संपा चर्चा पृष्ठ संख्या २१३ कोई कोई कहते हैं कि विदेहोष में तीर्थंकरोंके पंचकल्याणकोंका नियम नहीं है ज्ञानकल्याणक और मोक्षकल्याणक दो ही कल्याणफोंसे तीर्थंकर कहलाते हैं सो क्या ठोक है पांडुक शिलाएं किस रंग को हैं किसी तोर्थकरके मोक्ष जानेके बाद किसी मुनिके सोलह कारण भावनाएँ पूर्वक केवलज्ञान हो जाता है और वह तीर्थंकर कहलाता है उसका नाम पहिले तोर्थर रख लिया जाता है इस प्रकार तोर्थङ्कर परंपरा बराबर बनी रहती है इसका समाधान ४४ 888 ४५० २१४ भगवान सीकर के जन्माभिषेकके समय इन्द्रकी सवारीके आगे थे साथ प्रफारी सेवा मुधानुवाद करती चलती है वह किसके गुण गाती है दे देव किस-किस स्वरसे गुणानुवाद करते हैं २१५ सातों हो नरकोंमें कोई महापापी जीव अलग-अलग नरकों में उत्कृष्टता कर कितनी-कितनी बार जन्म धारण करता है । नरकसे निकलकर किन-किन गतियोंमें जन्म लेता है २१६ सातों नरकोंमें चौरासीलाल बिले कभी खाली रहते हैं या नहीं या उनमें नारकी सदा उत्पन्न होते रहते हैं २१७ स्वर्ग में देवोंके उत्पन्न होने में कितना अन्तर रहता है २१८ नरक और स्वगमें कौन-कौनसे सालकी प्रवृत्ति रहतो है ४५५ २१९ स्वर्गके विमान आकाशमें किसके आधार पर स्थिर हैं ४५६ यह लोक किसके आधार पर है ४५६ २२० पंचमकालके अन्त में जो एक मुनि, एक अर्जिका, एक श्रावक, एक श्राविका रहेगी तो उनका क्या नाम होगा ४५७ ४५१ ४५२ ४५२ ४५३ ४५३ ૧૪ २४ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२७] ४५८ ची संख्या पृष्ठ संख्या पाया इनका मरण किस महीनेको किस तिमिमें होगा ५७ श्री पावनायके तपश्चरण करते समय उपसर्ग हुवा २१ असुरकुमारोंके इन्द्र, चमरेन और वैरोचन, सौधर्मेन्द्र था और उपसर्गके समय धरणेंद्र पद्मावतीने उनके मस्तक और ईशानेन्द्रसे युद्ध करने गये थे तब उन्होंने वन पर उस उपसर्गको दूर करने के लिये सर्पका फण बनाया प्रहार किया था और फिर वे दोनों भागकर पातालमें पा तदर्नर भगवानको केवलज्ञान उत्पन्न हुमा । केवलछिपे थे सो क्या यह कहावत सत्य है ज्ञानके समय फणा नहीं रहा था तथा मति केवलज्ञानके यह कहावत दिगम्बर आम्नायमें प्रसिद्ध क्यों है ४५८ समयको बताई जाती है और उस समय उनके मस्तक १२२ भवनवासो, व्यन्तर, ज्योतिषो देव किस तपसे होते हैं ४५८ पर फणा या नहीं फिर अब उनकी मूर्तिपर फणा क्यों २२३ चतुर्णिकाय देवों में महा ऋद्धियोंको धारण करनेवाले बनाया जाता है। इन्द्रादिक देव अपने आयु पूरीकर किस गतिको प्राप्त होते हैं हम तो परीक्षाप्रधानी हैं आज्ञाप्रधानी नहीं है इसका समाधान २२४ इस मध्यलोकमें जंबूद्वीपसे लेकर स्वयंभूरमण समुद्र तक २२९ पहिले हंगावसर्पिणो कालदोषसे विपरीत आदि पांच कालचकका वाव किस प्रकार है अर्थात् सुखमासुखमा प्रकारके मिथ्यात्व बतलाये सो इन पांचों मिथ्याखोंका आदि छहों कालोंमेंसे कौन-कोर का कही पसंद है । स्वरूप क्या है। २२५ यह ीय पात्रदानसे तो उत्कृष्ट वा मध्यमादिक भोग मिथ्यात्वोंकी उत्पत्ति भूमियोंमें जन्म लेता है परन्तु कुभोगभूमियोंमें किस सूर्यपूजाको उत्पत्ति कारणसे उत्पन्न होता है ४६२ जेनमतमें उत्पन्न हुआ विपरीत मिपाव २२६ मौनव्रतसे भोजन न करना सदोष बतलाया सो मौन | २३० ज्योतिषी देव मेरु पर्वतकी दक्षिणा देते हैं सो कितने कहाँ-कहाँ धारण करना चाहिये। । अन्तरसे देते हैं २२७ छठे कालमें मनुष्य कैसे होंगे तथा उनका व्यवहार कैसा । | २३१ सीसरे वर्ष में एक अधिक मास होता है इसको ज्योतिषी २२८ श्री महावीर स्वामोको तथा श्री पावनाष स्वामीको बादि सब मानते हैं सो जैनमतके अनुसार मानना ठीक है सपश्चरण करते समय उपसर्ग हुआ था परन्तु उस याना। समय तीनों लोकोंके इन्त्रोंको व चतुर्णिकायके देवोंको होनमास किस प्रकार होता है। मालूम नहीं हुआ था क्योंकि श्री पाश्वनाथ पर सात अधिकमासमें कार्य अकार्यकी विधि किस प्रकार है ५१५ दिन तक बराबर उपसर्ग होता रहा सात दिनके बाद २३२ तीर्थंकरोंके कल्याणकोंमें जो ऐरावत हाथी आता है वह घरणेंद्र पद्मावत्तो आये और उपसर्ग दूर हुआ मो धरणेंद्र एक लाख योजन ऊँचा है या एक लाख योजन उसका पधावती पहले क्यों नहीं आये। इसका कारण क्या है ४९४ विस्तार है। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२७ चर्चा संक्षणा बर्श पृष्ठ संख्याबळ संख्या पृष्ठ संस्था, भाषा मंगलमें उस हाथीके सौ मुंह बतलाए हैं सो गया २३९ तीर्थकर भगवान गृहस्थाश्रममें जन्म दिनसे लेकर दीक्षाठीक है समयतक नो वस्त्राभरण पहनते हैं सो देवकि वहसि बाये भाषामंगलोंको काष्ठ संघका किस प्रमाणसे कहते हो ५७ हुये पहनते हैं सो वे वस्त्राभरण पहनते आते हैं और उन्हें सिंहासन पर कमलका वर्णन और जगह मो आया है ५१८] कौन लाता है २३३ एक दिनके दोक्षित मुनिको सौ वर्ष की दीक्षित वर्जिका २४. इस समयके जिनाश्रमी भोजनके समय वस्त्रोंको उतारनमस्कार करे या नहीं कर नग्न होकर भोजन पाम करते हैं सो इसका क्या २३४ गृहस्थ वा मिथ्यादृष्टी वा स्पृश्य सूत्र वा अस्पृश्य शूद्र अभिप्राय है। मुनिराजको वंदना करते हैं सो मुनिराज सबको एकसी २४१ पांचों शानों से किसी एक जीवके एक ही समय में अधिकधर्मवृद्धि देते हैं अथवा और भी कुछ कहते हैं। ५१९ से अधिक कितने ज्ञान हो सकते हैं सब हो सकते हैं या २३५ श्रावक पुरुषोंको मुनियोंसे वा अजिंकाबोंसे नमोस्तु नहीं। किस प्रकार करना चाहिये २४२ चतुणिकाय देवोंके मैथुन किस प्रकार होता है किसके धावकोंको इच्छाकार बतलाया सो चौपे काल में किसने समान होता है। सबके समान होता है। या अलग किसकी किया है। ५२१ अलग रूपसे । परस्पर जो जुहार किया जाता है उसकी कथा क्या है ५२१ | र यदि किसी भुनिके घाव या फोड़ा हो जाय तो भगत २३६ श्वेतांबरी साधु मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमो श्रावकजन उसको अच्छा करनेके लिये किसो शस्त्रके दनासे जीवन पर्यंत छहों कायको हिसाके त्यागी होते हैं। द्वारा उसकी चीरफाड कर सकते हैं या नहीं, चीरफाड़ यदि वे मुंहपर पट्टो न लगावें तो पाठ करते समय का करनेसे उनको अधिक वेदना होगी सो करनी चाहिये बोलते समय बायु कायके जीव मर जार्य तो फिर उनके या नहीं ५२८ अहिंसा महाव्रत पल नहीं सकता इसलिये क्या मुंहपट्टी यदि उपाय करते हुये उसको वेदनासे मुनिका भरण हो लगाना दयाके लिये समझना चाहिये ५२२ । जाय तो पापका बंध होगा या नहीं २३७ श्वेतांबरी महाव्रतो साधुओंको अठारह कुलोंका आहार २४४ चावकिमतवाला आरमाको कोई अलग पदार्थ नहीं मानता लेना निर्दोष बताया है यदि किसी दातारका कुल शूद्र और सांख्यमतवाला उसे सदा मुक्त मानता है इसलिये हो तो क्या दोष है? ये दोनों ही मोक्षके उपायको व्यर्थ मानते हैं सो क्या २३८ इस चतुर्थकालमें जो धर्मका विच्छेद रहा था। मुनि ठीक है अजिंका, श्रावक-श्राविका नहीं रहे थे सो कौनसे समयमें २४५ तत्वोंका श्रवान करना सम्यकदर्शन बतलाया तथा किन तीर्थंकरोंके समय में और कितने काल तक विच्छेद उसकी उत्पत्ति निसर्ग और अधिगमसे बतलाई सो क्या रहा था ५२४। उसको उत्पत्तिके ये हो दो कारण हैं या और भी हैं ५२९ ३१ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पळ संख्या पृष्ठ संख्या | वो संख्या पृष्ठ संख्या २४६ धर्मध्यानके चार भेद हैं बाशाविचय, अपायविषय, विपाकः कर शुबोपयोगमय ग्रन्य मानने चाहिये, पुराणाविक गोष वित्रय और संस्थान विचय। इनके सिवाय धर्मध्यानके मानने चाहिये इसमें क्या हानि है। ५२८ ___और भेद कौन-कौन हैं वर्तमान समयके शास्त्रोंमें जो कथन है सो कहीं कहीं २७ पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत ये चार मेद कौन-कौन संदेह सहित है इसलिये वे पूर्ण प्रमाण नहीं कहे जा से ध्यानके हैं। सकते। २४८ ऊपर जो धर्मध्यानोंके भेद लिखे हैं सो किसकिस गुण निश्चयधर्मको माने बिना सम्यग्दर्शनको प्राप्ति किस स्थान में होते हैं ५३४ प्रकार होगो। इस समय जो लाखों जैनी हैं सो क्या बिना सम्यग्दर्शनके २४९ जो शुद्ध आत्मध्यानके वा शुद्धोपयोगके कारण हैं ऐसे धर्म पालन करते हैं। अध्यात्मरूप जैन सिद्धान्तोंके पढ़ने दा मुननेका अधिकार | २५१ जिन प्रतिमाके जंगम और स्थावर ऐसे दो भेद सुने हैं गृहस्थको है या नहीं। सो इसका क्या अभिप्राय है। गहस्थोंको सिद्धांत प्रन्योंके अध्ययन करनेका निषेध है ऊपर जो कथन किया है सो मूल पाथाओंका नहीं है सुननेन्बाचनेका निषेध नहीं है। टोकाका है इसलिये प्रमाण नहीं है। इसलिये हम अरहंत, श्रावकोंको सिद्धांत ग्रन्थोंके पठन-पाठनका तथा वीरचा सिका ती मानते है परन्तु उनकी प्रतिमाओं को नहीं प्रतिमा योग आदिका निषेध किया तो फिर श्रावकोंको मानते । धातु पाषाणको प्रतिमा मोक्षका कारण नहीं हैं करना क्या चाहिये केवल असमझ लोगोंके लिये है। आत्मज्ञानियों के लिये इस समय जो सिद्धांत ग्रन्य उपलब्ध हैं उनका निषेध नहीं। सो हो योगसारमें लिखा है, चाणिस्यमें लिखा है नहीं है। गृहस्थोंके न बाचने योग्य ग्रन्थ तो और इसलिये प्रतिमा मानना, उसकी पूजा करना व्यर्थ है ही हैं जो इस समय उपलब्ध नहीं हैं। जो मुनियोंके हो प्रतिमाकी पूजा करने में अनेक प्रकारको हिसा होती है। पढ़ने योग्य हैं जैसे एक अक्षर संयोगी दो अक्षर संयोगी धर्म अहिंसारूप है इसलिये प्रतिमापूजन धर्म नहीं है पाप तीन वा चार अक्षर संयोगी इस प्रकार चौसठ अक्षरके है इसका समाधान सँयोगो अक्षरोंके पढ़नेका निषेध किया है इसका नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आदि पूजाकों के भेद ५५० समाधान ५३७ लुकामत वा ढिया कहते हैं कि हमारे सूत्र में प्रतिना २५० यदि गृहस्थ सिद्धांत ग्रन्थोंका अध्ययन न करे तो उसको तथा मंदिर पूजाका निषेध किया है प्रतिमा पूजनमें शुद्ध आत्मज्ञान किस प्रकार हो । आत्मज्ञान के बिना शुद्ध हिंसादिक महापाप होता है जो प्रतिमा पूजन करते हैं वे ध्यान नहीं हो सकता। शुत ध्यान ही मोक्षका कारण कोयलेके लिये चंदन जलाते हैं मूर्ख हैं इसलिये प्रतिमाहै इसलिये अध्यात्म शानियोको व्यवहार धर्म न मान की पूजन करना भारी भूल है इसका समाधान AAROHALIFATRIETRO-माचार Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पळ संख्या पृष्ठ संख्या चर्चा संख्या पृष्ठ संख्या २१२ कोई कहते हैं कि जैनधर्म नास्तिक मत है इसलिये केबली प्रणीत धर्मका स्मरण किया सो इसमें माचार्य, प्रशंसनीय नहीं है। चाहे हाथीसे दबकर मर जामा उपाध्यायोंको क्यों छोड़ दिया इसका क्या कारण है। ५६७ चाहिये पर जैन मन्दिरमें नहीं जाना चाहिये। इसका चर्चासागर किन-किन अन्योंसे लेकर बनाया है इसमें समाधान अनेक ग्रन्थोंके श्लोक देकर शास्त्रको क्यों बढ़ाया, क्यों परिश्रम किया नाम ही कह देने ये ५७१ २५३ जैन ने सारः स्नान मजाले सो कोन यदि किसोके हृदय में प्रमाणरूप शास्त्रोंके वचनोंको देख कर भी संदेह दूर न हो तो क्या करना चाहिये अपनो २५४ नमस्कार मंत्रमें पंच परमेष्ठीको स्मरण किया परंतु लघुता पत्तारि मंगल आषि पाठमें अरहंत, सिख, साघु और मास्त्र बनाभेका कारण ५७२ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रजी बाँचनेसे पहिले बोलनेका मङ्गलाचरण ओं नम: सिद्धेभ्यः | ओंकरं विंदुसंयुक्त नित्यं ध्यायन्ति योगिनः।कामदं मोक्षदं चैव ओंकाराय नमो नमः॥१॥ अविरलशब्दघनौघप्रक्षालितसकलभूतलकलंका ।। मुनिभिरूपासिततीर्था सरस्वती हरतु नो दुरितं ॥ २॥ अज्ञानतिमिरांधाना ज्ञानांजनशलाकया। चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः॥ ३ ॥ परमगुरवे नमः, परम्पराचार्यगुखे नमः। सकलकलुषविध्वंसकं श्रेयसः परिवर्सक धनगदह भन्यजीवातिबोधकारकमिदं शास्त्रं श्रीचर्चासागरनामधेयं । । अस्य मूलग्रंथकर्तारः श्रीसर्वज्ञदेवास्तत्प्रत्युत्तरग्रंथकर्तारःश्रीगणधरदेवाः प्रतिगणधरदेवास्तेषां । वचोऽनुसारतामासाद्य श्रीपंडितचंपालालेन विरचितं । श्रोतारः सावधानतया शृण्वतु । मंगलं भगवान् वीरो, मंगलं गौतमो गणी। मंगल कुन्दकुन्दाद्या, जैनधर्मोऽस्तु मंगलं ॥ यामRAattatoesLANCELESEALIZERS Nam Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर [?] At The At T नोट-प्रासादन प्रातः पाठ करने स लाव आ नमः सिद्धेभ्यः स्वर्गीय पंडित चंपालालजी विरचित चर्चासागर हा मंगलाचरण चौपाई १ ॥ श्रीजिनवासुपूज्य शिवदाय | श्रीचम्पा कल्यान लद्दाय । विघ्नविदारन मंगलदाय । लो बंदी शरणाय सहाय ॥ बहूँ श्रीवृषभेष जिनेश । वर्द्धमान लगे पाय हमेश । श्रीमंधरादि जिन बीस । विनऊँ क्षिति घर कर पुनि शीस ॥ २ ॥ तीस चोइसी पद शिरनाय । नमूँ केवली शिवसुखदाय । सिवालयवासी श्रीसिद्ध । नमो॑ नमो॑ मुझ यो निज ऋद्ध ॥ ३ ॥ आचारज युत 'पंचाचार । पाठक सकल साधु गुणकार । ताके पदपंकज शिरनाथ | नमू शारदा शिव सुखदाय ॥ ४ ॥ १. प्रन्थकर्ताने अपना नाम 'चंपा' अर्थात् चंपालाल दिया है। तथा दूसरा अर्थ -- चपापुरमें श्रीवासुपूज्य स्वामी के पांचों, कल्याणक हुए हैं । २. तक | [१ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवसुखदायक है जिनधर्म । रत्नत्रयमय नठ अठकर्म। हैं त्रिलोकमें श्रीजिनरूप । जिनमंदिर पुनि विविध स्वरूप ॥ ५ ॥ कृत्रिम और अकृत्रिम सार। नमन भुवि कर शिर धार। चर्चासागर नाम सुग्रंथ । संशयनाशक सुर शिवपंथ ॥ ६ ॥ विरचूँ देखि सिद्धांत अनेक । अवर पुराणादिक सेविवेक । पंचमकालविणे जिनपंथ । संशयरूप लखे विन मर्थ ॥७॥ समझे विनसमझे बह लरें। हृ एकांत पक्ष धरैं। झगडतही सब जन्म गमाय । जिनश्रुतमर्म न रंच लहाय ॥८॥ यातें केतेइक जो भर्म । दूर करनरच सुमर्म ।। पंडित अवर इतरजन संहूँ।हँसियो मति यह लखि श्रुत कहूँ ॥ ६ ॥ व्याकरणादिक कोष सु छंद । अलंकार आदिक श्रुतवृद। सो मैं पढ्यौ न, मानों बात । यातैभूलि देखि क्षमि भ्रात ॥ १०॥ रागी द्वेषी परमें सुनी। उद्धत परमादी अर गुनी । हमपर क्षमियो सब मम मिंत । द्वेषभाव हरि रहौनिचिंत ॥ ११ ॥ हम परसंशय मेटनकाज । करें वचनिकारूप समाज । पंडित मूरख सबही पढ़ें । यातें जैनपंथ नित बढ़े ॥ १२ ॥ वोहा यह विचार इस ग्रंथक, रचूँ स्वपर हित काज। शारदको पुनि बंदिके, लहूँ श्रुतार्णव पाजे ॥ १३ ॥ देखकर । २. विचार । ३. ज्ञानी तथा अज्ञानी । ४. सब । ५. पाज-किनारा वा पार । REIयाचा मानना [२] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [३] सज्जन जनतें वीनती, करूँ सुनहु अल्पबुद्धि परमादतें, लिखूँ चूकि तो श्रुतधारी वीर तुम, दयाभाव use शुद्धकरि ग्रंथ, यह मम वच सुखदाय ।। १५ ।। मम भ्रात । अकुलात ॥ १४ ॥ उर लाये | इस प्रकार अपने इष्ट देवको अच्छी तरह नमस्कार करके या मंगलाचरण करके चर्चासागर ग्रन्थ लिखता हूँ । इस ग्रन्थके लिखनेका खास कारण यह है कि इस समय इस कलिकाल में मिथ्यात्व और तीव्र earth उदयसे तथा किन्हीं - किन्हीं सत्पुरुषों की भी बुद्धि भ्रष्ट हो जानेसे और पक्षपात बढ़ जानेसे जोवोंके हृदय में इस पवित्र जैन को अनेक प्रकारके संशय उत्पन्न हो गये हैं। जिससे वे पदार्थोके स्वरूपका श्रद्धान और ही प्रकार करने लग गये हैं। तथा जो अज्ञानो जन हैं, वे अपनी प्रवृत्ति अन्यथा रूप ( वा शास्त्राज्ञाके विपरीत ) करने लग गये हैं और ऐसे लोग अपना हठ किसी प्रकार नहीं छोड़ रहे है उन लोगों को समझानेके लिये अनेक जैन शास्त्रोंको देखकर यह निसंदेह चर्चा लिखता हूँ । इस चर्चा ग्रन्थके लिखतेमें मेरा और कोई खास कारण ( प्रयोजन ) नहीं है । जिस प्रकार पहले चर्चाशतक, चर्चासमाधान और चर्चा कोश आदि ग्रन्थ बने है उसी प्रकार यह चर्चासागर लिखा है । इसलिये हे सज्जन पुरुषो ! तुम इसे पढ़ो, सुनो। यह शास्त्र अपने और दूसरोंको समझनेके लिये सबका हित करनेवाला समझ कर लिखा है । इस शास्त्रको समुद्रकी उपमा दी है सो जिस प्रकार समुद्र अगाध है उसी प्रकार इस शास्त्रमें जिनवाणीका रहस्य अगाध है। जिस प्रकार समुद्रके वो तट वा किनारे हैं, उसी प्रकार इस शास्त्रके भी आदि अन्त बो तट हैं। जिस प्रकार समुद्र मर्यादासहित है उसी प्रकार यह ग्रन्थ भी आचार्योंके वचनोंकी आम्नायरूपी मर्यादा कर सहित है। जिस प्रकार समुद्रमें अनेक पर्वत और द्वीप है उसी प्रकार इस शास्त्ररूपो समुद्र में भी अनेक प्रश्न रूपी ऊँचे ऊँचे पर्वत है तथा उनके उत्तररूपो अनेक द्वीप हैं। जिस प्रकार समुद्रके द्वीपाविकोंमें अनेक रन आदि पदार्थ भरे हुए हैं उसी प्रकार इस ग्रंथ में भी भगवान् जिनेन्द्रके गुणोंको प्रकाशित करनेवाले अनेक रत्न हैं। जिसप्रकार समुद्र में अनेक तरंगें उठती हैं उसी प्रकार ग्रन्थमें भी अनेक शंका समाधानरूपी तरंग हैं । [३ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [ ४ ] समुह में जिस प्रकार अनेक नदियोंका समागम होता है उसी प्रकार इस ग्रंथ में भी अनेक शास्त्रोंके प्रमाणरूप गाथा, श्लोक आदि नबियों का समागम हुआ । जिस प्रकार समुद्र में बडवानल है उसी प्रकार इस शास्त्रमें भी ज्ञानरूपी बडवानल है । जिस प्रकार समुद्र में अनेक मगरमच्छ आदि दुष्ट जीव संचार करते हैं उसी प्रकार इस शास्त्रमें भी अनेक प्रकारके पक्षपाती, एकांत विपरीत आदि मिथ्यात्वको धारण करने वाले, दूसरोंकी निन्दा करनेवाले, रागी, द्वेषी आदि जीवोंके हृदय (विचार) रूपी मगरमच्छों का संचार हुआ है। जिस प्रकार समुद्र में अनेक जहाज गमन करते हैं उसी प्रकार इस ग्रन्थमें भी गुरुके वचनरूपी जहाज गमन करते हैं। जिस प्रकार समुद्रका जल बहुत खारा है उसी प्रकार इस ग्रंथका शास्त्रोक्त वचनरूपी शास्त्रोंकी बातोंका न माननेवाले हठग्राही लोगोंको बहुत खराब लगता है। तथा जिस प्रकार समुद्र में भ्रमर पड़ते हैं उसी प्रकार इस शास्त्ररूपी समुद्र में शास्त्रों के मर्मको न जाननेवाले जीवोंके प्रवेश करते ही अनेक प्रकारके भ्रमरूपी भ्रमर उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार समुद्र में अनेक गुणोंसे सुशोभित यह चर्चासागर शास्त्र है। यहाँपर किसीने पूछा कि शास्त्र शब्दका क्या अर्थ है इसके उत्तर में ग्रंथकार कहते हैं कि शास्त्र शब्द शास् धातुसे बना है । शास् धातुका अर्थ अनुशासन करना अथवा शिक्षा देना है। जिसकी आज्ञाको सब लोग मानें अथवा जिससे अपने आत्मकल्याणको शिक्षा प्राप्त हो, उसको शास्त्र कहते हैं, इससे भी आत्मकल्याणको शिक्षा मिलती है । अथवा भगवान् अरहंत देवकी आज्ञानुसार कथन करनेसे इसकी आशा भी समस्त भव्य जीव मानते हैं इसलिये इसको शास्त्र कहते हैं। आगे अनुक्रमसे चर्चाओंका आरंभ करते हैं । १ - चर्चा पहली प्रश्न -- श्रीअरहंत भगवान्‌के समवशरणको गंधकुटीके प्रथम द्वारपर जिनराजके सामने तथा शाश्वत अकृत्रिम जिनालयोंको गंधकुटीमें जिनप्रतिमाके आगे अष्टमंगल द्रव्य रक्खे रहते हैं सो वे कौन-कौन हैं। समाधान - भगवान् के सामने रक्खे हुए ये अष्टमंगल द्रव्य बड़ी शोभासे सुशोभित हैं उनके नाम ये हैं- सारी, कलश, ठोना, ( स्थापना ) सुप्रतिष्ठ, तालव्यजन ( पंखा ), दर्पण, चमर, छत्र, ध्वजा । ये आठ मंगलद्रव्य है इनमें कहीं-कहीं स्वस्तिक भी आता है परन्तु वहाँपर स्वस्तिकका अर्थ ठोना ही करना चाहिये । देखो श्री जिनसेनाचार्यविरचित आदिपुराण पर्व बाईसवाँ श्लोक २९१ [ ४ ] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर - - - -- “सतालमंगलच्छत्रचामरध्वजदर्पणः सुप्रतिष्ठं च भंगारः कलशः प्रतिगोपुरम् ॥ इसी प्रकार लम्पादिपराणमें भी लिखा है। "छत्रचामरभंगारकलशध्वजदर्पणः । सुप्रतिष्ठकतालाश्च शोभते गोपरं प्रति ॥ १३६ ॥" इसी प्रकार श्रीनेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती विरचित त्रिलोकसा में लिखा है "भिंगारकलशदप्पणवीयणधयचामरादवत्तमहा । सुवइट मंगलाणि य अट्ठहियसयाणि पत्तेयं ॥ ६८६ ॥" इस प्रकार अष्टमंगल द्रव्य कहे हैं। कोई-कोई लोग इनमें कांस्यताल और सिंहासन बतलाते हैं सो मिथ्या है। शास्त्रोंमें तो ऊपर लिखे ही बतलाये हैं । तथा मंगलद्रव्य आठ ही हैं इनके सिवाय जो लोग कहते हैं वे शास्त्रोंसे अनभिज्ञ हैं। २-चर्चा दूसरी प्रश्न-“श्रीमहावीर स्वामीने जन्मकल्याणके समय अभिषेक के लिये पांडुकशिलापर विराजमान होते हुए इनका संदेह दूर करनेके लिये अपने पैरका अंगूठा दबाकर सुवर्शनमेरुको कंपायमान किया"। ऐसा श्वेतांबरी कहते हैं सो जैनमतमें इसका समाधान किस प्रकार है ? ____समाधान-विगंबरमतमें भी काष्ठासंघ संप्रदायमें भी इसी प्रकार कहा है, देखो श्रीरविर्षणाचार्य । विरचित पयपुराण पर्व दुसरा । पादांगुष्ठन यो मेरुमनायासेन कंपयत्। लेभे नाम महावीर इति नाकालयाधिपात् ॥ ७६ ॥ इस प्रकार कहा है तथा इन्द्र के द्वारा महावीर नाम भी इसी कारण पाया है । इसके सिवाय भगवान१. जिसने अपने पैरके अंगठेको दबाकर बिना किसी परिश्रमके मेरुपर्वतको कंपायमान कर दिया और इसके लिये इन्द्रसे महावीर esweave HTTAmarpan नाम पाया। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर ] के वश अतिशय जन्मसे ही होते हैं उनमें एक अतुलबल नामका अतिशय है इसलिये इसमें कोई आश्चर्यको बात नहीं है । अतएव मेरुपर्वतको कंपित किया मानना सत्य है । रावणने भी बालिमुनिसे बैर विचार कर कैलाश पर्वतको उठाया था। उस समय श्रीबालिमुनिने वहाँके जिनबिंब तथा जिनमंदिरोंको रक्षाके लिये अनेक जोaint रक्षाके लिये अपने पैर का अंगूठा दबाकर कैलाशको स्थिर रखना चाहा था । उस समय रावण कैलाशके नीचे दब गया था इत्यादि वर्णन पद्मपुराण में लिखा है। फिर भला श्रीमहावीर स्वामीके द्वारा मेरु पर्वतके कंपित होने में क्या संदेह है। हाँ, यह कथन मूलसंवमें नहीं है । ३ चर्चा तीसरी प्रश्न- भगवान्‌ के माता-पिताके नोहार है या नहीं ? समाधान--- छप्रस्थ तीर्थंकर प्रभुके, तीर्थंकर के माता-पिता के वलभद्र, चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण और समस्त भोग-भूमियाँ जीवोंके आहार तो है परन्तु मलमूत्ररूप नीहार नहीं है। ऐसा नियम है, सो ही षट्पाहुड टीकामें लिखा है । " तित्थयरा तपियरा हलहरचक्कीवासुदेवा हि । पडिवासु भोगभूमिय आहारो णत्थि णीहारो" || ४- चर्चा चौथी प्रश्न – मुनिराज जो केशलोंच करते हैं सो कहाँ-कहाँके केश उखाड़ते हैं और कहाँ-कहाँके नहीं उखा ड़ते हैं । समाधान- मुनिराज शिरके और बाढ़ो मूछके केश उखाड़ते हैं कांख और नोचके लिंग वृषणके केश नहीं उखाड़ते। कांख और लिंग वृषण केशोंको रक्षा करते हैं, ऐसी आम्नाय है । मुनियोंको लोच करना इसी प्रकार कहा है। चारित्रसार में लिखा है- “शिरः मुखमश्रुलो चोऽषः केशरक्षणमिति" । इसी प्रकार इन्द्रनंदि सिद्धांतचक्रवर्तीोंने नीतिसारमें लिखा है- 'अचेलत्वं शीर्षकूचं लोचोऽपः केशधारणमिति । इस प्रकार जानता । [६] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [७] ५-चर्चा पाँचवीं प्रश्न - मुनिराज लोधकी विधि तो जानी परंतु तीर्थंकर भगवान् वीक्षासमय जो पचमुष्टी लॉच करते हैं सो किस प्रकार करते हैं ? समाधान — तीर्थंकर भगवान् मुनियोंके समान लोच नहीं करते क्योंकि उनके दाढी मूंछ होते ही नहीं हैं | तीर्थंकर भगवान् तो सदा सोलह वर्ष की अवस्थाथाले पुरुषके समान ( विना दाढी मूंडके ) अपने रूपसे सुशोभित रहते हैं । इसलिये भगवान् जो पंचमुष्टि लोक करते हैं सो केवल शिरका हो पंच मूटियोंसे लोग करते हैं । यदि ऐसा नहीं माना जायगा तो मुनिराजके समान तीर्थंकरोंका केशलोच बन नहीं सकेगा, I क्योंकि उनके दाढी मूंछके केश लोच करने योग्य होते ही नहीं हैं फिर भला उनके लोचकी संभावना हो ही कैसे सकती है। लिखा भी है “देवाविणारया वि य भोगभुवा चक्किजिणवरिंदाणं । सब्वे केसव रामा कामा विणिकुचिया हुति” ॥ अर्थात् चतुणिकाय बेव, नारको जीव, भोगभूमिया, चक्रवर्ती, तीर्थंकर, नारायण, बलभद्र और कामdate मुखपर दाढी मूँछोंके बाल नहीं होते हैं । भावार्थ – इन सबके हमेशा नवयौवन अवस्था बनी रहती है । नारकी जीवोंको छोड़कर बाकी ऊपर लिखे सब जीवोंके केवल शिरके बाल होते हैं सो भी सोलह वर्षकी अवस्थावाले पुण्यपुरुषके समान सुशोभित रहते हैं । अन्य साधारण पुरुषोंके समान न तो विशेष उत्पन्न होते हैं और न विशेष बढ़ते हैं। केवल शोभारूप उत्पन्न होते हैं और शोभारूप हो बढ़ते हैं । इसीलिये ऊपर लिखे जीवोंके क्षौर कर्म ( बाल बनवाना ) नहीं होता है । अर्थात् तीर्थंकरादिक कभी बाल नहीं बनबाते । क्योंकि ये इतने बढ़ते ही नहीं हैं। इसके सिवाय एक और बात यह भी है कि यदि तीर्थंकरोंके मुखपर दाढी मूंछ के बाल माने जायें तो उनकी प्रतिमामें भी दाढी मूंछ के बाल मानने पडेंगे, परंतु ऐसा है नहीं। इस लिये तीर्थंकरोंके बाढी मूंछ का अभाव ही है। जिनप्रतिमामें दाढो मूछोंके बालोंके सिवाय भौंह वालोंका भी निषेध है। लिखा भी है - [ ७ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बासागर ८] "कषादिरोमहीनांगं श्मश्ररेखाविवर्जितम् । स्थितं प्रलंबितहस्तं श्रीवत्साढय दिगम्बरम्" ॥ ६-चर्चा छठी प्रश्न-कोटिशिलासे एक करोड़ मुनिराज मोक्ष पधारे हैं । उस कोटिशिलाको नारायण उठाते हैं सो वह कोटिशिला किस जगह है ? समाधान-वह कोटिशिला नाभिगिरि पर्वतके मस्तक पर है। वह एक योजन ऊँचो और आठ योजन । चौड़ी है । तथा अनेक मुनिराजोंका यह सिद्धस्थान है। ऐसी कोटिशिलाको हमारा नमस्कार हो। यही बात ॥ सोमसेनकृत पद्मपुराणमें बाईसवें अधिकारमें लिखो है-- "रावणेन पुरा पृष्टोऽनंतवीयों मुनीश्वरः। आत्मनो मरणं कस्य हस्ते देव ! भविष्यति ॥ १८ ॥ सेनोक्तं सिद्धशिलां यः उखरेत्स्वपराक्रमात् । स एव हन्यते त्वां हि चक्रण चामुना दृढम् ॥ १६ ॥ एतच्छु, स्वाह लक्ष्मीश उद्धरिष्यति नान्यथा । ततस्तेऽथ विमानस्थास्तां शिलां प्रति निर्गताः ॥ २० ॥ जांननदश्च सुग्रीवो नलनीलो विराधितः। इत्यादि वहवो वीरा रात्री प्राप्ताश्च गह्वरम् ।। २१ ।। नाभिगिरिशिरोदेशे शिला योजनमुस्थिता । अष्टयोजनविस्तीर्णा सिद्धस्थानं मुनीशिनाम् ॥ २२ ॥ १. प्रतिमा ऐसी होनी चाहिये जिसपर भौंह दाही, मछके बाल न हों खड्गासन हो, हाथ लटकते हों, श्रीवल्सका चिह्न हो और दिगम्बर हो। [ ८ ] Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर [5] = तत्रावतीर्य ते सर्वैः सा शिला पूजिता परम् । गंधाक्षतादिभिः पुष्पैः सुरासुरैश्च सेविता " ॥ २३ ॥ इत्यादि और भी वर्णन है। जांबूनद आदि विद्याधर उसी रातको लक्ष्मणको विमानमें बिठाकर कोशलाके समीप ले गये थे। इससे सिद्ध होता है कि कोटिशिला नाभिगिरि नामक पर्वतके मस्तक पर ही है। कितने ही लोग कोटिशिलाको तारंगा आदि अन्य क्षेत्रस्थानोंमें मानते हैं सो भ्रम हैं । ७- चर्चा सातवीं प्रश्न - मुनिराज बिना पोछाके चले या नहीं ? समाधान --- यदि मुनिराज किसी जगह परवश होकर बिना मयूरपोछोके गमन करें तो फिर वे उसका प्रायविचस लेकर शुद्धि करते हैं। बिना पोछीके गमन करनेपर बिना प्रायश्चित्त लिये मुनिराज कभी नहीं रहते । बिना पीछोके गमन करनेका प्रत्यश्चित इस प्रकार है-यदि मुनिराज बिना पीछोके सात पेंड गमन करें तो एक कायोत्सर्ग धारण कर शुद्ध होवें । यदि एक कोस चलें तो एक उपवास कर शुद्ध होवें । यही बात चारित्रसार में लिखी है "सप्तपादेषु निःपिच्छः कायोत्सर्गाद्विशुद्धयति । गव्यूतिगमने शुद्धिमुपवासं समश्नुते ॥” कितने ही लोग मुनोश्वरोंका स्वरूप पोछी कमंडलुसे रहित मानते हैं परन्तु उनका यह मानना मिष्या है । जो मुनीश्वरोंका स्वरूप पोछी रहित मानते हैं वे जिनमतसे बाह्य हैं। ऐसे ही लोग जिनमार्गमें भे उत्पन्न करनेवाले हैं। यही बात नीतिसारमें लिखी है- * इन श्लोकोंका अभिप्राय यह है कि रावणने स्वामी अनंतवीर्यसे पूछा था कि मेरी मृत्यु किसके हाथसे होगी तब भगवान् ने कहा था कि जो कोटिशिलाको उठावेगा वही तुझे इसी चक्रले मारेगा। यह बात जांबूनद आदि विद्याधरोंने लक्ष्मणसे कहीं थो तथा वे विद्याधर लक्ष्मणको विमानमें बिठाकर नामिगिरि पर्वतपर कोटिशिला उठवानेको ले गये थे। वह बिला आठ योजन चौड़ी एक योजन ऊँची यो। उन विद्याधरोंने तथा लक्ष्मणने उस शिलाकी पूजा की थी । * अभिप्राय यह है अत्यन्त आवश्यकता पड़ने पर मुनिराज बिना पोछेके चल सकते हैं परन्तु उन्हें उसका प्रायश्चित्त अवश्य लेना पड़ता है। देखो 'प्रायश्चित्तसमुखय चूंलिका' पृष्ठ १६८ । २ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “कियेत्यपि ततोऽतीते काले श्वेताम्बरोऽभवत्। द्राविडोयापनीयश्च केकीसंघश्च मानतः॥॥ । केकीपिच्छ श्वेतवासो द्राविडो यापनीयकःनिःपिच्छश्चेति पंचते जैनाभासाःप्रकीर्तिताः॥" । पर्चासागर इससे सिद्ध होता है कि नो मनियोंको पीओ रहित मानते हैं वे जैनाभास हैं, साक्षात् जैनी नहीं हैं। [१०] इसलिये पोछी कमंडलुके बिना मुनिका स्वम्म बन ही नहीं सकता। -चर्चा आठवीं प्रश्न-श्रीमुनिराज कारण मिलनेपर जलमें प्रवेश करें या नहीं ? तमा नाघ आदि पानीको सवारी में बैठे या नहीं? समाधान-जो महाव्रती मुनि अपने वा परके लिए जलमें प्रवेश करें अथवा नावमें बैठकर पार उतरें तो वे उसका प्रायश्चित्त लेते हैं। वह प्रायश्चित्त इस प्रकार है-यदि मुनि चार अंगुल जलमें प्रवेश करें। तो एक कायोत्सर्ग धारण करें। यदि घुटनेतक जल में प्रवेश करें तो एक उपवास धारण करें। यदि घुटनेसे चारचार अंगुल अधिक जलमें प्रवेश करें तो दूना-चूना उपवास करें। यदि सोलह धनुष पर्यन्त जलमें प्रवेश करें तो कायोत्सर्ग उपवास आदि उससे भी अधिक-अधिक करें। यदि अपने वा दूसरेके लिये नावमें बैठकर पार उतरें तो ज्ञानी और अनेक कलाओंके जानकार वा समयके जानकार आचार्य यथायोग्य थोड़ा वा बहुत प्रायश्चित्त देवें। यही बात श्रीइन्द्रनंवि विरचित प्रायश्चित्त ग्रंथमें लिखी है---- "जानुघ्ने तनृत्सर्गःक्षमणं चतुरंगुले । द्विगुणाः द्विगुणास्तस्मादुपवासाः स्युरम्भसि ॥३६॥ १. कितना ही काल बीत जानेपर श्वेतांबर हुए फिर द्राविड यापनीय और केकीसंघ हवा परन्तु केकीसंघ, श्वेतांबर, द्राविड, यापी नौय और पीछी रहित (नि:पिच्छ ) ये सब जेनाभास हैं। १. इसका अर्थ संस्कृत टीकाके अनुसार यह होता है-घुटनेपर्यत पानीमें होकर जावे तो एक कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त है। घुटनेसे चार अंगुल ऊपर पानी में होकर जानेका एक उपवास प्रायश्चित्त है। इससे चार-चार अंगुल पर पानी में होकर जानेका दूने दूने उपवास प्रायश्चित्त है ।। ३९ ॥ ये ज. अर्थ कायोत्सर्ग और उपवास कहे गये हैं वे सोलह धनुष ( चौसठ हाथ ) पर्यन्त लंबे फैले हुए जल-जन्तुओंसे रहित जलमें होकर जानेके हैं। न्यूनके नहीं । तथा जलजन्तुसे भरे हुए पानीमें होकर जानेका प्रायश्चित्तम पहले कहे हुये कायोत्सर्ग और उपवाससे अधिक कायोत्सर्ग और उपवास है ॥४०॥ अपने निमित्त या परके निमित्त प्रयुक्त चनामाचारभरवार Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर इ दंडेःषोडशभिर्मेये भवन्त्येते जलेऽजसा।कायोत्सर्गोपवासाः स्युर्जतुकीणेततोऽधिकाः ॥४०॥ स्वपदार्थे प्रयुक्तैश्च नावाद्यः सरणे सति। स्वल्पं वा बहु वा दद्यात् ज्ञातकालादिको गणी" ॥४१॥ ६-चर्चा नौवीं प्रश्न—बहुतसे लोग रावणके बहने विद्याधरोंके राजा खरदूषण विद्याधरको चौदह हजार विद्याओंका स्वामी बतलाते हैं सो ठोक है या नहीं? ___समाधान--यह कहना मिथ्या है । क्योंकि रावणके अठारह हजार विद्याओंकी सिद्धि थी। यदि स्वरदूषणके चौदह हजार विद्याएं' मान ली जाये तो फिर इससे रावणमें क्या अधिकता हुई। शरदूषण भी। रावणके समान हो गया इसलिये ऐसा कहना अज्ञान है । खरदूषणके चौवह हजार विद्याओंको सिद्धि नहीं थी। हाँ; उसके चौवह हजार विद्याधर सेवक थे। चौवह हजार विधाघरोंका वह स्वामी था और उसे हजार विद्याएं सिद्ध थीं, चौदह हजार नहीं । यही बात श्रीरविणाचार्यविरचित पचपुराणके नौवें पर्वमें लिखी है। जबकि । चंद्रनया हरी गई थी उसी समय मंदोवरीने रावणसे कहा हैखेचराणां सहस्त्राणि संति तस्य चतुर्दश । ये वीर्यकृतसन्नाहाः समरादनिवर्तिनः ॥ ३२ ॥ बहून्यस्य सहस्त्राणि विद्यानां दर्पशालिनः। सिद्धानीति न किं लोकात् भवता श्रवणे कृतम्" ॥ ३३ ॥ यही बात श्री सोमसेन विरचित लघु परपुराणमें छठे अधिकारमै स्मरदूषणको विद्याएं बतलाते समय [११] "चतुर्दशसहसाणां विद्याभूतां प्रभुस्त्वयम् । निष्पन्नो बहुविद्यामिभोगी रूपी सुखी बली ॥ १७ ॥ नाव आदिके द्वारा नदी आदि पार करनेपर काल मादिको जाननेवाला आचार्य थोड़ा या बहुत (कालको जानकर ) प्रायश्चित्त दे॥४१॥ (देखो-भारतीय जेनसियांत प्रकाशिनी संस्था, कलकताका छपा प्रायश्चित्तसमुच्चय चूलिका पृष्ठ १६६-६७) Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब तस्यात्र वै युद्धे संशयोपि भविष्यति । कन्याहरणदोषेण नान्यः कोपि वरिष्यति” ॥ १८ ॥ ভাষৰ ধু जिस समय चन्द्रनखा हरी गई थी उस समय मंदोबरीने रावणसे खरदूषणके लिये यह बात कहो १२] थी, इसलिये खरदूषण चौदह हजार विद्याओंका स्वामी नहीं था। १०-चर्चा दशवीं प्रश्न-लका नामको नमरी कौनसे समुद्र में है लवणोदधि है या उपसमुद्र में है ? समाधान-लंका लवणोदधि समुद्र में है । वहाँपर सातसौ योजन लंबा चौड़ा एक राक्षसनामका द्वीप है। उस द्वीपमें मेरु पर्वतके समान विचित्रीकूट नामका पर्वत है वह नो योजन ऊधा है, पचास योजन लंबा है। उसपर शत्रु प्रवेश नहीं कर सकते परन्तु जो वहाँ पहुँच जाय उसे वहाँपर अच्छी शरण मिल जाती है। वह पर्वत अनेक वनोंकी शोभासे सुशोभित है। उस पर्वतपर तीस योजनके प्रमाणमें लंका नामको नगरी है । जो कि बहुत ही सुन्दर है। यही बात श्रीअजितनाथके समवशरणमें भीम, महाभीम नामके यक्षोंने मेघनाद ॥ नामके विद्याधरोंके राजासे कही थी। "हम तुम्हें ऐसी लंकापुरी देते हैं वहाँ तुम सुखसे रहना" ऐसा पन। पुराणमें लिखा है । वेखो श्रीरविषणाचार्य विरचित पमपुराण पर्व पांचवेमेंखेचरार्भक धन्योसि यस्त्वं शरणमागतः। सर्वज्ञमजितं नाथं तुष्टावावामतस्तव ॥४६॥ शृणु संप्रति ते स्वास्थ्यं यथा भवति सर्वतः । तं प्रकारं प्रवक्ष्यावः पालनीयस्त्वमावयोः ॥४७ (मुद्रितमें १५० वा ) सन्त्यत्र लवणाम्भोधावत्युपग्राहसंकटे । अत्यंतदुर्गमारम्या महाद्वीपाः सहस्रशः ॥४८॥ क्वचित्क्रीडति गंधर्वाः किन्नराणां क्वचिद्गणाः । क्वचिच्च यक्षसंघाताः क्वचित्किंपुरुषामराः॥ १६ ॥ तत्र मध्येऽस्ति सद्वीपो क्षसां क्रीडनक्षमः । योजनानां शतान्येष सर्वतः सप्त कीर्तितः॥५०॥ eHANPARMAawazarmanentlema [१२] Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३] तन्मध्ये मेस्वभाति विकटाख्यो महागिरिः। अत्यंतदुःप्रवेशोऽयं शरण्यः सद्गुहारहैः ॥५१॥ पासागर शिखरं तस्य शैलेंद्रचूडाकारं मनोहरम् । योजनानि नवोत्तुगं पंचाशद्विपलत्वतः ॥५२॥ । नानारत्नप्रभाजालछन्नहेममहातटम् । चित्रवल्लीपरिष्वक्तकल्पद्रुमसमाकुलम् ॥५३॥ सिंशोजनमानाभः सर्वतस्तस्य राक्षसी । लंकेति नगरी भाति रत्नजांबुनदालया ॥५॥ ई मनोहारिभिरुयानःसरोभिश्च सवारिजः । महभिश्चैत्यगेहैश्च सा महेंद्रपुरीसमा ॥५५॥ यही बात श्री सोमसेनविरचित द्वितीय पापुराणमें तीसरे अधिकार में लिखी है। । तंत्र भीमसुभोभाख्यो स्थितो तो राक्षसाधिपो संतुष्टो मेघवाहाख्यं वदतीधर्मवत्सलो।६।। द्वोपोस्ति लवणाम्भोधौराक्षस नामतो वरं। योजनानां शतसप्त विस्तीर्णःस मनोहरः ॥७॥ तन्मध्ये त्रिकूटाभिख्यः पर्वतोस्ति निधानभत् । योजनानां नवोत्तुगः पंचाशद्विस्तमो मतः॥ ७१ ॥ तत्र लंकापुरी भाति त्रिंशद्योजनविस्तरात् । स्वां दास्यामः पुरी तां वं स्थित्वा तत्र सुखी भव ॥ ७२ ॥ इस प्रकार कथन किया है। इससे लंका लवणोदधि हो जाननी चाहिये । उपसमुद्र में नहीं है। ११-चर्चा ग्यारहवीं प्रश्न-जो गृहस्थ न तो अरहन्त देवकी पूजा करता है और न पात्रदान देता है वह किस योग्य है ? समाधान-जो गृहस्थ न तो भगवान् अरहन्तदेवके घरणकमलोंकी पूजा करता है और न मुनिराजोंके लिये भक्तिपूर्वक दान देता है उस गृहस्थपदके लिये किसी गहरे जलमें प्रवेश कर बहुत शीघ्र जलांजलि । * इन श्लोकोका अभिप्राय यह है कि लवणसमुद्र में राक्षस द्वीप है उसमें चित्रकुटाचल पर्वत है उनपर मनोहर लंका बसी है। १. इन श्लोकों का अर्थ वही है जो पर लिखा है। AADHAARNचामान्यतया Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दे देना चाहिये । वह गृहस्थ इसी योग्य है। यही बात श्रीयधनन्दि स्वामीने पत्ननन्दिपंचविंशतिकामें दूसरे । । अधिकारमें कही है। पूजा न चेन्जिनपतेः पदपंकजेषु, दानं न संयतजनाय च भक्तिपूर्वम् । नो दीयते किमु ततः सदनस्थिताय, शीघ्र जलांजलिरगाधजलं प्रविश्य ॥२४॥ १२-चर्चा बारहवीं प्रश्न-श्रावकोंको सदा प्रातःकाल उठकर सबसे पहले क्या करना चाहिये ? समाधान-श्रावकोंको प्रातःकाल उठकर शौच आदि क्रियाओंसे निवृत्त होकर प्रथम हो अरहंत देव और निप्रन्थ गुरुका वर्शन करना चाहिये। फिर भक्तिपूर्वक वंदना वा उपासनाकर धर्मशास्त्रोंका स्वाध्याय करना चाहिये । पीछे गृहस्थ सम्बन्धी अन्य कार्य करना चाहिये। भावार्थ--जिनदर्शनादि कार्य कर फिर अन्य कार्य करना यह नियम परम्परासे इसी प्रकार चला आया है। यही बात श्री पपनन्दिपंचविंशतिकाके । छठे अधिकारमें लिखी है। प्रातरुत्थाय कतव्यं देवतागुरुदर्शनम् । भक्त्या तवंदना कार्या धर्मश्रुतिरुपासकैः ॥१६॥ पश्चादन्यानि कार्याणि कर्तव्यानि यतो बुधैः । धर्मार्थकाममोक्षाणामादौ धर्मः प्रकीर्तितः ॥ १७॥ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों पुरुषार्थोमें सबसे पहले धर्म हो कहा है इसलिये सबसे पहले। देव-गुरुका दर्शन कर पीछे अन्य कार्य करना चाहिये। [१४1 १. इसका अर्थ भो ऊपर लिखे अनुसार है। २. धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषार्थोसे गृहस्थके लिये मुख्यता कर पहले तीन पुरुषार्थ कहें हैं। मोक्ष पुरुषार्थका साधन गृहस्थके लिये परम्परासे है और मुनिके लिये साक्षात् है। गृहस्थके लिये धर्म, अर्थ, काम पुरुषार्थ में भी धनं पुरुषार्थ मुख्य है क्योंकि धर्म से अर्थको सिदि होती है इसीलिये गृहस्थके लिये सबसे पहले देवपूजा करनेका विधान बताया है। तथा इसका भी कारण यह है कि गृहस्थधर्ममें देवपुजा हो सबसे मुख्य है। परिणामोंकी शुद्धि और मन लगनेके लिये देवपूजा मुख्य कारण है। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चासागर [१५] १२-चर्चा तेरहवीं प्रश्न--ऊपर यह बताया जा चुका है कि प्रतिदिन सबसे पहले वन करना चाहिये । देवदर्शन। करनेके पहले अन्य कार्य नहीं करना चाहिये । परन्तु वेववर्शन किये बिना हो जो भोजनादि कर लेते हैं उनके । लिये शास्त्रोंमें क्या कहा है तथा उन्हें कैसा समलना चाहिये । समाधान-जिस गांव वा शहरमें भगवान् अरहन्तदेवका जिनालय हो और वहाँ पर रहनेवाला श्रावक श्रावक होकर भी यदि बिना भगवान के दर्शन किये भोजन करे तो उसको जैनशास्त्रों में मियादृष्टो बतलाया है। उसको जैनधर्मका श्रद्धान करनेवाला कभी नहीं कहना चाहिये । जैनशास्त्रों में उसको धर्मभ्रष्ट बतलाया है । लिखा भी है चेयाले जिहठाणे सावय अदिट्ट भोयणं कुणई । सो सुठ मिच्छाइट्ठी भट्ठो जिनसासणे समये ॥ १३ ॥ १४-चर्चा चौदहवीं प्रश्न--केवली भगवान्के नौ परम केवललब्धियां होती हैं उनमें वर्शनावरण कर्मके क्षयसे अनंतदर्शन प्राप्त होता है. ज्ञानावरणके क्षयसे अनंत ज्ञान प्रगट होता है. दानांतरायके क्षयसे क्षायिक दान होता है. लाभांतरायके क्षयसे क्षायिकलाभ, भोगांतरायके क्षयसे क्षायिक भोग, उपभोगांतरायके क्षपसे क्षायिक उपभोग, वीयांतरायके क्षयसे क्षायिक वीयं प्रगट होता है, दर्शनमोहनीय कर्मके क्षयसे क्षायिकसम्यक्त्व, चारित्र मोहनोय कर्म के क्षयसे क्षायिक चारित्र प्राप्त होता है। इसप्रकार केवलो भगवान्के नव क्षायिक परम केवललब्धियां प्रगट होती हैं। अब इनमें प्रश्न यह है कि केवलो भगवान् बान क्या करें और भोगोपभोगके सेवन में । १. धर्मकी नो शास्त्रोंके आधारपर है। जब शास्त्रों में सबसे पहले देवदर्शन करना बतलाया है और फिर भी जो देवदर्शन नहीं करता वा उसकी आवश्यकता नहीं समझता तो समझना चाहिये कि वह जैनशास्त्रोंको मानता ही नहीं । यदि वह जैन. पास्त्रोंको मानता और उनका प्रदान करता तो वह देवदर्शन अवश्य करता। परन्तु वह देवदर्शन नहीं करता और न उसकी आवश्यकता समझता है तो यह निश्चित है कि उसके उन शास्त्रोंका श्रद्धात नहीं है तथा श्रद्धान न होनेसे हो वह मिथ्यादृष्टी और धर्मभष्ट बतलाया गया है। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IRATRA सागर १६ ] M । किसका सेवन करें क्योंकि भोगोपभोगका त्याग तो इनके पहलेसे ही हो जाता है तथा केवली भगवान्के कवलाहार आदिकी संभावना ही नहीं है अतएव उनके लब्धियोंका कार्य क्या होता है ? समाधान-केवली भगवान् जो धर्मोपदेश देते हैं वह उनका क्षायिकशान है। शरीरको स्पितिके लिये जो परम शुभ कार्माण वर्गणायें प्रतिसमय आती रहती हैं वह उनका क्षायिक लाभ है । वेवगण जो सदा पुष्पवृष्टि करते रहते हैं वह उनका भोग है तथा समवशरणको बारह सभा छत्र-सिंहासन आदि क्षायिक उपभोग हैं ऐसा सुदर्शनचरित्रके आठवें परिच्छेउमें लिखा हैप्रादुरासीज्जगत्पूज्यं लोकालोकप्रदोपकम् । परमं केवलज्ञानं मुक्ति श्रीमुखदर्पणम् ॥४३॥ प्रादुरासंस्तथास्येमा नवकेवललब्धयः। विश्वभव्यहिताः सर्वाः साधारणबुधार्चिताः ॥१४॥ अनंतदर्शनं ज्ञानं दानं धर्मोपदेशकृत्। लाभः पुण्याणुलाभोऽथ भोगः पुष्पादिवृष्टिजः ॥ ४५ ॥ उपभोगः सभास्थानसिंहासनादिको महान् । अन्तातीतमहद्वीयं सम्यक्त्वं क्षायिकं परम् ॥ ४६ ॥ यथाख्याताह्वयं सारं चारित्रं शशिनिर्मलम् । नवेमाः परमास्तस्य जाताः केवललब्धयः॥ १७॥ १५-चर्चा पन्द्रहवीं प्रश्न-सामान्य केवलोके लिए नमस्कार किस प्रकार करना चाहिये ? समाधान--सामान्यकेवलो के लिये इन्द्र पंचांग नमस्कार करते हैं । यही बात सुवनिष्ठिचारित्र के आठवें परिच्छेदमें लिखा है-- PRASTREETA PARASHANTERASHTRAMATPSups -मरामना १. इनका अर्थ इनके ऊपर लिखे हुए समाधान के अनुसार है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चा सागर [ १७ ] त्रिःपरीत्य तदा स्थानं प्रविश्य देवनायकाः । भूमौ संस्थाप्य पञ्चांगान् प्रणेमुः शिरसा जिनम् ॥ ५८ ॥ १६- चर्चा सोलहवीं प्रश्न -- सामान्यकेच लोके गंधकुटीमें गणधर होते हैं या नहीं ? समाधान -- सामान्यकेवलीके भी गणधर होते हैं । यह बात सुदर्शनचरित्रके आठवें परिच्छेदनं लिखी है दिव्येन ध्वनिना देवस्तदा सन्मार्गवृत्तये । धर्मतत्वादिविश्वार्थानुवाचेति गणान्प्रति ॥७७॥ बिना गणधरोंके विव्यध्वनि नहीं खिरती है, इसलिये जिस प्रकार श्रीमहावीर स्वामीके गौतम गणधर थे उसी सहारा भी होते हैं । १७- चर्चा सत्रहवीं प्रश्न -- सामान्यकेवली भगवान्‌को गंधकुटीमें मानस्तंभ होता है या नहीं ? तीर्थंकर केवली भगवान् के समवशरणमें होता ही है । समाधान -- सामान्यकेवली भगवान् की गंधकुटीमें भी मानस्तम्भ होता है। यह बात सुदर्शन चरित्रमें लिखी हैआदौ शक्रोपदेशेन हेमरत्नादिराशिभिः । रदे गंधकुटीरूपं कैवल्यास्थानमंडनम् ॥५२॥ १. सेठ सुदर्शनको जब केवलज्ञान हुआ और गंधकुटो रची गई तब इन्द्रोंने उस स्थानको तीन प्रदक्षिणा देकर अपने शरोरके पाँचों अंग भूमिसे लगाकर मस्तक झुकाकर प्रणाम किया । २. भगवान् सुदर्शन केवलोने मोक्षमार्गकी प्रवृत्ति बढ़ानेके लिये गणधरोंके प्रति दिव्यध्वनिके द्वारा धर्मका तथा समस्त तत्त्वोंका स्वरूप बतलाया । ३. श्री ऋषभदेवकी दिव्यध्वनि सबसे पहले बिना गणधरोंके खिरी है परन्तु यह हुण्डावसर्पिणीका दोष समझना चाहिये । ४. सेठ सुदर्शनको केवलज्ञान उत्पन्न होनेपर कुबेरने इन्द्रकी आज्ञासे सुवर्ण रत्न आदिके द्वारा गंधकुटोरूप केवलो भगवान्का सभा स्थान बनाया जिसमें ध्वजा, सिंहासन, छत्र, चमर आदि सब शास्त्रोक्त रचना थी तथा वह मानस्तंभ से सुशोभित था. इस प्रकार कुबेरने संसार के प्राणियोंका उपकार करनेके लिये केवली भगवान्का सभा स्थान बनाया । ३ [ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म ध्वजसिंहासनच्छत्रचामरादिविभूषितम् । शास्त्रोक्तवर्णनोपेतं मानस्तंभाचलंकृतम् ॥५३॥ । जगज्जन्तूपकाराय केवलज्ञानभागिनः। परं निर्मापयामास यक्षराट् धर्मसिद्धये ॥५४ र्चासागर -१८ १८-चर्चा अठारहवीं प्रश्न- तीर्थकर केवली भगवान के केवलज्ञान उत्पन्न होनेके बाद गणधरोंकी, केवलियोंकी, अवधिज्ञानियोंकी, विक्रिया ऋद्धिको मारा करनेवाली गानो गारों में मतलाई है वह समवशरणमें रहने वालों को है अथवा उनके समय की है अर्थात् अनन्तर होनेवाले तोथंकरके उत्पन्न होने तक को है। समाधान—यह गणना समवशरणमें रहनेवालों की है। श्री ऋषभदेवके समवशरणमें जितने मुनि आदि वर्तमान थे उन्हींको संख्या बतलाई है। मुनिराज आदि सब विहार समयमें भी साथ ही रहते हैं। सो हो श्रीरविषेणाचार्य विरचित पद्मपुराणमें चौथे पर्वमें लिखी है तस्यासीद्गणपालानामशीतिश्चतुरुत्तरा। सहस्राणि च तावन्ति साधूनां सुतपोभताम् ।। ५८ ।। अत्यन्तशुद्धचित्तास्ते रविचन्द्रसमप्रभाः। एभिः परिवृताः सर्वे र्जिना विहरते महीम् ॥ ५६ ॥ इससे सिद्ध होता है कि गणधर आदि सब मुनियोंको गणना समवशरणमें रहनेवालोंकी ही समझना | चाहिये । समवशरणको स्थितिसे आगे पीछेके मुनि इस संख्यासे बाहर हैं, वे इस संख्यामें शामिल नहीं हैं। जिस प्रकार श्रीऋषभदेवके समवशरणमें रहनेवालोंको संख्या बतलाई उसी प्रकार श्रीअजितनाथसे लेकर श्री। महावीर पर्यंत समस्त तीर्थंकरोंकी समझ लेना चाहिये। १६-चर्चा उन्नीसवीं प्रश्न---इस पंचमकालके इस वर्तमान समयमें होनेवाले मुनिराज किस क्षेत्रमें ठहरें ? वन, उपवन, # पर्वत, गुफा, नवीके किनारे, श्मशान आदिमें ही निवास करें अथवा किसी और जगह भी अपनी स्थिति रक्खें। । यासरतsvaSEASE Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [१९] समाधान-इस पंचमकालमें वर्तमान समयमें होनेवाले मुनियों की स्थिति श्रीमंदिरजीमें बतलाई है। यह बात श्रीपाननंदी पंचविशतिकाके छठे अधिकारमें लिखी है। संप्रत्यत्र कलो काले जिनगेहे मुनिस्थितिः । धर्मस्य दानमित्येषां श्रायका मूलकारणम्॥ ६ ॥ धर्मका दान देनेके लिए एक श्रावक ही मूल कारण है। भावार्थ-इस वर्तमान समयमें श्रावक ही धर्म सुननेके पात्र हैं इसलिये मुनिराजोंकी स्थिति जिनालयमें होनेसे ही श्रावकको लाभ पहुंच सकता है। श्रीइन्द्रनंदिने नीतिसारमें भी लिखा है। काले कलौ वने वासो वर्जनीयो मुनीश्वरैः । स्थीयेत च जिनागारग्रामादिषु विशेषतः ॥१६॥ २०-चर्चा बीसवीं प्रश्न-मुनिराज आहारके समय दोनों हाथोंकी अँगुलियोंमें आंट देकर दोनों हाथ मिला लेते हैं तब अन्न-जल आदिका ग्रहण करते हैं । यदि वह दोनों मिले हुए हाथ छूट जायें तो वे अन्तराय मान कर आहारका त्याग कर देते हैं सो इसका क्या कारण है ? समाधान-मुनिराज सदा यम नियम पालन करते रहते हैं अत एव आहारके समय जो अन्न-जल ग्रहण करते हैं वह भी नियम पूर्वक ही ग्रहण करते हैं । भावार्थ-उस समय भी उनके यह नियम रहता है कि जबतक दोनों हाथोंका संयोग है तबतक आहार ग्रहण करेंगे । हाथोंके छूट जानेपर आहारका त्याग कर देंगे। पद्मनन्दिपंचविंशतिकाके पहले अधिकारमें लिखा भी है। १. कलिकालमें मुनियों की स्थिति जिनालयमें हो है। २. कलिकालमें मुनियोंको बनमें निवास नहीं करना चाहिए किन्तु जिना__ लयमें वा गांव में रहना चाहिये । आजकल बहतसे लोग मुनियोंके जिनालयमें निवास करनेपर नुक्ताचीनो करते है परंतु यह उनकी भूल है जब शास्त्रों में स्पष्ट आता है तब इसमें शंका करना व्यर्थ है। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [२०] prepreseparamp योवन्मे स्थितिभोजनेस्ति दृढ़ता पाण्योश्च संयोजने, भंजे तावदहं रहाम्यथ विधावेषा प्रतिज्ञा यतेः। कायेप्यस्पृहचेतसोऽन्यविधिषु प्रोल्लासिनः सम्मते न ह्यतेन दिविस्थितिर्न नरके सम्पद्यते तद्विना ॥ ४३ ॥ इससे सिद्ध होता है कि मुनिराज जो आहार ग्रहण करते हैं वह भी प्रतिज्ञापूर्वक ही ग्रहण करते हैं। जैसे कोई गृहस्थ अपने हायको उँगली में किसी धातुकी अंगूठी पहिन कर यह नियम कर ले कि यह अंगूठो, जबतक इस उंगली में है तबतक मेरे अन्त गलका माल है। बरि उसे भोजन करनेकी आवश्यकता होती है तब उसे वह उस उँगली से निकाल कर दूसरी उँगलोमें पहन लेता है या उतार कर रख देता है और फिर । भोजन कर लेता है। उसी प्रकार मुनियों के भी आहार करते समय दोनों हाथोंके संयोग होनेका नियम समक्ष लेना चाहिये। २१-चर्चा इकईसवीं प्रश्न-जैनमतमें अप करनेको मालाके मणियोंकी गिनती एक सौ आठ है सो इसमें क्या कारण है ? समाधान-संसारी जोव हमेशा प्रमाद और कषायके आधीन रहते हैं तथा त्रस स्थावरोंके भेदसे बारह प्रकारके जीवोंकी मन, बच्चन, काय, कृत, कारित, अनुमोदनाके द्वारा एक सौ आठ भेदरूव पांचों पापोंका आस्रव और बंध करते रहते हैं उन सबको निवृत्तिके लिये एक सौ आठ मणियोंको माला बनाई गई है। आस्रव बंधके वे एक सौ आठ भेव इस प्रकार समझना चाहिये । पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक, नित्यनिगोद, इतरनिगोद, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असैनी पर्चेन्द्रिय, सैनो पंचेन्द्रिय इस प्रकार बारह भेद होते हैं । इन बारह प्रकारके जोबोंके मनसे, वचनसे तथा कायसे हिंसादिक पाप होते हैं जो छत्तीस प्रकारके हो जाते हैं । तथा ये छत्तोसों प्रकारके पाप स्वयं करने, दूसरोंसे कराने और १. जबतक मुझमें खड़े होनेको शक्ति है तथा दोनों हाथ मिलानेको शक्ति है तबतक हो में भोजन करूँगा अन्यथा सर्वथा त्याग ___ कर दूंगा । इस प्रकार शरीरसे निस्पृह रहनेवाले मुनियों के प्रतिज्ञा होता है। a re-area Samraptered Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Swamarine करते हुओंको भला माननेके भेदोंसे एक सौ आठ प्रकारके हो जाते हैं। १२४३४३=१०८ । ये एक सौ आठ | पाप सदा लगते रहते हैं उनका नाश करनेके लिये एक सौ आठ मणियोंकी माला है । एक-एक मणिपर एकचर्चासागर एक णमोकार मंत्रका जाप कर एक-एक पापका नाश करना चाहिये और इस प्रकार सब पापोंका नाश कर [२१] डालना चाहिये यही इसका अभिप्राय है । सोही लिखा है। पृथ्वीपानीयतेजःपवनसुतस्वः स्थावराः पंचकायाः, नित्यानित्यो निगोदौ युगलशिखिचतुःसइयसंज्ञित्रसाः स्युः। एते प्रोक्ता जिनेदश परिगुणिता वाङ मनःकायभैदे य॒श्चान्यैः कारिताद्यैत्रिभिरपि गुणिताश्चाष्टशून्यैकसंख्या ॥ ___ इस प्रकार मालामें एक सौ आठ मणियोंके होनेका कारण है। इसके सिवाय इसका एक कारण और भी है और वह इस प्रकार है-कोई भी पापरूय कार्य किया जाता है उसमें संरंभ, समारंभ और आरम्भ ऐसे ! तीन भेव पड़ते हैं। किसी भी हिंसा आदि पापकार्य के संकल्प करनेको उसके प्रयत्नके आवेश करनेको संरंभ । कहते हैं । उसो पापकार्यके कारणोंका संग्रह करना, साधनको सब सामग्री इकट्ठी करना समारंभ है और। । उस कार्यको प्रारंभ कर देना आरम्भ है। इनका उदाहरण इस प्रकार है । किसीने एक मकान बनानेका विचार किया, उसमें संकल्प किया कि इस तरहका मकान बनवाऊँगा, उसमें इस प्रकारके घर कमरे आदि बनवाऊँगा । इस प्रकारके संकल्पको संरंभ कहते हैं। संरंभमें किसी कामका बाह्य आरंभ नहीं होता केवल विचार या उस Pos कामको करनेका आवेश होता है । संरंभके बाद उस मकानको बनवाने के लिये कारीगर, इंटें, चूना, पत्थर, । कुबाली, फावड़ा आदि साधनोंका संग्रह करना समारंभ है । समारम्भमें भी कामका प्रारम्भ नहीं होता है, केवल m ama-SIPASEXMareranaMIPE १. इन भेदोंको यों समान लेना चाहिये । क्रोधकुतकायसंरंभ, मानकृतकायसरंम, नायाकृतकायसंरंभ, लोभक्तकायसंरंभ, क्रेध कारितकायसंरंभ, मानकारितकायसरंभ, मायाकारितकायसरंभ, लोभकारितकायसंरंभ, क्रोधानुमतकायसंरंभ, मानानुमतकायसंरंभ, मायानुमतकायसंरंभ, लोभानुमतकायसंरंभ । इस प्रकार बारह प्रकारका काय संरंभ, बारह प्रकारका बचनसंरंभ और बारह प्रकारका मनसंरंभ होता है तथा इस प्रकार छत्तीस प्रकारका संरंभ, छत्तीस प्रकारका समारंभ, छत्तीस प्रकारका I आरंभ होता है । ऐसे १०८ मेद हो जाते हैं । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चासागर [२२] Popmememeste-NCREATPATRASTRapesee muTRAPHSTORaipeetpad कारण सामग्री इकट्ठी होती है । तदनन्तर उस विचारे हुए कामको प्रारम्भ कर देना जैसे जिस मकानके बनानेका संकल्प किया था उसके लिये नीव भरना, दोवाल खड़ी करना आदि कार्योका प्रारम्भ कर देना आरम्भ है। इसी प्रकार सब कामोंके वृष्टांत समझ लेना चाहिये । ये संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ तीनों ही मनसे किये जाते हैं, तोनों ही बचनसे किये जाते हैं और तीनों ही कायसे किये जाते हैं इस प्रकार ये तीनों । तीनों योगोंसे होते हैं और उनके ये नौ भेद हो जाते हैं । नौ प्रकारके संरंभादिक स्वयं किये जाते हैं, दूसरोंसे । से कराये जाते हैं और उनको अनुमोदना को जाती है इस प्रकार कृत, कारित, अनुमोदनाके भेदसे सत्ताईस भेव । हो जाते हैं । ये सत्ताईसों भेद क्रोधसे होते हैं, मानसे होते हैं, मायासे होते हैं और लोभ से होते हैं इस प्रकार चारों कषायोंसे गुणा करनेसे एक सौ आठ भेद हो जाते हैं। इन एक सौ आठ भेरोंसे जीहिंसा आदि पाप लगते हैं सो ही मोक्षशास्त्रमें लिखा है। आयं सरंभसमारंभारंभयोगकृतकारितानुमतकषायविशेषैस्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुश्चैकशः । ___ इन एक सौ आठ पापोंकी निवृत्तिके लिये मालाको एक सौ आठ मणियोंसे णमोकार मंत्रकी अथवा । पंच परमेष्ठोके वाचक अन्य मंत्रोंको जाप तीनों समय करना चाहिये । इनके सिवाय पापोंके एक सौ आठ भेद और प्रकारसे भी हैं । यथा-हिंसाविक सब पाप क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार कथायोंसे होते हैं; कृत, कारित, अनुमोदनासे होते हैं; मन, वचन, काय इन तीनों योगोंसे होते हैं, तथा भूतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यत काल इन तीनों काल संबंधी होते हैं। इन सबसे गुणा कर देनेसे भी एक सौ आठ भेद हो जाते हैं । भावार्थ--क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों कषायोंसे काययोगके द्वारा स्वयं किये हुए भूतकाल। सम्बन्धी पाप । इन्हीं चारों कषायोंसे काययोगके द्वारा दूसरोंसे कराये हुए भूतकाल संबंधो पाप तथा इन्होंने कषायोंसे फाययोगके द्वारा अनुमोदना किये हुए भूतकाल संबंधो पाप, इसी प्रकार भूतकाल संबंधी पाप बारह प्रकारके हुए, इसी प्रकार भूतकाल सम्बन्धी पाप बारह प्रकारके वचन योग द्वारा तथा बारह प्रकार मनोयोग " द्वारा होते हैं इस प्रकार छत्तीस प्रकारके भूतकाल सम्बन्धी पाप, छत्तीस प्रकार वर्तमान काल सम्बन्धी पाप! Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर [२३] RSS और छतीस प्रकार भविष्यत्काल सम्बन्धी पाप होते हैं, इस प्रकार एक सौ आठ भेद हो जाते हैं, सो ही धर्मरसिक शास्त्र में लिखा है । हिंसा तत्र कृता पूर्व करोति च करिष्यति । मनोवचनकायैश्च ते तु त्रिगुणिता नव ॥ पुनः कृतं स्वयं करितानुमोदेर्गुणाहताः । ससविंशशि से भेदकः कषायैगु शिक्षांश्व तान् ॥ अष्टोत्तरशतं ज्ञेयं असत्यादिषु तादृशम् । इन एक सौ आठ पापको दूर करनेके लिये एकसौ आठ मणियोंकी माला कही गई है। एक-एक पाप के आलव या बंधको नाश करनेके लिये एक-एक मंत्र का जाप करना कहा है, इस प्रकार प्रातःकाल, मध्याह्नकाल और सायंकाल तीनों समय तीन सौ चौबीस जाप कर पापोंको दूर करना चाहिये। तीनों समय जाप करने वालोंके लिये तो पाप और धर्मको समानता रहती है। यदि तीन बारसे भी अधिक जप करे या तीन मालासे अधिक जप करे तो उसका फल अधिक होता है । यदि तीनों समय की तीन मालाओंसे कम जाप करे तो पापबंध अधिक रहता है । इसलिये प्रति दिन तीन सौ चौबीस जप करने से पूर्व संचित पाप भी नष्ट हो जाते हैं। ऐसा समझ कर णमोकार मंत्र का जप प्रतिदिन तीनों बार एक-एक माला जप कर अवश्य करना चाहिये । २२ - चर्चा बाईसवीं प्रश्न --जाप करते समय मालाको किस प्रकार जपना चाहिये ? समाधान -- जय करते समय मनको तो श्रीअरहन्त देवके ध्यानमें लगाना चाहिये | अपने बायें हाथको अपनी गोदी में रखना चाहिये। ज्ञानमुद्रा धारण करना चाहिये। अपने बायें हाथके अँगूठेपर माला रखनी चाहिये तदनंतर उस ज्ञानी पुरुषको अंगूठे और अंगूठेकी पासवाली उँगलीसे निर्मल जपकी मालाको लेकर जप करना चाहिये । सो हो धर्मरसिक ग्रंथ में लिखा है । १. "तन्यंगुष्ठयोगेन ज्ञानमुत्रेति भाविता" जनी उंगलीको नवाकर अँगूठेकी जड़से लगा देता, तीनों उँगलियाँ खड़ी रखना शानमुद्रा है । [ २३ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ |सागर २४] AARAATraumaruR समं ध्याने मनः कस्वा मध्यदेशेषु निश्चलम्। ज्ञानमुद्रांकितो भूत्वा स्वांके तु वामहस्तकम् ॥ १६ ॥ अंगुष्ठतर्जनीभ्यां तु सव्यहस्तेन निर्मलाम् । जपमालां समादाय जपं कुर्याद्विचक्षणः ॥ २० ॥ यह जप करनेकी विधि लियो, इसके सिवाय जो कोई मनुष्य अपने हृदयमें उद्वेग वा चंचलता रखता हुआ जप करता है अथवा मालाके मेरुदंडको उल्लंघन कर जप करता है अथवा जो उँगलीके नखके अग्रभागसे जप करता है वह जप सब निष्फल होता है । लिखा भी हैव्यग्रचित्तेन यज्जप्तं यज्जप्तं मेरुलंघने । नखाग्रेण च यज्जप्तं तज्जप्तं निष्फलं भवेत् ॥ इस प्रकरणमें मालाके भेद इस प्रकार समझने चाहिये । क्रियाकोशमें लिखा है। प्रथम फटिकमणि मोती माल । सोना रूपा सुरंग प्रवाल । जी पोत रेशम जान । कमलबीज फुनि सूत बखान ।। यह नव भाँति जापके भेद । भजिये जिनवर तजि मनखेद ॥ दूसरी जगह लिखा है-- सूत्रस्य जाप्यमालायाः सदा जापः सुखावहः । दग्धमृदस्थिकाष्ठानामक्षमालाऽफलप्रदा ॥१॥ सुवर्णरोप्यविद्रुमोक्तिका जपमालिकाः। उपवाससहस्राणां फलं यच्छन्ति जापतः॥ २ ॥ अर्थात् सूतको माला सदा सुख देनेवाली है। अग्निके द्वारा पकी हुई मिट्टी, हड्डी, लकड़ी और स्वाक्ष आदिकी मालाएं कुछ फल देनेवाली नहीं हैं, ये मालाएं अयोग्य हैं, ग्रहण करने योग्य नहीं हैं अर्थात् * स्फटिक, मोती, सोना, चाँदी, अच्छे रंगका मूगा, पोत, रेशम, कमलबीज, सूत । रायkasiRITRATESDEPRILमाचारमा - नामचा [ २४ . Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्चासागर [] इनसे जप कभी नहीं करना चाहिये तथा सोना, चाँदी, मूँगा और मोतीकी माला हजारों उपवासों का फल देनेवाली हैं। इनकी मालाओंके द्वारा जप करने से हजारों उपवासोंका फल मिलता है। इस प्रकार मालाओंका फल बतलाया । २३- चर्चा तेईसवीं चारण प्रश्न-जपते राम सरपंच प्रकार करना चाहिये ? समाधान -- एक णमोकार मंत्रका उच्चारण तोन श्वासोच्छ्वासमें करना चाहिये। उसकी विधि इस प्रकार है-श्वासको खींचते समय 'नमो अरहंताणं' यह पद पढ़ना चाहिये। फिर श्वासको छोड़ते समय 'णमो सिद्धाणं' यह पद पढ़ना चाहिये। फिर श्वासको खींचते समय 'नमो आइरिआणं' पढ़ना चाहिये। फिर श्वास छोड़ते समय ' णमो उवज्झायाणं' पढ़ना चाहिये । श्वासको खींचते समय 'णमो लोए' पढ़ना चाहिये। फिर छोड़ते समय 'सव साहूणं पढ़ना चाहिये। इस प्रकार तीन इवासोच्छ्वासमें एक बार णमोकार मंत्र का जाप हुआ । जप करते समय इसी प्रकार शुद्ध उच्चारण करना चाहिये । धर्मरसिकमें लिखा भी है। नमस्कारपदान् पंच जपेद्यथावकाशकम् । अष्टोत्तरशतं चार्द्धमष्टाविंशतिकं तथा ॥२१॥ दिये पद विश्रामा उश्वासा सप्तविंशतिः । सर्व पापै क्षयं याति जप्ते पंचनमस्कृते ॥ २२ ॥ ( अर्थात् समय मिलने पर णमोकार मंत्रको एकसौ आठ बार जपे अर्थात् चौअन बार जप करे अथवा अट्ठाईस बार जप करे एक-एक श्वासमें श्वास और उच्छ्वास दोनोंमें दो-दो पद विश्राम देकर जपें। इस प्रकार सत्ताईस श्वासोच्छ्वास द्वारा नौ बार नमस्कार मंत्र का जाप करें। इस प्रकार जप करनेसे समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं ) यहाँ पर जो सत्ताईस श्वास बतलाये हैं सो एक कायोत्सर्ग में नौ बार नमस्कार मंत्र अपनेकी अपेक्षासे बतलाये हैं । इस प्रकार नमस्कार मंत्रको वार्षिक, उपांशु और मानस इन तीन प्रकारसे अपनी शक्तिके अनुसार पढ़ना चाहिये, जपना चाहिये । २४ - चर्चा चौबीसवीं प्रश्न - नमस्कार मंत्र पढ़नेके जो वाचिक उपांशु और मानस ये तीन भेद बतलाये तो इनका स्वरूप क्या है ? ४ [ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चासागर [२६] समाधान--स्वरके तीन भेद हैं उदात्त, अनुदात्त और स्वरित । जिसमें इन तीनों प्रकारके स्वरोंका उच्चारण स्पष्ट हो ऐसे मंत्रोंके अक्षर पद और शब्दोंको स्पष्ट और शुद्ध रोतिसे उच्चारण करना और इस प्रकार उच्चारण करना जिसको सब सुन लें उसको वाचिक कहते हैं तथा जिसमें उदात्त, अनुदात्त, स्वरितके । । भेवसे अक्षर, पद, शब्दोंका उच्चारण शुद्ध तथा स्पष्ट हो परन्तु उस उच्चारणको कोई दूसरा सुन न सके। है उसको उपांशु कहते हैं । वाचिक और उपांशुमें सुनने न सुननेका हो अंतर है । वाधिक जपको सब सुन सकते है हैं और उपांशु जपको पास बैठनेवाला भी नहीं सुन सकता तथा अपने मनको एकान कर अपने ही मनके द्वारा चितवन करना और वह चितवन इस प्रकार करना जिसमें मंत्रोंकी जो अक्षरमाला है मंत्रोंमें जो । अक्षरोंका समुदाय है उसके अनर, पद और शब्द सब शुद्ध तथा स्पष्ट चितवन करने में आ जायें ऐसे जपको । मानसिक जप कहते हैं। इनका फल इस प्रकार है। मानसिक जप समस्त कार्योको सिलिके लिये किया जाता है. उपांश जप पुत्रप्राप्तिके लिये किया जाता है और वाचिक धनलाभके लिये किया जाता है तथा वाधिकका फल एक गुना है, उपांशुका फल सौ गुना है और मानसिक जपका फल हजार गुना है। ऐसा श्रीजिनसेनाचार्यने वाचिकाख्य उपांशुश्च मानसस्त्रिविधः स्मृतः। प्रयाणां जपमालानां स्याच्छ्रेष्ठो छु त्तरोत्तरः ॥ २३ ॥ यदच्चनीचस्वरितैः शब्दैः स्पष्टपदाक्षरैः। मंत्रमुच्चारयेद्वाचा जपो रोयः स वाचिकः ॥ २४ ॥ शनैरुच्चारयेन्मंत्रं मन्दमोष्ठौ प्रचालयेत्। अपरैरभुतः किंचित्स उपांशुर्जपः स्मृतः ॥ २५ ॥ १. उपांशु मंत्रमें धीरे-धीरे ओठ चलते हैं पर सुनाई नहीं पड़ता। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'विधाय चाक्षरभेण्यावर्णाप्तर्ग पदास्पदम् । शब्दार्थचिंत्तनं भूयः कथ्यते मानसो जपः ॥ २६ ॥ बासागर मानसः सिद्धिकाम्यानां पुत्रकाम उपांशुकः । [२७] वाचिको धनलाभाय प्रशस्तो जप ईरितः ॥ २७ ॥ वाचिकस्त्वेक एव स्यादुपांशु शत उच्यते । सहस्रं मानसं प्रोक्तं जिनसेनादिसूरिभिः ॥ २८॥ आचार्योने णमोकार मंत्र आदि मंत्रोंके जपनेको विधि इस प्रकार बतलाई है। २५-चर्चा पच्चीसवीं प्रश्न-ऊपरके जो जपके भेव बतलाये हैं वे किस आसनपर बैठकर करना चाहिये ? समाधान-सफेद वस्त्रके आसनपर, सया हल्दोके रेंगे हुये वस्त्रके आसनपर व सबसे उत्तम लाल बस्त्रके आसनपर वा डाभके आसनपर बैठकर जप करना चाहिये। णमोकार मंत्रका वा अन्य मंत्रोंका जप करनेके लिये अपथा भगवान अरहन्तदेवको पूजा करनेके लिये ऊपर लिखे चार प्रकारके आसनोंमेंसे किसी एक । आसनपर बैठकर जप या पूजन करनेका विधान आचार्योने बतलाया है। इनके सिवाय और भी अनेक प्रकारके आसन हैं परंतु उनपर बैठकर कभी भी जप या पूजा नहीं Pt करनी चाहिये। जो मनुष्य इन ऊपर लिखे चार आसनोंके सिवाय अन्य आसनोंपर बैठ कर पूजा वा जप करता है उसका फल उसके लिये बहुत बुरा होता है जैसे-जो बांसके आसनपर बैठकर पूजा वा जप करता है उसके दरिद्रता बनी रहती है । जो पाषाणको शिला आविपर बैठकर पूजा वा जप करता है उसके रोगको । पीडा बनी रहती है। जो पृथ्वोपर बैठकर पूजा वा जप करता है उसके सदा दुर्भाग्य ( भाग्यहीनता वा बदनसीबी ) बना रहता है। उसका सौभाग्य कभी नहीं रहता। जो तृण वा धासके आसनपर बैठकर पूजा १. मानसिक जप मंत्रके जो अक्षर है वे एक अक्षरके बाद दूसरा अक्षर । एक पदके बाद दूसरा पद और एक शब्दके बाद दूसरा शब्द मय अर्थके चितवन किया जाता है। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर [२८] वा जप करता है उसके यसको हानि होती है अर्थात् उसको सबा अपकीर्ति बनी रहती है। जो पत्तोंके बने हुए आसनपर बैठकर जप करते हैं उनका चित्त सदा विभ्रमरूप अथवा डाँवाडोल रहता है। अर्थात् उनका चित इधर-उधर फिरता ही रहता है स्थिर नहीं रहता। जो अजिन अर्थात् हिरणके चमड़े मृगछाला बाघके चमड़े आदि आसनोंपर बैठकर जप करते हैं उनके ज्ञानका नाश हो जाता है। जो कंबल बनात, चकमा आदिव उनके बने हुए आसनोंपर बैठकर जय वा पूजा करता है उसका पाप सदा बढ़ता ही रहता । जो नीले रंग के वस्त्रके आसन पर बैठकर पूजा वा अप करता है वह अधिक दुःख भोगता है, हरे वस्त्र आसनपर बैठकर पूजा वा जप करता है उसका सदा मानभंग होता रहता है। इस प्रकार बोषवाले आसन बतलाये । इन दोषवाले आसनोंको छोड़कर पहले लिखे हुए चार आसन हो ग्रहण करना चाहिये । इन चार आसनोंपर बैठकर पूजा वा जप करनेसे शुभ फल होता है, और वह इस प्रकार होता है। सफेद वस्त्र आसनपर बैठकर पूजा का जप करनेसे यशको वृद्धि होती है। हल्बीके रंगे वस्त्र आसनपर बैठकर पूजा वा जप करने से हर्षकी वृद्धि होती है। लाल वस्त्रका आसन सबसे श्रेष्ठ है तथा डाभका आसन सब कार्योंको सिद्धि करनेवाला और सबसे उत्तम है। कहनेका यि यह है कि सब आसनोंमें डाभका आसन सबसे श्रेष्ठ है सो ही धर्मरकि नामक ग्रन्थ में लिखा है वंशासने दरिद्रः स्यात्पाषाणे व्याधिपीडितः । धरण्यां दुःखसंभूतिर्दोर्भाग्यं दारुकासने ॥ १५ ॥ तृणासने यशोहानिः पल्लवे चित्तविभ्रमः । अजिने ज्ञाननाशः स्यात्कंबले पापवर्द्धनम् ॥ १६ ॥ नीले वस्त्रे परं दुःखं हरिते मानभंगता । श्वेतवस्त्र यशोवृद्धिः हरिद्रे हर्षवर्द्धनम् ॥ १७॥ रक्तवस्त्र' परं श्रेष्ठं प्राणायामविधौ ततः । सर्वेषां धर्मसिद्धयर्थं दर्भासनं तु चोत्तमम् ॥१८॥ इसके सिवाय हरिवंशपुराण में लिखा है कि श्रीकृष्णने समुद्र के किनारे तेला स्थापन कर जाभके आसनपर बैठकर अपने कार्यकी सिद्धि की तथा आदिपुराणमें जो गर्भाम्बय आवि क्रियाएं लिखी हैं उनमें भी के आसनका ही विशेष वर्णन लिखा है। इससे सिद्ध होता है कि डाभका आसन ही सबसे उत्तम है । १. आजकल चटाई पाटा आदिपर जो जप करते हैं, वे भूलते हैं, आगे लिखे श्लोक देखने चाहिये । [ २८ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर २६-चर्चा छब्बीसवीं प्रश्न-ऊपर लिखे मंत्रोंका जप किस जगह करना चाहिये ? समाधान--अपने घरमें जप करनेका फल एक गुना है, वनमें जप करनेका फल सौगुना है। यदि पवित्र बागमें बा किसो वनमें जप करे तो उसका फल हजार गुना है। यदि जिनमंदिरमें जप करे तो उसका फल करोडगुना है। यदि भगवान जिनेन्द्रदेवके समीप जप करे तो अनंतगुना फल है। यही बात धर्मरसिक नामके ग्रन्थमें लिखी है। गृहे जपफलं प्रोक्तं वने शतगुणं भवेत् । पुण्यारामे तथारण्ये सहस्रगुणितं मतम् ॥३१॥ पर्वते दशसहस्र नद्यां लक्षमुदाहृतम् । कोटि देवालये प्राहुरनन्तं जिनसन्निधौ ॥ ३२ ॥ इससे सिद्ध होता है कि घर, वन, बाप आदि जगहोंसे भगवान जिनराजके निकट जप करनेसे अनंतगुना फल प्राप्त होता है। जप करनेका विधान इस प्रकार है-मोक्षकी प्राप्तिके लिये अंगूठेसे जपना चाहिये औपचारिक कार्योमें तर्जनी उँगलीसे ( अंगूठेको पासवाली उंगलीसे ) जपना चाहिये । धन और सुखकी प्राप्तिके लिये मध्यमा । का बीचको जंगलोसे जप करना चाहिये । शान्तिक कार्यों में ( शान्ति कर्ममें किसी ग्रह वा उपद्रवको शांत । करनेके लिये ) अनामिका उंगलीसे ( बीचको उँगली पासवाली उंगलीसे । जपना चाहिये। तथा आहानन करनेके लिये कनिष्ठा उँगलीसे ( सबसे छोटी ऊँगलोसे) जपना चाहिये। शत्रुको नाश करनेके लिये तर्जनी उँगलीसे, धनसंपदाके लिये मध्यमासे, शांतिके लिये अनामिकासे और सकार्योकी सिद्धिके लिये कनिष्ठासे जपना चाहिये । इस प्रकार अलग-अलग उंगलियोंसे जप करनेका फल बतलाया है। लिखा भी हैअंगुष्ठजापो मोक्षाय उपचारे तु तर्जनी। मध्यमा धनसौख्याय शान्त्यर्थं तु अनामिका। .....कनिष्ठा सर्वसिद्धिदा। ........... १. पर्वतपर जपना दसहजारगुना फल देता है और नदोके किनारे जपता लाखगुना फल देता है। * 'तर्जनी शत्रुनाशाय' ऐसा पाठ होना चाहिये । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SETHd सागर १०] - चारजनामचा इस प्रकार यह जप करनेकी विधि बतलाई है सो समयानुसार इस विधिके अनुसार जप करमा चाहिये। २७-चर्चा सत्ताइसवीं यदि जप करते समय किसी कारणसे विघ्न आ जाय तो उसका प्रायश्चित किस प्रकार करना चाहिए ? समाधान-स्नान कर धोती पट्टा वो वस्त्र पहनकर सदाचारपूर्वक जप करनेके लिये बैठना चाहिये। और उस समय इतनी बातोंका त्याग कर देना चाहिये । जो अपने व्रतोंसे भ्रष्ट हो गया है उसका तथा शून-है का देखना, इन दोनोंके साथ बात चीत करना इन दोनोंके वचन सुनना, छींक लेना । यदि जप करते समय ये ऊपर लिखी बातें हो जाये तो उसी समय जप छोड़ देना चाहिये और फिर आचमन और षडंग-छह अंगोंसे सुशोभित प्राणायाम कर बाकी बचे हुए अपको अच्छी तरह करना चाहिये। यदि आचमन और प्राणायाम न हो सके तो भगवान जिनेन्द्र देवके दर्शन कर पीछे जप करना चाहिये । भावार्थ--जपके ऐसे विघ्नोंको शुद्धि । आचमन दा प्राणायामसे होती है। यदि आचमन व प्राणायाम न बन सके तो भगवान के दर्शन कर शव कर लेनी चाहिये । विघ्न आ जाने पर बिना शुद्धि किये जप नहीं करना चाहिये । सो ही धर्मरसिक प्रन्यमें लिखा है। बसच्युतान्त्यजातीनां दर्शने भाषणे श्रुते । क्षतेऽधोवातगमने ज भने जपमुत्सृजेत् ॥३३॥ प्राप्तावाचम्यते तेषां प्राणायामं षडंगकम् । कृत्वा सम्यक् जपेच्छष यद्वा जिनादिदर्शनम् ॥ ३४ ॥ इससे सिद्ध होता है कि छींक अधोवात आदि विघ्न आ जाने पर प्राणायाम आचमन वा जिनदर्शन कर फिर बाकीका जप पूर्ण करना चाहिये । जो श्रावक जप करते समय प्रमादी होकर ऊँघते हैं नोंदका मोका लेते हैं अथवा बार-बार उवासी I लेते हैं अथवा और किसी प्रकारका प्रमाव करते हैं उनका जप करना न करनेके समान है । PawareANIRAHATARNATANTAR ३०। Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मसार २८-चर्चा अठाईसवीं कर्मोके आस्रवको रोकनेके लिये और कर्मोको निर्जरा करनेके लिये मुनिराज बाईस परिषहोंको जीतते चर्चासागर हैं उन परिषहोंके नाम ये हैं-शुधा, तृषा, पोत, उष्ण, देशमशक, नान्य, अरति, स्त्री, चर्या, आसन, शय्या, [३१] आक्रोश, बघ, याचा, अलाभ, रोग, तृष्णस्पर्श, मल, सरकार, प्रज्ञा, अज्ञान, अदर्शन । ये बाईस परिषह बतलाई हैं सो इन परिषहोंमेंसे कौन-कौन परिषह किस-किस कर्मके उदयसे होती है ? समाधान-प्रज्ञा और अज्ञान ये वो परिषह ज्ञानावरण कर्मके उदयसे होती है, अवर्शन परिषह वर्शन मोहनीय कर्मके उदयसे होती है। अलाभ परिषह अन्तराय कर्मके उदयसे होती है। नाग्न्य, अरति, स्त्री, निषधा, आक्रोश, याचा, सत्कार, पुरस्कार ये सात परिषह चारित्रमोहनीय कर्मके उदयसे होती हैं । तथा चाकोको क्षुषा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श, मल ये ग्यारह परिषह वेवनीय कर्मफे उदयसे होती हैं। सो ही मोक्षशास्त्र वा सस्थार्थसूबमें लिखा है ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने। दर्शनमोहान्तराययोरदर्शनालाभौ। चारित्रमोहे नाग्न्यारति स्त्रीनिषद्याक्रोशयाञ्चासत्कारपरस्काराः। वेदनीये शेषाः॥-अध्याय ९ सूत्रसंख्या १६ । यही बात मूलाचारप्रदीपकको बारहवीं संधिमें लिखी है। ज्ञानावरणपाकेन प्रज्ञाज्ञानपरीषहो । दर्शनाभिधमोहोदयेनादर्शनसंज्ञकः ॥१६२॥ लाभान्तरायपाकेनस्यादलाभपरीषहः। नाग्न्यभिधानिषद्या चाकोशो याञ्चापरीषहः॥१६३॥ । स्यात्सत्कारपुरस्कारो मानायकषायतः । अरत्यारतिनामा वेदोदयास्त्रीपरीषहः ॥१६॥ वेदनीयोदयेनात्र क्षुत्पिपासापरीषहाः। शीतोष्णाख्यो तथा दंशमशको हि परीषहः ॥१६॥ शय्या चर्या बधो रोगःतृणस्पर्शी मलाह्वयः । एकादश इमे पुंसां प्रजायंते परोषहः ॥१६६|| इस प्रकार और भी अनेक शास्त्रों में लिखा है। १. माग्न्य, निषद्या, आक्रोश, यांचा सत्कार, पुरस्कार ये मान कषायके उदयसे होतो हैं। अरति परिषह अरति कषायके उदयसे होती है और स्त्री परिषह वेद कर्मके उदयसे होती है । इस प्रकार सात परिषह चारित्रमोहनीय कर्मके उदयसे होती हैं। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामर [३२] २६ - चर्चा उनतीसवीं ऊपर जो बाईस परिषह बतलाई है वे मुनिराज के एक समयमें सब उदयमें आती है या कुछ कम भी उदयमें आती हैं । समाधान – मुनिराजके एक समय में इन बाईस परिषहोंमेंसे उनईस परिषह उदयमें आ सकती हैं। तीन परिवह उदयमें न आनेका कारण यह है कि शीत, उष्ण इन परिषहोंमेंसे किसी एकका ही उदय रहता है। दोनोंका उदय एक साथ नहीं हो सकता । जहाँ उष्णता है वहाँ शोत परिषह नहीं होती हे और जहाँ शीत वहाँ उष्ण परिषद्का अभाव रहता है। इस प्रकार इन दोनों परिषहोंमें से कोई एक परिषह होती है । तथा चर्या आसन शय्या इन तीनोंमेंसे कोई सी एक परिषह हो सकती है। जब मुनिराज चलते हैं तब आसन और शाका अभाव है । जब आसन परिवह है अर्थात् वे विराजमान हैं तब शथ्या और चर्याका अभाव है और जब शय्या है अर्थात् वे सो रहे हैं तब चर्या और आसनका अभाव है इस प्रकार एक मुनिराजके एक समय में इन तीनों परोषहोंमें से कोई एक परिषह हो सकती है। इस प्रकार एक समयमें एक मुनिराज के उनईस परिषह ही हो सकती हैं सो ही मोक्षशास्त्रमें लिखा है- एकादयो भाज्या युगपदेकस्मिन्नैकोनविंशतेः । यही बात मूलाधार प्रदीपकमें लिखी है- एकस्मिन् समये ह्य कजीवस्य युगपद्भुवि । परीषहाः प्रजायन्ते ऽगिनां चैकोनविंशतिः ॥ १६७॥ मध्ये शीतोष्णयो नमेक एव परीषहः । शय्याचर्यानिषयानां तथैकः स्यानचान्यथा ॥१६८॥ इस प्रकार एक समय में एक मुनिराजके अधिकसे अधिक उनईस परिषह ही उदयमें आती हैं। ३० चर्चा- तीसवीं ये ऊपर लिखी परिवहें कौन-कौन से गुणस्थानमें होती हैं ? समाधान -- मिथ्यात्व, सासावन, मिश्र, असंयत, वेशव्रत, प्रमत्त, अप्रमत्त इन सातों गुणस्थानोंमें पहले कही हुई बाईसों परिषहोंका उदय होता है । अपूर्वकरण नामके आठवें गुणस्थानमें अदर्शन परिषहको छोड़कर [२] Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर SMARTIMATE- खाको इकईस परिवहोंका उब्य है। नौवें अनितिकरण गुणस्थानमे अवर्शन और अरति परिषहको छोड़कर बाकी बीस परिषहोंका उदय है । उसी अनिवृत्तिकरण नौवें गुणस्थानमें जब शुक्लध्यानके द्वारा वेव कर्मका नाश हो जाता है तब स्त्रीपरिषह भी नष्ट हो जाती है उस समय स्त्री परिषहके बिना बाकी उनईस परिषहोंका । उदय रहता है । तदनंतर उसी अनिवृत्तिकरण नामके नौवें गुणस्थानमें जब मान कषायका नाश हो जाता है वा उपशम हो जाता है तब नाग्न्य, निषद्या, आक्रोश, याञ्चा, सत्कार पुरस्कार इन पांच परिषहोंका अभाव हो। जाता है इसलिये उस समयसे लेकर बाकीके नौवें गुणस्थानमें तथा वशवें ग्यारहवें बारहवें गुणस्थानमें वीतराग । छपस्थके ऊपर लिखो नाग्न्य, निषद्या, आक्रोश, याचा और सत्कारपुरस्कार इन पांच परिषहोंको छोड़कर सुबाकोको चौदह परिषह हो सकती हैं। इन चारों गुणस्थानों में जो ये चौवह परिषह होती हैं वे बहुत ही थोड़ी असाता उत्पन्न कर सकती हैं। तथा घातिया कर्मोके नाश होनेपर तेरहवें मुणस्थानवर्ती सर्वज्ञ पोतरागके इन चौवह परिषहोंमेंसे प्रशा अज्ञान और अलाभ परिषहको छोड़कर बाकीको ग्यारह परिषहोंका उदय रहता है। ये ग्यारह परिषह बेदनीय' कर्मके उदय होनेसे नाममात्रके लिये कही गई हैं परन्तु हैं उपचारमात्र क्योंकि घातिया कर्मोके नाश होनेसे वे अपना कार्य करनेमें समर्थ नहीं हो सकती अतएव वे किंचितमात्र भी पीड़ा नहीं दे सकतीं । वे अत्यन्त निर्बल केवल कहने मात्रकी हैं। इस प्रकार अलग-अलग गुणस्थानों में परिषहोंका उदय बतलाया । सो ही मूलाधार प्रवोपकमें लिखा है। मिथ्यात्वाद्यप्रमत्तांतगुणस्थानेषु सप्तसु । सर्वे परीषहाः संति ह्यपूर्वकरणे सताम्॥१६॥ PAPARICHAMPAIRepeap १. वेदनीय कर्म मोहनीय कर्मफे उदय होने पर ही अपना काम करता है। मोहनीय कर्मके नाश हो जाने पर वेदनीय कर्म कुछ काम नहीं कर सकता इसीलिये तेरहवें गुणस्थानमें सब परिषहोंका अभाव है। तत्वार्थसूत्र में जो 'एकादश जिने' सूत्र लिखा है उसका भी यही अर्थ है कि भगवान् जिनेन्द्र देवके बाकोको ग्यारह परिषह भी नहीं हैं। यह अर्थ इस प्रकार निकलता है 'न। दश अदश' । अर्थात् दशके अभावको अदश कहते हैं। 'एकेन सह न दश एकादश' अर्थात् एकके साथ दशका अभाव अर्थात् ग्यारहके अभावको एकादश कहते हैं । जिनेन्द्र भगवान् के ग्यारह परिषहोंका अभाव है। भगवान जिनेन्द्रदेवके वातिया कर्मोके नाश होनेसे ग्यारह परिषह तो अपने आप नष्ट हो जाती है। वेदनीय कर्मके उदयसे होने वाली ग्यारह परिषहोंका निषेध इस सूत्रने कर दिया । इस प्रकार भगवान् अरहवदेवके समस्त परिषहोंका अभाव सिद्ध हो जाता है। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चासागर .३४] SaaShTARA- अदर्शनं विना कविंशतिः स्पः परिषहाः। विंशतिश्चानिवृत्तौ हि विनारतिपरीषहान् ॥ १७० ।। व शुक्लध्यानेन तत्रव प्रनष्टे वेदकर्मणि । स्याख्ये परीषहे नष्ट तस्य रेकोनविंशतिः॥१७१॥ ततो मानकषायस्य क्षयात्तत्रैव वा शमात् । नाग्न्यनाम निषयाख्याक्रोशयांनाणगिहाः । । सत्कारादिपुरस्कारश्चामीभिः पंचभिर्विना। अनिवृत्त्यादिषु क्षीणकषायांतेषु निश्चितम् ॥ १७३ ।। गुणस्थानचतुष्केषु चतुर्दशः परिषहाः । छद्मस्थवीतरागाणां भवन्त्यल्पासुखप्रदाः ॥१७॥ नष्टे घातिविधौ क्षीणकषाये च परिषहाः। प्रज्ञाज्ञानाह्वयालामा नश्यति घातिघातिनः॥१७५॥ । केवलज्ञानिनां वेदनीयाख्यविद्यमानतः । उपचारेण कथ्यतेऽत्रैकादशपरिषहाः ॥१७६॥ । घातिकर्ममलापायात्स्वकार्यकरणेऽक्षमाः। दातुदुःखमशक्ताश्च विगतांतसुखाश्रयात् ॥ मोक्षशास्त्रमें भी यही बात लिखी हैसूक्ष्म साम्परायछद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश । यकादश जिने। वादसांपराये सर्वे। अध्याय ९ सत्र सं० १०-११-१२ ॥ ३१-चर्चा इकत्तीसवीं चारों गतियोंमें रहने वाले जीवोंके किस-किस परिषहका उदय है अर्थात् चारों गतियों से प्रत्येक मतिमें किस-किस परिषहका उदय है। समाधान--चारों गतियोंमेंसे नरकमें रहनेवाले नारको जोवोंके तथा तियंच गतिमें रहने वाले तिर्यचों। के समस्त परिषहोंका उदय है और वह भी अत्यन्त तोव, अत्यन्त घोर और सबसे अधिक है । तथा देव गतिके १. बारहवें गुणस्थानमें 'डनीय कर्मका अभाव हो जाता है इसलिये वहाँ भी उपचार मात्रसे ही परिषहोंका उदा. । य -asiara Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यासागर [३५] । सब देवोंके प्रशा, अज्ञान, अदर्शन, अलाभ, अरति, नान्य, स्त्रो, निषधा, आक्रोश, याञ्चा, सस्कारपुरस्कार, H क्षुधा, तृषा, अध इन चौदह परिषहाँका उदय है, सो भी बहुत थोड़ा है। मनुष्य गतिके जीवोंके लिये गुणस्थानोंके अनुसार पहले लिख हो चुके हैं उसीके अनुसार समझ लेना चाहिये । इस प्रकार चारों गतियोंमें रहने वाले जीवोंके पृथक्-पृथक् परिषहोंका उदय बतलाया है । सो हा मूलाचारप्रदीपकमें लिखा है। सर्वे तीवतराः संति सर्वोत्कृष्टाः परिषहाः ।नारकाणां गतौ घोरास्तथा तिर्यग्गतावपि ॥१७॥ प्रज्ञाज्ञानाभिधादर्शनालाभनाग्न्यसंज्ञकाः।अरतिस्त्रीनिषद्याख्याक्रोशयांचापरीषहाः॥१७६।। सत्कारादिपुरस्कारः क्षत्पिपासाबधोप्यमी। संति देवगतौ स्वल्पाश्चतुर्दशपरिपहाः॥१८॥ ३२-चर्चा बत्तीसवीं ___मोक्षमार्ग अनाविकालसे है। संसारराशिके जीव अनाविकालसे संसारका नाश कर मोक्ष प्राप्त करते आ रहे हैं। वर्तमानमें भी विवहक्षेत्रसे जाते हैं तथा आगे भो अनन्तकाल तक आते रहेंगे परन्तु फिर भी सिद्धराशि बढ़ती नहीं और निगोवराशि घटती नहीं। सिद्धराशि और निगोदराशि वैसीकी वैसी ही अनन्तानंत। रूप बनी रहती है तो यह कहना किस प्रकार सिद्ध हो सकता है। क्योंकि जो पदार्थ जहाँसे निकलता है वहां ! घटमा चाहिये और जहाँ जाता है वहां बढ़ना चाहिये। इस हिसाबसे सिद्धराशि बढ़नी चाहिये और निमोदराशि घटनी चाहिये ? समाधान-इस संसारमें निगोदराशि असंख्यात लोक प्रमाण है और एक एक निगोधराशि अनंता-है नंत निगोविया जीव निवास करते हैं। उन अनंतानंत जीवोंमेंसे यदि किसो जीवके स्थावर नाम कर्मका उपशमा १. स्वर्गों में शोत, उष्ण, दंशमशककी बाधा होती ही नहीं वैक्रियिक शरीर होनेसे रोग, तुणस्पर्श, मल और शय्याको बाधा नहीं है a तथा विमान बनानेकी शक्ति होनेसे अथवा वेक्रियिक शरीर होनेसे ही चर्याको भी परिषह नहीं है । २. इस लोकाकाशमें स्कंधोंको संख्या असंख्यात लोकप्रमाण है, प्रतिष्ठित प्रत्येक जीवोंके शरीरोंको स्कंध कहते हैं। लोकाकाशके जिनने प्रदेश हैं उनको असंख्यातसे गुणा कर देने पर जो लब्धि आवे उतनो संख्या उन स्कंधोंकी है। तथा एक एक स्कंधर्म असंख्यात लोकप्रमाण अंडर हैं। एक एक अंडरमें असंख्यात लोक प्रमाण आवास हैं। एक एक आवास असंख्यात लोक प्रमाण पुलवि हैं तथा एक एक पुलविमें असंख्यात लोकप्रमाण निगोदशरीर हैं और एक एक निगोद शरीरमें अनंतानंत जीव हैं। Harre-TeamesepeesmeeMeingMAnsweetnese-PARKa Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक हो जाय तो वह जीव वहाँसे निकलकर वो इंद्रिय आवि स पर्यायमें आकर उत्पन्न होता है । उस निगोद राशिसे जितने जीव निकलफर उस पर्याय धारण कर संसारको व्यवहार राशिमें आते हैं उतने ही जीव व्यवचर्चासागर हार राशिसे निकलकर समस्त कर्माका नाशकर मोझ चले जाते हैं। इस प्रकार व्यवहार राशि उतनीकी उस [३६] ही बनी रहती है । इस प्रकार जैनशास्त्रोंमें भगवान् जिनेन्द्रदेव ने कहा है सो सर्वथा निसंदेह है। इसको उदाहरण वेकर समझाते हैं। जैसे पचवह आदि छहों ग्रहों से गंगा सिंघु आदि चौवह नदियां निकलती हैं तथा अनादि- ॥ कालसे उन ग्रहों से पानी निकलता रहता है और समुद्र में पड़ता रहता है तो भी ब्रहोंका पानी घटता नहीं। बश १. इसका अभिप्राय यह है कि यद्यपि नित्यनिगोद राशिमेंसे जो जीव निकलते हैं वे कम अवश्य हो जाते हैं परन्तु वे अक्षय अनंतानंत हैं कम होनेपर भी उनको अक्षय अनंतानंत संख्या कमी कम नहीं होती। जैसे आकाश अनंत है और वह चारों ओर मत है यदि हम किसी एक और किसी तेज सवारीसे चलें तो उस ओरका जो आकाश है वह जितना हम चलते हैं उतना कम तो अवश्य होता जाता है परन्तु वह बाकी भी. हमेशा अनंत ही रहता है। इस प्रकार यदि हम अनंत कालतक चलते रहें तो उतना अनंत आकाश कम हो जायगा परन्तु फिर भी बाकी आकाश अनंत ही रहेगा। अनंतमेंसे अनंत निकाल लेनेपर भी अनंत ही बाली रहते हैं जैसे करोड संख्यात हैं और दस भी संख्यात हैं करोडमसे दस निकल जाने पर अथवा सौ वा हजार निकल जाने पर भी हि संख्यात हो बाकी रहते हैं इसी प्रकार अनन्तमेंसे अनंत निकल जानेपर भी अन्त ही बाकी रहते हैं। जब आकाश अनन्त है और उसमेंसे अनन्तकाल तक चलते चलते अनन्त आकाश घट जाता है, परन्तु फिर भी बाकी आकाश अनन्त हो रहता है। यदि बाको आकाश अनन्त न माना जाय तो फिर आकाशका अन्त आ जाना चाहिये, सो है नहीं क्योंकि आकाश सर्वत्र व्यापक है। यदि आकाशका अन्त मान लिया जायगा तो फिर उसके व्यापकपनेका अभाव मानना पड़ेगा परन्तु आकाशको व्यापक सबने माना है इसलिए जिस प्रकार आकाश अनन्त होकर भी तथा उसमें से अनन्त आकाश घट जानेपर भी सर्वत्र व्यापक होनेसे बाकी आकाश अनन्त ही रहता है उसी प्रकार अक्षयानन्तानन्त निगोदराशिमसे निकलनेवालों की संख्या घट जानेपर भो वह निनोदराशि सदा । अक्षय अनन्तानन्त हो बनी रहती है। इसमें कोई किसी प्रकारका संदेह नहीं है। इसी प्रकार सिद्धराशि अनन्तानन्त है उसमें अनादिकालसे जोव बढ़ते आ रहे हैं तथा वढ़ते जागे फिर भी वह सदा अनंतानंत ही रहेगी । जैसे आकाश अनन्त है यदि हम पूर्वको चलें तो पूर्वकी ओरका आकाश तो घटता जाता है और पश्चिमको ओरका । आकाश बढ़ता जाता है। यदि हम इस प्रकार अनन्त कालतक चलते रहें और इस प्रकार पश्चिमको ओरका आकाश अनन्तरूपसे ही बढ़ता रहे तो मो अनन्त हो रहता है। न तो पूर्वका आकाश अनन्तसे घटता है और न पश्चिमका आकाश अनन्तरूपसे बढ़ता है। इसी प्रकार निगोद राशि से जीवोंके निकलते रहने पर भी निगोद राशिका अक्षय अनन्तानन्तपन कभी नहीं घटता तथा सिद्ध राशिमें अनादिकाल से जीव बढ़ते जा रहे हैं और अनंत कालतक बढ़ते जायगे तब भी उनकी संख्या अनंतानंतसे कमी नहीं बढ़ेगी। ।। इस प्रकार न तो संसारको जीवराशि कभी घटती है और न सिद्धराशि कभी बढ़ती है। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोस चालीस योजन गहरा बना ही रहता है, भूत भविष्यत् वर्तमान किसी भी कालमें उन ब्रहोंका पानी नहीं घटता तथा समुद्रका जल कभी बढ़ता नहीं समुद्रको मर्यावा भी अनावि कालसे अनंतकाल तक जैसेको तेसे हो 'पर्चासागर बनी रहती है। अथवा आकाशसे जलकी वर्षा होती है और वह सब समुद्र में जाती है तो भी आकाशमं जल [ ३७] घटता नहीं और समुद्र में बढ़ता नहीं इस प्रकार और भी उदाहरण हैं। ३३-चर्चा तेतीसवीं प्रश्न-यम नियमका अर्थ क्या है ? समाधान-अपने जीवन पर्यंत पापोंका त्याग करना यम है और एक मुहूर्त एक दिन महीना को । महीना वर्ष दो वर्ग पनि कालपी मशिला गापा माग करना सो नियम है । सो हो रत्नकरंडनावकाचारमें लिखा है । "नियमः परिमितकालो यावज्जीवं यमो ध्रियते" इसका भी अभिप्राय यह है कि महामुनियोंके यम रूप त्यागको मुख्यता है नियमरूप त्यागकी गौणता है तथा श्रावकोंके नियमरूप त्यागको मुख्यता है और यमरूप गौणता है । ३४-चर्चा चौंतीसवीं प्रश्न-उपवासका लक्षण क्या है? समाधान-उपवास धारण करनेवाले भव्यजीव उपवास धारण करनेके समयसे लेकर आठ पहर तक, बारह पहर तक अथवा सोलह पहर तक क्रोध मान माया लोभ इन चारों कषायोंका सर्वथा त्याग कर देते हैं. स्पर्शन रसना घ्राण चक्षु श्रोत्र इन पाँचों इन्द्रियों के स्पर्श रस गंध वर्ण शब्द इन विषयोंका सर्वथा त्याग कर देते हैं और 'खाद्य स्वाय अवलेह पान इन चारों प्रकारके आहारोंका सर्वथा त्याग कर देते हैं। इन सबके त्याग १ करनेको उपवास कहते हैं। जो लोग क्रोधादिक कषायोंका त्याग किए बिना हो केवल भोजन पान आदिका १. दाल, रोटी, भात आदि भोजनके पदार्थोको खाध कहते हैं। पेड़ा, बरफी लौंग, इलायची आदि स्वाद लेने योग्य पदार्थोंको स्वाद्य करते हैं। चाटने योग्य रबड़ी, चटनी आदिको अवलेह कहते हैं और दूध, पानी आदि पीने योग्य पदार्थोको पान कहते हैं। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । त्याग कर देते हैं और उसको उपवास कहते हैं सो मिथ्या है । जैनधर्मके अनुसार यह उपवास नहीं किंतु लंघन कहलाता है । सो स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षामें लिखा हैबर्षासागर उववासं कुठवंतो आरंभं जो करेदि मोहादो। [३८] सो णियदेहं सोसदि ण झाणए कम्मसेसपि ॥ ३७७ ॥ इसको टोकामें भी लिखा हैकषायविषयाहारत्यागो यत्र विधीयते । उपवासः स विज्ञेयः शेषं लंघनकं विदुः॥ प्रश्न- इससे सिद्ध होता है कि कवाय इंद्रियोंके विषय सब तरहके आरंभ और चारों प्रकारके आहारोंका त्याग करना हो उपवास है। ३५-चर्चा पैतीसवीं यदि किसीके ऊपर लिखे अनुसार उपवास करनेको शक्ति न हो और वह बीचमें जल पी लेवे तो उसको कैसा फल लगता है। समाधान-पहली बात तो यह है कि उपवास ऊपर लिखे अनुसार ही करना चाहिये। यदि कोई होनशक्सिवाला उपवासके दिन जल पी ले तो उसके आठवां भाग फल नष्ट होजाता है। यह बात प्रश्नोसरोपासकाचार नामके ग्रंथमें प्रोषधोपवासके कथन करते समय लिखी हैनीरादानेन हीयेत भागश्चवाष्टमो नृणाम् । उष्णेनैवोपवासस्य तस्मान्नीरं त्यजेत्सुधीः ।। ३६-चर्चा छत्तीसवीं प्रश्न-पंचोपचारी पूजाका स्वरूप क्या है ? समाधान---आह्वानन, स्थापन, सन्निधिकरण, पूजा और विसर्जन पे पाँच पूजाके उपचार वा अंग ! १. जो उपवास करता हुआ भी मोहके वश होकर आरंभ करता है वह केवल अपना शरीर सेखता है। उससे उसके कर्म कुछ भी नष्ट नहीं होते। । २. जिसमें कषाय विषय और आहारका त्याग किया जाता है उसोको उपवास कहते हैं बाकी सब लंघन हैं। [10 Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | कहलाते हैं । इनका स्वरूप इस प्रकार है-जो अरहंत देव आविकी पूजाके समय मंत्र पढ़कर उनका आह्वानम करना उसके लिए युरुप अक्षत आदि स्थापन करना सो पहला आहानन नामका उपचार है । आह्वाननके बाद पर्चासागर मंत्र पढ़कर तथा पुष्प अक्षत आदि स्थापन कर उन पूज्य अरहंत आदिका स्थापन करना सो स्थापना नामका ३९] दूसरा उपचार है। स्थापना करनेके बाद पुष्प अक्षत आदिके द्वारा उन पूज्य अरहंताविकोंको अपने समीप करना सो सन्निधिकरण नामका तोसरा उपचार है । तदनंतर जल चंवन अक्षत पुष्प नैवेध बोप धूप फल अर्धादिसे मंत्र पूर्वक उन पूज्य अरहंत आधिको पूजा करना सो चौथा पूजा नामका उपचार है तथा पूजा करनेके बाद स्तुति जप वंदना आदि करके मंत्र पढ़कर और पुष्प अक्षत आदि क्षेपण कर उनका विसर्जन करना । । सो विसर्जन नामका पांचवां उपचार है । इस प्रकार पंचोपचारी पूजाका स्वरूप जानना । सो ही लिखा है ओं ह्रीं अर्हन श्रीपरमब्रहान् अत्रावतरावतर संवौषट् । इति आह्वाननम् । ओं ह्रीं अर्हन् श्रीपरमब्रह्मान अश्र तिष्ठ तिष्ठ ४ः ठः स्थापनम् । Tओं ह्रीं अर्हन् श्रीपरमब्रह्मन् अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् इति सन्निधापनम् । भाओं ह्रीं परमब्रह्मणे अनंतानंतशानशक्तये अष्टावशदोषरहिताय षट्चत्वारिंशद्गुणविराजमानाय अर्हत्परमेष्ठिने में जलं निर्वपामोति स्वाहा ।। इसी प्रकार चंबन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, वीप, धूप, फल, अर्ध आदि द्रव्य चढ़ाते समय बोला जाता है। तथा विसर्जन करते समय यह पढ़ा जाता है “ओं ह्रीं अर्हन् श्रीपरमब्रह्मन् स्वस्थानं गच्छ गच्छ जः जः जः" । इस प्रकार पंचोपचारी पूजाका स्वरूप 'पूजासार' तथा प्रतिष्ठापाठ और जिनसंहिता आदि समस्त पूजाओंके पाठोंमें लिखा है। इसलिए शास्त्र गुरु आविको पूजा भी इसी रोतिसे समझनो चाहिए अर्थात् इनकी पूजा भी पंचोपचारी करनी चाहिये। कदाचित् यहाँपर कोई यह पूछे कि पंचोपचारके शब्द किस किस धातुसे बने हैं तो इसका उत्तर यह है कि आह्वान शब्द हृञ् धातुसे बना है । खेज् धातुका अर्थ आह्वान वा बुलाना है । स्थापन शब्द स्था धातुसे १. इन पांचों उपचारोंमें जो संवौषट्, ठः ठः, वषट् आदि शब्द हैं वे बीजाक्षर हैं। आह्वाननमें संवौषट्, स्थापनमें ठः ठः, सन्निधि करणमें वषट् और विसर्जनमें जः जाता है। RRZARSAATAPratis p arda Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ४० ] बना है। स्था धातुका अर्थ गतिनिवृत्ति वा ठहरना है उसका पंचमी वा लोटका मध्यम पुरुषका एकवचन । तिष्ठ बनता है । सम् पूर्वक नि पूर्वक घि धातुका अर्थ निकट होता है। यज् धातु का अर्थ पूजा करना है। इसोसे याग वा इज्या बनता है। जिसका अर्थ पूजा करना है। तथा जः इस बीजाक्षरका अर्थ गमन करना है। अथवा गच्छ शब्द गम धातुसे बना है और उसका अर्थ भी जाना है इस प्रकार इन पांचों उपचारोंके वाचक शम्बोंका घात्वर्थ-धातुसे बना हुआ अर्थ बतलाया । ३७-चर्चा सेंतीसवीं . प्रश्न-गृहस्यके द्वारा होनेवाली भगवान् अरहन्त देवकी पूजामें छह क्रियाएं सुनी जाती है सो कौन। कौन हैं ? समाधान-सबसे पहले जलाविक पंचामृतसे भगवान् अरहन्सदेवका स्नपन वा अभिषेक करना । सो पहली क्रिया है । अभिषेकके बाद पहले कही हुई विधिके अनुसार पंचोपचारी पूजा करना सो दूसरी क्रिया है। पूजाके बाद उनका स्तोत्र पाठ करना सो तीसरी क्रिया है। स्तुति के बाद उनके वाचक मंत्रोंके द्वारा एक सौ आठ बार जप करना सोचोथी क्रिया है। तदनन्तर कायोत्सर्ग धारण कर उनका ध्यान करना सो पांचवीं क्रिया है। फिर शास्त्रोंके द्वारा पाँच प्रकारका स्वाध्याय करना सो छठी क्रिया है। इस प्रकार पर्वाचार्योने । बेवसेवा ( देवपूजा ) करनेके लिये गृहस्थोंको छह क्रियाओंके करनेका उपदेश दिया है। सो ही यशस्ति लक नामके महाकाव्यमें लिखा है। स्नपनं पूजनं स्तोत्रं जपं ध्यानं श्रुतिश्रवम्। क्रियाः षडुदिताः सद्भिः देवसेवासु गेहिनाम् ॥ ३८-चर्चा अड़तीसवीं प्रश्न-आठों कर्माको नाश कर सिद्ध भगवान् निरन्तर सियालयमें विराजमान रहते है सो वह । सिद्वालय लोकके अग्रभाग पर है या वातबलप के भीतर है या वातवलयके ऊपर है। १. दूध, दही, घी, इक्षुरस और सर्वोषधि ये पांच अमृत कहलाते हैं। इनसे विधिपूर्वक अभिषेक करना पंचामताभिषेक कहलाता है। २. अभिषेक, पूजा, स्तोत्र, जप, ध्यान, स्वाध्याय ये पूजा में छह क्रियाएँ बतलाई हैं। ३. द्रष्यसंग्रहमें भी लिखा है "सिद्धो झाएह लोअसिहरत्थो" अर्थात् सिद्धभगवान लोक शिखर विराजमान हैं उनका ध्यान करना। चाहिये। [४० Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :४१ समाधान--8 तीनों लो बनास नामोदगिलात और तनुवात ऐसे तीन वातवलयोंसे घिरा हुआ। है। इन सोनों वातवलयोंमेंसे तीसरे तनुवातवलयमें पैंतालीस लाख योजन प्रमाण सिद्धालय सुशोभित है वहाँ पर सिद्ध परमेष्ठी विराजमान रहते हैं। पंचमंगल भाषामें भी लिखा है। "लोक शिखर तनुवातवलय में संठया।" इस प्रकार और भी जैनशास्त्रों में लिखा है। ३६-चर्चा उनतालीसवीं प्रश्न-इस जीवका ऊर्ध्वगमन स्वभाव है परन्तु मुक्तजीव वातवलयमें लोकके अन्त तक जाते हैं आगे नहीं जाते सो इसका क्या कारण है, वे वहीं तक क्यों रह जाते हैं ? समाधान-इस लोककी मर्यादा वातवलयके अन्त तक ही है आगे अलोकाकाश है । अलोकाकाशमें केवल शून्यरूप आकाशके सिवाय और कोई पदार्य नहीं है । जीवे पुद्गल धर्म अधर्म काल इन पांचों द्रव्योंका। अभाव जिस आकाशमै हो उसको अलोकाकाश कहते हैं । तया गमन करनेमें सहायक होनेकी शक्ति धर्मास्तिकायमें है और अलोकाकाशमें धर्मास्तिकाय है नहीं । इसलिये धर्मास्तिकायके अभाव होनेसे आगे अलोकाकाशमें 1 अर्ध्वगमन नहीं होता। अतएव मुक्त जोकको स्थिति लोकके अन्त पर्यंत हो रहती है सो ही तत्त्वार्थसुत्रमें लिखा है-"धर्मास्तिकायाभावात्" अर्थात् धर्मास्तिकायका अभाव होनेसे आगे सिद्धोंका गमन नहीं होता। ४०-चर्चा चालीसवीं प्रश्न- मुनिराज एकाग्रचित्त होकर ध्यान करते हैं सो उस ध्यानको स्थिति कितनी है। समाधान-शारीरिक बाह्य पर पदार्थोके चितवनका निरोष कर अपनी आत्माके स्वरूपोंमें एकाग्रताका चितवन शसध्यान है। वह धर्मध्यान शक्लम्यानके भेदसे दो प्रकार है वह ववषभनाराच: वचनाराच और नाराच इन तीनों उत्सम संहननोंको धारण करनेवाले जीवोंके होता है । इनमें भी बनवृषभनाराक नामके । IRPATRANSKHEARDANPaww M AASHARA १. धम्माधम्मा कालो पुग्गल जीवा य संति जावदिए । आवासे सो लोगो दत्तो परदो अलोगुत्तो। ही अर्थ-धर्म, अधर्म काल, पुद्गल, जीव ये पांच पदार्थ जितने आकाशमें रहते हैं उसको लोक कहते हैं और जिस बाकाशमें कोई द्रव्य न हो उसको अलोकाकाश कहते हैं । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर प्रथम संहननको धारण करनेवाले जीवोंके वह ध्यान अन्तर्मुहूर्त तक रहता है इससे अधिक नहीं ठहर सकता। सो हो तरवार्थसूत्र में लिखा है। उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिंतानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात् ॥ अध्याय ९ सूत्र सं० २७ ४१-चर्चा इकतालीसवीं - जैनधर्ममें चार आश्रम स्थापन किये हैं सो वे कौन-कौन हैं और उनका स्वरूप क्या है ? समाधान-उपासकाध्ययन नामके सातवें अंगमें आश्रम चार प्रकारके बतलाये हैं । ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुफ। आश्रमोंके ये भेद क्रियाओंके भेदसे होते हैं सो ही प्रश्नोत्तर श्रावकाचारमें लिखा हैब्रह्मचारी गृही वानप्रस्थो भिक्षुकसत्तमः । चत्वारो ये क्रियाभेदादुक्ता वर्णवदाश्रमाः॥ इन चार प्रकारके वर्णाश्रमों से पहले ब्रह्मचारीके पांच भेद हैं---उपनय ब्रह्मचारी, अवलंब ब्रह्मचारी, अबीक्षित ब्रह्मचारी, गूढ ब्रह्मचारी और नैष्ठिक ब्रह्मचारी। इनके अन्तमें ब्रह्मचारी शब्द सबके साय लगा हुआ है । इनका विशेष स्वरूप इस प्रकार है--जो श्रावकाचार सूत्रका विचार करे, विद्याभ्यास करनेमें। सवा तत्पर रहे और गृहस्थधर्म में ( गृहस्थोंके द्वारा करने योग्य धार्मिक क्रियाओंमें ) निपुण हो उसको उपनय गु ब्रह्मचारी कहते हैं । जो जबतक विवाह न करे तबतक क्षुल्लक अवस्था धारण करे सदा जैनशास्त्रोंका अध्ययन करता रहे। अध्ययन समाप्तकर पीछे पाणिग्रहण करे उसको अवलम्ब ब्रह्मचारी कहते हैं । जो लिये ही व्रताचरण करनेमें लीन हो, जेनशास्त्रोंके अभ्यास करने में तत्पर हो और समस्त शास्त्रोंको पढ़कर फिर पाणिग्रहण करे। अर्थात् “शास्त्रोंका अभ्यास पूर्ण हुए विना विवाह नहीं करूंगा" ऐसा नियम लेकर विना दीक्षा लिये हो जो व्रतोंके आचरण करने में प्रवृत्ति करे उसको अदीक्षित ब्रह्मचारी कहते हैं । बालक अवस्थासे ही जैनशास्त्रों के अभ्यास करनेमें जिसका प्रेम हो और जो शास्त्रोको पढ़ चुकनेके बाद माता-पिताके । हठसे विवाह करे। भावार्य--जो स्वयं विवाह न करे फिन्तु दूसरेके हठसे जिसको विवाह करना पड़े। । उसको गूढ ब्रह्मचारी कहते हैं। तथा जो जीवनपर्यंत समस्त स्त्रीमात्रका त्याग कर देवे और एक वस्त्रमात्र । परिग्रहके विना बाको सबका त्याग कर वैवे सो नैष्ठिक ब्रह्मचारी है । इस प्रकार इनका स्वरूप है । यह ब्रह्म-8 [४२ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासागर रा चर्य अवस्था सातवीं प्रतिमासे लेकर ग्यारहवीं प्रतिमा तक समझना चाहिये। आगे गृहस्थका दूसरा वर्णाश्रम ! लिखते हैं। जो त्रिकाल वंदना तथा पूजा' आदि छह कर्मोक करने में तत्पर हो, जो विषय कषाय और हिंसादिक पापोंका त्यागी हो, जो स्वात्मरसका ( अपने शुद्ध आत्माके आनंदरसका ) भोगी हो, जो दयालु हो उसको गृहस्थ कहते हैं, अभिप्राय यह है कि अणुवत, गुणवत, शिक्षावत इन बारह व्रतोंको पालन करनेवाला हो। उसको गृहस्थ कहते हैं। जो ग्यारह प्रांतमाओंको पालन करता हो, जो ध्यान और अध्ययन करनेमें सदा तत्पर हो, अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों कषायोंसे रहित हो उनको दानप्रस्थ कहते है। तथा जो हिंसा आदि समस्त पापोंका जीवन पर्यंतके लिये त्यागो हो, पंच महावत आदि अट्ठाईस मूलगुणोंको धारण करनेवाला हो, धर्मध्यानमें लोन हो, ध्यानो हो, मौन धारण करनेवाला हो और तपस्वी हो उसको भिक्षुक कहते हैं। भावार्थ----महा मुनियोंको भिक्षुक कहते हैं। इस प्रकार चारों वर्णाश्रमोंका स्वरूप जानना । सो हो। धर्मरसिक नामके शास्त्रमें लिखा है । उपनयावलंबो चादीक्षितो गूढनैष्ठिकाः। श्रावकाध्ययने प्रोक्ताः पंचधा ब्रह्मचारिणः ॥२२॥ श्रावकाचारसत्राणां विचाराभ्यासतत्परः । गृहस्थधर्मशक्तश्चोपनयब्रह्मचारिकः ॥२३॥ । स्थित्वा क्षुल्लकरूपेण कृत्वाभ्यासं सदागमे । कुर्याद्विवाहकं सोत्रावलंबब्रह्मचारिकः ॥२४॥ विना दीक्षां व्रताशक्तःशास्त्राध्ययनतत्परः। पठित्वोद्वाहं यः कुर्यात्सोऽदीक्षाब्रह्मचारिक॥२५॥ आबाल्याच्छास्त्रसम्प्राप्तिः पित्रादीनां हठात्पुनः । पठिखोद्वाहं यः कुर्यात्स गूढब्रह्मचारिकः ॥२६॥ १. देवपूजा, गुरुको उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये गृहस्थोंके छह कर्म हैं। २. यानप्रस्थ अवस्थामें अप्रत्याख्यानावरण सम्बन्धो चारों कषायोंका भी अभाव रहता है। PELAIRPETISEME RGER-AIRचाहायमचारचा Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ४४ ] S -॥२७॥ संध्याध्ययनपूजादिकर्मसु तत्परो महान् । त्यागी भोगी दयालुश्च स गृहस्थः प्रकीर्तितः ॥२८॥ प्रतिमैकादशधारी ध्यानाध्ययनतत्परः । प्राक्कषायविदूरस्थो वानप्रस्थः प्रशस्यते ॥२६॥ सर्वसंगपरित्यक्तो धर्मध्यानपरायणः । ध्यानी मौनी तपोनिष्ठः संज्ञानी भिक्षुरुच्यते ॥३०॥ इसके सिवाय इन चारों आश्रमोंका इसी प्रकारका कथन धर्मामृतश्रावकाचार में, स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा श्रीशुभद्राचार्य कृत उसको संस्कृत टीकामें तथा और भी अनेक शास्त्रों में लिखा है उनमेंसे इनका विशेष स्वरूप समझ लेना चाहिये । ४२ - चर्चा बियालीसवीं प्रश्न - - पहले कहे हुए नैष्ठिक तथा वानप्रस्थ आश्रमवाले ब्रह्मचारी जो लंगोट आदि वस्त्र पहिनते हैं वह किस रंगका पहिनते हैं ? समाधान -- ऊपर लिखे हुये दोनों प्रकारके ब्रह्मचारी सफेद अथवा कबायले लाल वस्त्रको लंगोटी आदि रखते हैं । सो ही स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाको टीकामें लिखा है । नैष्ठिक ब्रह्मचारिणः समधिगतशिखालक्षितशिरोलिंगः, गणधर सूत्रोपलक्षितो गेलिंगाः, शुक्ल रक्तवसन खंडकोपोनलक्षितकटिलिंगः स्नातकाः भिक्षावृत्तयो भवंति । देवार्चनपरा भवंति । कदाचित् यहाँपर कोई यह प्रश्न करे कि इनके लिये शुक्ल वस्त्र तो ठीक है परन्तु रक्त वस्त्रोंका ( गेरुआ वस्त्रोंका ) धारण करना तो भेषियोंका रूप समझा जाता है। परंतु इसका समाधान यह है कि पहले कही हुई लाल रंग की लंगोटी पहनना भी नग्नता के लिये हैं । शास्त्रों में दस प्रकारके नग्न बतलाये हैं । जैसे १. इसमें नैष्ठिक ब्रहाचारीका स्वरूप कहने वाला २७वा श्लोक छूट गया है। २. साक्षात् नग्नके सिवाय नौ प्रकारके लग्न भावोनंगमकी अपेक्षा से कहे हैं। साक्षात् नग्नता की लालसा करते हुए ही रंगे वस्त्र वा कोपीन आदि धारण की जाती है। [ ૪૪ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो अपवित्र वस्त्र पहिने सो भी नग्न है, जो खंडवस्त्र पहिले सो भो नग्न है, जो मैले वस्त्र पहिने सो भी नग्न । है, जो कोपीन पहने यह भी नग्न है, जो कषायले रंगके रंगे वस्त्र पहिने सो भी नग्न है जो दूसरों के उतरे हुए। चर्चासागर वस्त्र पहिने वह भी नग्न है । जो भीतर काछ लगावे बाहरसे न लगावे वाह भी नग्न है, जो बाहर काछ लगावे भीतरो काछ न हो वह भी नग्न है, जिसको काछ छूटी रहे वह भी नग्न है, तथा जो साक्षात् नग्न है वह नग्न । है हो । इस प्रकार दश प्रकारके जो नग्न बतलाये हैं उनमें रेंगे वस्त्रोंका पहिनना भी नग्नताके लिये कहा है। ॥ इसीलिये मेरुआ वस्त्रको भी कोपीन आदि बतलाई है। यह बात श्रीसिद्धसेन दिवाकर विरचित दशाध्याय सूत्र-1 की नाईस हजार परिमित टीकामें लिखो है तथा धर्मरसिक ग्रंथमें भी लिखी है। अपवित्रपटो नग्नो नग्नश्चाद्धपटः स्मृतः। नम्नश्च मलिनोद्वासी नग्नः कोपीनवानपि ॥२१॥ कषायवाससा नग्नो नग्नश्चोत्तीर्यवानपि। अन्तःकच्छो वहिःकच्छो मुक्तकच्छस्तथैव च ॥२२॥ यह प्रकरण और जगह भी लिखा हैसुखानुभवने नग्नो नग्नो जन्मसमागमे। वाल्ये नग्नः शिवो नग्नः नग्नः छिम्नशिखो यतिः॥ नग्नत्वं सहज लोके विकारो वस्त्रवेष्टनम् । नग्ना चेयं कथं बंद्या सौरभेयी दिने दिने। यशस्तिलकचंपू ॥ इस प्रकार वर्णन समझना चाहिये। ४३-चर्चा तेतालीसवीं प्रश्न--सात समृधातों से केवलीसमुद्घात केवली भगवान्के होता है सो वह किस गुणस्थानमें होता है। समाधान-जिसकी आयु छह महीने बाकी हो और बाकीके वेवनीय नाम गोत्र इन तीनों फोफी स्थिति छह महीनेसे अधिक हो, ऐसे मनुष्य को केवलज्ञान उत्पन्न हो तो वह केवलिसमुद्घात करता है। ऐसे १. इनमें नग्नताको प्रशंसा करते हुए नग्नता कहाँ-कहाँ होती है सो दिखलाया है। जैसे संयोग, बालकपनमें, जन्ममें, यति अवस्थामें नग्नता है। नग्नता स्वाभाविक है वस्त्र पहिनना विकार है 1 नग्न रहनेवाली गाय तुम्हारे यहाँ प्रतिदिन वंदनीय क्यों समझी जाती है। PARATHASHAIRATRAPATRAILESHRAICH Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचासागर [४६] केवलियोंके सिवाय और केवली केयलिसमुख्घात करें भी तथा न भी करें । भावार्थ--जिनको आयु छह महीनेको बाकी रहने पर केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है ऐसे केवली तो नियमसे समुद्घात करते हो हैं । ऐसे फेवलियोंके सिवाय अन्य केवलियोंका समुहात करनेका नियम नहीं है। जब तेरहवे सयोगिकेवलो नामके गुणस्थानको स्थिति अंतर्मुहूर्त बाकी रह जाती है तब दंडे, फबाट, प्रतर, पूर्ण, प्रतर, कवाट, बंड, निज बेह मात्र ऐसे आठ समयमें समुद्घात कर तेरहवें गुणस्थानके अंतिम समयमें अघातिया कर्मोको स्थितिको योग निरोधकर आयुके बराबर करते हैं फिर कोका नाश करते हुए चौदहवें गुणस्थानके अंतमें मोक्ष प्राप्त करते हैं। सो हो वसुनंदि श्रावकाचार में लिखा है छम्मासाउगसेसे उप्पण्णं जस्स केवलं गाणं । सो कुणइ समुग्घायं इदरो पुण होय वा भणिज्जो ॥ ५३१ ॥ अंतोमुहत्तसेसा उगम्मि दंड कवाड पयरं च । जइय पूरणमथ कवाड दंडं णियतसुयमाणं च ॥ ५३२ ॥ एवं पयेसपसरणं संवरणं कुणइ अट्ठ समयेहिं । होहिंति जोइ चरिमे अघाइ कम्माणि सरिसाणि ॥ इस प्रकार और भी वर्णन है इससे कहना पड़ता है कि जो जीव चौवह गुणस्थानमें समुद्घात मानते है और आठवें समयमै मुक्ति जाना बतलाते हैं वे मूर्ख हैं वे शास्त्री नहीं है। ४४-चर्चा चवालीसवीं। प्रश्न-श्रीजिनणिों में चौबीसी प्रतिमाओंमें अगल-बगल वोनों ओर श्रीदेवो अर्थात् लक्ष्मी और सरकेवली भगवान् चाहे पूर्व दिशाको ओर मुंह कर विराजमान हो चाहे उत्तर दिशाको ओर मुहकर विराजमान हों। चाहे वे बैठे हों चाहे खड़े हो सबके आत्माके प्रदेश दडाकार होते हैं अपर नीचे दोनों ओर वातवलयके आरंभ तक लग जाते हैं दूसरे समयमें कवाट रूप होकर अर्थात् अगल-बगल की ओर फैल कर वातवलय तक लग जाते हैं तीसरे समयमें आगे-पीछेकी ओर फेल कर वातवलय तक लग जाते हैं चौथे समयमें वातवलयों में जाकर लोकपूर्ण हो जाते हैं पांचवें समयमें प्रतररूप, छठे समयमें कवाट रूप, सासर्वे समयमें वंड रूप और आठवें समयमें शरीरके बराबर हो जाते हैं। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर स्वतीको मूर्ति रहती है तया जिनमुर्तिके पास यक्ष यक्षिणोको मूर्ति रहती है सो यह क्या बात है। जिन 8 अरहतदेवकी प्रतिमाओंके पास यक्षाविक को व सरस्वती आदिको मूर्ति हो उनको नमस्कार करना चाहिये या नहीं, उनकी पूजा करनी चाहिये या नहीं। तथा जिनेन्द्रदेवको प्रतिमाके अगल-बगल यक्षादिकोंको मूर्ति होना । शास्त्रोक्त है या किसीने मनसे कल्पना कर बनवा दी है ? समाधान--भगवान् अरहंतवैवको प्रतिमाके साथ-साथ यक्षाविकको मूर्तियाँ अनादिकालसे चली आ रही हैं और अनंतकाल तक रहेंगी। यह कोई मनको कल्पना नहीं है किन्तु शास्त्रोक्त हैं। शाश्वत वा अनादि माला अनन्मा कर हमारती अहमिग लिन प्रतिमाओंमें भी इन बिलोंके रहनेका वर्णन है। तथा अकृत्रिम प्रतिमाओंको आम्नायके अनुसार हो कृत्रिम प्रतिमाएं बनाई जाती हैं। इसलिये कृत्रिम प्रतिमाओंमें भी ये बिल अवश्य होने चाहिये। किसी-किसी जिन मन्दिरमें अब भी यक्षादिकोंको मूर्ति सहित लगभग दो दो हजार वर्ष पहलेको जिन प्रतिमाएं विराजमान हैं वे भला अपूज्य कैसे हो सकती हैं। अकृत्रिम जिन प्रतिमाओं के साथ-साथ यक्षाविक वा लक्ष्मी सरस्वतीको प्रतिमाओंका निर्णय श्रीनेमिचंद्र सिद्धांत चक्रवर्सी विरचित त्रिलोकसारमें है । तथा जिनबिंबका कथन करते समय लिखा है । यया दसतालमाणलक्खण भरिया पेक्खंत इव वदंता वा। पुरु जिण तुंगापढिमा रमणमया अट्ठ अहियसया ॥६८६ ॥ चमर करणाग जक्खग बत्तीसं मिहणगेहि पुहजुत्ता। सरिसीए पत्तीए गम्भगिहे सुट्ठ सोहति ।। ७८७ ॥ सिरिदेवी सुददेवी सव्वाण्हसणकुमार जक्खाणं । रुवाणियजिणपासे मंगल मट्टविहमवि होदी ॥६७८ ॥ इस प्रकार लिखा है । इसका भावार्थ यह है कि उस गर्भगृहमें ( श्रीमंडपमें ) एक सौ आठ प्रतिमाएँ । विराजमान हैं। ये प्रतिमाएँ इस ताल ( धनुष ) ऊंची हैं एक-एक प्रतिमाके दोनों ओर बत्तोस-बत्तीस यक्ष चमर लिये खड़े हैं। तथा उन जिन प्रतिमाओंके दोनों ओर श्रीदेवो और सरस्वती देवो ये दोनों देवियाँ स्त्रीका । [ ७] Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ४८] ॥ रूप धारण कर खड़ी हैं सर्वाल्हाद और सनत्कुमार नामके यक्षदेव अपने स्वरूपके अनुसार खड़े हैं । उन प्रतिमाओंके आगे आठगुने अष्टमंगल द्रव्य रवखे हैं । ये अष्ट मंगलद्रव्य प्रत्येक प्रतिमाके सामने अलग-अलग हैं । इन सब विभूतियोंसे शोभायमान उन प्रतिमाओंको इन्मादिक सम्यग्दृष्टी जीव पूजा करते हैं और वंदना करते हैं। ऐसा त्रिलोकसारमें लिखा है। इसके सिवाय और भी जैन शास्त्रों में कृत्रिम प्रतिमाके वर्णन करते समय लिखा है । यथासुमूहूर्ते सुनक्षत्रे वाद्यवैभवसंयुतः। प्रसिद्धपुण्यदेशेषु नदीनगवनेषु च ॥ १ ॥ सुस्निग्धां कठिनां शीतां सुस्पर्शा सुस्वरां शिलाम् । समानीय जिनेन्द्रस्य विबं कार्य सुशिल्पिभिः॥ । कषादिरोमहीनांगं स्मश्ररेखाविवर्जितम् । स्थितं प्रलंबितं हस्तं श्रीवत्साढय दिगम्बरं ॥ पल्यंकासनं वा कुर्याच्छिल्पिशास्त्रानुसारतः। निरायुधं राजतंवा पैत्तलं काश्यजं तथा ॥४॥ प्रवालं मौक्तिकं चैव वैडूर्यादिसुरत्नजम् । चित्रज तथा लेप्यं क्वचिच्चंदन मतम् ॥५॥ प्रातिहार्याष्टकोपेतं संपूर्णावयवं शुभम् । भावरूपानुविद्धांगं कारयेद् बिंवमहतः ॥६॥ प्रातिहार्येविना शुद्धं सिद्धविम्बमपीदृशम् । सूरीणां पाठकानां च साधूनां यथागमम् ॥७॥ वामे च यक्षी विभ्राणं दक्षिणे यक्षमुत्तमम् । नवग्रहानधोभागे मध्ये च क्षेत्रपालकम् ।।८।। यक्षाणां देवतानां सर्वालंकारभूषितम् । स्ववाहनावलोपेतं कुर्यात्सर्वांगसुंदरम् ॥६॥ इस प्रकार लिखा है । यह रीति अकृत्रिम प्रतिमाओंको अपेक्षा अनादिनिधन है तथा परम्परा करके भी योग्य है। जो लोग धरणेन्द्र पावतोसहित ( फणा सहित ) श्री पार्श्वनाथकी प्रतिमासे अरुचि करते हैं वे अधो. १. अच्छे मुहर्तमें सुन्दर चिकना पत्थर लाकर जिन प्रतिमा करनी चाहिये। जो आठों प्रातिहााँसे सुशोभित हो । प्रातिहार्योंके बिना वहो प्रतिमा सिबोंको कहलाती है। प्रतिमाके बाई ओर यक्षी दांई और यक्ष नीचे नवग्रह मध्यमें क्षेत्रपाल हो । यक्षादिकोंकी मूर्ति सब अलंकारोंसे सुशोभित वाहन और वधू सहित होनी चाहिये। [४८1 Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासागर गतिके पात्र हैं। जो रोति शास्त्रोक्त है और परंपराते चली आ रही है उसमें संदेह नहीं करना चाहिये । जो न रीति केवल मनको कल्पनासे चलाई गई हो उसमें अचि करना ठीक है। ४५-चर्चा तालीसवीं प्रश्न-पतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये पाँच शान हैं। इनमें प्रत्यक्षज्ञान कौन-कौन हैं और परोक्षज्ञान कौन-कौन हैं ? समाधान-इन पांचों शानों से पहलेके मतिज्ञान और श्रुतज्ञान ये वो ज्ञान परोक्ष हैं और बाकीके तीन भान उत्तरोत्तर गुणों के बढ़ते हुए प्रत्यक्ष हैं। सो ही मोक्षशास्त्रमें लिखा है-- मा रोक्ष। प्रत्यक्षमन्यत् । अध्याय १ सूत्र संख्या ११-१२। अन्यत्र भी लिखा है। मेह सुइ परोक्खणाणं ओही मणहोइ विलयपचक्वं । केवलणाणं च तहा अणोवमं होइ सयलपचक्खं ॥ ४६-चर्चा छयालीसवीं प्रश्न--सिद्धपरमेष्ठीको अवगाहना अतिम शरीरसे कुछ कम बतलाई है सो कितनी कम होती है ? समाधान-जिस शरीरसे केवली भगवान मुक्त होते हैं उसका तीसरा भाग कम हो जाता है। वो भाग प्रमाण सिखोंको अवगाहना रहती है। जैसे तीन धनुषके शरीर वाले मनुष्यको अवगाहना सिद्ध अवस्था ई जाकर वो धनुषको अवगाहनाके समान रह जाती है । सो हो सिद्धांतसारप्रदोपकर्मे लिखा है। । गतसिक्थायभूषायां आकाशाकारधारिणः। प्राक्कायायामविस्तारत्रिभागोनप्रदेशकाः ॥८॥ । लोकोत्तमशरण्याश्च विश्वमंगलकारकाः। अनंतकालमात्मानो तिष्ठन्त्यंतातिगाः सदा ॥६॥ १. मतिज्ञान श्रुतज्ञान परोक्ष हैं अवधिज्ञान मनःपर्ययज्ञान विकल प्रत्यक्ष है और केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है। * यह दो मागका रह जाना धन फलकी अपेक्षासे है अन्तिम शरोरका जो धनफल है उससे सिद्ध अवस्थाका घनफल एक भाग कम है क्योंकि पेट आटी शरीरके भीतरका पोला भाग भो उस धनफलमेंसे निकल जाता है। RE-mate-Dataaraatsaac THESE Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ५० ] श्रीन्य इमे सिद्धा मया ध्येया वंद्या विश्वमुनीश्वरैः । स्तुताश्च मम कर्वन्तु स्वगतिं स्वगुणैः समम् ॥ १० ॥ त्रिलोकप्रज्ञप्ति में भी लिखा है--- देहे भावा हल्ल चरमभवे जस्स जारि संठाणं । तसो तिभागहीणं नुग्गहणा सव्वसिद्धाणं ॥ इस प्रकार जिनागममें लिखा गया है । जो जीव केवल नलकेशरहित सिद्धोंकी अवगाहना मानते हैं सो भ्रम है । इसलिये ऊपर लिखे अनुसार श्रद्धान करना योग्य है । ४७- चर्चा सैंतालीसवीं प्रश्न -- इन तीनों लोकोंमें पैंतालीस लाख योजनके पाँच स्थान बतलाये हैं सो कौन-कौन हैं ? समाधान -- सिद्धक्षेत्र, सिद्धशिला, पहले स्वर्गका ऋजुबिमान, ढाई द्वीप, प्रथम नरकका पहला पाथरा ये पाँच क्षेत्र अलग-अलग पैंतालीस -पैतालीस लाख योजनके हैं । यह कथन त्रिलोकसार, सिद्धांतसार दीपक, त्रिलोकप्रज्ञप्ति, बृहद्हरिवंशपुराण आदि अनेक जैन शास्त्रोंमें हैं । ४८ - चर्चा अडतालीसवीं प्रश्न -- एक-एक लाख योजनके तीन स्थान बतलाये हैं वे इस लोकमें कहाँ-कहाँ है । समाधान -- जंबूद्वीप, सातवें नरकका पहला इन्द्रक नरक और सर्वार्थसिद्धि नामका विमान । ये अलग अलग एक-एक लाख योजनके हैं। लिखा भी है-सर्वार्थसिद्धिर्ज्ञातव्या जंबूद्वीपस्तथैव च । माघवी अप्रतिष्ठानं त्रिस्थानं लक्षयोजनम् ॥४८॥ ४६ - चर्चा उनचासवीं प्रश्न --- सिद्धशिला और सिद्धक्षेत्र दोनों ही अलग-अलग पॅतालीस लाख योजनके बतलाये हैं । वहाँपर अनादिकालसे कर्मोंको नाशकर सिद्ध अवस्थाको प्राप्त होनेवाले अनंत जीव विराजमान हैं जो वर्तमानकालमें Exes 143 [ ५० Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बांसामर ५१] सिद्ध अवस्थाको प्राप्त होते है ये भी वहाँ जाकर विराजमान होते हैं और आगामी अनंतकाल तक जो सिद्धत होते जायेंगे वे सब वहीं जाकर विराजमान होंगे। वहांपर परिमित ( नपे हुए पैतालीस लाख योजन ) क्षेत्रमें सब हो एक ज्योतिस्वरूप अवगाहनामें विराजमान हैं सो वहाँपर संकीर्णता क्यों नहीं होती क्योंकि उस थोड़ेसे । क्षेत्रमें अनंतानंत सिद्ध विराजमान हैं। समाधान—उस क्षेत्रमें ऐसी अवगाहना शक्ति है कि उस अवगाहना शक्तिसे वहाँपर किसो कालमें में भी संकीर्णता नहीं होती। इसी बातको उदाहरण देकर स्पष्ट रोतिसे दिखलाते हैं । जैसे-जम्बू द्वीप एक लाख योजनका है तथा तीर्थंकरोंको जन्मस्थानको अयोध्या आदि नगरी बारह योजन लम्बी और नो योजन चौड़ी है । उसमें तीर्थंकरोंके पंच कल्याणकोंमें इन्द्राविक समस्त देव एक लाख योजन प्रमाण हाथीको साथ लेकर आते हैं सो वहाँ भी संकीर्णता नहीं होती सब समा जाते हैं। तथा एक बर्तनमें ऊपर तक जल भर देवे फिर उसमें जलके बराबर ही शक्कर वा बरा भर देखें तो बह जल शक्कर वा बराके मिलानेसे उस बर्तनके बाहर नहीं निकलता। उतना ही बूरा मिल जानेपर भो उस जलमें संकीर्णता नहीं होती। तोसरा उदाहरणअक्षीण महानस ऋद्धिको धारण करनेवाले मुनि जहाँ आहार ले लेते हैं उस क्षेत्रमें तथा उसी रसोईमें चक्रवतीकी सब सेना भोजन कर सकती है तथा उसी थोड़ेसे क्षेत्र चक्रवर्तीकी सब सेना बैठ सकती है, न तो वह रसोई ही घटती है और न उस क्षेत्रमें ही संकीर्णता आतो है । इसी प्रकार और भी युक्तियों के उदाहरण समझकर उस थोड़ेसे सिद्धक्षेत्रमें अनंत सिद्धोंकी अवगाहना सिद्ध कर लेना चाहिये। १. बास्तवमें देखा जाय तो सिद्धोंका शव आत्मा अमृत है तथा अमर्त पदार्थ जगह नहीं रोक सकता यही कारण है कि एक-एक सिद्धको अवगाहनामें अनंतसिद्धोंकी अवगाहना विराजमान है। जब अमूर्त आत्मा जगह रोकता ही नहीं है तब एक ही सिद्धकी सबस बड़ी अवगाहनामें समस्त भूतकालके और भविष्यतकालके सिद्ध समा सकते हैं फिर भला वह क्षेत्र तो पैतालोस लाख योजन प्रमाण है उसमें संकोणता किस प्रकार आ सकती है। जगह रोकना स्थूल पुद्गल का काम है । स्थल पगलके सिवाय और कोई पदार्घ जगह नहीं रोकता । आकाश धर्म अधर्म काल और शुद्ध आत्मा कभी जगह नहीं रोकता । केवल स्थूल पुद्गल और स्थूल पुद्गलमय शरीरको धारण करनेवाला संसारी आत्मा जगह रोकता है। गुद्गल उनको कहते हैं जिनमें रूप रस गंध स्पर्श ये चार गुण हों। पुद्गलोंमें भी लो स्थूल सूक्षम हैं वे जगह नहीं रोकते जैसे धूप प्रकाश अंधकार आदि सूक्ष्म पुद्गल भी जगह नहीं रोकते। फिर भला सूक्ष्म और सूक्ष्मसूक्ष्म तो रोक ही नहीं सकते। । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्चासागर [ ५२] ५० पचासवीं प्रश्न – मुनिराज आहारके लिये गाँव वा नगरमें जाते हैं सो कौनसी मुद्रा धारण कर जाते हैं ? - समाधान – महा तपोषन मुनिराज दो पहरके समय सामायिक करनेके बावे आहारके लिये निकलते हैं उस समय सबसे पहले पूर्व दिशाकी ओर मुँहकर श्री जिनेन्द्रदेवको नमस्कार करते हैं फिर ईर्ष्या समितिको धारण करते हुए धीरे-धीरे आहारके लिये गमन करते हैं। उस समय वे मुनिराज अपने बायें हाथमें कमंडलु और पोछी इन दोनों उपकरणोंको रखते हैं और अपने दायें हाथको दायें कंधे पर रखते हैं । फिर अच्छी दृष्टिसे ( ईर्यासमिति ) श्रावकोंके घर जाते हैं। सो धर्मरसिक नामके ग्रन्थमें लिखा हैमध्याह्नसमये योगी कृत्वा सामायिकं मुदा । पूर्वस्यां तु जिनं नत्वा ह्याहारार्थं व्रजेच्छनैः ॥ ६६ ॥ पिच्छे कमंडलु वामहस्ते स्कंधे तु दक्षिणम् । हस्तं निधाय संदृष्टया स ब्रजेच्छ्रावकालयम् ॥७०॥ प्रश्न- यहाँ कोई प्रश्न करे कि मुनिराज श्रावकके घर जाते हैं सो वहाँपर बिना पहगाहे कितनी देर तक ठहर सकते हैं ? समाधान – मुनिराज श्रावकके घर जाकर कायोत्सर्ग धारण कर ( नौवार नमस्कार मंत्रका अप करते हुए ) खड़े होते हैं यदि इतनी हो देरमें श्रावक उनका पडगाहन कर लेवे तो वे सब दोषोंको टालकर निरन्तराय भोजनपानको ग्रहण करते हैं यदि एक कायोत्सर्ग धारण करते समय तक कोई श्रावक उनका गान न करे तो फिर वे बहस चले जाते हैं जितनी देर में एक कायोत्सर्ग धारण किया जाता है उतनी कोई-कोई स्थूल पदार्थ भी दूसरे को जगह दे देते हैं जैसे जल उतने हो बूरेको उतनो ही राखको और उतनी ही लोहे की कीलोंको उतने ही पात्र में जगह दे देता है । सिद्ध भगवान कर्म और दशरोर रहित हैं इसलिये उनका शुद्ध आत्मा जगत्को रोक नहीं सकता । १. मुनिराज सामायिकके बाद भी आहारको जाते हैं और दोपहर के सामायिकके पहले भी जाते हैं। अक्सर गृहस्थों के भोजनका समय दोपहरके सामायिकके पहले है इसलिये मुनिराज भी दोपहरकी सामायिकके पहले ही आहारको जाते हैं। कोई विशेष कारण उपस्थित होनेपर दोपहरको सामायिकके बाद भी जाते हैं। २. पांचों उँगलियोंको मिलाकर उन मिली हुई उँगलियोंको कन्धेपर रख लेते हैं। यह उनकी आहारमुद्रा कहलाती है । [ ५ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर [१३] वेर तक खड़े रहते हैं। भागोरस पूरा होने पर फिर रिमा पन्गाहे बाड़े नहीं रह सकते । सो हो धर्मरसिक ग्रन्थमें लिखा है। गखा पहांगणे तस्य तिष्ठेच्च मुनिरुत्तमः।नमस्कारान् पदान् पंच नववार जपेच्छुचिः ॥७१५ तं दृष्ट्वा शीघ्रतो भक्त्या प्रतिमाहत भक्तिकैः। इस प्रकार और भी बहुत सा वर्णन है । ५१-चर्चा इक्यावनवीं प्रश्न--भगवान् तीर्थकर जब गर्भ में आते हैं तब उस दिनसे छह महीने पहलेसे हो जन्म होने तक । अर्थात् पन्द्रह महोने तक कुबेर इन्द्रको आज्ञासे रत्नोंकी वर्षा करता है । सो प्रतिदिन कितनी बार करता है। और कौन-कौनसे समय करता है ? समाधान—वह रत्नोंकी वर्षा भगवान्के माता-पिताके घर चार बार होती है सबेरे, दोपहरको, सायं-1 कालको और आधी रातके समय । सथा एक एकबारमें साढ़े तीन करोड़ रत्नोंको वर्षा होती है। इस प्रकार ॥ पंद्रह महीने तक बराबर होती रहती है । सो हो लिखा है-- पवण्हे मज्झण्हे अवरण्हे मज्झिमायरयणीये । आहुट्टयकोडीओ रयणाणं वरिसेऊ ।। इस प्रकार प्रतिदिन चारों समयमें चौवह करोड़ रत्न बरसते हैं। ५२-चर्चा बावनवीं प्रश्न-फेवली भगवान्की दिव्यध्वनि नियमसे तीन बार खिरती है ऐसा सुनते है सो क्या ये बात ठीक है? समाधान केवली भगवान्को दिव्यध्वनि प्रतिदिन चार बार खिरती है। प्रातःकाल, मध्याह्नकाल, सायंकाल और अर्द्धरात्रि इन चारों समयमें छह-छह घड़ो तक दिव्यध्वनि खिरती है। इन चार समयके सिवा पवीधर और महापुण्यवान माहापुण्यवान पुरुषों के प्रश्न करनेपर बसरे समय भी खिरतो है। इससे सिद्ध होता है कि चार समय तो नियमसे खिरती है तथा इनके सिवाय भी यथेष्ट कारग मिलने पर खिरतो हे सो हो लिखा है Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चासागर ४] पुवण्हे मज्झण्हे अवरण्हे मझमाय रयणीये । छ च्छ घडीये णिग्गइ दिव्यधुणी जिणवरिंदाणं ॥ ५३-चर्चा त्रेपनवीं प्रश्न-स्वयंभूरमण समुद्र में रहनेवाला सालिसिस्थ नामका मत्स्य अपने शरीरसे तो कुछ हिंसा आदि पाप करता ही नहीं है। केवल हिंसा करनेके पापको मनसे चितवन करता रहता है और उसी मानसिक पापसे ( हिंसा किये बिना हो ) यह सातवें नरक जाता है सो उसको वाह हिंसा करनेके बिना ही पाप किस प्रकार लग जाता है ? समाधान तुम्हारा कहना तब सत्य हो सकता है जब कि पाप केवल शरोरसे ही लगते हों परन्तु पाप तो मन, वचन, काय तोनों योगोंसे बराबर लगते हैं मोक्षशास्त्रमें लिखा है "प्रमत्तयोगात्प्राणव्यषरोपणं हिंसा" अर्थात् कषायोंके उत्पन्न होनेपर प्राणोंका व्यपरोपण व घात होना हिंसा है। इसी वचनके अनुसार। । उसे सातवें नरकमें जाना पड़ा । इसी सूत्रको श्रुतसागरी टोकामे एक श्लोक भी लिखा है। स्वमेवात्मनात्मानं हिनस्त्यात्मा कषायवान्। पूर्व प्राण्यन्तराणां तु पश्चात्स्याद्वा नवा वधः॥ अर्थात्-कषाय करनेवाला आत्मा अपने कषायसे पहले तो अपने आत्माको हिंसा करता है क्रोधादिक । कषायके द्वारा अपने आत्माके गणोंका घात करता है। उस अपनी हिसाके बाद जिसको हिंसा बंद करना। चाहता है उसको हिंसा हो भी जाय अथवा उसके तोत्र पुण्यसे न भी हो तथापि अपने आत्माकी हिंसा करनेके पापसे जो कर्मबन्ध होता है उसके फलसे नरक जाना पड़ता है। यही कारण है कि शालिसिस्थ नामका मत्स्य । १. सबसे बड़ा तन्दुल मत्स्य होता है उसके मुंह तथा नाकमें साँसके साथ हजारों मछलियाँ पेटमें चली जाती है और वे साँसके निकालते समय उल्टो वापिस आ जाती हैं उसी लंदुल मत्स्यकी आँखके पलक पर एक छोटा सा शालिसिस्थ नामका मस्य रहता है । वह उन मछलियोंके बाहर निकलते समय सोता है कि यह मत्स्य कैसा मुर्ख है जो पेटमें पहुंची हुई मछलियोंको भी बाहर आ जाने देता है यदि मैं होता तो एक भी मछलोको बाहर नहीं आने देता। यद्यपि वह उन मछलियोको जरा सो चोट भी नहीं पहुंचा सकता तथापि केवल इसी मानसिक पापके कारग बह सातवें नरकमें जाता है तथा बड़ा तंदुल मत्स्य पहले ही नरक जाता है। SAHARSanचाचाचाचाराचा Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर -चाचा प्रचERamanचाचा । सरेको हिंसा किये बिना ही केवल मानसिक पापके फलसे मरक जाता है। मानसिक पापका ऐसा हो । | माहात्म्य है इसलिये भव्य जीवोंको चाहिये कि वे मनके संकल्प विकल्पोंसे उत्पन्न होनेवाले व्ययके पापोंसे सदा बचते रहें । उसी श्रुतसागरी टीकामें और भी लिखा है। अघ्ननापि भवेत्यापी नघ्नन्नपि न पापभाक् । परिणामविशेषेण यथा धीवरकर्षको ॥ इससे सिद्ध होता है कि कर्मबंधका मुख्य कारण जीवोंके परिणाम ही हैं। ५४-चर्चा चौअनवीं प्रश्न--चौदहवें कुलकर राजा नाभिरायकी रानी मरुदेवोका विवाह हुआ था कि नहीं ? समाधान--राजा नाभिराय और रानी मरुवेवोका विवाह इन्ग्रने किया है सो ही महापुराणके बारहवे अधिकारमें लिखा है। तस्याः किल समुद्वाहे सुरराजेन नोदिताः। सुरोत्तमा महाभूत्या चक्रुः कल्याणकौतुकम् ॥ १६ ॥ इससे सिद्ध होता है कि वे युगलिया नहीं थे किन्तु उनका विवाह हुआ था। प्रश्न-यहाँ कोई प्रश्न करे फिस युगलियाकी स्त्रीसे विवाह हुआ था ? समाधान-किसोको स्त्रीसे विवाह नहीं हुआ था किन्तु कन्यासे हुआ था। इसका भी कारण यह है कि तेरहवें कुलकरके ही समयसे युगलिया होना बन्द हो गया था। अर्थात् तेरहवें कुलकरके सामने ही जुदेजुने पुत्र पुत्री होने लगे थे। तब उसके पिता अमितातिने विवाह करनेको रोति चलाई थी। इससे सिद्ध होता है कि नाभिराजा और मदेवी अलग अलग जन्मे थे और उनका विवाह हया था। सिद्धान्तसारदीपकमें लिखा है१. पापका लगना और न लगना केवल परिणामोंसे होता है जैसे मछलियोंको पकड़नेवाला धीवर पानी में जाल डालता है यदि उसके जालमें एक भी मछली न आवे तो भी मारनेके परिणाम होनेसे वह महापापो होता है तथा हल जोतनेवाला किसान अनेक जीवोंकी हिंसा करता है परन्तु उसका संकल्प उन जीवोंके मारनेका नहीं है केवल खेत जोतनेका है इसलिये वह पापी नहीं होता। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र ता कल्पाष्टलक्षकोटये कभागे वर्ते क्रमे ततः। प्रियंगुकांतिमत्कायो जज्ञे मनुः प्रसेनजित् ॥ ..स्तस्यामितगतिः पिता । वर कन्यकया साई विवाहो विधिना व्यधात् ॥ कुलवृद्धिकरावात्रोत्पन्नः स युगलं विना । तदा प्रभृतिः युग्मानामुत्पन्नो नियमः गतः॥ इससे सिद्ध होता है कि तेरहवें कुलकरके समयमें ही पुत्री पुत्र अलग-अलग होने लगे थे और इन्द्रने। उनका विवाह किया था उस समय कुलकरोंके सिवाय सबका नाम आर्य था। इसीलिये मरुदेवीके पिताका, नाम नहीं लिखा है। ___ ५५-चर्चा पचपनवीं प्रश्न-युगके प्रारम्भमें अर्थात् कर्मभूमि वा चतुर्थकालक प्रारंभी अयोध्याकी रचना किसने की थी ? समाधान-श्री ऋषभदेवके गर्भमें आनेके पहले अयोध्या नगरीको रचना इन्द्रने की थी तथा औरऔर जगहके रहनेवाले पुरुषों को बुला-धुलाकर वहाँ बसाया था। सो हो महापुराणमे लिखा है। इतस्ततश्च विक्षिप्तान आनीयानीय मानवान् । पुरी निवेषयामासुर्विन्या विविधैः सुराः ॥७३ ॥ इससे सिद्ध होता है अयोध्यापुरीको रचना युगको आदिमें इन्नने की है । ५६-चर्चा छप्पनवीं प्रश्न-भरत चक्रवर्तीको विभूतिमें तीन करोड़ गायें बतलाई हैं सो किस प्रकार है ? समाधान-भरत आदि समस्त चक्रवतियोंकी विभूतिमें तीन करोड़ गायोंके रहनेका स्थान बतलाये। है। इससे मालूम होता है कि गायें तो तीन करोड़से भी अधिक हैं । सो हो आविपुराणके सेतीसवे पर्वमें लिखा है। तिलोस्य ब्रजकोव्यः स्युः गोकुलैःशश्वदाकुलाः। यत्र मंथरवाकृष्टास्तिष्ठतिस्माचगाःक्षणम्॥ इससे सिद्ध होता है-पायोंके निवासस्थान तीन करोड़ थे । कमलामन्चरस्मरन्त Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चसागर ५७] ५७ चर्चा सत्तावनवीं प्रश्न--- भरत महाराजके एक करोड़ यालियाँ सुनी जाती हैं सो के किस प्रकार हैं ? समाधान - एक करोड़ थालियों नहीं हैं किन्तु एक करोड़ दाल चावल आदि बनानेके बर्तन है । आदिपुराण में जो इनको कहनेवाला श्लोक है उसमें स्थाली शब्द है सो स्थाली शब्दका अर्थ बटलोई अथवा हंडी होता है । इसका अर्थ यह है कि भात पकानेके बर्तन एक करोड़ थे। सो ही आदिपुराण पर्व ३७ में लिखा है । स्थालीनां कोटिरेकोक्ता रंधने या नियोजिताः । चक्रीस्थालीविलीयानां तंडुलानां महानसे ॥ ६७ ॥ इससे सिद्ध होता है कि एक करोड़ थालियाँ नहीं थीं किन्तु एक करोड़ भात पकानेके हंडे थे । ५८-चर्चा अट्ठावनवी प्रश्न -- स्नानके कौन-कौन भेव हैं ? समाधान -- स्नान के पांच भेद हैं- पादस्नान ( पैर धोना ) जानुस्नान ( घुटनेसे नीचेका भाग घोना ) कटिस्नान ( कमर से नीचेका भाग धोना ) ग्रीवास्नान ( गलेसे नीचेका भाग धोना ) शिरस्नान ( मस्तकसे स्नान करना) इन पाँच स्नानोंमेंसे जैसा वोष हो वैसा हो स्नान करना चाहिये। सो हो त्रिवर्णाचारमें लिखा है। पादजानुकटिग्रीवाशिरःपर्यंत संश्रयम् । स्नान पंचविधं ज्ञेयं यथा दोषं शरीरिणाम् ॥ इस प्रकार पाँच प्रकारका स्नान जानना । ५६ - चर्चा उनसठवीं प्रश्न -- इस अवसर्पिणी कालमें मनुष्योंकी आयु घटती जाती है सो किस प्रकार घटती है ? समाधान - - श्रीमहावीर स्वामीके मुक्त होते समय मनुष्योंकी उत्कृष्ट आयु एक सौ बीस वर्षकी थी । इसमेंसे एक-एक हजार वर्ष पीछे पांच-पांच वर्ष की घटती होती जाती है सो हो सिद्धांतसार में लिखा हैवत्साराणां सहस्रेषु गतेषु म्यूनतां व्रजेत् । पंचवर्षाणि शतं चार्ज वेदितव्यं जिनागमे ॥ ८ AAJA [ ५७ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ५८] इससे सिद्ध होता है कि एक-एक हजार वर्ष में पांच-पांच वर्ष कम होते जाते हैं। यह पंचम काल इकईस हजार वर्षका है इसलिये छठे कालके प्रारम्भमें मनुष्योंकी उत्कृष्ट आयु पंद्रह वर्षको रहेगी। शेष एकसी पाँच वर्ष घट जायेगी। इसका भी खुलासा यह है कि एक हजार वर्ष में पांच वर्ष घटते हैं। इसलिये दो सौ । । वर्षमें एक वर्ष घटता है । सौ वर्षमें छह महीनेकी आयु घटती है। छह महीनेके एक सौ अस्सी दिन हुए और। १०८०० घड़ियां हुई। इनमें सौका भाग वेनेसे एक वर्षमें १०८ घड़ियाँ अथवा एक दिन ४८ घड़ियां घटी। एक महीने में ९ घड़ियां घटी। ६० पलको एक घड़ी होती है सो ९ घड़ियोंको ५४० पल हुए। इनमें तीसका भाग वेनेसे एक दिनमें १८ पलकी घटती होती है । इस प्रकार आयुके घटनेका खुलासा समझ लेना चाहिये। ६०-चर्चा साठवीं प्रश्न--इस पंचम कालमें उत्पन्न हुए जीव मरकर विवेह क्षेत्रमें उत्पन्न होकर मोक्ष जा सकते हैं या नहीं अर्थात् ऐसे एक भवावतारी जीव हैं या नहीं ? समाधान--इकईस हजार वर्षका यह पंचमकाल है। इसमें एक सौ तेईस भद्रपरिणामी भव्यजीव यहाँको आयु पूर्णकर विवेह क्षेत्र में जन्म लेंगे तथा नौ वर्षको आयुमें जिनदीक्षा लेकर केवलज्ञान उत्पन्न कर नौ वर्ष कम एक करोड़ पूर्व काल पर्यंत विहार कर मुक्त जायेंगे ऐसा सिद्धांतसारमें वर्णन किया है। यथा जीवा सय तेईसा पंचमकाले य भइपरिणामा । उप्पाइपुव्वविदेहे नवमइवरसे दु केवली होदि ॥ इसका भी अलग-अलग खुलासा इस प्रकार है। पंचमकालके इकईस हजार वर्ष हैं। उनके सात भाग करना सो एक-एक भाग तीन-तीन हजार वर्षका हुआ। प्रथमके तीन हजार वर्षके पहले भागमें यहाँके । ६४ जीव आयु पूर्णकर विवेह क्षेत्रमें उत्पन्न होकर केवली होंगे। दूसरे भागमें अत्तोस जोन, तीसरे भागमे । बारह जीव, चौथे भागमें आठ जीव, पांचवें भागमें चार जीव, छठे भागमें दो जीव और सात भागमें एक जीव अपनो आयु पूर्णकर विदेह क्षेत्रमें उत्पन्न होकर केवली होंगे । इन सब जीवोंको संख्या एक सौ तेईस होतो । हे अर्थात् एक सौ तेईस जीव इस पंचमकालमें उत्पन्न हुए एक भवावतारी समझना चाहिये। १. भद्रपरिणामी एक सौ तेईस जीव पूर्व विदेह में उत्पन्न होकर नौवें वर्षमें केवलो होंगे। १८ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - - -- - - ६१-वर्या इकसठवीं प्रश्न-इस ढाई नोपमें तीर्थंकरोंको अधिक से अधिक संख्या एक सौ सत्तर होती है । तथा जघन्य बीस बामागर होती है ऐमानते हैं परन्तु समतियोंको उत्कृष्ट जघन्य संख्या कितनी है ? समाधान--धक्रवतियोंके होनेका सब जगहका कोई खास नियम नहीं है । सो ही सिद्धांतसारमै लिखा है। जेधन्येन जिनाधीशा भवंति विंशतिप्रमाः। चक्राधिपाश्च सर्वत्र नृदेवखचरार्चिताः ॥ ६१ ॥ ६२-चर्चा बासठवीं प्रश्न-स्वर्गलोकमें सम्यग्दृष्टी जीव तथा मिथ्यादृष्टी जीव उत्पन्न होते हैं सो वहाँपर दोनोंकी आयु समान है अथवा होनाधिक है ? समाधान-जिस जीवके स्वर्गमें ही मिथ्यात्वरूपी शत्रुके नाश होनेसे सम्यग्दर्शनको उत्पत्ति होती है । उसको सम्यादृष्टी देव कहते हैं। उसके आयु कर्मको जितनी स्थिति है उसमें सम्यग्दर्शनके प्रभावसे घातायुष्क की अपेक्षा आधासागर आयुकी स्थिति बढ़ जाती है। यह वृद्धि भी सहस्रार स्वर्गतक ( बारहवें स्वर्गतक) होती है। इसी प्रकार जिस जीवके सम्यग्दर्शनका घात हो जाय और मिथ्यात्वका उदय हो जाय तो उस देवको अत्यु फर्मको स्थितिमेसे आधे सागरको आयु घट जाती है। यही बात सिद्धांतसारमें पन्द्रह्मो सन्धि । लिखी है। सम्यक्त्वस्य देवस्य सागरार्द्ध हि वर्द्धते । आयुः यावत्सहस्त्रारं मिथ्यावारिविघातनात् ॥ ३२॥ प्रचार-IAGEचाहिन्यारा १. तीर्थकरोंकी जघन्य संख्या २० है इनके सिवाय देव मनुष्य विद्याधरोंसे पूज्य चक्रवर्ती भी होते हैं। भावार्थ-विदेह क्षेत्रमें चक्रवतियों की संख्याका कोई नियम नहीं है वे प्रायः सर्वत्र होते ही रहते हैं। २. मिथ्यात्वके नाश होनेसे सम्यक्त्वी देवको आय सहस्रार स्वर्ग तक आधासागर बढ़ जाती है। इसी प्रकार सम्यग्दर्शनके नाश होनेसे मिथ्यास्वो देवको आयु आधासागर घट जाती है। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर [६] मिथ्यात्वागतदेवस्य सम्यक्त्वरत्ननाशनात् । ated सागरार्द्धायुरिति स्थितिश्च नाकिनाम् ॥ ३३ ॥ त्रिलोकसारमें भी लिखा है । संम्मे घादेऊणं सायरद्ल महियमा सहस्सारा । जल हिलमुडुवराऊ पडलं पडि जाणि हाणिचयं ॥ ५३३ ॥ प्रश्न - - यहाँपर फिर कोई यह प्रश्न करे कि बारहवें स्वर्ग से ऊपरके देवोंके क्यों नहीं घटती बढ़ती ? समाधान —- बारहवें स्वर्गसे ऊपरके स्वगों में जिनलिंगके सिवाय अन्य लिंगको धारण करनेवाले मिथ्यादृष्टियोंका गमन नहीं होता अर्थात् अन्यलिंगी मरकर बारहवें स्वर्गसे ऊपर उत्पन्न नहीं होते। बारहवें स्वर्गसे ऊपर जिनगको धारण करनेवाले हो उत्पन्न होते हैं। तथा बारहवें स्वर्गसे ऊपर न तो सम्यक्त्वका नाश होता है और न मिथ्यात्वकी उत्पत्ति होती है । इसीलिये बारहवें स्वर्गसे ऊपर आयुके घटने बढ़नेका नियम नहीं है। फिर प्रश्न- आयुके दो भेव हैं निषित और निःकांचित । सो इनमेंसे किस आयुवालेकी स्थिति घटती बढ़ती है ? समाधान -- निधि आयुवालेको स्थिति ही घटती बढ़ती है। जैसे खविरशाल नामके भीलकी आयु बढ़ गई थी और राजा श्रेणिककी घट गई थी । ६३ - चर्चा त्रेसठवीं प्रश्न - स्वर्गके देवोंकी होनाषिक आयुका स्वरूप तो ऊपर लिखे अनुसार समझा परन्तु भवनवासी व्यंतर ज्योतिष्क देवोंकी आयुके घटने बढ़ने की विधि किस प्रकार है ? १. सम्यक्त्वका घात होनेपर सहस्रार स्वर्गतक आधेसागर आयु घट जाती है और मिथ्यात्वका घाट होनेपर आधासागर बढ़ जाती है । यह कथन घातायुष्ककी अपेक्षा है। २. जो कर्म उदीरणा को भी प्राप्त न हो सकें और संक्रमण अवस्थाको भी प्राप्त न हो सकें उसे निघत्तिकरण कहते हैं तथा जिस कर्मकी उदीरणा संक्रमण उत्कर्षण और अपकर्षण ये चारों ही अवस्थायें न हो सकें उसे निःकाचितकरण कहते हैं । [ ६० Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [ ६१ ] समाधान --- प्रथमवासी व्यंतर और ज्योतिष्क इन तीनों प्रकार के बेयोंमें जो जीव उत्पन्न होते हैं। सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति के बिना थोड़ासा व्रत तप करनेके पुण्यसे उत्पन्न होते हैं। इनमेंसे भवनवासी देवोंके तो सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति होनेसे आधेसागरकी आयु बढ़ जाती है तथा मिध्यात्वके उदय होनेसे आधेसागर आयु घट जाती है । इसी प्रकार ज्योतिषी और व्यंतर वैद्योंके सम्यग्दर्शनके उत्पन्न होनेसे आधे पल्यको आयु बढ़ जाती है और मिथ्यात्वका उदय होनेसे आधे पल्यकी आयु घट जाती है । तथा सब जगह सब देवोंके मिथ्यात्वरूपी विष वमन करनेसे तथा सम्यग्दर्शनरूपी अमृतके पीनेके अतिशयसे आयु बढ़ती है सो ही सिद्धांतसार atest पन्द्रहवीं संधिमें लिखा है । ज्योतिर्भवनभौमेषु सम्यक्त्वप्राप्तितौगिनाम् । किंचिद्वततपःपुण्यादुत्पद्यते भवाध्वगाः ॥३४॥ सम्यक्त्व प्रातिधर्माणां स्वायुर्भवनवासिनाम् । सागरार्द्ध च वर्खेत मिध्यात्वशत्रुघातनात्॥ ३५॥ ज्योतिष्कव्यंतराणां चायुः पत्यार्द्ध प्रवर्द्धते । मिथ्यात्वारिविनाशेन सम्यक्त्वमणिलाभतः ॥ ३६ ॥ सर्वत्र विश्वदेवानां मिथ्यात्वदुर्विषोज्झनात् । सम्यक्त्वामृतपानेन स्वायुः संवर्द्धतेतराम् ॥३७॥ त्रिलोकसारमें भी लिखा है । उवहिदलं पलद्ध भवणे विंतरदुगे कमेणहियं । सम्मे मिच्छे घादे पल्ला संखं तु सव्वत्थं ॥५४१ ॥ इस प्रकार चतुणिकायके देवोंकी आयुको वृद्धि हानिका स्वरूप सम्यग्दर्शन तथा मिथ्यात्व के माहात्म्यसे समझ लेना चाहिये, अर्थात् सम्यग्दर्शनके माहात्म्यसे आयु बढ़ जाती है और मिथ्यात्वके प्रभावसे घट जाती है। ६४ - चर्चा चौसठवीं प्रश्न - - चतुणिकाय देवोंको आयु जब छह महीनेकी बाकी रह जाती है तब उनका तेज घट जाता १. देवोंकी आयु बढ़नेका अभिप्राय यह है कि दूसरे सागरमें उत्कृष्ट आयु दो सागरसे कुछ अधिक है। इसका अभिप्राय यह है कि साधारण जीवोंकी उत्कृष्ट आयु दो सागर है परन्तु जिस घातायुष्क जीवका मिथ्यात्व छूट जाता है उसकी उत्कृष्ट वायु दो सागर के बजाय ढाई सागरकी हो जाती है क्योंकि दूसरे स्वर्ग में कुछ अधिकका अभिप्राय आधा सागर है। जिसने पहले भवमें अधिक आयुका बंध किया हो और फिर कारणवश आयु घट गई हो उसको घातायुष्क कहते हैं । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बासागर १२] तथा उनके कंठको माला मुरझा जाती है जिससे वे अपनी निकट आनेवाली मृत्युको समझ लेते हैं ऐसा कहते हे सो सम्यग्दृष्टीकी माला मुरझाती है या नहीं ? ___समाधान-माला आदिके मुनिका चिह्न मिथ्यादृष्टियोंके ही होता है । सम्यग्दृष्टियोंके नहीं होता।। मिथ्यावृष्टि देव अपनी मृत्युके चिह्नोंको देखकर रोते हैं तथा अत्यन्त दुःखी होते हैं सम्यग्दृष्टीके यह दुःख नहीं होता है सोहो जंबूचरित्रकी तीसरी संधिम लिखा है। विद्वन्माली सुरस्यादो कथ्यते कथिताधुना। प्रत्यक्ष पश्य भार्याभिश्चतुर्भिः सहितं हितम् ॥ २३ ॥ सम्यक्त्वसहितास्यास्य तेजस्तुच्छं न जायते । माला न झग्यते कंठ स्थिरचित्तस्य कर्हिचित् ॥ २४ ॥ सप्तमे दिवसेऽथासौ श्रुत्वा भूत्वा च मानुषः । चरमांगी तपो घोरं ग्रहीष्यति जिनोदितम् ॥ २५ ॥ ६५-चर्चा पैंसठवीं प्रश्न- जो लोग पैरोंमें जूता पहने हुए भगवान्के मंदिर में प्रवेश करते हैं अथवा लकड़ोको खड़ाऊँ पहिनकर जिनमविरमें जाते हैं उनको कैसा पाप लगता है ? समाधान-जो लोग पैरों में जूता पहिनकर भगवान्के मन्दिर में प्रवेश करते हैं वे सात जन्म सक कोड़ी होते हैं तथा चमारके घर जन्म लेते हैं और जो लोग खड़ाऊँ पहिनकर जिनमन्दिरमें जाते हैं वे बबईके घर जन्म लेकर सात जन्म तक कोढ रोगसे पीडित होते हैं। सो हो लिखा हैपादचर्मस्य रूढा ये चढंति श्रीजिनालये । सप्त जन्म भवेत्कुष्ठी चौरीगर्भसम्भवः ॥ पादुकाभ्यां समागत्य ये चढंति जिनालये । सप्त जन्म भवेत्कुष्ठी बाढीकागर्भसम्भवः । ऐसा जानकर ऊपर लिखे कार्य कभी नहीं करने चाहिये । [६२ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ३] [ ६६-चर्चा छयासठवीं पूजाके समय जो नित्य पूजा की जाती है उसमें वेव शास्त्र गुरुको पूजा समुच्चय वा एक साथ को। जाती है सो ही लिखा है देवनागेशगनवंद्यान् शुभस्पदान् शोभितसारवर्णान् । दुग्धाब्धिसंस्पर्द्धिगुणैर्जलोधैर्जिनेंद्रसिद्धांतयतीन् यजेऽहम् ॥ प्रश्न-इत्यादि अर्घ पर्यन्त ऐसा हो समुच्चय पाठ है । सो इसमें वेव पूजा तो मध्यमें करनी चाहिये । तथा सरस्वती और गुरुपादुकाको पूजा किस-किस दिशामें करनी चाहिये ? समाधान-भगवान् अरहंत देवको पूजा तो मध्यमें करनी ही चाहिये तथा सरस्वतीको पूजा जिनप्रतिमाके वाहिनी ओर और गुरुको पूजा बांई ओर करनी चाहिये। ऐसी आम्नाय है क्योंकि जिनप्रतिमाके र बाई ओर सरस्वतीको मूर्ति है और बाई ओर गुरुपादुका विराजमान है इसलिये पूजा भी इसी प्रकार करनी चाहिये। ६७-चर्चा सडसठवीं प्रश्न-सातिशय अप्रमत्त नामके सातवें गुणस्थानके अन्तिम भागसे महामुनिराज उपशम श्रेणी तथा अपक श्रेणी मांडते हैं। इनमेंसे उपशम श्रेणीवाला वहाँसे लेकर ग्यारहवे गुणस्थान तक जाता है तथा फिर ग्यारहवें गुणस्थानसे नीचे गिरता है । सो इसमें प्रश्न यह है कि वे मुनिराज इसप्रकार अधिकसे अधिक कितनी बार उपशमश्रेणी चढ़ते हैं कितने जन्म तक संयम धारण करते हैं और कितने समयमें मोक्ष प्राप्त करते हैं। । अथवा उन्हें मोक्ष प्राप्त होती ही नहीं ? समाधान-अधिकसे अधिक चार बार उपशम श्रेणी चढ़ते हैं। जो मुनिराज क्षपकश्रेणी बढ़ते हैं । वे केवलज्ञानपर्यंत चढ़ते हो चले जाते हैं, क्षपकश्रेणीवाले मुनि कभी नोचले गुणस्थानमें नहीं गिरते तथा उप शमश्रेणीवाले जीव अधिकसे अधिक बसोस बार संयमको पालकर पीछे नियमसे मोक्ष प्राप्त करते हैं । सो हो । स्वामि कार्तिकेयानुप्रेक्षाकी टोकामें लिखा है। -नारायwalasariLESमरनाrana Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चत्तारिवारमुवसमसेणी समारुहदि रपविदकम्मं । सो बत्तीसं वाराई संजममुवलहिय णिव्वाणादि ॥ पर्चासागर यहाँपर बत्तीस ही जन्म समझना चाहिये इनमें भी वेवगतिमें तो संयम है ही नहीं इसलिये मनुष्य1 ६४] पर्यायमें हो संयम समझ लेना चाहिये। ६८-चर्चा अडसठवीं प्रश्न-मुनिराजके आहारके समयका प्रमाण क्या है ? समाधान-तीन मुहूर्त दिन चढ़ जाने के बावसे लेकर जब तक तोन मुहूर्त दिन बाकी रहे तब तकके मध्यके समयमें मुनिराज अपने नित्य कार्योंसे निवृत्त होकर अन्सराय और दोषोंको टालकर एक बार योग्य # आहार लेते हैं । भावार्थ-प्रातःकाल तीन मुहूर्त तक आहार नहीं लेते। शामको तीन मुहूर्त दिन बाकी रहने । तक लेते हैं आगे नहीं लेते ! मध्यके समय में सामायिकके समयको टालकर आहार लेते हैं। सो ही श्रीवट्ट। केरस्वामी विरचित मूलाचारके प्रथम अधिकारमें लिखा है-- उदयत्यमणे काले णालीतियवज्जियम्हि मज्झम्हि । एकम्हि दुअ तिए वा मुहुत्तकालेपमत्तं तु ॥ ३५ ॥ सं० छाया-उदयास्तमनयोः कालयोः नालीत्रिकवर्जिते मध्ये । एकस्मिन् द्वयोः त्रिषु वा मुहूर्तकाले एकभक्तं तु ।। मूलाचारप्रदीपकमें लिखा है। विज्ञेयोशनकालोत्र संत्यज्य घटिकात्रयम् । मध्ये च योगिनां भानुदयास्तभनकालयोः। # यह जो तीन मुहूर्त काल सुबह शाम छोड़नेका बतलाया है वह भी उस्कृष्टकाल है मध्यमकाल दो मुहूर्त और जघन्यकाल एक मुहूर्त सुबह शाम छोड़नेका समझना चाहिये । सो हो मूलाचारप्रदीपकमें लिखा है१. गाथामें नाली शब्द है नाली शब्दका अर्थ मुहूर्त नहीं होता किंतु घड़ी होता है । मूल चारप्रदीपके श्लोकमें भी घड़ी पाब्द हो । लिखा है। इसलिये सवेरे शामका तीन घड़ो समय छोड़कर आहार लेते हैं यह अर्थ हुआ। सम्पादक Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्यैवाशनकालस्य मध्ये प्रोस्कृष्टतो जिनः । भिक्षाकाले मतो योग्यो मुहतकप्रमाणकः ॥ ३७॥ सागर योगिनां द्विमुहूर्तप्रमाणो मध्यमो वचः । जघन्यस्त्रिमुहूर्तप्रमो भिक्षाकालः उदाहृतः॥ ६९-चर्चा उनहत्तरवों प्रश्न---पुलाक आदि मुनिराजके पांच भेद हैं उनके कौन-कौनसा गुणस्थान है ? समाधान-पुलाक और वकुश इन वो मुनियोंके छठा और सातवाँ गुणस्थान होता है। कुशील नामके मुनिके आठवें अपूर्वकरण नामके गुणस्थानसे लेकर उपशांतमोह नामके गुणस्थानतक चार गुणस्थान होते हैं। निम्रन्थ नामके मुनिके बारमयां कोणमोह नाम गुगल्या होता है त्या स्नातकके तेरहवां सयोगिकेवलो और चौरहवां अयोगिफेवली गुणस्थान होता है। इस प्रकार पुलाक वकुश कुशील निम्रन्थ और स्नातक इन पाँचों प्रकारके मुनियोंके गुणस्थान छठेसे लेकर बौवहीं सक हैं। इन सब मुनियोंको संख्या बाई द्वीपभरमें । अषिकसे अधिक तीन कम नौ करोड़ अर्थात् ८९९९९९९७ रहती है। उन सबको हमारा नमस्कार हो । सो हो आचार्य सकलकोतिविरचित सिद्धांतसारमें लिखा है। षष्ठसप्तमयोयॊस्ते गुणस्थानद्वयोमुनी । विज्ञेयो शास्त्ररीत्या च पुलाकवकुशाविह ॥ अपूर्वायुपशान्तेषु गुणस्थानेषु ये स्थिताः। प्रोक्तास्ते मुनिभिनित्यं कुशीलालयधारिणः ॥ क्षीणमोहगणस्थाने यस्तिष्ठेन्मुनिसत्तमः । ज्ञातोयभवभिः सर्वे निर्मथो हि प्रशांतधीः ॥ योगायोगगुणस्थाने वसन्ति यतयः खलु । ये मताः स्नातकास्ते च लोकालोकप्रकाशकाः ॥ सर्वेषां यतिनां संख्यास्त्रिऊना नवकोटयः। कथिताःश्रीजिनैः सर्वैस्तेषां नित्यं नमोस्तु ते ॥ ७०-चर्चा सत्तरवीं प्रश्न--एक दिन रातमें तथा एक महीने में या एक वर्षमें पुरुषके कितने श्वासोच्छ्वास आते जाते हैं ? १. इसमें सुबह शाम छोड़नेका जघन्य मध्यम उत्कृष्ट काल एक दो तीन मुहूर्त लिखा है। FaisansarचारDAIRautam नाममायामायण Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर ६६ ] समाधान -- एक मुहूर्तके तीन हजार सात सौ तिहत्तर श्वासोच्छ्वास होते हैं तथा एक दिन रातके सीस मुहूर्त होते हैं। इस हिसाब से एक दिन रातके एक लाख तेरह हजार एक सौ नब्बे श्वासोच्छ्वास हुए । सोही लिखा है । एकं च सयलहस्तं उस्सासमाणं तु तेरससहस्ताणं । ऊण दसरण अहिया दिवसणिसोहति विष्णेया ॥ इसी हिसाब से एक महीनेके तेतीस लाख पिचानवे हजार सात सौ श्वासोच्छ्वास होते हैं । सो हो लिखा है। मासेवि य उसासा लक्खा तेतीस सय सहस्ताणं । सत्त सपाइ जाणिउ कहिया हूं पुब्वसारसाहिं ॥ इनको बारहसे गुणा कर देनेसे एक वर्षके श्वासोच्छ्वासोंकी संख्या चार करोड़ सात लाख अड़तालीस हजार चार सौ होती है सो ही लिखा है । चारी कोडीओ लक्खा सत्तेव होंति णायव्वा । अडतालीसहस्सा चारिसया होंति वरिसेण ॥ इनको सौसे गुणा कर वेनेसे सौ वर्षके चार अरब सात करोड़ अड़तालीस लाख श्वासोच्छ्वास होते हैं । सो ही लिखा है । चत्तोरिय कोडिसया कोडिय सत लक्ख अडियाला । चत्तारीस सहस्सा सासा लत होंति वरिसेण ॥ इस प्रकार श्वासोच्छ्वासका प्रमाण गोमट्टसार आदि जनसिद्धति में लिखा है । ७१ - चर्चा इकहत्तरवीं प्रश्न - ढाई द्वीपमें एक सौ सत्तर विजयार्द्ध पर्यंत हैं उनमें रहनेवाले विद्याधरोंकी आयु काय सबकी समान होती है या होनाषिक होती है । htly [ 44 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यासागर ।६७] समाधानविदेहे क्षेत्रोंमें जो एक सौ साठ क्षेत्र है तथा तत्संबंधी जो एक सौ साठ विजया पर्वत । हैं उनके जीवोंकी आयु काय तो सबकी समान है। वहाँपर उत्कृष्ट आयु तो एक करोड़ पूर्व है तया शरीरका प्रमाण पाँच सौ धनुष है । वहाँपर सवा चौथे कालके प्रारम्भकोसी रोति बनी रहती है । तथा पांच भरस और ॥ पांच ऐरावत क्षेत्र सम्बन्धी वत विजयादों पर रहनेवाले जोबोंकी आयु काय घटती बढ़ती रहती है उत्सपिणी। कालमें बढ़ती रहती है और अवसर्पिणीकालमें घटती रहती है । उत्कृष्ट आयु एक करोड़ पूर्वकी होती है और शरीर पांच सौ धनुष ऊंचा होता है। यह अवस्था श्री ऋषभवेवके समय में होती है। तथा उत्सपिणो कालके अंतिम तीर्थकर श्री शांतके समयमें भी यही अवस्था रहती है। तथा श्रीमहावीरस्वामोके समयमें दो धनुषका शरीर और एक सौ बीस वर्षको उत्कृष्ट आयु होती है । तथा मध्यवर्ती समयमें आयु काप भी होनाधिक समान । लेना चाहिये । ऐसा श्री बृहत् हरिवंशपुराणकी पांचवीं संधिमें इलोक नं० ५१-५२-५३-५४-५५ में लिखा है । वहाँसे विचार लेना चाहिये। __७२-चर्चा बहत्तरवीं प्रश्न–गर्भज जीवोंमें मनुष्यकी उत्पत्ति किस प्रकार होती है ? समाधान-पुरुष स्त्रीके संयोग होनेपर स्त्रीके गर्भ रहता है सो पिताके चोर्य और माताके रुधिरके मिलनेसे माताके गर्भाशयमें जीव आफर उत्पन्न होता है। वह अनुक्रमसे बढ़ता है और फिर जन्म लेता है । । इसका भी विशेष वर्णन इस प्रकार है-योनिके भीतर गर्भाशयमें माता पिताके रजोवोर्यके इकट्ठे होनेपर मोवा आकर उत्पन्न होता है। तदनन्तर एक रात्रिमें उसका कल्वल बनता है। फिर पांच रातमें वह कल्बल, बुबुवाके आकारमें परिणत हो जाता है। फिर पन्द्रह दिनमें वह बुदबुदा अण्डेके रूपमें बन जाता है, एक महीने बाद उस अंडेमें मस्तक बननेका अंकूरा उत्पन्न हो जाता है। दो महीने बाद हृदय बनता है। तीसरे महीने में । पेट बमता है, चौथे महीनेमें हाथ पैर बनते हैं, पांचवे महोनेमें हाथ पैरकी उँगलियां और न निकलते हैं छठे १. एक मेक संबंधी बत्तीस विदेह होते हैं तथा पांचों मेरु संबंधी एक सौ साठ विदेह होते हैं इनमें प्रत्येकमें एक एक विजयाच पर्वत है सो एक सौ साठ विजयाई तो ये हुए । तथा पाँच भरत और पांच ऐरावत क्षेत्रों में दम विजया“ होते हैं इस प्रकार एक सौ सत्तर विजयाद्ध होते हैं। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [ ६८ ] महीने में बाल और नेत्रोंकी वृष्टि प्रगट होती है। सातवें महीने में शरीरका सब आकार तैयार हो जाता है । आठवें महीने में ज्योंका त्यों बना रहकर बढ़ता है। नौवें वा दसवें महीनेमें उस माताके गर्भाशयसे वायुके द्वारा बाहर निकलता है, इसीको जन्म कहते हैं सो ही लिखा है कल्वलं चैकरात्रेण पंचरात्रेण बुद्बुदाः । पक्षकेणांडकं चैव मासेन शिरांकुरः ॥ उरो मासद्वयं यावत् त्रिभिश्चैव तयोदरम् । शाखाश्चतुर्भिसिश्च नखांगुलिश्च पंचमे ॥ रोमदृष्टी च षष्ठे च सर्वेऽवयवाः सप्तमे । नवमे दशमे वापि वायुनाऽसौ वहिर्भवेत् ॥ इस प्रकार मनुष्यकी उत्पति समझना चाहिये । ७३ - चर्चा तिहत्तरखीं प्रश्न --- ऊपर मनुष्योंकी उत्पत्ति कही है परन्तु मनुष्योंमें तीन भेव होते हैं पुरुष, स्त्री और नपुंसक सो एक ही गर्भमें तीन अवस्थाएं कैसे हो जाती हैं। समाधान --- जिस समय पिताका वीर्य अधिक होता है और माताका रज उस वीर्यसे कम होता है। तथा उस जीवके पुरुषवेद नामकर्मका उदय होता है उस समय पुरुष उत्पन्न होता है। तथा जिस समय माताका रज अधिक हो पिताका वीर्य उस रजसे कम हो और उस जीवके स्त्रीवेद नामकर्मका उदय हो उस समय स्त्री या कन्या उत्पन्न होती है। तथा माता पिताका रजो वीर्य समान हो और उस जीवके नपुंसक नामकर्मका उदय हो तो नपुंसक उत्पन्न होता है । सो ही लिखा है । शुक्रस्याधिकतो बालः कन्या शोणितगौरवात् । शुक्रशोणितयोः साम्ये षंडत्वं तस्य जायते ॥ पितुः शुक्रान्च मातुश्च शोणिताद्गर्भसम्भवः । स्वकर्मपरिणामेन जीवोत्पत्तिरिष्यते ॥ इस प्रकार पुरुष स्त्री और नपुंसकको उत्पत्ति होती है। यहाँ कोई प्रश्न करे कि एक स्त्रीके वो बालक किस प्रकार होते हैं ? तो इसका उत्तर यह है कि यदि [६ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ स्नानको रात्रिमें वह स्त्री पुरुषसे दो बार संभोग करे तो उसके दो बालक उत्पन्न होते हैं । सो ही भाव. प्रकाश नामके आयुर्वेद शास्त्रमें लिखा है। पर्चासागर "युग्माषु पत्रा जायन्ते स्त्रियोऽयुग्मासू रात्रिषु ॥" तथा अन्य शास्त्रों में अन्य प्रकार भी इसका वर्णन किया है। वह इस प्रकार है-जो रात्रिमें संभोग समय परस्परको हवाके घातसे रजोवीर्यका पिंड अलग-अलग वो जगह हो जाय और उसमें दो जीव आ जायं तया वे दोनों ही वृद्धिको प्राप्त होते रहें तो दो बालक उत्पन्न होते हैं । सो हो चिकित्सिकमें लिखा है। । परस्परानिलाघातात् प्रभिन्ने कलिले द्विधा । तनुप्रवृद्धे तयुग्मे युग्मं तस्मात्प्रजायते ॥ ऐसा वैद्यकशास्त्रमें लिखा है। ७४-चर्चा चौहत्तरवीं प्रश्न-मनुष्यकी उत्पत्ति तो समममें आ गई परन्तु इस मनुष्य के शरीरमें क्या-क्या पवार्थ है ? समाधान-मनुष्य के शरीरमें जो जो पदार्थ हैं उन्हें संक्षेपसे लिखते हैं। माता-पिताके संयोग होनेके " बाद वह रजोवीर्यका पिंड दश दिनमें तो कलिल रूप होता है। उसके बाद वश विनमें कलुषीरूप आकार होता है फिर वा दिनमें वह कलुषोरूप आकार स्थिर होता है । यहाँ तक एक महीना हुआ । इसके बाद दश दिनमें । । बुदबुदा होता है। फिर वंश विनमें घनाकार होता है। फिर दश दिन बाद मांसको पेशी बनने लगती है। इस क्रमसे दूसरे महीनेमें पुद्गल पूर्ण करता है। तदनंतर चर्म नख रोम अंग उपांग आवि अनुक्रमसे आठ 6 महीने तक पहले कहे अनुसार उत्पन्न होते रहते हैं और फिर नौवें दशवे महीनेमें वह जन्म लेता है। इस शरीरमें शिर, मुख, दाढ़ी, सब शरीरके केश, बोस नख, बत्तीस दाँत, धमनी, नाडी आदि सिरा नसें शुक्र ये सब पिताके गुणोंसे उत्पन्न होते हैं सो हो लिखा है केशाः स्मश्र च लोमानि नखा दंता शिरस्तथा । धमन्यः खावयः शुक्रमेतानि पितृजानि हि ॥ KESARIaSanचाचा -सामान्य Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ७० ] तथा मांस, रुधिर, मज्जा, मेवा, कलेज, प्लीहा, अंतड़ी, नाभि, हृदय, गुदा ये सब माताके गुणोंसे उत्पन्न होते हैं सो लिखा है । मांसासूकूमज्जमेदांसि यकृत्प्लीहांत्रनाभयः । हृदयं च गुदं चापि भवत्येतानि ॥ मातृतः ऐसा चिकित्सक भावप्रकाशमें शारीरिक सम्बन्धमें लिखा है। अब आगे शरीरका विशेष स्वरूप कहते हैं पहले कहे हुए इस औदारिक शरीरमें ३०० हड्डियाँ हैं, ३०० संधियाँ हैं, ९०० स्नायु है जो कि तंतुके आकार हैं । ७०० सिरा हैं, ५०० मांसकी पेशियाँ हैं, ४ शिराजाल हैं, १६ कडरा हैं, ६ कंडमूल हैं, ७ रा हैं ७ करोड़ की संख्या है, आमाशय में रहनेवाली आंतोंकी षष्ठी १६, कुथिताश्रय ७, स्थूल ३, मर्मस्थान १०७ है जहांवर चोट लगने से जीव जीवित नहीं रह सकता । तथा ९ व्रणमुख हैं जो नित्य कुपित वस्तुओंसे बहते रहते हैं । यह इस शरीर में मस्तक तो अपनी अंजुली प्रमाण है, मेंदा नामकी धातु दंडांजलि प्रमाण है, मज्जा नामकी धातु अपनी स्वांजलि प्रमाण है, पीर्य स्वांजलि प्रमाण है, वसा धातु तीन निजांजलि मात्र है, पिस भी तीन स्वांजलि प्रमाण है, इलेष्मा भो तीन स्वांजलि प्रमाण है, आठ सेर रुषिर है, सूत्र नामका उपधातु सोलह सेर है, भिष्टा चौबीस हैं, नख बीस हैं, दांत बत्तीस हैं, इनके सिवाय कृमि कोट, निगोव आदि जीवोंसे यह शरीर भरा हुआ है, सात धातुओंके नाम ये हैं--रस रुधिर मांस मेवा हाड़ मज्जा शुक्र इन धातुओंसे भरा हुआ यह शरीर है। ऐसा समझकर इस शरीरसे ममत्व छोड़ देना चाहिये और अपने चैतन्य स्वरूपका विचारकर इस संसार शरीरसे विरक्त हो जाना चाहिये। यह सब कथन श्री शिवकोटि मुनि कृत भगवती आराधनामें लिखा हे सो वहाँसे विचार लेना । प्रश्न - - यहाँ कोई प्रश्न करे कि मनुष्यके शरीरकी उत्पत्ति जो पहले कही थी उससे यह कथन मिला नहीं सो यह विपरीतता क्यों है समाधान -- विपरीतता नहीं है किन्तु सामान्य और विशेष कथन हैं । ७५ - चर्चा पिचहत्तरखीं प्रश्न- सीर्थंकर गृहस्थाश्रम में अपने अवधिज्ञानको विचारें या नहीं ? 201 [ ७० Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर १] समाधान-एकबार बीसवें तीर्थंकर श्री मुनिसुव्रतनाप गृहल्यावस्थामें ही अपने पुत्रके साथ सभामें । विराजमान थे। वहाँपर पट्टहस्तीका (मुख्य हाथोका ) प्रसंग आ गया था। उस समय भगवान्ने अपने अवधिमानके द्वारा सब सभासबोंको उस पट्टहस्तीका वृत्तान्त कहा था। सो ही प्रोसोमसेन कृत लघु पद्मपुराण बारहवीं सन्धिमे लिखा है। पट्टहस्ती तदा मुक्तः भुक्किं करोति दुःखदाम् । तदृष्ट्वावधिनेत्रेण जिनः प्राह जनान् प्रति ॥ ११॥ ___ इससे सिद्ध होता है कि तीर्थकर गृहस्थ अवस्थामें अवधिज्ञानको जोड़ते हैं । अवधिशानके विचारनेका (जोड़नेका ) कुछ निषेष नहीं है। ७६-चर्चा छिहत्तरवीं प्रश्न-देवोंको जातिमें दुर्गति जातिके वेव सुने जाते हैं सो क्या वेषोंमें भी दुर्गति है ? समाधान-जो अन्य लिंगी मिग्या तपश्चरण कर देवतिम मिथ्यादृष्टि देव होते हैं। वे देव बड़ोबडी ऋषियोंको धारण करनेवाले सम्यग्दष्टि बेवोंके यहां काम करनेवाले आभियोग्य जातिके देव होते हैं अर्थात् वेबासके समान काम करते हैं, गीत गाते नस्य करते है बाजे बजाते हैं और वाहनका (सवारीका रूप धारण करते हैं। इनके सिवाय कितने ही कवेव किस्विष जातिके भी हैं। ये सब जीव वर्गतिकेही कहलाते हैं। तथा आयु पूरीकर स्वर्गसे चयकर तियंच गतिमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायुकायिक वनस्पति तथा प्रसकायिक पशु पक्षी होते हैं । सो ही रविषेणाचार्यविरचित पापुराणके चौथे पर्व में लिखा है यथाप्यद्धर्व तपः शक्त्या बजेयुः परिलगिनः । तथापि किंकरा भूत्वा ते देवान् समुपासते ॥ ४२ ॥ देवदुर्गतिदुःखानि प्राप्य कर्मवशात्ततः। स्वर्गाच्युत्वा पुनस्तियंग्योनिमायान्ति दुःखिनः॥४३॥ इस प्रकार भगवान् ऋषभदेवने अपनी दिव्यध्वनिके द्वारा बतलाया है। इससे सिद्ध होता है कि ऐसे देव स्वर्ग में भी बुख देखकर मरने के बाद तिर्यचतिमें जन्म धारण करते हैं। यही कथन श्रीबट्टकेर स्वामीने । चारों गतियोंका वर्णन करते समय मूलाचारमें लिखा है बाबा-SARLASSESARIORaनारम्वार Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२] दपमाभिजोणं कियि संमोहमासुरत्तं च। ता देव दुग्गईओ भरणम्मि विराहिए होति ॥ २८ ॥ सागर टोका-कंदर्प आभियोग्यं किल्विषं स्वमोहत्वं आसुरत्वं च। ताः देवदुर्गतयः मरणे विराधिते भवंति ।। इस प्रकार लिखा है सो यह सब मिथ्यात्वका फल है। इसका भी विशेष वर्णन इस प्रकार हैकंदर्प, आभियोग्य, किल्विष, असुर ये देवोंमें उत्पन्न होते हैं। जो जीव अन्त समयमें समाधिमरणके बिना केवल दुई सि सहित मरण करते हैं वे ही ऊपर लिखे नीच देवोंमें उत्पन्न होते हैं । इसका भी अलग अलग खुलासा इस प्रकार है-जो योगी होकर भी असत्य वचन बोलते हैं, हंसो, ठछा करते हैं, राग बढ़ानेघाले । वचन कहते हैं, कामदेवके वशीभूत होकर कामलेवनमें लीन रहते हैं और कामदेवको उत्तेजित करनेवाली क्रियाएँ करते रहते हैं ऐसे खोटे योगी मरकर कंदर्प जातिके देव होते हैं । सो वहां भी वे काम-क्रियाको बढ़ानेवाले कार्य हो किया करते हैं तथा जो यन्त्र तन्त्र मन्त्र आदि कार्योको अधिकताके साथ करते हैं जो ज्योतिष वैद्यक आदि अशुभ कार्योको करते हैं जो संघ वा चैत्यालयको हंसी करते हैं, अनेक प्रकारको चेष्टाएँ करते हैं, जो धर्मात्माओंकी अविनय करते हैं, जो मायाचारी हैं और किल्विष अर्थात् पापकर्ममें सवा लीन रहते हैं ऐसे १ पुरुष मरकर देवगतिमें नीच योनिमें अर्थात् किल्विष जातिके देवोंमें उत्पन्न होते हैं । जो जीव कुमार्ग वा शास्त्रविरुद्ध मार्गका उपदेश देते रहते हैं, जो जिनमार्गका नाश करनेमें लगे रहते हैं, सम्यग्दर्शनसे सवा विपरीत चलते हैं, जो स्वयं सम्यग्दर्शन रहित होते हैं, महा मिथ्यात्वी रहते हैं. जो मिथ्यात्व, मायाचारी और मोहसे सदा मोहित रहते हैं तथा मोहसे सवा पोड़ित रहते हैं ऐसे जीव मरकर भंडाभरण जातिमें उत्पन्न होते हैं। जो यति होकर भी क्षत्र, क्रोधी, दुष्ट, हिंसक, मायाचारी, दुर्जन हैं तथा जो तप और चारित्रमें परम्परासे बैर । बाँधते चले आ रहे हैं जिनके परिणाम सदा संश्लेशरूप रहते हैं और जो सदा निदान करते रहते हैं ऐसे जीव मरकर रौद्र परिणामोंको धारण करनेवाले असुरकुमार जा तके वेवोंमें असुर होते हैं सो ही मूलाचार प्रदीपक समाधिमरणके प्रकरणमें मरणके सत्रह भेदों में कहा है। ! कादर्पमाभियोग्यं च कैल्विष्य किल्विषापरम् । स्वमोहत्वं तथैवासुरत्वमत्वैः कुलक्षणः ॥६॥ ७२ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम- सम्पन्ना दुर्खियो मृत्वा गच्छंति देवदुर्गतीः। कंदपाया इति प्रोक्ता नीचयानिभवा दिवि ॥६०॥ । असत्यं यो ब्रुवन् हास्यसरागवचनादिकान् । कंदर्पोदीपका लोके कंदर्परतिरञ्जितः॥६१ वर्षासागर कंदर्य संति देवा ये नाग्नाचार्याः सुरालये। कंदर्पकर्मभिस्तेषु द्युत्पद्यते शतशमः ॥६२॥ [७३ ] मंत्रतंत्रादिकर्माणि यो विधत्ते बहुनि च। ज्योतिष्कभेषजादीनि परकार्याशुभानि च ॥६३॥ हास्यकुतूहलादीनि संघचैत्यालयस्य च ।आगमस्याविनितोय अत्यनीकः सुधर्मिणाम्॥६॥ ___ मायाविकिल्विषाक्रांतः किल्विषादिकुकर्मभिः। स किल्विषसुरो नीचो भवेत्किल्विषजातिषु ॥६५॥ । उन्मार्गदेशको योत्र जिनमार्गविनाशकः । सन्मार्गाद्विपरीतः स दृष्टिहीनः कुमार्गगः ॥६६॥ मिथ्यामायादिमोहाना मोहयन् मोहपीडितः । जायते स स्वमोहेष भंडाभरणजातिषु ॥६७॥ क्रोधी क्षुद्रः खलो मारी मायावी दुर्जनो यतिः। युक्तोनुबद्धवैरेण तपश्चारित्रकर्मसु ॥६८॥ । संक्लिष्टः सनिदानो य उत्पद्यन्ते स कर्मणाम् । रौद्रासुरकुमारेषु.....। इत्यादि लिखा है। ७७-चर्चा सतहत्तरवीं प्रश्न-सिद्धांतमें आत्माके तीन भेद बसलाये हैं उनका स्वरूप क्या है ? समाधान--इस लोकमै जोष नामक व्यके तीन भेद बतलाये है-बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा । सो हो स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षामें लिखा है जीवा हवंति तिविहा वहिरप्पा तहेव अंतरप्पा य परमप्पा । इत्यादि इनका स्वरूप इस प्रकार है। जिनकी आत्मामें मिथ्यात्व कर्मका तीन परिणमन हो रहा है। जिनके । अनंतानुबंधो क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों कषायोंका तोत्र उदय है तथा अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण, संज्वलन इन कषायोंका भी तीन उवय है तथा जो चैतन्य और प्रारीरको एक ही पदार्थ मानता है । ऐसा जीव इस संसारमें बहिरात्मा गिना जाता है । सोही स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षामें लिखा है RSanitakshakti [७ THAN Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर [७] मिच्छत्त परिणदप्पा तिव्वकसारण सुट्ट आविट्ठो। जीवं देहं एगं मण्णंतो होदि बहिरप्पा ॥ १६४॥ यह बहिरात्माका स्वरूप है। जो जीव जिनवचनमें कुशल होता है, जो श्रोजिनेन्द्रदेवकी कुशल आज्ञाका पालन करनेयाला होता है। । अथवा जीव और शरीरका भेवविज्ञानी होता है अर्थात् जोव और शरीरको भिन्न-भिन्न जाने, जो वक्ता हो सम्यग्दर्शनको घात करनेवाले दुष्ट आठों मोंको जीतने वाला हो उसे अन्तरात्मा कहते हैं। यह अन्तरात्मा सीन प्रकार है । सो हो स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षामें लिखा है जो जिणवयणे कुसला भेयं जाणंति जीवदेहाणं । णिज्जय दुट्ठमयट्ठा अंतरअप्पा य ते तिविहा ॥१६॥ अन्तरात्माके वे तीन भेद इस प्रकार हैं-जो पांचों महावतोंको पालन करनेवाले हों, जो धर्मध्यान वा शुक्लध्यानमें निरन्तर लोन हों, ध्यानमें जिनका शरीर निश्चल रहे और जो समस्त अपाय अर्थात् कमोको जीतनेवाले हों ऐसे मुनियोंको उत्कृष्ट अन्तरात्मा कहते हैं, सो हो स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षामें लिखा है-- पंचमहव्वयजुत्ता धम्मे सुक्के विसंठिया णिच्च। णिज्जयसयलमपाया उक्किट्ठा अंतरा होति ॥१६॥ जो दर्शन, व्रत आदि श्रावकोंके ग्यारह प्रतिमारूय गुणोंको धारण करनेवाले हों, जो श्रावकोंकी तिरेपन क्रियाओंका पालन करते हों ऐसे पांच गुणस्थानवी श्रावक मध्यम अन्तरात्मा है तथा जो जिन-वचनोंमें सवा अनुरक्त रहते हैं, जिनके दर्शनमोहनीयको मिथ्यात्व आदि तीनों प्रकृतियां तथा चारित्रमोहनीयको क्रोधमानमायालोभ ये चारों प्रकृतियाँ इस प्रकार सातों ही प्रकृतियाँ उपशमभावको प्राप्त हो गई हों और क्षुधा, तषा मावि परिषहोंको सहन करने में खूब समर्थ हों ऐसे मुनियों को भी मध्यम अन्तरात्मा कहते हैं। सोही । स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षामें लिखा है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर [1] सावयगुणे हि जुसा पमत्तबिरदाय महिमा होति । जिणवयणे अणुरत्ता उवसमसीला महासत्ता ॥१६॥ इस प्रकार मध्यम अन्तरात्माका स्वरूप बतलाया। जो उपशमसम्यक्त्व, क्षायिकसम्यक्त्व अथवा क्षायोपशमिक सम्यक्त्वसे सुशोभित हो, जो जिनेन्द्रदेवके चरणकमलोंका भक्त हो, अपने किये हुए पापोंकी निश करनेवाला हो, महाव्रतादि गुणोंको धारण करनेकी जिसको तीन लालसा हो ऐसे चतुर्थ पुणस्थानवर्ती श्रावकोंको जघन्य अन्तरात्मा कहते हैं । सो ही स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षामें लिखा है । अविरयसम्माइट्ठी होति जहण्णा जिणंदपयभत्ता। अपाणं णिदत्ता गुणगहणे सुटु अणुरत्ता ॥१८॥ इस प्रकार तीनों प्रकारके अन्तरात्माओंका स्वरूप बतलाया। जो परमौवारिक शरीरसे सुशोभित है और कंवलज्ञानके द्वारा समस्त पदार्थोके ज्ञाता वृष्टा हैं ऐसे श्री ॥ भरहन्त भगवान् सकेल परमात्मा है तथा जिनके कान ही शरीर है, जो परमौदारिक शरीरसे भी रहित हैं ऐसे सिद्धपरमेष्ठी निकल परमात्मा है। ये निकल परमात्मा सर्वोत्कृष्ट सुखसे सुखी हैं । सो हो स्वामिकातिकेया। नप्रेक्षामें लिखा है। ससरीरा अरहंता केवलणाणेण मुणिय सयलस्था । णाणसरीरा . सिद्धा सव्वुत्तमसुक्खसंपत्ता ॥१६६॥ इस प्रकार बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्माका स्वरूप जानना । इससे भी विशेष स्वरूप जानना हो तो श्री सकलकीर्तित 'सार पविशतिका' तथा श्रीयोगीन्द्रदेव कृत परमात्मप्रकाशसे जान लेना चाहिये। इनके सिवाय अन्य जैन सिद्धान्तोंसे भी जान लेना चाहिये। उनमें विशेष लिखा है। हमने यहां संक्षेपमें । लिखा है। -SERIAGR AT १. कल शब्दका अर्थ शरोर है जो शरीरसहित परमात्मा हों वे सकल परमात्मा हैं तथा जो शरीर रहित परमात्मा हों वे निकल परमात्मा हैं। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [ ७६ ] ७८-चर्चा अठहत्तरवीं प्रश्न- जोवोंके भाव कौन-कौन हैं और उनका स्वरूप क्या है ? समाधान -- जीव नामक तत्व के मूलभाव पाँच हैं औपशमिक, क्षायिक, मिश्र, और्वाधिक और पारिनामिक | ये पांच भाव समस्त जोवोंके समुच्चयरूपसे हैं । सो ही मोक्षशास्त्रमें लिखा है । औपशमिक क्षायिक भावौ मिश्रश्व जीवस्य स्वतत्त्वमोदयिकपारिणामिकौ च । - अध्याय २रा सूत्र १ । इनका अर्थ इनके शब्दोंसे ही निकलता है अर्थात् जो कर्मके उपशमसे हों उन्हें औपशमिकभाव कहते हैं, जो कर्मोंके क्षयसे हों उन्हें क्षायिकभाव कहते हैं जो कर्मोके क्षय और उपशम दोनोंसे हों उनको क्षयोपामिक वा मिश्रभाव कहते हैं, जो कर्मोंके उदयसे हों उनको औदयिक और जो अपने आत्म तत्वसे उत्पन्न हो उनको पारिणामिकभाव कहते हैं। यह इनका सामान्य अर्थ है। इनके उत्तरभेद ५३ होते हैं, सो ही मोक्षशास्त्र में लिखा है । JA द्विनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमम् । – अध्याय २ सूत्र सं० २ 1 ओपशमिक भावोंके दो भेद हैं-औपशिक सम्यग्दर्शन और औपशमिक चारित्र । क्षायिकके नौ भेद हैं-- केवलज्ञान, केवलदर्शन, अनंतदान, अनंतलाभ, अनंत भोग, अनंत उपभोग, अनंत बीयं । क्षायिक सम्यदर्शन और क्षायिकसम्यक्चारित्र । मिश्रभावके अठारह भेद हैं- मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्ययज्ञान, कुमति ज्ञान, फुश्रुत ज्ञान, विभंगावधिज्ञान, चक्षुर्दर्शन, अच्चक्षुर्देशन, अवधिदर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, क्षायोपशमिक चारित्र और संयमासंयम । औदायिकके इकईस भेव हैं । मिथ्यानरकगति, तियंचगति, मनुष्यगति, वैवगति, क्रोध, मान, माया, लोभ, स्त्रीवेद, पुवेद, नपुंसक देव, दर्शन, अज्ञान, असंयत, असिद्धत्व, कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, पीतलेश्या, तथा पारिणामिक तीन भेद हैं- जीवत्य, भव्यत्व, अभव्यश्व । ये सब सब मिलकर सो ही मोक्षशास्त्र में लिखा है पद्मलेश्या, शुक्ललेश्या । तिरेपन भाव होते हैं। 43 K Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७] सम्यक्त्वचारित्रे । शानदर्शनदानखामभोगोपभोगवीर्याणि च। ज्ञानाशानदर्शन लब्धयश्चतुस्त्रिस्त्रिपंचभेदाःसम्यक्त्वचारित्रसंयमासंयमाश्च ।गतिकषायलिंगमिन्यादर्शनाचर्चासागर ज्ञानासंयतासिखलेश्याश्चतुश्चतुरत्येकैकैकैकषड्भेदाः । जीवभव्याभव्यत्वानि च। ... -अध्याय २ सूत्र सं० ३।४।५।६।७ मा इस प्रकार इनका स्वरूप जानना। इनका विशेष वर्णन श्रीदेवसेनमुनि विरचित भावसंग्रहसे जान लेना चाहिये। ७६-चर्चा उन्यासीवीं प्रश्न-मनुष्यके तथा संशो पंचेन्द्रिय पशु पक्षी आवि जोधोंके तोन वेव ( लिंग-स्त्रीलिंग, पुल्लिग, । नपुसक लिंग ) होते हैं परन्तु नरक गतिक की और एप्रियापि नगर्छन की जोवोंके कौनसा लिंग होता है ? समाधान---नरकके नारकियोंके तथा समस्त सम्मन्छन जीवोंके केवल नपुसक लिंगका उदय होता है। इसलिये उनके स्त्रीवेद और नपुसक घेद नहीं होते ऐसा नियम है । तथा देवोंके नपुंसक वेद नहीं होता उनके स्त्रीवेव और पुवेव वो हो लिंग होते हैं और मनुष्य तथा गर्भज पशु पक्षियोंके तीनों ही वेद होते हैं । सो हो मोक्षशास्त्रमें लिखा है। नारकसम्मछिनो नपुंसकानि । न देवाः। शेषास्त्रिवेदाः। -अध्याय २ सूत्र सं० ५० ।५१। ८०-चर्चा अस्लीवीं प्रश्न-राजा शिशुपालने कृष्ण नामके नारायणको रुक्मिणीका हरण करते समय एक सौ गालियां । वो। तदनंतर नारायणने उसको मारा । इस प्रकार हरिवंशपुराणमें वा जेनपुराणों में सुना है। परन्तु वहाँपर सौ गालियों के नाम कहीं नहीं लिखे केवल दो चार नाम लिखे हैं सो वे सौ गालियां कौन-कौन सी हैं। समाधान-रुक्मिणीके हरण करते समय युद्धमें शिशुपाल कृष्ण नामके वासुदेवसे कहता है--रे कोषो । समाना Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्चासागर [ ७८ ] १ रे की २ रे कराल ३ रे कुनय ४ रे कुलहर ५ ऐ कलव ६ रे क्रूरकर्मा ७ रे काल ८ रे कामी ९ है कलंकी १० रे कुल ११ रे कलिकर १२ रे कातर १३ रे कंटकी १४ रे क्रूर १५ रे नपुंसक १६ रे कुविद्य १७ रे कुमव १८ रे कपटी १९ रे नौकर्म २० रे कामांध २१ रे कीर २२ रे कोड़ा २३ रे कोष्ठ २४ रे कुलिंगी २५ रे कुचरण २६ रे कलुषि २७ रे क्रव्यभुज २८ रे कंपिन २९ रे कुप्रीत ३० रे कुमब ३१ रे कुरूप ३२ रे कुरणी ३३ रे काक ३४ रे कुवेष ३५ रे कुघुत ३६ रे कुष्ठी ३७ रे कीट ३८ रे फुलक्षणी ३९ रे कलभ ४० रे कारुण्यहीन ४१ रे कुषी ४२ रे कूमं ४३ रे कुश्रवण ४४ रे कुरंग ४५ रे कुगुरु ४६ रे कौलेयक ४७ रे किकर ४८ रे काम ४९ रे कापुरुष ५० रे कुलाल ५१ रे कुरव ५२ रे काकोवर ५३ रे कर्कश ५४ रे कुनेत्र ५५ रे कुवक ५६ रे कुनास ५७ ५१६०६१ रे कुनाभि ६२ रे कुदंत ६३ रे जिह्न ६४ ₹ कुजंध ६५ रे कुपाद ६६ रे कुभाग्य ६७ रे कुकर्मा ६८ रे कुतात ६९ रे कुपुत्र ७० ₹ कुराम ७१ रे कुसेव ७२ रे कुवर्ण ७३ रे कुवास ७४ रे कुलधन ७५ रे कुबेद ७६ रे कुचल ७७ रे कुराग ७८ रे कुकीर्ति ७९ रे कुनाम ८० रे कुशील ८१ रे कुनीति ८२ रे कुवीर ८३ रे कुचार ८४ रे कुमान ८५ रे कुसंग ८६ २ कुबंधु ८७ रे कुमित्र ८८ रे कुमार ८९ रे कुवाल ९० रे कुजाति ९१ रे कुलारी ९२ रे कलाहोन ९३ २ कर्क ९४ रे कुभोजी ९५ ₹ कुबन्धी ९६ रे कुराज्य ९७ रे कुभार ९८ रे कुजन्मा ९९ रे कुधर्म १०० । इस प्रकार सौ गालियां शिशुपालने श्रीकृष्णको दीं और फिर और भी कुवचन कहे तब कृष्णने उसका वध किया तो हो 'जैनरत्नाकर' में लिखा है । क्रोधी कीशः करालः कुनयकुलहरों कद्वदः क्रूरकर्मा, कालः कामी कलंकी कुवलकलिकरौ कातरः कंटकी च ॥ क्रूरः क्लीवः कुविद्यः कुमदकपटिनौकर्मकामांधकीराः, कोडा क्रोष्टा कुलिंगी कुचरणकलुषी क्रव्यभुक् कंपिनश्च ॥ कुप्रीतिः कुमदः कुरूपकरणो काकः कुवेषः कुधृत् कुष्ठी कीटकुलक्षणो च कलभः कारुण्यहीनः कुधीः ॥ [ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिसागर कूर्मः कुभवणः कुरंगकुगुरू कोळ्यका किंकर, कामः कापुरुषः कुलालकुरवो काकोदरः कर्कशः ॥ कुनेत्रः कुवकः कुनाशः कुकर्णः कर्कतः कुचेताः कृताहुः कुनाभिः ॥ कुदन्तः कुजिहः कुजंघः कुपादः कुभाग्यः कुकर्मा कुतातः कुपुत्रः॥ कुरामः कुसेवः कुवर्णः कुवासः कुलघ्नः कुदेवः कुचेलः कुरागः ।। कुकीर्तिः कुनामा कुशीलः कुनीतिः कुवीरः कुचारः कुमानः कुसंगः ॥ कुबंधुः कुमित्रंकुमारःकुवालः कुजाति कुलारिः कलाहीनकर्को कुभोजी ॥ कुबंधी कुराज्यः कुभारः कुजन्मा कुधर्मा हरेः गालयः स्युः शतानि ॥ ८१-चर्चा इक्यासीवीं ढाई द्वीपमें रहनेवाले समस्त विद्याधर तथा चारणऋतिको धारण करनेवाले महामुनिराज इस चित्रा पृथ्वीसे निन्यानवे हजार योजन ऊँचे चढ़कर मेरु पर्वतपर जा पहुंचते हैं ऐसी उनको शक्ति है परन्तु वे ही विद्याधर और महामनि सत्रहसौ इकईस योजन ऊँचे मानुषोत्तर पर्वतको उलंघन कर ढाई द्वीपके बाहर जिनमंदिरोंकी वंदना करने के लिये क्यों नहीं जा सकते ? समाधान--ढाई द्वीपके बाहर मनुष्यक्षेत्र नहीं है। मनुष्यक्षेत्र मानुषोत्तर पर्वत तक ही है इसलिये । इसका "मानुणोत्तर" ( मनुष्य क्षेत्रसे आगे रहनेवाला ) यह सार्थक नाम है । सो ही मोक्षशास्त्रमें लिखा है। प्राङमानुषोत्तरान्मनुष्याः । --अध्याय ३ सूत्र सं० ३५।। यही कारण है कि वे विद्याधर वा मुनिराज उसके आगे नहीं आ सकते, मनुष्योत्तरके पर ही रहते है। यदि कोई विमानदिद्यासे अगवा ऋखिसे मानुषोत्तरके आगे जामा चाहे तो भी उसकी सामर्थ्य चलती नहीं उसे उलटा पीछे ही आना पड़ता है। ऐसा नियम श्रीसर्वशदेवके शासनमें कहा है। प्रश्न- यहाँ कोई प्रश्न करे कि यह कहना असंभव है क्योंकि यह कहना ऐसा ही है जैसा कोई यह कहे कि "एक हाथी एक मामंडल में घुस गया और वह उसके नालमें होकर निकल गया परंतु उसको पूछका एक बाल Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भिटक गया तब लाचार होकर यह कहना पड़ा कि भाई एक तिहाई हाथी अटक गया" इसी प्रकार के विद्या पर और मुनिराज निन्यानवे हजार योजन ऊँचे तो चले जायें परन्तु उनसे सत्रह सौ इकईस योजन ऊंचा बर्षासागर मानुषोसर पर्वत उल्लंघन न किया जाय अतएव यह कहना असंभव है। [८ ] म उत्तर-जिस प्रकार इस जोषका स्वभाव ऊर्ध्वगमन करना है परन्तु कर्मरहित मुक्त जीव भी लोकके। । शिखरपर्यन्त ही जाते हैं। आगे अलोकाकाशमें नहीं जातं । वे भी अपने लोकफे क्षेत्रपर्यंत ही गमन करते हैं। आगे गमन करने में वे भी असमर्थ हैं । इसी प्रकार मानुषोत्तर पर्वतके आगे भी कोई नहीं जा सकता। प्रश्न-मुक्त जीव जो लोकशिखरसे आगे नहीं जाते उसका कारण तो लोकके आगे धर्मद्रष्यका अभाव है। धर्मवष्यके अभावसे आगे नहीं जा सकते तो ही लिखा है। धर्मास्तिकायाभावात् । -अध्याय १० सूत्र सं०८ __ परन्तु यहाँ किस व्यका अभाव है जिसके कारण वे मानुषोत्तर पर्वतका उल्लंघन नहीं कर सकते।। उत्तर-मानुषोत्तर पर्वतको उल्लंघन करनेकी सामर्थ्य न तो विमानोंमें और न ऋद्धियोंमें है । इसीलिये वे । उसका उल्लंघन नहीं कर सकते । आगे और भी उवाहरण लिखते हैं जिस प्रकार लवणोषि आदि समुद्रों के जलका पूर आता है उस समय वह जल ऊपरको ही बढ़ता है अपने किनारेको मर्यादा नहीं छोड़ता अर्थात् ऊँचा बंधा हुमा किनारा न होनेपर भी वह समुा अपना किनारा छोड़कर आगे नहीं बढ़ता । अथवा लोहा नामको धातुमें एक कांति नामका लोहा होता है उसकी कढ़ाई भी बनती है उस कढ़ाई में मवि ऊपर तक दूध । भर दें और उसके नीचे अग्नि जलावें तो उस अग्निकी गर्मोसे उस वृधर्म उफान तो आवेगा परन्तु उस उफान से वह बूष ऊपरको हो चढ़ेगा उस कढ़ाईके किनारेसे बाहर निकल कर वह पृथ्वीपर नहीं पड़ेगा। सो हो भाव। प्रकाश नामके आयुर्वेदशास्त्रमें लिखा है। यस्पात्रे न प्रसरति जलें तैलविदुः प्रलिप्ते हिंगुर्गन्धं त्यजति च निजं तिक्ततां निम्बकल्कः ।। तप्तं दुग्धं भवति शिखराकारकं नेति भूमि कृष्णगिं स्यात्सजल चकणे कान्तलोहं तदुक्तन् ॥ । अथवा मछली जलमें गमन करती है तथा जलको महाधाराके सामने वा उसके ऊपर चली जाती है । ऐसो उसको शक्ति है तो भी वह जलके बाहर एक पैर भी नहीं चल सकती। अथवा सर्वार्थसिडि नामके ।। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमानके अहमित्रोंका अवधिज्ञान और विक्रिया सात मरक तक कही है और वे अहमिंद्र सातवें नरक तक अपने अवधिज्ञानको जोड़ भी लेते हैं परन्तु अपनो विक्रियाके द्वारा भी वे अपने विमानसे बाहर कभी नहीं चर्चासागर जाते । इस प्रकारके अनेक दृष्टांत है । इसी प्रकार मानुषात्तर पर्वतसे बाहर मनुष्यका गमन नहीं हो सकता। [८] जो लोग मानुषोत्तर पर्वतके बाहर भी मनुष्यका गमन मानते हैं उन्हें जेनी नहीं समझना चाहिये। तथा जो लोग मानुषोत्तरके बाहर तीर्थंकरोंके केशोंका गमन नहीं मानते वे भी मिथ्यावृष्टी है क्योंकि । भगवान् सीर्थकर परमवेव दीक्षा लेते समय जब केशलोंच करते हैं तब उन केशोंको इन्द्र मणिमय पात्रमें रख-1 कर क्षीरसागरमें क्षेपण करता है। ऐसा शास्त्रोंमें लिखा है। यदि वे केश मानुषोत्तरके बाहर नहीं जा सकते थे तो फिर ऐसा लिखा ही थयों है । पंचमंगल भाषामें लिखा है "क्षीरसमुद जल क्षिपिकरि गये अमरावती" कोई-कोई लोग इन केशोंको मायामयो मानते हैं सो भी मिथ्या है क्योंकि शास्त्रों में मायामयी केश नहीं लिखे हैं साक्षात् केश लिखे हैं। ऐसा जान कर जेसा शास्त्रों में लिखा है वैसा ही श्रद्धान करना ठीक है। शास्त्रानाके विपरीत श्रद्धान कभी नहीं करना चाहिये । ८२-चर्चा वियासीवी प्रश्न-आस्रव तत्वके पुण्यपाप वो भेद हैं सो उनका विशेष स्वरूप क्या है जिनसे पुण्यपापका विशेष स्वरूप जाना जाय ? समाधान--औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशभिक ये तीन प्रकारके सम्यग्दर्शन, देव, शास्त्र, गुरुको पूजा करना, अनशन आदि बारह प्रकारका तपश्चरण पालना, उत्तम, मध्यम, जघन्य तीनों प्रकारके सत्पात्रोंको वान। वेना, सब जीवों पर दयाभाव धारण करना, इन्द्रिय संयम ( इन्द्रियोंको वमन करना ) और प्राणिसंयम ( समस्त प्राणियोंको रक्षा करना ) ये दोनों प्रकारके संपम पालन करना, तेरह प्रकारके चारित्रको पालन करनेके लिये खूब अच्छी तरह उद्यम करना, पांचों प्रकारके झानोंको धारण करना, कषायोंके जीतनेकी वृद्धि M करना, बीपाविक छह प्रव्य तथा नो पार्योका पयार्य श्रदान करना मावि शुभापयोगके निसने कारण हैं। परतावामन्चतरारम्बार Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासागर ८२३ और भगवान जिनेन्द्रदेवने कहे हैं वे सब पुण्यके अंश हैं अर्थात् पुण्यात्रवके कारण हैं। सो ही रलाकरमें लिखा है सम्यक्त्वं जिनपूजनं च सुतपो दान दया संयमः, चारित्राचरणे त्रयोदशविधौ सम्यकप्रकरोधमः। पंचज्ञानमतिः कषायविजयः षद्रव्यमर्थान्नव, ऐते हि जिनभाषिताः शुभकरा पुण्यांशवो चास्त्रवाः॥ ये तो सब पुण्यानवके कारण हैं तथा आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये चार संज्ञाएँ, माया, मिम्या, निदान ये तीन शल्य, क्रोषादिक पच्चोस कषाय, मन, वचन, कायको क्रियारूप तीन वंश, राजकथा, चोरकथा, भोजनकथा, स्त्रोकथा ये चार विकथाएँ, कुष्ण, नोल, कापोत ये तोन लेश्याएं, रसगारव, ऋद्धिगारव, तप-। गोरख ये तीन गारब, एकान्त, विपरीत, विनय, संशय और अज्ञान ये पांच मिन्यात्व, पांच प्रकारका कार्म, हलका, भारो, नरम, कठोर, शीत, उष्ण, स्निग्ध, रक्षा, खट्टा, मोठा, कडवा. चरमरा, कषाय दुर्गध, सचेतन, अचेतन, मिथ ये तेईस पांचों इन्द्रियोंके विषय, हिंसा, मूठ, चोरो, कुशील, परिग्रह ये पांच पाप, मोह, स्नेह, विवादकारण, कुमतिज्ञान, अहंकार, पन्द्रह प्रमाव अथवा साडे सेंतीस हजार ३७५०० । प्रमाद, इंधन और अग्नि के द्वारा व्यापार करना, कलह, आर्तध्यान, रोबध्यान आदि सब पापके अंश अथवा पापात्राषके कारण हैं । सो हो रत्नाकरमें लिखा है। संज्ञाशल्यकषायदंडविकथा लेश्या प्रयो गारवा, मिथ्यापञ्चकर्पचकामविषयाः पञ्चैव हिंसादयः। मोहस्नेहविषादहेतुकुमतिः गर्व प्रमादाखिलाः, इन्ध्यग्निव्यवसायहेतुकलहाः पापांशवोचास्त्रवाः॥ ११. गारव अभिमानको कहते हैं, ऋद्धियों का अभिमान, तपका अभिमान और शरीरका अभिमान । २. शोषण, संतापन, उच्चाटन, वशीकरण, मोहन । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ a] ऐसा समान कर पर लिखे हुए पापके भाववॉका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये तवा असबभूतव्यवहारनयको अपेक्षासे पुण्यालबोंके कारणोंको ग्रहण करना चाहिये । तथा शुद्धनयसे पुण्य पाप वोनों हो त्याज्य हैं। ८३-चर्चा तिरासीवीं | प्रश्न-श्रावकके बारह व्रतोंमें विग्नत और बेशवत और दो व्रत अलग-अलग गुणवत हैं। दिग्धतम योमनाविकके द्वारा विशा विविशाओंका प्रसार किया जाता है मया मनाने मार भाले जानेका स्याग किया। जाता है और देशवतको पालन करनेवाला देशोंका प्रमाण करता है। परन्तु मर्यात तो दिखतमें ही हो जाती है उसी क्षेत्रमें वह गमनागमन करता है फिर बेशोंके प्रमाण करनेका क्या कारण है ? वेश भी तो विशामें ही आ गये। इस प्रकार ये दोनों हो त एक रूप ही होते हैं इनमें कुछ विशेषता नहीं होती। समाधान-विग्वतमें तो समस्त विशाओंका प्रमाण हो जाता है फिर भी देशवतमें जो देशोंकी मर्यादा की जाती है उसका अभिप्राय यह है कि पहले जो विशाओंको मर्यादा की थी उसमें यदि कोई म्लेच्छ देश हो। अथवा अनार्य वैश हो जहाँपर कि अपने वत और सदाचरणोंका भंग होता हो तो ऐसे अधार्मिक वेशमें लोभाविकके कारण भी कभी नहीं जाना चाहिये । देशव्रत धारण करनेका यही अभिप्राय है सो ही वसुविधायकाचारमें लिखा है। वयभंगकारणं होई जम्मिदेसम्मि तत्थ णियमेण । कीरइ गमणिवित्ती तं जाण गुणव्वयं विदियं ॥२१॥ देशवतका यही अभिप्राय है और कुछ अभिप्राय नहीं है। दिखतकी मर्यादा जन्म भरके लिये की जाती है और देशवतकी मर्यादा कुछ कालके लिये उसके भीतर की जाती है। यह दिव्रत और देशवत में अन्तर है। इसके सिवाय श्रीवसुनंदिवावकाचारमें देशव्रतका लक्षण लिखा सो भो ठीक है क्योंकि जहाँपर सम्यक्त्व नष्ट हो जाय अथवा वतोंका दोष लग जाय ऐसे देशोंमें जानेका निषेध अन्य शास्त्रोंमें भी है। इसी कारण वर्तमान समयमें समुद्र यात्राका निषेध किया जाता है क्योंकि वर्तमान समुद्रयात्राके जो जो साधन हैं वे सब सम्यक्त्वका घात करनेवाले है क्योंकि यहाँपर देवदर्शन, पात्रदान आदिका कुछ साधन नहीं है इसी प्रकार प्रतोंके घातक हैं क्योंकि खाने पीनेके साधन होटल ही हैं और वहाँपर मांसादिकका स्पर्श बच नहीं सकता। रसोई बनानेवाले मुसलमान और भंगियोंका स्पर्श बच नहीं सकता। यदि कोई स्वयं बनाना चाहे तो भी इनका स्पर्श बच नहीं सकता। इसलिये ऐसे देशोंमे जानेका स्याग करना मो येशवत है। [ 4 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिागर ८४] ८४-चर्चा चौरासीवीं प्रश्न-हिंसाका त्याग और उसका ज्ञान किस प्रकार है ? क्योंकि विना समझे हिंसाका त्याग फिस प्रकार किया जाय ? A समाधान--इसका विशेष वर्णन इस प्रकार है । अहिंसा व्रत लेनेवालेको सबसे पहले नीचे लिखी चार बातें समझनी चाहिये तर किर गया त्या गावाहिये । सबसे पहले हिस्य, हिंसक, हिंसा और हिंसाफल इन चारोंका स्वरूप जान लेना चाहिये । संसारमें जो पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, बनस्पतिकायिक, नित्यनिगोव, इतरनिगोद, यो इन्द्रिय, ते इन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंजीपंचेन्द्रिय, संजीपंचेंद्रिय । आदि अनेक प्रकारके जीव हैं वे हिंस्य ( हिंसा करने योग्य ) हैं इनके विशेष भेष और स्वरूपका वर्णन चौवह मार्गणा तथा बोस प्ररूपणाके द्वारा अनेक भेवरूप श्रीगोम्मटसार आदि अनेक जैन शास्त्रोंमें कहा है यहाँसे समझ लेमा चाहिये । यह हिंस्यका स्वरूप कहा । तथा ऊपर कहे हुए जीवोंको हिंसा करनेवाला हिंसक है। ऊपर लिखे जीवोंका मरण होना हिंसा है। यह हिंसा शब्द हिंसार्थक हिनि धातुसे कृवन्तीय प्रत्यय होकर तथा । स्त्रीलिंगमें आ प्रत्यय होकर बना है । हिंसा सम्बन्धी जानने योग्य चारों भेदोंमें यह तीसरा भेद है । तथा उस हिंसाके पापसे उस हिसा करनेवाले जीवको नरक, तिर्यच आदि अनेक प्रकारको कुयोनियोंमें थोड़ा वा बहुत दुःख भोगना पड़ता है वह हिंसाका थोड़ा था बहुत फल है। इस प्रकार हिंस्य, हिंसक, हिंसा और हिंसाका फल इन चारोंका स्वरूप जानकर फिर अपनी शक्तिके अनुसार हिंसाका त्याग करना चाहिये । सो ही अमृतचंद्रसूरिने पुरुषार्थसिद्धधुपायमें लिखा है-- अवबुध्य हिंस्यहिंसकहिंसाहिंसाफलानि तत्वेन । नित्यमवगृहमानै निजशक्त्या त्यज्यतां हिंसा ॥ अत एव अपनी शक्तिको देखकर अणुव्रत वा महावत धारण कर हिंसादिकका त्याग करना चाहिये। ' ८५-चर्चा पिचासीवी प्रश्न-ऊपर जो हिंस्य, हिंसक मादि भेद बतलाये उसमें हिंसाका फल थोड़ा और बहुत बतलाया।. [४ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rasa परन्तु हिंसामें थोड़ा बहुत यह दो प्रकारका फल सा ? योकि समान हिंसामे समान फल होना चाहिये ।। फलमें न्यूनाधिकता क्यों होती है ? समाधान-ऊपर हिंसा बतलाई है उसके द्रव्यहिंसा, भावहिंसा आधि कितने ही भेव होते हैं। जैसे पिसागर [ ] किसीने बाह्य हिंसा तो की नहीं परन्तु अपने योगोंके द्वारा प्रमावरूप प्रवृत्ति की अर्थात् मन में हिंसाका विचार किया और वचनसे भी हिंसाका प्रयोग किया तो उसके भी हिंसाका ही फल लगेगा ॥१॥ अथवा किसीने योगोंके द्वारा कोई प्रमाव नहीं किया अर्थात् मन, वचनमें जीयोंकी रक्षा परिणाम रखते हुए बड़े यलाचारसे गति की । ऐशी अवस्था में उसके द्वारा मादा हिंसा हो नहीं सकती । तथापि यदि उससे हिसा हो जाय तो । उसके भाव क्यारूप हो समझे जायेंगे इसके हिंसाका पाप नहीं लगेगा ॥२॥ अथवा कोई हिंसा तो बहुत । थोड़ी करे परन्तु उसके क्रोधादिक हिंसादिक परिणाम बहुत तीव्र हों तो उसके हिंसाका फल बहुत ही लगेगा। ॥॥३॥ अथवा किसीके भाव तो हिंसासे निवृत्ति रूप हों, हिंसाके त्याग रूप हों परन्तु उससे हिंसा महुत हो । जाय तो भी उसको उसका फल थोड़ा हो लगेगा ॥४॥ अथवा एक ही प्रकारकी हिंसा किन्हीं दो जीवोंने को परन्तु एकने तो बड़े तीव कषायोंसे को इसलिये उसको फल भी बहत होलगेगा तथा दूसरेने बड़े मंद परिणामोंसे की इसलिये उसको उसका फल बहुत थोड़ा मिलेगा ॥५॥ किसीने हिंसा करनेका विचार किया परन्तु यह शीघ्र हिंसा न कर सका तो उसको हिंसा करनेके पहले ही केवल विचार करनेमात्रसे हिंसाका फल मिल जाता है पोछे कालांतरमें वह उस हिंसाको करता है ॥ ६ ॥ फिसो जीयको हिंसा करके ही उसी समय उसका फल मिल जाता है ॥७॥ किसीको हिंसा करनेपर हिंसाका फल मिलता है।॥ ८॥ किसीको बिना हिंसा किये हो केवल विचार करने मात्रसे हिंसाका फल मिल जाता है ॥ ९॥ हिंसा एक करता है परन्तु उसके फल भोगनेवाले अनेक होते हैं जैसे किसी चोरको एक मनुष्य मारता है परन्तु उसकी अनुमोदना बहुतसे मनुष्य करते हैं वे सब उस हिंसाके फल भोगनेवाले होते हैं ।। १०॥ हिंसा अनेक करते हैं परन्तु फल एकको हो । लगता है। जैसे युद्ध में हजारों लाखों मरते मारते हैं परन्तु फल राजाको ही लगता है ॥११॥ किसीसे शत्रुता। रखकर उसको मारने के लिये पहले उसको विश्वास दिलाना, दया करना, उसका पालन करना सो भी सब हिंसाके फलको हो फलता है।॥ १२ ॥ किसी रोगी जीवको दुखो देखकर अथवा अन्य किसी जोषको दुःखी देखकर अथवा किसी जीवको मरता हुआ देखकर उसके बचाने का प्रयत्न करे चाहे वह प्रयत्न शास्त्र के द्वारा HTTPHONatmensweaawaragHAUTOMATOPHATOPatra i manामानasatta Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिगर ६] र S चीड फार करने रूप हो, चाहे अग्नि या गर्म लोहे द्वारा दागने रूप हो और चाहे लंघन आदि किसी अन्य दुख रूप हो। इन सब आसुरी प्रयत्नोंके द्वारा भी उसके प्राणोंकी रक्षा करे और इस प्रकार रक्षा करते हुए भी वह प्राणी मर जाय अथवा जीवित हो जाय परन्तु उस धीड फाड़ या दाग वा लंघन आदि पीड़ा रूप प्रयत्नका फल क्यारूप ही होता है क्योंकि उसके परिणाम उसकी रक्षा करनेके थे ।। १३ ।। इस प्रकार हिंसाके फलमें भी बोड़ा बहुतपन आता ही है । अतएव यत्नाचारपूर्वक रहकर दया पालन करना चाहिये और अपनी शक्तिके अनुसार ऊपर लिखी सब प्रकारको हिंसाका त्याग कर देना चाहिये । यही जैन सिद्धांतका सार है। सो हो पुरुषार्थसिद्धियुपाय में लिखा है अविधायावि हि हिंसां हिंसाफलभाजनं भवत्येकः । कृत्वाप्यपरो हिंसां हिंसा फलभाजनं न स्यात् ॥ ५१ ॥ एकस्याल्पा हिंसा ददाति काले फलमनल्पम् । अन्यस्य महाहिंसा स्वल्पफला भवति परिपाके ॥ ५२ ॥ एकस्य सैव तीव्र दिशति फलं सैव मन्दमन्यस्य । व्रजति सहकारिणोरपि हिंसा वैविध्यमत्र फलकाले ॥ ५३ ॥ प्रागेव फलति हिंसा क्रियमाणा फलति फलति च कृतापि । आरभ्य कर्तुमकृतापि फलति हिंसानुभावेन ॥ ५४ ॥ एकः करोति हिंसां भवन्ति फलभागिनो बहवः । बहवो विदधति हिंसां हिंसा फल भुग्भवत्येकः ॥ ५५ ॥ कस्यापिदिशति हिंसा हिंसा फलेमकमेव फलकाले । अन्यस्य सैव हिंसा दिशत्यहिंसाफलं हिंसा फलमपरस्य तु ददात्यहिंसा तु इतरस्य पुनहिंसा दिशत्यहिंसाफलं विपुलम् ॥ ५६ ॥ परिणामे । नान्यत् ॥ ५७ ॥ [a Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर इति विविधभंगगहने मुदुस्तरे मार्गमूहहष्टीनाम्। गुरवो भवन्ति शरणं प्रबुद्धनयचक्रसंचाराः॥५॥ इस प्रकार बीमभूतन ८६-चर्चा छियासीवीं प्रश्न-असत्यभाषणका त्याग करनेवाला असत्यको छोड़कर और कौन कौनसे पचन न कहे तथा कौन कौनसे कहे। समाधान-सत्य भाषण करनेवालेको तबसे पहले तो उसके अतिचार छोड़ देना चाहिये। वे अतिचार अनेक प्रन्योंमें लिखे हैं। मोक्षशास्त्र में लिखा हैमिप्योपदेशरहोभ्याख्यानकूटलेखक्रियान्यासापहारसाकारमन्त्रभेदाः ॥-अध्याय ७, मूत्र २६ प्रथम तो इन पांचों अतिचारोंका त्याग कर देना चाहिये। इनके सिवाय नीचे लिखी बातोंका त्याग कर देना चाहिये । जो विद्यमान है उसको नहीं कहना, जैसे देवदत्त घरमें है फिर भी नहीं कह देना, यह पहला असत्य है। नहीं होनेपर विद्यमान है ऐसा कह देना, जैसे घेववत नहीं है तो भी है ऐसा कह देना, यह दूसरा असत्य है । जो पदार्थ है उसको बदल कर कहना जैसे धरनें गाय है परंतु कहना घोड़ा है, यह तीसरा असत्य है। चौये असत्यके गहित, अवध, अप्रिय ऐसे तीन भेद हैं। चुगली खाना वा निदाके वचन कहना, हंसी उठा करना, कठोर वचन कहना. अयोग्य वचन कहना, बकवाद करना, मिथ्यात्वको बड़ानेवाले, अप्रामा| णिक और बागमविष्य वचन कहना सो सब गहित वचन कहलाते हैं। जिन वचनोंसे प्राणियोंकी हिंसा हो ऐसे दूसरोंके अंग उपांगोंको छेवन भेदन करनेवाले, मारनेवाले बचन, अन्ताविके व्यापार संबंधी वचन अथवा चौरी आदि के बचन सो सब अवय अथवा सावध वचन कहलाते हैं। अवद्य शम्बका अर्थ पाप है। पापरूप १. इस प्रकार हिंसाके अनेक भेद हैं इन सब मेदोंको न जाननेवालेके लिये अनेक तपोंके जानकर गुरु हो कारण होते हैं अर्थात् परम ऋषि ही इनके भेद प्रभेद बता सकते हैं। २. झूठा उपदेश देना, एकांत में की हुई या कही हुई क्रियाको प्रगट कर देना, मूठे लेख लिखना, किसोको धरोहर मार लेना तथा किसी तरह किसीफे अभिप्रायको जानकर उसको प्रगट कर देना ये पांच सत्याणवतके अतिचार हैं। Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [ 46 ] बच्चनोंको सावच वचन कहते हैं। उत्पन्न करें अथवा और किसी सब असत्य के भेद हैं लिखा है---- इसलिये जो दूसरेको बुरे लगे, भय उत्पन्न करें, खेव उत्पन्न करें, बेर, कलह, शोक का संताप वा दुख उत्पन्न करें वे सब वचन अप्रिय कहलाते हैं। ये ऊपर सत्याणुव्रतीको कभी नहीं बोलने चाहिये । सो ही पुरुषार्थसिद्धयुपाय में यदिदं प्रमादयोगादसदभिधानं विधीयते किमपि । तदनृतमपि विज्ञेयं तद्भेदाः सन्ति चत्वारः ॥ ६१ ॥ स्वक्षेत्रकालभावैः सदपि हि यस्मिन्निषिध्यते वस्तु । तत्प्रथममसत्यं स्यान्नास्ति यथा देवदप्तोऽत्र ॥ ६२ ॥ असदपि हि वस्तुरूपं यत्र परक्षेत्रकालभावैस्तैः । उद्भाव्यते द्वितीयं तदनृतमस्मिन् यथास्ति घटः ॥ ६३ ॥ वस्तु सदपि स्वरूपात्पररूपेणाभिधीयते यस्मिन् । अन्तमिदं च तृतीयं विज्ञेयं गौरिति यथाऽश्वः ॥ ६४ ॥ गर्हितमसंयुतमप्रियमपि भवति वचनरूपं यत् । सामान्येन त्रेधा मतमिदमनृतं तुरीयं तु ॥ ६५ ॥ पैशून्यहासगर्भ कर्कशमसमंजसं प्रलपितं च | अन्यदपि यदुत्सूत्रं तत्सर्वं गर्हितं गदितम् ॥ ६६॥ छेदनभेदन मारणकर्षणवाणिज्यचौर्यवचनादि 1 तत्सावद्यं यस्मात्प्राणिवधायाः प्रवर्तते ॥ ६७ ॥ अरतिकरं भीतिकरं खेदकरं वैरशोककलहकरम् । यदपरमपि तापकरं परस्य तस्सर्वमप्रियं ज्ञेयम् ॥ ६८ ॥ [ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके सिवाय बारह प्रकारके बधन और हैं आगे उन्हींको बतलाते हैं । अभ्याख्यान, वाक्बल, पेशून्य, अवद्धप्रलाप, रागोत्पाद, अरति उत्पाद, बचना प्रमाण, निःकृति वचन, अप्रणति बाक, मोघ वचन, सम्यग्दर्शन चर्चासागर वचन और मिथ्यादर्शन वचन । ये बारह प्रकार के भाषण हैं । इनका स्वरूप इस प्रकार हैं-- [८९ ] दूसरेसे कहना कि हमारे यहां तो हिंसा किये बिना बनता ही नहीं परंपरासे अबतक यही रोति चलो आ रही है देवताओंको बलिदान देना, यज्ञादि कार्यो में बकरे भैसे आविकी हिंसा करना, शिकार खेलना आदि। सनातनोंका कुल धर्म है इत्यादि हिसारूपो वचन कहना अभ्याख्यान बघन हैं। १ । कलहरूप वचन कहना । वाकबल है । २ । दुष्ट बुद्धिके द्वारा दूसरेको निंदा करनेवाले वचन कहना सो पेशून्यता है । ३ । जिसका अंत न आवे ऐसे अप्रमाण वचन कहना अबद्ध प्रलाप है। पागल पुरुषके समान बफवार करना वा ऐसा ही मूठ बोलना प्रलाप कहलाता है । ४ । राग उत्पन्न करनेवाले बचन कहना रागोत्पावन वचन हैं। ५ । दूसरेको । द्वष उत्पन्न करनेवाले वचन कहना अरतिकर वा अरति उत्पावन बचन कहलाते हैं । ६ । असत्य वस्तुमें सत्यरूप विश्वास उत्पन्न करनेवाले बच्चन कहना बहवंचना प्रमाण है। ७ । कपटरूप बचन कहना बह नि वचन है। ८ । उच्च पदको धारण करनेवालेके लिये नमस्कार न करना तथा उसके अभावमें विनयके वचन न कहना सो अप्रतिवाक् है। ९ । जिन वचनोंको सुनकर कोई भी मनुष्य चोरी करने लग जाय ऐसे बचन कहना सो भोघभाषा है। १० । जिन वचनोंसे दूसरों को सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो ऐसे वचन कहना सो सम्यग्दर्शन। भाषा है । ११ । जिन बचनोंसे मिथ्यात्व उत्पन्न हो ऐसे वचन कहना मिथ्यावर्शन वचन है। सप्रकार वचनोंके बारह भेद है। इनमेंसे सत्यामुवतियोंको सम्यग्दर्शन भाषाके सिवाय बाकोके ग्यारह प्रकारके बधनोंका त्याग कर देना चाहिये। अब दश प्रकार के सत्य वचनोंको कहते हैं । नाम सत्य, रूपसत्य, स्थापना सत्य, प्रतीतिसत्य, स्मृति। सस्य, योजनासत्य, जिनपवसस्य, उपदेशसत्य और समयसस्य । ये दश प्रकारके सत्य हैं । इनका विशेष स्वरूप लिखते हैं जिसका जो नाम है उसको उसो नामसे पुकारना नामसत्य है। जैसे किसी दरिद्रोका रंकका नाम लक्ष्मीधर हो सो उसको लक्ष्मीधर ही कहना नामसत्य है। १। किसीका रूप बनाकर उस नामसे कहना जैसे में r Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [ ९० ] किसीने नरकु जरका चित्र बनाया और वह मारा गया तो यद्यपि उसमें साक्षात् जीव नहीं है तथापि उसको 'नरकुंजर मारा गया' ऐसा कहना रूपसत्य है । १ । किसी विद्यमान अथवा अविद्यमान वस्तुको तदाकार अथवा अतदाकार मूर्ति बनाकर उसमें उसीकी स्थापना करना, उसकी मूर्ति बनाकर मंदिरोंमें स्थापना करना जैसे श्री ऋषभदेवकी मूर्तिको ऋषभदेव ही कहना सो स्थापना सत्य है । जीवके औपशमिकादि भावोंके पांच भेद हैं तथा उन पांचों भावोंके तिरेपन भेद हैं । इन सबके रिसदका अनुसार व्याख्यान करना सो प्रतीतिसत्य है । भेरी, मूबंग आदि अनेक प्रकारके बाजोंके समुदायमेंसे किसी ऊँचे बाजेके शब्दकी मुख्यता रखकर उसका ही नाम लेना सो स्मृति सत्य है । युद्धमें जो सेनाकी चक्रव्यूह, गरुडव्यूह आदि अनेक प्रकारके व्यूहों की रचना की जाती है उनके अनुसार सेनाको चक्रव्यूहरूप, गरुडब्यूहरूप कहना सो योजना सत्य है। जिस देशमें जिस वस्तुका जो नाम है उसको उसो नामसे कहना जनपद सत्य है । गाँव, नगर, राज वा धर्मकी नीतिमें और आचार्य व साधु आविके उपवेश में ओ चतुर पुरुष हैं उनके वचनों को यथायोग्य स्थान पर तथा यथायोग्य समयपर प्रमाण मानना सो उपवेश सत्य है । द्रव्य और पदार्थोका यथार्थ ज्ञान सर्वज्ञ बेबको है, अल्पज्ञानी छपस्थोंको उनका पूर्ण ज्ञान नहीं है। छपस्थोंको उनका एकवेश ज्ञान है इसलिए प्रासुक अप्रासुक आदिका निश्चय केवली भगवानके वचनोंके अनुसार करना सो भाव सत्य है । षद्रव्य तथा नौ पदार्थोंके स्वभाव और पर्यायको कहनेवाले जैनशास्त्र हैं इसलिये उनके वचनोंको सत्य मानकर उनका श्रद्धान करना सो समय सस्य वा आगम सत्य है । इसप्रकार दश प्रकारकी सत्य भाषा है। सत्याणुव्रतियोंको इनका ग्रहण करना चाहिये। यह बारह प्रकार का असत्य और दश प्रकारके सत्यका व्याख्यान बृहद् हरिवंशपुराणसे लिखा है अथवा और भी जैनशास्त्रों में हैं वहाँसे देख लेना चाहिये । ८७- चर्चा सत्तासीवीं प्रश्न – ब्रह्मचर्य व्रतकी नौ बाड हैं तथा अठारह हजार भेद हैं सो कौन-कौन हैं ? समाधान – स्त्रीके साथ निवास नहीं करना । १ । स्त्रीके रूप तथा श्रृंगारको विकार भावोंसे नहीं देखना |२| स्त्रियोंसे भाषण नहीं करना तथा उनके मधुर वचनोंको रागभावोंसे नहीं सुनना |३| पहले भोगी हुई स्त्रियोंका स्मरण नहीं करना |४| कामको उद्दीपन करनेवाले पदार्थ जैसे घो, दूध, मिश्री, लड्डू, मेवा, भांग, Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जासागर विष, उपविष, मादक (मशा उत्पन्न करने वाले) और पौष्टिक पदार्थ पारा आदि धातु, उपधातु, सोने, चांदी, मोती माविकी भस्म, रस, रसायन, बलबान और वीर्य बढ़ानेवाली औषषियाँ तथा अन्य प्रकारके गरिष्ठ • भोजन नहीं करना। ५। स्त्रियों के शृंगार संबंधी शास्त्रोंको न पढ़ना न सुममा । ६ । स्त्रियोंके आसनपर नहीं बेठमा तथा उनकी शव्यापर नहीं सोना। ७। कामकथा न कहना न सुनना। ८ । भोजन पान आविके द्वारा पेटको पूरा नहीं भरना।। इस प्रकार ब्रह्मचर्यको नौ बार है सो ये सब ब्रह्मचर्यको रक्षाके लिये हैं। जिस प्रकार चावल, गेहूँ आदि अन्नोंके खेतोंमें उनको रक्षाके लिये चारों ओर कांटोंको बाइ लगा देते हैं उसी प्रकार ब्रह्मचर्य को रक्षाके लिये ये ऊपर लिखी नौ बार हैं। जिस प्रकार बिना बाडके खेत नष्ट हो जाते हैं उसी प्रकार इन नौ बाओंके बिना शीलका भंग हो जाता है। अब आगे अठारह हजार शीलोंके भेवोंको लिखते हैं। चैतन्य रूप स्त्रियोंके ३ भेव हैं मनुष्यणी, देवा-धी गना और सियंचनी तथा अचंतन स्त्रीला एक मंद है का पत्थरकी तथा चित्रामकी किसी स्त्रीका रूप बना अचेतम स्त्री है। इस प्रकार स्त्रियोंके चार भेव होते हैं। इनका त्याग मन, वचन, कायसे तथा कृत, कारित, अनुमोदनासे किया जाता है सो स्त्रियोंके ४ भेदोंको मन, बचन, कायकी ३ संख्यासे गुणा करनेसे १२ भेव होते हैं और इन बारहको कुस, कारित, अनमोवनाकी ३ संख्यासे गणा करनेसे ३६ भेद होते हैं। ये छत्तीसों प्रा भेव पांचों इंद्रियोंसे त्याग किये जाते हैं इसलिये स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र इन इन्द्रियोंको ५ संख्यासे। गुणा करमेसे १८० भेद हो जाते हैं। इन १८० भेवोंको वश प्रकारके संस्कारोंसे त्याग किया जाता है इसलिये १८० को १० से गुणा कर वेनेसे १८०० भेद हो जाते हैं। उन १० संस्कारों के नाम ये हैं। स्नान उबटन आदि लगाना, शृंगार करना, राग बढ़ाने वाले कार्य करना, हंसी बिनोद आदि रूपसे क्रीड़ा करना, संगीत बाध ( गाना बजाना) विषय सेवनका संकल्प करना, वर्षगमें मुख देखना, शरीरको शोभा बढ़ाना, पहले भोगी । हुई स्त्रियोंका स्मरण करना और मनमें चिताको प्रवृत्ति करना। ये दश संस्कार कहे जाते हैं। तथा इन । १८०० भेदोंका त्याग कामके वश प्रकारके वेगोंसे भी किया जाता है इसलिये १८०० को १० से गुणा कर वेनेसे १८००० भेद हो जाते हैं । कामके १० वेग ये हैं। स्त्रीके मिलनेकी चिंता होना।। स्त्रीके देखनेको इच्छा होना ।२। दीर्घ श्वासोच्छ्वास लेना ( लम्बी सांस लेना) । ३ । उन्मत्त हो जाना ।४। अपने प्रागों में भी संदेह ।। [ ११ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर २] करना ।५। वीर्यपात हो जाना।। तुःख वा पीड़ा होना कामज्वर वा वाह होना।८। अन्नमें अरुचि होना ।। और मूळ आता । १० । | वश काम कहलाते है । मस गुमा कर देनेसे १८००० भेव हो जाते हैं। इसके सिवाय इस शोलके और प्रकारसे भी १८००० भेव हो जाते हैं जिनसे शीलांग रथ बन जाता । है । उन्हींको आगे लिखते हैं । रत्नाकरमें लिखा है जेणो करंति मणला णिज्जिय आहार सणि सो इंदी। पुढवीकायारंभा खंति जुआ ते मुणी वंदे । अर्थात् मन, वचन, काप, कृत, कारित, अनुमोदना, चार संशा, पांच इंद्रियाँ, पृथ्वीकाय आदि बश प्रकारके जीवोंके आरम्भ और उत्सम क्षमा आदि बशा प्रकारके धर्म, इनसे परस्पर गुणा करनेसे १८००० भेद । हो जाते हैं इन १८००० भेदोंसे बने हुए शीलरूपी रथको चलानेवाले महामुनिराज होते हैं इसलिये ऐसे मुनि॥ राजको हम नमस्कार करते हैं।। अब आगे शीलांग रयकी रचनाका यंत्र लिखते हैं Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Wian H मन त्याग वचन त्याग | काय त्याग पीलके १८००० मेद जो पहले प्रकारसे बतलाये हैं उनके । नष्ट सुथा उद्दिष्ट द्वारा प्रत्येक भेदके निकालनेका यंत्र। - पर्यासागर - कृत स्वाग कारित त्याग अनुमत त्याग २००० ap. आहार त्याग भय त्याग मिथुन स्याग परिग्रह त्याग ५०० धोत्रइन्द्रिय चक्षइन्द्रिय प्राणेंद्रिय रसनेंद्रिय | स्पर्शनेंद्रिय स्थाग त्याग | त्याग । त्याग । त्याग १०० | १०० १०० । १०० AIRAMATIPATRAPATHAROSHATRAPARPARMATHA ------चाचा पश्वीकाया- अपकायारंभ तेजस्काया-वायुकायारंभावनस्पतिका- वइंद्रियारंमा तेइन्द्रिारंभ चतुरिन्द्रिया असंज्ञो पंचेद्रि-संजीपंचेंद्रिरंभ त्याग त्याग | रंभ त्याग | त्याग यारंभ त्याग त्याग त्याग रंभत्याग यारंभ त्याग वारंभ त्याग | १० । १० । १० १. १. । १० उत्तम क्षमा उत्तम मार्दवाउत्तम आर्जन उत्तम शीच उत्तमसत्य | उत्तमसंयम| उत्तम तप उत्तम त्याग उत्तम उत्तमब्रह्मचर्य । - १ आकिंचन्याय -RLIRIT Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारित | अनुमोदना शोलके १८००० भेदोंमेंसे नष्ट तथा उद्दिष्ट द्वारा प्रत्येक मेदके निकालनेका यंत्र। पासागर भय मैथन परिग्रह २७ स्पर्शन रसना पोत्र पृथ्वीकाय | अपुकाय | तेजस्काय १८. ३६० बनस्पति काय वेइन्द्रिय तेहन्निय चौइन्द्रिय | १०८० | १२६० असंझी पंचेंद्रिय १४४० संशी पंचेंद्रिय १६२० ५४० क्षमा मार्वक १८०० आर्जव शोच संयम सत्य ७२०० तप १०८०० स्पाम आकिंचन १२६००] १४०० ब्रह्मचर्य ५४०० १६२०० [४] Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिचिनी| मनुष्यणी | देवांगना अचेतन | चार प्रकारको स्त्रियाँ । वर्षासागर वचन योगोंसे त्याग। अनुमोदना कृत, कारित, अनुमोदनासे। प्राप श्रोक ७२ इदिन्योंसे। स्ना० संगीत ७२० विषय ९०० दर्पण | शो १०८०१२६० | १० संस्कार मिलाप सांस उन्मत्त देखना १८०० | प्राणसंदेह | वीर्यपात दुख | दाह | | अचि | मूग || ७२०० | ९००० १०८००१२६०० १४४०० १२०० | १० वेग ३६०० इस प्रकार शीलांग रथको रचनाका यंत्र जानना आगे इसीको स्पष्ट करनेके लिये शोलके १८००० भेव लिखते हैं। किसी स्त्रीका त्याग मन, वचन, कायसे तथा कृत, कारित, अनुमोदनासे किया जाता है । सो इनको परस्पर गुणा करनेसे नौ भेव होते हैं । तथा चारों संज्ञाओंसे त्याग किया जाता है सो चारसे गुणा करनेसे ३६ भेव होते हैं । तथा इन छत्तीसोंका पांचों इंद्रियोंसे त्याग किया जाता है सो इनको पांचसे गुणा करनेसे १८०॥ भेव होते हैं । तथा इन १८० का त्याग पृथ्योकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पति। कायिक, वो इंद्रिय, से इंद्रिय, चो इंद्रिय, मसंशो पंचेंद्रिय, संशी पंचेंद्रिय इन वंश प्रकारके जीवोंके आरम्भसे । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्चासागर । ९६ ] र किया जाता है इसलिए १८० को १० से गुणा करनेसे १८०० भेव होते हैं। तथा इन सबका त्याग उत्तम क्षमा आदि श धोके साथ-साय धारण किया जाता है । इसलिए १८०० को १० से गुणा करनेसे १८०००। भेद हो जाते हैं। इनके सिवाय और प्रकारसे भी १८००० भेव होते हैं। अधेतन स्त्रियाँ तीन प्रकार हैं काठको बनी, पत्थरको बनी और रंगको बनी। इनका त्याग मन, वचनसे किया जाता है तथा कृतकारित अनुमोदनासे किया। जाता है। सो तीनको मन, वचनसे गणा करनेसे ६ तया कृत, कारित, अनमोक्नासे गणा करनेसे १८ भेद होते हैं। इनका त्याग पांचों इंद्रियोंसे किया जाता है सो ५ से गणा करनेसे ९० भेद हो जाते हैं। का त्याग दोनों बव्य-भावेंद्वियसे किया जाता है सो २ से गुणा करनेसे १८० भेव होते हैं। इन १८० का त्याग चारों कषायोंसे किया जाता है इसलिये ४ से गुणा करनेसे ७२० भेव हो जाते हैं । ये अचेतन स्त्रियोंके त्यागके भेद हुए। तथा चेतन स्त्रियाँ ३ प्रकार हैं मनुष्यणी, देवो, सियंचनी। इनका त्याग मन, वमन, कायसे तथा कुत, कारित, अनुमोदनासे इन ९ से किया जाता है इसलिये ९ से गुणा करनेसे २७ भेद होते हैं । इनको पाँच द्रव्ये. द्विय और पांच भावियसे त्याग किया जाता है इसलिये १० से गुणा करनेसे २७० भेद होते हैं । इनका त्याग चार संशाओंसे किया जाता है सो ४ से गुणा करनेसे १०८० भेद होते हैं । इनका त्याग १६ कषायोंसे किया जाता है इसलिये १६ से गुणा करनेसे १७२८० सत्रह हजार दो सौ अस्सी भेद होते हैं। ये चेतन स्त्रियों के त्यागके भेव हैं इनमें अचेतन स्त्रियों के त्यागके ७२० भेव मिलानेसे १८००० भेव हो जाते हैं। ये सब भेद स्वामीकातिकेयानुप्रेक्षाको टोकासे लिखे हैं तथा एक ही कथनको दो बार लिखा है सो खुलासा करनेके लिये लिखा है। ८८-चर्चा अठासीवीं प्रश्न-शोलकी नौ वाडमें भाग पौनेका भी निषेध लिखा है सो भांग पीनेमें क्या दोष है ? समाधान-इस भांग वा विजयाके पीनेसे अथवा किसी अन्य प्रकार सेवन करनेसे मद्य पीने के समान १८ दोष साक्षात् उत्पन्न होते है आगे उन्हीं दोषोंको लिखते हैं। भांग पोनेसे नोंद अधिक आती है ।१३ हंसी 1. अधिक आती है ।२। बचानको प्रवृत्ति अधिक होती है।३। चंचलता बढ़ जाती है। मूर्छा हो जाती है ।५। बहुत Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ROAryaAR बकने लगता है ।। मोह ।७। मब ८ प्रमाव ।९। कलह ।१०। स्नेह बन जाता है ।११। परिणामोंमें भ्रम हो । जाता है ।१२। घूमनेकी प्रवृत्ति हो जाती है।१३। मौन धारण कर लेता है ।१४। विचार नष्ट हो जाता है।१५।। व्याकुलता बढ़ जाती है ।१६॥ प्रसंग वा अधिक विषय सेवन की इच्छा हो जाती है ।१७। और कामवासना बढ़ बर्चासागर जाती है। इस प्रकार भांप पीनेसे १८ बोष उत्पन्न हो जाते हैं । इसलिये ऐसा कौन विचारशील है जो इसका [९७] सेवन करे ? भावार्थ-विचारशील तो इसका सेवन नहीं करते, अज्ञानी और मूर्ख ही इसका सेवन करते हैं। सोही रत्नाकरमें लिखा है निद्राहास्यचोगतिश्चपलता मूर्छा महाजल्पनं, व्यामोहः प्रमदः प्रमादकलहस्नेहाः विचारे भ्रमः। धूमों मौनविचारहानिविकलप्रासंगकामातुरं, भृगी चाष्टदशप्रदोषजननी कैः पंडितैः सेव्यते ॥ ५५ ॥ इसलिये मूर्ख लोग ही इसका सेवन करते हैं। आगे भांग पोनेवालोंकी जो वशा होती है उसे एक उदाहरण देकर विखलाते हैं। एक भांग पीनेवाला पुरुष किसी भांगके अखाड़े में भाग लेकर गया। वहां एक शिलापर भांग पीसकर छानकर पी और फिर उस शिलाको मस्तकके नीचे रखकर किसी छाया में सो गया। थोड़ी देर बाद ही वहाँपर दस आया। उसको वहां पर वह पीसनेकी शिला दिखाई नहीं दी, तलाश करने पर उस सोनेवालेके मस्तकके नीचे मिली । तब उसने उसके मस्तकके नीचे धीरेसे एक पत्थर रख दिया और वह शिला निकाल ली। तथा अपनी भांग पीस छान पीकर वह कहीं बाहर चला गया। तदनंतर उस सोनेवालेकी आँख खुली तब वह उस । भांगके नशेमे ही सोचने लगा कि मैं तो पहले शिलावाला था, पाषाणवाला तो मैं नहीं था। इससे मालूम होता है कि में बदल गया जो पहले था सो नहीं रहा। मैं और हो हो गया । और पत्यरवाला मैं हूँ नहीं।। ऐसा विचारकर वह अखाड़ेके लोगोंसे पूछने लगा कि "हे मित्रो ! मैं जो पहले था वहीं हूँ या बदलकर और हो गया हूँ। मैं तो पाषाणवाला नहीं था शिलावाला था परन्तु अब पत्थरवाला हो गया सो में बदल हो गया। । पहलेबाला नहीं रहा" इस प्रकार वह बार-बार बकने लगा। तब लोगोंने उसे समझाया कि तू पहलेका हो, DARDARRIERREARTH Firesemucाम्यामार COLYESAR । १२ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसासागर पिपाराणा सामना वर्षासागर E. ९८1 चाचास्मानचाचा है बदला नहीं है परन्तु उसने माना हो नहीं। वह बराबर बकता ही रहा तथा लोग भी भांगके नशेमें वैसे ही बन गये और तू पहला ही है पहला हो है इस प्रकार बार-बार बकने लगे। तदनंतर कुछ समय बाद उसे विचार उठा कि “ये झूठे हैं मैं किसीको नहीं मानता। मैं तो अब घर जाकर अपनी स्त्रीसे पूछ्गा वह जरूर पहिचान लेगी।" यह सोचकर वह घर हाला। घर जाते समय मा जसो बानको सब लोगोंसे पूछते-पूछते । थक गया। लोगोंने पहले तो उससे सच बात कही परन्तु पोछे उसे पागल समझकर उन्होंने हसी करनेके लिए बहुत-सी झूठी बातें कहीं। उन सबको सुनता हुआ अनेक स्त्री, पुरुष और बच्चोंके साथ यह घर पहुंचा अपनी ॥ कन्याका नाम लेकर स्त्रीसे पूछा कि "हे फलानेको मां ! तू मुझे पहिचान और सच कह कि मैं वही तेरी पुत्री का पिता हूँ या और हूँ। मैं तो शिलावाला था पत्परवाला फैसे हो गया । मैं पहले तो पत्थरवाला नहीं था। । तू सच कह" इस प्रकार वह सबको देख देखकर बकने लगा तब वह स्थो बोली कि तुम मेरी कन्याके पिता हो मैं और मेरे तुम स्वामी हो । तुमको ऐसे बचन नहीं कहने चाहिये, लोम सब हँसते हैं । इसलिए सावधान होकर बैठो। परन्तु फिर भी वह बहुत देरतक बकता हो रहा, अपनी स्त्रीके वचन भी उसने नहीं माने। तब स्त्रीने उसके पास बैठकर उसे विश्वास दिलाया और हाथ जोड़कर नमस्कार कर अमृत रूपी वचनोंसे कहा कि A "यदि मैं मूठ कहूं तो मेरी कन्याकी सौगंध है। तुम वे ही हो, और नहीं हो।" स्त्रीके ये वचन सुनकर वह बहत ही प्रसन्न हआ, स्त्रोके गलेसे लग गया और हवयसे हवय मिलाकर बोला कि "हे माता! तूने खुब पहिचाना" पतिको यह बात सुनकर वह स्त्री बड़ो लज्जित हई और कहने लगी कि "अलग हटो, मध पीनेवाले। पुरुषके समान क्या बक रहे हो, दूर रहो।" अपनी स्त्रीको यह बात सुनकर वह भांग पीनेवाला पुरुष कहने। लगा कि "हे माता! अबकी बार त फिर कुछ कहेगी तो मैं तुझे अपनी दादी कहूँगा" अब वह इस प्रकार | बकने लगा तब सब लोग उसके जन्ममें धूल डालते हुए उठ गये। इस प्रकार भांग पीनेवालेको कथा लोकवार्तामें है और सुनकर लिखी गई है तथा पहले कहे हुए अठारह दोषोंसे भी मिलती है इसलिए लिखी है। ऐसा समझकर समझदार लोगोंको इसका त्याग कर देना हो उचित है। जो अज्ञानी हैं, मूर्ख है, दुष्ट हैं, दुर्बुद्धि हैं, कामी हैं, हीनाचारी हैं वा नीच जातिके हैं वे ही भांग पिया करते हैं। इसके सिवाय बरसातके दिनों में तथा जाड़े के विनों में उसमें अनेक सूक्ष्म त्रस जीव उत्पन्न हो Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर [ ९९ ] Pajee जाते हैं । परन्तु पीनेवाले प्रभावी पुरुष उसे अग्निमें गर्म कर छोकर पीसकर पीते हैं फिर भला उनके पापका क्या ठिकाना है ? इसके सिवाय द्राक्षासव, लोहासव आदि अनेक प्रकारका आसव निकलवा कर लोग पिया करते हैं सो वह भी मचके ही समान है क्योंकि अनन्त निगोद जीवोंका तथा असंख्यात जस जीवोंका घात होनेपर आसव तैयार होता है और उसे लोग पी जाते हैं । वैद्यक शास्त्रोंके अनुसार इसके बनानेमें भी मद्यके समान ही भारी हिंसा होती है। इसका केवल नाम ही दूसरा है बाकी गुण सब मद्य के हैं । इसलिये बुद्धिमानोंको इसका दूरसे ही स्याग कर देना चाहिये । तथा जिन्हें नरक, निगोव आदि दुर्गतियोंमें जाना है वे पीते हो हैं । इसके सिवाय हुक्का, तम्बाकू, बीड़ी, सिगरेट आदिकोंका पीना भी महा हिंसाका कारण है। भ्रष्टाचारका फैलानेवाला, उछिष्टपान करानेवाला और निमोदका घर है इसलिये जैनकुलवालोंको तो इसका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये क्योंकि इसके पीनेवाले जैनी नहीं रह सकते उन्हें अकुलीन हो समझना चाहिये । चर्चा नवासीवीं प्रश्न –— लोग कहते हैं कि संसारी जीव आयु पूर्ण कर पौने दो घड़ीमें जाकर पुद्गलको ग्रहण करनेरूप आहारको ग्रहण करते हैं सो श्या ठीक है ? समाधान-—यह कहना असत्य है शास्त्रोक्त नहीं है । क्योंकि पूर्व शरीरको छोड़कर नवीन गति नवीन शरोरको ग्रहण करनेके लिये मार्ग में अधिक से अधिक तीन समय तक यह जीव अनाहारक रहता है । अधिक से अधिक चौथे समय में नवीन पुद्गलोंको अवश्य ग्रहण कर लेता है । वही आहार है सो ही मोक्षशास्त्रमें लिखा है एक दो त्रीन् वानाहारकः । - - अध्याय २ सूत्र सं० ३० आहार ग्रहण करनेके बाद फिर अन्य यथायोग्य पर्याप्तियोंको क्रमसे धारण करता है। आहार पर्याप्तिके बाद शरीर पर्याप्तिको धारण करता है । तीन हजार सात सौ तिहत्तरि श्वासोच्छ्वासको दो घड़ियाँ विश्वासोच्छ्वासका एक अंतर्मुहूर्त होता है । तथा पौने दो था एक मुहूर्त होता है तीन हजार छः घड़ीके तीन हजार तीन सौ तथा एक [ ९९ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मासके सोलाह भागों से छह भाग ३३००३, श्वासोच्छ्वास होते हैं। यदि एक श्वासके कुछ अधिक करोड़ों भाग करनेसे जो एक भाग आता है उसको आवलो कहते हैं और एक आवलोमें असंख्यात समय होते हैं। ऐसे में बर्चासागर तीन समय तक अधिकसे अधिक विग्रहगतिमें यह जोव अनाहारक रहता है । इसलिये पौने दो घडीमें आहार [१०] लेता है यह बात सर्वथा मिथ्या है। अतएव ऐसा श्रद्धान कभी नहीं करना चाहिये। जो शास्त्रों में लिखा है। उसीके अनुसार श्रद्धान करना चाहिये। ६०-चर्चा नब्वेवीं प्रश्न-ग्यारहवीं प्रतिमाधारी श्रावकके दो भेव है-शुल्लक और ऐलक। इनमेंसे क्षुल्लक तो बैठकर पात्रमें रक्खे हुए भोजनको अपने हाथसे गस्सा उठाकर भोजन करता ही है परंतु ऐलक श्रावक किस प्रकार भोजन करता है या उसे किस प्रकार भोजन करनेका अधिकार है ? समाधान-ऐलक श्रावक भी बैठकर पात्रमें रक्खे हुये भोजन पानादिकको ग्रहण करता है। अन्तर केवल इतना है कि क्षुल्लक अपने हाथसे हो उठाकर ग्रहण करता है और ऐलक दूसरेके हाथके द्वारा अपने हाथमें रक्खे हुए भोजनको ग्रहण करता है परन्तु यह बैठकर ही प्रहण करता है । मुनिराजके समान खड़े होकर भोजन नहीं लेता ऐसा सिद्धांत है। यथा कोपीनोऽसी रात्रिप्रतिमायोगं करोति नियमेन । लोचं पिच्छं धृत्वा भुक्ते यु पविश्य पाणिपुटे ॥ २६ ॥ इसी प्रकार धर्मोपवेश पीयूषव कर नामके श्रावकाचारमें लिखा है। यः कोपीन धरोरात्रिप्रतिमायोगमुत्तमम् । करोति नियमेनोच्चैः सदासौ धीरमानसः ॥२२॥ लोचं पिच्छं च संधत्ते भुक्तेऽसौ चोपविश्य वै । पाणिपात्रेण पूतात्मा ब्रह्मचारी स चोत्तमः ।। २३ ॥ ६१ चर्चा इक्यानवेवीं प्रश्न-इस मध्यलोकमें लवणोषि आदि असंख्यात समुन्द्र हैं उनमेंसे लवणोवधि, कालोदघि और " .. Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F अन्तके स्वयंभूरमण समुद्र में तो जलचर जीवोंका सद्भाव है ही परन्तु बाकीके समुद्रोंमें जलचर जीवोंका निवास ! है वा नहीं ? पर्चासागर __समाधान-ऊपर लिखे हुए तीन समुद्रोंके सिवाय बाकी जो पुष्कर आदि असंख्यात समुद्र हैं उनमें [...] अपकायिक जीव तो हैं परन्तु मगरमच्छ आदि जलचर प्रस जीवोंका सदभाव उनमें सर्वथा नहीं है। उनमें जलचर जीवोंका सर्वथा अभाव है सो ही स्थामिकातिकेयाऽनुप्रेक्षामें लिखा है लवणोए कालोए अंतिम जलहिम्मि जलयरा संति । सेस समुद्देसु पुणो ण जलयरा संति णियमेण ॥ १४४॥ यही बात मलाचारके बारहवें अधिकारमें लिखो है-- लवणे कालसमुद्दे सयंभूरमणे य होंति मच्छा दु । अवसेसेसु समुद्देसु णस्थि मच्छाय मयरा वा ॥४०॥ इसी प्रकार त्रिलोकसार आदि अन्य प्रन्यमें भी यह कथन इसी प्रकार लिखा है। ६२-चर्चा वानवेवीं प्रश्न--यह जीव संसारमें एक अन्तर्मुहूर्तमें भवके उत्कृष्ट जन्म मरण कितने करता है ? समाधान-~-यह संसारी आत्मा कमसे कम एक श्वासके अठारहवें भाग आयु पाता है तथा अपर्याप्त A नाम फर्मके उदयसे एकेन्द्रियादि सत्रह स्थानोंमें एक अन्तर्मुहूर्त समयमें छयासठ हजार तीन सौ छत्तीस ६६३३६ बार जन्म मरण करता है सो ही स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षामें लिखा है-- उस्सासद्वारसमे भागे जो मरदि ण य समाणेदि। एका वि य पज्जत्ती लद्धि अपुण्णो हवे सो दु ॥ १३७॥ सो ही गोम्मटसारमें लिखा है तिण्णिसया छत्तीसा छवद्विसहस्सगाणि मरणाणि । अंतोमुठ्ठत्तकाले तावदिया चेव खुदभवा ॥ १२३ ॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर १०२] महायतामन्याडमिन्स इसका विशेष स्वरूप इस प्रकार है-वो इन्द्रियके भव ८० तेइन्द्रियके ६० को इन्द्रियके ४० पंचन्धियके । २४ । इन पंचेन्द्रियके २४ भवों में भी तीन भाग हैं। तहाँ मनुष्यों में लब्ध्यपर्याप्तकके भव ८, संशी पंचेन्द्रिय लन्ध्यपर्याप्तकके भव ८ तथा असंती पंचेंद्रिय लब्ध्यपर्याप्तकके भव ८ इस प्रकार त्रस जीवोंके सब मिलाकर २०४ जन्म मरण होते हैं तथा पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और साधारण वनस्पति कायिक इन पांचोंके स्थूल और सूक्ष्मके भेदसे दस भेद होते है। तथा प्रत्येक बनस्पतिका एक स्थूल ही भेव होता है । इसके वो भव नहीं होते । ये सब ग्यारह भेद होते हैं इनमें प्रत्येक के छह हजार बारह जन्म मरण होते हैं इसलिये ग्यारह प्रकारके स्थावर जीवोंके जन्म मरणके छयासठ हजार एक सौ बत्तीस ६६१३२ जन्म मरण होते हैं। इनमें पहले त्रस जीवोंके छह स्थानोंके २०४ जन्म मरण मिला देनेसे सब मिल कर ६६३३६ भेद हो जाते हैं। ये सब संसारी जीवोंके क्षुद्रभव हैं । सो ही गोमट्टसारमें लिखा हैसीदी सट्टी तालं वियले चउवीस होति पंचक्खे । छावर्द्धिं च सहस्सा सयं च वत्तीसमेयक्खे ॥ पुढविदगागणिमारुद साहारणथूलसुहमपत्तेया। एदेसु अपुण्णेया एक्केक्के बार खं छक्कं ॥ इस प्रकार एक श्वासके अठारह भाग आयुके प्रमाणसे एक अन्तर्मुहूर्तमें सत्रह स्थानों में यह संसारी, जीव मिथ्यात्वके उदयसे सर्वोत्कृष्ट क्षुद्रभव ६६३३६ धारण करता है। ___६३-चर्चा तिरानवेवीं प्रश्न-चौबीस तीर्थंकरों से ऐसे कौन-कौनसे तीर्थकर हैं जिनका विवाह नहीं हुआ है। भावार्थ-जो बालब्रह्मचारी हैं, विवाह किये बिना ही कुमारावस्थामें दीक्षा धारण कर तपोवनमें चले गये ऐसे तीर्थकर कौन-कौन हैं? समाषान-श्रीवृषभदेवसे लेकर श्रीवद्धमान पर्यंत चौबीस तीर्थकरों से वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर ये पांच तीर्थकर कुमारकाल में ही जिनवीक्षा धारण कर महातपस्वी हुए हैं सोही लिखा हैवासुपूज्यस्तथा मल्लिनेमिः पाश्वोऽथ सन्मतिः।कुमाराः पंच निष्कांताः पृथिवीपतयः परे॥ । १०२ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इनके सिवाय वाकीके उम्मीस तीर्थकर विवाह कर निन्थ हुए हैं। सो ही स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा नागर लिखा है१०३ ] तिहयणपहाणसामि कुमारकाले वितविय तवचरणं । वसुपुज्जसुयं मल्लि चरमतियं संथुवे णिच्चं ॥ ४८६ ॥ इस प्रकार पाँच र कुम्हार दालनह्मचारी समझना चाहिये । ६४-चर्चा चौरानवेवी प्रश्न-लवणोदधि, कालोदधि और अन्तके स्वयंभूरमण समुद्रके जलका स्वाद तो वारा वा जलके समान मालूम है परन्तु बाकोके असंख्याप्त समुद्रोंके जलका स्वाद फैसा है ? समाधान--ऊपर कहे हुए तीन समुद्रोंके सिवाय बाकीके असंख्यात समुद्रोंके जलका स्वाद ईखके रसके समान मीठा और स्वाविष्ट है। प्रश्न-ईखके रसके समान मोठा जल तो इक्षुवर समुद्रका है परन्तु यहाँपर सब समुद्रोंका जल ऐसा मीठा कैसे कहा ? तया क्षीरोदधि समुद्रका जल तथा घृतोदधि समुद्रमा जल जुदी-जुदी सरहका बतलाया है इसलिये सबका एकसा स्वाद कैसे कहा ? समाधान--क्षीरोदधि तथा घुतोवधि आदि समुद्रोंके जलका स्वाद नहीं बतलाया है किन्तु उसका वर्ण बतलाया है। स्वाद तो सबका ही ईखके समान मोठा है । सो ही त्रिलोकसारमें लिखा है लवणं वारुणितियमिदिकालदुर्गतिसयंभरमणमिदि । पत्तेय जलसुवादा अवसेसा होंति इच्छुरसा ॥ ३१९ ॥ यही बात मूलाचारके बारहवें अधिकारमें लिखी है पत्तेयरसा चत्तारि सायरा तिण्णि होति उदयरसा । अवलेसा य समुदा खोहरसा होति णायव्वा ॥ ३८ ॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर १०४ ] Lices यहाँ पर क्षोत्र शब्दका अर्थ इक्षु वा ईसका है। सिद्धांतसार प्रदीपकमें भी लिखा हैकालोदे पुष्कराम्भोधौ स्वयंभूरमणार्णवे । केवलं जलसुस्वादं जलौघं च भवेत्सदा ॥ क्षीराब्धौ क्षीरसुस्वादु सद्रसांभो भवेन्महत्। घृतस्वादसमस्निग्धं जलं स्थाद घृतवारिधौ ॥ एतेभ्यः सपूर्वाब्धिभ्यः परे संख्यातसागराः । भवंतीक्षुरसस्वादसमाना मधुराः शुभाः ॥ ६५ - चर्चा पिचानवेवीं प्रश्न - भवनवासो, व्यंतर और ज्योतिष्क ये तीन प्रकारके देव भवनत्रिक कहलाते हैं ये तीनों प्रकार के वे अपनी शक्ति द्वारा ऊपर की ओर कहाँतक गमन कर सकते हैं। तीर्थंकरोंके जन्माभिषेक के समय पांडुकशिलातक तो ये देव जाते ही हैं परन्तु इसके ऊपर जा सकते हैं या नहीं समाधान - ऊपर लिखे हुए ये तीनों प्रकारके देव अपनी इच्छासे सौधर्म स्वर्ग तक गमन कर सकते हैं। सौधर्म स्वर्गसे ऊपर वे अपनी इच्छासे गमन नहीं कर सकते। यदि स्थर्मोके रहनेवाले देव इनको आकर ले जाँय तो उनके ले जाये गये जा सकते हैं। परन्तु इस प्रकार ले जाये गये भी सोलहवें अच्युत स्वर्गं तक जा सकते हैं सो भी अपनी शक्तिसे नहीं । तथा सोलहवें स्वर्गसे आगे दूसरे देवोंके द्वारा ले जाने पर भी नहीं जा सकते। यह नियम है सो ही सिद्धांतसारबीपकमें चौदहवीं संधिमें लिखा हैक्रियामात्रोवधिस्तेषामधोलोकेऽपि जायते । भावना व्यंतरा ज्योतिष्का गच्छंति स्वयं क्वचित् ॥ २० ॥ तृतीयक्षितिपर्यंत मधोलोके स्वकार्यतः 1 सोधर्मेशान कल्पांत मूर्ध्वलोके निजेच्छया ॥ २१ ॥ तेपि सर्वे सुरैर्नीता भावनायास्त्रयोऽमराः । षोडशस्वर्गपर्यंतं प्रीत्या यांति सुखाप्तये ॥ २२ ॥ देव लोग तीर्थंकरोंके जन्म समय में आते हैं सो मुनिसुव्रत के जन्म समय में जो चार प्रकारके देव आये थे उनमें से भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क आदि सब देव पहले सौधर्म इंत्रके दरवाजे पर आकर इकट्ठे हुए ये [ १०४ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यासागर । १०५] । फिर वहाँसे सब मिलकर भगवानकी जन्मपुरीमें आये थे ऐसा सोमसेनछुत लघु पयपुराणके ग्यारहवें अधिकारमें लिखा है सेन्द्राश्च व्यंतराः सर्वे भवनवासिनस्तथा । ज्योतिषाः सपरिवारा नाना यानेश्च संयुताः॥२८ ।। सौधर्मेन्द्रगहे द्वारं संप्राप्ता विभवान्विताः। तथा षोडशस्वर्गस्थदेवास्तत्र समागताः ॥ २६ ॥ इस प्रकार वर्णन है । इससे भी सिद्ध होता है कि भवनत्रिक पहले स्वर्गतक जा सकते हैं। -चर्चा छयानवेवीं प्रश्न-श्री वासुपूज्य तोयंकरको मोक्ष चंपापुरीसे हुई है या राजनमालिका नवीके पास मंदारगिरि पर्वतसे हुई है ! समाधान-श्री वासुपूज्य स्वामी चंपापुरी नगरीके बाहर मंदराचल पर्वतपर जो मनोहर नामका बन है वहाँसे मोक्ष पधारे हैं । जब उनकी आयु एक महीनेको बाकी रह गई थी तब वे अपना योग निरोध कर पचासनसे विराजमान थे तथा अंतमें बहोंसे भाद्रपद शुक्ला चतुर्दशीको संध्याके समय विशाखा नक्षत्रमें चौरा नर्वे मुनियों सहित मोक्ष पधारे ऐसा श्रीगुणभद्राचार्यविरचित उत्सरपुराणमें ( श्रीवासुपूज्यपुराणमें ) लिखा है। स्थित्वात्र निष्कियो मासे नया राजनमालिका। संज्ञायाश्चित्तहारिण्याः पर्यंतावनिवर्तिनि ॥ ५१ ।। अग्रमंदरशैलस्य सानुस्थानविभूषणे । वने मनोहरोद्याने पल्यकासनमाश्रितः ॥५२॥ मासे भाद्रपदे ज्योत्स्ने चतुर्दश्यापराह्नके । विशाखायां ययौ मुक्तिं चतुर्नवतिसंयतैः ॥५३॥ ९७-चर्चा सतानवेवीं प्रश्न-उत्कृष्ट, मध्यम तथा जघन्य पात्रके लिये दिये हुए दानका फल तथा कुपात्रके लिए दिये हुए । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्गासागर 1 वानका फल तो प्रसिद्ध है प्रायः सबने सुना है। परंतु लोभी पुरुषके लिए दान देनेवालेको फैसो शोभा । होती है ? समाधान-जो पुरुष लोभी पुरुषके लिये दान देता है उसको शोभा आचार्य श्रीकुन्दकुन्द स्वामीने मृतक पुरुषके विमानके समान ( विमानके आकारमें बनाई हुई अस्थोके समान ) बतलाई है। जिस प्रकार मृतक पुरुषके विमानके आगे रुपये पैसे बखेरे जाते हैं बड़ी शोभा की जाती है, चांडाल आदि उसका यश भी गाते हैं और सब लोग उसको शोभा बढ़ाते हैं परन्तु घरवाले मालिकके लिये तो वह शान ( बखेर ) और वह शोभा आदि सब छाती कूटने और सिर धुननेके लिये ही होती है तथा कला-कलाकर महा दुल उत्पन्न करती है ऐसी ही शोभा लोभी पुरुषको दान देने की है। इसलिये सत्पुरुषों के लिए दिया हुआ दान तो कल्पवृक्षाविकके सुखोंको उत्पन्न करता है और लोभोके लिये दिया हुआ दान ऊपर लिखे अनुसार फल देता है । सो ही रयण। सारमें लिखा है सप्पुस्साणं दाणं कप्पतरूणं फलाण सोहं वा । लोहाणं दाणं जइ विमाणसोहा स जाणेह ॥ २४ ॥ ८-चर्चा अठानवेवों प्रश्न-दर्शन और ज्ञान तो जीवका लक्षण है परन्तु चारित्र किसका लक्षण है ? समाधान-चारित्र भी जीवका निजधर्म है क्योंकि अपनी आत्माका निजाघरण रूप ही चारित्र है। समस्त जीयोंसे समान भाव होना, रागद्वेष रहित, अनिष्ट बुरिकर रहित भाव ही निश्चयचारित्र है । सो हो आरमाका निजधर्म है। इसलिये ज्ञानदर्शन और चारित्र ये तीनों हो आत्माके निजस्वरूप है सो हो षट्पाइडके मोक्षप्राभूसमें लिखा है चरणं हवइ सधम्मो धम्मो सो हवइ अप्पसमभावो । सो रायरोसरहिओ जीवस्स अणण्णपरिणामो ॥ ५० ॥ -19-AARAIMIMw Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर [ १०७ ] BE निम्यानवेवीं प्रश्न- इस समय इस पांचवें कालमें रत्नत्रयको धारण करनेवाले मुनि अपने उत्कृष्ट भावोंसे स्वर्गलोकमें जाते हैं सो कौनसे स्वर्ग तक जा सकते हैं। समाधान - पांचवें कालके भावलंगी और रत्नत्रयको धारण करनेवाले मुनि इन्द्र पदवी पाते हैं तथा पांचवें ब्रह्मलोक स्वर्ग में लोकांतिक देवोंकी पववी को पाते हैं तथा वहाँसे आकर मनुष्य होकर मोक्ष जाते हैं इससे सिद्ध होता है कि पांचवें फालके मुनि पाँचवें स्वर्गतक जाते हैं । सो हो मोक्षप्राभूतमें लिखा हैअज्जवि तिरयणसुद्धा अप्पा झाप वि लहइ इंदतं । लोयंलिपदेव राय बुझा बुद्धिं जंति ॥ ७७ ॥ इससे यह भी सिद्ध होता है कि पांचवें कालमें भी जीवोंकी ऐसी शक्ति होती है । १०० - चर्चा एकसौवीं प्रश्न - मिष्यावृष्टिके बाह्य चिह्न कौन-कौन है ? समाधान — मिध्यावृष्टियोंके विशेष बाह्य चिह्न तो अन्य शास्त्रों में प्रायः सब जगह लिखे हैं । यहाँ केवल सामान्य रीतिसे लिखते हैं-जो देव भूख प्यास आदि अठारह दोष सहित हैं वे कुत्सित देव कहलाते हैं। जिस धर्ममें हिंसा आदि अनेक पाप करने पड़ें उसे कुत्सित धर्म वा कुधमें कहते हैं। जो परिप्रहसहित हों और अनेक पाप रूप आरम्भ करते हों ऐसे भेषी पाखंडियोंको कुगुरु कहते हैं । इस प्रकार कुदेव, कुधर्म और कुगुरुओं को जो पूजे, वंदना करे तथा लज्जा, भय, गौरव जादिके वश होकर भी इसकी पूजा वंदना करे सो प्रगट मिध्यादृष्टि जीव है। भावार्थ - मिध्यादृष्टियोंके ये बाह्य चिह्न हैं। "इन कुवैवादिकोंको सब लोग पूजते हैं। यदि हम न पूजेंगे तो लोग क्या कहेंगे" इस प्रकारको लज्जासे पूजना अथवा सात प्रकारके भयसे पूजना अथवा हम सबसे ऊंची पदवीको धारण करनेवाले हैं हमको तो सबका आदर सत्कार करना चाहिये इत्यादि समझकर पूजना सो गौरवसे होनेवाली पूजा है । इस प्रकार कुवैवाविककी पूजा करना सो सब मिष्यादृष्टि के बाह्य लक्षण हैं। सो ही मोक्षप्राभृत में लिखा है [ १ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर कुच्छियदेवं धम्म कुच्छियलिंग च वंदए जो दु । लज्जाभयगारवदो मिच्छादिट्ठी हवे सो हु॥ १२ ॥ १०१-चर्चा एकसौएकवीं प्रश्न--सम्यग्दृष्टिके विशेष चिन्ह क्या है ? समाधान--सम्यग्दृष्टिके भी विशेष विल अन्य शास्त्रोंमें विस्तारसे लिखे हैं, यहाँ संक्षेप लिखते हैं। जो भूख, प्यास आवि अठारह दोषोंसे रहित वीतराग सर्वशदेवका ही श्रदान करता है, हिंसाविक समस्त पारोंसे रहित श्रेष्ठ धर्मका श्रद्धान करता है, तथा सब तरहके परिग्रह और आरंभोंसे रहित निग्रंथ गुरुका ॥ श्रदान करता है वही सम्यग्दृष्टी है । सो हो मोक्षप्राभूतमें लिखा हैहिंसारहिये धम्मे अट्ठारहदोसविवज्जिए देवें । निग्गथे पध्वयणे सद्दहणं होइ सम्मत्तं ॥१०॥ १०२-चर्चा एकसौ दोवीं प्रश्न-भगवानके समवशरणमें जो मानस्तंभ आदि होते हैं उनको ऊंचाई का प्रमाण किस प्रकार से होता है ? समाधान-समवशरणके मानस्तम्भ, ध्वजास्तम्भ, चैत्यवृक्ष, सिद्धार्थवृक्ष, स्तूप, तोरण, कोट, गृह, बनवेविका, बन, पर्वत आदि की ऊँचाई भगवान् तीर्थकरकी ऊँचाईसे बारह गुणी होती है। भावार्थ-- भगवान्के । शरीरकी जितनी ऊंचाई होती है उससे बारह गुणी ऊंचाई इन सबको समझ लेना चाहिये । सो ही सकलकोति ॥ विरचित आदिपुराणमें लिखा है। मानस्तंभा ध्वजास्तंभा चैत्यसिद्धार्थपादपाः । स्तूपाः सतोरणाः गेहाः प्राकारा वनवेदिकाः॥ १४ ॥ बनादयो बुधैः प्रोक्ता उत्सेधेन द्विषड्गुणाः ।जिनांगोत्सेधतश्चैषां देानुरूपविस्तरः॥१५॥ पार्श्वपुराणमें भी लिखा है-- । मानस्तंभाश्च प्राकाराः सिद्धार्थचैत्यपादपाः। सतोरणाःगृहाः स्तंभाः केतवोवनवेदिकाः॥१७ ।। १०, Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . [१ ] प्रोक्तास्तीर्थंकरोत्सेधादुत्नु'गेन द्विषड्गुणाः। इस प्रकार जानना। पर्चासागर १०३-चर्चा एकसौ तीसरी प्रश्न-चतुर्गति निगोद दो प्रकार है, एक नित्यनिगोद और दूसरा इतरनिगोद । इन दोनों निगोवों में क्या अन्तर है? समाधान--जो अनादिकालसे एकेन्द्रिय कर्मके उदयसे सवा स्थावर गतिमें ही जन्म-मरण करते रहें। तथा जो भूत, भविष्यत्, वर्तमान किसी भी कालमें कभी भी दो इन्द्रिय आदि त्रस पर्याप धारण न करें। जिनकी स्थावर गतिका न आदि है न अन्त है. सदा अनन्तकायके आश्रित जन्म-मरण धारण करते जीवोंको नित्य निगोदिया जीव कहते है। इसीलिए इस गतिको नित्यगति अथवा शाश्वत गति ऐसा सार्थक नाम कहा है। तीन पाप कर्मके उदयसे अनन्तानन्त जीव इस नित्य निगोदमे सदा रहते हैं। सो ही सिद्धान्त(सारमें लिखा है त्रसत्वं न प्रपद्यते कालेन त्रितयेऽपि ये। ज्ञेया नित्यनिगोदास्ते भूरिपापवशीकृताः॥ श्रीगोम्मटसारमें भी लिखा है-- अस्थि अणंता जीवा जेहिं ण पत्तो तसाण परिणामो। भावकलंकसुपउरा णिगोदवासं ण मुचंति ॥ १७ ॥ तथा जिससे निकल कर असतिको प्राप्त करे अथवा प्रमगति पाकर जिस निगोदमें जाय उसको । इतरनिगोद कहते हैं। इस प्रकार निगोद दो प्रकारके हैं। निगोद शब्दकी निरुक्ति इस प्रकार है। जो अपने शरीरके अङ्गरूपी क्षेत्रमें रहने के लिये अनन्तानन्त जीवोंको जगह देवे उसको निगोद कहते हैं। नि-नियतं गां (गो शब्दका द्वितीयाका एकवचन) भूमि क्षेत्रं अनन्तानन्तजीवानां व-दवातीति निगोदम् । निगोदं शरीरं येषां ते निगोदशरीराः । अर्थात्-नि का अर्थ नियत है गो शब्दका अर्थ क्षेत्र वा निवास स्थान है और द शब्दका अर्थ देना है। जो नियमसे अपने शरीर में अनन्तानन्त जीवोंको उत्पन्न होनेके लिये क्षेत्र देवे उसको निगोद कहते हैं। में ऐसे शरीरको निगोद शरीर कहते हैं । ANTERTA amouTERIERREDMASALAndAGAZाचाराचीनकार BARARI Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HT: भारत प्रश्न--कोई ऐसा कहते हैं कि इन्द्रादिक देव सुदर्शन नामके मेरुपर्वतकी पाण्डुका शिलापर जो तीर्थंकर मांसागर । भगवान्का जन्माभिषेक करते हैं सो चनुणिकायिक देव अभिषेकके गंधोदक जलको अपने नेत्रोंसे ललाटसे लगाते हैं । और इस प्रकार लगाते हैं कि वह जल सब उठ जाता है बाकी बिल्कुल नहीं रहता। कोई-कोई ऐसा भी कहते है कि थोड़ा-थोड़ा सबके हिस्सेमें आ जाता है और किसी-किसीके हाथ भी नहीं आता। इसलिये थोड़ा-सा गन्धोदक लेकर मस्तकसे लगा लेना चाहिये और फिर हाथ धो डालना चाहिये। क्योंकि यदि गन्धोवकके हाय किसो बुरे पवार्थसे अथवा पाँव आदिसे लग जावें तो बड़ी अविनय होगी। इसलिये गन्धोदक लगाकर हाथ धो डालना अच्छा है । ऐसा ही उपवेश दूसरोंको दिया करते हैं सो क्या यह बात ठीक है ? समाधान--यह कहना ठीक नहीं है, यह कहना कपोलकलिगत और अजाद भा हुभा है। क्योंकि श्रीऋषभदेवके जन्माभिषेकके गन्धोवकका जल इन्द्रादिक सब देवोंने अपने मस्तकसे लगाया तथा सब शरीरसे लगाया तथा मेरुपर्वतके ऊपर उस गन्धोवकके जलका प्रवाह नदियोंके समान बह निकला । इस बहते हुए जलमें देवोंने स्नान किया। वह जल लेकर परस्पर एक दूसरेके ऊपर डाला। भावार्थ-उस जलमें परस्पर जलक्रीड़ा को और उस गन्धोदकके जलको लेकर स्वर्गमें भेजा । ऐसा वर्णन शास्त्रों में लिखा है । देखो भगवज्जिनसेनाचार्यप्रणीत आदिपुराणके दशवे पर्वमें-- कृतं गंधोदकैरित्थमभिषेकं सुरोत्तमाः । जगतां शांतये शांति घोषयामासुरुच्चकैः ॥ १७॥ । प्रचक्ररुत्तमांगेषु चक्रुः सर्वांगसंगतम् । स्वर्गस्योपायनं चक्रुस्तद्गंधांबु दिवाकसः ॥१८॥ गंधांबुस्नपनाते जयकोलाहलैः समम्। व्यातुक्षीममराः चक्रुः सचूर्णैगंधवारिभिः ॥ ६ ॥ ___लब्ध्यादिपुराणमें भी यही बात लिखी है-- तद्गंधाबु प्रवंधोच्चैरुत्तमांगेषु भक्तिकाः। निधाय सर्वगात्रेष स्वर्गस्योपायनं व्यधुः ॥२०२॥ गंधोदकाभिषेकांते विधायेति सुरेश्वराः। गंधोदकं च बंदिवा पूतं शुद्धै जिनेशिनः ॥२०॥ व्यातुक्षी निर्मलांचक्रुःजयकोलाहलैः समम्। पूरितैः कलशेः भक्त्या सचूर्णेगंधवारिभिः॥२०४।। PRASTERTAIMEGEमहान्यवराse [ ११० Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसके सिवाय भगवान पार्श्वनाथके जन्म समयमें भी इसी प्रकार कथन है सोही पार्वपुराण में लिखा है-- -सिगर इत्थं गंधोदकैः कृत्वाभिषेक सुरनायकाः। शांति ते घोषयामासुच्चैर्भवाघशातये ॥१२॥ १११ ] । चक्रुः शिरसि भाले च नेत्रे सर्वांगपुद्गले । स्वर्गस्योपायनं पृतं तदगंधाधु सुरास्त्रियः॥१३॥ गंधांबुस्नपनस्यांते जयनंदादिसत्स्वरैः । व्यातुक्षीममराश्चक्रुः सचूर्णेगंधवारिभिः ॥१४॥ इसलिये ऊपर लिखा हुआ लोगोंका कहना असत्य है । तथा गर्भान्वय आदि क्रियाओं में जो बालकको केशवाय (मुण्ड न वा केश उतरवाना) निया है उसमें पहले देव, शास्त्र, गुरुको पूजा होती है, फिर बालकका मस्तक गन्धोदकसे भिगोया जाता है, फिर केश उतारे जाते हैं, तदनन्तर गन्धोदकसे ही बालकको स्नान कराया जाता है। ऐसा श्रीजिनसेनस्वामीने आदिपुराणके 1 अड़तीस पर्वमें लिखा है-- केशवापस्तु केशानां शुभेह्नि व्यपरोपणम् । क्षौरेण कर्मणा देवगुरुपूजापुरस्लरम् ॥६६॥ गंधोदकार्दितान् कृत्वा केशान् शेषाकृतोचितान् । मौड्यमस्य विधेयं स्यात्सचूलं वान्योचितम् ॥ १७॥ स्नपनोदकधीतांगमनुलिप्तं सभूषणम् । प्रणमय्य मुनीन् पश्चायोजनेद्वंधुताशिषा। इसके सिवाय जब राजा श्रीपाल कोटोभट कोढ़ रोगसे पोड़ित हो गये थे और उनके साथके साससौ ! योद्धा भी कोढ़ रोगसे पीड़ित हो गये थे तब श्रीपालकी रानी भनासुन्दरीने भगवान्का गन्धोदक लेकर उनके समस्त शरीर पर सींचा था और उसके सींचनेसे उन सबका कोढ़ रोग दूर हो गया था। ऐसा कथन श्रीपालचरित्र आदि शास्त्रों में लिखा है, इसलिये गन्धोदकके हाथ धोना किस प्रकार सम्भव हो सकता है। तथा गन्धो दककी महिमा जैनशास्त्रोंमें जगह-जगह लिखी है, इसलिये इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये । तथा बिना समझे शास्त्रविरुद्ध वचन नहीं बोलना चाहिये । जो इस प्रकार कहते हैं वह उनकी कपोलकल्पना है। १. वास्तविक बात यह है कि गन्धोदक वा भगवान् के अभिषेकका जल महा-पवित्र है। वह किसी प्रकार अपवित्र नहीं हो सकता तथा विनय जौर विनय दोनों भावोंसे होती है। THEATRAMETERANAMRATARNATHMATHMAmate- ARATPATre-RA Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाaathi १०५-चर्चा एकसौ पाँचवीं प्रश्न--प्रतिमा कौन-सी प्रतिष्ठा मोरया नहीं है अर्थात कैसी प्रतिमाको प्रतिष्ठा नहीं करनी चाहिये तथा सागर कैसी प्रतिमा प्रतिष्ठा करने योग्य है ? १२] समाधान-ध्यंगित प्रप्तिमा ( जिसके अंग उपांग खण्डित हैं ) जर्जरीभूत प्रतिमा ( बहुत प्राचीन जो | खिरती हो जीर्ण-शीर्ण हो) जिस प्रतिमाको प्रतिष्ठा पहले हो चुको हो, जो दुबारा बनायी गयो हो अर्थात् जिसके अंग भंग हो गये हों और फिर गढ़ कर बनायो हो, और जिन प्रतिमाओंमें कोई सन्देह हो ऐसी जिन प्रतिमाएँ प्रतिष्ठा करने योग्य नहीं हैं तथा जिस प्रतिमाको नाक, मुख, नेत्र, हृदय, नाभिमण्डल आदि अंग भंग हो गये हों, वह भी पूजा करने योग्य नहीं है। सो ही प्रतिष्ठाशास्त्रमें लिखा है। व्यंगितां जर्जरां कौव पूर्वमेव प्रतिष्ठिताम् । पुनर्घटितसंदिग्धां प्रतिमां नो प्रतिष्ठयेत् ॥ नासामुख तथा नेत्रे हृदये नाभिमंडले । स्थानेषु व्यंगितेष्वेषु प्रतिमां नैव पूजयेत् ॥ । यहाँ पर फिरसे बनायो गयो प्रतिमाकी प्रतिष्ठाका जो निषेध किया है उसका अभिप्राय यह है कि जिस प्रतिमाके उपांग खण्डित हो गये हों और फिर सुधार कर वह दुबारा बनायी गयो हो तो ऐसी प्रतिमाको प्रतिष्ठा नहीं करानी चाहिये । तथा जो प्रतिमा शिल्पि शास्त्रों में कहे हुए लक्षणोंसे सुशोभित हो और सांगोपांग हो ऐसी प्रतिमाको प्रतिष्ठा करना योग्य है । सो हो प्रतिष्ठापाठमें लिखा है। यद्विम्बं लक्षणयुक्त शिल्पिशास्त्रनिवेदितम् । सांगोपांगं यथायुक्त्या पूजनीयं प्रतिष्ठितं ॥ प्रश्न--जो प्रतिमा पूर्व प्रतिष्ठित है उसका यदि उपांग ( उँगली आदि ) खण्डित हो जाय अथवा मस्तक हीन हो जाय तो उसकी पूजा स्तुतिका विधान किस प्रकार है ? समाधान-जिस प्रतिमाको उँगलीका अग्रभाग अथवा कुछ कानका भाग पर कुछ नाकका भाग स्खण्डित हो तथा बह प्रतिमा पूर्व प्रतिष्ठित हो. और अतिशय सहित हो तो वह प्रतिमा पज्य है को पूजा, स्तुति, नमस्कार आदि करने में अपने बुरे भाव नहीं करने चाहिये। यदि ऐसी प्रतिमा अतिशयरहित। हो तो वह पुज्य नहीं है तथा जो प्रतिमा मस्तकहीन हो तो उसको जलाशयमें क्षेपण कर देना चाहिये। मस्तक। होन प्रतिमाको चैत्यालयमें नहीं रखना चाहिये, इस प्रकार मरेन्द्रसेनकृत प्रतिष्ठादीपकमें लिखा है । यथा समिरमानापन्ज [ ११२ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासागर ११३ ] जीर्ण चातिशयोपेनं तद्व्यंगमपि पूजयेत् । शिरोहीनं न पूज्य स्थान्निक्षेप्यं तन्नदादिषु ॥ इस प्रकार जानना । यदि इसका विशेष स्वरूप जानना हो तो जिनसंहिता, प्रतिष्ठापाठ, सरस्वतीकल्प, पूजासार, शिल्पशास्त्र आदि ग्रन्थोंसे जान लेना चाहिये। १०६-चर्चा एकसौछट्ठी प्रश्न--इस पंचमकालमें भरतक्षेत्रमें साक्षात् केवलज्ञानी नहीं हैं फिर भला उनको किस प्रकार मानना चाहिये और उनकी पूजा-भक्ति किस प्रकार करनी चाहिये । उनकी प्रतिमा तो स्थापना है निक्षेपरूप साक्षात् समाधान--केवली भगवान्को वाणीका पठन-पाठन करनेवाले आचार्य है। इसलिए आचार्यको मानना वा उनको पूजा-भक्ति आदि करना साक्षात् केवलीको मानने और उनकी पूजा-भक्ति करनेके समान है, क्योंकि जिसने केवलीप्रणीत शास्त्रोंको पठन-पाठन करनेवाले मान लिये तो उसने साक्षात केवली भी मान लिये। इस पंचमकालमें श्रीमहावीर स्वामीके पीछे जिन सत्रोंको पठन-पाठन करनेवाले और रत्नत्रयको धारण करनेवाले । अनेक बड़े-बड़े आचार्य हुए हैं उनके वचनोंको आनाको मानना ही केवली भगवानको मानना है । सो हो " श्रीपमनंदिविरचित पद्मनंदिपंचविंशतिकामे लिखा है-- संप्रत्यस्ति न केवली किल कलौत्रैलोक्यचूणामणि स्तद्वाचः परमासतेऽत्र भरतक्षेत्रे जगढ्योतिकाः॥ १. शास्त्रकारोंने स्थापनाका लक्षण “सोयमित्यभिधानेन स्थापना सा निगद्यते" अर्थात् "ये वे हो हैं" ऐसा संकल्प करना ही स्थापना निक्षेप है। मूर्ति वा प्रतिमामें जो स्थापना की जाती है वह भी ये तीर्थङ्कर हो हैं ऐसो कल्पना की जाती है, इसलिये जिन प्रतिमाको पूजा-भक्ति करना भी केवली भगवान्की ही भक्ति-पूजा करना है तथा यह बात केवली भगवानकी कही हुई है या नहीं कही हुई है, इस प्रकारका जहाँ निश्चय करना हो, वहाँपर आचायोंके वचनोंसे हो निश्चय करना चाहिये। क्योंकि भावान महावीर स्वामीने जो उपदेश दिया था, वही उपदेश गौतम स्वामी, सुधर्माचार्य और जबस्वामीने दिया तथा वही श्रुत- केलियोंने व उनके शिष्योंने दिया। उन्हीं शिष्यों के शिष्य-प्रतिशिष्य आचार्य हुए हैं इसलिये जैसा उनके गुरुओंने उपदेश दिया है वैसा ही उन्होंने उपदेश दिया है और वैसा ही शास्त्रोंमें लिखा है इसलिये आचार्यों के बनाये हुए शास्त्रों में जो लिखा है वह केवलीप्रणीत ही है ऐसा निश्चय करना चाहिये । जो ऐसा नहीं करते वे केवली भगवान्का तिरस्कार करते हैं। [११ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४] सदलत्रयधारिणो यतिवरास्तासां समालंबनं । तत्पूजा जिनवाचि पूजनमतः साक्षाज्जिनः पूजितः॥ इससे सिद्ध होता है कि आचार्योको मानने में, उनको पूजा भक्ति करने और उनके वचनोंकी आज्ञा माननेमें कोई संदेह नहीं करना चाहिये। जो पुरुष आचार्योकी आज्ञा माननेमें संवेह करते हैं वे केवली भगवानका अविनय करते हैं। १०७-चर्चा एक सौ सातवीं प्रश्न-भरत चक्रवर्तीने ब्राह्मणोंको स्थापना की थी सो उस समय कितने ब्राह्मणोंको स्थापना की थी अर्थात् उनको कितनी गिनती यो। समाधान-भरत चक्रवर्तीने ब्रह्मकर्म विधिक समय पचतामको निधिसे ग्यारह ब्रह्मसूत्र वा यज्ञोपवीत निकाले और उन्हें पहनाकर ग्यारह ब्राह्मण स्थापन किये। भावार्थ-उस समय ग्यारह ब्राह्मण बनाये तथा पोछे अनुक्रमसे बढ़ते गये और बहुत हो गये सो ही आविपुराणके अड़तीसवे पर्वमें लिखा है। तेषां कृतानि चिह्नानि सूत्रः पद्माह्वयान्निधेः । उपात्तैर्ब्रह्मसूत्राहरेकायेकादशांतकैः ॥ इससे सिद्ध होता है कि जो लोग इस बातको नहीं मानते वे भ्रममें पड़े हुए हैं । शास्त्र में तो ग्यारहका ही प्रमाण मिलता है । इस प्रकार चतुर्थकालके प्रारम्भमें ब्राह्मण वर्णको उत्पत्ति हुई है। प्रश्न--पांचों महा विदेह क्षेत्रोंमें ब्राह्मण हैं या नहीं। तथा वहाँपर कितने वर्ण हैं ? समाधान--विवेह क्षेत्रमें ब्राह्मण नहीं हैं वहाँपर क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र ये तीन ही वर्ण हैं । सो हो सिद्धांतसारप्रवीपमें लिखा है। । प्रजा वर्णप्रयोपेता जिनधर्मरताः शुभाः। व्रतशीलतपोष्टि भूषिता न द्विजाः क्वचित् ॥ १०८-चर्चा एकसौ आठवीं प्रवन-सामायिकके छह भेद सुने हैं सो वे कौन-कौनसे हैं ? Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समापान-नाम सामायिक, स्थापना सामायिक, प्रष्य सामायिक, क्षेत्र सामायिक, काल सामायिक और भाव सामायिक । इस प्रकार छह भेवरुप सामायिक होता है । भगवान् जिनेन्द्रदेवने सामायिकके ये छहों पर्चासागर भेव धर्म और मोक्षको देनेवाले बतलाये हैं। सो हो प्रश्नोत्तरोपासकाचारमें लिखा है[ ११५ ] नामस्थापनाद्रव्यक्षेत्रकालेषुश्रीजिनः। उक्तं सामायिक भावं षड्विधं धर्ममुक्तिदम् ॥२३॥ इनका विशेष स्वरूप इस प्रकार है जो विद्वान् लोग शुभ-अशुभ विकल्पों के नामों के समूहको सुनकर । राग, द्वेष, मोहका त्याग कर देते हैं उसको नाम सामायिक कहते हैं । जो शुभ और अशुभ चेतन या अचेतनसे, उत्पन्न होते हैं उनको देखकर जो रागद्वेषाविकका त्याग कर देते हैं उनके स्थापना सामायिक होता है। जो लोहा, सोना आदि सब पदार्थों में समान भाव धारण करते हैं उनके व्रव्य सामायिक होता है। यह द्रव्य सामायिक विना समता भावोंके और किसी प्रकार नहीं हो सकता। जो शुभ, अशुभ क्षेत्रमें सुख और दुःखोंके । समूहको पाकर भी राग, द्वेष, मोहका नाश कर देते हैं वह उनका क्षेत्र सामायिक है । जो शीतकालमें वा उष्णकालमें समताभाव धारण करते हैं, सर्वी, गर्मीके कुःखोंको समताभावसे सहन करते हैं उसमें दुःख नहीं मानते। सो काल सामायिक है । तथा जो शत्रु मित्रादिकमें राग द्वेषको सर्वथा छोड़ देते हैं और समताभाव धारण करते हैं उनके भाव सामायिक होता है । इस प्रकार सकलकोति आचार्यने प्रश्नोत्तरोपासकाचारमें सामायिकके छह भेव लिखे हैं। यथा-- शुभेतरविकल्पं यः श्रवा नामकदंबकम् । रागादिकं त्यजेद्धीमान् नामसामायिक लभेत् ।। २४ ॥ दृष्ट्वा शुभाशुभं रूपं चेतनेतरजं हि यः। त्यजेद्रागादिक स स्थापनासामायिकं भवेत् ॥ २५ ॥ लोष्ठहेमादिदृष्टेषु समचित्तं करोति यः। द्रव्यसामायिकं तस्य भवेन्नान्यस्य सर्वथा ॥ २६ ॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर शुभंतरप्रदेश यः सुखदुःखादिसंकुलम् । प्राप्य रागादिकं हन्यात् क्षेत्रसामायिकं लभेत् ।। २७॥ शीतोष्णादिषु कालेषु समता यो वितन्वते। कालसामायिक तस्य भवत्येव न संशयः ॥ २८॥ त्यक्त्वा रागादिकं योरिमित्रादिष करोति सः। समताधिष्ठितं भावं भावसामायिकं लभेत् ॥ २६ ॥ १०६-चर्चा एक सौ नौवीं प्रश्न--गहस्थ लोग जो अपने घर प्रतिमा रखते हैं उसको मर्यादा ग्यारह अथवा बारह अंगल प्रमाण पा है। बारह अंगुलसे ऊँची प्रतिमा जिनमंदिरमें ही स्थापन करनी चाहिये, यह बात तो प्रसिद्ध है परन्तु ग्यारह । अंगुलमें भी एक, दो, तीन, चार आदि अंगुलोंकी प्रतिमाके प्रमाणका फल षया है ? समाधान--जो गृहस्थ अपने घर जिनप्रतिमाको रक्खें सो अत्यन्त योग्य और ऊँचे स्थानमें रखना। चाहिये। आगे प्रतिमाको ऊँचाईका अलग-अलग फल बतलाते हैं। एक अंगुलकी प्रतिमा पूजा करनेवालेके लिये। । श्रेष्ठ है। दो अंगुलको प्रतिमा धन नाश करनेवाली है। तीन अंगुल ऊँची प्रतिमा वृद्धिको उत्पन्न करती है।। चार अंगुल मेंची प्रतिमा पीड़ा उत्पन्न करती है। पाँच अंगुल की प्रतिमा सुखकी वृद्धि करती है । छह अंगुलको । प्रतिमा उद्वेग करती है। सात अंगुलको प्रतिमा गायोंको वृद्धि करती है। आठ अंगुलकी प्रतिमा हानि करती है । नौ अंगुलको प्रतिमा पूजा करनेवाले के लिये पुत्रोंको वृद्धि करती है। दश अंगुल ऊंची प्रतिमा धनका नाश करतो है । ग्यारह अंगलको प्रतिमा गहस्थोंके समस्त काम और अर्थको सिद्धि करनेवाली होती है। इससे अधिक । ऊंची प्रतिमा गृहस्थको अपने घर नहीं रखनी चाहिये। हाँ; जिनमंदिर में विराजमान करने में कोई हानि नहीं है। इस प्रकार एकसे लेकर ग्यारह अंगुल प्रमाण प्रतिमाका शुभाशुभ फल बतलाया। इनमें भी जो शुभ प्रतिमाएं। हैं यदि उनकी नाक, मुख, नेत्र, हृदय, नाभि आदि स्थान खंडित हो जाये तो घरमें रखकर नहीं पूजना चाहिये। ऐसा वीक्षाकल्पमें लिखा है। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथातः संप्रवक्ष्यामि गृहविम्बस्य लक्षणम् । एकागलं भवेच्छे ष्ठं व्यंगुलं धननाशनम् ॥ व्यंगुले जायते वृद्धिः पीडा स्याच्चतुरंगुले। पंचांगुले तु वृद्धिः स्यादृद्वेगस्तु षडंगुले सागर । सप्तांगुले गांवृद्धिः हानिरष्टांगले मता । नवांगुले पुत्रवृद्धिर्धननाशो दशांगुले ॥ ११७ . एकादशांगुळ शिवं सर्वकामार्थसाधनम् । एतत्प्रमाणमाख्यातमत्तरूद्धर्व न कारयेत् ॥ नासामुखे तथा नेत्रे हृदये नाभिमंडले। स्थानेषु व्यंगितागषु प्रतिमां नैव पूजयेत् ॥ ११०-चर्चा एकसौ दशवीं प्रश्न--सीसरे मिश्र नामके गुणस्थानमें मरण नहीं है और न अन्य गतिको आयुका बंध ही होता । है। सब फिर वह तीसरे गुणस्थान बाला जीव गतिबंधके बिना अन्यमतिमें किस प्रकार गमन करता है ? समाधान--सम्यक मिथ्यात्व प्रकृति के उदयसे तीसरे मिश्र नामके गुणस्थानमें रहनेवाले जीवने पहले। है या तो मिथ्यात्वके साथ आयुका बंध किया होगा या सम्यक्त्व के साथ आयुका बंध किया होगा । यदि मिथ्यात्व के साथ आयुका बंध किया हो तो वह मिथ्यात्व गुणस्थानमें जाकर मरण करता है यदि उसने सम्यक्त्व साथ आयुका बंध किया हो तो वह चौथे गुणस्थानमें जाकर मरण करता है । भावार्थ--जो पहले सम्यग्दर्शनके साथ आयुबंध किया है तो चौथे गुणस्थानमें मरण कर शुभ गति प्राप्त करता है। यदि उसने मिथ्यात्व । गुणस्थानमें बंध किया हो तो यह मिथ्यात्व में ही मरण कर अशुभ गतिमें जा उत्पन्न होता है। ऐसा श्रीगोम्मटसारमें प्ररूपणाधिकारके गुणस्थानाधिकारमें लिखा है । यथा सो संजमंण गिण्हदि देसजमं वा ण बंधदे आउं। सम्म वा मिच्छं वा पडिवज्जिय मरदि णियमेण ।। २२ ।। सम्मत्तरिछपरिणामेसु जहि आउगं पुरा बद्धं । तहि मरणं मरणंतसमुग्धादो वि य ण मिस्सम्मि ॥ २३ ॥ १११-चर्चा एकसौ ग्यारहवीं प्रश्न--क्षयकश्रेणी चढ़नेवाले योगीश्वरोंके श्रेणी चढ़ते समय कौनसा संहनन होता है ? ११ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर १८] समाधान--सपक श्रेणीवाले मुनीश्वरोंके छहों संहननों से कोई संहनन नहीं होता ।पयोंकि आपकश्रेणी-1 में बढ़नेवाले साधुओंके, अयोगिकेवली जिनराजके, चतुर्णिकाय वेवोंके, सातवें नरकमें रहनेवाले नारको जीवोंके, आहारक शरीरको धारण करनेवाले महर्षियोंके, एकैब्रिय जीवोंके और कार्मण कायके आश्रित रहनेवाले विग्रह गतिमें प्राप्त हुए जीवोंके, इन सात स्थानोंमें रहनेवाले जीवोंके शरीरमें वज्रवृषभनाराच आदि छहों संहननों मेंसे एक भी संहनन नहीं होता ऐसा सिद्धांतसार प्रदीपकमें लिखा है । यथासयोगे च गुणस्थाने ह्याचं संहननं भवेत् । केवले क्षपकण्यारोहणे कृतयोगिनाम् ॥१२८॥ अयोगिजिननाथाना देवानां नारकात्मनाम् ।आहारकमहर्षीणामेकाक्षाणांवषि च ॥१२६॥ । यानि कार्मणकायानि बजतां परजन्मनि। तेषां सर्वशरीराणां नास्ति संहननं क्वचित् ॥१३०॥ ११२-चर्चा एकसौ बारहवीं प्रवन--आचार्य, उपाध्याय और साधुओंकी वंदना अजिका किस प्रकार करती हैं ? । समाधान--मणिकाएं अपनी गणिनीको ( सब अजिकाओंमें मुख्य गुराणीको ) भागे करती है अर्थात् गणिमोके पीछे-पीछे रहकर आचार्य, उपाध्याय, साधुओंकी वंदना करती है तथा इसी प्रकार उमसे पूछती हैं। और इसी प्रकार उनका धर्मोपदेश सुनती हैं। अजिकाएं अकेली आचार्य वा उपाध्याय वा साधुओंके सामने नहीं जातीं । सो ही मूलाचारप्रवीपका में लिखा है गणिनीमग्रतः कृत्वा यदि प्रश्नं करोति सा अविकाएं आचार्यको पांच हाथ दूरसे बंदना करती हैं, उपाध्यायको छह हाप दूरसे बंदना करती हैं। और साधुओंको सात हाथ दूरसे बंदना करती हैं। सथा बन्दना भी पश्वशायो आसनसे करती हैं। जिस प्रकार आधे आसनसे गौ बैठकर सोती है उसी प्रकार अपने शरीरको नवाकर बंदना करती हैं। अजिकाए सर्व साधुओंको पांग अथवा अष्टांग नमस्कार नहीं करतीं । ऐसा मूलाधार प्रबोपको समाचार नामके अधिकारमें है [ ११८ पर्यटति प्रयत्नेन भिक्षायै गृहपंक्तिषु । वा प्रति मुनींद्राणां बंदनायै च भांतिकाः॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचषट्सप्तहस्तांतमंतराले महीतले । सूरिपाठकसाना भक्तिपूर्वकमापिकाः।। श्रीवट्टकरस्वामीने मूलाचारमें समाचाराधिकारमें भी यही बात लिखी हैपर्चासागर पंच छह सत्त हत्थे सूरी उवझायगोय साधूयापरिहरिऊणज्जाओगवासणेणेव वंदंति॥१६॥ ११९ ] ११३-चर्चा एकसौ तेरहवीं प्रश्न-सवाशिव आवि अन्य मतवाले लोग जीवका स्वरूप जुदा-जुवा मानते हैं सोधे किस-किस 4 प्रकार मानते हैं ? समाधान-सवाशिव, सांख्य, मस्करी वा संन्यासी, बौद्ध, नैयायिक, वैशेषिक और ईश्वरमंडली । ये छह मतवाले छह दर्शन कहलाते हैं। ये छहों हो दर्शन जीवका स्वरूप भिन्न-भिन्न तरहसे मानते हैं। | सदाशिव वाला तो जीवको सदा कर्मरहित हो मानता है । सांख्यमतवाले मुक्त जीवको सुखसे रहित मानते हैं। । संन्यासमत वाले मुफ्त जीवका भी फिर संसारमें आगमन मानते हैं। अर्थात् उनके मतमें मुक्त जीव भी। अनेक अवतार धारण करता है। पौलो जोन स्माणिक मानते हैं। योगशास्त्रो जीवको निर्गुणो। मानते हैं। ईश्वरवादी सृष्टिवावके द्वारा ईश्वरको अकृतकृत्य मानते हैं। मंडली मसवाले आत्माको अवगमन हो निरूपण करते हैं । इस प्रकार छहों वर्शनवाले आत्माके स्वरूपको परस्पर विरुय निरूपण करते हैं सो हो । गोम्मटसारकी टोकामें लिखा है सदाशिवः सदाकर्मा सांख्यो मुक्तं सुखोज्झितम् । मस्करी किल मुक्तानां मन्यते पुनरागतिम् ॥ क्षणिकं निर्गणं चैव बुद्धो योगश्च मन्यते । कृतकृत्यं तमीशानो मंडली चोर्वगामिनम् ।।। इस प्रकार उनके मत परस्पर विरुद्ध हैं। [ १५ प्रश्न-थे सब वेदको मानने वाले हैं और फिर भी सबके मत परस्पर विरुख हैं। तब सबको एक वेद मतवाले किस प्रकार कहते हैं? समाधान-ये सब एक नहीं हैं अलग-अलग है । इनके शास्त्रोंका कथन एक दूसरेसे मिलता नहीं।। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सबका जुदा-जुदा है और सबका उपवेश परस्पर विरुद्ध है। क्योंकि छहों दर्शनवालोंके कथन सर्वहरहित है छयस्थोंके ( अल्प ज्ञानियोंके ) कहे हुए हैं इसलिये उनमें आविसे अन्त तक अविरोय नहीं आ सकता। पासागर प्रश्न- इनमें विरोष कहाँ-कहाँ है ? १२० ___ समाधान-इनमें विरोध तो बहुत है और वह सब लिखा नहीं जा सकता । परन्तु उसमेंसे थोड़ासा । बतलाते हैं । वेदमें लिखा है-- अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्ग नैव च नैव च । तस्मात्पत्रमुखं दृष्ट्वा पश्चाद्भवति तापसः॥ अर्थात्-जिसके पुत्र नहीं है उसकी गति नहीं होती और उसे स्वर्ग भी नहीं मिलता इसलिये पुत्रका मुख देखकर ( विवाह कर और भोगोपभोग सेवन कर ) फिर तपस्वी होना चाहिये । तब हो सुगति प्राप्त हो सकती है। कुमारोंकी गति कभी नहीं हो सकती । तथा भारतके शांति पर्वमें लिखा हैअनेकानि सहस्राणि कुमारब्रह्मचारिणाम् । स्वर्ग गतानि राजेंद्र ! अकृत्वा कुलसंश्रितम् ॥ अर्थात हजारों कुमार ब्रह्मचारी स्वर्गमें गये इन दोनों कथनों में परस्पर विरुवता है। सया एक सूर्यमें दो बार भोजन करनेमें ( दिनमें दो बार भोजन करनेमे ) महावोष मानकर रात्रि। में भोजन करनेका उपदेश दिया है । ऋषियोंको कंदमूल खानेका विधान किया है तथा राजाओंको मध, मांस खानेका अधिकार बतलाया है । परन्तु भारतमें इसके विरुद्ध लिखा है । यथा - । मद्यमांसाशनं रात्रौ भोजनं कंदभक्षणम् । ये कुर्वति वथा तेषां तीर्थयात्रा जपस्तपः ॥ वथा एकादशी प्रोक्ता तथा च जागरणं हरेः । वृथा च पुस्करी यात्रा कृतं चांद्रायणं तपः॥ यहाँपर मद्य, मांसका, रात्रिभोजनका, कंदमूल खानेका निषेध लिखा है और इन कामोंको करनेवालोंकी तीर्थयात्रा जप, तप, एकादशी नारायणका जागना ( नारायणके लिये रात्रि जागरण करना ) पुष्करA की यात्रा, घान्द्रायण तप आदि सब व्यर्थ बतलाया है । सो यह पाहलेके कथनसे विरुद्ध है। मार्कंडेय ऋषिने । [ १२० मार्कंडेय पुराणमें भी लिखा है। अस्तं गते दिवानाथे आपो रुधिरमुच्यते । अन्नं मांससमं प्रोक्तं माकंडेयमहर्षिणा ॥ । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात् मार्कंडेय ऋषिने कहा है कि सूर्य अस्त होनेपर जल कधिरके समान है और अन्न खाना मांस-1 के समान है। फिर भला वह रात्रिमें भक्षण करने योग्य किस प्रकार हो सकता है । भारतमें भी लिखा हैचर्चासागर चत्वारो नरकद्वार प्रथम रात्रिभोजनम् । परस्त्रीगमनं चैव संधानानंतकायते ॥ [ १२१] ये रात्रौ सर्वदाहारं वजर्यति सुमेधसः। तेषां पक्षोपवासस्य मासकेन जायते ॥ । नोदकमपि पातव्यं रात्रावत्र युधिष्ठिर । तपस्विनो विशेषण गृहिणां च विवेकिनाम् ।। अर्थात् नरफके चार द्वार हैं उनमें प्रथम रात्रिमें भोजन पान करना, दूसरा परस्त्रीगमन करना, तीसरा अचार, मुरब्बा आदि खाना और चौथा कंदमूल आदि अनंतकायका भक्षण करना । तथा जो बुद्धिमान रात्रिमें सब तरहके आहारके त्याग कर देते हैं उनके एक महीनेमें पन्द्रह उपवास हो जाते हैं या उन्हें पन्द्रह उपवासका फल प्राप्त हो जाता है। श्रीकृष्ण महाराज युधिष्ठिरसे कहते हैं कि हे युधिष्ठिर ! विचारशील गृहस्थों को रात्रिम जल भी नहीं पीना चाहिये। तथा तपस्वियोंको तो विशेषताके साथ त्याग कर देना चाहिये। __ अरण्यकमें लिखा हैमृते स्वजनमात्रेपि सूतकं जायते किल । अस्तं गते दिवानाथे भोजनं क्रियते कथम् ॥ रक्ता भवंति तोयानि अन्नानि पिशितानि च । रात्रिभोजनशक्तस्य ग्रासेन मांसभक्षणम् ॥ नैवाइतिर्न च स्नानं न श्राद्धं देवतार्चनम् । दानं च विहितं रात्रौ भोजनं तु विशेषतः ॥ उदम्बरं भवेन्मांसं मांस तोयमवस्त्रकम् । चर्मवारि भवेन्मांसं मांसं च निशिभोजनम् ॥ । उलुककाकमार्जारगृखशंवरशकराः । अहिवृश्चिकंगोधाया जायते निशि भोजनात् ॥ अर्थात्-जिस प्रकार कुटुबमें किसी कुटंधोके मर आनेपर सूतक हो जाता है उसी प्रकार सूर्य अस्त होनेसे भी सूतक लग जाता है फिर भला सूतकमें भोजन किस प्रकार करना चाहिये । रात्रिमें जल तो रुधिर के समान हो जाता है, अन्न मासके समान हो जाता है, इसलिये रात्रिमें भी भोजनकी लंपटता रखनेवालोंके । के लिये एक ग्रास मात्र भोजन करना भी मांस भक्षणके समान है। रात्रिमें आहुति देना, स्नान करना, श्राद्ध Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर १२२ ] SHARELEBRATEDHA करना, देवपूजन करना, धान देना मना है तथा रात्रि भोजन करनेका त्याग विशेष रीतिसे बतलाया है। फिर कहा है-उदंबर फल ( पोपलफल, बरफल, गूलर, पाकर, अंजोर ) भी मांस है, बिना छमा जल भी । मांस है, चमड़ेके बर्तन में रक्खा हुआ जल, घो, वृष मावि भी मास है, और रात्रिमें भोजन करना भी मांस, भक्षण है। रात्रि भोजन करनेसे ये जीव मरकर परलोकमें उल्लू, कौमा, बिल्ली, गोध, सूअर, सर्प, बिच्छू, गोह, गोहरा, विस्मरा आदि महानीच योनियों में उत्पन्न होता है। इसके सिवाय ये लोग ऋषियोंके लिये कंदमूलके आहार करनेका बड़ा माहात्म्य बतलाते हैं परन्तु । । शास्त्रोंमें कंदमूल भक्षणके बड़े दोष बतलाये हैं। जैसा कि पहले भी कह चुके हैं-- __ मद्यमांसाशनं रात्री भोजन कंदभक्षणम् । ___ इसके सिवाय प्रभासखंडमें लिखा हैपुत्रमांसं वरं भुक्तं न च मुलकभक्षणम् । भक्षणान्नरकं याति वर्जनारस्वर्गमाप्नुयात् ।। । अज्ञानेन मया देव कृतं मूलकभक्षणम् । तत्पापं प्रलयं यातु गोविंद ! तव कीर्तनात् ॥ रसोनं जिनं चैव पलांडु पिंडमूलकम् । मत्स्यमांसं सुरां चैव मूलकं च विशेषतः॥ H अर्थात-पुत्रका मांस खा लेना अच्छा परन्तु कंदमूल खा लेना अच्छा नहीं क्योंकि कंदमूलका भक्षण करनेसे यह जोव नरक जाता है और कंबमूलका त्याग कर देनेसे स्वर्गको प्राप्ति होती है ॥ १॥ भक्त लोग श्रीकृष्णसे कहते हैं कि हे गोविंद देव ! हमने अपने अज्ञानसे कंदमूल खाये हैं सो आपकी स्तुति करनेसे हमारे वे सब पाप नष्ट हो जाय ॥ २॥ रसोन अर्थात् लहसन, गजिन अर्यात् गाजर, पलांडु अर्थात् प्याज, कांदा, पिंडालू मूली, मछलीका मांस और मछ इनका विशेष रीतिसे त्याग कर देना चाहिये। शिवपुराणमें भी लिखा है। यस्मिन् गृहे सदा नित्यं मूलकं पच्यते जनः। श्मशानतुल्यं तद्वेश्म पितृभिः परिवर्जितम् ॥ [ १२२ मूलकेन समं चान्नं यस्तु भुक्ते नराधमः। तस्य शुचिर्न विद्येत चांद्रायणशतेरपि ॥ ॥ भुक्तं हालाहलं तेन कृतं चाभक्ष्यभक्षणम् । वृत्ताकभक्षणं चापि नरो याति व रोरवम् ॥ N TERS Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर १२३ ] अर्थात् - जिस घरमें लोग मूली पकाते हैं ( कंदमूल पकाते हैं ) वह घर श्मशानके समान है। उसमें पितर लोग कभी नहीं आते हैं जो लोग कंदमूलके साथ अन्न भोजन करते हैं उनकी शुद्धि सैकड़ों चांद्रायण व्रतोंसे भी नहीं हो सकती। कंदमूल भक्षण करनेमें ऐसा महापाप है। तथा जिसने बैंगन खा लिया उसने हालाहल विष खा लिया अथवा विष्ठा मांस आदि अभक्ष्य भक्षण कर लिया समझना चाहिये। क्योंकि वैगन के खानेसे यह अधम मनुष्य रौरव नरकमें 'जाता है। इस प्रकार ये लोग इनका निषेध भी करते जाते हैं और उनको अंगीकार भी करते जाते हैं। तथा रामचन्द्र और परशुराम दोनोंको अवतार मानते हैं और दोनोंका परस्पर युद्ध होना भी मानते । तथा हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनोंको एकसा ही मानते हैं परन्तु तीनोंके कार्य परस्पर भिन्न-भिन्न मानते परस्परमें युद्ध करना भी मानते हैं । मत्स्यावतारने तो वेद प्रगट किये तथा बुद्धावतार ने उसके मार्गका लोप किया । ऋषभावतारते वैराग्यको प्रवृत्ति की और कृष्णावतारने शृंगारमय नाना लीलायें कीं। कृष्णावतारने मर्यादाका भंग किया और रामावतार मर्यादापुरुषोत्तम हुए। बाल्मीकि रामायण में तथा पद्मपुराणमें रावणका वष रामने किया लिखा है। तथा अद्भुत रामायण में रावणका वध सीताने किया लिखा है। तथा इसी अद्भुत रामायण में सीताको रावणकी पुत्री बतलाया है। गीता में पहले तो क्रोधाविक पापोंके त्याग करनेका उपदेश दिया है और ज्ञानके बाद-उपवेशके बाब कौरवोंके साथ युद्ध करनेका उपवेश दिया है। वेदोंमें तो यज्ञमें पशुओंको हवन कर जीवोंकी हिंसाका निरूपण किया है और पुराणोंमें जीवघातका निषेध किया है । वेदांत में धातु, पाषाण आदिको मूर्त्तिके सेवन करनेका निषेष और चिदानंद चिरूपका चितवन करना लिखा है तथा पुराणोंमें उसी मूर्तिकी भक्ति पूजा आदिका प्रतिपादन किया है। शाक्तिक मतमें अवतारादिकोंको न्यूनता और शक्तिकी महानता दिखलाई है। रामके उपासकोंको कृष्णको उपासना नहीं करनी चाहिये, कृष्णके उपासकोंको रामकी उपासना नहीं करनी चाहिये। शिवके उपासकोंको नारायणकी उपासना नहीं करनी चाहिये और विष्णु उपासकोंको शिवको नहीं मानना चाहिये । इन सबमें परस्पर विरोध रखनेका उपदेश दिया है। इस प्रकार इन छहों शास्त्रोंमें परस्पर वचनोंकी विरुद्धता, चलनकी विरुद्धता और आचरणको विरुद्धता दिख लाई है और वह विरुद्धता प्रत्यक्ष दिखाई पड़ती है। सो संसारी जीव अपने कल्याणके लिये किस वचनपर, fee चलनपर और किस आचरणपर विश्वास रखें। यदि एक वेव, पुराण, वा अवतार पर विश्वास रखते [ १२ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है तो दूसरे वेद पुराण अवतार और ऋषि आदिके वचनोंके आचरणाविका खंडन हो जाता है। यदि कोई । सबके ऊपर माना जाय तो भी परस्पर विरोध होनेसे दूसरेका अपमान होता है। ऐसी अवस्थामें क्या करना। चाहिये यह बड़े संकटको बात है । इसलिये बिना स्याद्वाद वचनोंके, बिना तस्वोंके यथार्थ श्रद्धानके कुछ भी २४] कार्यकारी नहीं है ऐसा समझना चाहिये। ११३-चर्चा एकसौ चौदहवीं प्रश्न-श्री सम्मेदशिखरको यात्राका सबसे उत्कृष्ट फल क्या है ? समाधान-राजा श्रेणिकने विपुलाचल पर्वत पर श्रीमहावीरस्वामीसे पूछा था कि हे भगवन् ! श्रीसम्मेदशिखरका माहात्म्य क्या है। तब भगवान्ने विध्यध्वनि द्वारा निरूपण किया कि हे श्रेणिक ! श्रीसम्मेदशिखर नामके पर्वतसे अजितनाथसे लेकर बीस तीर्थंकर मोक्ष पधारे हैं। उनके अलग-अलग कूट हैं उनके नाम इस प्रकार हैं। श्रीअजितनाथ सिद्धवरकूट मोक्ष मारे है। जी शंभरनाथ दत्तधवलकूटसे मोक्ष गये हैं। श्रीअभिनंदननाथ आनंदकूटसे मोक्ष पधारे हैं। श्री सुमतिनाथ अघिचलकूटसे मुक्त हुये हैं। श्रोपमप्रभ मोहन। कूटसे सिद्ध हुये हैं। श्रीसुपार्श्वनाथ प्रभासकूटसे मुक्त हुये हैं। श्रीचंद्रप्रभ भगवान ललितकूटसे मोक्ष पधारे हैं।।। श्रीपुष्पदंत सुप्रभकूटसे सिद्ध हुये है। धीशीतलनाथ विद्युत्प्रभकूटसे मुक्त हुए हैं। श्रीश्रेयांसनाथ संवलकूटसे । (संकुलसे ) निर्वाण पधारे हैं श्रीविमलनाथ सुवीरकुलकूटसे मुक्त हुये हैं। श्रीअनंतनाथने स्वयंप्रभकूटसे मोक्ष पाई है। धर्मनाथने वत्तवरकूटसे निर्वाण प्राप्त किया है। श्रीशांतिनाथने कुन्दप्रभ वा प्रभासकूटसे सिद्धपद। प्राप्त किया है । कुयुनाथस्वामी ज्ञानधरकूटसे मोक्ष गये हैं। श्रीअरःनाथस्वामी नाटककूटसे मोक्ष पधारे हैं। श्रीमल्लिनाथ भगवान संबलकूटसे मुक्त हुये हैं। श्रीमुनिसुव्रत तीर्थकर निर्जरकूट से सिद्ध हुये हैं। श्रीनमिनाथदेव मित्रधरकूटसे मुक्त हुये हैं। श्रीपार्श्वनाथ भगवान् सुवर्णभद्रसे मोक्ष पधारे हैं। इस प्रकार बीस फूट हैं और उन कूटोंपरसे श्रीअजितनाथ आदि बीस तीर्थंकर मोक्ष पधारे हैं। उन कूटोंमें प्रत्येक फूटसे उन तीर्थंकरोंके मोक्ष जानेसे पहले ही अनंतानंत मुनिराज मोक्ष पधारे हैं इसलिये ये फूट परम पवित्र सिद्धक्षेत्र हैं। यह ह सम्मेदशिखरक्षेत्र बारह योजन प्रमाण है सो समस्त जीथोंके पापोंका नाश करनेवाला है। इसका दर्शन भव्य । जीवोंको हो होता है । अभव्यजीव वहाँ जा ही नहीं सकते। अभव्योंके जानेमें अनेक प्रकारके विधन आ उप Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर [१२५ स्थित होते हैं। यदि कोई भव्य जीव महा पापी हो और इस गिरिराजके दर्शन कर ले तो उसके संसारका परिभ्रमण छूट जाता है वह अधिकसे अधिक उनचास भय तक परिभ्रमण कर सकता है। भावार्थ---गिरिराजके दर्शनका ऐसा माहात्म्य है कि इसके दर्शन करनेवाला महापापी भव्य जीव भी उनवास भव तक शुभ गतियोंमें जन्म लेकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है । उस बारह योजन प्रमाण सिद्धक्षेत्रमें पृथ्वी, अप्, तेज, वायु, वनस्पतिकाधिक जीव तथा दो इप्रिय, सेन्द्रिय, इन्द्रिय, पसंतीचंद्रिय, पशु, पक्षी, मनुष्य आदि जो जीव उत्पन्न होते हैं ये सब भब्य ही होते हैं। वहां भव्य जीवोंका हो जन्मक्षेत्र है, अभव्य जीव वहाँपर जन्म धारण नहीं कर सकते । वहाँपर भव्य ही जन्म लेते हैं ऐसा नियम है। उस गिरिराजका ऐसा ही माहात्म्य है। तथा उसके दर्शन, वंदन, स्पर्शन करने आदिसे नरकगति और तियंचगति छूट जाती है। भावार्थ-यह जीव मरणकर फिर तिच और नरकगतिमें कभी जन्म नहीं लेता । वह या तो स्वर्गमें देव होता है अथवा मध्यम लोकमें उत्तम मनुष्य होता है। ऐसा नियम है । अब आगे एक-एक कूटसे तीर्थंकरोंके मोक्ष पधारनेके बाव कितने सुनिराज मोक्ष पधारे हैं सो बतलाते है । श्रीअजितनाथ के साथ एक हजार मुनि मोक्ष पधारे तथा उनके बाद उसी सिद्धवरकूटसे एक अरब चौरासी करोड़ पैंतालीस लाख मुनिराज मोक्ष पधारे। ऐसे उस कूटके दर्शन करनेसे बत्तीस करोड़ उपवास करनेका फल तथा कमकी निर्जरा होती है । इस कूटकी यात्रा सबसे पहले सगर नामके चक्रवर्ती ने चतुर्विध संघ सहित की थी। दूसरे सत्तलकूटसे श्रोसंभवनाथस्वामी एकहजार मुनियों सहित मोक्ष पधारे पीछे उसी फूटसे नौ कोठाको बहत्तर लाख सात हजार पाँचसे बियालीस मुनिराज मोक्ष पधारे। इस कूटके दर्शन करनेसे बियालीस लाख उपवास करनेका फल तथा कर्मोंकी निर्जरा होती हैं। इसकी यात्रा चतुविष संघ सहित मघवा चक्रवर्तीने को थी। श्रीअभिनंदनस्वामी आनंवकूटसे एक हजार मुनियों सहित मोक्ष पधारे। उसके बाव उसी कूटसे तिहत्तर फोडाकोडी सत्तर करोड़ सत्तर लाख सातसौ हजार पांच सौ विद्यालोस मुनिराज और मोक्ष पधारे | इस कूटके दर्शन करनेसे सोलह लाख उपवास करनेका फल और कर्मोंकी निर्जरा होती है । इसकी यात्रा संघ सहित सनत्कुमार चक्रवर्तीोंने की थी । श्रीसुमतिनाथ भगवान अविचल कूटसे एक हजार मुनियों सहित मोक्ष पधारे तथा उनके बाद उसी कूटसे एक अरब चौरासी करोड़ बारह लाख सात सौ इक्यासी मुनि i Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राज और मोक्ष पधारे। इस कूटके वर्शन करनेसे बत्तीस करोड़ उपवास करनेका फल तथा कमौकी निर्जरा ॥ होती है । इसको यात्रा चतुर्विध संघ सहित राजा आनंबसेनने को थी। श्रीपप्रभस्वामी मोहनकूटसे एक हजार मुनियों सहित मोक्ष पधारे उनके बाद उसी कूटसे निन्यानवे करोड़ चौरासी लाख बियालीस हजार सातसै सात मुनि मोक्ष पधारे । इस कूटके दर्शन करनेसे बत्तीस करोड़। उपवासका फल और कर्मोको निर्जरा होती है । इसकी वंदना संघसहित राजा सुप्रभमे की थी । श्रीसुपाश्वनाय । भगवान् सुप्रभकूटसे एक हजार मुनियों सहित मोक्ष पधारे फिर उसी कूटसे बहत्तर लाख सात हजार सातसौ। बियालीस मुनिराज और मोक्ष पधारे । इस कूटके वर्शन करनेसे बत्तीस करोड़ उपवास करनेका फल और को। को निर्जरा होती है । इस कूटकी रज शरीर पर लगानेसे कुष्ट रोग मिट जाता है। तथा इसको यात्राका फल बोसों कूटोंको यात्राके समान है। इसको यात्रा चतुर्विधसंघसहित उद्योग नामके राजाने को थो । श्रीचंद्रप्रभ स्वामी ललितघट कूटसे एक हजार मुनियों सहित मोक्ष पधारे उनके पीछे फिर उसो कूटसे चौरासी अरब ।। बहत्तर करोड़ चौरासी हजार पाँचसौ पचपन मुनिराज मोक्ष पधारें। इस कटकी वंदना करनेसे सोलह करोड़ । उपवासका फल और कर्मोको निर्जरा होती है। इसको यात्रा चतुर्विध संघ सहित ललितवसने की थी। श्रीपुल्पवंत स्वामी सुप्रभकूटसे एक हजार मुनियों सहित मोक्ष पधारे । उनके बाद उसो कूटसे निन्यानवे करोड़ नब्बे लाख सातसै हजार चारसौ अस्सो मुनिराज और मोक्ष पधारे। इस कूटके दर्शन करनेसे सोलह करोड़ उपवास करनेका फल और कर्मोको निर्जरा होती है। इसको यात्रा संघसहित राजा सोमप्रभने की थी। श्रीशीतलनाथ भगवान् विद्युतवर कूटसे एक हजार मुनियों सहित मोक्ष पधारे फिर इसी कूटसे अठारह कोडाकोडि दियालीस करोड़ बत्तीस लाख बियालीस हजार नौ से पांच मुनिराज और मुक्ति पारे । इस कूटके। दर्शन करने से सोलह करोड़ उपवास करनेका फल और कर्माको निर्जरा होती है । इसकी यात्रा चतुर्विध संघ A सहित राजा अविचलने की थी। श्रीधेयांसनाथ तीर्थकर संबलकूटसे एक हजार मुनियों सहित मोक्ष पधारे। फिर इसी कूटसे छयानवे कोडाकोडि छयानवे करोड़ छयानवे लाख पैंतालीस हजार पाँचसौ वियालीस मुनि राज और मोक्ष पधारें। इस कूटके दर्शन करनेसे एक करोड़ उपवासका फल और कर्मोको निर्जरा होती है।। । इसकी यात्रा चतुर्विष संघ सहित राजा आनन्दसेनने की थी । श्री विमलनाथ भगवान सुधीर फूटसे एक हजार [ १२६ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर - १२७ ] मुनियों के साथ मोम पधारे फिर उनके बाद उसी कूटसे सत्तर करोड़ साठ लाल छह हजार सातसे दियालोस। मुनि और मोम पधारे। इस फूटके दर्शन करने से एक करोड़ उपवास करनेका फल और कोको निर्भरा होतो है। इसकी यात्रा चतुर्विध संध सहित राजा मुप्रभमें की थी। श्रीअनंतनाय भगवान् स्वयंभू नामके कूटसे एक हजार मुनियों सहित मोक्ष पधारे। उनके बाद उसी कूटसे छयानवे कोडाकोडि सत्तर करोड़, सत्तर लाख, सत्तर हजार सात-सौ मुनिराज और मोक्ष पधारे । इस कूटके दर्शन करनेसे सोलह करोड़ उपवास करनेका फल और कर्मोकी । निर्जरा होती है । इसको यात्रा सतुर्विध संघ सहित राजा चारुसेनने की थी । श्रीधर्मनाथ स्वामी वत्तवर फूटसे । एक हजार मुनियों सहित मोक्ष पधारे। फिर उसी फूटसे उन्नीस करोड़ नौ लाख नौ हजार सात सौ पिचयानवे मुनिराज और मोक्ष पधारे। इस फागो भान करने को मारमा पर और कर्मोको निर्जरा होती है। इसको यात्रा चतुर्विध संघ सहित राजा विभोवसेनने को थी। श्रीशांतिनाथ तीर्थंकर प्रभास कूटसे एक । हजार मुनियों सहित मोक्ष पधारें। फिर उसो घाटसे नौ फोडाकोडि नौ लाख नौ हजार नौ सौ निन्यानवे मुनियोंने और मोक्ष पाई । इस कूटके दर्शन करनेसे एक करोड़ उपवासका फल और कर्मोंकी निर्जरा होती है। इसको याश संघ सहित राजा सुदर्शनने की थी। श्रीकुंथुनाथ भगवान ज्ञानधर कूटसे एक हजार मनियों सहित । मोक्ष पषार फिर उसी कूटसे छयानवे कोडाकोडि छयानवे करोड़ बत्तीस लाख छयानबे हजार सात सौ विया लीस मुनि और मोक्ष पधारे। इस कूट के दर्शन करनेसे एक करोड़ उपवासका फल और कोको निर्जरा होतो है । इसको यात्रा चतुर्विध संघ सहित राजा सोमघरने को थी। श्रीअरहनाय स्वामी नाटक कूटसे एक हजार मुनियों सहित मोक्ष पधारे। फिर वही कूटत निन्यानवे करोड़ निन्यानवे लाख निन्यानवे हजार मुनिराज पधारे। इस कटकी वंदना करनेसे उद्यान करोड उपवास करनेका फल और कोको निर्जरा होती । है । इसकी यात्रा चतुर्विध संघसहित राजा सुप्रभने को थो। श्रीमल्लिनाथ तीर्थकर संबल कूटते पांच हजार A मुनियों सहित मोक्ष पधारे फिर उसी कूटते निन्यानवे करोड़ मुनि और मोक्ष पधारे । इस कूटके दर्शन करनेते। छयानवे करोड़ उपवास करनेका फल और कर्मोको निर्जरा होती है । इसकी यात्रा चतुर्विध संघसहित राजा ॥ सत्यसेनने की थी। श्रीमुनिसुव्रतनाथ स्वामी निर्जर कूटसे एक हजार मुनियों सहित मोक्ष पधारे फिर उसी कूटसे निन्यानवे कोडाफोडि सत्यानवे करोड़ नौ लाख नौ सौ निन्यानवे मुनि और मोक्ष पधारे इस फटके । वर्तन करनेसे एक करोड़ उपवासका फल तपा कोको निर्जरा होती है। इसको यात्रा चतुर्विध संघसहित । -PraEAREFRELES Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठवें बलभद्र राजा रामचंद्रने को थी । इकईसर्वे तीर्थकर श्रीनमिनाथस्वामी मित्रघर कूटसे एक हजार मुनियों । । सहित मोक्ष पधारे फिर उसी कूटस एक अरब एक करोड़ पैतालीस लाख सात हजार नौ सौ बियालीस मुनि चासागर और मोक्ष पधारे। इस कूट के दर्शन करनेसे एक करोड़ उपवासका फल और कर्माको निर्जरा होती है। इसको १२ यात्रा संघसहित राजा मेघदंतने की थी। श्रीपार्श्वनाथ भगवान् सुवर्णभव कूटसे मोक्ष पधारे फिर उसी कूटसे। 1 एक करोड़ चौरासी लाख पैंतालीस हजार सातसै बियालीस मुनि और मोक्ष पधारें। इस कूटके दर्शन करनेसे । । सोलह करोड़ उपवास करनेका फल और कोको निर्जरा होती है। इसकी यात्रा चतुर्विध संघसहित राजा, । सुप्रभावसेनने की थी। इस प्रकार बीसों कूटोंकी यात्राका अलग-अलग फल बतलाया। जो सब कूटोंकी यात्रा करते हैं वे जीव अवश्य मोक्ष प्राप्त करते हैं। प्रश्न-अभव्यको यात्रा क्यों नहीं होती तथा यह बात कहाँ लिखी है ? ___समाधान-एफ पोहमीपुरका राजा यात्राके लिए गया था परन्तु मार्गमें ही रात्रिमें उसे स्वप्न हुआ।। । स्वप्नमें उसने अपने पुत्रको मरा देखा । तब बह राजा मोहके उवयसे बहुत दुःखी हुआ और पीछे घरको लौट गया सो याह राजा अभव्य था इसलिये वह सम्मेदशिखर यात्रा न कर सका। इससे सिद्ध होता है कि अभव्यों# को यात्रा नहीं होती ऐसा नियम है। प्रश्न- जो मनुष्य भव्य हो परन्तु उसके नरकाय अथवा तियंचायुका बन्ध हो गया हो तो उसको । यात्रा होती है या नहीं ? समाधान-राजा श्रेणिकने श्रीमहावीरस्वामीसे पूछा था कि मेरे भाव श्रीसम्मेवशिक्षरजोको यात्रा करनेके हैं। तब भगवान्ने अपनी विध्यध्वनि द्वारा बतलाया कि तुमको यात्रा हो नहीं सकेगी, क्योंकि तुम्हारे । । पहले नरकायुका बन्ध हो चुका है। इसलिये तुम्हारे यात्राका संयोग नहीं है। फिर भी राजा श्रेणिक वहाँ । गया परन्तु यात्राके समय वश लाख व्यन्तरोंके स्वामी प्रभूत नामक यक्षने महाप्रचण्ड हवा चलाई जिसके । कारण राजा श्रेणिकको यात्रा हुई ही नहीं। महारानी चेलनीने भी श्रेणिकसे कहा कि हे स्वामिन् ! केवली भगवान्के वचन कभी अप्रमाण नहीं हो सकते। रानीके वचन सुनकर राजा भेणिक भी वापिस आ गया। उसको " यात्रा हुई ही नहीं। अब भी अनेक संघ जाते हैं परन्तु जिनको दर्शन होनेका योग नहीं होता उनके अनेक विघ्न [ १२८ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर १२९ ] हो जाते हैं अनेक अन्तराय आ जाते हैं और उनके दर्शन होते ही नहीं। इसलिए जो अभव्य हैं जिनके नरकायु वातिशयुका बन्ध हो चुका है उनकी यात्रा नहीं होती । जो भव्य है परन्तु जिनके नरकायु वा तिर्यखायुका बन्ध हुआ है उनको भी यात्रा होना कठिन है। जिनके शुभ कर्मोंका उदय है ऐसे भव्यजीवोंके हो सम्मेद - freeकी यात्रा होती है। इसलिये जिसने इसकी यात्रा कर ली उसे आसन्न भव्य वा निकट भव्य ही समझना चाहिये । जो भव्यजीव सफेद वस्त्र पहन कर इसकी यात्रा करते हैं उनको शीघ्र मोक्ष प्राप्त होती है । जो पीले वस्त्र पहन कर इसकी यात्रा करते हैं उनके अनेक प्रकारके रोग मिट जाते हैं। जो हरे वस्त्र पहिन कर वन्दना करते हैं उनकी मानसिक पीड़ा और अनेक प्रकारके शोक सन्ताप मिट जाते हैं। जो भव्यजीव लाल रंगके वस्त्र पहन कर दर्शन करते हैं उनको अनेक प्रकारको लक्ष्मी प्राप्त होती है। इस प्रकार इसका विशेष फल है । इस प्रकार जो भव्यजीव भावसहित एक बार भी सम्मेदशिखरको यात्रा वन्दना करते हैं उन्हें ऊपर free अनुसार फल प्राप्त होता है। इसमें कोई किसी प्रकारका सन्देह नहीं। यह सब कथन लोहाचार्य विरfe शिखरविलास में कहा है। हमने यहाँ संक्षेपसे लिखा है विशेष वहांसे जान लेना । ऐसा समझकर भव्यatrist सम्मेद शिखरको यात्रा बन्दना बड़ी भक्तिसे करनी चाहिये । यही कल्याणस्वरूप है । प्रश्न -- जो नरकायुका बन्ध कर चुके हैं ऐसे रावण आदि भी तो बन्दनाके लिये गये हैं ? उत्तर- रावण वहाँ गया तो सही परन्तु यात्रा करनेके लिये नहीं गया । मार्गमें जाते-जाते उस यनमें रहा और त्रिलोकमण्डन नामके हाथोको पकड़ कर उसकी क्रीड़ा करनेमें हो मग्न हो गया । उसको वश कर सबेरे ही वहाँसे घरको चल दिया उसको वहाँको यात्रा वन्वना आदि नहीं हुई। ऐसा पद्मपुराणमें लिखा है सो विचार कर लेना चाहिये जिन्होंने पहले नरकायु अथवा तिर्यचायुका बन्ध कर लिया है उनको सम्मेद - शिखरकी यात्रा नहीं होती । इस प्रकार ऊपर लिखे अनुसार सम्मेदशिखरको बीस टोकोंसे बीस तीर्थंकर और अनन्त मुनि मोक्ष पधारे हैं उनको हमारा बार-बार नमस्कार हो । तथा हमारा भी जन्म वहीं हो । ११५ - चर्चा एकसौ पंद्रहवीं प्रश्न- पर्याप्त नामकर्मके उदयसे तो पर्याप्तक होते हैं तथा अपर्याप्त नाम कर्मके उदयसे अपर्याप्तक १७ [ १२२ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्य पर्चासागर [१३०] होते हैं परन्तु निर्वृत्ति अपर्याप्तक और लग्धि अपर्याप्तक ये दो भेद और सुने जाते हैं वे किस-किस फर्मके उवयसे होते हैं और इनका स्वरूप क्या है ? ____ समाधान-निवृत्ति अपर्याप्त तो पर्याप्तक नाम कर्मके उदयका एक भेद है और लब्धिअपर्याप्तक अपर्याप्तक नाम कर्मके उदयका दूसरा भेद हैं । ये दोनों भेव और किसोके नहीं है। इनका स्वरूप इस प्रकार है-पर्याप्त नामकर्मके उदयसे एकेन्द्रिय जीवोंके चार पर्याप्ति होती हैं, दो M इन्द्रियके छः, तेइन्द्रियके सात, चौइन्द्रियके आठ, असेनोपंचेन्द्रियके नौ और सेनोपंचेन्द्रियके क्स पर्याप्ति होती में हैं । सो इनमेंसे जबतक शरीर पर्याप्ति पूर्ण न हो तबतक अर्थात् शरीर नामको पर्याप्ति पूर्ण होने तक जो । अन्तर्मुहूर्तका समय है उसमें से एक समय कम समय तक अपर्याप्त अवस्था रहती है। शरीर पर्याप्तिको पूर्णता को निवृत्ति कहते हैं जिनको पूर्णता होनेवाली है परन्तु अभी तक हुई नहीं है तबतक अर्थात् शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने तक निर्वृत्यपर्याप्तक कहलाता है । इस प्रकार यह भेद पर्याप्तकका हो है । निर्वत्यपर्याप्तकका समय अन्त" मुहूर्त है । तथा लब्ध्यपर्याप्तक अपर्याप्त नामकर्मके उदयसे होते हैं । एकेन्द्रियसे आदि लेकर सेनीपंचेन्द्रिय तक के जीव जो अपनी शरीरपर्याप्ति भी पूर्ण न कर सकें एक प्रयासके अठारहवें भाग प्रमाण अन्तर्मुहर्तमें ही जो मर जाय ऐसे जीवोंको लब्ध्यपर्याप्तक कहते हैं । ये सब भेव गोम्मटसारके पर्याप्तिप्ररूपणाधिकारमें लिखे हैं। पज्जत्तस य उदये णियणियपज्जत्तिणिविदो होदि । जाव सरीरमपुण्णं णिविवत्ति अपुण्णगो ताव ॥ १२१॥ उदयेदु अपुण्णस्स य सगसगपज्जत्तियं ण णिवदि। अंत्तोमुत्तमरणं लद्धिअपज्जत्तगो सो दु॥ १२२ ॥ इनका उदाहरण इस प्रकार है। जैसे किसीने घर बनवाया। सो नींव भरकर जबतक वह घर पूरा नहीं होता तबतक अपर्याप्सफ कहते हैं तथा पूर्ण होनेपर पर्याप्तक कहलाता है। और नींव भरकर फिर में कामका पड़ा रसना कभी पूरा न होना सो लग्थ्यपर्याप्तक है। भावार्थ-जो एक श्वासमें अठारहबार जम्म मरण करते हैं उनको लब्ध्यपर्याप्तक मानना । तmaananaaaaaaanePEERUT Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६-चर्चा एकसौ सोलहवीं प्रश्न-ऊपर जो लाध्यपर्याप्सक और मिव॒स्यपर्याप्सक बतलाये हैं उन जीयोंक कौनसा गुणस्थान होता पर्चासागर । है और कौनसा नहीं होता? [ १३१ ] समाधान-लमध्यपर्याप्तक जोधके एक मिथ्यात्व गुणस्थान हो रहता है, मिथ्यात्वके सिवाय और कोई गुणस्थान नहीं होता । तथा निर्वृत्यपर्याप्तक जीवके मिथ्यात्व, सासादन, असंपत और प्रमत्त ये चार गुणI स्थान होते हैं । इनमें भी पहले और चौथे गुणस्थानसे मरकर यह जीव चारों गतियों में उत्पन्न हो सकता है। तथा सासारन गुणस्थानमें मरण करनेवाला जीव नरकको छोड़कर अन्य तीन गतियों में उत्पन्न होता है। इन तीनों गुणस्थानवाले जीवोंके जन्मके प्रथम समयसे लेकर औदारिक वा वैक्रियिक शरीर पर्याप्तिको पूर्णता न हो तब तक निर्वस्यपर्याप्तकपना है तथा छठ गुणस्थानवी मुनियोंके जबतक आहारक शरीरको पर्याप्ति पूर्ण न। हो तबसक निवृत्यपर्याप्तकपना है। इस प्रकार इनका स्वरूप गोम्मटसारके पर्याप्ति नामके प्ररूपणाधिकारमें लिखा है । यथा-- लद्धिअपुण्णं मिच्छे तत्थ वि विदिये चउत्थ छ? य । णिवित्तिअपज्जत्ती तत्थ वि सेसेसु पज्जत्ती ॥ १२७ ॥ १९७-चर्चा एकसौ सत्रहवीं । प्रश्न-चौदह मार्गणा और चौवह गुणस्थानोंमें सांतराके आठ भेद कौन-कौन हैं तथा उनका स्वरूप । संख्या और विधान क्या है ? समाधान-श्रीगोमटसारके मार्गणा नामके महाधिकारके प्रारंभमें लिखा है कि नाना जीवोंको अपेक्षा विवक्षित (जिसका कथन कर रहे हैं ) गुणस्थानको तथा मार्गणा स्थानको छोड़कर अन्य कोई गुणस्थान वा मार्गणास्थान प्राप्त हो जाय और फिर जबतक वही विवक्षित गुणस्थान वा मार्गणा स्थान प्राप्त न हो जाय तबतक वह उसका अन्तर कहा जाता है । उस अंतरको अंतरकाल संज्ञा है। जैसे इस लोकमें नाना जीवोंकी अपेक्षा उपशम सम्यग्दष्टी जीवोंका अन्तर सात दिन है। अर्थात तीनों लोकों में कोई जीव उपशम सम्यग्दृष्टी । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न हों तो अधिकसे अधिक सात दिन तक न हो सात दिन बाब तो कोई न कोई अवश्य होता ही है। इसी प्रकार सूक्ष्मसापराय संयमीका उत्कृष्ट अन्तर छह महोना है। छह महीने बाद कोई न कोई सूक्ष्मसापराय। सागर संयमी अवश्य होता ही है। आहारक और आधार मिश्रकाययोग मालेका उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व है।। १३२ ] तीनसे ऊपर और नौसे नीचे चारसे आठ तकको संख्याको पृथक्त्व कहते हैं। इतने घर्ष बाद कोई न कोई । अवश्य होता हो है । वैक्रियिक मिश्रकाय योगवालेका उत्कृष्ट अन्तर बारह मुहूर्त है। बारह मुहूर्तवाद कोई न कोई उत्पन्न होता ही है । लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य सासावनगुणस्थानवी जीव तथा मित्र गुणस्थानवी जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर एक पल्यके असंख्यातवें भाग है। पल्पके असंख्यातवें भाग बाद कोई न कोई इस प्रकार आठों सांतर मार्गणाओंकी उत्कृष्ट कालको मर्यादा है। तथा इन आठों हो उस्कृष्ट सांतरोंका जघन्य काल एक समय है। भावार्थ-इनके अन्तरका उत्कृष्ट काल तो पहले कहा है उससे अधिक कालका । अन्तर नहीं पड़ सकता। इतने कालके बाद कोई न कोई उत्पन्न होता ही है । तथा जघन्यकालके अन्तरसे कम # कालमें कोई उत्पन्न नहीं होता। प्रथमोपशमसम्यक्त्व वाले पांचवें गुणस्थानका उत्कृष्ट अन्तर चौबह दिनका है चौवह दिन बाद कोई न कोई उत्पन्न होता ही है। तया प्रथमोपशम सम्यक्त्ववाले छठे गुणस्थानवी जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर एक पक्षका है । तथा किसी आचार्य के मतमें बीस दिनका भी है । अर्थात् इतने दिन बाव कोई न कोई होता ही है। सो हो गोम्मटसारमें लिखा है उवसम सुहमाहारे वेगवियमिस्त णरअपज्जत्ते । सासणसम्मे मिस्से सांतरगा मग्गणा अट्ट ॥ १४३ ॥ सत्तदिणा छम्मासा वासपुधत्तं च वारस मुहत्ता। पल्लासंखं तिण्हं वरमवरं एगसमयो दु ॥ १४४ ॥ पढमुवसम सहिदाए विरदा विरदीए चोइसा दिवसा। विरदीए पण्णरसा विरहदि कालो दु बोधव्यो ।। १४५ ॥ चालयमाचासरन्यायाल RPAPitare L यासमय Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासागर १३३ । इस प्रकार लिखा है यदि इससे विशेष जानना हो तो तत्त्वार्थसूत्रको टीका सर्वार्थसिखिसे जान लेना। चाहिये। ११८-चर्चा एकसौ अठारहवीं प्रश्न--चक्रवर्ती, नारायण आदि कितने ही पुण्याधिकारो पुरुषोंके हजारों स्त्रियाँ होती हैं तथा चक्रवर्ती रातमें पटरानी के ही महलमें रहते हैं परन्तु पटरानीके पुत्र नहीं होता वह बंध्या ही होती है तथा अन्य ) । रानियोंके पुत्राविक होते हैं और चक्रवतोंके औदारिक शरीरका उदय रहता है । अर्थात् उसके औदारिक शरीर । होता है । इसलिये अन्य रानियोंके पुत्रादिक किस प्रकार उत्पन्न होते हैं ? समाधान-चक्रवर्ती आदि कितने ही पुण्य पुरुषोंके औदारिक शरीर तो होता है परन्तु वह विक्रियारूप परिणत हो जाता है। विक्रियाके दो भेद हैं एक पृथक् विक्रिया और दूसरी अपृथक् विक्रिया 1 जो विक्रियासे अपने शरीरके अनेक रूप बना लेवे उसको पृथक् विक्रिया कहते हैं । जैसे चक्रवतो छयायानवे हजार शरीर बना लेता है तथा जो अलग अलग शरीर तो न बना सके किन्तु विष्णुकुमारके समान छोटा बड़ा शरीर बना सके उसको अपृथक् विक्रिया कहते हैं। ऊपर लिखे चक्रवर्ती आदि पुण्य पुरुषोंके ये दोनों ही विक्रियाएँ होती हैं । इसलिये वे अपनी विक्रियासे अनेक प्रकारको चेष्टाएँ वा अनेक शरीर करते रहते हैं। इस प्रकार । गोम्मटसारके महामार्गणाधिकार में योग मार्गणामें लिखा है वादरतेऊवाऊ पंचेंदियपुण्णगा विगुव्वति । ओरालियं सरीरं विगुव्वणप्पं हवे जेसि ॥ २३३ ॥ अर्थात-बादर तेजस्कायिक और बादर वायुकायिक ये दो बादर स्थावर कायके जीव तथा कर्मभूमि में उत्पन्न हुए चक्रवर्ती पुण्याधिकारी पुरुष सेनी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक, मनुष्य भोगभूमिमें उत्पन्न हुए सैनी पंचेन्द्रिय । पर्याप्तक तियं च तथा मनुष्य ये सब अपने औवारिक शरीरको विक्रियारूप परिणमा लेते हैं। जिनके औवारिक शरीर ही विक्रियारूप होता है उनके किसीके पृथक् विक्रिया और कितने ही के अपृथक् विक्रिया होती है । तथा किसने ही के दोनों प्रकारको विक्रिया होती है। ऐसा समझ लेना चाहिये। mutanaHaasarasvara Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६-चर्चा एकसौ उन्नीसवीं प्रश्न-प्रमत नामके छठे गुणस्पानवर्ती मुनियोंके आहारक शरीर होता है। चैत्य बन्दना करने, वर्षासागर याश करने वा पदार्थोके निर्णय करनेके लिये मस्तकसे एक हाय प्रमाण श्वेत पुरुषाकार प्रदेश निकलते हैं। १४] केवलोके वर्शन कर अथवा यात्राविक अपना कार्य कर फिर वहीं आकर प्रवेश कर जाते हैं ऐसे इस आहारक। शारीरकी उत्कृष्ट जघन्य स्थिति कितनी है ? ___समाधान--आहारक शरीरको जघन्य सथा उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त है। तथा आहारक शरीर पर्याप्तिको पूर्णता होनेपर आहारक योगवाले छठे गुणस्थानवर्ती साधुको आहारक काययोगके समयमें यदि आयु- । का अन्त हो जाय तो उनका मरण भी हो जाता है, सो ही गोम्मटसारमें मार्गणामहाधिकारके अन्तर्गत योग मार्गणाधिकारमें लिखा है-- अव्वाघादी अंतोमुहत्तकालट्रिदी जहण्णिदरे । पज्जत्तीसंपुण्ण मरणं पि कदाचि संभवई ॥ २३८ ॥ १२०-चर्चा एकसौ बीसवीं प्रश्न---ऊपर आहारक शरीरका काल अंतर्मुहूर्त बतलाया उस समय वह साधु अपने प्रोवारिक शरीरसे गमन आगमन आदि क्रिया करे या नहीं और यदि उसके विक्रिया ऋद्धि भी हो तो उस ऋद्धिके द्वारा शरीरको । विनिया रूप चेष्टा कर सकता है या नहीं ? समाधान--प्रमत्त संयमी मुनिराजके एक कालमें एक ही साय वैक्रियिक काययोगको क्रिया आहारक योगकी क्रिया नहीं होती। इससे सिद्ध होता है कि आहारक योगके समय औदारिक वैक्रियिक शरीरसे गमनागमनाविक क्रियाओंका नियमसे अभाव रहता है एक कालमें वो क्रियाएं नहीं होती । सो ही गोम्मटसारमें योगमार्गणाधिकारमें लिखा है। वेगुब्बिय आहारयकिरिया ण समं पमत्तविरद म्हि । जोगो वि एककाले एक्केव य होदि णियमेण ॥ २१२ ।। चा-AS-IN-चमचान्याच्या Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [ १३५ ] १२१-चर्चा एकसौ इक्कीसवीं प्रश्न--औवारिक, वैक्रियिक, आहारक, तेजस और कार्मणको उत्कृष्ट तथा जघन्य स्थिति किसनी है ? समाधान--औदारिक शरीरको अघन्य स्थिति एक श्वासके अठारहवें भाग है। इसका वर्णन पहले लिख चुके हैं। वैक्रियिकको जघन्य स्थिति देव नारकियोंकी अपेक्षा स हजार वर्ष है। सो ही मोक्षशास्त्रमें लिखा हैदशवर्षसहस्त्राणि प्रथमायाम् । भवनेषु च । व्यंतराणां च । न्याय ४ सूत्र संख्या ३६-३७-३८1 तथा आहारकको जघन्य वा उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है जो ऊपर लिख चुके हैं। सैजसकी जघन्यस्थिति कार्मणको जघन्यस्थिति अन्य गसिके गमनकी अपेक्षा एक दो तीन समय है । सो ही मोक्षशास्त्र में लिखा है। एकं द्वौ त्रीन वानाहारकः । --अध्याय २ सूत्र सं० ३० इस प्रकार इनको जघन्यस्थिति बतलाई । अब आगे इन पांचों शारीरोंको उत्कृष्टस्थिति बतलाते हैं। । भोगभूमियोंको अपेक्षा औदारिकोंको बन्धरूप उत्कृष्टस्पिति तीन पल्य है। देव, नारकियोंको अपेक्षा वैक्रियिकको | तेतीस सागर है। आहारकको अन्तर्मुहर्त है। तेजस शरीरको छयासठ सागर है। कार्माण शरीरको उत्कृष्टस्थिति सामान्य रीतिसे सत्तर कोडाकोगे सागर है तथा विशेष रीतिसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तरायकी तीस कोडाकोडी सागर है नामगोत्रको बोस कोडाकोडी सागर है । सो हो गोम्मटसारमें लिखा है पल्लतियं उवहीणे तेत्तीसंतोमुत्त उवहीणं । छावट्ठि कम्मट्ठिदि बंधुकस्सहिदी ताणं ॥ २५२ ।। १२२-चर्चा एकसौ बाईसवीं प्रश्न-वेवोंकी जो देवांगनायें होती है उनकी उत्कृष्ट व जघन्य संख्या कितनी है ? समाधान--वांगनाओंको जघन्य संख्या बत्तीस है। अर्थात् किसी भी देवके इससे कम देवांगनायें नहीं होती तथा इन्द्र के इससे असंख्यातगुणी बेवांगनायें होती हैं। सो ही गोम्मटसारके वेदमार्गणाषिकारमें लिखा है Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर १३६ 1 इगपुरिसे बत्तीसं देवी तज्जोगभजिददेवोधे। सगगुणगारेण गुणे पुरुसा महिला य देवेसु ॥ २७८ ॥ १२३-चर्चा एकसौ तेईसवीं प्रश्न-नरकगतिमें तथा देवगतिमें क्रोधादिक कषायोंके उदयकालकी जधन्य और उत्कृष्ट स्थिति कितनी है ? समाधान-नरकके जीवोंके तथा देवोंके कषायकी जघन्य उत्कृष्टस्थिति एक अन्तर्महर्त है। भावार्थ। अन्तर्मुहर्तके बहुत भेद हैं इसलिए जघन्य और उत्कृष्टस्थिति दोनों ही अन्तर्मुहूर्तमें शामिल हैं। उनकी कषायें । । इससे अधिक नहीं ठहर सकतीं। इसका भी विशेष वर्णन इस प्रकार है । नरकके जीवोंके जो लोभ कषाय है उसका उदयकाल सबसे कम है। उसे लोभके उदयकालसे उनको मायाका उदयकाल संख्यातगुणा है। मायासे मानका उदयकाल संख्यातगुणा है और मानसे क्रोधका उदयकाल संख्यातगुणा है । तथा देवोंके क्रोधका उदयकाल सबसे कम है। क्रोधसे मानका उदयकाल संख्यातगुणा है । मानसे मायाका उदयकाल संख्यातगुणा है और मायासे लोभका उदयकाल संख्यातगुणा है तथा नरकगतिके लोभका और देवगतिके क्रोधका काल भी अन्तर्मुहूर्त है और नरकगतिके क्रोष तथा देवतिके लोभका काल भी अन्तर्मुहर्त है। जघन्य और उत्कृष्टपना समयको हानि वृद्धिसे है परन्तु दोनोंका काल हे अन्तर्मुहुः । सो ही गोम्मटसारके कषाय मार्गणाधिकारमें लिखा है-- पुह पुह कसायकालो णिरये अंतोमुत्तपरिमाणो । लोहादी संखगुणो देवेसु य कोहपहुदीदो ॥ २६६ ॥ इसके आगे मनुष्य तिर्यञ्चोंके कषायोंका वर्णन है सो विशेष यहाँसे जान लेना । १२४-चर्चा एकसौ चोवीसवीं प्रश्न-शास्त्रों में सात प्रकारके संयम बतलाये हैं उनमें से परिहारविशुद्धि संयमीको निरुक्ति, उत्पत्ति, स्थिति और इसको धारण करनेवालेको प्रवृत्तिका स्वरूप क्या है ? १३४ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्चासागर - १३७ ] समाधान-इसकी निरुक्ति अथवा प्रत्येक शब्दके अर्थसे निकलनेवाला अर्थ इस प्रकार है। जो छठे । गुणस्थानमें रहनेवाले साधुके सामायिक छेदोपस्थापनापूर्वक परिहार अर्थात छहों कायके जीवोंको हिंसाका त्याग करनेसे विशुद्धि अर्थात् अत्यन्त निर्मलता-आत्माको निर्मलता हो गई है उस निर्मलताके साथ-साय सम् अर्थात् अच्छी तरह यम अर्थात् अपनी आयु पर्यंत समस्त पापोंका त्याग कर देना सो परिहारविशुद्धि संयम है। तथा इसको उत्पत्ति इस प्रकार होती है। जो मनुष्य जन्मसे लेकर भोजन पान आदिसे सदा मुखो रहा हो, । कमसे कम तीस वर्षको आयुमें दीक्षा लेवे, सामायिक आदि संयमके साथ-साय कमसे कम आठ वर्ष पर्यंत तीर्थकर भगवान्के चरणकमलोंके निकट रहकर आचारांगको आवि लेकर प्रत्यारपान नामके नौवें पूर्व तक। पाठी हो जाय ऐसे महामुनिके परिहारविशुद्धि नामका संयम उत्पन्न होता है। इस संयमको धारण करनेवाले साधुको प्रवृत्ति इस प्रकार है । प्रातःकाल, नाममात्रकाल और सामान तीनों सामायिकके समयोंको छोड़कर बाकी के समयमें कमसे कम दो कोस विहार करता है । रात्रिमें बिहार नहीं करता तथा जिसके वर्षाकालमें ! एक जगह चौमासा करनेका नियम भी नहीं रहता। एक जगह चौमासा करे भी और न भी करे । अब आगे। इसको स्थिति बतलाते हैं। इसको जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त है। अंतर्मुहूर्त बाद गुणस्थान बदल सकता है। तथा उत्कृष्ट स्थिति अड़तीस वर्ष कम एक करोड़ पूर्व है जिस मनुष्यको एक करोड़ पूर्वकी आयु है, वह यदि तीस वर्षको आयुमें दीक्षा ले लेवे और फिर आठ वर्ष तक तीर्थकरके निकट रहकर पहले अंगसे लेकर ग्यारह अंग नौ पूर्व तक अभ्यास करे और फिर उसके परिहारविशुद्धिसंयम उत्पन्न हो ऐसो अवस्थामें वह संयम अड़। तीस वर्ष कम एक करोड़ पूर्व तक रह सकता है। प्रश्न---वर्षाकालमें सामान्य साषु भी गमन नहीं करते फिर भला परिहारविशुद्धिसंयमको धारण करनेवाला साषु किस प्रकार गमन करता है। यदि वाह वर्षाकालमै भी गमन करता है तो फिर उसके परिहारविशुद्धि अर्थात् हिंसाका त्याग पूर्वक आत्माको विशुद्धि किस प्रकार बन सकती है ? समाधान--जिस प्रकार कमलके पत्ते जलमें रहते हुए भी जलसे अलिप्त रहते हैं उसी प्रकार जिस मुनिराजके परिहारविशुद्धिसंयमको ऋद्धि प्राप्त हो गई है वे यदि छहों कायके जीवोंके समूहमें भी गमन करें तो भी वे पापोंसे लिप्त नहीं होते हैं । १८ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावार्थ-उस ऋद्धिका ऐसा ही माहात्म्य है कि जिसके होते तये जलमें, स्थलमें, अग्निमें, वृक्षोंपर, ! । फलोंपर, पत्रोंपर, पुष्पोंपर वा तन्तुओं पर कहीं पर गमन करें परन्तु उनके शरोरसे किसी भी सूक्ष्म वा स्थूल चासागर जीवको किसी प्रकारको बाषा नहीं होती है। लिखो भी है११३८ । परिहारद्धिसमेतः जीवः षट्कायसंकुले विहरन् । पयसेव पद्मपत्रं न लिप्यते पापनिवहेन ॥ यही वर्णन श्रीगोमट्टसारके संयम मार्गणा अधिकार में लिखा है। । तीसं वासो जम्मेवासपुंधत्तं खुतित्थयरमूले। पञ्चक्खाणं पढिदो संझूणदुगाउयविहारो॥४७३ ।। १२५-चर्चा एकसौ पच्चीसवीं प्रश्न-इन्द्रियों के विषय कहीं सेईस कहे हैं और कहीं सत्ताईस कहे हैं सो इनमें विशेषता क्या है ? | समाषान-पाँचों इम्नियोंके तथा मनके विषय सब मिलकर अट्ठाईस हैं । तेईस तो सामान्य हैं और ॥ । सत्ताईस वा अट्ठाईस विशेष हैं। वे भेद इस प्रकार हैं। खट्टा, मोठा, कषायला, कड़वा और तीक्ष्ण वा घर स रसना इन्द्रियों के विषय है। इन पांचों विषयोंको यह जीव रसना इन्द्रियोंके द्वारा जानता है। सफेव, पीला, हरा, लाल, काला ये पांच वर्ण नेत्र इन्द्रियके विषय हैं । सुगंध और घुगंध ये वो गंध नासिका इंद्रियके विषय हैं । हलका, भारी, नरम, कठोर, ठंडा, गरम, रूखा, चिकना, ये आठ स्पर्श स्पर्शन इन्द्रियके । विषय हैं तथा सचेतन, अचेतन, मिश्र ये तीन प्रकारके शब्द श्रोत्र वा कर्ण इंद्रियके विषय है। तथा इन्हीं शब्दोंके स्वरोंकी अपेक्षा सात भेव होते हैं। निषाद, ऋषभ, गांधार, षडज, मध्यम, धैवत, पंचम । यदि तीन स्वरों, के बदले ये सात मिला दिये जाय तो तेईसके बदले सत्ताईस भेव हो जाते हैं। इनमें अनेक विकल्प करनेरूप मनका विषय मिला वेनेसे सैनी पंधेंद्रियके सब अट्ठाईस विषय हो जाते हैं। सो ही गोम्मटसारमें संयम मार्गणाविकारमें लिखा है-- पंचरसपंचवण्णा दो गंधा अटफाससत्तसरा । मणसहिदट्ठावीसा इंदियविसया मुणेदव्वा ॥ ४७६ ॥ GHODERARTHATREATM Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यासागर [ १३९] १२६-चर्चा एकसौ छब्बीसवीं प्रश्न-नारको जीवोंके शरीरका वर्ण एकसा है अथवा जुरे-जुवे रंगका है ? समाधान- तारको जीवोंका शरीर क्रिपिक है और उनका सबका वर्ण कृष्ण वर्ण वा काला है। सोही गोम्मटसारके लेश्याधिकारमें लिखा है गिरया किण्हा कप्पा, भावाणगया दुतिसुरणरतिरिये । उत्तरदेहे छक्क, भोगे रविचंदहरियंगा ॥१६॥ १२७-चर्चा एकसौ सत्ताईसवीं प्रश्न-पृथ्वोकायिक आदि समस्त सूक्ष्म जीवों के शरीरका वर्ण कौनसा है ? समाधान-समस्त सूक्ष्म जीवोंका शरोर कापोत रंगके ( कबूतरके रंगके ) समान है। सो ही गोम्मट। सारके लेश्याधिकारमें लिखा है सम्वेसि सुहमाणं कावोदा, सव्व विग्गहे सुक्का । सव्वो मिस्सो देहो, कवोदवण्णो हवे णियमा ॥ ४९८ ॥ १२८-चर्चा एकसौ अट्ठाईसवीं प्रश्न--विग्रहगतिमें रहनेवाले अनाहारक जीवके कार्मण योगके शरीरका वर्ष कोनसा है ? समाधान-विग्रहगतिके समयमें समस्त जीव शुक्ल शरीर धारण करते हैं । भावार्य-कार्माग शरीरका वर्ण शुक्ल है । सो हो गोम्मटसारमै लेण्याधिकारमें लिखा है सव्व विग्गहे मुक्का १२९-चर्चा एकसौ उनतीसवीं प्रश्न-मिश्रयोगवाले जीवके शरीरका वर्ण कोनसा है ? समाषान--मिश्रयोगवालेके शरीरका वर्ण कपोत वर्ण है। भावार्थ-अपनी-अपनी पर्याप्तिके प्रारम्भ प्रथम समयसे लेकर जब तक शरीर पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती तबतक अपर्याप्तक अवस्था कहलाती है। उस अपर्याप्तक अवस्था शरीरका धर्ण नियमसे कपोत वर्णका होता है। सो ही गोम्मटसारमें लिखा है Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [१४०] सवो मिस्सो देहो, कवोदवण्णो हवे णियमा। १३०-चर्चा एकसौ तीसवों प्रश्न-कृष्ण आवि छहों लेश्यावालोंके लक्षण क्या-क्या है ? समाधान- जिसके अत्यन्त तीन वा भयानक क्रोध हो, जो वैरभावको कभी न छोड़े, परस्पर लड़ाई करने वा युद्ध करनेका जिमका स्वभाव हो, जो बयाधर्मसे सर्वथा रहित हो, हिंसाधर्मको माननेवाला हो, वुष्ट हो, जो किसी भी गुरुजन वा महापुरुषों के वश न हो, अथवा गुरु आदि महापुरुषोंको आज्ञाके बाह्य हो, 1 गुरुजनोंको आज्ञाको न मानता हो । भावार्थ-निगुरा हो, स्वच्छन्द हो, दीक्षा-शिक्षाका लोप करनेवाला और मनोमति ( मनसे धर्मको अनेक मिथ्या कल्पनाएं करनेवाला ) हो, उन्मत्त हो, यथार्य क्रियाओंके करनेमें। अत्यन्त मंद हो, होनाचारी हो, बुद्धिरहित हो, वर्तमान समयके कार्योंको भी जाननेवाला न हो, जो विज्ञान पांडित्य वा चतुरतासे सर्थपा रहित हो, स्पर्शन आदि समस्त इन्द्रियोंके समस्त विषयों के भोगोपभोगोंमें अत्यन्त लंपटो हो, जो अभिमानी हो, कपटो हो, कुटिल हो, क्रिया करनेमें कुठित वा मैद हो, जिसके अभिप्रायको । कोई दूसरा न जान सके, जो अत्यन्त आलसी हो, इस प्रकार जिसके लक्षण हों, उसे कृष्णलेश्यावाला सम झना चाहिये। जिसको नींद अधिक आवे, दूसरोंको ठगनेका जिसका स्वभाव हो तया धन-धान्य आदि पदार्थोमें जिसको अत्यन्त तीव्र इच्छा वा लालसा हो उसको नोललेश्यावाला समझना चाहिये। जो दूसरों पर सदा क्रोध करता रहे, अनेक प्रकारसे दूसरोंको पोड़ा देता रहे, जो अत्यन्त शोक वा भय करनेवाला हो, दूसरेके धन-धान्य ऐश्वर्य आविको न देख सके, जो दूसरेका अपमान करता रहे, सदा अपनी प्रशंसा ही करता रहे, दूसरोंको अपने समान पापी, कपटी, मानी समझता हुआ किसीका विश्वास न करे, जो दूसरोंकी हानि-वृद्धिको कुछ न समझे, जो युद्ध में मरना चाहे, जो अपनी प्रशंसा करनेवालोंको बहुतसा यन थेवे और जो कार्यअकार्यको कुछ न गिने उसे कापोतलेश्यावाला समझता चाहिये। जो कार्य-अकार्यको जाने, सेवन करने योग्य और न सेवन करने योग्यको समझे, सबको समान देखे, जो दयाल परुषोंपर प्रेम करे, जो मनसे बचनसे. कायसे सब तरहसे कोमल हो, उसे पोतलेश्यावाला समझना चाहिये। जो पापोंका त्यागी हो, भद्रपरिणामो । हो, उसम-उत्तम कार्य करनेरूप ही जिसका स्वभाव हो, शुभकार्योंके लिए उद्योग करमा हो जिसका कर्तव्य हो, । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर १४१ ] अ जो अरिष्ट ( अशुभ कर्मोंका उदय ) अथवा उपद्रयोंके दुखोंको सहन करने में दृढ़ हो, मुनियोंकी वा गुरुजनोंकी पूजादिक करने में प्रेम रखता उसे पच लेश्याधाला समझना चाहिये। जो एकांतका पक्षपाती न हो, दूसरेकी निन्दा करनेवाला न हो, समस्त जीवों में समानभाव रखता हो, इष्ट वा अनिष्ट पदार्थोंमें किसी प्रकारका राग था द्वेष न रखता हो, पुत्र, स्त्री आदि कुटुम्बियों में भी स्नेह न रखता हो, उसे शुक्ललेश्यावाला समझना चाहिये। इस प्रकार छहों लेइया वालोंके लक्षण गोम्मटसारके लेइया नामको मार्गणाके अधिकारमें लिखे हैं । चंडो ण मुचइ वेरं भंडणसीलो य धम्मदयरहिओ । दुट्टो ण य एदि वसं लक्खणमेयं तु किण्हस्स ॥ ५०६ ॥ मंद बुद्धिविणो विण्णाणी य विसयलोलो य । माणी मायी य तहा आलस्सो चेव भेज्जो य ।। ५१० ॥ दिचणबलो घणघणे होदि तिव्वण्णा य । लक्खणमेयं भणियं समासदो नीललेसस्स ॥ ५११ ॥ रूसइ दिइ अण्णे दूसइ बहुसो य सोयभयबहुलो । असुयइ परिभवइ परं पसंसये अप्पर्य बहुसो ॥ ५१२ ॥ णय पत्तियइ परं सो अप्पाणं यि वि परं पि मण्णंतो । थूसइ अभिस्थुवंतो ण य जाणइ हाणिवडिंड वा ॥ ५१३ ॥ मरणं एत्थेइ रणे देइ सुबहुगं पि थुव्वमाणो दु । ण गणइ कजाकज्जं लक्खणमेयं तु काउस्स ॥ ५१४ ॥ जाणइ कज्जाक सेयम सेयं च सव्वसमपासी । दयदारदो य मिदू लक्खणमेयं तु तेउस्स ॥ ५१५ ।। [ १४ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्धासागर [१२] ता-TAMATTARAमरम्परागत चागी भद्दो चोक्खो उज्जुवकम्मो य खमदि बहुगं पि। साहुगुरुपूजणरदो लक्खणमेयं तु पम्मस्स ॥ ५१६ ॥ णय कुणइ पाखवायंणवि वाणिदाणं समोय सव्वेसिं। पत्थि य रायबोसा हो वि य सुक्कलेसस्स ॥ ५१७ ॥ १३१-चर्चा एकसौ इकतीसवीं प्रश्न--चारों ही गतिवाले जीवोंके वर्तमानको अपनी आयुमें अन्य गतिका आयुबंध किस-किस कालमें होता है और किस-किस गतिकी आयुका बंध होता है। समाधान--देवगति और नरकगतिके जीवोंकी आयु जब अधिक से अधिक छह महीनेकी रह जातो है तब वे मनुष्य अथवा तिर्यमा लागुका बंध करते हैं। भावार्थ-देनोंकी आयु जब छह महीनेकी रह जाती है तब वे सम्यक्रव वा मिथ्यात्वके उवयसे होनेवाले अपने-अपने परिणामोंसे पृथ्वीकायिक, जलकायिक, वनस्पतिकायिक, मनुष्य और पशु इन पाँच प्रकारको गतियोंमेंसे किसी भी एक गतिके लिए आयुबंध कर लेते हैं। इसी प्रकार नारकी जीव मनष्य अथवा तिर्यचतिको आयका बंध करते हैं। सातवीं पच्चीके नारको जीव तियंचगतिका हो आय बंध करते हैं। सातवें नरकके जीरमनुष्य आयका बम्ध नहीं करते । मनष्य तथा तिबंध | पतिवाले जीव जब अपनी वर्तमान आयका तीसरा भाग रह जाता है तब वे अपने-अपने भावोंके अनुसार चारों ही गतियोंमेसे किसी एक गतिका आयु बंध कर सकते हैं। भोगभूमियोंके मनुष्य, तिर्यच भी अपनी माय छहमहोने बाकी रहने पर देवगतिका हो आयु बंध करते हैं। एकेंद्रिय, वोइंद्रिय, तेइंत्रिय, चौइंद्रिय जीव मनुष्य वा तिर्यचगतिको आयुका बंध करते हैं। इनमें भी तेजस्काय और वायुकायके एफेंद्रिय जीव तिबंध भायुका हो। बंध करते हैं । ये दोनों ही प्रकारके एफेंद्रिय जीव मनुष्यगतिकी आयुफा बंध नहीं कर सकते । ऐसा श्रीगोम्मटसारके कर्मकांडाधिकारमें लिखा है । १. यहाँपर इतना विशेष और समझ लेना चाहिये कि आयुबंध आयुके विभागो पड़ता है। और के त्रिभाम अधिकसे अधिक आठ लिये जाते हैं। जैसे किसी मनुष्यकी आयु ८१ इक्यासी वर्षकी है। वह अपनी आयुका एक त्रिभाग बाको रहनेपर अर्थाद दो। भाग वा ५४ चौमन वर्ष बीत जाने पर आनेके लिये आयुबंध करेगा। यदि कारणवश इस समय आयु बंधन कर सका तो Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर सुरणिरया पारनिरियं छम्मासवसिद्धिगे सगाउस्स । णरतिरया सव्वाउं तिभागसेसम्मि उक्कस्सं ॥८६ ।। भोगभुमा देवाउं छम्मासवसिट्ठगे य बंधति । इगिविगला गरतिरयं तेउद्गा सत्तगा तिरियं ॥८७॥ ___ १३२-चर्चा एकसौ बत्तीसवीं प्रश्न--पोशकारण, वशलाक्षणिक, रत्नत्रय तया पंचमी आदि अनेक प्रकारके व्रत जैनशास्त्रोंमें। बतलाये हैं। तथा उन व्रतोंको विधिपूर्वक पूर्ण कर लेनेपर प्रतिष्ठापूर्वक उद्यापन करनेकी आज्ञा व्रतकथाकोश आदि अनेक शास्त्रोंमें बतलाई है। परन्तु यदि किसी पुरुषसे उसके उद्यापनको विधि प्रतिष्ठापूर्वक न बन सके। तो यह उन बोको किस प्रकार कर सकता है ? समाधान-यदि उद्यापन करनेमें जिनप्रतिष्ठा न बन सके तो उसके अभाव में शांतिक कार्य करना चाहिये । अर्थात् शांतिचक्रका पाठ कर अभिषेकपूर्वक उस व्रतके उद्यापनकी विधि करनी चाहिये ऐसा मार्ग है । यही बात अनंतव्रतको उद्यापनको विधि अनंतवतको कथामें आचार्य पपनंदिने लिखी है। ___ अभावे तु प्रतिष्ठायाः शांतिक कार्यमंजसा।। तथा जिस पुरुषकी इतनी भी शक्ति न हो अर्थात् वह न तो शांतिक कर्म कर सके और न उद्यापनकी विधि हो कर सके तो उसे अपने व्रत विधिपूर्वक दूने समय तक करना चाहिये । जैसे सोलह कारण सोलह बाकीके जो सत्ताईस वर्ष रहे हैं उनके त्रिभागमें अर्थात् ९ वर्षको आय शेष रहनेपर ७२ वर्ष खोत जानेपर आयुका बंध करेगा। यदि यहाँ भी न कर सका तो उस बाफोके भी विभाग में अर्थात् तीन वर्ष आयु शेष रहनेपर परमतिके लिये आयुबंध करेगा। यदि वहाँ भी न कर सका तो एक वर्ष आयु शेष रहने पर आयु बंध करेगा। यदि यहाँ भी न हुआ तो चार महीने बा १२० दिन शेष रहने पर आयुबन्ध करेगा। यदि यहाँ भी न हुआ तो ४० दिन शेष रहनेपर, यदि वहाँ भी न हुआ तो इसका एक तिहाई १३-१ दिन आयु बाकी रहने पर आयुबंध करेगा। यदि यहाँ भो न हो सका तो इसको तिहाई ४-३ दिन बाको रहनेपर आयुबंध करेगा। इस प्रकार आठ विभागों में आयुबंध होता है यदि इन विभागोंमें बंध नहीं हुआ तो अन्तके अन्तर्मुहूर्त में होता है। देव, नारकी और भोगभूमियों के लिये अंतके छह महीने में इसी प्रकार साठविभाग कर लेने चाहिये। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासागर Pata-REPARA -METRIPAIRPATTRAgreapmaAAT-Rs वर्ष तक किये जाते हैं सो उसे बत्तीस वर्ष तक करना चाहिये । पोछे अपनी शक्तिके अनुसार पूजनाविक विधान कर व्रतोंका विसर्जन करे । सो हो अनंतवतको कथामें लिखा है अभावे तु प्रतिष्ठायाः शांतिक कार्यमंजसा । तस्याप्यभावे कर्तरं द्विगुण राहिलामका । । यही बात श्रीवसुनंदि सिद्धांतचक्रवर्ती विरचित श्रावकाचारमें फायक्लेशाधिकार में लिखी है। उज्जवण विहिणंतरइ काउजइ कोवि अस्थपरिहीणो।। तो विगुणं कायवा उवासविहाणपयत्तेण ॥३६०॥ इसको टोकामें लिखा है उद्यापनविधि न समर्थः कर्तुं यदि कोपि अर्थहीनः । तर्हि द्विगुणं कर्तव्यं उपवासादि विधानकं प्रयत्नेन ।। अर्थात् यदि कोई धनहीन हो और व्रतोंके उद्यापनको विधिको न करे तो उसे उपवास मावि संपूर्ण #विधान प्रयत्नपूर्वक दूने करने चाहिये ऐसा शास्त्रों में लिखा है सो देख लेना। यदि जिनप्रतिष्ठापूर्वक उद्यापन । करनेको शक्ति न हो तो उन व्रतोंसे अरुचि नहीं करनी चाहिये । अपनी शक्तिके अनुसार तपको बढ़ाने के लिये अपने अनेक व्रतोंको विधिपूर्वक दूर कर लेने चाहिये। इन व्रतोंका अलग-अलग फल व्रतकथाकोश आवि अनेक शास्त्रों में लिखा है वहांसे जान लेना चाहिये । तपके भेदोंमें अनेक व्रत हैं सो कोको निर्जराके लिये हैं इसलिये इनसे अरुचि नहीं करनी चाहिये । सो ही मोक्षशास्त्रमें लिखा है-- तपसा निर्जरा च । --अध्याय ९ सूत्र सं० ३ । अर्थात् तपसे संबर भी होता है और कोको निर्जरा भी होती है। १३३-चर्चा एकसौ तेतीसवीं प्रश्न-ऊपर लिखे हुए व्रतों से कोई मनुष्य कुछ व्रत ले लेवे और कुछ दिन तक उनका पालन करे Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यासागर [ १४५ ] माTERTAIनIRALINE फिर अशुभकर्मके उवयसे किसी कारणको पाकर व्रत गल आय छूट जाय तो उसका क्या प्रायश्चित्त है और दुबारा उसको पालन करनेको विधि क्या है ? समाधान-जो कोई बती पुरुष विधिपूर्वक व्रत ले लेवे और फिर रोग, शोक या अन्य किसी कारणसे तको मर्यादामें एक-दो आदि कुछ उपवास बाफी रह जाय तथा ऐसी हालतमें यह व्रत छूट जाय, भ्रष्ट हो जाय तो फिर उस प्रतीको चाहिये कि वह फिर प्रारम्भसे उस व्रतको करे अर्थात् उस व्रतके लिये जो पहले व्रत, उपवास किये थे वे सबवत भंगके पापको निवृत्ति के लिये प्रायश्चित्तमें चले गये अब फिर उसे प्रारम्भसे ही प्रत धारण करना चाहिये । ऐसा अनुक्रम है सो ही वसुनंविश्रावकाचारमें लिखा है-- जइ अंतरम्मिकारणवसेण एको व दोव उववासो। गक ततो खूलाओ घुमो वि सा होइ कायबो ॥ २६१ ॥ इसकी टोका इस प्रकार है-- यद्यन्तरकाले कारणवशेन कोपि वा द्वयोपवासाः। न कृताः तहिं मूलात् पुनरपि सा विधिर्भवति तत्कर्तव्या॥ अर्थात् यदि बीचमें किसी कारणसे एक वा दो उपवास न किये हों तो प्रारम्भसे ही उसकी विधि करनी चाहिये । यदि वह ऐसा न करे तो उसे महापापी समझना चाहिये । प्रश्न-वत भंग करनेसे महापाप लिखा है सो वह कौन सा महापाप लगता है ? समाधान—जो कोई जीव अपने गुरुसे यम वा नियमरूप कोई व्रत ले लेखे और फिर चारित्रमोहनीय कर्मके उदयसे उस प्रतको भंग कर देवे यह पुरुष एक हजार जिन मंदिरों के भंग करनेके समान पापका भागो होता है। इसके समान और कोई पाप नहीं है। इसीलिपे उसको महापापी कहते हैं । सो ही श्रीश्रुतसागरप्रणीत व्रतकथाकोशमें सप्त परमस्थान व्रतको कथा कहते समय लिखा है गुरून् प्रतिभुवः कृत्वा भवत्येकं धृतं व्रतम् । सहस्रकुटजैनेंद्रसद्मभंगाघभागलम् ।। इसलिये व्रत भंग करनेका प्रायश्चित्त अवश्य लेना चाहिए । s treamPAPSPSIPAHESTERNPranaya MARRESPOHam १९ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चासागर [ १४६ ] १३४-चर्चा एकसो चौंतीसवीं प्रश्न-भगवानको पूजा निक्षेप विधियों से किस प्रकारको जाती है। समाधान--भव्य जीव अपने-अपने समय पर विधिपूर्वक येव, शास्त्र, गुरु आदिको पूजा छह निक्षेपोंसे करते हैं आगे उन्हीं को दिखलाते है। नाम पूजा, स्थापना पूजा, द्रव्य पूजा, क्षेत्र पूजा, काल पूजा, भाव पूजा, है। इन छह निक्षेपोस पूजा करने का विधान श्रीधसुनंदिश्रावकाचारमें लिखा है-- णामट्ठवणा दट्वे खित्ते काले वियाण भावे य। छव्विह पूया भणिया समासदो जिणवरिंदेहिं ॥ ३८२ ॥ ___ आगे इनका स्वरूप विस्तारपूर्वक बतलाते हैं । जो पुरुष अरहंत आदि पूज्य परमेष्ठियोंका नाम लेकर किसी पवित्र क्षेत्रमें पुष्पादि द्रव्योंको चढ़ाता है वह नाम पूजा कहलाती है। भावार्थ-जिसका नाम लेकर । पुष्प चढ़ाये उसकी नामपूजा की ऐसा समझना चाहिये । सो ही लिखा है-- उच्चार कुणइ णामं अरुहाईणं विसुद्धदेसम्मि । पुफ्फाणि जं खिविज्जंति वणिया णामपूया सा ।। इस प्रकार नाम पूजाका स्वरूप है। दूसरी स्थापना पूजा है उसके दो भेद हैं, पहला भेव सद्भाव अथवा तवाकार अथवा साकारके नामसे कहा जाता है और दूसरा भेद असभाव अथवा अतदाकार नामसे , । पुकारा जाता है। इस प्रकार दो भेद हैं । तोना, चाँदी आदि धातुओंके अथवा पाषाण आदिके बने हुए साकार। वाले ( उसी शाकारके ) पदार्थमें उसके गुणोंका आरोपण करना तदाकार स्थापना है। जैसे अरहंत देवकी प्रतिमा बनाकर उसमें शास्त्रोक्त पंच कल्याणक विधिसे प्रतिष्ठा कर विधिपूर्वक अरहंत देवके गुणोंका पण करना और फिर उस प्रतिमाको अरहंत मानकर पूजना सो तदाकार वा साकार अथवा सद्भाव स्थापना पूजा है । सो ही लिखा है सब्भावासबभावा दुविहा ठवणा जिणेहि पण्णत्ता। सायारवंत वत्थुमि जं गुणारोवणं पढमा ॥३८४॥ ANPATHISTARDASTRATPATRANAMSTEPSARASHMSRemgease Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अक्षत मावि द्रव्योंमें "ये अरहंत परमेष्ठी हैं अथवा सिद्ध परमेष्ठी है" इस प्रकार मंत्रपूर्वक त्यापमा ! करना वा “आह्वान सिष्ठ ठः ठः स्थापनं मम सलिहितो भव भव वषट, इत्यादि मंत्रोंसे अक्षत वा पुष्पोंमें। सागर । स्थापना करना और उसकी अष्ट द्रव्योंसे पूजा करना सो असद्भाव अथवा अतदाकार स्थापना निक्षेप है। सो १४७ ही लिखा है अक्खय वराउ ओव्वा अमुगोए सुत्तिणय बुद्धीए । सकप्पउणवयणं एस विणेया असभावा ॥ ३८५ ॥ इस प्रकार सद्भाव और असद्भावके भेदसे स्थापना पूजा दो प्रकार है। यहाँपर कुछ लोग ऐसा भी। कहते हैं कि जो तीर्थङ्कर केवली भगवान् साक्षात् समवशरणमें विराजमान हैं उनकी पूजा करना सो तथाकार। पूना है । तथा उनकी प्रतिमाको पूजा करना अतदाकार पूजा है क्योंकि तीर्थङ्करको प्रतिमामें यथोक्त रीति न नहीं होता । भावारीएको धाई, शरीरमा नर्ग, सर्पके फणा अथवा सर्पके स्कन्धका सम्बन्ध होता, कर्ण तथा और भी अनेक प्रकारके चित्र प्रतिमा तीर्थकरके स्वरूपसे विपरीत रूप दिखाई पड़ते हैं। इसलिए । प्रतिमा तदाफार नहीं है किन्तु अतवाकार है । और इनकी पूजा भी अतदाकार पूजा है। ऐसा कहते हैं सो यह सब शास्त्र विरुद्ध है । इस प्रकार दो प्रकारको स्थापना पूजा बतलाई । जो अरहन्त भगवान् केवलज्ञानसे सुशोभित समवशरणमें विराजमान हैं उनकी जल-फल आदि आठों । A RATचायानाला -AEPRISESAMELHI पूजामें आह्वान, स्थापना, सन्निधिकरण किया जाता है. वह स्थापना निक्षेप नहीं है क्योंकि स्थापना निक्षेप "यह वही है" ऐसा संकल्प किया जाता है परन्तु आह्वान, स्थापना और सन्निधिकरणमें "यह वही है" ऐसा सल्ल नहीं होता, किन्तु वहा तो एक आदर सत्कारको विशेष रीति है । यदि यह विधि न की जाय तो पूजामें कमी समझी जाती है। इसीलिए साहान, स्थापन आदिको पूजाके अङ्गों में बतलाया है। पूजाके पांच अङ्ग बतलाये हैं--आह्वान, स्थापन, सन्निधिकरण, पूजा और विसजन । पूजा अभिषेक पूर्वक होती है इसलिये अभिषेकको मिलाकर पूजाके छ: अंग हो जाते हैं। ये सब भेद श्रीयशस्तिलकचम्पूमें लिखे हैं। असल में तदाकार प्रतिमाकी पूजा करना तदाकार स्थापना है और शतरंजमें हाथी, घोड़ाकी कल्पना कर गोट बनाना अथवा क्षेत्रपालादिकको अतदाकार मूर्ति बनाना अतदाकार स्थापना है। २. ऊपर जो स्थापनाके भेद बतलाये हैं उससे भी यह कथन शास्त्रविरुद्ध सिद्ध होता है। -III-AS nama 8 [१७ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर १४८ ] , द्रव्यों से पूजा करना सो द्वन्यपूजा है। इसका अभिप्राय यह है कि जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये । छः द्रव्य हैं इन सबमें सारभूत द्रव्य परमात्म द्रव्य है उस परमात्माकी अष्टद्रव्यसे पूजा करना द्रव्यपूजा है। सो हो लिखा है दवेण य दव्वस्स य जा पूया जाण दवपूजा सा। दव्वेण गंधसलिलाइपुव्वभणियेण कायव्वा ॥ ४४६॥ - यदि इस द्रव्यपूजाका विशेष वर्णन किया जाय तो इसके तीन भेद हैं--सचित्त द्रव्यपूजा, अचित्त द्रव्यपूजा और मिश्रद्रग्यपूजा । साक्षात् जिनेन्द्रदेवको अयना साक्षात् आचार्य, उपाध्याय का साधुओंको जल, गन्ध आदि आठों ब्रव्योंसे यथायोग्यरोतिसे पूजा करना सो सचित्त द्रव्यपूजा है । अर्थात् चैतन्य गुणविशिष्ट परमेष्ठीको पूजा करना सचित्त द्रव्यपूजा है । सो हो लिखा है-- तिविहा दब्बे पूया सञ्चित्ताच्चित्तमिस्सभेयेण। पच्चक्खजिणाईणं सचित्तपूया जहाजोगं ॥ ४५०॥ तथा उन तीर्थरोंके मोक्ष हो जाने बाद वा आचार्य, उपाध्याय, साधुओंके मोक्ष हुए बाद उनके शरीर-1 में की पूजा करना अथवा उनके वचनोंको शास्त्रोंकी जल, गन्धादिकसे पूजा करना सो अचित्त द्रव्यपूजा है । । क्योंकि वह शरीर अथवा बचन चेतना रहित है। इसी प्रकार शास्त्रसहित गुरुकी पूजा करना सो सचित्तअचित्त मिली हुई मित्र द्रव्यपूजा है। इसमें शास्त्र तो अचित्त है और साक्षात् गुरु सचित्त हैं। इन दोनोंकी समुच्चयपूजा करना मिश्रपूजा है । सो ही लिखा है तेसिं च सरीराणां दव्वसुदस्सवि अचित्त सा पूया । जा पुण दोण्ह इ कीरइ णायव्वा मिस्स पूया सा ॥ ४५१ ॥ इस प्रकार द्रव्यपूजा तीन प्रकार है। जहाँपर तीर्थङ्करोंक जन्म, तप, ज्ञान, निर्वाण आदि कल्याणक हुए हैं वहां जाकर उस भूमिको जल, गन्धादिकसे पूजा करना सो क्षेत्रपूजा है । भावार्थ-अयोध्या, बनारस आवि नगरों में जहां-जहाँ श्रीवृषभादि वोर FACatanAnalRSatavaHamar [१४८ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । पर्यन्त चौबीसों तीर्थहरोंने जन्म लिया है, जिन-जिन तपोवनोंमें बीक्षा धारण को है, जहाँ-जहाँ केवलज्ञान 1 उत्पन्न हआ है तथा कैलाश. सम्मेदशिखर. गिरनार. चम्पापुर, पावापुर आवि जिन-जिन स्थानोंसे मोक्ष प्राप्त ॥ चर्चासागर किया है, उन-उन स्थानोंमें वा क्षेत्रों में जाकर उनको जल, गन्धादिकसे पूजा करना सो क्षेत्रपूजा है । सो हो । R! लिखा है जिण जम्मण णिक्खवण णाणपत्ती य मोक्ख संपत्ति । णिसि ही सुखेत्तपूया पुवविहाणेण कायवा ॥ ४५३ ॥ चौबीस तीर्थरोंके गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, मोक्ष, कल्याणक जिन-जिन महीनों में जिन-जिन पलोंमें व जिन-जिन दिनोंमें हुए हैं, उन्हीं दिनोंमें ऊपर लिखी विधिपूर्वक जल, गन्ध आउिसे पूजा प्रभावना करना तथा । उसी कालमें इनुरस, वी, दूध, दही और सुमन्धित जसो भरे हुए अनेक प्रकारके पवित्र कलशोंसे भगवान् अरहन्तदेवको मूर्तिका अभिषेक वा महाभिषेक करना, रात्रि जागरण करना, संगीत शास्त्रोंके नियमानुसार नाटक आदि करना, षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद इन सातों स्वरोंसे, छहों रागोंसे, के छहों रागोंको तीसों भार्याओंसे तथा उनके आठों पुत्रोंसे अनेक प्रकारको राग-रागिनियोंसे सुशोभित ऐसे श्री जिनेन्द्रदेवके गुणों के समूहका वर्णन करना, गाना, स्तुति करना सो सब कालपूजा है तथा नन्दीश्वर पर्वके । (अष्टाहिकापर्वके ) आठों दिन तक तथा व्रतोंके दिनोंमें भगवान जिनेन्द्र देवकी महिमाको प्रमट करना सो । सब कालपूजा है। भावार्थ-यह कालपूजा उसी कालमें होती है अन्य कालमें नहीं होती । सो हो लिखा है गम्भावयारजम्माहिसेयणिस्खवणाणणिवाण । जम्हि दिणे संजायइ जिणण्हवणं तहिणे कुज्जा ।। ४५४ ॥ इवखुरससप्पिदहिखीरं गंधजलपुण्णविविहकलसेहिं । णिसि जागरणं च संगीय गाउपाइहि कायव्वं ।। ४५५ ।। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसामर १५० ] नंदीसर अट्ठदिवसेसु तहय अण्णेसु उचियपव्वेसु । जं कीरड़ जिणमहिमा विष्णेया कालपूया सा ॥ ४५६ ॥ इस प्रकार कालपूजाका वर्णन किया । भगवान् अरहन्तवेधके अनन्त ज्ञान आदि अनन्त चतुष्टयोंका वर्णन करना, भक्तिपूर्वक उनकी त्रिकाल वन्दना करना अर्थात् भक्तिपूर्वक सामायिक स्थलका पाठ करना सो भावपूजा है। अथवा पंच णमोकार मन्त्रका उच्चारण कर जप करना, अपनी शक्तिके अनुसार भगवान् जिनेन्द्रदेवका स्तोत्र करना सो भावपूजा है । अथवा पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीतके भेदसे चार प्रकारका धर्मध्यान धारण करना सो भी भावपूजा है। सो हो लिखा है काऊ णाणं तचउट्टयाइ गुणकीत्तणसुभत्तीए । जं नंगतियालं की भावनणं तं खु ॥ ४५७ ॥ पंचणमोयारेंहिं अइवा जावं कुणिज्ज सत्तीए । अवा जिणदत्थोत्तं वियाण भावच्चणं तंपि ॥ ४५८ ॥ पिंडत्थं च पयत्थं रूवत्थं रूववज्जिय अहवा । जंझाइज्जइ झाणं भावमहंतं विनिदिट्ठ ॥ ४५६ इस प्रकार भावपूजाका वर्णन समझना चाहिये। इसप्रकार श्रीवसुनंदि सिद्धान्तचक्रवर्तीने अपने श्रावकाचारमें इन छहों हो निक्षेप पूजाओं का वर्णन किया है। तथा यही वर्णन श्रीसकलकीर्तिने लध्याविपुराण का श्रीवृषभttereafter feया हैं। यथा- इदं नामावलिदृब्धं स्तोत्रं पुण्यं पठेत्सुधीः । नित्यं योर्हद्गुणं प्राप्या चिरात्सोर्हन् भवादृशः। ६१ । त्वदीयाः प्रतिमाः नाथ येऽर्चयंति स्तुवंति च । नमंति च ते पुण्येन लभते त्रिजगच्छ्रियः ॥ ६२ ॥ साक्षावां मूर्तिमंतं ये भजंति स्तवनादिभिः । तेषां पुण्यफलादीनां संख्यां वेत्यत्र को बुधः ॥ ६३ ॥ दिव्यमोदारिकं देहं जगत्साराणुनिर्मितम् । भवदीयं सुभक्त्या ये स्तुवंति वर्णवर्णनैः ॥६४॥ 21 [ १५० Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेऽतिधर्मेण देवा हो भुक्त्वा सौख्यं परंदिवि । चरमांगं तपोभारक्षम श्रयंति नान्यथा।६।। । निर्वाणक्षेत्रभूत्यादीन् येऽर्चयंति नमंति च। स देवत्वं तु कमान्नूनं निर्वाणं प्राप्नुयात्यहो।६६ र्चासागर । पंचकल्याणकालाधैधसका स्तौलिगुण प्रमो: कल्याणसुखसाराणि हीहामुत्र लभेत् सः॥६७४ केवलज्ञानदृष्ट्यादिगुणैः स्तुवंति ये विभोः। भवंति तेऽचिरात् स्युश्च त्वत्समास्त्वद्गुणैसहा६८।। । इति षड्विधनिक्षेपैः स्तवनार्हाय ते नमः । नमस्तीर्थात्मने तुभ्यं नमो मोहारिनाशिने ।६।। इस प्रकार और भी जैनशास्त्रों में पूजाधिकारमें लिखा है सो जानना । १३५-चर्चा एकौ पैंतीसवीं प्रश्न- ऊपर जो पूजाके छ: निक्षेप बतलाये उसमें स्थापनानिक्षेपके दो भेद बतलाये एक तदाकार । दूसरा अताकार । अक्षतादिकोंको ऊंचे स्थानपर रखकर तथा उसमें किसी देवका संकल्प कर उसकी जल, गन्धाविकसे पूजा करना सो दूसरी असद्भावस्थापना बतलाई। सो इस पंचमकालमें इसके करनेको प्रवृत्ति कैसी है? समाधान--यह ऊपर लिखी हुई असद्भावस्थापना इस हुण्डावपिणी कालमें इस कालके दोषके कारण ! नहीं करनी चाहिये । ऐसी आचार्योकी आज्ञा है । इसका भी कारण यह है कि इस लोकमें अनेक कुलिंगी भी। (मिथ्यादृष्टि ) ऐसा करते हैं उसमें लोग मोहित होकर भ्रममें पड़ सकते हैं। इसलिए अतवाकार स्थापना की पूजा नहीं करना चाहिये । सो ही वसुनन्दिसिद्धान्तचक्रवर्तीने श्रावकाचारमें लिखा है-- हुंडावसप्पिणीए विइया ठवणा ण होइ कायनो। लोए कुलिंगमयमोहिया जदो होइ सन्देहो ॥३८६॥ अन्य मतके लोग बिना मूतिके ही मंदिरमें, क्षेत्रमें, घर वा वनमें सुपारी आदिको रखकर उसमें मंत्रों द्वारा किसी देवका सङ्कल्प कर जल, गंधादिकसे उसकी पूजा वा विसर्जन आदि करते हैं सोह विसर्जन आदि करनेका यहाँ निषेध किया है । तथा जिनमंदिरोंमें अरहंत आदिका जो आह्वान, स्थापन, सन्निधी ऊपरको टिप्पणोंमें जो आह्वान, स्थापनः आदिको पूजाका अंग बतलाया है वह इससे भी सिद्ध हो जाता है । वह स्थापना निक्षेप नहीं है, किन्तु पूजाका अंग है। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यासागर । १५२ ] RSHeaseene twearne-RE- STHA-Heam करण आदि प्रतिमाके सामने किया जाता है जो कि परम्परासे चला आ रहा है उसका निषेध यहाँपर नहीं । किया है। अपने घर आदिम बिना मूसिके अतदाकार स्थापना कर पूजा नहीं करनी चाहिए। १३६-चर्चा एकसौ छत्तीसवीं प्रश्न--भगवानको पूजाके समय स्नानादिक किस विधिसे करना चाहिये । समाधान---भव्य जीवोंको शय्यासे उठते ही सबसे पहले अपने मनमें कायोत्सर्गकी विषिसे नौ बार पंच नमस्कार मन्त्रका जप करना चाहिये । पीछे मलमूत्रका त्याग कर हाथ-पैर धोकर एक वा दो पवित्र वस्त्र पहिन कर तथा आसन और पोछीको लेकर किसी एकान्त पवित्र स्थानमें पूर्वको ओर अथवा उत्तरको ओर मुख कर सामायिक करना चाहिए । तदनन्तर विधिपूर्वक भगवान् अरहन्तदेवको पूजा करनी चाहिये । उसको । कुछ थोड़ी-सी विधि लिखते हैं। भगवान की पूजा करनेवाले पुरुषको सबसे पहले अपने हाथ-पैर धो लेना चाहिये फिर पश्चिमको ओर मुख कर बैठकर शुद्ध जलसे कुल्ला करता हुआ वतीन करना चाहिये। तदनन्तर फिर । कर पूर्वकी ओर मुख कर प्रासुक जलसे स्नान करना चाहिये । फिर खड़े होकर किसी धुले वस्त्रसे शरीर पोंछ कर सफेद और शुद्ध वस्त्र पहन लेने चाहिये। पूजा करनेके लिए धोती, दुपट्टा ये दो ही वस्त्र धारण करना , चाहिये ऐसी आम्नाय है। सोही मास्वामी विरचित श्रावकाचारमें लिखा है। ऊपर लिखी हुई विधिके अनुसार स्नान करके पूर्वकी ओर मुख करके अथवा उत्तरको ओरको मुख करके भगवानकी पूजा करनी चाहिये । भावार्थ-जो भगवानकी प्रतिमा उत्तरकी ओर मुख कर विराजमान हो तो पूजा करनेवालेको पूर्वकी ओर मुख कर बैठकर पूजा करनी चाहिये। यदि भगवानका मुख पूर्व दिशाको ओर हो तो पूजा करनेवालेको उत्तरको ओर मुख कर बैठकर भगवान्की पूजा करनी चाहिये। ये वाक्य श्रीजमास्वामीके हैं। इससे सिद्ध होता है कि इन दो विशाओंको छोड़कर बाकोको दक्षिण, पश्चिम,आग्नेय,नैऋत्य, वायव्य, ईशान इन छहों दिशाओंकी ओर मुख करके भगवानको पूजा नहीं करनी चाहिये। कितने ही लोग भगवान के सामने खड़े होकर पूजा करते हैं परन्तु उनके जित दिशा विदिशाओंका बोष आता है। क्योंकि भगवानकी आमा पूर्व, उत्सर वो ही दिशाओंकी ओर मुख करके पूजा करने की है । वाको विशाओंकी ओर मुख करके पूजा करनेका निषेध है। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७-चर्चा एकसौ सैंतीसवीं प्रदन---पूर्व उत्तर दिशाको छोड़कर बाकी विशा विविशाओंको ओर मुख करके भगवान की पूजा क्यों सागर । नहीं करनी चाहिये । इसमें क्या दोष है ? १५३ ] समाधान-पूर्व उत्तर विशाओंको छोड़कर बाकीको छ: विशाओंकी ओर मुख करके जो भगवान्को पूजा करते हैं वे उमास्वामीके वचनोंके विरुद्ध चलते हैं क्योंकि उमास्वामीने पूजा करनेके लिये वो ही दिशाकी मोर मह करना बतलाया है। बाको विशाओंका निषेध किया है। पहला दोष तो यह है। दूसरा दोष यह है कि । उचित वा शुभ कार्यो के लिए ये वो ही विशाएँ उसम मानी गयी हैं। क्योंकि तीर्थकर आदि भी इन दो ही दिशाओंको ओर मुख करके विराजमान होते हैं इन वो दिशाओंको छोड़कर बाकी दिशाओंकी ओर मुख करके है भगवानके विराजमान होनेका अथवा शुभ कार्योंके करनेका शास्त्रोंमें कहीं विधान नहीं आया है। यवि इसमें भी किसीको सन्देह हो तो फिर उसके लिए विशेष कथन लिखते हैं। जो मनुष्य पूर्व, उत्तर है विशाको छोड़कर शेष अन्य विशामोंकी ओर मुख करके भगवान की पूजा करता है उसको अनेक प्रकारके अनर्थ A उत्पन्न होते हैं । प्रथम तो शास्त्रों में पूर्व, उत्तर दो ही विशाओंकी ओर मुख करके पूजा करनेका विधान बत। लाया है तथा बाको को दिशा विविशाओंको ओर मुख करके पूजा करनेका निषेध किया है। इतना जानते हुए भी जो मनोमति ( केवल मनसे कल्पना करनेवाले ) अपनो बुद्धिके बलसे सामने खड़े होकर पूजा करनेको । । प्रधानता मानते हैं और इस प्रकार सब ही दिशा विदिशाओंकी ओर मुख करके पूजा करनेका विधान करते हैं सो उनका यह सब कहना शास्त्रविरुद्ध है। क्योंकि शास्त्रों में ऐसा लिखा है कि जो लोग पश्चिमकी ओर मुख करके भगवान्को पूजा करते हैं अर्थात् यवि भगवान पूर्व विशाको ओर मुख करके विराजमान हों और पूजा ! करनेवाला उनके सामने खड़े होकर पूजा करे तो उसका मुख पश्चिमको ओर होता ही है। इस प्रकार जो | करते हैं उनको सन्तानका नाश होता है अर्थात पुत्र-पौत्राविका मरण होता है । तथा जो दक्षिण विशाकी ओर मुख करके भगवानको पूजा करते हैं अर्थात् यदि भगवान उत्तर दिशाकी ओर मुख करके विराजमान हों। - [१५३ 1 और पूजा करनेवाला उनके सामने खड़े होकर पूजा करे तो उसका मुख दक्षिण दिशाको ओर होता है। यदि । इस प्रकार कोई पूजा करसा है तो उसके सन्ततिका अभाव होता है, उसके पुत्र-पौत्रादिक उत्पन्न नहीं होते। २० Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Facा यक । पश्चिम, दक्षिण दिशाको ओर मुख करके पूजा करनेवालोंको इस प्रकार बुरा फल प्राप्त होता है। जो लोग। | आग्नेय (पूर्व, दक्षिणके बीच ) कोणको ओर मुख करके पूजा करते हैं उनके प्रतिदिन धनकी हानि होती जाती। है। जो वायव्य ( उत्तर, पश्चिमके बीच) कोणकी ओर मुख करके पूजा करते हैं उनके सन्तान नहीं होती। जो नैऋत्य विशाको दक्षिण, पश्चिमके बीचको ओर मुख करके भगवानकी पूजा करते हैं उनके कुलका नाश होता है । और जो ईशान दिशाकी ओर ( पूर्व, उत्तरके बीचको ) मुख करके भगवानको पूजा करते हैं उनका सदा दुर्भाग्य हो रहता है । उनका सौभाग्य सब नष्ट हो जाता है। इसलिए इन दिशाओंको ओर मुख करके । पूजा नहीं करनी चाहिये । यदि किसी कारणसे पूर्व और उत्तर दिशाको ओर मुख करके पूजा करनेको विधिन बन सके तो पूजा हो नहीं करनी चाहिये । पूर्व, उत्तर विशाको ओर मुख करके ही भगवानको पूजा करनी चाहिये । ऐसा श्रीउमास्वामीने अपने श्रावकाचारमें लिखा है । यथातथार्चकः स्यात्पूर्वस्यामुत्तरस्यां च सन्मुखः। दक्षिणस्यां दिशायां विदिशायां च वर्जयेत् ॥ पश्चिमाभिमुखीभूय पूजां कुर्याज्जिनेशिनाम् । तदास्यात्संततिच्छेदो दक्षिणस्यामसंततिः॥ | आग्नेय्यां चेत्कृता पूजा धनहानिर्दिने दिने । वायव्यां संतति व नैऋत्यां तु कुलक्षयम् ॥ ईशान्यां नैव कर्तव्या पूजा सौभाग्यहारिणी । इस प्रकार वर्णन है । ऐसा समझकर पूर्व और उत्तर दिशाको जोर मुख करके ही भगवानको पूजा करनी चाहिए । बाकोको दिशाओं वा विदिशाओंको ओर मुख करके पूजा करनेमें अनेक दोष आते हैं ऐसा जानकर उन दिशाओंको ओर मुख करके कभी पूजा नहीं करनी चाहिये। SalaamRRATER [१५४1 १. इनके आगे नीचे लिखे श्लोक हैं। पूर्वस्या शांतिपुष्टयर्थमुत्तरेच धनागमः । अहंनो दक्षिणे भागे 'चेत्यानां बंदनं तथा । ध्यानं च दक्षिणे भागे दोपस्य च निवेशनम् । अर्थात्-पूर्व दिशाकी ओर मुख करके पूजा करनेसे शांति पुष्टि होटी है और उत्तरको ओर मुख करके पूजा करनेसे धनको वृद्धि होती है। अरहंत देव तथा अरहंतकी प्रतिमाको दायीं ओर खड़े होकर वंदना करनी चाहिये, दायीं ओर ही ध्यान करना चाहिये और दायीं ओर ही दीपक रखना चाहिये। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर मायाraswadचाहान्तसन्चाLACHAR केवल अपमेको ही सम्यग्दृष्टि माननेवाले मान्य कितने ही जीव अपनी बुद्धिके बलसे तथा हटसे सामने ॥ खड़े होकर पूजा करनेका उपदेश देते हैं सो वे अपना तथा दूसरोंका दोनों का अकल्याण करते हैं। ऐसे लोग शास्त्रों की बातोंको भी नहीं मानते केवल अपने हटको वृढ़ करते रहते हैं ऐसे लोगोंको जिनवचनका विरोधी ही है समझना चाहिये। १३८-चर्चा एकसौ अड़तीसवीं प्रश्न-पूजा करनेवालेको बैठकर भगवानकी पूजा करनी चाहिये ऐसा ऊपर लिखा है परन्तु यह कहना उचित नहीं है । क्योंकि खड़े होकर पूजा करना ही उचित है। खड़े होकर पूजा करना विनयका मूल है इसमें भाव अच्छे लगते हैं, भक्ति खूब बढ़ती है, अनुराग खूब बढ़ता है, और मन एकाग्र होकर लग जाता है। इससे अनेक गुण उत्पन्न होते हैं । बैठकर पूजा करना तो किसी प्रकार ठोक नहीं है। किसी साधारण पुरुषकी सेवा भी बैठकर नहीं की जाती है फिर भला तीनों लोकांक नाथ भगवानको पूजा बैठकर किस प्रकार करनी चाहिये । बैठकर पूजा करने में प्रमाय बढ़ता है और अनेक अनर्थ उत्पन्न होते हैं ? इसलिये इस बातको तो हम लोग नहीं मानते हैं। समाधान--भगवान सर्वज्ञ देवकी आज्ञा तो बैठकर पूजा करने की है सो ही उमास्वामी विरचित उपासकाचारमें लिखा है-- पद्मासनसमासीनो नासाग्रन्यस्तलोचनः । मौनी वस्त्रावृतास्योयं पूजां कुर्याज्जिनेशिनः॥ ___ अर्थात्---पूजा करनेवालोंफो नीचे लिखे अनुसार पूजा करनी चाहिये, पूजा करनेवालेको पपासनसे बैठना चाहिये, अपने नेत्रोंकी दृष्टि नासिकाके अग्र भागपर रखनी चाहिये । मौन धारण कर लेना चाहिये, अपना मुख वस्त्रसे ढंक लेना चाहिये । इतने सब काम करके भगवानको पूजा करनी चाहिये । यह ऊपर लिखे श्लोकका अर्थ है । श्रीपानंदि स्वामीने भी अपने पंचविंशतिका महाकाव्यमें लिखा है कि "भव्य जीयोंको मोक्षके सुख प्राप्त करने के लिए पद्मासनसे बेठकर ध्यानाविको भावना करनी चाहिये । यथाचेतोवृत्तिनिरोधनेन करणग्रामं विधायोद्वसं, तत्संहृत्य गतागतं च मरुतो धैर्य समाश्रित्य च । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिागर पर्यकेन मया शिवाय विधिच्छ्न्यै कभूभृद्दरी ___मध्यस्थेन कदाचिदर्पितदृशा स्थातव्यमंतर्मुखम् ।। -पांचवा अधिकार । इससे भी पद्मासनसे बैठकर ही पूजा करना श्रेष्ठ सिद्ध होता है। फिर भी जो तुम खड़े होकर विनय और भक्ति आदि बसलाते हो सो सब व्यर्थ है। पूजा करनेमें खड़े होनेका प्रसंग ही नहीं है। इसके आगे यह जो कहा कि बैठकर पूजा करनेके विधानको हम नहीं मानते सो भगवानके वचनों में संदेह करना, पूर्वाधार्योंके वचनोंको न मानता अन्धे पुरुषके द्वारा आकाशमें उड़ते हुये पक्षियोंकी गिनती करनेके समान है । अर्थात् व्यर्थ है । क्योंकि अन्या पुरुष आकाशमें उड़ते हुये पक्षियोंकी गिनती कर हो नहीं सकता ।। यदि करे तो व्यर्थ है । इसी प्रकार तुम्हारा भी भगवानके वचनोंमें संवेह करना व्यर्थ है । सो ही पपनंदि पंचविशप्तिकाके प्रथमाधिकारमें लिखा है। यः कल्पयेत् किमपि सर्वविदोपि वाचि संदिह्य तत्वमसमंजसमात्मबुद्धया। खे पत्रिणां विचरतां सुदृशोक्षितानां संख्या प्रति प्रविदधाति स वादमंधः॥ १२५ ॥ जो भगवानके वचनोंमें संदेह करते हैं उनके लिये आचार्योंने इस प्रकार लिखा है। यदि अब भी संवेह हो तो वह और भी अनेक जैनशास्त्रोंमें इसके प्रमाण मिलते हैं उन्हें देखकर अपना संदेह दूर कर लेना चाहिये । देखो वेवसेनकृत भाव संग्रहमें भी बैठकर पूजा करनेका विधान है। यथा पासुइ जलेण व्हाइय णिवसिय वस्थायगंपितं ठाणे । इरियाविहं च सोहिय उवविस उपडिम आसणं ॥ अर्थात्पूजा करनेवालेको सबसे पहले प्रासुक जलसे स्नान करना चाहिये फिर शुद्ध वस्त्र पहिन कर नीचेकी ओर दृष्टि कर मार्गको देखते हुए आना चाहिये तथा पूजाके स्थानपर पद्मासनसे बैठ कर पूजा करना चाहिये । यही बात यशस्तिलकचंपू नामके महाकाव्यमें लिखा है। उदङ मुख स्वयं तिष्ठेत् प्राऊ मुखं स्थापयेज्जिनम् । पूजाक्षणे भवेन्नित्यं यमी वाथ्यमीक्रियः॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असागर [ १५७] TEACHERचाचाबाचामाचार ___ अर्थात् पूर्व दिशाको ओर मुख करके भगवानको विराजमान करे और पूजा करने के लिये उत्तर दिशाकी ओर मुंह करके बैठे। यहाँपर भी तिष्ठेत् क्रिया स्था धातुसे बनी है । जिनका अर्थ गति रहित होता है। इस प्रकार मौन सहित तिष्ठना वा बैठना अर्थ होता है। इनके सिवाय पूजाओंमें, पूजासारमें, भगवद् एक संधिकृत जिनसंहितामें, जिनप्रतिष्ठापाठमें तथा त्रिवर्णाचारमें भी पूजा करनेवाले पुरुषको पूजाके समय बैठकर ही भगवानको पूजा करनेका विधान लिखा है। वहाँ । पर बैठनेका मन्त्र लिखा है उसमें भी बैठनेका हो संकल्प है यथा-"ओं ही अहं अक्षं दर्भात । उपविशामि। स्वाहा" इस प्रकार बैठनेका हो विधान है इस प्रकार शास्त्रमें जो विधि बतलाई है उसको मानकर पूजा करना चाहिये, खड़े होकर पूजा नहीं करनी चाहिये। बैठकर ही करनी चाहिये । इस विषयमें अपने हटसे व्यर्थ वाद नहीं करना चाहिये । व्यवहारमें भी देखा जाता है राजसभासे जिनको बैठनेको आज्ञा है वे तो बंदना आदि कर समीप जाकर बैठ जाते हैं बैठे ही बैठे अपना सुख-दुख निवेदन करते हैं । दुःखोंको दूर करने के लिये अनेक पदार्थ भेंट कर उन धुःखोंकी शान्ति करा लेते हैं और अपने सब कार्य सिद्ध कर लेते हैं परन्तु जिनको । राजसभामें बैठनेका अधिकार नहीं है वह दूर खड़ा-खड़ा ही पुकारता रहता है। यदि वह औरों को बैठा हुआ। देख कर स्वयं भी समीप जाकर बैठता है तो द्वारपाल लोग उसे हाथ पकड़ कर वहाँसे उठा कर खड़ा कर देते हैं । इससे साबित होता है कि जो खड़े होकर पूजा करनेका विधान करते हैं वे समीप बैठनेका अधिकार नहीं रखते। प्रश्न—तुम बैठकर पूजन करनेको इतनी पुष्टि क्यों करते हो ? खड़े होकर पूजा करने में क्या दोष है । क्योंकि फल तो भावोंके अनुसार हुआ करता है ? समाधान-क्या यह नियम है कि खड़े होकर ही भाव लगते हैं पद्मासनसे बैठकर भाव नहीं लगते । तया पपासनसे बैठकर भाव लगे तो भी अच्छे नहीं। यदि यह बात शास्त्रमें लिखी हो तो हमें प्रमाण है । आपको चाहिये कि शास्त्रके ऐसे इलोक अथवा गाया आवि बतलावे जिनको हम आप दोनों ही प्रमाण मानकर श्रदान करें। यवि शास्त्रोंमें ऐसा प्रमाण कहीं नहीं मिलता तो जो शास्त्रों में पद्मासनसे बैठकर पूजा करनेका । मायाचनाचाराचा Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यासागर [१५८] विधान लिखा है उसे ही मानकर उसपर श्रद्धान करना चाहिये। कोई-कोई लोग इतने हठग्राही होते हैं कि वे पूजाके पाठ भी खड़े बोलते हैं । वे न स्वयं बैठते हैं और न बोलनेवालोंको बैठने देते हैं परन्तु यह उनका केवल हठ है इसमें अन्य और कोई कारण नहीं है । कदाचित् कोई यह कहे कि खड़े होकर पूजा करने में बड़ी सिनय होती है और विनय ही धर्मका मूल कारण है तो इसका उत्तर यह है कि यदि खड़े होनेमें ही विनय है तो शास्त्रसभा शास्त्रका वांचना सुनना, स्वयं स्वाध्याय करना, पढ़ना, पढ़ाना आदि कार्य भी खड़े होकर करना चाहिये। ऐसा करनेसे बड़ी विनय होगी और धर्म होगा । क्योंकि जैसा पूजामें धर्म है वैसा यहाँ भी धर्म है। इसके सिवाय खड़े होकर पूजा करनेमें धर्म है उसी प्रकार यदि एक परसे खड़े होकर पूजा की जाय तो खड़े होनेको अपेक्षा उससे अधिक कायक्लेश तप होगा, अधिक विनय होगी, अधिक भक्ति होगो सो ऐसा करना भी अच्छा समझा जायगा। इसलिये जैसा शास्त्रोंमें लिखा है उसी प्रकार श्रद्धान कर कार्य करना चाहिये। इसोमें विनय और धर्म सघता है। शास्त्रको आजाके प्रतिकूल चलनेमें न विनय है और न धर्म है। किन्तु उलटा अविनय होती है । सोही सूक्तिमुक्तावलीमें गुरुसेवाधिकारमें लिखा है-- किं ध्यानेन भवत्यशेषविषयत्यागैस्तपोभिः कृतं, पूर्णं भावनयालमिन्द्रियदमैः पर्याप्तमाप्तागमैः ।। । किंत्वेकं भवनाशनं कुरु गुरुप्रीत्या गुरोः शासनं, सर्व येन विना विनाथवलवत्स्वार्थाय नालं गुणाः ॥ __टीका-भो भव्याः गुरोः आज्ञां विना ध्यानं चेत् ? तर्हि तेन ध्यानेन किं अपि तु न किमपि फलम् । पुनः गुरोः आज्ञा विना तपोभिः कृतं षष्ठाष्टमदशमद्वादशमादिपक्षक्षपणमासक्षपणसिंहनिःक्रीडितादिभिस्तपोभिः कृतं संपूर्ण जातं । अर्थात् न किमपि । पुन र्भावनया शुभभावेनापि पूर्णता जाता। पुनः इंद्रियदमैः पंचेंद्रियाणां दमनं कृत्वा अलं ॥ पूर्ण मतम् । पुनः आप्तागमैः सूत्रसिद्धांतपठनैरपि पर्याप्त पूर्ण जातं तर्हि किम् ? किंतु। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जसागर १५९ ] A गुरुप्रीत्या गरिष्ठवात्सल्येन अधिकादरेण एके गुरोः शासनं आज्ञां कुरु । गुरोः एव आज्ञां शुद्धां पालय । किं भूतं गुरोः शासनं संसारपरिभ्रमणवारकम् । यतो येन गुरोः शासनेन आज्ञया विना सर्वेपि गुणा निष्फला इत्यर्थः । किंवत् विनाथबलवत् । निर्नायक सैन्यवत् । यथा निर्नायकं सैन्यं जयसाधकं न । तथा गुरोः आज्ञां विना पूर्वोक क्रियानुष्ठानादिकं सर्व निष्फलमेवेति ज्ञात्वा आज्ञापूर्वकं सर्वं कर्तव्यम् ।' I safe कोई यह समझे कि चाहे जिस प्रकार करो फल तो भावोंके अनुसार लगता है, उसके लिये कहते हैं कि गुरुकी आज्ञाके विना ध्यान, विषयका त्याग, तप, शुभ, भाव, इन्द्रियोंकी विजय और सिद्धांतादि शास्त्रोंका स्वाध्याय आदि सब बिना सेनापतिकी सेनाके समान व्यर्थ है । इसलिये गुरुकी आज्ञा के अनुसार जप, तप, पूजा आदि करना योग्य है । गुरुकी आज्ञाके अनुसार कार्य करनेमें हो सफलता है। अपने मनके अनुसार कार्य करना सर्वथा व्यर्थ है ऐसा सिद्धांत है । १३६ - चर्चा एकसौ उनतालीसवीं प्रश्न बैठकर पूजा करनेमें पूजा करनेवालेको दृष्टि भगवानके ऊपर नहीं रह सकती। क्योंकि भगवान तो बहुत ऊँचे विराजमान रहते हैं और बैठकर पूजा करनेवाला बहुत नीचा रहेगा ऐसी अवस्था में पूजामें भाव भी नहीं लगते। इसलिये बैठकर पूजा करनेमें संदेह बना ही रहता है समाधान --- जैन शास्त्रों में गृहस्थको अपने घर चैत्यालय बनानेकी विधि इस प्रकार लिखी है कि गृहस्थको अपने मकान के दरवाजेके बांई ओर बिना किसी शिलाके ( कारीगरीसे रहित ) भगवानको विराजमान करनेका स्थान बनाना चाहिये । उस स्थान से डेढ़ हाथ ऊंची वेदी बतानी चाहिये और उसपर भगवानको विराजमान करना चाहिये । भावार्थ-- जब श्रेवी डेढ़ हाथ ऊंचो रहेगी तो बैठकर पूजा करनेवालोंकी दृष्टि भगवानके चरणों पर हो रहेगी ऐसा श्रीउमास्वामीने श्रावकाचारमें लिखा है यथा-गृहे प्रवशितावामभागे शिल्पविवर्जिते । देवता सदनं कुर्यात्सार्द्धहस्तोर्ध्व भूमिकम् । १. इस श्लोक और टीकाका अभिप्राय यही है कि गुरुको आज्ञाके विना जप, तप, ध्यान, पूजा आदि सब व्यर्थ है इसलिये सब काम गुरुकी भाशा के अनुसार करने चाहिये । [ १५८९ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यवि पूजा करनेवाला खड़े होकर पूजा करे तो भगवानका सिंहासन उसके नाभि तक आवेगा और फिर उसके नेत्रोंकी वृष्टि भगवानसे भी डेढ़ हाय ऊँधी रहेगी। जिससे अनेक अनर्थ उत्पन्न होंगे सो सब चिसागर विचार लेना चाहिये। १४०-चर्चा एकसौ चालीसवीं प्रश्न-यदि कहीं ऊपर लिखी डेढ़ हायकी ऊंचाईसे भी प्रतिमा नीची विराजमान हो तो क्या करना चाहिये ? अपरामचरितम्-ताशाचायHिSTA2 समाधान-जो भगवानके विराजमान करनेको वेवी डेढ़ हाथसे भी नीची रखते हैं उनके नीचसे नीच सन्तति उत्पन्न होती है। प्रदे ही मानो वहारमें लिखा है-- नीचे मिस्थितिं चके........." प्रश्न-यदि वेदो डेढ़ हाथसे भी ऊंची दो, तीन, चार हाथ ऊँची बना ली जाय और उसपर भगवान विराजमान किये जाय तो फिर तो कोई दोष नहीं आ सकता। तथा ऐसा करनेसे खड़े होकर पूजा करनेमें भी सुभीता होता है। समाधान-डेढ़ हायसे ऊँची वेदी बनानेको आज्ञा नहीं है इसलिए इससे ऊंची वेदी नहीं बनानी ! चाहिये । यदि कोई इससे ऊँची देवी बनाता है तो उसे आज्ञा भंग करनेका महादोष लगता है। सो पहले । सूक्तिमुक्तावलीका श्लोक देकर समझा हो चुके हैं । इसलिये आगमपर विश्वास करनेवालोंको आगमके लिखे अनुसार ही काम करना चाहिये । केवल अपनी बुद्धि के अनुसार वा मनोनुकूल चलना योग्य नहीं है। प्रश्न-इतना विवाद करनेकी आवश्यकता हो क्या है क्योंकि शुभ या अशुभ फल तो अपने भावोंके । अनुसार ही लगता है इसलिये अपने भाव शुद्ध रखना चाहिये । शुद्ध भावोंके बिना सब क्रियाएँ व्यर्थ हैं। समाधान--यह कहना भी एकान्तवाव है क्योंकि राजा, कच्छ, महाकच्छ, मारीचि आदि चार हजार राजाओंने श्रीऋषभदेव भगवानके साथ केवल उनको भक्ति और शुभ भावोंसे जिनदीक्षा धारण की थी परन्तु ॥ [ १६ वह उनको दीक्षा आगमको आज्ञाके अनुकूल नहीं थी इसीलिये सबको भ्रष्ट होना पड़ा। भ्रष्ट होकर उन्होंने 1 अनेक प्रकारके मिथ्यात्वका प्रचार किया। इसी प्रकार कुमारसेनने पहले तो संन्यासका भंग किया फिर बिना। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चासागर [ १६१] । गुरुके केवल अपने ही भावोंसे फिर दीक्षा लो। इसीलिये उन्हें काष्ठसंघ स्थापन करना पड़ा। इससे सिद्ध होता है है कि केवल भावोंसे ऐसा ही फल मिला करता है इससे हठ करना योग्य नहीं । १४१-चर्चा एकसौ इकतालीसवीं प्रश्न--पूजा करनेवाला पूजनके लिये वस्त्र किस प्रकार धारण करता है। समाधान--जो भव्य पुरुष शांतिक और पौष्टिकके लिये भगवानको पूजा करता है उसे सफेद वस्त्र पहिन कर पूजा करनी चाहिये । यदि वह शत्रुको विजय करनेके लिये भगवानको पूजा करता है तो उसे श्याम ! ६ वा काले वस्त्र पहिन कर पूजा करनी चाहिये। यदि वह कल्याणके लिए पूजा करता है तो लाल वस्त्र पहिमना चाहिये । यदि वह किसी राजा आदिके भयको दूर करनेके लिए पूजा करता है तो उसे हरे रंगके वस्त्र पहिन कर पूजा करनी चाहिये। यदि वह ध्यान आदि प्राप्तिके लिए पूजा करता है तो उसे पीले वस्त्र पहिनना चाहिये । और यदि वह किसो कार्यको सिविके लिए पूजा करता है तो उसे पांचों रंगके वस्त्र पहिनने चाहिये। सोही लिखा है-- शांतो श्वेतं जये श्याम भने रक्तं भये हरित् । पीतं ध्यानादिसंलाभे पंचवर्ण तु सिद्धये ॥ इस प्रकार अलग-अलग कामनाको सिद्धिके लिये अलग-अलग पाँचों वर्णोके वस्त्र बतलाये हैं यदि इन पांचों वर्णोके वस्त्रोंमें भी कोई अयोग्यताके दोष आ जाय तो वह वस्त्र छोड़ देना चाहिये और दूसरा नवीन वस्त्र धारण करना चाहिये। १४२-चर्चा एकसो बियालीसवीं प्रश्न--वस्त्रोंमें ऐसा कौन-सा बोष है जिसके कारण उसे छोड़ देना चाहिये और नवीन लेना चाहिये। समाषान--ऊपर लिखे पांचों रंगोंके वस्त्रोंमेंसे कोई वस्त्र फट जाय, बहुत पुराना हो, छिन्न-भिन्न हो इन सब बोषोंसे रहित होनेपर भी मलिन हो, ऐसे वस्त्र पहिन कर दान, जिनपूजा, णमोकार आदि मन्त्रोंके अप, होम और शास्त्रोंके स्वाध्याय आदि नहीं करने चाहिये। यदि कोई इसमें हट करता है और इन दोषोंको । नहीं मानता तो उसका किया हुआ वान, पूजा आदि सब कार्य व्यर्थ जाता है । सोही उमास्वामी विरचित श्रावकाचारमें पूजाके प्रकरणमें लिखा है-- २१ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खण्डितेतिजीर्णे छिन्ने मलिने नैव वाससि।दानं पूजा जपो होमं स्वाध्यायो निष्फलं भवेत्॥ धर्मरसिकशास्त्रमें भी यही लिखा है। सिागर । काषायं धूम्रवर्ण च केशज केशभूषितम् । छिन्नाग्रं चोपवस्त्रं च कुत्सितं नाचरेन्नरः ॥३॥ ६२] । दग्धंजीणं च मलिनं मूषकोपहतं तथा।खादितं गोमहिष्यायैस्तस्याज्यं सर्वथा द्विजैः ॥३५॥ इस प्रकार विशेष वर्णन यहाँ लिखा है। यहां संक्षेपसे लिखा गया है। १४३-चर्चा एकसो तिरालीसवीं प्रश्न-त्रिकाल पूजाको विधि क्या है ? समाधान-चतुर भव्य जीवोंको नियमपूर्वक तोनों समय भगवानको पूजा करनी चाहिये। उसकी विधि इस प्रकार है कि सबसे पहले पहिले लिखी हुई विधिके अनुसार स्नानादिक कर भगवानको पूजा करनी चाहिये ।। उसकी विधि इस प्रकार है। प्रथम प्रातःकाल भगवानका जलाभिषेक करना चाहिये फिर चंदन, केशरमें कपूर ॥ मिलाकर भगवानके चरण कमलोंको घर्चना करनी चाहिये। यह प्रातःकालको पूजा है। फिर दोपहर के समय अनेक प्रकारके सुगन्धित और मनोज पुष्पोंसे भगवानको पूजा करनी चाहिये यह मध्याह्न पूजा कहलाती है। तिबनंतर शामके समय वीप और धूपसे पूजा करनी चाहिये । भावार्थ-प्रातःकाल तो चंदनसे पूजा करनी । चाहिये। मध्याह्न समयमें पुष्पोंसे पूजा करनी चाहिये और तार्यकालको वीपकसे आरती उतार कर दीपसे ।। पूजा करनी चाहिये और सुगन्धित चंदन आदि शुभ द्रव्योंको बनी हुई धूपको अग्निमें वहनकर धूपसे पूजा करनी। चाहिये । यह त्रिकाल पूजाको रीति है । सो हो श्रीउमास्वामिविरचित श्रावकाचारमें लिखा है। श्रीचंदनं विना नैव पूजां कुर्यात्कदाचन । प्रभाते घनसारस्य पूजा कार्या विचक्षणः ॥ मध्याह कुसुमैः पूजा संध्यायां दीपधूपयुक्। १५२ १. जो वस्त्र मलिन हों, बालोंका, उनका बना हो । बालसे सुशोभित हो, जिसके पल्ले फट गये हों, छोटा हो, बुरा हो, जला हो, पुराना हो, कषेला वा धूमके रंगका हो, चूहों का कतरा हो वा गाय, भैसका खाया हो वह सब त्याग करने योग्य है। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्चासागर [ १६३ ] इस प्रकार त्रिकाल पूजाकी रोति लिखी है। तथा अष्ट द्रव्यसे जो पूजाकी जाती है वह विशेष पूजा । इस अष्ट व्यकी पूजाको त्रिकालमें करनेका कुछ नियम नहीं है। है । समय की जाय उसी समय में हो सकती है । १४४ - चर्चा एकसौ चवालीसवीं प्रश्न- सायंकालको जो दोप, धूपसे पूजा की जातो है उसकी विधि क्या है ? समाधान - पूजा करनेवाले पुरुषको पूजा करते समय भगवानके बाँई ओर धूपदान रखकर उसमें क्खी हुई अग्नि मन्त्रपूर्वक धूप चढ़ाकर भगवानकी पूजा करनी चाहिये । तथा दीपक जलाकर भगवानके सामने मंत्रपूर्वक आरती उतार कर पीछे भगवानकी वाहिनी ओर उस दीपकको रख देना चाहिये। यह पूजाका सब जगहका नियम है सो ही उमास्वामी विरचित श्रावकाचार में लिखा है । वामांगे धूपदाहस्य दीपपूजा च सन्मुखी। अर्हतो दक्षिणे भागे दीपस्य च निवेशनम् ॥ पूजाकी ऐसी आम्नाय है सो इसी प्रकार करना चाहिये । १४५ - चर्चा एकसौ पैतालीसवीं प्रश्न- भगवानको पूजामें कैसे पुष्प चढ़ाना चाहिये तथा कैसे नहीं चाहिये ? समाधान -- भगवानकी पूजामें जल, थल आदिके सार सुगन्धित और मनोज्ञ ऐसे कमल, गुलाब आदि अनेक प्रकारके जैन शास्त्रों में कहे हुए पुष्प चढ़ाना चाहिये तथा जो पुष्प हायसे गिर गये हों, जमीनपर पड़ गये हों, जो किसीके भी पैरसे छू गये हों, किसीके मस्तक पर रखे गये हों, मलिन और अपवित्र वस्त्रमें रक्से गये हों, नाभिके नीचे प्रदेशसे छू गया हो, जो यवन ( मुसलमान ) आदि तुष्ट जनोंके द्वारा स्पर्श किये गये हों और जो कीड़ोंसे दूषित हों। ऐसे पुष्प कभी नहीं चढ़ाना चाहिये । इसके सिवाय पुरुषोंके दो तीन भाग कभी नहीं करने चाहिये । भावार्थ- मोतिया, मोगरा, कुन्ब आदिके पुष्पों में बो तीन चार पुष्प निकलते हैं सो उनको अलग-अलग नहीं करना चाहिये। जैसाका तैसा ही चढ़ाना चाहिये । पूजाके लिये फूलोंको कलियाँ कभी नहीं निकालनी चाहिये अर्थात् पूजामें कलियां नहीं चाहिये। पूरा पुष्प हो चढ़ाना चाहिये। ये लोग 2037 [ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर [१६४] चंपा और कमलके फूलोंको कलियाँ अलग-अलग कर निकाल लेते हैं अर्थात् उनको प्रफुल्लित कर लेते हैं अथवा I उनकी पंखुड़ियां अलग-अलग निकाल लेते हैं उनको जोव हिंसाके समान फल लगा करता है। इसलिये पुष्पोंको । अलग-अलग छिन्न-भिन्न कर पा कलियाँ निकाल कर नहीं चढ़ाना चाहिये । सो ही उमास्वामिविरचित भावकाधार में लिखा है-- हस्तात्प्रस्खलितं क्षितो निपतितं लग्नक्वचित्पादयोः । यन्मूखर्वोछ्र्वगतं धृतं कुवसने नाभेरधो यद् धृतम् ।। स्पृष्टं दुष्टजनैरभिहितं यदृषितं कीटक। स्याज्यं तत्कुसुमं वदति विबुधाः भक्त्या जिनः पूज्यते ॥ नैव पुष्पं द्विधा कुर्यान्न छिन्नकलिकामपि । चंपकोत्पलभेदेन जीवहिंसासमं फलम् ॥ । न ऐसा शास्त्रोंका मत है। इसी प्रकार जल, फल आवि आठों द्रव्यों से जो अयोग्य हों सो पूजामें नहीं। लेना चाहिये । विवेकी पुरुषों को योग्य द्रव्यसे हो पूजा करनी चाहिये। प्रश्न-ऊपर लिखे हुए पुष्प किस प्रकार बढ़ाना चाहिये ? समाधान-लौकिक शास्त्रों में ऐसा लिखा है। पुष्पं चोर्वमुखं देयं पत्रदेयमधोमुखम् । फलं च सन्मुखं देयं यथोत्पन्नं समर्पयेत् ॥ अर्थात्-पूजामें पुष्प तो ऊपरको ओर मुख कर चढ़ाना चाहये । उसको डोंडो नोचेको ओर रहनो। चाहिये, नागवेलके पान आदि पत्रोंको अधोमुखो चढ़ाना चाहिये। उसको अनी नीचे रहे और डंठल ऊपरको हो। तथा फल सामने चढ़ाना चाहिये । पुष्प, पत्र और फल जैसे वृक्ष पर लगते हैं उसी प्रकार उनको बढ़ाना चाहिये । यह नियम पुष्पमाला अथवा पुष्पांजलिके लिए नहीं है । पुष्पमाला और पुष्पांजलिमें जिस प्रकार बन सके उसो प्रकार चढ़ाना चाहिये। १४६- चर्चा एकसौ छयालीसवीं प्रश्न--प्रातःकालको पूजाको विधिमें जल, चनसे ही पूजा करनेका विधान बतलाया परन्तु हम सो Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टद्रव्यसे पूजा करनेको पूजा समझते हैं। अब केवल जल, चंदनसे हो पूजा करनेका विधान है तब फिर अष्ट द्रव्यसे पूजा कौन करेगा? चर्चासागर समाधान-सबसे पहिले भगवानका जलसे अभिषेक करना चाहिये फिर चरणों पर गंधका लेप कर [ १६५ ] 1 पीछे अक्षत आविसे भगवानकी पूजा करनी चाहिये ऐसा नियम है । पहले लिख भी चुके हैं श्रीचदनं विनानैव पूजां कुर्यात्कदाचन । इससे सिद्ध होता है कि चंदनके लेप पूर्वक हो अक्षतादिकसे पूजा होती है । सो ही उमास्वामीविरचित श्रावकाचारमें पूजा प्रकरणके अधिकारमें लिखा है-- गंधधूपाक्षतैः सद्भिः प्रदीपैश्च विचारिभिः । प्रभातकाले पूजा वै विधेया श्रीजिनेशिनाम् ॥ अर्थात् विवेको पुरुषोंको प्रातःकाल गंध, धूप, अक्षत, दीप आदिसे भगवान जिनेन्द्रदेवको पूजा करनी चाहिये। १४७-चर्चा एकसौ सैंतालीसवीं प्रश्न--भगवानका ध्यान और वंदना किस विधिसे करनी चाहिये ? समाधान-भव्य जीवोंको भगवानका ध्यान और वंदना अर्थात् नमस्कार भगवानके वाहिनी ओरसे करना पाहिये। सामने खड़े होकर ध्यान और वन्दना नहीं करना चाहिये। दाहिनी ओरसे हो करनी चाहिये । सो । हो उमास्वामी विरचित श्रावकाचारमें लिखा है-- । अर्हता दक्षिणे भागे दीपस्य च निवेशनम् । ध्यानं च दक्षिणे भागे चैत्याना वंदनं तथा ॥ इससे सिद्ध होता है कि भगवानके दाहिनी ओरसे ही ध्यान और वंदना करनी चाहिये। किसी दूसरी ओरसे नहीं। १४८-चर्चा एकसौ अड़तालीसवीं प्रश्न-स्त्रियों के लिये ध्यान, वंदना करनेकी विधि क्या है ? Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधान--स्त्रियोंको ध्यान और वंदना भयवानके बाई ओरसे करनी चाहिये। ऐसी शास्त्रकारोंकी पर्चासागर [१६] १४६-चर्चा एकसौ उनचासवीं प्रश्न-गृहस्थोंको जो पहिले पूजा करनेको विधि बतलाई है वह संक्षिप्त विधि है । अब इसको विशेष "विधि बतलानी चाहिये। समाधान--पूजा करनेको विशेष विधि इस प्रकार है। शौचसे निवृत्त होने, वान करने और स्नान करने आदिको विधि पहले बता चुके हैं उसके अनुसार स्नान करके भगवानके चस्यालयमें जाना चाहिये। । उसको भी विधि इस प्रकार है। अपने घरसे आकर पैर धोवे फिर अपने मस्तकसे श्रीजिनेन्द्रमन्दिरके किवाड़ खोले। किवाड़ लोलते समय "ओं ह्रीं अहं कपाटमुद्घाटयामोति स्वाहा" इस मंत्रको पढ़े। फिर "ओं हों द्वारपालाननुज्ञापयामि स्वाना" यह मंत्र पढ़कर द्वारपालसे आज्ञा लेनी चाहिये। द्वारपालको आज्ञा लेकर धीजिनचेस्यालयमें प्रवेश करना चाहिये तदनंतर "ओं ह्रीं अहं निःसही निःसही रत्नत्रयपुरस्सराय विद्यामंडल निवेशनाय शमययाय निःसही जिनालयं प्रविशामि स्वाहा।"ऐसा उच्चारण कर जिनालय में प्रवेश करना चाहिये। फिर ईर्यापथ शुखि करना चाहिये । ईर्यापथशुद्धिका पाठ इस प्रकार है निःसंगोऽहं जिनानां सदनमनुपमं त्रिःपरीत्येत्य भक्त्या, स्थित्वा गत्वा निषद्योच्चरण परिणतोऽन्तःशनैर्हस्तयुग्मम् । भाले संस्थाप्य बुद्ध्या मम, दुरित हरं कीर्तये शक्रवंद्यं, निन्दा दूरं सदाप्तं क्षयरहितममुं ज्ञानभानुं जिनेन्द्रम् ।।१।। १. ओं ह्रीं अहं यह बीजाक्षर है, मैं किवाड़ खोलता है। २. मैं द्वारपालकी आज्ञा लेता है। । ३. मैं मन, वचन, कायसे शुद्ध हो जिनमन्दिरमें जाकर तीन प्रदक्षिणा दे खड़े होकर थोड़ा आगे चलकर बैठकर धीरे-धीरे कुछ स्तोत्रादिक पढ़ता हआ हाथ जोड़ मस्तकपर रख इन्द्रपूजित निर्दोष अक्षयज्ञानरूपो सूर्य और मेरे पापोंको दूर करनेवाले श्री जिनेन्द्रदेवकी स्तुति करता हूँ॥१॥ में ऐसे श्रीमन्दिरको शरण लेता है जो ऐश्वर्यमुक्त है, पवित्र है, कल रहित है, जिसमें सवा मंगल होते रहते हैं जो रत्नमय और तीनों लोकोंको सुशोभित करनेवाला है।॥२॥ अत्यन्त गम्भीर स्थाबाद ही जिसका ।' Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमत्पवित्रमकलङ्कमनन्तकल्पं स्वायंभुवं सकलमङ्गलमादितीर्थम् । नित्योत्सवं मणिमयं निलयं जिनामां लोजगभूषणमई शरणं प्रपद्ये ॥२॥ व सागर । श्रीमत्परमगंभीरस्याद्वादामोघलाच्छनम्। जीयात्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥३॥ १६७] श्रीमुखालोकनादेव श्रीमुखालोकनं भवेत् ।आलोकनविहीनस्य तत्सुखावाप्तयः कुतः॥४॥ अद्याभवत्सफलता नयनद्वयस्य देव ! त्वदीय चरणाम्बुजवीक्षणेन । अद्य त्रिलोकतिलक ! प्रतिभासतेमे संसारवारिधिरयं चुलुकप्रमाणम्॥५॥ नमो नमः सत्त्वहितंकराय वीराय भव्याम्बुजभास्कराय । अनंतलोकाय सुरार्चिताय देवाधिदेवाय नमो जिनाय ॥ ६ ॥ नमो जिनाय त्रिदशार्चिताय विनष्टदोषाय गुणार्णवाय। विमुक्तिमार्गप्रतिबोधनाय देवाधिदेवाय नमो जिनाय ॥ ७॥ देवाधिदेव परमेश्वर वीतराग सर्वज्ञ तीर्थकर सिद्ध महानुभाव । त्रैलोक्यनाथ जिनपुगव वर्द्धमान स्वामिन् गतोस्मि शरणं चरणद्वयं ते ॥८॥ जितमदहर्षद्वेषा जितमोहपरीषहा जितकषायाः। जितजन्ममरणरोगा जितमात्सर्या जयंतु जिनाः ॥ ६ ॥ सार्थक चिह है ऐसा त्रैलोक्यनाथका शासन प्रोजेनशासन चिरकाल तक जीवित रहो ।। ३ ।। आज श्रीजिनेन्द्रदेवका मुख देखनेसे मुक्तिलक्षमीका मुख देखा, भला जो धोजिनेन्द्रदेवके मुखका दर्शन नहीं करते उनको यह सुख कहाँसे मिल सकता है ।।४।। हे देव! आज आपके चरण-कमल देखनेसे मेरे दोनों ही नेत्र सफल हुए। हे त्रिलोकतिलक ! आज पह संसाररूपी समुद्र मुझे चुल्लूभर पानीके बराबर जान पड़ता है।॥ ५ ॥ समस्त प्राणियोंका भला करनेवाले, भव्यरूपो कमलोंको सूर्यके समान अनन्तलोक-अलोकको देखनेवाले देवलित देवाधिदेव श्रीवर्धमान जिनेन्द्रदेव के लिए नमस्कार हो !॥ ६ ॥ इन्द्रों द्वारा पूजित सुधादि। १८ दोषोंसे रहित, गुणोंके समुद्र, मोक्षमार्गके उपदेश देनेवाले, देवाधिदेव श्रोजिनेन्द्रदेवके लिए नमस्कार हो ॥ ७ ॥ हे देवाधिदेव, हे परमेश्वर ! हे वीतराग! हे सर्वज्ञ! हे तीर्थङ्कर ! हे सिद्ध, हे महानुभाव! हे त्रिलोवश्नाथ, हे जिनपुङ्गव, हे स्वामिन् ! मैं आपके चरणोंकी शरण में आया है।॥ ८॥ मद, हर्ष, द्वेष, मोह, परोषह, कषाय, जन्म, मरण, रोग और मात्सर्य आदिके [१६ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर - १६८ ] चित्ते मुखे शिरसि पाणिपयोजयुग्मे, भक्तिं स्तुतिं विनतिमञ्जलिमञ्जसैव । चेक्रीयते चरिकरीति चरीकरीति, यश्चर्करीति तव देव । स एव धन्यः ।। १० ।। ईर्यापथे प्रचलताऽद्य मया प्रमादादेकेन्द्रिय प्रमुख जीव निकायबाधा । निवर्तिता यदि भवेदयुगांतरेक्षा, मिथ्या तदस्तु दुरितं गुरुभक्तितो मे ।।११।। पडिक्कमामि भंते ! इरियावहियाए विराहणाए, अणागुत्ते, अइग्गमणे, णिग्ग्मणे, ठाणे, गमणे, चक्कमणे, पाणुग्गमणे, वीजुग्गमणे, हरिदुग्गमणे, उच्चारपस्सवण खेलिसिंघाण'वियडिय पइद्वावणियाए जे जीवा एइंदिया, वा वेइंदिया, वा, तेइंदिया वा, चतुरिंदिया 'वा, पंचिदिया वा, गोल्ल्दिा वा, पेल्लिदा वा संघादिदा वा, उद्दाविदा वा, परिदाविदा वा, । किरिच्छदा वा, लोस्सिदा वा, छिंदिदा वा, भिंदिदा वा, ठाणदो वा, ठाणचक्कमणदो वा, तस्स उत्तरगुणं, तस्स पायच्छित्तकरणं, तस्स विसोहीकरणं, जाव अरहंताणं, भयवंताणं, मोक्कारं पज्जुवासं करोमि, तावकालं, पावकम्मं, दुच्चरियं वोस्सरामि ।। १२ । । णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं । यहाँपर णमोकार मन्त्रका अप नौ बार करना | जीतनेवाले श्रीजिनेन्द्रदेव जयवन्त होओ || ९ || हे जिनेन्द्र ! जो पुरुष हृदयमें आपकी भक्ति, मुखसे आपकी स्तुति, शिरसे नमस्कार और हाथसे बार-बार अञ्जलि करता है अर्थात् हाथ जोड़ता है वही पुरुष इस संसार में धन्य है ।। १० ।। हे भगवन् ! मार्ग में चलते हुए मुझसे यदि प्रमादवश बिना देखे किसी एकेंद्रियादिक जीवकी हिंसा हुई हो तो वह आपकी भक्तिसे मिथ्या होवे ॥ ११ ॥ हे भगवन्! मेरे चलने में जो कुछ जीवों को हिंसा हुई हो, उसके लिए में प्रतिक्रमण ( उस किये हुए दोषका निराकरण ) करता हूँ । यथा - मन, वचन, कायको वश में न रखनेसे बहुत चलनेसे, इधर-उधर फिरनेसे, बैठनेसे जाने-आनेसे द्रियादिक प्राणियोंपर बोज और हरितकायपर पैर रखकर चलनेसे, मल, मूत्र, थूक, संग्राण ( नाकका मैल) और मिट्टी गैरह डालने से एकेंद्रिय, दोइंद्रिय, इंद्रिय, चतुरिद्रिय मथवा पंचेंद्रिय प्राणी अपने स्थानपर जानेसे रोके गये हों, दूसरी जगह डाले गये हों, संघर्षित किये गये हों, संघर्षित कराये गये हों, एक दूसरेके ऊपर डाले गये हों, तपाये गये हों, काटे गये हों, मूच्छित किये गये हों, छेदे गये हों, अपने स्थानसे अथवा जाते हुए भिन्न-भिन्न किये गये हों, तो में उसका प्रायश्चित करता [ १६ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चसागर १६९ ] SS ॐ नमः परमात्मने नमोऽनेकांताय शान्तये ।।१३।। इच्छामि भंते! आलोचेउं ईरियावहियस्स पुव्वुत्तरदक्खिणपच्छिम चउदिसु विदिसासु विहरमाणेण जुगंत्तर दिट्टिणा, भव्वेण, दट्ठवा । पमाददोसेण डवडवचरियाए पाणभूदजीवसत्ताणं उवघादो कदो वा कारिदो वा कीरंतो वा समणुमण्णिदो, तस्स मिच्छा मे दुक्कडं । पापिष्ठेन दुरात्मना जडधिया मायाविना लोभिना, रागद्वेषमलीमसेन मनसा दुष्कर्म यन्निर्मितम् । त्रैलोक्याधिपते जिनेन्द्र भवतः श्रीपादमूलेऽधुना, निन्दा पूर्वमहं जहामि सततं दुष्कर्मणां शान्तये ॥ इस पशुद्धिसे पहले लगे हुए पापोंका निराकरण करना चाहिये । फिर कनत्कनकर्घटितं विमलचीनपट्टोज्वलं बहुप्रकटवर्णकं कुशलशिल्पिभिर्वर्णितम् । जिनेन्द्रचरणाम्बुजद्वयं समर्चनीयं मया समस्तदुरितापहृत् वदनवस्त्रमुद्धाव्यते ॥ यह श्लोक पढ़कर अपने मुखपरके वस्त्रको हटाना चाहिये । श्रीमुखालोकनादेव श्रीमुखालोकनं भवेत् आलोकन विहीनस्य तत्सुखावाप्तयः कुतः । हैं। उन दोषोंकी शुद्धि करने के लिए भगवान अरहंतको नमस्कार करता हूँ तथा ऐसे पापकर्म तथा दुष्ट आचरणोंका त्याग करता हूँ ॥ १२ ॥ अनेकान्त और शान्त परमात्मा के लिये नमस्कार हो, हे भगवन् ! मैं ईर्ष्यापथकी आलोचना करता हूँ, पूर्व, उत्तर, दक्षिण, पश्चिम चारों दिशा और ईशानादिक विदिशाओं में इधर-उधर फिरनेमें वा ऊपरको ओर मुख 'करके चलने में प्रमादवश ढींद्रियादिक प्राणी वृक्षादिक भूत पंचेंद्रियादिक जीव और एकेंद्रियादिक सत्व जोवोंका घात किया हो, कराया हो, अनुमति दी हो वे सब नाश होवें । हैलोक्याधिपते जिनेन्द्र ! पापों, दुष्ट, मन्दबुद्धि, कपटी, लोभी ऐसे मेरे द्वारा रागद्वेषसे मैले मनसे जो कुछ दुष्कर्म हुआ हो, उनको शांति करनेके लिए आपके चरण कमलोंके निकट अपनी निन्दा करता हुआ उन कामोंको छोड़ता हूँ । जो देदीप्यमान सुवर्णके समान है, सफेद रेशमी वस्त्रके समान निर्मल है। जिनकी अनन्त महिमा प्रकट है चतुर कारीगर भो जिनका वर्णन करते हैं जो समस्त पापोंको दूर भरनेवाले हैं ऐसी श्रीजिनेन्द्रदेव के चरण-कमलोंकी पूजा करनी चाहिये इसीलिए में अपने मुखवस्त्रको हटाता हूँ । २२ [ १६९ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॐ ह्रीं अहं नमोहत्परमेष्ठिभ्यः श्रीमुखालोकनेन मम सर्वशान्तिर्भवतु स्वाहा । यह मन्त्र पढ़कर भगवानके मुखको देखना चाहिये फिर "ॐ ह्रीं अहं निःसहो यागो: प्रविशामि स्वाहा" यह मन्त्र पढ़कर पूजाको भूमिपर्यन्त प्रवेश करना चाहिये फिर "ॐ ह्रीं श्रीं क्षों भू स्वाहा" यह व सागर । मंत्र पर भगवाको आदेपुमांगशिप जगल चाहिये। फिर “ॐ ह्रीं वाघमुद्घोषयामि स्वाहा" यह १७० ] मंत्र पढ़कर घंटा आवि बजाना चाहिये । फिर अष्टांग वा पंचांग वा पश्वर्वशायी नमस्कार करना चाहिये। फिर उठकर भाव और भक्सिसे 'दर्शनं देवदेवस्य' आदि दर्शन पाठ पढ़कर भगवानको स्तुति करनी चाहिये, फिर दर्शनं देवदेवस्य दर्शनं पापनाशनम् । दर्शनं स्वर्गसोपानं दर्शनं मोक्षसाधनम् । देवाधिदेव श्री अरहन्तदेवका हो दर्शन करना चाहिये। यही दर्शन पापका नाश करतवाला, स्वर्गकी सीढ़ी और मोक्षका कारण है। दर्शनेन जिनेंद्राणां साधूनां वन्दनेन च । न च संतिष्ठते पापं छिद्रहस्ते पयोदकम् । श्रीजिनेंद्र देवके दर्शन करनेसे तपा गुरुओंकी वंदना करनेसे संपूर्ण पाप क्षय हो जाते हैं जैसे सछिद्र हाथोंसे जल नष्ट हो जाता है। वीतरागभुखं दृष्ट्वा पपरागसमप्रभम् । जन्मजन्मकृतं पापं दर्शनन विनश्यति । पदमराग मणिके समान वीतरागका मुख देखनेसे अर्थात् श्रीवीतरागके दर्शन करनेसे जन्म-जन्मके किये गए पाप सब नष्ट हो जाते हैं। दर्शनं जिनसूर्यस्य संसारध्वान्तनाशनम् । बोधनं चित्तपपस्य समस्तार्थप्रकाशनम् । श्रीजिनेन्द्ररूपो सूर्यका दर्शन करना संसाररूपी अन्धकारको नाश करनेवाला, मनख्यो कमलको प्रफुल्लित करनेवाला, और संपूर्ण पदार्योको प्रकाशित करनेवाला है। दर्शनं जिनचन्द्रस्य सजर्भामृतवर्षणम् । जन्मदाहविनाशाय वर्द्धनं सुखवारिधेः ॥ ५॥ श्रीजिनेन्द्ररूपो चंद्रमाके दर्शन करना जन्मरूपी दाहके नष्ट करनेके लिये सद्धर्मरूपो अमृतको वर्षाके समान है तथा सुखरूपी समुद्रको बढ़ानेवाला है। जीवादितरवप्रतिपादकाय, सम्यक्त्वमुख्याष्टगुणाययाय । प्रशान्तरूपाय दिगम्बराय देवाधिदेवाय नमो जिनाय । जीव, अजीव आदि तत्त्वोंको प्रतिपादन करनेवाले, सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन आदि आठ गुणोंको धारण करनेवाले परमशांत दिगम्बर देवाधिदेव श्रीजिनेन्द्रदेवके लिये मैं नमस्कार करता है। चिदानन्देकरूपाय जिनाय परमात्मने। परमात्मप्रकाशाय नित्यं सिखात्मने नमः। अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन और अनन्त सुखरूप परमात्मतत्त्वको प्रकाशित करनेवाले रोजिनेन्द्र परमात्मा सिक्षपरमेष्ठोके [ लिये में नित्य ही नमस्कार करता हूँ। PRITERASHAMASTMAITRAPHERMEN ASSHearmawes Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F कायोत्सर्ग कर नमस्कार करना चाहिये फिर जल, गंधादिक पूजनकी सामग्रीको तथा उपकरणादिकोंको पवित्र कर अर्घ बनाना चाहिये । "ओं ह्रीं अहं वास्तुदेवाय इदमयं पाचं, गंध, पुष्पं, दोपं, धूपं, चरुं, बलि, स्वस्तिकं, है पर्चासागर अक्षतं, यज्ञभागं च यजामहे प्रतिगृह्यता प्रतिगृह्यता स्वाहा" यह मन्त्र पढ़ कर पूजनकी भूमिपर अर्घ चढ़ाना [ १७१ चाहिये । फिर "ओं ह्रीं वायुकुमाराय सर्वविघ्नविनाशनाय महीं सम्मार्जनं कुरु कुरु स्वाहा" यह मन्त्र पढ़कर डाभके पूलासे पूजाको भूमिको मार्जन करना चाहिये तथा पूर्व दिशा और ईशान विदिशाके मध्यमें एक अर्ध! म देना चाहिये। फिर "मेघकुमाराय हं संव में वं क्षालनं कुरु कुरु धरा प्रक्षालय प्रक्षालय अहं भूमिशुद्धि करोमि स्वाहा" यह मन्त्र पढ़कर जलको डाभसे लेकर पूजाकी पृथ्वीपर छोटे देने चाहिये। फिर ईशान और उत्तर दिशाके मध्यमें मेयकुमारको अर्घ देना चाहिये। फिर “ओं ही अर्ह अग्निकुमाराय भूमि ज्वालय ज्वालय, अंहं सं ठं ठंसं पः फट् स्वाहा" यह मंत्र पढ़कर दामके पूलेको वीपकसे जलाकर पूजाको पुरवीपर रखना चाहिये तथा अग्निकोणमें अग्निकुमारके लिये एक अर्थ देना चाहिये। फिर "ओं ह्रीं क्रौं वषट, षष्ठिसहस्त्रसंख्येभ्यो नागेभ्यो अमृतमिलि प्रसिधयामि स्वाहा" यह मंत्र पढ़ कर ईशानकोणमें मागकुमारोंको संतुष्ट करने के लिये जलधारा वेनी चाहिये। फिर मां को अत्रस्थ क्षेत्रपाल आगच्छागच्छ संवौषट् अत्र तिष्ठ तिष्ठ 3 भत्र मम सन्निहितो भव भव वषट, इवं अध्यं पाणं, गंध, पुष्पं, वोपं, धूपं, बरुं, बलि, स्वस्तिकं, अक्षत, यामागं च यजामहे, यजामहे, प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्मासां स्वाहा इस मन्त्रको पढ़कर वहाँके क्षेत्रपालको आह्वान ____ यथा शरणं नास्ति त्वमेव शरणं मम । तस्मात्कारुण्यभावेन रक्ष-रक्ष जिनेश्वर ! हे भगवान् मुझे आप ही शरण है और कोई कारण नहीं है । इसलिये हे जिनेश्वर ! करुणा करके मेरी रक्षा कीजिये। जिनधर्मविनिर्मुक्तो माभवं चक्रवर्त्यपि । स्याच्चेटोपि दरिद्रोपि जिनधर्मानुवासितः। जिनधर्मसे रहित चक्रवर्ती होना अच्छा नहीं और जिनधर्म सहित दरिद्र सेवक होना अच्छा। जन्मजन्मकृतं पापं जन्मकोस्यामपाणितम् । जन्ममृत्युजरातक हन्यते जिनदर्शनात् । श्रीजिनेन्द्रदेवके दर्शन करनेसे जन्म-जन्मके किये हये पाप तथा कोटि जन्ममें उपर्जन किये जन्म, मृत्यु, जरा, रोग आदि सब नष्ट हो जाते हैं। ... नहि त्राता नहि त्राता नहि त्राता जगत्त्रये । वीतरागात्परो देवो न भूतो न भविष्यति । इन तीनों लोकोंमें वीतराग देवके सिवाय अन्यदेव न रक्षा करनेवाले हुए न होंगे। जिने भक्तिजिने भक्तिजिने भक्तिदिने दिने । सदामेऽस्तु सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु भवे भवे । मेरे प्रतिदिन और प्रत्येक भवमें श्रीजिनेन्द्रदेवको हो भक्ति सदा रहो। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर १७२ ] । स्थापन सन्निधिकरण कर एक अर्घ बेना चाहिये फिर शांति पाठ तथा पुष्पांजलि क्षेपण करना चाहिये। फिर पूजाकी भूमिपर नीचे लिखे मन्त्र पढ़कर अलग-अलग अष्ट द्रव्य चढ़ाना चाहिये। ओं ह्रीं नीरजसे नमः जलं, ओं ह्रीं दर्पमथनाय नमः वर्भ, ( यहाँपर दाभ रखनी चाहिये।) ओं ह्रीं शीलगंधाय नमः गंध, ओं ह्रीं अक्षताय नमः अक्षतान, ओं हों विमलाय नमः पुष्पं, ओं हों परमसिद्धाय नमः नैवेद्यं, ओं ह्रीं ज्ञानोद्योताय नमः दीपं, ओं हों श्रुतधूपाय नमः धूपं, ओं ह्रीं अभीष्टफलदाय नमः फलं, इस प्रकार अष्ट द्रव्यसे पूजाको भूमिको पूजा करनी चाहिये फिर उस भूमिपर किसो ऊँचे आसन पर शांति चक्रका यंत्र स्थापन करना चाहिये। फिर उस यंत्रके बांई ओर नीचे भूमिपर अपने बैठनेके लिये देख शोधकर दाभका आसन बिछाना । चाहिये और उस समय "ओं ह्रीं अहं मां ठः ठः दर्भासन निक्षिपामि स्वाहा" यह मंत्र पढ़ना चाहिये। फिर "ओं हों अहं निःसही हुं फट् वर्भासने उपधिशामि स्वाहा" यह मंत्र पढ़कर उस काभके आसन पर बैठ जाना चाहिये। फिर "ओं हों अहं हय मौनस्थिताय अहं मौनजलं गृहामि स्वाहा" कह मंत्र पढ़कर हाथमें थोड़ा जल लेकर और मौनव्रत धारण करनेको प्रतिज्ञा कर जलधारा छोड़ देनी चाहिये । अर्थात् हाथका जल छोड़ देना चाहिये। यहाँसे आगे पूजा करनेवालेको मौन धारण करना चाहिये। फिर ओं ह्रीं भूः प्रपञ्चे भुवः प्रपद्ये स्वः। । प्रपद्ये चतुर्विशतितीर्थकुच्चरणशरणं प्रपद्ये मांगानि शोषयामि स्वाहा' यह मंत्र पढ़कर अपने वस्त्रके ठोकसे । (पल्लेसे ) अपना शरीर शुद्ध करना चाहिये । यह अंगशुद्धिका मंत्र है। फिर 'ओं ह्रीं अहं अमुजर असुजर भव तथा हस्तौ प्रक्षालयामि स्वाहा' यह मंत्र पढ़कर अपने दोनों हाथ धोने चाहिये । यह हायोंके शुद्ध करनेका मंत्र है। फिर 'ओं ह्रां ह्रीं हूं ह्रौं हः नमोहंते भगवते श्रीमते पवित्रजलेन पात्रशुद्धि करोमि स्वाहा' यह मंत्र । पढ़कर गंध मिले हुए जलसे पूजाके सब पात्र शुद्ध करना चाहिये और फिर उन पात्रों में पूजाके अष्ट द्रव्य । स्थापन करना चाहिये । यह पात्र शुद्धि है। फिर 'ओं ह्रीं अहं शौं सौं वं मं हं सं तं पं झ्वों श्वों हं सं असि आ उ सा समस्सजलेन शुद्धपात्रे निक्षिप्तानि पुष्पादिपूजानव्याणि शोधयामि स्वाहा' यह मंत्र पढ़कर बामसे जल लेकर पूजाके सब द्रव्योंपर छींटा देना चाहिये और इस प्रकार सब द्रव्योंको शुद्ध कर लेना चाहिये । यह द्रव्य शुद्धिका मंत्र है। फिर 'ओं ही अहं आग्नेस्यां दिशि अस्मविद्यागुरुभ्यो बलिं ददामि स्वाहा' यह मंत्र है SATARNATAचार- चामान्यप Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [ १७३ ] पढ़कर आग्निकोणमें अपने विद्यागुरुके लिये अर्थात् णमोकार मंत्र आदि भगवान अरहंत देवके कहे हुए श्रुतजानको पढ़ानेवालेके लिये एक अर्ध देना चाहिये। यह विद्यागुरुकी पूजाका मंत्र है। फिर 'ओं ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिस्योऽयं समर्पयामि स्वाहा' यह मंत्र पढ़कर सिद्ध परमेष्ठीको एक अर्ध देना चाहिये। फिर सहस्रनामका पाठ करना चाहिये फिर पूजा करनेवालेको अपने अंग और मनकी शुद्धि करनेके लिये सकलोकरण करना चाहिये । सकलीकरणकी विधि इस प्रकार है । सबसे पहले अग्निमंडला चितवन करना चाहिये । एक त्रिकोण आकारका यंत्र बनाना चाहिये उसके तीनों ओर सौ ( १०० ) रेफ वा रकार बनाना चाहिये उन रकारों के ऊपर आधे रकारका आकार और बनाना चाहिये इसको अर्द्ध रेफकी ज्वाला कहते हैं। ऐसे रेफोंमें व्याप्त अग्नि मंडलके मध्यमें अपने शरीरको स्थापन करना चाहिये तथा ध्यान कर अपने शरीरके मलको दग्ध करना चाहिये जलाना चाहिये । उसकी विधि इस प्रकार है। 'ओ ह्रीं अहं भगवते जिनभास्कराय बोधसहस्रकिरणैर्मम किरणेन्धनस्य द्रव्यं शोषयामि घे घे स्वाहा। यह मंत्र पढ़कर अपने कर्म मलको सोखना चाहिये अर्थात् वाभके छोटे पूलेको वोपकसे सेक लेना चाहिये और फिर उस वासको अग्निमंडलमें भस्म कर देना चाहिये सो हो लिखा है— 'अग्निमंडलमध्यस्थै रेफेर्व्वालाशताकुलैः । सर्वांगदेशजेर्ध्यात्वा ध्यानदग्धं वघुर्मलम् ॥ इसीको यंत्र द्वारा दिलाते हैं- १. अर्थात् अग्निमंडलके मध्य में बैठकर सो रेफ ज्वालाओंसे व्याप्त होकर तथा सब शरीरसे ध्यान कर उस ध्यानके द्वारा शरीरके मलको जलाना चाहिये । [ १ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर १७४ ] Par अग्निमंडल यंत्र Edit letor tw In ओं हां हीं हूं ह हः ओं ओं ओं ओं रं रं रं म्यं संदह दह कर्ममलं दह दह दुःखं घेघे स्वाहा ww Sy www c १७ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूजा करनेवालेको वर्भासनपर बैठकर ऊपर लिखा मंत्र पढ़कर अपने पाप सम्बन्धी पापमलको जलानेके लिये वाभको दीपकसे जलाकर अग्निमण्डलपर रखना चाहिये। फिर ' ही मह प्रोजिन प्रभुजिमाय कर्मभस्मविघूननं कुरु कुरु स्वाहा' इस मन्त्रको पढ़कर उस जलो हुई वामकी भस्मपर जलधारा बेकर उसको बुमा देना चाहिए। फिर पञ्च परम गुरुमुद्रा धारण करनी चाहिये। फिर अ सि आ उ सा इनका न्यास करना चाहिये । अर्थात् इनको स्थापन करना चाहिये। फिर मल मण्डल यन्त्र बनाकर उसके ऊपर वह पः हः इन अमृत बीजोंको स्थापन कर अपने मस्तकपर जल छोड़ना चाहिये। उसकी विधि इस प्रकार है-किसी तांबेके पात्रमें ( गोल कटोरा आदिमें ) जल भरकर उसमें अनामिका उंगलीसे जल मण्डल यन्त्र लिखना चाहिये । सो हो लिखा है शठं स्वरावृत्तं तोयं मण्डलद्वयवेष्टितम् यन्त्र जलमण्डल - . M १. पहा परम गुरु मुद्राका स्वरूप इस प्रकार है। अपने दोनों हाथोंको सोषा कर दोनों हाथोंकी आठों संगलियोंको एक मोधमें। मिलाकर बड़ी करनी चाहिए । फिर दोनों अनामिका (सबसे छोटी उंगलियों को मिली बड़ी करना चाहिए। फिर । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर १७६ फिर उस जलमण्डलमें आचमनी ( छोटी चमची ) रखकर "ॐ ह्रीं अमृते अमृतोदभवे अमृतवर्षिणि । अमृतं भावय श्रावय सं सं क्लीं क्लीं ब्लू ब्लू ब्रा मा द्रों द्रीं द्रावय द्रावय हं #वों श्वी हैं सः असि आ उ सा अहे नमः स्वाहा" यह मन्त्र पढ़कर माधमनोसे जल लेकर मस्तकपर गलना चाहिए और इस प्रकार तीन बार करना चाहिए यह अमृतस्नान है। फिर अपने दोनों हाथोंकी कनिष्ठा उंगलीसे लेकर अनुक्रमसे अंगूठे । । पर्यन्त मूलको रेखासे ऊपरको रेखा तक पञ्चनमस्कारका न्यास करना चाहिए, स्थापन करना चाहिए उसको । विधि इस प्रकार है-"ॐ ह्रीं णमो अरहन्ताणं कनिष्ठकाभ्यां नमः। ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं अनामिकाभ्यां नमः। ॐ ह्रीं गमो आइरिमाणं मध्यमाभ्यां नमः । ॐ ह्रीं णमो उवमायाण सजिनीभ्यां नमः । ॐ ह्रीं णमो लोए सव्वसाहणं अंगुष्ठाभ्यां नमः । इस प्रकार अलग-अलग मन्त्र पढ़कर दोनों ही हाथोंको जैगलियोंको मूल रेखासे, लेकर ऊपरके पर्व तक अंगूठा लगाकर अलग-अलग नमस्कार करना चाहिये । इसको करन्यास कहते हैं । फिर "ॐ ह्रौं अहं व में हं सं तं पं असि आ उ सा हस्तसंपुटं करोमि स्वाहा" यह मन्त्र पढ़कर दोनों हाथ मिला । कर कमलको कणिकरके समान संपटका करना चाहिए अर्थात् हाथ जोड़ना चाहिए। तथा दोनों हाथोंके अंगूठोंको ऊँचा खड़ा रखना चाहिए। फिर नीचे लिखे मन्त्र पढ़कर अंगन्यास करना चाहिये उसको विधि प्रकार है।'ॐ ह्रीं णमो अरहन्ताणं स्वाहा हदि' यह मन्त्र पढ़कर उन जड़े हुए हाथोंके खड़े अंगूठोंको हृदयसे लगाना चाहिए। ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं ललाटे । ॐ ह्रीं णमो आइरिआणं शिरसि । ॐ ह्रीं णमो उबज्मायाणं शिरो दक्षिणभागे। ॐ ह्रीं णमो लोए सब्बसाहूर्ण शिरोपश्चिमवेशे। इन मन्त्रोंको पढ़कर दोनों हाथोंके अंगूठोंको अनुक्रमसे हृदय, ललाट, मस्तक, मस्तकके बायीं ओर और बायीं ओर नमस्कारपूर्वक स्पर्श करना चाहिए और उस समय हाथ जुड़े हो रखने चाहिए। यह अंगन्यास है अर्थात् अपने शरीर और हाथों में, मन्त्रपूर्वक पञ्चपरमेष्ठीका स्थापन करना है। इसके बाद इसी विधिसे और इन्हीं ऊपर लिखे मन्त्रोंसे दूसरा अंगन्यास करना चाहिए । उसके स्थान ये हैं। ॐ ह्रीं णमो अरहन्ताणं स्वाहा शिरोमध्ये, ॐ ह्रीं णमो दोनों हाथोंकी मध्यमा उँगलियोंको तर्जनी उंगलोसे दाबना चाहिए और दोनों कनिष्ठा उँगलियोंको अंगूठेसे दाबना चाहिये। इस प्रकार करनेसे पाँच उंगलियां ऊपरको खड़ी हुई दिखाई देंगी तथा पाँच दबी हुई अदृश्य रहेंगी। इसीको पंच गुरुमुद्रा कहते हैं। ॥ २. इस श्लोकसे जो मण्डल बनता है वह दूसरे नम्बर पर लिखा है। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चासागर (१७७ ] SpeamPHOLARSHIPRANAMASHArna र सिद्धाणं शिरोऽग्रभागे, ॐ ह्रीं णमो आइरिआणं शिरो नैऋत्याम्, ॐ ह्रीं णमो उवमायाणं शिरो वायव्याम् ॥ ॐ ह्रीं णमो लोए सव्वसाहूणं शिरोईशाने । ( शिरके मध्यमें, शिरके आगे, शिरको नैऋत विशामें, शिरको है वायव्य दिशामें और शिरको ईशान विशामें अंगन्यास करे ) फिर तीसरा अंगन्यास ऊपर लिखे मन्त्र पढ़कर अनुक्रमसे दाहिनी भुजा, बायीं भुजा, नाभि, वायों कोख और बायीं काँखमें करे। यथा--ॐ ह्रीं गमो अरहन्ताणं स्वाहा दक्षिणभुजायां, ॐ ह्रीं णमो शिक्षा दामभुजाया को किरा नाभी, ॐ ह्रीं नमो उवमायाणं दक्षिणकुक्षौ, ॐ ह्रीं णमो लोए सब्यसाहणं वामकुक्षौ । तवनन्तर बाएँ हाथकी तजिनी उंगली में पंचमन्त्रको स्थापन कर पूर्व दिशाको आदि लेकर दशों दिशाओं में नीचे लिखे मन्त्र पढ़कर सरसों क्षेपण करनी चाहिए । ॐ क्षों स्वाहा पूर्वस्या, क्षों स्वाहा आग्नेये, ॐ झुं स्वाहा दक्षिणे, ॐः स्वाहा नैऋत्ये, ॐ क्षों स्वाहा पश्चिमे, ॐ क्षों स्वाहा वायव्यां, ॐ क्षों स्वाहा उत्तरे, ॐ शं स्वाहा ईशाने, * क्षः स्वाहा अधः, ॐ भः स्वाहा ऊर्ध्वम् । इस प्रकार वशों विशाओंमें सरसों स्थापन करनी चाहिये। फिर ॐ ह्रां ह्रीं हूं, हैं ह्रौं । से हहः स्वाहा, इस मन्त्रको पढ़कर वशों विशाओंमें सरसों क्षेपण करनी चाहिए। यह शून्य बीज है। इस प्रकार वंशों दिशाओंका बन्धन करना चाहिए। फिर मन्त्रको जाननेवाले श्रावकको मन्त्रपूर्वक कवच और करन्यास करना चाहिए । इसकी विधि इस प्रकार है। ॐ ह्रीं क्याय नमः शिरसि, ॐ ह्रीं शिखायै वषट, कवचाय हूं, अस्त्राय फट ' यह मन्त्र पढ़कर पृथक-पृथक् मन्त्रोंसे मस्तकका स्पर्श करना चाहिये। चोटोका स्पर्श कर चोटीमें गांठ बांधनी चाहिए। फिर कन्धेसे लेकर समस्त शरीरको दोनों हाथोंसे स्पर्श कर फिर दोनों हाथोंसे ताली बजाकर शब्द करना चाहिए । फिर परमात्माका ध्यान करना चाहिए। ध्यानके मन्त्र ये हैं। ॐ ह्रीं णमो अरहन्ताणं अर्हद्भयो नमः' इसको २१ बार जपना चाहिए । 'ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धेभ्यः नमः स्वाहा' इसको भी २१ बार जपता चाहिए। इन मंत्रोंके द्वारा पद्मासनसे कायोत्सर्गपूर्वक ध्यान करना चाहिये । इस प्रकार सकलीकरण विधानके द्वारा अपना मन शुद्ध करना चाहिए । भावार्थ-शौच दो प्रकार है एक बाह्य और दूसरा आभ्यन्तर । सो जल, मिट्टी आदिसे तो बाह्य शौच करना चाहिये और मन्त्रसे . आभ्यन्तर शौच करना चाहिये । सो ही लिखा है-'स बाह्याभ्यन्तरे शुचिः। . तदनन्तर अनुक्रमसे देव, शास्त्र, गुरुको पंचो पंचोपचारी पूजा करनी चाहिये । फिर सिद्धचक्रको पूजा करनी चाहिये । मागे उन्हीं पूजाओंको लिखते हैं । TRISHAIRATRAIIMSTORIE Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चासागर [ १७८ ) ___ॐ ह्रीं अहं श्रीपरमब्रह्मन् अनन्तानन्तज्ञानशक्ते एहि एहि अत्रावतरावतर संवौषट् स्वाहा इत्याह्वानम्।। ॐ ह्रीं अहं श्रीपरमब्रह्मन् अनन्तानन्तज्ञानशक्ते अन सिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्वाहा स्थापनम् । ॐ ह्रीं अहं । श्रीपरमब्रह्मन् अनन्तानन्तज्ञानशक्ते अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् स्वाहा इति सन्निधिकरणम् । इस प्रकार सबसे पहले आकर्षण करना चाहिये और वह आकर्षण आकर्षणी मुद्रासे तथा दंडासनसे ( खड़े होकर ) पुष्पक्षेपण करना चाहिये। दूसरा उपचार स्थापन है वह पद्मासनसे अथवा सुखासनसे स्थापनो कर्षणो मुद्रापूर्वक पुष्पक्षेपण कर करना चाहिये। तीसरा सन्निधिकरण पपासनने ऊर्ध्व मुद्रा रखकर पुष्पोपण करना चाहिये । इन तीनों मुद्राओंका स्वरूप इस प्रकार है। दोनों हाथोंको खोलकर एक साथ मिलाकर फैलावे फिर दोनों अंगूठे अनामिकाके मूलस्थानमें रखनेसे आकर्षणी मुद्रा बन जाती है। स्थापनोमुद्रा-उसी आकर्षणीमुद्रा सहित दोनों हाथों को उलटा रखनेस स्थापनामुद्रा होती है। सन्निधिकरणमुत्रा-दोनों हाथोंको मुट्ठी बांधकर । मिलानेसे और दोनों अंगूठे ऊपरकी ओर रखनेसे सन्निधिमुद्रा होती है। सन्निधिकरण करते समय सन्निधिमुद्रासे हृदय स्पर्श करना चाहिये और नमस्कार करना चाहिये । सो हो मुद्रोद्धार शास्त्रमें लिखा है हस्ताभ्यामजलिं कृत्वानामिका मूलपर्वणि ।। अंगुष्टौ ना क्षिपेत्सेयं मुद्रात्वावाहनी मता ॥ अधोमुखी इयं चेत्स्यात्स्थापिनी मुद्रिका मता ॥ उच्छितांगुष्ठयुष्टयोस्कसंयोगात्सन्निधापिनी ॥ इस प्रकार मुद्राका स्वरूप बतलाया। तदनंतर श्रीं आई श्रीपरमाणेऽनंतालानशाक्तये जलं निर्वपामीति स्वाहा। जलम । यह मंत्र पढकर जल चढाना। फिर 'ॐ ह्रीं आई श्रीपरमब्रह्मणेऽनन्तानन्तज्ञानशक्तये गंध निर्वपामीति स्वाहा' । गंध ।। यह मंत्र पढ़कर भगवानके चरणोंपर गंध लेपन करना चाहिये। फिर 'ॐ ह्रौं अहं श्रीपरमब्रह्मणेऽनन्तानन्तजानशक्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्थाहा' । अक्षतान् । यह मंत्र पढ़कर अक्षत बढ़ाना चाहिये । फिर 'ॐ ह्रीं अहं श्रीपरमब्रह्मणेऽनन्तानन्तज्ञानशक्तये पुष्पं निर्वपामोति स्वाहा'। पुष्पं । यह मंत्र पढ़कर पुष्प चढ़ाना चाहिये । फिर 'ह्रीं अहं श्रीपरमब्रह्मणेऽनन्तानन्तशाक्तये नैवेद्य मिर्वपामीति स्वाहा' । नैवेद्यम् । यह मंत्र । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चासागर : पढ़ कर नैवेद्य चढ़ाना चाहिये। फिर 'ॐ ह्रीं बहमीपरमब्रह्मणेऽजन्तामन्तज्ञानशक्तये रोपं निपामीति स्वाहा।। बीपं । यह मंत्र पढ़कर दीपक संजोकर भगवानके सामने आरती उतार कर उस दीपकको सामने रखना है ये। फिर 'ॐ ह्रीं अहं श्रीपरमब्रह्मणेऽनन्तानन्तज्ञानशक्तये धूपं निर्धपामोति स्वाहा'। धूपम् । यह मंत्र पढ़कर धूपदानमें रक्खी हुई अग्निमें चन्दनःधिक सुगंधित पयायोगो को नई धूर प्रज्वलित करना चाहिये ।। फिर 'ॐ ह्रीं अहं परमब्रह्मणेऽनन्तानन्तशक्तये फलं नियंपामोति स्थाहा' फलं। यह मंत्र पढ़कर भगवानके सामने फलके पुज चढ़ाना चाहिये । फिर 'ॐ ह्रीं अहं परमब्रह्मणेऽनन्तानन्तज्ञानशक्तये जलाय, निर्वपामोति। । स्वाहा' अर्घ्यम् । यह मंत्र पढ़कर जल, चंदन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल, स्वस्तिक वर्भ, दूब, सरसों आदिका अर्घ बनाकर सामने आरती उतार कर चढ़ाना चाहिये तदनंतर सरस्वतीको पूजा करनी चाहिये। उसका मंत्र यह है 'ॐ ह्रीं परमब्रह्म मुखकमलोत्पन्न द्वादशांगश्रुतेभ्य जलं निर्वपामीति स्वाहा' इसी प्रकार चंदन अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दोप, धूप, फल, वस्त्र और अर्घ चढ़ाना चाहिये इस प्रकार अनुक्रमसे श्रुप्तपूजा करनी चाहिये । तदनन्तर आचार्य परमेष्ठीको पूजा करनी चाहिये उसका मंत्र यह है। ॐ ह्रीं शिवपवसाधकेभ्यः # आचार्यपरमेष्ठिभ्यः जलं निषेपामोति स्वाहा' इसी प्रकार चंदन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल, अर्घ, बढ़ाना चाहिये इस प्रकार अनुक्रमसे गुरुकी पूजा करनी चाहियें। फिर सिद्धपूजा करनी चाहिये उसका मंत्र यह है 'ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्ध परमेष्ठिभ्यो जलं गृहाण गृहाण स्वाहा' इसी प्रकार गंध, अक्षत, पुष्प, ॥ नैवेद्य, वीप, धूप, फल, अर्घ चढ़ाना चाहिये । यह सिद्धार्चन कहलाता है। फिर भगवानके चरण-कमलोंपर जो चन्वनका विलेपन किया था उसमें से बचे हुए चन्दनका तिलक करना चाहिये । तथा प्रभुके धरणोंसे स्पर्शित किये गये पूजाके पुष्पोंको माला बनाकर अपने कण्ठमें धारण करनी चाहिये । सो ही लिखा हैजिनाद्विस्पर्शनात्माला निर्मले कंठदेशके । ललाटे तिलक कार्य तेनैव चंदनेन च । n ewrape-MITEMPIREMESTHEMATRAPATRAPA अब आगे तिलक लगानेकी विधि लिखते हैं पहले पूजाके समय भगवान के चरणोंमें जो चन्दन लगाया था और उसमेंसे जो बचा था उस चंबनसे । cra Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्यासागर [१८] AmaneesaHDreampade- I पूजा करनेवालेको तिलक लगाना चाहिये । पूजा करनेवालेको किसी अन्य चन्दनसे तिलक लगाना योग्य नहीं है वह तिलक जैनमतमें छः प्रकारका बतलाया है। पहला आतपत्र अर्थात् तीन छत्रके आकारका यथा-- दूसरा धर्म चक्रके आकारका गोल यथा • तीसरा अर्द्धचक्रके आकारका अर्थात् अष्टमीके चन्द्रमाके आकारका यथा । चौथा त्रिशूल के आकारका अर्थात् ऊपरकी ओर तीन रेखा यथा । पाँचवां मानस्तम्भके आकारका यया । । छटा सिंहपीठ वा सिंहासनके आकारका धर्मचक्रके आकारका छोटा विदोके समान गोल यथा । इनका अभिप्राय यह है। भगवानके ऊपर तीन छत्र शोभायमान हैं उनको हृदयमें विचार कर आतपत्र बा छत्रके आकारका तिलक करना चाहिये। भगवान के यज्ञदेव धर्मचक्रको अपने मस्तकपर लिये हुए चलते हैं उस धर्मचक्रको चितवन कर चक्रके आकारका गोल तिलक करना चाहिये। तथा सुदर्शन आदि पाँचों मेरु पर्वतोंपर पांडक वनमें भगवानके जन्म कल्याणके समय अभिषेक करनेके लिये अर्द्ध चन्द्राकार स्फटिक आदि अनेक मणियोंकी बनी पांडुक शिला है। उसपर रक्ने हुए सिंहासनोंपर इन्द्र भगवानको विराजमान कर बड़े । उत्सवके साथ क्षीरसागरके जलसे भगवानका अभिषेक करता है। उस पांडुक शिलाको स्मरण कर अखं। चन्द्राकार तिलक करना चाहिये । तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र इन तीनों रत्नत्रयोंका चितवन कर त्रिशूलके आकारका अथवा त्रिदण्डाकार तिलक करना चाहिये । समवशरणके बाह्य दरवाजे के पास मानस्तम्भ है। और उसपर भगवान अरहन्त देवकी प्रतिमा विराजमान हैं उस मानस्तम्भको चितवन कर मान स्तम्भके आकारका तिलक करना चाहिये। भगवानके विराजमान होनेके सिंहासनको अपने मस्तकपर रखनेका ॥ भाव रखकर सिंहासनके आकारका तिलक करना चाहिये । इस प्रकार छहों तिलकोंके भाव बसलाये हैं। यदि ललाटपर तीन छत्र तथा अर्ब चंद्राकारका तिलक किया हो तो अपने हवयपर वोनों भुजाओंमें और कण्ठ में त्रिवण्डाकार तिलक करना चाहिए । यदि ललाट पर मानस्तम्भ वा सिंहासनके आकारका तिलक किया हो तो भुजा, कण्ठ आदि स्थानों में बिबण्ड तथा चक्राकार तिलक करना चाहिए। इन सब तिलकोने । पहले गन्धका लेपकर उसके ऊपर त्रिशूल आदिका आकार बनाना चाहिए। तीन छत्राकार और अर्ध चन्द्रा कार तो आजी रेखा बनाकर बनाना चाहिए, त्रिदण्ड और मानस्तम्भ ऊपरको ओर रेखा कर बनाना चाहिए। तथा धर्मचक्र और सिंहासन गोल आकारका बनाना चाहिए । मानस्तम्भ तो एक अंगुल चौड़ा करना चाहिए। SHIDARPps Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर १८१ ] तथा दो अंगुल जोला को लिखा है। लथा हमको लापाई जार अंगुल करनी चाहिए। और वह इस प्रकार 4 बनाना चाहिए जो दोनों नेत्रोंको भौवोंके केशोंको स्पर्श करता रहे। तथा चक्राकार और त्रिवण्डाकार भी भौंवोंके केशोंको स्पर्श करता हुआ बनाना चाहिए । यह सब तिलकोंके आकारका निरूपण बतलाया । इन छहों प्रकारके तिलकोंमेंसे क्षत्रियोंको तो अर्द्ध चन्द्र तथा छत्रत्रयका तिलक करनेका अधिकार है। ब्राह्मणोंको मानस्तम्भ सिंहपीठ तथा छत्राकार तिलक करनेका अधिकार है। वैश्योंको मानस्तम्भ तथा छत्राकारका तिलक करना सुखदायक है और शूद्रोंको चक्राकार तथा अन्य लोगोंको त्रिदण्डाकार तिलक करनेकी आम्नाय है। गृहस्थोंको ललाटपर तिलकके ऊपर जिनपादाचित अक्षतोंको (जिन अक्षतोंसे भगवानके चरण कमलों को पूजा को है उन अक्षतोंको ) एक अंगुलमात्र लगाना चाहिये, और आसिकाके अक्षत अपने ललाटपर चढ़ाना चाहिये। पंच परमेष्ठीको अपने अंगोंमें स्थापन करना ही तिलक करनेका अभिप्राय है। ये तिलक पंचपरमेष्ठीके चिह्न हैं । अरहन्तोंको ललाटपर स्थापन करना चाहिये, सिद्धोंको हृदयमें, आचार्योको कण्ठमें, उपाध्यायों को दाहिनी भुजाओं और सर्व साधुओंको बायीं भुजाओंमें स्थापन करना चाहिये । यही तिलक करनेका हेतु । है । सो ही लिखा हैअर्हतां वा ललाटे च सिद्धानां हृदये तथा । आचार्याणां च श्रीकंठे पाठको दक्षिणे भुजे।। साधूनां वामभागे च पंचस्थानं प्रकीर्तितम् ।। इनके सिवाय कर्ण उवर आदि अन्य अंग उपांगोंमें भी तिलक करना कहा है । सो ही लिखा है जिनाहिचन्दनैः स्वस्य शरीरे लेपमाचरेत् । और भी लिया हैभुजयोर्भालदेशे वा कंठे हृदुदरेपि च । सर्वांगरचना कार्या विकारपरिवर्जिता ॥ इस प्रकार तिलकके चिह्न करने चाहिये। [१८१ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर [ १८२] पूजा करते समय धोती, दुपट्टा ये वी बस्त्र और यज्ञोपवीत वा जनेऊ धारण करना चाहिये । जनेऊ पहननेका मन्त्र यह है 'ॐ हीं सम्यग्दर्शनज्ञानचरित्रेभ्यो नमः अहं यज्ञोपवीतं धारयामि स्वाहा' इस मन्त्रसे जनेऊ पहनना चाहिये । तदनन्तर कर्ण, कुण्डल, मुकुट, मुद्रिका और कंकण आदि आभूषण धारण कर फिर अपनेको इन्द्रकी कल्पना कर पंचामृताभिषेक पूर्वक पूजा करनी चाहिये। यदि ऊपर लिखे आभूषण पहननेका । योग न मिल सके तो भगवानके चरण-स्पशित चंदनसे तिलक करना चाहिये और उसी चंदनसे समस्त शरीरपर आभूषणोंका चित करना चाहिये । सो ही लिखा है-- ___ वस्त्रयुग्मं यज्ञसूत्रं कुण्डलं मुकुटं तथा । मुद्रिका कङ्कणं चेति कुर्याच्चंदनभूषणम् । पूजासागरमें भी लिखा है-- धृत्वा शेखरपट्टहारपटकप्रैवेयकालम्बकं केयूरांगदमध्यवन्धुरकटी सूत्रं च मुद्रांकितम् । चंचस्कुडलकर्णपूरममलं पाणिद्वये कंकणं मंजीरं कंटकं पतेर्जिनपतेः श्रीगंधमुद्रांकित्तम् । इस प्रकार विधि कर फिर भगवानका अभिषेक करनेके लिये पांडुशिलाको कल्पना कर श्रीपीठ स्थापन करना चाहिये । अभिषेकको विधि क्रमसे इस प्रकार है-- ॐ ह्रीं स्वस्तये कलशस्थापनं करोमि स्वाहा। यह मन्त्र पढ़कर कलश स्थापन करना चाहिये। फिर ॐ ह्रां ह्रीं हूं, है हैं ह्रीं ह्रः असि आ उ सा पनादि षट्हुदा गंगासिंध्यादिचतुर्वशनदीमहातरित: जपनस्तत्र स्थिताः सफलदेवताः तीर्थोदकप्रदानेन प्रसीदन्तु इदं तीर्थजलं भवतु स्वाहा । यह मन्त्र पढ़कर कलशों में जल भरना चाहिये । 'ॐ ह्रीं नेत्राय संवौषट ' यह मन्त्र पढ़कर गंध, अक्षत, पुष्पादिकसे कलशोंकी पूजा करनी चाहिये । तथा दाभ दूर्घा पुष्पमाला और पाँच पल्लवोंसे ( पाँच पानसे या आमके पांच पत्तोंसे ) उन कलशोंको सुशोभित करना चाहिये। फिर सूत्रबन्धन करना चाहिये अर्थात् उन। कलशोंके चारों ओर रंगति सूत ( कलावा ) लपेटना चाहिये। तदनन्तर 'ॐ ह्रीं स्वस्तये पोठमारोपयामि । स्वाहा' यह मन्त्र पढ़कर सिंहासन उठाना चाहिये । और ॐ ह्रीं अहं क्षां ठः ठः श्रीपीठस्थापनं करोमि स्वाहा Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । यह मन्त्र पढ़कर उस सिंहासनको मन्त्रसे आगे पूर्वकी ओर मुखकर अथवा उत्तरको ओर मुखकर स्थापन करना। चाहिये । यह सिंहासन अथवा पोठके स्थापन करनेको विधि है। फिर ॐ ह्रीं अहं पीठं प्रक्षालयामि स्वाहा' सिागर यह मन्त्र पढ़कर उस सिंहासनको जलसे प्रक्षालन करना चाहिये । फिर 'ॐ ह्रीं वर्षमथनाय नमः' यह मन्त्र। १८३ ] पढ़कर उस सिंहासनमें दाभ रखना चाहिये। फिर 'ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रेभ्यः स्वाहाः' यह मन्त्र पढ़ । कर जल, गंध,अक्षताविफसे उस सिंहासनका पूजन करना चाहिये। फिर 'ॐ ह्रीं श्रीं श्रीकारं लेखयामि । स्वाहाः' यह मन्त्र पढ़कर उस सिंहासन पर केशर अथवा चंदनसे श्रीः इस प्रकार श्रीकार लिखना चाहिये । फिर ह्रीं श्रीं श्रीयंत्र पूजयामि स्वाहा' यह मन्त्र पढ़कर जल, गंध, अक्षत, पुष्प आदिसे उस श्री यंत्रकी (लिखे हुए श्रीको पूरा करता मालिये। तदनन्तर स्वयं उठकर भगवानके सन्मुख खड़ा होकर हाथ जोड़ना चाहिये 'ॐ ह्रीं अहं धाने वषट' इस मन्त्रको पढ़कर भगवानके दोनों चरण कमलोंको अपने दोनों हाथोंसे स्पर्श करना चाहिये। उन हाथोंको मस्तक ललाट और नेत्रोंसे लगाना चाहिये और फिर वहाँसे प्रतिमाजीको उठाकर उस सिंहासन तक ले आता चाहिये फिर 'ॐ ह्रीं अहं श्रीवर्णे प्रतिमास्थापनं करोमि स्वाहा' यह मन्त्र पढ़कर गीत, नृत्य, बाजे, जय जयकार आदि बड़े उत्सवके साथ और बड़े हर्ष भावसे उस सिंहासन पर लिखे हुए श्रीवर्णपर श्रीप्रतिमाजोको स्थापन करना चाहिए। साथ हो एक सिद्धयंत्र स्थापन करना चाहिए फिर 'ॐ ह्रीं अहं श्रीपरमब्रह्मणे अर्घ निबंपा# मोति स्वाहा' यह मन्त्र पढ़कर भगवानको एक अर्घ चढ़ाना चाहिए फिर 'ॐ नमः परमब्रह्मणे श्रीपादप्रक्षालनं [ करोमि स्वाहा' यह मन्त्र पढ़कर भगवानके दोनों चरणोंका प्रक्षालन करना चाहिए। फिर ॐ ह्रां ह्रीं हं, ह्रौं हः अ सि उ सा एहि एहि संवौषट' यह मन्त्र पढ़कर आह्वानन करना चाहिए । फिर ॐ ह्रां ह्रीं हूं, हो। हः असि आ उ सा अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः' यह मन्त्र पढ़कर भगवानका स्थापन करना चाहिए। फिर ॐ ह्रां ह्रीं हूँ ह्रौं हः अ सि आ उ सा अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट यह मन्त्र पड़कर सन्निधिकरण करना। चाहिए । इस प्रकार अनुक्रमसे आह्वान स्थापन सन्निधिकरण कर गुरुमुद्रा धारण करना चाहिये। गुरु मुद्राका स्वरूप यह है-अपने दोनों हाथोंको सीधाकर दोनों हाथोंको आठों उँगलियोंको मिलाकर जिस प्रकार यह गुरुमुद्रा मस्तकपर चढ़ाते हैं उसी प्रकार मस्तक ललाट शिरके दाई और बांई ओर और पोछेकी ओर भी है तानाDAIRastralianatali न्मानाचारताव [ 1 Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बसागर १८४] लम्बी खड़ी करनी चाहिए। फिर दोनों अनामिका ( सबसे छोटी ) उँगलियोंको मिली हुई खड़ी कर विलोम रूप ( तले ऊपर ) कर लेना चाहिए। फिर दोनों हाथोंकी मध्यमा ( बोचकी ) उँगलियोंको तर्जनीसे ( अँगूठेकी पासवाली उँगलोसे ) दाबकर तथा कनिष्ठा ( सबसे छोटीकी पासवाली उँगली ) को अँगूठेसे दाबकर खड़ी रखना चाहिए इस प्रकार करनेसे पाँच उँगलियाँ खड़ी हुई दिखाई देंगी और पांच दबी हुई अदृश्य रूप होंगी इसीको पंचगुरुमुद्रा कहते हैं यह मुद्रा पंच परमेष्ठीका स्मरण करनेके लिए की जाती है। इस पंच गुरुमुद्राको धारण करते समय हथेलोमें थोड़ा सा जल और पाँचों उंगलियोंको दाबते समय एक-एक पुष्प रख लेना चाहिए फिर ॐ ह्रीं असि आ उ सा पंचगुरुमुद्राधारणं करोमि स्वाहा' यह मन्त्र पढ़ लेना चाहिए फिर ॐ वृषभादि दिव्यवेहाय सद्योजाताय महाप्रज्ञाय अनंतचतुष्टयाय परमसुखप्रतिष्ठिताय निर्मलाय स्वयंभुवे अजरामर परमपदप्राप्ताय चतुर्मुखपरमेष्ठिने महते त्रिलोकनाथाय त्रैलोक्यप्रस्थानाय अविष्टदिव्यनागपूजिताय परमपदाय ममात्र सन्निहिताय स्वाहा' यह मन्त्र पढ़कर उस पंचगुरुमुद्राको अपने मस्तक पर चढ़ाना चाहिए। तथा वहीं पर जल पुष्पोंको छोड़कर गुरुमुद्रा छोड़ देनी चाहिये और फिर नमस्कार कर लेना चाहिये । तदनंतर पाद्य दान करना चाहिये अर्थात् एक अर्ध देना चाहिये। फिर 'ॐ ह्रीं स्वक्ष्वीं यं मंहं सं तं पं ब्रां द्रों हंसः स्वाहा' यह मन्त्र पढ़कर आचमनीमें (एक छोटीसी घम चोमें) जल भरकर भगवानके ऊपर तीन बार जल क्षेपण करना चाहिये। यह भगवानका आचमन विधान है । फिर 'ॐ ह्रीं क्रौं समस्तनीराजनदव्यैर्नीराजनं करोमि अस्माकं दुरितमपनयतु भगवान् ॐ नमो भगवते अ सि आ उ सा स्वाहा' यह मन्त्र पढ़कर आरती उतारनेके पात्रसे नीराजनावतारण करना चाहिये अर्थात् आरती उतारनी चाहिये। फिर 'ॐ ह्रीं आं क्रौं प्रसस्त वर्ण सर्वलक्षणसंपूर्ण स्वायुधवाहन युवतीसचिह्नसहित इन्द्राग्नि यम, नैऋत, वरुण, पवन, कुबेरेशान शेषशीतांशु वश विक्वाल देव अत्र आगच्छ आगच्छ संवौषट् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट, ॐ आं क्रों चढ़ाते हैं अर्थात् इन पांचों जगह पंचपरमेष्टोकी स्थापना करते हैं पुष्प झेपण करते हैं और जल सिंचन करते हैं । इस प्रकार अपने शरीरके उत्तम भागमें पंच परमेष्ठीको स्थापना करनेसे आत्मामें पंच परमेष्ठीके गुणोंकी दृढ़ भावना उत्पन्न होती है, दृढ़ संस्कार होता है। जिसकी वासना शरीर के संबंध पर्यंत वैसी हो दृढ़ बनी रहती है। १. एक थाली में दही, अक्षत, लाजा, ( खोलें ) भस्म, गोमट, पिण्ड, पुष्प, दूर्वा, स्वस्तिक और चार बत्तीके जलते हुए दीपकको लेकर भगवान की आरती उतारनी चाहिये । [ १८४ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लों वश विक्पालाय इदं अयं पाधं गंधं पुष्पं दोपं धूपं चरु वलि स्वस्तिकमक्षतं यज्ञभाग च यजामहे यजामहे प्रतिगृहातां प्रतिगृह्यतामिति स्वाहा' यह मन्त्र पढ़कर अलग-अलग इन्द्रादिक दश विषपालोंका स्थापन करना सागर चाहिये तथा एक अर्घ देकर सबको प्रसन्न करना चाहिये । फिर १८५ 1 यस्यार्थं क्रियते पूजा स प्रीतो नित्यमस्तु ये । शांतिमे पौष्टिकं चैव सर्वकार्येषु सिद्धदः॥ ___ इस श्लोकको पढ़कर जलधारा तथा पुष्पांजणि पार करना ताहि । फिर 'ओं ह्रीं स्वस्तये कलशोद्धरणं करोमि स्वाहा' यह मन्त्र पढ़कर शुद्ध जलसे भरे हुए कलशको अपने दोनों हाथोंसे उठाकर ऊपर कर लेना चाहिये। फिर ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अहं वं मं हं सं तं वं में हं हं सं सं संत पंझझक्ष्यों क्ष्वी वांद्राद्री बोंद्रावय द्रावय नमोऽहते भगवते पवित्रतरजलेन अभिषेधयामि स्वाहा' यह मन्त्र पढ़कर भगवानके मस्तकपर उन कलशोंसे शुद्ध जलको धारा देनी चाहिये। इसको शुद्धोदक स्नान कहते हैं फिर इसी मन्त्रको पढ़कर पवित्रतर जलेनकी जगह 'पवित्रतर इक्षरसेन जिनमभिषेचयामि स्वाहा' यह पहकर इक्षुरसको धारा देनी चाहिये । ईख गन्ना वा सांठेका रस अथवा जल में थोड़ा गुड़ वा शक्कर वा बूरा मिलाकर उस रस वा मीठे जलसे अभिषेक करना चाहिये। यह इक्षुरसस्नान कहलाता है। फिर 'ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं वि ऊपरके मन्त्रको पहकर तथा 'पवित्रतरजलेन' की जगह 'पवित्रतर घतेन जिनमभिषेचयामि स्वाहा' पढ़कर धोका अभिषेक करना चाहिये। इसको घतस्नान कहते हैं। फिर ऊपरका ही मन्त्र पढ़कर 'पवित्रतरजलेन' को जगह 'पविनतरदुग्धेन जिनमभिषेचयामि स्वाहा' पढ़कर दूधसे अभिषेक करना चाहिये । यह बुग्धस्नान कहलाता है। फिर 'ॐ ह्रीं श्रीं क्लों ऐं आहे' इत्यादि ऊपरका मन्त्र पढ़कर 'पवित्रतरजलेन' की जगह 'पवित्रतर दध्ना जिनमभिषेच्यामि स्वाहा' पढ़कर भगवानके ऊपर दहीको धारा देनी चाहिये । इसको दधि स्नपन कहते हैं । फिर ॐ ह्रीं श्रों इत्यादि ऊपरका मन्त्र पढ़कर तथा 'पवित्रतरजलेन' की जगह 'पवित्रतर सर्वाधिना जिनमभिषेधयामि स्वाहा' यह पढ़कर भगवानका सौषधिसे अभिषेक करना चा सौषधिमें केसर, चन्दन, कपूर आदि सुगन्धित पदार्थ डालने चाहिये यह सौषधि स्नान है। फिर 'ॐ नमोऽहते भगवते कलोललालवंगादिचूर्णेजिनागमुद्वर्तयामि स्वाहा' यह मन्त्र पढ़कर ककोल, इलायची, लौंग तथा आदि शब्बसे श्रीखण्ड, कपूर, केशर, अगर, तगर, देववारु, कूट, जातिफल आदि सुगन्धित वस्तुओंका चूर्ण । PATREATमियामरम्यान्मारकाबाट Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिसे कर उससे भगवानके समस्त शरीरमें उवर्तन वा उबटना करना चाहिये। फिर 'ॐ ह्रीं श्रीं क्लों ऐं अहं वं मा हंसं तं पं इत्यादि ऊपर लिखा मन्त्र पढ़कर तथा 'पवित्रतरजलेन' की जगह 'पवित्रतर चतुष्कोण कुम्भजलन। पर्चासागर पूर्ण कुम्भजलेन च जिनमभिषेश्यामि स्वाहा' यह मन्त्र पढ़कर चतुष्कोणके कलशोंके जलसे तथा पूर्ण कुम्भके। [१८६ ] जलसे भगवानका अभिषेक करना चाहये। यह चतुष्कोणकुम्भस्नान और पूर्ण कुम्भस्नान कहलाता है। फिर 'ॐली निखिवललोकांवत्रीकरणगन्धोदकेन जिनमभिषेचयामि स्वाहा' यह मन्त्र पढ़कर चन्दन, केशर मिले हुए जलसे ( गन्धोदकसे ) भगवानका अभिषेक करना चाहिये । इसको गन्धोवक स्नपन कहते हैं । तवम नन्तर इस गन्धोदकको अपने समस्त उत्तम अंगोंपर लगाना चाहिये। फिर अभिषेकके पात्रमें और भंगारमें। (टनी लगे हुए छोटे लोटेमें ) पूर्ण जल भरकर भगवानके ऊपर मन्त्रपूर्वक शांतिधारा देनी चाहिए । शांतिधाराका पाठ करना और जल छोड़ते जाना सो शांतिधारा है । वह मन्त्र इस प्रकार है । ॐ ह्रीं क्रौं अहं मम । पापं खण्ड खण्ड, वह वह, बुःखं हन हन, वो बों बः पः हः झंव के क्षों शं क्षों क्ष: ओ क्रो ब्रां ॐ ह्रीं । ठः श्रीरस्तु सिद्धिरस्तु पुष्टिरस्तु कल्याणमस्तु स्वाहा' इति लघुशान्तिधारा। यह लघुशांतिधारा पाठ है।। बड़े-बड़े कार्यों में महाशांति धाराका पाठ पढ़ना चाहिये। फिर जिन प्रतिमाके चरणोंपर गन्ध लेपन कर तथा । प्रतिमाको वस्त्रसे पोंछकर यन्त्र सहित सिंहासनपर विराजमान कर देना चाहिये। फिर अरहन्त भक्तिका पाठ करना चाहिये । अयवा अरहन्त भगवानका कोई भी स्तोत्र बोल लेना चाहिये। फिर 'यद्गर्भावतरे गृहे ।। पितुरपि प्रागेव शक्राज्ञया' इत्यादि अरहन्त भक्तिका पाठ है सो दश भक्तियोंमेंसे देख लेना चाहिये। तवनन्तर आगे बैठकर शांतिचक्र यन्त्रके आगे जलाविक फल पर्यन्त समस्त सामग्री चढ़ाकर जा ॥ करनी चाहिये । वह पूजा इस प्रकार है यन्त्रके मध्य स्थित अष्टपत्रोंमें जो अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु तथा सम्यग्दर्शन, ज्ञानचारित्र, तप इनको पूजा सबसे पहले करनी चाहिये । पूजा करनेका मंत्र यह है---'ॐ ह्रां ह्रीं हं. हो हः । । सि आ उ सा जलं गृहाण गृहाण नमः स्वाहा' इस मन्त्रको पढ़कर जल चढ़ाना चाहिये तथा यही मन्त्र पढ़कर जलको जगह उस व्यका नाम लेकर अनुक्रमसे गन्ध, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल, अर्घ चढ़ाकर । चाहिये। फिर पूर्णा देकर 'ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनाय नमः' हों सम्यग्ज्ञानाय नमः, ॐहीं सम्यक्चारित्रेभ्यो नमः, *हों सम्यक्तपसे नमः' ये मन्त्र अलग-अलग पढ़कर पूजा करनी चाहिये। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चासागर [ १८७ ] फिर उन अष्ट बलोंके बाहर स्थित जयाविक आठों देवियोंका अनुक्रमसे पूजन करना चाहिये। पहले तो उनका आह्वान, स्थापन, सन्निषिकरण करना चाहिये। उसका मन्त्र यह है - ॐ ह्रीं जये विजये अि अपराजिते जंभे मोहे स्तम्भे स्तम्भिन इति अष्ट वेव्य स्वायुधवाहनसमेताः सचिह्नाः अत्र आगच्छत आगच्छत संगोषट । अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः । अत्र मम सन्निहिता भवत भवत वषट' इस मन्त्रको पढ़कर सबका आह्वान, स्थापन, सन्निधिकरण करना चाहिये । फिर ॐ ह्रीं जयायै स्वाहा, ॐ ह्रीं विजयायें स्वाहा, ॐ ह्रीं अजितायै स्वाहा, ॐ ह्रीं अपराजितायै स्वाहा, ॐ ह्रीं जंभायै स्वाहा, ॐ ह्रीं मोहाय स्वाहा, ॐ ह्रीं स्तंभायै स्वाहा, ॐ ह्रीं स्तम्भिन्यै स्वाहा । इदं अध्यं चरु अमृतं स्वस्तिकं च यज्ञभागं गृहीत गृहोत स्वाहा' इन मंत्रोंसे आठ दलोंपर स्थित आठों जयादिक देवियोंकी पूजा करनी चाहिये । तदनन्तर उन आठ वलोंके बाहर सोलह दलोंपर स्थित रोहिणी आदि सोलह विद्या देवताओंकी अनुक्रमसे पूजन करना चाहिये। यथा - ॐ ह्रीं रोहिणि प्रज्ञप्ति वज्रशृंखले वस्त्रांकुशे अप्रतिचक्रे पुरुषदक्षे काल महाकालि गांधारि गौरि ज्वालामालिनि वैरोटि अच्युते अपराजिते मानसि महामानसि इति षोडश देव्यः स्वायुधवाहन समेताः सचिह्नाः अत्रागच्छतागच्छत संवौषट् । अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः । अत्र मम सन्निहिता भवत भवत वषट्, इस मन्त्रको पढ़कर तथा पुष्प चढ़ाकर अनुक्रमसे आह्वान, स्थापन, सन्निधिकरण करना चाहिये । तथा फिर ॐ ह्रीं रोहिण्यै स्वाहा ॥ १ ॥ ॐ ह्रों प्रज्ञप्त्यै स्वाहा ॥ २ ॥ ॐ ह्रीं वज्रशृंख लायै स्वाहा ॥ ३ ॥ ॐ ह्रीं वांकुशायै स्वाहा ॥ ४ ॥ ॐ ह्रीं अप्रतिचक्रायै स्वाहा ॥ ५ ॥ ॐ ह्रीं पुरुषदक्षायै स्वाहा ।। ६ ।। ॐ ह्रीं काल्यै स्वाहा ॥ ७ ॥ ॐ ह्रीं महाकाल्यै स्वाहा ॥ ८ ॥ ॐ ह्रीं गांधायें स्वाहा ॥ ९ ॥ ॐ ह्रीं गौयँ स्वाहा ॥ १० ॥ ॐ ह्रों ज्वालामालिन्यै स्वाहा ॥ ११ ॥ ॐ ह्रीं वैरोटयै स्वाहा ।। १२ ।। ॐ ह्रीं अच्युतायै स्वाहा ।। १३ ।। ॐ ह्रीं अपराजितायै स्वाहा ॥ १४ ॥ ॐ ह्रीं मानसी देव्यं स्वाहा ।। १५ ।। ॐ ह्रीं महामानसो देव्यै स्वाहा ॥ १६ ॥ इदं अध्यं पाद्यं चरु बलि यज्ञभागं च यजामहे यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा। इस प्रकार मन्त्रपूर्वक अर्घादिक द्रव्य चढ़ाना चाहिये और " यस्यार्थं क्रियते पूजा" इत्यादि श्लोक पढ़कर जलधारा तथा पुहरांजलि क्षेपण करना चाहिये । तदनन्तर उन सोलह पत्रोंके बाहर चौबीस पत्रोंपर स्थित चक्रेश्वरी आदि चौबीस जिनशासन देवियों [ १ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [ १८८ ] # का पूजन करना चाहिये । यथा-ॐ ह्रीं चक्रेश्वरि रोहिणि प्रज्ञप्ति वनश्रृंखले बचपुरुषबत्ते मनोवेगे कालिक महाकालि ज्वालामालिनि मानवि गौरि गांधारि वैरोटि अनन्तमति मानसि महामानसि जये विजये अपराजिते । बहुरूपिणि चामुण्डे कुष्मांडनि पद्मावति सिद्धायिनि सर्वा घेव्यः स्वायुधवाहनसमेताः सचिह्ना अन्न आगच्छत आगच्छत संवौषट् । अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः। अत्र मम सन्निहिता भवत भवत वषट । इस मन्त्रको पढ़कर तथा पुष्प चढ़ाकर अनुक्रमसे आह्वान, स्थापन, सन्निधिकरण करना चाहिये। तथा फिर-ॐ ह्रीं चक्रे॥ इदरीदेव्यै स्वाहा १ ॐ ही रोहिण्यै स्वाहा २ ॐ ह्रीं प्रज्ञप्त्यै स्वाहा ३ ॐ ह्रीं बनशृङ्खलाय स्वाहा ४ ॐ ह्री पुरुषदत्तायै स्वाहा ५ ॐ ह्रीं मनोवेगाय स्वाहा ६ ॐ ह्रीं काल्यै स्वाहा ७ ॐ ह्रीं महाकाल्यै स्वाहा - ॐ ह्री ज्वालामालिन्यै स्वाहा ९ ॐ ह्रीं मानव्यै स्वाहा १० ॐ ह्रौं गौर्यै स्वाहा ११ ॐ ह्रीं गांधायें स्वाहा १२ ॥ ॐ ह्रीं वैरोटपै स्थाहा १३ ॐ ह्रीं अनन्तम स्वाहा १४ ही मानतीयव्ये स्थाहा १५ ॐ ह्रीं महामानसीवेव्यै स्वाहा १६ ॐ ह्रीं जयायै स्वाहा १७ ॐ ह्रीं विजयायै स्वाहा १८ ॐ ह्रीं अपराजितायै स्वाहा १९ ॐ ह्री बन्नुरूपिण्यै स्वाहा २० ॐ हीं चामुण्डायै स्वाहा २१ ॐ ह्रीं कुष्मारिन्यै स्वाहा २२ ॐ ह्री पावत्यै स्वाहा २३ ॐ ह्री सिद्धायन्यै स्वाहा इवं अध्यं चरु अमृतं बलिं यज्ञभागं च यजामहे यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा । इस प्रकार मन्त्रपूर्वक अर्धादिक द्रव्य चढ़ाना चाहिये और 'यस्यायं क्रियते पूजा' इत्यादि श्लोक । पढ़कर जलधारा तथा पुष्पाञ्जलि क्षेपण करना चाहिये । तदनन्तर उन चौबीस पत्रोंके बाहर बत्तीस पत्रोंपर स्थित असुरेन्द्रादिक बत्तं स इन्द्रों की पूजन करना चाहिये । यथा-ॐ ह्रीं असुरेन्द्रनामेन्द्र विद्युदिन्द्र सुपर्णेन्द्र अग्नीन्द्र वातेन्द्र स्तनितेन्द्र उदधीन्द्र द्वोपेन्द्र दिगोन्द्र किन्नरेन्द्र किंपुरुषेन्द्र महोरगेन्द्र गन्धर्वेन्द्र यक्षेन्द्र राक्षनेन्द्र भूतेन्द्र पिशाचेंन्द्र चन्द्रादित्य सौधर्मेन्द्र ईशानेन्द्र सानत्कुमारेन्द्र माहेन्द्र ब्रह्मेन्द्र लातवेन्द्र शुकेन्द्र शतारेन्द्र आनतेन्द्र प्राणतेन्द्र आरणेन्द्र अरयुतेन्द्र सर्वे इन्द्रा यानायुधवाहनयुपतिजनैः साद्धं आगच्छत आगच्छत संवौषट् । अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः । अत्र मम सन्निहिता भवत भवत वषट् । इस मन्त्रको पड़कर अनुक्रमले आहवान, स्थापन, सग्निधिकरण करना चाहिये। फिर ! ॐ ह्रीं असुरेन्द्राय स्वाहा । ॐ ह्रीं नागेन्द्राय स्वाहा । ॐ ही विधुदिन्द्राय स्वाहा । ॐ हों सुपर्णेन्द्राय स्वाहा । ॐ ह्रीं अग्नीन्द्राय स्वाहा । ॐ ह्रीं वान्द्राय स्वाहा । ॐ ह्रीं स्तनितेन्द्राय स्वाहा । ॐ ह्रीं उबधीन्द्राय स्वाहा।। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ॐ ह्रीं बीपेन्द्राय स्वाहा । ॐ ह्रीं विगिन्द्राय स्वाहा ।हीं किन्नरेन्द्राय स्वाहा । ह्रीं किंपुरुषेन्द्राय स्वाहा।। ॐ ह्रीं महोरगेन्द्राय स्वाहा । ॐ ह्रीं गंधर्वेन्द्राय स्वाहा । ॐ ह्रीं यक्षेन्द्राय स्वाहा । ॐ ह्रौं राक्षसेन्द्राय स्वाहा। ॐ ह्रीं भूतेन्द्राय स्वाहा । ॐ ह्रीं पिशाचेन्द्राय स्वाहा । ॐ ह्रीं चंद्रेन्द्राय स्वाहा । ॐ ह्रीं आवित्येन्द्राय स्वाहा । ॐ ह्रीं सौधर्मेन्द्राय स्वाहा । ॐ ह्रौं ईशानेन्द्राय स्वाहा । ॐ ह्रीं सानत्कुमारेन्द्राय स्वाहा । ॐ ह्रीं माहेन्द्राय । स्वाहा । ॐ ह्रीं ब्रह्मेन्त्राय स्वाहा । ॐ ह्रीं लांतवेन्द्राय स्वाहा । ॐ ह्रीं शुक्रेन्द्राय स्वाहा । ॐ ह्रीं शतारेन्द्राय स्थाहा । ॐ ह्रीं आनतेन्द्राय स्वाहा । ॐ ह्रीं प्राणतेन्द्राय स्वाहा । ॐ ह्रीं आरणेन्द्राय स्वाहा । ॐ हों । तेन्द्राय स्वाहा । ॐ भूर्भुवः स्व स्वाहा स्वधा इवं अध्यं चरु अमृतं स्वस्तिकं यज्ञभागं गृहीत गृहोत स्वाहा। । इस प्रकार मंत्रपूर्वक अर्धाविक तथ्य चढ़ाना चाहिये । तथा 'यस्यार्थ क्रियते पूजा' इत्यादि श्लोक पढ़कर जलधारा तथा पुष्पाञ्जलि क्षेपण करना चाहिये । तदनन्तर उस मण्डलके वाहर पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर चारों दिशाओंमेंसे एक-एक विशामें गोमुखाविक छ:-छः यक्ष हैं सब मिलकर चौबीस यक्ष है तथा वे वन जो त्रिशूलाकार हैं उनमें स्थित हैं उनकी पूजन करनी चाहिये । उनके मंत्र ये हैंम ॐ ह्रीं गोमुख महायक्ष त्रिमुख यक्षेश्वर तुंबुरु कुसुम वरनंदि विजय अजित ब्रह्मेश्वर कुमार षण्मुख पाताल किन्नर किंपुरुष गरुड़ गंधर्व महेन्द्र कुबेर वरुण विद्युतप्रभ साह धरणेन्द्र मातंग इति चतुर्विशति यो न्द्रगणाः आयुधवाहनयुवतिसहिता आगच्छस आगच्छत संवौषट् । अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः । अत्र मम सन्नि। हिता भवत भवत वषट । इस प्रकार मन्त्र पढ़कर आहवान, स्थापन, सन्निधिकरण करना चाहिये। फिर ॐ लों गोमुखाय स्वाहा । ॐ ह्रीं महायक्षाय स्वाहा । ॐ ह्रीं त्रिमुखाय स्वाहा । ॐ ह्रीं यक्षेश्वराय । स्वाहा । ॐ ह्रीं तुंबुरये स्वाहा । ॐ ह्रीं कुसुमाय स्वाहा । ॐ ह्रीं वरनन्दिने स्वाहा । ॐ ह्रीं विजयाय ई स्वाहा । ओं ह्रीं अजिताय स्वाहा । ओं ह्रीं ब्रह्म श्वराय स्वाहा । ओं ह्रीं कुमाराय स्वाहा । ओं ह्रीं षण्मुखाय स्वाहा । 'ओं ह्रीं पातालाय स्वाहा । ओं ह्रीं किन्नराय स्वाहा । 'ओं ह्रीं किंपुरुषाय स्वाहा । 'ओं हों गरुड़ाय स्वाहा । ओं ह्रीं गंधर्वाय स्वाहा । ओं ह्रीं महेंद्राय स्वाहा । ओं ह्रीं कुबेराय स्वाहा । ओं ह्रीं वरुणाय स्वाहा। | ओं ह्रीं विद्युत्प्रभाय स्वाहा । ओं ह्रीं सर्वाहाय स्वाहा । ओं ह्रीं धरणेन्द्राय स्वाहा । ओं ह्रीं मातंगाय स्वाहा।। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासागर [१९] इदं अध्यं चरु अमृतं बलिं यज्ञभागं च यजामहे यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा । इस प्रकार मंत्रपूर्वक है अर्घाविक द्रव्य चढ़ाना चाहिये और 'यस्यायं क्रियते पूजा' इत्यादि श्लोक पढ़कर जलधारा तथा पुष्पांजलि क्षेपण करना चाहिये। इसको यक्षार्चन कहते हैं। तदनन्तर चार दिशाएँ, चार विदिशाएं और ऊपर नीचे इस प्रकार दशों दिशाओंमें दश दिक्पालोंका पूजन करना चाहिये । यथा ओं ह्रीं इन्द्राग्नियमनैऋतवरुणपवनकुवेर ईशानधरणेन्द्रसोमाः सर्वेप्यायुधवाहनयुवतिजनसहिताः आग-1, । च्छत आगच्छत संवौषट् । अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः । अत्र मम सन्निहिता भक्त भवत वषट । इस मंत्रको पुष्प चढ़ाकर अनक्रमसे आहवान, स्थापन सन्निधिकरण करना चाहिये। फिर ओं ह्रीं इन्द्राय । स्वाहा । ओं ह्रीं अग्नये स्वाहा । ओं ह्रीं प्रमाय स्वाहा । ओं ह्रौं नैऋताय स्वाहा। ओं ह्रीं वरुणाय स्वाहा । ॐ ह्री पवनाय स्वाहा । ओं ह्रीं कुबेराय स्वाहा । ओं ह्रीं ईशानाय स्वाहा ।ओं ह्रीं धरणेन्द्राय स्वाहा । ओं ह्रीं सोमाय स्वाहा । इदं अध्यं चरु अमृतं बलि यज्ञभागं च यजामहे यजामहे प्रतिगृह्यता प्रतिगातां स्वाहा । इस प्रकार मंत्रपूर्वक अर्घादिक द्रव्य चढ़ाना चाहिये तथा 'यस्यार्थं क्रियते पूजा' इत्यादि श्लोक पढ़कर जलधारा तथा पुष्पांजलि क्षेपण करना चाहिये । इसमें इतना विशेष है कि 'ओं ह्रीं इन्द्राय स्वाहा' यह मंत्र पढ़कर पूर्व विशामें अर्घ चढ़ाना चाहिये। 'ओं ह्रीं अग्नये स्वाहा' इस मंत्रसे आग्नेय दिशामें ( पूर्व दक्षिणके बीचमें ), ओं ह्रीं यमाय स्वाहा इस मंत्रसे दक्षिण दिशामें, ओं ह्रीं नैऋताय स्वाहा इस मंत्रसे नैऋतकोण (दक्षिण पश्चिम के बीच में ) 'ओं ह्रीं वरुणाय स्वाहा' इस मंत्रसे पश्चिममें, ओं ह्रीं पबनाय स्वाहा इस मंत्रसे वायव्यकोणमें (पश्चिम उत्तरके बीचमें ) ओं ह्रीं कुबेराय स्वाहा इस मंत्रसे उत्तर दिशामें ओं ह्रीं ईशानाय स्थाहा इस मंत्रसे। ईशान दिशामें ( उत्तर पूर्वके बीच ) ओं ह्रीं धरणेनाय स्वाहा इस मंत्रसे भूमिके अधोभागमें और ओं ह्रीं । सोमाय स्वाहा इस मंत्रसे ऊपरको विशामें । इस प्रकार दशों विशाओं में दश दिक्पालोंको पूजन करनी चाहिये। फिर मंत्रकी चारों दिशाओंमें चारों विदिशाओंमें तथा दुबारा पूर्व दिशामें इस प्रकार नौ स्थानोंमें । आदित्यादिक नवग्रहोंका पूजन करना चाहिये । यथा-ओं हों आदित्य सोमांगार बुध वृहस्पति शुक्र शनिश्चर राहुकेतवः सर्वेप्यायुषवाहनबधिहसपरिवारा अत्र आगच्छत मागच्छत संवौषट् । अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [१९१ ] अत्र मम हिता भव भव षष्ट। यह मंत्र पढ़कर तथा पुष्प चढ़ाकर अनुक्रमले आह्वान, स्थापन, सन्निधिकरण करना चाहिये । फिर अलग-अलग मंत्रोंसे पूजन करना चाहिए। अलग-अलग मंत्र ये हैं- बल अमृतं यज्ञभागं च ओ ह्रीं आदित्याय स्वाहा पूर्वविशि, ओं ह्रीं सोमाय स्वाहा आग्नेय दिशि, ओं ह्रीं भौमाय स्वाहा नैऋत्यां ह्रीं बृहस्पतये स्वाहा पश्चिमे, ओं ह्रीं शुक्राय स्वाहा वायव्यां ओं ह्रीं शनैश्चराय स्वाहा उत्तरे, ओं ह्रीं राहवे स्वाहा ईशान्यां ओं ह्रीं केतवे स्वाहा पूर्व दिशि । इदं अध्यं पा यजामहे यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा । इस प्रकार पूजन करना चाहिये। यह दिकपालोंका पूजन मंत्रके आगे सात धान्योंके नौ कोठे बनाकर अथवा तो कोठेके लिखे मंत्रोंसे अलग पूजा करनी चाहिये । यह दिक्पाल पूजन है । मण्डल बनाकर ऊपर फिर मंत्र के प्रागभाग मे ( पूर्वको ओर ) अनाबूत पक्षको पूजा करनी चाहिये। उसका मंत्र यह है 'ओं ह्रीं आं क्रों हे अनावृत अत्रागच्छागच्छ संवौषट् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । अत्र मम सन्निहितो भव भव थव । इवं अध्यं गृहाण गृहाण स्वाहा । इस प्रकार अर्ध चढ़ाकर " यस्यार्थं क्रियते पूजा" इत्यादि श्लोक पढ़कर जलधारा पुष्पांजलि क्षेपण करना चाहिये । इसको यक्षार्धन करते हैं । इस प्रकार महामंत्रकी आराधना कर मूल विद्याका एकसौ आठ बार जप करना चाहिये । वह मंत्र यह है । "ओं ह्रां ह्रीं हूं ह्रीं हः असि आ उ सा अस्माकं सर्वोपद्रवशांति कुरु कुरु स्वाहा ।" इस मंत्रका जातिपुहपोंसे ( चमेली के फूलोंसे ) अथवा अन्य सुगंधित पुष्पोंसे वा देवपुष्प लवंगसे पहले कहे हुए यंत्र के ऊपर एकसौ आठ बार जप करना चाहिये। फिर प्रातिहार्यान् जिनान् सिद्धान् गुणैः सूरीन् सुमात्रिभिः । पाठकान् विनयैः साधन् योगांगेश्चाष्टभिः स्तुवे ॥ मंणुयणा इंदसुरधरियछत्तत्तया । पंच कल्लाणसुक्खावलीपत्तया || जयमाला १ ॥ मया इंदसुरधरियछत्तत्तया, पंचकल्याण सुक्खावलो पत्तया । दंसणं णाण झाणं अनंतं बलं, ते जिणा दितु अहं वरं मंगलं ॥ जेहि झाणग्गिवाणेहि अइथट्ठयं जन्मजरमरणणवरतयं ददयं । जेहि पत्तं सिवं वासयं ठाणर्य, ते महा दिंतु सिद्धा वर णाणयं ॥ २ ॥ [ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RAIm बचोसागर । १९२] त AISAATHARमरसताया दंसणं णाण झाणं अणंतं बलं ते जिणा दिंतु अम्हं वरं मंगलं । इत्यादि जयमाला पढ़कर तीन प्रदक्षिणा देनी चाहिये । फिर अर्ध महा अर्घ देकर साष्टांग या पंचांग नमस्कार करना चाहिये । फिर शांतिजिनं शशिनिर्मलवकत्रं शीलगुणवतसंयमपात्रम् । इत्यादि शान्ति पाठ पढ़ना चाहिये। फिर आये हुए देवताओंका विसर्जन करना चाहिये। बिसर्जन करनेके श्लोक ये हैं। पंचहाचारपंचग्यिसंसाइया, वारसंगाइ सुय जलहि अवगाया। मोक्खलच्छी महंतो महं ते सया, सूरिणो दिन मोक्खं गया संगया ॥३॥ घोरसंसारभीमाडवीकाणणे, तिकववियरालणझावपंचाणणे । णडमगाण जीवाण पहदेसया वंदिमो ते उबज्झाय अम्टे सया ।।४।। उग्गतवयणकरणेहि झोणं गया,धम्मवरझागककलेकमाणं गया । णिभर तवसिरीए समलिंगया, साहोते महामक्खिपमग्गया ॥५॥ एण थोत्तेण जो पंचगुरु बंदए, गुरुयसंसारघणवेल्लि सो छिदए । सहरको सिद्ध गुरुसा चव सागा गुपद करिबर्ग जगजालणं ॥६॥ __ अरिहा सिद्धा इरिया उवझाया साह पंचपरमेष्ठी । एयाण णमुक्कारो भवे भवे मम सुई दितु। ॐ ह्रीं अहेत्सिद्धाचार्योपाध्यायनर्वसाधुपंचपरमेष्टिभ्योऽध्य निर्वपामीति स्वाहा । इच्छामि भंते पंचगुरुभक्ति काओसग्गो की तस्सालोओ अट्टमहापाडिहेरसंजुताणं अरहताणं, अगण-संपण्णाणं उडलोयम्मि पइठियाणं सिद्धाणं, अटुपवयणमा उत्संजुनाणं आइरियाणं, आयारादिसुदणाणोवदेसयाणं उवजमायाणं, तिरियणगुणपालणरयाणं सब्बसाहूणे, णिच्चकालं अच्नेमि पूजेमि वंदामि णमस्सामि दुक्खस्त्रओ कम्मलओ बोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मज्छ । इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलि क्षिपेत् । २-शांति पाठ शान्तिजिनशशिनिर्मलवक्त्रं शीलगणव्रतसंयमपात्रम् । अष्टशताचितलक्षणगात्र नौमि जिनोत्तममम्बुजनेत्रम् ।। १ ।। पंचममीप्सितचक्रधराणां पूजितमिन्द्रनरेन्द्रगणेश्च । शान्तिकर गणशान्तिमभीप्सु षोडश तीर्थकर प्रणमामि ॥ २॥ दिव्यतरुःसुरपुष्पसुवृष्टिदुंदुभिरासनयोजनघोषौ । आतपवारण चा मरयुग्मे यस्य विभाति च मण्डलतेजः ॥३॥ तं जगचितशान्तिजिनेन्द्र शान्तिकरं शिरसा प्रणमामि । सर्वगणाय तु यच्छतु शांति मह्ममर पठते परमां च ॥ ४ ॥ येऽभ्पचिता मुकुटकुण्डलहाररलेः, शक्रादिभिः सुरगणैः स्तुतपादपद्माः । ते मे जिनाः प्रवरवंशज प्रदीपाः, तोथंकुराः सततशान्तिकराः भवन्तु ।। ५ ।। संपूजकानां प्रतिपालकाना यतीन्द्र सामान्यतपोधनानाम्, देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञः करोतु शान्ति भगवान् जिनेन्द्रः ।।६।। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर १९३ ] ज्ञानतोऽज्ञानतो वापि शास्त्रोक्तं न कृतं मया। तत्सर्व पूर्णमेवास्तु त्वत्प्रसादाग्जिनेश्वर॥ । आह्वानं नैव जानामि नैव जानामि पूजनम् । विसर्जनं नैव जानामि क्षमस्व परमेश्वर ॥ आहूता ये पुरा देवा लब्धभागा यथाकम । ते मयाभ्यर्चिता भक्त्या सर्वे यांतु यथालयम्॥ मन्त्रहीनं क्रियाहीनं द्रव्यहीनं कृतं मया । तत्सर्व क्षम्यतां सर्वः रक्ष रक्ष जिनेश्वर ॥ ॐ ह्रीं ये देवगणा अत्र पूजनाषसरे मया आहूता पूजिता ते प्रसन्नीभूता स्वस्थाने जः जः जः स्वाहा। है इस प्रकार मंत्रपूर्वक विसर्जन करना चाहिये। तदनंतर नमस्कार कर पूजावशेष द्रव्यसे आशिष अपने । मस्तक पर धारण करना चाहिये। फिर पूजा द्रव्य लेकर ईर्यापथ शुद्धिपूर्वक उस गाँव वा नगरके जिनालयमें जाना चाहिये । उसको विषि इस प्रकार हैन श्रावकोंको जिनमंदिर में जाते समय सबसे पहले "ॐ ह्रीं अहं वारपालाननुज्ञापयामि स्वाहा" यह मंत्र पढ़कर द्वारपालकी आमा लेनी चाहिये। फिर "ॐ ह्रीं महं णिसही गिसही गिसही रत्नत्रय पुरस्सराय। विद्यामणल निवेशनाय सममयाय निःसहो जिनालयं प्रविशामि स्वाहा ।" यह मंत्र पढ़कर जिनालयमें प्रवेश करना चाहिये। फिर “ॐ ह्रीं पवित्रतर गंधोदकं शिरषि परिषिचयामि स्वाहा" यह मंत्र पढ़कर जिनगंधोदकी को अपने मस्तक पर लगाना चाहिये। फिर सुपट्टेको कमरसे लेकर एक पल्ला तो बाएं कंधे पर रखना क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपाल: काले काले च सम्यक वितरतु मघवा व्याधयो यान्तु नाशम् । दुर्भिक्षं चौरमारी क्षणमपि जगतां मास्ममूज्जीवलोके जैनेन्द्रं धर्मचक्र प्रभवतु सततं सर्वसौख्यप्रदायि ॥७॥ प्रध्वस्तषासिकर्माणः केवलज्ञानभास्कराः। कुर्वन्तु जयतः शाति वृषभाचाः बिनेश्वराः॥८॥ प्रथमं करणं चरण द्रव्यं नमः। अथेष्टप्रार्थना शास्त्राभ्यासो जिनपतिनुतिः संगतिः सर्वदार्यः, सद्वृत्तानां गुणगणकथा दोषवादे च मौनम् । सर्वस्यापि प्रियहितवचो भावना चात्मतत्त्वे, सम्पद्यन्तां मम भवभवे यावदेतेऽपवर्गः ॥९॥ तव पादौ मम हृदये मम हृदयं च तव पददये लीनम् । तिष्ठतु जिनेन्द्र तावद् यावन्निर्वाणसंप्राप्तिः॥१०॥ अक्खरपयत्यहीणं मत्ताहीणं च मए भणियं । तं समउ णाण देव य मग्मवि दुक्सक्खयं दितु । दुक्खक्सओ कम्मक्खओ समाहिमरणं च बोहिलाहो य । मम होउ जगतबंधव, तव शिणवरचरणसरणेण ॥ ११ ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यासागर [ १९४] चाहिये और दूसरा पल्ला पीछेको ओरसे लाकर दाएं कंधेपर लाते हुए हृदय की ओर नीचे लटका कर उस पलेसे भूमिको देखते हुए सम्माजन करना चाहिये । तबनंतर साष्टांग वा पश्चांग अथवा पश्वर्द्धयायि नमस्कार करना चाहिये। फिर भक्तिपूर्वक अपने समयके अनुसार खड़ा होकर अपने दोनों चरण समान रखकर अपनी दुष्टिसे भगवानको देखना चाहिये। अपने दोनों हाथ जोड़कर ललाट तथा हृदयपर रखना चाहिये। फिर कुछ नम्र होकर प्रदक्षिणा करनी चाहिये फिर नमस्कार कर उठकर फिर नमस्कार करना चाहिये । इस प्रकार है तोन बार कर अपनी बुद्धि के अनुसार भगवानकी स्तुति करनी चाहिये। फिर जहाँपर समता धारण हो सके। | ऐसे समता स्थानमें जाकर सामायिक करना चाहिये। फिर अपने समयके अनुसार देव, शास्त्र, गुरुको पूजन करना चाहिये । इसको विधि पहले लिख चुके हैं। फिर भक्तिपूर्वक स्तुति और नमस्कार करना चाहिए। फिर ॥ पहले कहे हुए क्षेत्रपाल, पथावती आदि शासन देवताओंको क्रमसे अर्घादिक देना चाहिये। फिर सभामण्डपमें जाकर जिनश्रुत ( शास्त्र ) और मुनिजनोंको भक्तिपूर्वक नमस्कार करना चाहिये । श्रीगुरुके शरीराविकका समाधान पूछना चाहिये । फिर अपनी भक्ति के अनुसार विग्वत, देशवत, अनर्थवण्डवत आदि व्रतों से नित्य व्रत श्रीगुरुको आज्ञानुसार ग्रहण करने चाहिये । तथा उन्हीं गुरुराजके मुखसे तत्त्वार्थोंको कहनेवाले शास्त्र आवि जिनश्रुतका व्याख्यान सुनना चाहिये । अथवा दूसरोंको सुनाना चाहिये । अपने मन, वचन, कायसे जिनधर्मका । उद्योग करना चाहिये। फिर अपने घर आकर पात्रवान देना चाहिये फिर भोजन पान कर न्यायपूर्वक पापरहित कार्योसे यथायोग्य अपनी जीविका करनी चाहिये। इस प्रकार श्रावक व्रतके धारण करनेवाले गृहस्थोंकी यह प्रातःकालकी क्रियाको विधि है। इसका । विस्तार बहुत है परन्तु यहाँ थोड़ा-सा लिखा है । जिनको इसका वर्णन बेखना हो वे भगववेक संधिकृत जिन। संहिता शास्त्र तथा पूजासार शास्त्र तथा धर्मरसिक शास्त्र और पूजाको विषि जिनयज्ञकल्प, प्रतिष्ठापाठ महाभिषेक तथा शांतिचक्रपूजा प्रकरण तथा और भी अनेक शास्त्रोंमें देख लेना चाहिये । यहाँपर ऊपर लिखे शास्त्रोंमेंसे थोड़ा-सा लिखा है। १५०-चर्चा एकसौ पचासवीं प्रश्न-पहले जो अष्टांग, पञ्चांग और परमवशायि नमस्कार करना लिखा है सो इनका स्वरूप क्या है? Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधान-अपने दोनों हाथ, दो पैर, एक मस्तक, एक छाती और दोनों कपाल इस प्रकार मागे । अंगोंको भूमिमें स्पर्शते हुए नमस्कार करना सो अष्टांग नमस्कार है। भावार्थ-पहले पृथ्वीपर वणके समान बासागर नोचेको ओर मुंह कर सीधा सो जाना जिससे दोनों पैर, मस्तक, छाती, दोनों हाथ भूमिसे लग जांय फिर क्रम[१५] से बाये बांये कपोलोंको लगाना भूमिसे स्पर्श करना । इस प्रकार नमस्कार करनेको अष्टांग नमस्कार कहते हैं। । सो ही लिखा हैहस्तौ पादौ शिरश्चोः कपोलयुगलं तथा। अष्टांगानि नमस्कारे प्रोक्तानि श्रीजिनागमे ॥ दोनों हाथ दोनों पैर और मस्तक इन पांचों अंगोंको भूमिमें स्पर्शते हुए नमस्कार करना पंचांग नमस्कार है । सो ही लिखा है। मस्तकं जानुयुग्मं च पंचांगानि करौ नतो। पश्वशायि नमस्कारका स्वरूप इस प्रकार है। पशु पायको कहते हैं । गायके समान आषा सोना जिससे पोछेके आधे अंग तो खड़े रहें और आगेका आधा अंग अर्थात् दोनों पैर और मस्तक पृथ्वी पर नम जाय । पैरोंके दोनों घुटनोंसे नमकर गर्दनसे मस्तकको नीचा करना पश्वर्द्धशायि नमस्कार है। भावार्यखड़े पैरोंसे बैठकर दोनों हाथोंको कोनोसे नवाकर तथा पृथ्वीपर रखकर अपना मस्तक झुकाना सो पश्वर्द्धशायि नमस्कार है । सो ही लिखा है अत्र प्रोक्तानि पश्वर्द्धशयनं पशुवन्मतम् । इस प्रकार नमस्कारके तीन भेद हैं सो जैसा अपनेसे बन सके वैसा भावपूर्वक देव, शास्त्र, गुरुको नमस्कार करना चाहिये। इनमेंसे स्त्रियों के लिये अष्टांग और पंचांगका अधिकार नहीं है। उनको केवल पश्वर्द्धशायि नमस्कार करनेका अधिकार है। पुरुषोंको तीनों प्रकारके नमस्कार करनेका अधिकार है। यह बात मूलाचारमें आधिकाओंको वंदना करते समय समयाख्याधिकारमें लिखी हैपंच छह सत्त सूरी अज्झावगो य साधू य। परिहरिऊणज्जाओ गवासणेणेव वंदति ॥१९॥ इसका अर्थ एकसौ ग्यारहवीं च में लिखा है। जब आजिका भी गवासनसे ही आचार्याविकको वंदना. Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चासागर [१५] करती हैं तो फिर अन्य स्त्रियाँ अष्टांग वा पंचांग नमस्कार किस प्रकार कर सकती हैं उनके लिये अष्टांग वा पंचांग नमस्कार करमा अयोग्य है इसलिये नहीं करना चाहिये। १५१-चर्चा एकसौ इक्यावनवीं प्रश्न--पहले अध्य, पाचं ऐसा लिखा है सो अर्घ्य और पाद्य किसको कहते हैं ? समाधान–पय अर्थात् जल, क्षार अर्थात् वृष, कुश अर्थात् बाभ, उशीर अर्थात् पशखस, सिल, अक्षत, जो ये सब अर्ध्य द्रव्य कहलाते हैं इनमें सफेद और काली सरसों और मिलानी चाहिए । सो ही पूजासारमें लिखा हैपयक्षीरकुशोशीरं तिलाक्षतयवान्वितम् । अर्घ्यद्रव्यमिति प्रोक्तं सश्यामासितसर्षपम् ॥ इसी प्रकार कमलको जड़, सरसों, दूव और अक्षतको पाच द्रव्य कहते हैं। यह पायव्य भगवानके अभिषेकमें लिया जाता है सो ही पूजासार लिला है... समूलपद्मसिद्धार्थ दुर्वामृततृणाक्षतम्! पाचव्यमिति प्रोक्तं जिनस्नपनपूजने ॥ इस प्रकार अयं और पायका स्वरूप समझना चाहिये। १५२-चर्चा एकसौ बावनवीं प्रश्न-पूजामे मंगल द्रव्य वा मंगलायं कहा है सो मंगलाध्य किसको कहते हैं ? समाधान-बूव, स्वस्तिक अर्थात् नंद्यावर्त अथवा केवलम्साथिया, दर्भ अर्थात् वाभ, कमलफल (कमलगट्टा ) नदीके किनारेको शुद्ध मिट्टी, भूमिमें नहीं पड़ा हुआ गोमय, श्रीखंड अर्थात् बावन चंदनादिक सुगंधित द्रव्य, सुवर्ण, चांदी, पुष्प, बीपक, भृगार, सरसों, तिल, शालि अक्षत, केशर, जौ, धूप ये सब मंगल । सूचक द्रव्य है सो अभिषेक वा पूजाके समय भगवानके आगे किसो पात्रमें रखकर अय॑के समान उतार कर चरणों के आगे बढ़ाना चाहिये । इसीको मंगलावितरण कहते हैं । सोही धर्मदेवकृत शांतिचक्र पूजामें लिखा हैदुर्वास्वस्तिकदर्भपद्मकनदीमृद्रोचनागोमयः, श्रीखंडोत्तमहेरोप्यकुसुमश्रीदीपभृगारकान् ॥ [ १ सिद्धार्थ तिलशालिकुकुमयवप्रत्याधुपादिकान् । सर्वान् मंगल सूचकान् क्रमयुगस्योत्तारयाम्यहंतः॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर १९७ ] यही बात लघुस्नपनमें भी लिखी है । वयुज्ज्वलासतमनोहरपुष्पवीयैः इत्यादि । १५३ – चर्चा एकसौ तिरेपनवीं प्रश्न -- ऊपर नंद्यावर्तक नामका सांथिया लिखा है सो उसका स्वरूप क्या है ? समाधान - पूजा में नंद्यावर्तक सांथिया लिखा है सो उसका आकार नोचे अनुसार है। वह स्वस्तिक चावलोंसे बनाना चाहिये अथवा किसी रकाबी थाल आदि पात्रोंमें चंदन, केशर आदि गंध इष्यसे लिखना चाहिये । पूजा करनेवालेको पहले स्वस्तिक बनाना चाहिये फिर पूजा करनी चाहिये यह आम्नाय है । नंद्यावर्तक स्वस्तिक वा सांथिया - Angry [ pa . Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [१८] १५४ - चर्चा एक सौ चौअनवीं प्रश्न – पहले जिनाचमन बतलाया है । सो आचमनकी विधि कौन-सी ? समाधान- धातकी ( धश्यके ) पुष्प, कपूर, जायफल, लोंग ये सब ब्रा जलके घटमें डालकर पहले लिखी हुई रीतिके अनुसार जिनाचमन करना चाहिये। सो ही पूजासारमें लिखा है । धातकी सुमनश्चन्द्रजातिफललवंगकम् । घटस्याचमनस्येदं द्रव्यमित्युच्यते बुधैः ॥ यह सब आचमन द्रव्य हैं । १५५ - चर्चा एकसौ पचपनवीं प्रश्न -- ऊपर नोराजन द्रव्यावतरण लिखा है सो उसका स्वरूप क्या है ? समाधान- नीराजनावतरण आठ प्रकार है और वह क्रमसे इस प्रकार है । १ ॐ ह्रीं क्रौं दुर्वाकुरसितसर्षपयुक्तैर्हरितगोमयपिडकैर्भगवतोर्हतो तरणं करोमि अष्ट कर्माण्यस्माकं भस्मी करोतु भगवान् स्वाहा। भावार्थ-व सफेद सरसों और भूमिमें नहीं पड़ा हुआ गीला गोमयका पिंड इन द्रव्योंसे भगवानकी आरती करता हूँ वे भगवान मेरे आठों कर्मोंको नष्ट करें। ॐ ह्रीं क्रीं शुद्धभस्मपिंडेन भगवतोर्हतो तरणं करोमि अष्ट कर्माण्यस्माकं भस्मी करोतु भगवान् स्वाहा । भावार्थ- शुद्ध भस्मपिंडले भगवानको आरती करता हूं वे भगवान मेरे आठों फर्मोंको भस्म करें | ३ ॐ ह्रीं क्रौं बहुविधाक्षतपरिपूर्ण पाणिपात्रेण भगवतोहतोयतरणं करोमि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राण्यस्माकमक्षतानि दधातु भगवान् स्वाहा । भावार्थ — दोनों मिले हुए दोनों हाथोंमें अनेक प्रकारके अक्षत भरकर तथा उसमें जल डालकर भगवानकी आरती करता हूँ वे भगवान मुझे अक्षत अर्थात् पूर्ण सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्र देखें । ॐ ह्रीं क्रीं उभयपाश्वं प्रज्वलितदर्भाग्निना भगवतो तोयतरणं करोमि आत्मोज्वलनमस्माकं करोतु भगवान् स्वाहा । [१ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिागर भावार्ष-दोनों बगलोंमें जलती हुई नामकी अग्निसे भगवानकी आरती करता हूँ वे भगवान मेरी। आरमाको उज्ज्वल वा निर्मल करें। ५ ॐ ह्रीं क्रौं सुरभिशशिविमलसलिलपरिपूर्णेनामलिना भगवतोऽहतोवतरणं करोमि विमलशोतलध्यानमस्माकमुत्पादयतु भगवान् स्वाहा। भावार्थ-सुगन्धित और चन्द्रमाके समान निर्मल जलसे भरे हुए दोनों मिले हुए हाथोंसे घेनुमुद्रासहित हाथोंसे भगवानको आरतो करता हूँ। वे भगवान शांत और निर्मल ध्यान मुझमें उत्पन्न करें। ६-ॐ ह्रीं क्रौं पञ्चवर्णभक्तरिकर्भगवतोऽहतोवतरणं करोमि क्षेमं सुभिक्षमस्माकं करोतु भगवान स्वाहा।। भावार्य--पाच प्रकारके सुम्वर खाद्य पदार्थोसे अथवा पाँच वर्णक चावलोंसे ( भातसे ) भगवानको आरती करता हूँ वे भगवान मुझे सब तरहका कल्याण और सुकाल प्रदान करें। ७-ॐ ह्रीं क्रौं सितहरितपोतकृष्णलोहितवर्द्धमानभंगवतोहतोऽवतरणं करोमि श्रियमस्माकं वर्धमान । करोतु भगवान् स्वाहा। भावार्थ-सफेद, हरी, पोली, काली, लाल सरसोंसे भगवानको आरती करता हूं वे भगवान मुझे बढ़ती हुई लक्ष्मी प्रवान करें। ८-ॐ ह्रीं क्रौं पवित्रतरुसमुत्पन्नः क्रमुफनालिकेरमातुलिंगपनसवाडिमजंग्याघ्रफल गवतोऽहतोऽवतरणं करोमि अस्माकमाशाफलमृत्पादयतु भगवान् स्वाहा । भावार्थ-पवित्र वृक्षोंसे उत्पन्न हुए सुपारी, नारियल, विजोरा, पनस, अनार, जामुन, आम आवि । फलोंसे भगवान अरहन्त देवको आरती करता हूँ। वे भगवान मेरो आशाओंको फलोभूत करें। इस प्रकार आठों दिशाओं में आठ प्रकारका नोराजन करना चाहिये । नोराजनके पात्रमें ऊपर लिखे JEEVADARATHAAR [११ हुए द्रव्य रखकर आरती वा अवतरण करना चाहिये। नीराजनाके पात्रका आकार ऐसा समझना चाहिये। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर २०० यह सब पूजासार तथा बृहत्स्नपन अरविमें लिखा है । १५६ - चर्चा एकसौ छप्पनवीं प्रश्न - सर्वोषधिमें कौन-कौन-सी औषधियाँ है ? समाधान --- इक्षुरस, घृत, हुग्ध, दधि इनके अभिषेकके बाद सर्वोषधिका अभिषेक करना चाहिये । उसमें नीचे लिखी चीजें डालनी चाहिये । सरसों, चन्दन, वच्छकूट, कङ्कोल, मिरच ( काली ) इलायची, लौंग, जावित्री, कपूर आदि अनेक सुगन्धित द्रव्योंके समूहको जल में घोलकर सर्वौषधि तैयार करना चाहिये और उससे अभिषेक करना चाहिये। इसके सिवाय सप्तौषधि तथा कषाय लौषधि ( कवायले पदाथको घोलकर जल तैयार करना ) आदि और भी इसके भेद हैं सो अन्य प्रन्पोंसे जान लेना चाहिये। यहां संक्षेपसे लिखा है इस प्रकार सर्वोषधिका विधान है। १५७ - चर्चा एकसौ सत्तावनवीं प्रश्न-- पहले पूजामें सिद्धचक्रका यन्त्र बतलाया है सो इसका स्वरूप क्या है ? समाधान — पूजा में सिद्धपरमेष्ठीका सिद्धचक्र यन्त्र बतलाया है और सिद्धपूजा इस यंत्रपूर्वक हो होती है सो इसके बनानेकी विधि इस प्रकार है । सबसे पहले एक सोनेका वा चाँदीका अथवा ताँका वा पीतलका अथवा कलिका वा और किसी उत्तम धातुका पत्र बनाना चाहिये । उसपर यंत्र लिखकर किसी चतुर कारीगरसे पवित्रतापूर्वक वे अक्षर खुबवाना चाहिये । यंत्र इस प्रकार है । ऊर्ध्वाधरयुतं सविंदु सपरं ब्रह्मस्वरा वेष्टितं । वर्गापूरितदिग्गतांबुजदलं तत्संधि तत्त्वान्वितम् ॥ अंतःपत्रतटेष्वनाहतयुतं ह्रींकारसंवेष्टितं । देवं ध्यायति यः स मुक्तिसुभगो वैरीभकंठीरवः ॥ अर्थ — जिसके ऊर्ध्व अर्थात् ऊपर और अधो नीचे दोनों जगह रकार है तथा जो बिन्दु अर्थात् अद्धं चंद्राकार कला सहित ऐसा स से आगेका अक्षर हकार मध्यमें लिखना । भावार्थ- जिस हकारके ऊपर रकार हो नीचे रकार हो और अर्द्धचंद्र वा अर्द्धविंदु ऊपर हो ऐसा है मध्यमें लिखना चाहिये। उस हं के चारों ओर ब्रह्मस्वर अर्थात् सोलह स्वर लिखने चाहिये । इतना सब तो बीचको कणिकामें लिखना चाहिये। फिर उस [ २० . Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TRALIA'S किणिकाके चारों ओर तीन बलय वा घेरा बेकर उसके बाहर पारों दिशाओं में और चारों विविधाओंमें आठ । संषिया बनाकर उन संधियोंके मध्य में अष्ट बल आकारका कमल बनाना चाहिये। उम अष्ट क्लों में अनुक्रमसे अ बांसागर आ इ ई उ ऊ ऋ ऋतु ल ए ऐ ओ औ अं अः क स ग घ ङ च छ जसअट ण , त थ द ध न, २०१] प फ ब भ म य र ल व ही इसका निशार नाहिये। तथा इन्हीं दलोंमें सोलह स्वरोंमेसे प्रत्येक बलमें दो-दो स्वर लिखना चाहिये। तथा इन्हीं अष्ट बलोंके अन्तभागमें अनाहत मन्त्र अर्थात् ओंकर सहित अनाहत मन्त्र लिखना चाहिये । तथा उन आठों इलोंके मध्यमें जो आठ संधियाँ हैं उनमें तस्वसे सुशोभित करना चाहिये । "णमो अरहताणं" इस मंत्रको तस्व कहते हैं अर्थात् आठों संषियोंमें "णमो अरहताण" । लिखना चाहिये। फिर तीन वलय देकर भूमण्डलसे वेष्ठित करना चाहिये। फिर भितिवीज और । इन्वायुष लिखना चाहिये । इस प्रकार यंत्र रचना कर सिवनक्रका ध्यान करना चाहिये । जो जीव इस सिद्धचळका व्यान करता है वह बेष्ठ मोक्षपदको प्राप्त करता है। यह सिद्धचक देव शत्रुरूपी हाथियोंको जीतनेके लिए सिंहके समान है, यह सिद्धचकको विधि है सो अच्छी तरह समझ लेना चाहिये। १५८-चर्चा एकसौ अट्ठावनवीं प्रश्न-शांतिपक यंत्रका स्वरूप क्या है? समाधान--इसका समुच्चय स्वरूप तो पूजनके वर्गनमें पहले लिख चुके हैं। अब इसका विशेष स्वरूप । यन्त्रोद्वारके द्वारा लिखते हैं। पहलेके समान बीच में एक कणिका लिखनी चाहिये । फिर वलय कर उसके बाहर चार दिशा और चारों विविशाओंमें अष्ट दलाकार कमल बनाना चाहिये। फिर उसके बाहर वलय देकर पोस्श दलका कमल १ अनाहत मन्त्रका स्वरूप उविन्दाकार हरोवं रेफ बिन्द्रानवाक्षरम् । मालाषःस्यन्दिपीयूषविन्दु विदुरनाहतम् ।। उ अनुस्वार ईकार ऊर्ध्वरकार हकार हकार निम्नरकार अनुस्वार ईकार । इन नौ अक्षरोंसे अनाहत मन्त्र बनता है कवधिोरेफसरुद्धं सपरं विदुलांच्छिएम् । अनाहतयुत मंत्रम् ।। Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 बनाना चाहिये । फिर उसके बाहर वलय देकर चौबीस बलका कमल बनाना चाहिये। फिर उसके बाहर । बलय देकर बत्तीस वलका कमल बनाना चाहिये। उसके बाहर बलय बेकर पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर इन चिसागर चारों विशाओंमें भनके आकारके चार द्वार वा दरवाजे बनाना चाहिए। फिर एक-एक द्वारके दोनों ओर तोन२०२] तीन त्रिशूलाकार पत्र लिखना चाहिये। इस प्रकार चारों ओरके उन आठ त्रिशूलोंके चौबीस क्षोभ करना चाहिए। फिर चारों विधिशाओंके मालक बाहर पो-दो अला शिसिनण्डलके लिये त्रिशूलाकार बना बनाना चाहिये और उसके आठ वन लिखना चाहिए । इस प्रकार मितिमाल करि सहित शांतिधक यन्त्रका । उबार करना चाहिये। सबसे पहले कणिकाके मध्यभागमें "ॐ ह्रीं अहंदूयो नमः' यह मंत्र लिखना चाहिये फिर उसी में कणिकामें उस मंत्रके पूर्वको ओर "ॐ ह्री सिद्धेभ्यो नमः" याह मंत्र लिखना चाहिये फिर उसकी बक्षिण दिशामें 'लों सूरिभ्यो नमः' लिखना चाहिये । पश्चिमको ओर "ॐ ह्री पाठकेभ्यो नमः" लिखना चाहिए । उत्तरको ओरके वलमें 'ॐ ह्रीं सर्वसाधुभ्यो नमः' लिखना चाहिए । तवमंतर उसो कणिकामें चार विदिशाओंके चार दलों से अग्निकोणके बलमें "ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनाय नमः" नैऋत कोणमें "ॐ ह्रीं सम्यग्ज्ञानाय नमः" है वायव्यकोणमें "ॐ ह्रीं सम्यचारित्राय नमः" और ईशान कोण "ॐ ह्रीं सम्यक्तपसे नमः" लिखना है चाहिये। यह कणिकामें बने नौ कोठोंका उद्धार है। इस कणिकाके बाहर वलयके बाहर मो अष्ट बलाकार कमल हैं उसमेंसे पूर्वके दलमें "ॐ ह्रीं जयायै स्वाहा" बक्षिणके वलमें "ॐ ह्रीं विजयाय स्वाहा" पश्चिमके क्लमें A "ॐ ह्रीं अजितायै स्वाहा" उत्तरके बलमें "ॐ ह्रीं अपराजितायै स्वाहा" लिखना चाहिए। फिर अग्निकोणमें H "ॐ ह्रीं जभायै स्वाहा" नैऋत्य कोणमें "* ही मोहायै स्वाहा" वायव्य कोणमें “ॐ ह्रीं स्तम्भायै स्वाहा" । तथा ईशान कोगमें "ॐ ह्रीं स्तम्भिन्यै स्वाहा" लिखना चाहिए । इन सब मंत्रोंको प्रणव मायवीजपूर्वक होमात लिखना चाहिए । इस प्रकार कणिकाके बाहरका अष्टदल कमल भर देना चाहिए। उसके बाहर वलयके बाद सोलह वलका कमल हे सो उसमें पूर्व विशासे प्रारम्भ कर अनुक्रमसे सोलह विद्या देवियों के नाम लिखना चाहिए। यथा 'ॐ ह्रीं रोहिण्यै स्वाहा' *ह्रीं प्राप्यै स्वाहा। इस प्रकार सोलह १. ॐ ह्रीं रोहिण्यै स्वाहा १ ह्रीं प्रशप्रय स्वाहा २ ॐ ह्रीं वणशृङ्खलायै स्वाहा ३ ॐ ह्रीं वांकुशाय स्वाहा ।। ॐ ह्रीं । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलोंमें सोलह विद्यादेवियों को स्थापन करना चाहिए । इस प्रकार सोलह बल कमलको भर देना चाहिये। तदनन्तर उस सोलह वल कमलके बाहर जो चौबीस बलका कमल है उसमें पूर्वविशासे प्रारम्भ कर ! धागरअनुनामसे चौबीस शासन देवियोंको स्थापन करना चाहिये । यथा-'ह्रीं चश्वरीदेव्यै स्वाहा' इस प्रकार चक्रेश्वरीसे लेकर सिझायनी पर्यन्त पौबीसों शासनदेषियोंको स्थापन करना चाहिये । इस प्रकार चौबीस बल कमलको भर देना चाहिए । चौबीस बल कमलके बाहर वलयके बाद मत्तीस बल कमल है सो उसमें भी पूर्व दिशासे प्रारम्भ कर अनक्रमसे बत्तीस इस्त्रको स्थापन करना चाहिये। इन सब देवियोंको तथा इन्द्रोंको ग्राह्य माया बोजसे प्रारम्भ कर होमात (जिसके आदिमें ॐ ह्रीं यह ब्रह्म और मायावीज हो तथा मध्यमें चतुर्थी विभक्ति सहित देवो वा इन्द्रका नाम हो और अन्तमें होमात अर्थात् होमके अन्समें कहे जाने वाला स्वाहा शब्ध हो, इस प्रकार सब देव-वेषियोंको स्थापन करना चाहिये ) लिखना चाहिए । यथा-ॐ ह्रीं असुरेन्द्राय स्वाहा' इस प्रकार बत्तोसों अप्रतिचक्रायै स्वाहा ५ ॐ ह्रीं पुरुषदक्षायै स्वाहा ६ ॐ ह्रीं काल्यै स्वाहा ७ ॐ ह्रीं महाकाल्यै स्वाहा ८ ह्रीं गांधार्य स्वाहा ९ॐ ह्री गोयें स्वाहा १. ॐ ह्रीं ज्वालामालिन्यै स्वाहा ११ ॐ ह्रीं धैरोटथे स्वाहा १२ॐ ह्रीं अच्युतायै स्वाहा १३ * ह्रीं अपराजितायै स्वाहा १४ ॐ ह्रीं मानसोदेव्यै स्वाहा १५ ॐ ह्रीं महामानसी देव्यै स्वाहा १६ । ॐ ह्रीं चक्रेश्वरी देव्यै स्वाहा १ ॐ ह्रीं रोहिण्ये स्वाहा २ ॐ ह्रीं प्रज्ञप्त्यै स्वाहा ३ ॐ ह्रों वाङ्खलाये स्वाहा ४ ॐ ह्रीं पुरुषदत्तायै स्वाहा ५ ह्रीं मनोवेगायै स्वाहा ६ ॐ ह्रीं काल्यै स्वाहा ७ ॐ ह्रीं महाकाल्यै स्वाहा ८ ॐ ह्री ज्वालामालिन्यै स्वाहा १ ॐ ह्रीं मानव्यै स्वाहा १० ॐ ह्रीं गौर्यै स्वाहा ११ ॐ ह्रो गांधार्य स्वाहा १२ ॐ ह्रीं वैरोटये स्वाहा १३ ॐ ह्रीं अनन्तमत्यै स्वाहा १४ ॐ ह्रीं मानसीदेव्यै स्वाहा १५ ॐ ह्रीं महामानसोदेव्यै स्वाहा १६ ह्रीं जयाये स्वाहा १७ ॐ ह्रीं विजयायै स्वाहा १८ॐ ह्रीं अपराजितायै स्वाहा १९ ॐ ह्रीं बहुरूपिण्यै स्वाहा २०ॐ ह्रीं चामुण्डायै स्वाहा २: ॐ ह्रीं कुष्माडिन्यै स्वाहा २२ *हों पद्मावत्यै स्वाहा २३ ॐ ह्रीं सिद्धायन्यै स्वाहा २४ । ॐ ह्रीं असुरेन्द्राय स्वाहा १ ॐ ह्रीं नागेन्द्राय स्वाहा २ ॐ हों विद्युदिन्द्राय स्वाहा ॐ ह्रीं ३ सुपर्णन्द्राय स्वाहा ॐ ह्रीं अग्नींद्राय स्वाहा ५ *हों वातेन्द्राय स्वाहा ६ॐ ह्रीं स्तनितेन्द्राय स्वाहा ७ ॐ ह्रीं उदधौदाय स्वाहा ८ ॐ ह्रीं द्वीपेंद्राप स्वाहा ९ ॐ ह्रीं दिगिन्द्राय स्वाहा १० ॐ ह्रीं किन्नरेन्द्राय स्वाहा ११ ॐ ह्रीं किंपुरुषेन्द्राय स्वाहा १२ ॐ ह्रीं महोरगेन्द्राप स्वाहा १३ ॐ ह्रीं गन्धर्वेन्द्राय स्वाहा १४ ॐ ह्रीं यक्षेन्द्राय स्वाहा १५ ॐ ह्रीं राक्षसेन्द्राय स्वाहा १६ ॐ ह्रीं भूतेन्द्राय स्वाहा १७ ॐ ह्रीं पिशाचेन्द्राय स्वाहा १८ॐ ह्रीं चन्द्रेन्द्राय स्वाहा १९ ॐ ह्रीं आदित्येन्द्राय स्वाहा २०ॐ ह्रीं सौधर्मेन्द्राय स्वाहा २१ ह्रीं ईशानेन्द्राय स्वाहा २२ ॐहों सानत्कुमारेन्द्राय स्वाहा २३ ॐ ह्रीं माहेंद्राय स्वाहा २४ ॐ ह्रीं ब्रोन्द्राय Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्षासागर : २०४ 1 इन्द्रोंको स्थापन करना चाहिये और इस प्रकार बत्तीस बल कमलको भर देना चाहिये । तबनन्तर चारों हिमानों के चारों धाोंके दोनों ओर शिरले हुए चौबीस वनोंमें गोमुख आदि चौबीसों यक्षोंको वेद शक्ति बीज सहित तथा होमांत लिखना चाहिये । यथा-ॐ . गोमुख यक्षाय स्वाहा' इस प्रकार पूर्वविशासे प्रारम्भ कर पश्चिमकी ओर होते हुए अनुक्रमसे लिखना चाहिये । इस प्रकार एक-एक विशामें छ:छः यक्ष लिखना चाहिये। तदनन्तर पूर्वाधिक चारों विशाओं में तथा चारों विदिशाओं में तथा पूर्व और पश्चिममें प्रणव मायाधीज आदि होमांत युक्त इन्द्राविक देश विक्पालोंको स्थापन करना चाहिए । यथा-' ह्रो इन्द्राय स्वाहा' पूर्वे, 'ॐ ह्रौं अग्नीन्द्राय स्वाहा' माग्नेय्याम्, 'ॐ ह्रीं यमाय स्वाहा' दक्षिणे ईस प्रकार क्रमसे लिखना चाहिए। तवनन्तर पूर्वारिक चारों विशाओं तथा चारों विदिशाओंमें और दुबारा पूर्व दिशाओं में इस प्रकार नौ स्थानों में प्रणवपूर्वक स्वाहा पर्यन्त आदित्यादिक नवग्रहोंको लिखना चाहिये और उनको पूर्व दिशासे प्रारम्भ कर अनुमसे पश्चिम की ओर घूमते हुए पूर्व दिशा तक लिखना चाहिये । स्वाहा २५ ॐ ह्रीं लांतवेंद्राय स्वाहा २६ ॐ ह्रीं शुकेन्द्राय स्वाहा २७ ॐ ह्रीं पातारेन्द्राय स्वाहा २८ॐ ह्रीं आनतेन्द्राय स्वाहा २९ ॐ ह्रीं प्राणतेन्द्राय स्वाहा ३० ॐ ह्रीं आरणेन्द्राय स्वाहा ॐ ह्रीं अच्युतेन्द्राय स्वाहा ३२ । ॐ ह्रीं गोमुखाय स्याहा १ॐ ह्रीं महा यक्षाय स्वाहा २ ॐ ह्रीं त्रिमुखाय स्वाहा ३ ॐ ह्रीं यक्षेश्वराय स्वाहा ४ ॐ ह्रीं तुम्बुरखे स्वाहा ५ ॐ ह्रीं कुसुमाय स्वाहा ६ ॐ ह्रीं वरनन्दिने स्वाहा ७ॐ ह्रीं विजयाय स्वाहा ८*ही अजिताय स्वाहा स्वाहा ९ ॐ ह्रों ब्रह्म श्वराय स्वाहा १० ॐ ह्रीं कमाराय स्वाहा ११ ॐ ह्रषण्मुखाय स्वाहा १२ ॐ ह्रीं पातालाय स्वाहा । १३ ॐ ह्रीं किन्नराय स्वाहा १४ ॐ ह्रीं किंपुरुषाय स्वाहा १५ ॐ ह्रीं गरुडाय स्वाहा १६ ॐ ह्रीं गन्धर्वाय स्वाहा १७ ॐ ह्रीं महेंद्राय स्वाहा १८ ह्रीं कुबेराय स्वाहा १९ ॐ ह्रीं बरुणेन्द्राय स्वाहा २० ॐ ह्रीं विद्युत्प्रभाय स्वाहा २१ ॐ ह्रीं सर्वाव्हाय स्वाहा २२ ॐबी घरगेन्द्राय स्वाहा २३ ॐ ह्रीं मातङ्गाय स्वाहा २४ । २. ॐ ह्रीं इन्द्राय स्वाहा १ ॐ ह्रीं अग्नये स्वाहा २ ॐ ह्री यमाय स्वाहा ३ ॐ ह्रीं नैऋताय स्वाहा । ॐ ह्रीं वरुणाय स्वाहा ५ॐ ह्रीं पवनाय स्वाहा ६ॐहों कुबेराय स्वाहा ७ ॐ ह्रीं ईशानाय स्वाहा ८ ॐ ह्रीं घाणेन्द्राय स्वाहा . ॐ ह्रीं सोमाय स्वाहा १०। ३. ॐ ह्रीं आदित्याय स्वाहा १८ह्रों सोमाय स्वाहा २ ॐ ह्रीं भौमाय स्वाहा ३ ॐ ह्रीं बुधाय स्वाहा ।ॐ ह्रीं बृहस्पते स्वाहा ५ ॐ ह्रीं शुक्राय स्वाहा ६ॐ ह्रीं शनेश्वराय स्वाहा . ॐ ह्रीं राहवे स्वाहा ८ ॐ ह्रीं केतवे स्वाहा ।। व Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनाउ २०५ ] a iso- फिर सबके बाहर हो ओ क्रों ममावृताय स्वाहा' यह मंत्र लिखकर अनावृत यक्षको स्थापन करमा चाहिए। तदनन्तर भूमण्डल देकर अष्ट वन सहित क्षिति बोज और अष्ट इन्द्रायुधके बीजकरि सहित लिखना चिसागर चाहिए। इस प्रकार यह यन्त्रविधि है। इस प्रकार यन्त्र बनाकर पहिले लिखो विधिके अनुसार पूजा करनी चाहिये। यह महायंत्र धर्म, अर्थ, काम, मोक्षको सिद्धि करनेवाला है इसलिये इसकी नित्य पूजन करना चाहिये। यह सामान्य शांतिधक है वृहत्शांतिचक्र और है, जो बहुत बड़ा है सो अन्य शास्त्रोंसे जान लेना चाहिये। उसमें इससे भी बहुत विशेष रचना है। यह मंत्र अनेक गुणोंसे सुशोभित है यह यंत्र पूजा करनेवालेके अनेक विघ्न समूहोंको, अनेक क्षुद्रोपद्रवोंको, अनेक परकृत उपद्रवोंको, अनेक क्षाम डामरारिक कृत्रिम दोषोंको, अनेक अरि, मारी, रावल चौराविक कृत घोर उपद्रवोंको, समस्त अरिष्टोंको, अपमृत्युको, अकिनी, शाकिनी तथा आदिस्याविक दुष्ट ग्रहोंको, भूत, बेताल, राक्षस, पिशाब आदिकोंको तथा स्थावर जंगम विषादिकोंको अनेक दुयाधियोंको दूर करता है। अनेक प्रकारके दुःख समूहोंको दूर करता है तथा अनेक मनोवांछित सुखोंको प्राप्त कराता है। यह यंत्र महापुण्यका कारण है ऐसा जानकर इस यंत्रको नित्य पूजन करनी चाहिये। यह यन्त्र भाग्यहीनोंको अत्यन्त दुर्लभ है।। इसलिये बुद्धिमानोंको इस ऊपर लिखे मंत्रके महत्वको समझ लेना चाहिये । १५६-चर्चा एकसौ उनसठवीं प्रश्न-कलिकुछ दंड स्वामोका यन्त्र और उसकी विधि क्या है ? समाधान-सबसे पहले कलिकुण्ड बंज स्थामीका अर्थ लिखते हैं। कलि सम्वका अर्थ क्लेश है वह अनेक प्रकार हे आधि-व्याषिसे उत्पन्न होनेवालो अर्थात् मन और शरीरसे होनेवाली पोड़ासे उत्पन्न होनेवाले अनेक प्रकारके क्लेश क्लेश कहलाते हैं तथा कुण्ड शब्दका अर्थ समूह है। कलि अर्थात् क्लेशोंके कुण्ड अर्थात् । समूहको कलिकुण्ड कहते हैं उन क्लेशोंके समूहको दूर करनेके लिये नासा करनेके लिये जो बंडके समान हो । - - - - Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर २०६ ] I उसको कलिकुण्डवण्ड कहते हैं । उस कलिकुण्डके स्वामी श्रीपाश्र्वनाथको कलिकुण्डवण्डस्वामी कहते हैं । भावार्थअनेक प्रकारके क्लेशों के समूहको दूर करनेके लिये भगवान पार्श्वनाथ समर्थ हैं। उन्होंसे सम्बन्ध रखनेवाला यह कलिकुण्डदंडस्वामीका यन्त्र है । उसीको आगे लिखते हैं । इसके लिये नीचे लिखा काव्य है हकारं ब्रह्मरुद्धं स्वपरिकलितं वनरेखाष्टभिन्नं, वजस्यानांतराले प्रणवमनुपमानाहतं सासणं च । वर्णान तोद्यान सपिंडान हम मर घझसखान वेष्टयेत्तद्वदंते, बजाणां यंत्रमेतत् परमसुशुभं दुष्ट विद्याविनाशम् । अर्थ-एतत् अर्थात् यह यन्त्र परमोत्कृष्ट है और बहुत ही शुभ करनेवाला है। दुष्ट जनोंके द्वारा उत्पन्न हुई दुष्ट विद्याओंका नाश करनेवाला है । भावार्थ-परशत्रुकृत आकर्षण, स्तम्भन, उच्चाटन, मोहन, वशीकरण, मारण इन छहों प्रकारको दुष्ट विद्याओंका नाश करनेवाला है। इस यात्रा माराधन करनेसे दूसरोंकी ( शत्रुओंको ) की हुई दुष्ट विद्याओंका खंग्न होता है तथा अभीष्ट फलको सिवि होती है । आगे, उसी यंत्रको बतलाते है सबसे पहले मध्यको कणिकामें है.' ऐसा हंकार लिखना चाहिये। उसके पास चारों ओर 'ॐ ह्रीं ॥ श्री ऐ बलों अहं कलिकुण्डदंडस्वामिने अतुलबलवीरपराक्रमाय अभीष्टसिद्धिं कुरु कुरु आत्मवियां रक्ष रक्ष पर-1 विधा छिद छिच भिद भिव स्फ्रां स्की स्ळू स्फः हं. फट् स्वाहा' यह मूल मन्त्र लिखना चाहिये उसको ब्रह्मरुद्ध अर्थात् चौवह स्वरोंसे वेष्ठित करना चाहिये । फिर सोलह स्वरोंसे बलयाकार बनाना चाहिये फिर तीन वलय देकर उसके बाहर चारों दिशा और चारों विदिशाओं में अलग-अलग माठ वद्य लिखना चाहिये। उन पत्रोंके । बीचमें दो-दो प्रणव बीजको अनाहतसे घेरकर उसको ह्रींकारसे वेष्ठित करना चाहिये । अर्थात् एक-एक कोठेमें दो-दो जगह ॐ लिखकर उसके चारों ओर अनाहत बनाकर उस अताहतको ह्रींकारसे घेष्ठित करना चाहिये। तथा उन वनोंके बीच-बीच में अनुक्रमसे अकारादिक स्वर, कवर्ग, वर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग, यकरादिक अन्तस्थ और शकाराविक ऊष्म लिखने चाहिये । अर्थात् पहले कोठमें अ आ इ ई उ ऊ ऋऋ ल ल ए ऐ ओ औ अः लिखना चाहिये । दूसरे कोठेमें क ख ग घ तीसरे कोठेमे व नाम चोयमें टम पांचवें । मयमचाचा -चाचाचाका [ २० Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर २०७ ] १०. नप फ ब भ म सातवेंमें य र ल व मौर आठवेंमें दाव सह लक्ष लिलना चाहिये । फिर प्रत्येक कोठेमें जो दो-दो अनाहत लिखे हैं. उनके बीचमें अर्थात् आठों पत्रोंमेंसे दो-दो बच्चोंके मध्य भागमें हकाराविक पिडाष्टक लिखना चाहिये अर्थात् पहले कोठेमें हकार मकार लकार वकार ऊ रकार यकार अधो रकार अर्द्धचन्द्राकार कलायुक्त अनुस्वार नीचे दीर्घ ऊकार इन सब अक्षरोंसे मिला हुआ हकार लिखना चाहिये । उसका स्वरूप "हम्हप्यू" इस प्रकार है। दूसरे कोठेमें ह्कारको जगह भकार लिखना बाकीके अक्षर ऐसा बन जाता है । तीसरे ज्योंके त्यों मिला देना चाहिये। इन सबके मिलानेसे उसका स्वरूप 'भल्यू ' कोठे हकारकी जगह मकार लिखकर उसमें सब अक्षर मिलाकर लिखना चाहिये उसका स्वरूप 'मल्ब्यू' ऐसा होता है। चौथे कोठे हकारकी जगह रकार लिखकर उसमें अम्य अक्षर ज्योंके त्यों मिलाकर लिखना चाहिये उसका स्वरूप " ऐसा होता है। पाँचवें कोठे हकारको जगह धकार लिखकर उसमें बाकी अक्षर मिलाकर लिखना चाहिये उस स्वरूप'" ऐसा होता है। छठे कोठे में पहला अक्षर कार लिखकर तथा बाकीके अक्षर उसमें मिलाकर लिखना चाहिये । उसका स्वरूप 'स्ट्यू' ऐसा होता है। सातवें कोठे में पहला अक्षर सकार लिखना चाहिए तथा बाकीके अक्षर मिलाकर 'स्स्यू' ऐसा बीजाक्षर बनाकर लिखना चाहिये। आठवें कोठेमें पहला अक्षर व लिखकर उसमें सब अक्षर मिलाना चाहिये उसका स्वरूप 'म्यू" ऐसा होता है। इस प्रकार आठों कोठोंमें अनाहतोंके घोचमें ये बीजाक्षर लिखने चाहिये । फिर तीन वलय बेकर क्षितिमंडलसे वेष्ठित करना चाहिये । उसमें चारों दिशाओंमें चार क्षित बीज और चारों कोणोंमें चार इन्द्रायुध वीजसे वेष्ठित करना चाहिये। इस प्रकार बनानेसे यह कलि कुण्डदंडयंत्र बन जाता है । इस यन्त्रका उद्धार इस प्रकार है । कणिकामें स्थित जो ॐ ह्रीं श्रीं ऐं क्लीं अहं इत्यादि मूल मंत्रसे पंचोपचारी पूजा करनी चाहिये। फिर एकसौ आठ बार सुगन्धित पुष्पोंसे अथवा रक्त कंडीरके पुष्पोंसे जाप करना चाहिये । इस यंत्र से समस्त अभीष्ट पदार्थोंकी सिद्धि होती है तथा परकृत समस्त दुष्ट विद्याओंका नाश होता है । Ai [ २ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६०-चची एकसौ साठवीं प्रश्न-ऋषिमंडल स्वरूप क्या है तथा उसका आराधन किस प्रकार है ? वर्षासागर समाधान-आगे ऋषिमंडल यन्त्रका स्वरूप और आराधन कहते हैं । यह यन्त्र सोना, चांदी, कांसा, [२०८] तांबा अथवा भोजपत्र पर लिखना चाहिए। सबसे पहले मध्यमें गोल कणिका बनानी चाहिये । उसमें द्विगुण (बो-दो लकीरोंके बोधमें) 'ही' ऐसा ह्रींकार बताना चाहिए उस होंकारमें नीचे लिखे अनुसार अनुक्रम ऋषभसे लेकर बर्द्धमान पर्यन्त चौधोसों तीर्थंकरों के नाम चतुर्थी विभक्तिके साथ तथा नमः शम्बके साथ लिखना चाहिए। । उनका क्रम इस प्रकार है।। ऋषभांजिशंभवाभिनन्दनसुमतिसुपार्श्वशीतलश्रेयोविमलातन्तधर्मशान्तिकुथ्वरेमल्लिभ्यो नमः' इस प्रकार इन चौवह तीर्थकरों के नाम तो ह्रींकारके हकारमें लिखना चाहिए तथा "बळमानेभ्यो नमः" यह ह्रींकारके नीचे लगे रेफमें लिखना चाहिए । फिर 'पद्मप्रभवासुपूज्याभ्यां नमः' यह होंकारके मस्तकपर लिखना चाहिए। फिर 'चन्द्रप्रभपुष्पदन्ताभ्यां नमः' यह कलाम लिखना चाहिए तथा 'नेमिमुनिसुव्रताभ्यां नमः' यह विन्दुमें। लिखना चाहिए । फिर सुपार्श्व'पाश्र्वनाथमल्लिभ्यां नमः' यह ईकारमें लिखना चाहिए। फिर 'नमिभ्यो नमः" यह रेफके आगे उससे लगता हुआ लिखना चाहिये। इस प्रकार कणिकाको पूरा कर फिर उसके बार्गे वलय सके बाहर आठ दलका कमल बनाना चाहिए। उस कमलके आठों पत्रोंमें पर्व विजयासे प्रारम्भ कर बायीं ओर होते हुए अनुक्रमसे अकराविक आठों वर्गीको पिडाष्टकके साथ लिखना चाहिए अर्थात् पूर्व दिशाके पहले बलमें अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋल ल ए ऐ ओ औ अं अः इन सोलह स्वरोंको लिखकर 'हल्ल्य यह "हम ल व ऊर्वरकार यकार अघोरकार अर्धचन्द्राकार अनुस्वार और नीचे 'ऊकार' इन सब अक्षरोंसे मिला महुआ वर्ण लिखना चाहिए । फिर बायीं ओरके दूसरे पत्र क ख ग घ ' इन कवर्गके पांचों अक्षरोंको लिख कर 'भाप इस भकारादि पिअष्टकको लिखना चाहिए। फिर तीसरे पत्रमें चवर्ग अर्थात् 'च छ जसअ' लिखकर मस्र्य' यह मकारावि पिंडाष्टक लिखना चाहिये। फिर चौथे, पत्रमें टवर्ग अर्थात् '26 तुण' लिखकर व्यं' इस रकारादि पिंडाष्टकको लिखना चाहिये। पांचवें पत्रमें तवर्ग अर्थात् 'तपय वन' " लिखकर 'लव्यं । इस धकारादि पिडाष्टकको लिखना चाहिये। छठे पत्रमें पवर्ग अर्थात् प फ ब भ म' dden Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्षासागर लिखकर 'लव्य' यह सकाराबि पिडाष्टक लिखना चाहिये। सातवें पत्रमें यकारादि अर्थात् 'य र ल व ॥ लिखकर 'स्म्य" इस सकारादि पिंडाष्टकको लिखना चाहिये। फिर आठवें पत्रमें 'श ष स ह लिखकर व्य यह खकाराविक पिंडाष्टक लिखना चाहिये । इस प्रकार आठों पत्रोंको भर देना चाहिये। उसके बाद वलय देकर फिर आठ दलका कमल बनाना चाहिये। उन आठों पत्रोंमें वेद मायावीजपूर्वक चतुर्थी विभक्ति और नमः शब्दके साथ अलग-अलग अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुतत्त्वदृष्टिसम्यग्चारित्रान् । लिखना चाहिये । उनका क्रम इस प्रकार है। पूर्व विशाके पहले दलमें ही अहंदभ्यो नमः' बायीं ओर दूसरे बलमें 'ॐ ह्रीं सिद्धेभ्यो नमः' तीसरे पत्र में ही सूरिभ्यो नमः' चौथे दलमें 'ॐ ह्रौं पाठकेभ्यो नमः' या वल " ही सहाय नमः छ पत्रमे 'ॐ ह्रीं तत्वदृष्टिभ्यो नमः' सातवें पत्रमे 'ॐ ह्रीं सम्यगशानाय नमः' आठवें पत्रमें 'ॐ ह्रौं सम्यक्चारित्रेभ्यो नमः' लिखना चाहिये। इस प्रकार दूसरा आठ दलका कमल भी भर देना चाहिये। फिर उसके बाद बलय देकर सोलह बलका कमल बनाना चाहिये । उसमें अनुक्रमसे ब्रह्म मायाबोजादि। चतुर्थीयुक्त नमः शब्दके साथ भावनेन्द्र आदि सोलह इन्द्र देवोंको लिखना चाहिये । उसका नाम और क्रम । इस प्रकार है । पूर्वविशाके पहिले पत्रमें 'ॐ ह्रीं भावनेन्द्राय नमः' लिखना चाहिये फिर बायों ओरके दूसरे । बलमें 'ॐ ह्रीं व्यन्तरेन्द्राय नमः'तीसरे पत्रमें 'ह्रीं ज्योतिष्केनाय नमः' लिखना चाहिए। चौथे बलमें 'ॐ ही कल्पेन्द्राय नमः', पांच दलमें 'ॐ ह्रीं श्रुतावविभ्यो नमा', छठे पत्रमें 'ॐ ह्रीं देशावधिभ्यो नमः', सातवे । पत्रमें 'ॐ ह्रीं परमावधिभ्यो नमः', आठवें पत्रमें 'ॐ ह्रीं सर्वावधिभ्यो नमः', नौ दलमें 'ॐ ह्रीं बुद्धिऋद्धिप्राप्तेभ्यो नमः' दश कोठेमें 'ॐ हीं सौंपर्धातऋजिप्राप्तभ्यो नमः' लिखना चाहिये, ग्यारहवें बलमें 'ॐहीं अनन्तबाखप्राप्तेभ्यो नमः', बारहवें पत्रमें 'ॐ ह्रीं तप्ततिप्राप्तेभ्यो नमः', तेरहवें वलमें 'ॐ ह्रौं रसद्धिप्राप्तेभ्यो नमः', चौदहवें पत्रमें 'ॐ ह्रीं विक्रियद्धिप्राप्तेभ्यो नमः', पन्द्रहवें कोठेमें 'ॐ ह्रीं क्षेत्रद्धिप्राप्तेभ्यो । नमः' और सोलहवें बलमें 'ॐ ह्रीं अक्षीणमहानसद्धिप्राप्तेभ्यो नमः' लिखना चाहिये। इस प्रकार सोलह बल कमलको पूर्ण कर देना चाहिये। उससे बाहर वलय देकर चौबीस दलका कमल बनाना चाहिये और उसमें पूर्व विशासे प्रारम्भ कर ! moन्ना3 EXMARATHIMALAATMAITamanartRD Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर । बायों ओर होते हुए अनुक्रमसे चौबीस देवताओंको प्रणव शक्तिबीज चतुर्थी विभक्तिसहित नमः शब्दके साथ। लिखना चाहिये । उन देवता धा देवियों के नाम ये हैं। पहले इलमें 'ॐ ह्रीं श्रियै नमः', दूसरे दलमें 'ॐ ह्रीं ह्रीदेव्यै नमः', तीसरेमें 'ॐ ह्रीं धृतये नमः', चौमें 'ॐ ह्रीं लक्ष्म्यै नमः' पांचवेंमें ली गौर्यै नमः', छठेमें। लो चण्डिकाय नमः', सातवें हों सरस्वत्यै नमः', आठवें में 'ॐ ह्रीं जयायै नमः', नौवमें 'ॐ ह्रीं। अम्बिकायै नमः', वशमें 'ॐ ह्रीं विजयायै नमः', ग्यारहवेमें 'ॐ ह्रीं क्लिन्नायै नमः', बारहवेंमें 'ॐ ह्रीं अजितायै नमः', तेरहवेमें 'ॐ ह्रीं नित्यायै नमः', चौदहमें 'ॐ ह्रीं मवद्रवायै नमः', पंद्रहवेमें 'ॐ ह्रीं कामांगाय नमः', सोलहवेंमें ' ह्रीं कामबाणायै नमः', सत्रहवेमें 'ॐ ह्रीं सानन्दायै नमः', अठारहवेमें 'ॐ ह्रीं नन्दिमालिन्य नमः', उन्नोसमें 'ॐ ह्रीं मायायै नमः', बोसवेमें "ॐ ह्रीं मायाविन्यै नमः', इकईसर्वे में ही रौद्रायै नमः', बाईसमें 'ॐ ह्रीं कलायै नमः', तेईसवेमे 'ह्री काल्यै नमः' चौबीसवें में 'ह्रीं कलिप्रियायै ।। नमः' । इस प्रकार पूर्व विशासे लेकर बायों ओरको गतिसे लिखकर पूर्ण करना चाहिये। फिर माया बीजका ॥ त्रिकोण अर्थात् तीन वलय देकर तथा भूमण्डलसे वेष्ठित कर इसका आराषन करना चाहिये। इसके आराथन करनेकी विधि यह है । सबसे पहले 'ॐ ह्रां ह्रीं हुं हुं हैं हैं ह्रीं ह्रौं ह्रः असि आउ सा सम्यग्दर्शनशानचारित्रेभ्यो ह्रीं नमः' इस मूल मन्त्रसे जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, मेवेद्य, वीप, धूप, फल ।। और अर्घसे पूजा करनी चाहिये। तया इसी यंत्रके ऊपर एकसौ आठ बार इसी मूलमन्त्र के द्वारा रक्त करवीर अर्थात् लाल कन्नर आदि सुगंधित पुष्पोंसे जप करना चाहिये। यदि इसकी सिद्धि करना हो तो इसको सिद्धिके लिये ब्रह्मचर्यत्रत धारण करना चाहिये, प्रतिदिन पूजा करनी चाहिये और आचाम्ल ( केवल मांड, भात ! खाना ) तप करना चाहिये। इतना सब करते हुए आठ हजार जप करना चाहिये तथा इस मंत्रके आगे I होमांत अर्थात् स्वाहा शब्द और लगाना चाहिये। इस प्रकार करनेसे इसको सिद्धि होती है जिससे समस्त । सिद्धियोंको प्राप्त होता है। जो पुरुष इस यंत्रको आठ महीने तक सिद्धि करते हैं, तोनों समय पूजा करते हैं, जप करते हैं, ब्रह्मचयंसहित आचाम्ल आदि तप करते हैं तथा सबके अन्त दशांश होम, तर्पण, मार्जन करते हैं वे निश्चयसे अपने । आत्मामें साक्षात् प्रगट हुए श्रीमरहन्तबिम्बको देखते हैं। तथा ये पुरुष सात आठ भवमें ही मोक्ष प्राप्त कर। लेते हैं फिर वे संसारमें परिभ्रमण नहीं करते। ऐसा इसका फल है। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स PR इस यन्त्रको सिबिसे अनेक प्रकारके विघ्नमाल तथा संसारकी अनेक प्रकारको आपत्तियां दूर होती हैं तथा इच्छानुसार फल प्राप्त होते हैं। इस यन्त्रके माहात्म्यसे सर्प, सपिणी, गोनसा, वृश्चिक, काकिनी, । अफिनी, यामिनी, राकिनी, लाकिनी, शाकिनी, हाकिनी, राक्षस, भेषस व्यन्तर, देवत, तस्कर, अग्नि, शृंगी, बंष्ट्री, रेपल, पक्षी, मुद्गल, जुभक, सोयद सिंह, शूकर, चित्रक, हस्तो, भूमिप, शास्त्रव, प्रामिण, बुर्जन, व्याषि इत्यावि समस्त दुःख देनेवाले तुरन्त ही नष्ट हो जाते हैं तथा वे सब दुष्ट उपद्रव करने के लिये असमर्थ हो जाते हैं। तथा इस यंत्रके प्रभावसे दुर्जन, भूत, वेताल, पिशाच, मुद्गल, अग्नि आदि सर्व उपद्रव शान्त हो जाते हैं । तथा इस यंत्रको पास रखनेसे युद्ध में, द्वारमें, अग्निके उपद्रवमें, जलमे, दुर्ग अर्थात् फिलेमें, हायो, सिंह आरिके उपद्रवमें, श्मशानमें, घोर बनमें और अटवीमे स्मरण करने मात्रसे हो रक्षा होती है और समस्त । उपद्रव दूर हो जाते हैं । इसको पास रखनेसे राज्यसे भ्रष्ट हुए लोग राज्यपदको प्राप्त करते हैं, किसी पबसे । भ्रष्ट हुए जीव अपने पदको प्राप्त करते हैं, लक्ष्मीसे भ्रष्ट हुए लक्ष्मीको पाते हैं। भार्यार्थी भार्याको पाते हैं, पुत्रार्थों पुत्रको पाते हैं और धर्मार्थी धर्मको पाते हैं। इसके सिवाय इसके गुण और भी बहुत है सो सब इसके स्तोत्रसे जान लेना चाहिये । इस प्रकार यह ऋषिमणल यन्त्रका उद्धार है । यन्त्र पृष्ठ २११ (क) में देखो। १६१-चर्चा एकसौ इकसठवीं प्रश्न-चितामणि चक्रका क्या स्वरूप है ? समाधान-यह यंत्र अरहन्त सम्बन्धी है। इसको नित्य पूजा, वन्दना, स्तवन, सेवा, जप करनेसे अभीष्ट फल प्राप्त होता है । तथा जो पुरुष इसको पूजा, वन्दना आदि करते हैं वे मुक्तिरूपी लक्ष्मीके वल्लभ होते हैं और मुक्तिके चित्तको रंजायमान वा प्रसन्न करते रहते हैं। उनके वामें तीनों लोक हो जाता है ऐसा इसका फल है। आगे उसके बनानेकी विधि लिखते हैंसान्तं विन्दूर्ध्वरेफ वहिरपि विलखेदायताष्टाब्जपत्रं, दिक् वीं श्रीं ह्रीं स्मरेन्या स्वभिवशकरणं झौं तथा व्लौं पुनर्यः। - Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाह्य ह्रीं ॐ नमोऽहं दिशि लिखित चतुर्थीवीजकं होमयुक्तं, मुक्तिश्रीवल्लभोसो भुवनमपि वशं जायते पूजयेद् यः॥ चिसागर ( अति-कामिका है लिखकर तीन वलय वेके उसके बाहर आठ दलका कमल बनाये उनमें क्रमसे २१२ ] ऐं क्रीं श्रीं भौं हीं ग्लौं क्लीं यू लिखना चाहिये फिर तीन बलय देकर चारों दिशाओं में ॐ नमोह स्थाहा लिखना चाहिये । इस प्रकार बनानेसे यह सिंतामणि यन्त्र बन जाता है जिसकी पूजा करनेवाला मक्तिरूपी लक्ष्मीका स्वामी होता है और तीनों लोक उसके वशमें हो जाते हैं। इस प्रकार यह चितामणि चक्र है सो । पूजा करनेवालोंको चितामणि रत्नके समान चिंतित पदार्थोको देता है । इसलिये इसको नित्य पूजा, जप, तप, ध्यान करना चाहिये। यह चिंतामणि चक्र और प्रकारसे भी बनता है सो अन्य शास्त्रोंसे जान लेना चाहिये। यह लघु विधि है। इति चिंतामणि चक्र विधि । यन्त्र पृष्ठ २१२ (क) में देखो। १६२-चर्चा एकसौ बासठवीं प्रश्न---गणधर वलय यन्त्रका स्वरूप तथा आराधन किस प्रकार है ? समाधान-यह गणधर वलयका यन्त्र सोने, चांदी तथा तावे आदिके पत्रमें पहले लिखी हुई विधिके । अनुसार लिखना चाहिये। सबसे पहले एक कणिका बनानी चाहिये उसमें उलट पलट रूप दो त्रिकोण बनाना चाहिये जिससे न जाय फिर उसके बीच में हो हीरोहः असि आउ सा स्वाहा' यह मन्त्र लिखना चाहिये। फिर इसो मन्त्रके ऊपर ॐ अई यी क्वीं ह्रीं श्रीं ये बीजाक्षर लिखना चाहिये। फिर छहों कोनों में है "अप्रति चक्रे फट" लिखना चाहिये फिर वहींसे उलट कर दाई ओर "विच क्राय स्वाहा" लिखना चाहिये। फिर वलय देकर छह वलका कमल बनाना चाहिये उनके बीच बीच में संधि रखना । उन छहो दोंमें छह कुमारिकाओं के नाम लिखना चाहिये अर्थात् पहले दलमें 'ॐ श्री' दूसरेमें 'ह्रां ह्री' तोसरेमें 'ही वृति' चौथेमें 'हूं कीति' पाँचवेमें 'लौं बुद्धि' छठेमें 'हः लक्ष्मी' इस प्रकार छहों कोठोंमें छहों कुमारिका वेवियोंके नाम I लिखना चाहिये तथा उनके मध्यमें 'सों नौं' ऐसे बीचके संधिपत्रों में लिखना चाहिये । [२१ । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर उसके बाद वलय देकर आठ दलका कमल लिखना चाहिये फिर उसके बाद वलय देकर सोलह । दलका कमल लिखना चाहिये फिर उसके बाव बलय वेकर चौबीस दलका कमल लिखना चाहिये । फिर उसके पर्चासागर बाद वलय वेकर बीजयुक्त मितिमंडल लिखना चाहिये। [२३] इस प्रकार जो आठ, सोलह और चौबीस दल बने हैं उनमें नमः शब्द के साथ अड़तालीस ऋद्धियोंको लिखना चाहिये । यथा पहले बलमें ॐ ह्रीं है णमो जिणाणं । वूसरे दलमें ॐ ह्रीं हैं णमो ओहि जिणाणं । तीसरेमें ॐ ह्रीं है णमो परमोहिजिणाणं । चौथेमें 'ॐ ह्रीं हं णमो सम्बोहिजिणाणं । पाँचवेमें ॐ ह्रीं है अणंतोहि जिणाण । छठेमें ॐ ह्रीं हैं णमो कोहबुद्धोणं । सातदेमें ॐ ह्रीं हैं णमो बीजबुद्धीणं । आठवेंमें ॐ ह्रीं । हं पादानुसारीणं लिखना चाहिये। यह सब पूर्व दिशासे प्रारम्भ कर बाई ओरको लिखते जाना चाहिए। । तदनन्तर वलयके बाहर सोलह दलों से पूर्वको ओरके पहले वल में तथा अनुक्रमसे नौवें दलमें ॐ ह्रीं हूँ णमो । संभिण्ण सोवराणं । वामें ॐ ह्रीं ह णमो पत्तेयबुद्धीणं । ग्यारहवेंमें ॐ ह्रीं हैं णमो सयं बुद्धोणं । बारहवेमें ॐ ह्रीं है णमो वोहियबुद्धीणं । तेरहवेंमें ॐ ह्रीं है णमो उज्जुमवीणं । चौवहमें ॐ हीं है णमो बिडलमवीणं ।। पन्द्रहमें ॐ ह्रौं हे णमो बस पुनीण । सोलहवेंमें ॐ ह्रौं हैं णमो चौबस पुग्वीणं । सत्रहमें ॐ ह्रीं है। णमो अद्रंग महानिमित्तकसलाणं। अठारहवें ॐ हीं हैं णमो विउब्बण इट्रिपत्ताण । उनईसमें ॐ हों । नमो विज्जाइराणं । बोसमें ॐ णमोचारणाणं । ईकाईसमें ॐ ह्रीं नमोपणसमण्णाणं बाइसमें ॐ ह्रीं हं णमो आयास गामिणं । तेईसमें ॐ ह्रौं हं णमो विठिविसाणं । चौबीसमें ॐ ह्रीं हं णमो आसोविसाणं लिखना चाहिये । इस प्रकार सोलह दलका कमल पूरा कर लेना चाहिये । तदनंतर वलयके बाहर चौबीस दलके कमल से पहले दलमें तथा अनक्रमसे पच्चीस दलमें ॐहों णमो उम्गतवाणं । छब्बीसवेंमें ॐ क्लीं हैं णमो दीत्ततवाणं, सत्ताईसमें ॐ ह्रीं है णमो तत्ततवाणं । अट्ठाईसमें ॐ ह्रीं हूँ णमो महातवाणं ।। उनत्तीसवेंमें ॐ ह्रीं हैं णमो घोरतवाणं। तीसमें ॐ ह्रीं है णमो घोरगुणाणं । इकत्तोसर्वेम ही है णमो। वि घोरपराक्कमाणं । बत्तीसमें ॐ ह्रीं है णमो घोरपूर्ण वंभचारीणं । तेतीसमें ॐ ह्रीं हं णमो आमोसहिपत्ताग। चौतीसमें ॐ ह्रीं हणमो खेल्लोसहिपत्ताणं। पेंतीसमें ह्रीं हैं णमो जल्लोसहिपत्ताणं। छत्तीसमें ॐ हीं है विष्पोसहिपत्ताणं । सेतीसमें ॐ ह्रीं हं णमो सम्बोसहिपत्ताणं । अड़तीसमें हों णमो मणवलोणं ।। Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगर २४ । उन्तालोसमें ॐ ह्रीं है गमो कवि बलोणं । चालीसवेमें ॐहीं है पमो कायवलीणं ।' कतालीसमें हों। हणमो खीरवसी । व्यालीसमें ॐ ह्रीं हं णमो सप्पिसबीणं । सेतालीसवेमें ॐ ह्रीं हं णमो महुरसबीणं ।। चवालीसमें ॐ ह्रीं है णमो समयसबोणं । पैतालीसमें ॐ ह्रीं हं णमो अक्खीणमहाणसाग । छयालीसमें ॐ ह्रीं हूँ नमो लोए सव्व सिद्धामदगाणं । सैतालीसमें ॐ ह्रीं हैं णमो वढ्डमाणाणं । अड़तालीसमें ॐ ह्रीं हणमो भगवविवतमाण बुद्धिरिसीणं लिखना चाहिये। इस प्रकार नीचेके चौवीस दल भरकर पूर्ण करना चाहिये। ! तदनन्तर वलपके बाहर माया बीज अषः क्रौं बीज लिखकर क्षितिमण्डल युक्त करना चाहिये। इस यंत्रको 'हो ही हं. हौं हः अहं अ सि आ उ सा अप्रतिचक्रे फट विचक्राय ह्रीं हो । स्वाहा' इस मूल मंत्रसे पूजन तथा जप करना चाहिये। पहले जो अड़तालीस ऋद्धियों सहित ऋषियोंके नाम लिखे हैं उनका उच्चारण नमस्कारपूर्वक करके पूजनके अन्तमें जपना चाहिये।। जो मनुष्य इस गणधरवलयको तीनों काल आराधन करते हैं उनके गये हुए धनधान्य, परिग्रह आदि सब पीछे मिल जाते हैं। इससे अनेक प्रकारका पुण्यानव होता है, पापोंका आस्रव रुकता है तथा पापकर्मोकी निर्जरा होती है । अनेक प्रकारके रोगोंसे होनेवाली व्याधियाँ तथा भूत, प्रेत, डाकिनी, शाकिनी, ग्रह, राक्षस, पिशाच आविसे उत्पन्न हुए उपद्रव तथा स्थावर जंगमके भेवसे वोनों प्रकारके विषयोंसे उत्पन्न हुए उपद्रव सब 1 नष्ट हो जाते हैं। इसके सिवाय होनहार शुभ वा अशुभ सब स्वप्नमें दिखाई देता है। तथा अन्त समयमें # आराधन सहित समाधिमरण होता है । इस प्रकार इसका फल है । सो हो पूजासारमें लिखा है। मन्त्रेणानेन सदा त्रिसमयगतमर्थमायाति । और भी लिखा है नित्यं यो गणभृन्मन्त्रं विशुद्धया..... Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चासागर [२१५ ] .. ." विषयादिभिः। सदसद्धीक्षणं स्वप्ने समाधिश्च भवेन्मृतौ ॥ २ ॥ इस प्रकार यह गणधरवलय ध है। इसको हमला, शुश परिप्तामोसे, शुद्ध चित्तसे पवित्र होकर, । पवित्र वस्त्र धारण कर, ध्यान, जप, पूजन, सेवन आदि करना चाहिये। भव्यजीवोंको अपने दोनों लोकोंके कल्याणके लिये इसका आराधन करना योग्य है । गणधरवलय चक्र पृष्ठ २१५ ( क ) में देखो। १६३-चर्चा एकसौ तिरेसठवीं प्रश्न-वोडशकारण यंत्रकी विधि तथा पूजाको विधि क्या है ? समाधान--दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारण सब तीर्थखर नामकर्मके कारण हैं । इन सोलहकारणोंके बिना तीर्थर प्रकृतिका बंध नहीं होता इसीलिए इनको कारण कहते हैं। आगे उनका थोड़ा-सा स्वरूप लिखते हैं। पहला कारण दर्शनविशुद्धि है, इसको घात करनेवाली मिष्यात्व, सम्यमिथ्यात्व, सम्यक्प्रकृतिमिष्याव ये तीन तो दर्शनमोहनीयको प्रकृतियां तथा अनन्तानुबंधो क्रोष, मान, माया, लोभ ये चार चारित्रमोहनीयको । प्रकृतियाँ इस प्रकार सात प्रकृतियां हैं। इन सातों प्रकृतियोंका जिसके केवलो भगवान अथवा श्रुतकेवलोके ।। निकट क्षय हो जाय उसके क्षायिक सम्यक्त्व होता है । जिस पुरुषके क्षायिक सम्यक्त्व हो, जो अतिचाररहित । सातों व्यसनोंका त्यागो हो, निरतिचार आठों मूलगुणोंका धारण करनेवाला हो तथा पांच अणुक्त अथवा पांच महावतोंसे सुशोभित हो, शंकाविक पच्चीस दोषोंसे और पांचों अतिचारोंसे रहित हो, तिःशक्ति आवि आठों अंग और इकईस गुणोंसे परिपूर्ण हो, उसके सोलह कारणोंमेसे वशनविद्धि नामका तीर्थकर प्रकृतिका पहला कारण होता है। इस वानविशुद्धि के बिना तीर्थकर प्रकृतिका बंध नहीं होता। इसलिये यह सब कारणोंमें प्रथम कारण अथवा मख्य कारण है। भावार्थ-बाकीके पन्द्रह कारण भी तीथंकर प्रकृतिके कारण हैं परन्त इस वर्शनविशुद्धि नामके पहले कारणका होना अत्यन्त दुर्लभ है, ऐसा निश्चय है । इस प्रकार यह दर्शनविशुद्धि। नामका पहला कारण है। दूसरा कारण विनयसम्पन्मता है । सम्यग्दर्यानपूर्वक मान, चारित्र, तपको धारण करना मन, बचन, है Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासावर २१६] कायसे उनकी पूजा भक्ति आदि विनय करना तथा इनको धारण करनेवालोंकी पूजा भक्ति आदि विनय करना तथा विनयके लिये सदा सावधान रहना सो विनयसम्पन्नता नामका दूसरा कारण है । तीसरा कारण शीलव्रतेष्वनविचार है। शील और व्रतोंमें अतिचार नहीं लगाना तथा मौ बाड़सहित और अठारह हजार भेवोंसे परिपूर्ण ब्रह्मचर्यको पालन करना सो तीसरा शीलवतेष्वनतीचार नामका तीसरा कारण है । चौमा कारण अभीक्ष्णज्ञानोपयोग है। अपने आत्माके उपयोगको सदा ज्ञानमें लगाये रखना अभीषणज्ञानोपयोग है। भावार्थ - मिरन्तर द्वादशांगको पढ़ना, पढ़ाना, अपने मनको किसी और कार्यमें अथवा किसी अन्य स्थानमें न लगाना अभीक्ष्णज्ञानोपयोग नामका चौथा कारण है । पांच कारण संवेग है । अपने मनके वेग को खूब अच्छी तरह अशुभ प्रवृत्तियों से रोकना तथा शुभ भावोंमें स्थिर करना अर्थात् देह, भोग और संसारसे विरक्त होकर वैराग्यका चिन्तवन करना सो संवेग नामका पाँच कारण है । छठा कारण शक्तितस्त्याग अथवा अपनी शक्तिके अनुसार त्याग शक्ति के अनुसार विषयकषायोंका त्याग करना तथा चार प्रकारका दान देना। बढ़ न करना सो शक्तिस्त्याग नामका छठा कारण है । करना वा दान देना है। अपनी भावार्थ - अपनी शक्तिले कम सात कारण शक्तितस्तव अर्थात् शक्तिके अनुसार तप करना है । अपनी सामर्थ्यंके अनुसार अनशन, अथमोदर्य, वृत्तपरिसंख्यान, रसपरित्याग, कायक्लेश, विविक्तशय्यासन ये छः प्रकार के वाह्य तप तथा प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान इन छः प्रकारके अन्तरंग तपोंको अच्छी तरह धारण करना, अपनी शक्तिको न छिपाकर शक्तिके अनुसार पालना सो शक्तितस्तप नामका सातवां कारण है । arori कारण साधुसमाधि है । साधुओंपर आये हुए उपसगको दूर करना तथा उनकी सेवा शुश्रूषा करना साधुसमाधि है । atri कारण वैयावृत्य है। जो मुनि अपनेसे ( किसी मुनिसे) बड़े हैं या अपने समान हैं अथवा छोटे होनेपर भी रोगी हैं या और किसी व्याधिसे पीड़ित हैं अथवा मुड़ापेसे दुःखी हैं उन सबकी दहल चाकरी करना, [ २१ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार सागर २१७ ] चार APRISPEAKSHRIRECEI ntaurangHARSARisma- पैर दबाना, पथ्यसे रखना, मलमूत्र दूर करना तथा भक्ति वा अनुरागसे अनेक प्रकारको सेवा शुश्रूषा करना । उनको सन्तोष देना सो नौवां वैयावृत्यकरण नामका कारण है। दावा कारण अहंभक्ति है । भगवान कोतराग सर्वज्ञ और हितोपदेशी अरहन्तदेवको मन, वचन, कायसे भक्ति करना, उनकी पूजा, स्तुति करना आदि अहंभावित है। ग्यारहवां कारण आचार्यभक्ति है । छत्तीस गुणोंको धारण करनेवाले आचार्य परमेष्ठीकी मन, वचन, कायसे भक्ति करना, पूजा, स्तुति करना सो आचार्यभक्ति है। बारहवाँ कारण बहुश्रुतभक्ति अथवा उपाध्याय भक्ति है। ग्यारह अंग, चौवह पूर्व स्वरूप द्वादशांग श्रुतज्ञानको जाननेवाले उपाध्याय परमेष्ठीको मन, वचन, कायसे भक्ति करना, पूजा, स्तुति करना सो बहुश्रुत। भक्ति है। तेरहवां कारण प्रवचनभक्ति है। प्रवचनका अर्थ वावशांग सिद्धांत शास्त्र है। उन सिद्धांतशास्त्रोंकी भक्ति करना, नमस्कार करना, पूजा, स्तुति करना सो सब प्रवचनभक्ति है। र चौवहयाँ कारण आवश्यकापरिहाणि है। समता, बन्दना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग ये छः मुनियों के आवश्यक हैं । सथा देवपूजा, गुरुको उपासना करना, स्वाध्याय करना, संयम धारण करना, तप करना, दान देना ये छ: गृहस्थोंके आवश्यक हैं । अपने-अपने आवश्यकोंको बिना किसी प्रमादके नित्य करना। A उसमें कभी शिथिलता न करना तथा कभी न चूकना सो आवश्यकापरिहाणि है । परिहाणि शब्दका अर्थ छोड़ना। । है और अपरिहाणिका अर्थ नहीं छोड़ना है, आवश्यकोंको नहीं छोड़ना सो आवश्यकापरिहाणि है। पन्द्रहवां कारण मार्गप्रभावना है। मार्गशब्दका अर्थ मोक्षमार्ग अथवा जिनमार्ग है। जिनमार्ग था जैनधर्मको प्रभावना महिमा प्रगट करना सो मार्गप्रभावना है। घोर तपश्चरण करके, उत्तम विद्या प्राप्त करके, व्रत धारण करके, ध्यान धारण करके, उत्तमोत्तम उपदेश वेकर तथा परवादियोंका खजन करके अपने जैनधर्मका अतिशय चमत्कार विखलाना अथवा अपनी सामर्थ्यके अनसार अनेक प्रकारके रथोत्सव आदि उत्सवकर जिनमार्गका उद्योत करना सो मार्गप्रभावना है अथवा मार्ग शब्दका अर्थ मुनिजन भी है। मुनिजनोंको भक्ति करना, सब तरहसे उनको प्रभावना करना सो भी मार्गप्रभावना है। P TEIR e Par Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चासागर । २१८ ] anाचनानासन्मानपन्चराः सोलहवां कारण प्रवचनवत्सलत्व है। प्रवचन शब्दका अर्थ धर्मात्मा है अथवा सिद्धांतशास्त्रोंके जानकारोंको भी प्रवचन कहते हैं, उन धर्मात्माओंके साथ गौ बछड़े के समान प्रेम करना प्रवचनवत्सलत्व कहलाता है। इस प्रकार दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाएं हैं जो पुरुष इनकी भावना करता है, इनका पालन करता है उसके तीर्थकर नामकर्मका बंध होता है । इसीलिए इनकी 'सोलहकारण भावना' ऐसी संज्ञा है । यह सोलहकारण भावना साक्षात् मोक्षका कारण है सो ही मोक्षशास्त्रमें लिखा है। दर्शनविशुद्धिविनयसम्पन्नताशीलवतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्यागतपसी साधुसमाधिरूंगातयकरणमईदाचार्य जनता पदभक्तिरावश्यकापरिहाणिमार्गप्रभावनाप्रवचनवत्सलत्वमितितीर्थकरत्वस्य । - अध्याय ६, सूत्र २४ इसलिये भव्य जीवोंको तीर्थकर पद प्राप्त करनेके लिए जल, गन्ध आदि द्रव्योंसे इनकी पूजा करनी चाहिये, इनका जप करना चाहिए, ध्यान करना चाहिये । तथा इनको साक्षात् प्राप्त करनेके लिए एक महीने तक लगातार एकान्तर उपवास सहित (एक दिन उपवास एक दिन पारणा इस प्रकार सोलह उपवास सोलह पारणा या भोजन व्रत धारण करना चाहिये। इसकी विधि अन्य शास्त्रों में कथासहित लिखी है वहाँसे जान। लेना चाहिये। आगे इस सोलहकारण भावनाका यन्त्र बनानेकी विधि लिखते हैं। सबसे पहले मध्यमें गोलाकार कमलकी कणिका बनानी चाहिये। उसमें सिद्धचक्रका मल बोज 'है ऐसा लिखना चाहिये । फिर उसके नीचे ब्रह्ममाया युक्त आदि कारणका नाम लिखकर अन्य कारणोंको आदि । " शब्दसे समुच्चयरूप लिखकर चतुर्यो भक्ति और नमः शब्दके साथ लिखना चाहिये । वह मन्त्र यह है 'ॐ ह्रीं । वर्शनविशुद्धचादिषोडशकारणेभ्यो नमः' यह मन्त्र लिखना चाहिये। फिर उसके आगे तीन वलय बेकर सोलह दलका कमल लिखना चाहिये। उन दलोंमें प्रत्येकमें ब्रह्ममायाबीजसहित चतुर्थी विभक्ति और नमः शम्बके साथ अलग-अलग प्रत्येक कारण लिखना चाहिये। तथा पूर्व दिशासे आरम्भ कर बाई ओरको लिखना चाहिये। पहले दलमें 'ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्धये नम' दूसरेमें 'ॐ ह्रीं विनयसंपन्नतायै नमः' तीसरेमें 'ॐ ह्रीं शीतवतेष्वनतिचाराय नमः' चौथेमें 'ॐ ह्रीं अभीषणज्ञानोपयोगाय नमः' पांचवेमें 'ह्रीं संवेगाय नमः' छठेमें 'ॐ ह्रीं । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न शक्तितस्त्यागाय नमः' सातमें 'ह्रो शक्तितस्तपसे ममः' आउमें 'ॐ ह्रौं साधुसमाश्रये नमः' नौमें 'ॐ ह्रीं यावत्यकरणाय नमः' दशमें 'ॐ आईवभपतये नमः' ग्यारहर्वे में ॐ हीं आचार्यभक्तये नमः' बारहवें में चर्चासागर A'ॐ ह्रीं बहुश्रुतभक्तये नमः' तेरहवेंमें हमें प्रवचनभक्तये नमः' चौबहमें 'ॐ ह्रीं आवश्यकापरिहाणये [२१९] । नमः' पन्द्रह में 'ॐहीं मार्गप्रभावनायै नमः' सोलहवेमें 'ॐहों प्रवचनवत्सलरवाय नमः' लिखना चाहिये। फिर बाहर तोन वलय वेफर भूमंडल करि वेष्ठित करना चाहिये फिर चार क्षितिबीज, चार इन्द्रायुध सहित कुलिशाष्टक तथा चार द्वार करि सहित लिखना चाहिये। तदनन्तर उसका आसान स्थापन, सन्निधिकरण कर पूजन करना चाहिये फिर विसर्जन करना चाहिये। तथा मूलमन्त्रसे एकसौ आठ बार जातिपुष्प ( चमेलो ) से अथवा लोंगसे उस यन्त्रके ऊपर जप करना A चाहिए। यह इसके आराधन करनेको विधि है। इस यन्त्रके आराधन करनेसे भव्यजीवोंको तोर्यखूर प्रकृतिका बंध होता है। ऐसा इसका फल है। । इसलिये भव्यजीवोंको इसका स्नपन, पूजन, जप तथा व्रत, उपवास आदि सब मन, वचन, कायसे करना चाहिए । षोडशकारण यन्त्र १० २१९ ( 2 ) में देखो। १६४-चर्चा एकलो चौसठवीं प्रश्न-दशलामणिक धर्मके यन्त्रको विधि तथा अर्चनाविकका ( पूजाका ) स्वरूप क्या है ? समाधान-उत्तम क्षमा आदि बम प्रकारसे मुनियोंका धर्म सिद्ध होता है तथा कुछ-कुछ श्रावकका । धर्म भी सिद्ध होता है । इसलिए धर्मको प्राप्तिके लिए भव्यजीवोंको इस यन्त्रको पंचामृत स्नानपूर्वक जल, ॥ गंधारिक आठों अन्योंसे पूजा करनी चाहिए तथा इस यन्त्रके ऊपर सुगन्धित पुष्पोंसे तथा लवंगसे एकसौ आठ बार जप करना चाहिए। तथा व्रत, उपवास आदि विधिसे इसका आराधन करना चाहिए। आगे इसका। स्वरूप लिखते हैं। पहला धर्म उत्तम क्षमा है । पृथ्वीकायिक आदि छहों कायिक जीवोंपर क्षमा धारण करना उत्तम क्षमा है। इसका अभिप्राय यह है कि यदि कोई वुष्ट वा बुर्जन जीव अनेक प्रकारके उपद्रव करें तो भी अपने को# का स्मरण कर उससे क्रोध न करना, क्षमाभाव धारण करना सो उत्तम भमा है । चार-पाचEDEnाचाचपन्नावरच्या Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२० ] दूसरा धर्म उत्तम मार्वव है । कुल, जाति, ज्ञान, पूजा, बल, ऋद्धि, तप, शरीर आदिका अभिमान न कर कोमल भाव धारण करना अर्थात् यदि अपनेमें कुछ ऊंचे और सर्वोत्तम गुण भी हों तो भी उद्धतता धारण न करना, सदा कोमल परिणाम रखना उत्तम मार्वत्र नामका दूसरा धर्म है। तीसरा धर्म उत्तम आर्जव है। माया वा छल, कपटको छोड़कर सदा सरलता वा निष्कपटता धारण करना मन, वचन, कायको प्रवृत्तिको सवा सरल रखना, मन, वचन, शरीरमें किसी प्रकारका कपट न रखना। । सो उत्तम आर्जव है। is ........ ....... । चौथा धर्म उत्तम शौच है। बाह्य-आभ्यंतरके भेदसे दोनों प्रकारकी पवित्रता धारण करना उत्तम । शोच है बाह्य विशुद्धि तो जल, मिट्टी आदिसे होती है और अंतरंगको शुद्धि मंत्रोंके जप करनेसे तथा मनको शुद्ध रखनेसे ( लोभका सर्वथा त्याग कर देनेसे ) होती है। इस तरह दो प्रकारका शौच है सो गृहस्थ श्रावकको तथा मुनियोंको यथायोग्य धारण करना चाहिये । यह चौथा शौच नामका धर्म है। पांचवों धर्म सत्य है । मूठ बोलनेका सर्वया त्याग कर देना और सवा सत्यवतका पालन करना उत्तम ॥ सत्य नामका धर्म है। छठे धर्मका नाम संयम है । वह दो प्रकार है-इन्द्रिय संयम और प्राणि संयम । पांचों इन्द्रिय और मनको गतिको रोकना इन छहोंको वशमें करना सो इन्द्रिय संयम है तथा छहों कायके प्राणियोंको रक्षा करना। । उनको दया पालन करना सो प्राणी संयम है। इन दोनों प्रकारके संयमोंका पालन करना सो संयम नामका धर्म है। सातवा धर्म तप है । उसके दो भेद हैं बाह्य और आभ्यंतर। अनशनाविक छह प्रकारका बाह्य तप । है तथा प्रायश्चित्ताविक छह प्रकारका अंतरंग तप है। इन दोनोंके भेदसे बारह प्रकारका सपश्चरण पालन करना सो साता उत्तम तप नामका धर्म है। आठवां धर्म उत्तम त्याग है। त्याग दानको कहते हैं। वह दान चार प्रकार है-आहार, औषध, 1 उपकरण और वसतिकाका देना, मुनि आदि पात्रोंको भक्तिपूर्वक दान देना चाहिये । दोन अनाथोंको करुणादान #.देना चाहिये । समस्त जीवोंको अभयदान देना चाहिये। रोगियोंको औषघवान देना चाहिये। तथा मुनि का। Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्यागियोंको वसतिका मठ आविका दान देना चाहिये । इसके सिवाय अपने घर आवि समस्त परिग्रहका त्याग । कर मुनिव्रत धारण करना भी उत्तम त्याग है। पर्यासागर नौवां धर्म उसम आकिञ्चन्य है । वा प्रकारका बाह्य परिग्रह और चौवह प्रकारके अन्तरंग परिग्रह [ २२१ ] इस प्रकार इन चौबीस प्रकारके परिग्रहका त्याग कर निम्रन्थ अवस्थाका धारण करना सो उत्तम आकिञ्चन्य धर्म है। शर्मा धर्व उतना हगा है। पन्नों अतिचारोंको छोड़कर तथा शोलको नौ बाड़ और अठारह हजार भेवसहित शीलवतको पालन करना, पूर्ण ब्रह्मचर्य पालन करना, आत्मामें लीन रहना सो उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म है। इस प्रकार दश धर्म हैं । इन सबके साथ उत्तम शब्द लगा हुआ है ( वह सम्यग्दर्शन के लिये है, ये धर्म सम्यग्दर्शनपूर्वक होनेसे हो उत्सम धर्म कहलाते हैं ) मुनि, आपिका, श्रावक-श्राधिका इन सबको अच्छी तरह इन धर्मोको यथायोग्य रीतिसे पालन करना चाहिये । अब आगे इसके यंत्रको रचना लिखते हैं-सबसे पहले मध्यमें कणिका गोलाकार बनाना चाहिये । उसमें सिद्धचक्रला मूल बीज 'ह्रीं' लिखना चाहिये । उसके नीचे ब्रह्म माया बीज सहित प्रथम अंगके नामको आदि लेकर चतर्थी विभक्ति और नमः शब्दके साथ लिखना चाहिये। वह मंत्र इस प्रकार है "ॐ ह्रीं उत्तमक्षमाविवशालाक्षणिकधर्मागाय नमः" फिर उसके आगे तीन बलय देकर उसके बाहर दश दलका कमल लिखना चाहिये। उन बलोंमें अमनामसे प्रणव शक्ति बीजादि सहित एक-एक अंगको चतुर्थी विभक्तिसहित तथा नमः शम्दसहित लिखना चाहिये । पूर्व दिशासे प्रारम्भ कर बायीं ओरको लिखते जाना चाहिये । वे मन्त्र इस प्रकार हैं। पहले बलमें ओं ह्रीं उत्तमक्षमाधर्मागाय नमः दूसरेमें ओं ह्रीं उत्तममार्दवधांगाय नमः तीसरेमें ओं ह्रीं । उत्तमआर्जवधांगाय नमः चौथेमें ओं ह्रीं उत्तमशौचषर्मागाय नमः पाँचमें ओं ह्रीं उत्तमसत्यधर्मागाय नमः छठेमें ओं ह्रीं उत्तमसंयमधर्मागाय नमः सातवेंमें ओं ह्रीं उत्तमतपोधांगाय नमः आठवेंमें ओं ह्रीं उत्तमत्याग-1 धमांगाय नमः नौवेमें ओं हों उत्तमाकिञ्चन्यधर्मागाय नमः और दशमें ओं ह्रीं उत्तमब्रह्मचर्यधर्मागाय नमः लिखना चाहिये। फिर तोन वलय कर भू-मण्डल आदि पहले लिखे अनुसार लिखना चाहिये और फिर उसका । आराधन करना चाहिये । मूलमनसे समुच्चयरूप आह्वान, स्थापन, सम्निषीकरण करना चाहिये फिर पूजा-अप Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्धासागर [ २२२] करना चाहिये । पूजाके मंत्र सब अलग-अलग हैं जैसे कि यंत्रमें लिखे हैं सो समझ लेना चाहिये । बालाक्षणिक यंत्र पृष्ठ २२१ (क) में देखो। १६५-चर्चा एकसौ पैंसठवीं प्रश्न-रत्नत्रययन्त्रकी विधि तथा उसके अर्चनाविककी विधि क्या है ? समाधान-सम्यग्दर्शन, सभ्याज्ञान तथा सम्पचारित्रको रस्लत्रय कहते हैं। उनमेंसे सम्यग्दर्शनके । तीन भेद हैं । उपशम, क्षायिक और क्षायोपशामिक। सो इनमेंसे कोई एक सम्यग्दर्शन हो और यह निःशखित आदि आठों अंगों सहित हो, शंकाविक पञ्चचीस दोषोंसे रहित हो और पांचों अतिचारोंसे रहित हो। इस प्रकार के सम्यग्दर्शनको प्रथम रस्त कहते हैं। इसी प्रकार कुमतिज्ञान, कुवतजान और विभंगावधिज्ञानसे रहित तया मतिमान श्रसज्ञान अवधिज्ञान मनापर्ययज्ञान और साक्षात केवलज्ञान इन पांचों ज्ञानोंमेसे किसी एक ज्ञानको सम्यग्ज्ञान कहते हैं और हिंसादि समस्त पापोंका त्याग कर देना सभ्याचारित्र है। इस प्रकार इन तीनोंका सामान्य स्वरूप है। इनका विशेष स्वरूप अन्य शास्त्रोंसे जान लेना चाहिये। इनमेंसे सम्यग्दर्शनके आठ अंग है, सम्यग्ज्ञानके आठ अंग हैं और सम्यक्चारित्र तेरह प्रकार है। ये तीनों ही रस्ल इस संसारमें जीवोंका उबार करनेके लिये चितामणि रत्नके समान हैं। इनके बिना समारी जोवोंको मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकती। ये तीनों ही रल मिलकर मोक्षके मार्ग होते हैं। सो ही मोक्षशास्त्रमें। लिखा है-"सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:" इसलिए भव्य जीवोंको मोक्ष प्राप्त करनेके लिए इनको स्वीकार करना चाहिये तथा इनको प्राप्ति के लिए इनका यंत्र बनाकर उसका अभिषेक, पूजन, जप आदि करना है चाहिये और व्रतोपवास आदिके द्वारा इसकी सेवा आराधना करनी चाहिये। आगे यंत्र बनानेकी विधि लिखते हैं। सबसे पहले मध्य में गोलाकार कणिका लिखना चाहिये । उसमें । सिद्धचक्रका मूलबीज 'हो' लिखना चाहिये । फिर उसके ऊपर नीचे ब्रह्ममाया बीजसहित रत्नत्रयको चतुर्यो । विभक्ति सहित नमः शम्बके साथ लिखना चाहिये । वह मंत्र यह है 'ॐ ह्रीं सम्यग्दर्शनशानचारित्रेभ्यो नमः । फिर उसके बाद तीन वलय देकर आठ बलका कमल लिखना चाहिये। उनमेंसे सम्यग्दर्शनके आठों अंगोंमेसे । प्रत्येक अंगको अक्षरमणि और शक्तिबीज कर सहित चतुर्थी विभक्ति सहित नमः शम्बके साथ लिखना चाहिये। [ २२ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर [ २ ] 1 4 ॥ यथा-पहले दल में 'ॐ ह्रीं निःशकितांगाय नमः' दूसरेमें "ह्रीं निकाक्षितांगाय नमः" तीसरेमें 'ॐ ह्रीं । निविचिकित्सांगाय नमः' चौथेमें 'ॐ ह्रीं अमूढदृष्ट्यांगाय नमः' पांचवेमें 'ॐ ह्रीं उपगृहनांगाय नमः' छठेमें 'ॐ ह्रीं स्थितिकरणांगाय नमः' सातमें 'ॐ ह्रीं वात्सल्यांगाय नमः' आठवम 'ॐ ही प्रभावनांगाय नमः लिखना चाहिये । इस प्रकार आठों बल पूर्ण कर देने चाहिये। फिर बलप देकर आठ दलका कमल बनाना चाहिये। उनमें वेद माया बोजपूर्वक सम्यग्ज्ञानके आठों अंगोंको चतुर्थी विभक्ति और नमः शम्बके साथ अलग-अलग लिखना चाहिये। यथा--पहले बलमें 'ॐ ह्रीं व्यंजनव्यंजिताय नमः' दूसरेमें 'ॐ ह्रीं अर्थसमग्राय नमः' तीसरेमें 'ॐ ह्रीं तबुभयसमग्राय नमः' चौथेमें ! ह्रीं कालाध्ययन पवित्राय नम:' पाचवेंमें 'ॐ ह्रीं उपधानोपहिताय नमः' छठे में 'ॐ ह्रीं विनवलब्धिप्रभावाय नमः' सातवेमें 'ॐ ह्रीं गुर्वाग्रनिन्ह वसमवाय नमः' आठ में 'ॐ ह्रीं आननिमुद्रिताय नमः' लिनना चाहिये। इस प्रकार दूसरा कमल भो भर देना चाहिये। तवनन्तर वलय देकर तेरह वलका कमल बनाना चाहिये । उसमें तार और मायाबीजपूर्वक चारित्रके तेरह अंगोंको अलग चतुर्थी विभक्ति और नमः शब्दके साथ लिखना चाहिये । यथा--पहले वलमें 'ॐ ह्रौं। अहिंसामहावताय नमः' दूसरेमें 'ॐ ह्री सत्यायमहाव्रताय नमः' तीसरेमें 'ॐ ह्रौ अौर्यमहावताय नमः' चौथेमें | 'ॐ ह्रीं ब्रह्मचर्यमहावताय नमः' पांचवेंमें 'ॐ ह्रीं परिग्रहत्यागमहानताय नमः' छठेमें 'ॐ ह्रीं ईसिमितये । नमः' सात 'ओं ह्रीं भाषासमितये नमः' आठमें 'ओं ह्रीं एषणासमितये नमः' नौवे में 'ओं ह्रीं आदाननिक्षेपणसमितये नमः' वशāमें 'ओं ह्रौं प्रतिष्ठापनसमितये नमः' ग्यारहवेमें 'ओं हो मनोमुप्तये नमः' बारहवें में 'ओं ह्रीं बचोगुप्तये नम:' तेरहवे में 'ओं ह्रीं कायगुप्तये नमः' लिखना चाहिये । इस प्रकार लिखकर सब कमल पूर्ण कर देना चाहिये । फिर तीन बलय देकर भूमंडल लिखना चाहिये । इस प्रकार यन्त्र बनाकर आराषन पूजा, जप आदि करना चाहिये । रत्नत्रयचक्र-यंत्र पृष्ठ २२३ ( क ) में देखो। इनके सिवाय और भी अनेक यन्त्र हैं सो भगववेकसंधिकृत जिनसंहिता, पूजासार, जिनयशकल्प, विद्यानुवाद, णमोकार करूप, वसुनन्विकृत प्रतिष्ठापाठ, त्रिवर्णावार, शान्तिचक्र और रलाकर आवि शास्त्रोंसे । जान लेना चाहिये । यहाँ हमने थोड़ोसो आम्नाय बतलानेके लिये ऊपर लिखे शास्त्रोंसे पोड़ासा लिखा है। SEARTHASIResireanemapMASTRAMANARASWAame- 419 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६-चर्चा एकसौ छयासठवीं प्रश्न-पहलेकी पूजा और यन्त्रों में ओंकार और ह्रींकार सब अगह मुख्य रीतिसे लिखा है सो इन। पांसागर दोनोंका स्वरूप क्या है। तथा इन में परमेष्ठी हैं और कौनसे देव हैं । जिससे कि इनका उच्चारण सबसे पहले २२४ ] किया जाता है तथा अन्य पाठ पोछे पढ़े जाते हैं। यह यन्त्र सबसे मुख्य है । इसका क्या कारण है ? समाधान-सबसे मुख्य मन्त्र ओंकार है। व्याकरणके अनुसार ओं शब्दका अर्थ अंगोकार, स्वीकार । अथवा ग्रहण करना है। सो लिखा है “ओमित्यंगोकरणे" अर्थात् ओं शब्दका अर्थ अंगीकार वा स्वीकार । करना है । इसीलिये समस्त कार्योंके प्रारम्भमें इस धातुका उच्चारण सबसे पहले किया जाता है । भावार्थपूजा, ध्यान, जप आदि समस्त कार्योंके प्रारम्भमें ओं शब्द रखना चाहिये ऐसा आचार्योका मत है । यह ओंकार। समस्त अक्षरों में मुख्य है तथा अक्षरोंमें मणियोंके समान सर्वश्रेष्ठ है। यह दूसरों के द्वारा हराया नहीं जा । सकता इसीलिए इसकी अनाहत संशा है । तथा यह नकारा है इसलिए इसकी प्रणव संज्ञा है इसी कारण इसको सबसे पहले रखते हैं। इसको भक्त बोज भी कहते हैं अतएव कार्यके प्रारम्भमें अपने इष्ट देवको भक्ति| के लिए तथा अपने कार्यको सिद्धिके लिये इसको सबसे पहले लिखते हैं। इसो ओं को ब्रह्म संज्ञा है । ब्रह्म आत्माको कहते हैं, आत्माके समान यह मुख्य है इसीलिये इसको प्रथम उच्चारण करते हैं। यह ओंकार । समस्त कामनाओंसे अर्थात् धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चारों पुरुषार्थोंको कामना रूपी जालसे पार कर देता। है इसीलिये इसको तारक संज्ञा है। भावार्थ-इस मन्त्रसे सब कार्योको सिद्धि होती है और संसारसे पार हो जाता है । इसी ओं को वेद कहते हैं। यह ओं शब्द समस्त अक्षरोंका द्वादशांगका मूल वा प्रथम अक्षर है। 1 और सबको जानता है, इसीलिये इसको वेव कहते हैं। यह वेव शब्द ज्ञानार्थक विद् धातुसे बना है। यह सबको जानता है इसीलिये इसको सबसे पहले उच्चारण करते हैं । अन्य धर्मवाले भी ओं शवको मानते हैं अपने इष्ट देवकी स्थापना कर इसकी पूजा करते हैं। इस ओं शब्दमें अन्य धर्मवाले किस-किस इष्ट देवकी कल्पना करते हैं वही आगे दिखलाते हैं । विष्णु, ब्रह्मा, महेश [ २२४ । इन तीनों देवताओंके स्वरूपसे ओंकार बनता है ऐसा वे लोग कहते हैं । इसको वे इस प्रकार सिद्ध करते हैं। | अ आ उम इन चार अक्षरोंसे ओंकार बनता है। इनमेसे अकार अक्षर तो विष्णुमयी है । आकार अक्षर ब्रह्म Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मयी है उकाराक्षर महेशमयो है तथा मकार ब्रह्म संज्ञक अर्थात् वेवमयी है। इन चारों अक्षरोंका व्याकरणके नियमानुसार ओं बन जाता है और वह इस प्रकार बनता है। "समानः सवर्णे दोघः परश्च लोपम्" अर्थात् । र्षािसागर । सवर्णी अक्षर परे रहते समान अक्षरको दोर्य हो जाता है और परफा लोप हो जाता है। इस सूत्रके अनुसार २२५ ] आ के पी रहते अको बीई हो जाता है और साले आ का लोप हो जाता है । तदनन्तर उ है। उवणे ओ, इस सूत्रसे अवर्णको ओ हो जाता और पर उ का लोप हो जाता है। इस प्रकार अ आ उ इन तीनों अक्षरोंका ओ बन जाता है । इन अक्षरों के आगे चौथा अक्षर म् है ही। उसके मिलानेसे 'ओम्' बन जाता है । यह मकार ब्रह्म संज्ञक है और 'मोनुस्वारः' इस सूत्रसे मकारको अनुस्वार हो जाता है तथा वह ओ के ऊपर । लग जाता है । इसके लिये 'सूघोसूत्रन्यायेन अनुस्वारस्य सह गमनं भवति' इस पंक्तिसे अनुस्वार ऊपर लग । जाता है और ओं शब्द बन जाता है । कदाचित् यहाँपर कोई यह पूछे कि यहाँपर अकारके आगे आकार है सो आकारका ग्रहण केस संभव हो सकता है। उसके लिये कहते हैं कि अवर्णके कहनेसे अकार आकार दोनोंका ग्रहण हो जाता है। इन दोनों में कोई भेद नहीं है । इसीलिये अकार आकार दोनोंका हो ग्रहण किया है। सो हो 'विश्वकासरी वर्णकोष' में लिखा है। अकाराकारको भेदो नास्तीत्यत्र विदुरिको। इसोको मनुमतिस्वरूपाचार्यने सारस्वतमें लिखा है 'वर्णग्रहणे सवर्णप्रहणं कारग्रहणे केवलग्रहणम्' । अर्थात् वर्णके प्रहणसे सवर्णका ग्रहण होता है और कारके ग्रहणसे केवल उसी अक्षरका ग्रहण होता है । यहाँ पर कारका ग्रहण नहीं है वर्णका ग्रहण है । इसलिए अकेला अ न लेकर अ आ दोनोंका ग्रहण करना चाहिये। इस प्रकार अन्य मतवाले भी ओंकारमें अपने इष्टदेवको कल्पना करते हैं और उसको पूजते हैं । एकाक्षरी कोषमें लिखा हैअकारो विष्णुनामास्यादाकारः परमेष्ठिकः । उकारः शंकरः प्रोक्तो मकारो ब्रह्मसंज्ञकः ॥१॥ [ २२० ओंकारस्तु त्रिभिर्देवैर्युक्तो ब्रह्मपदः स्मृतः । स एव वेदसंज्ञः स्यात्कथितोयं मनीषिभिः॥२॥ जैनधर्मके अनुसार ओं में पांचों परमेष्ठी गभित हैं। अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधू ये पांच । SEASESपन्यमाना चाranadine Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चासागर [२२६ ] परमेष्ठी हैं। इसलिये इन पांचों परमेष्ठियोंके प्रथम अक्षर अ सि आ उ सा होते हैं। व्याकरणके नियमानुसार जो सवयों के मिलानेसे 'ओम बन जाता है। उसका प्रकार यह है। अरहंत परमेष्ठीका प्रथम अक्षर अलेना चाहिये। सिख परमेष्ठी शरीररहित वा अशरीर है इसलिये उनका भी प्रथम अक्षर लेना चाहिये। आचार्य परमेष्ठीका प्रथम अक्षर आ लेना चाहिये । उपाध्यायका प्रथम अक्षर उ लेना चाहिये तथा साधु मुनिको कहते हैं इसलिये साधु वा मुनिका अक्षर म लेना चाहिये। इस प्रकार पंचपरमेष्ठीके प्रथम अक्षर अ अ आ उ. ग्रहण करने चाहिये । इन्हींको मिलानेसे 'ओं' बन जाता है सो हो स्वामिकातिकेयानप्रेक्षाको टीकामें लिखा है अरहंता असरीरा तह आइरिया तह उवज्झया मुणिणो । पढमक्खरणिप्पणो ओंकारो पंचपरमेट्ठी ॥ अर्थात् अरहन्त अशरीर ( सिद्ध ) आचार्य, उपाध्याय और मुनि इनके प्रथमाक्षरोंसे ओंकार बनता है और इसीलिये वह पंचपरमेष्ठीका वाचक है। मागे व्याकरणके अनुसार इसकी सिद्धि लिखते हैं ___"समानः सवर्णे दीर्घो भवति परश्च लोपम्" अर्थात् सवर्णके परे रहते सवर्णको दीर्घ हो जाता है और परका लोप हो जाता है । इस सूत्रसे 'अ' इन दोनों अक्षरों मेंसे पहला अकार दीर्घ' आ हो जाता है और दूसरे अ का लोप हो जाता है। फिर आ और आचार्यका आ इन दोनों अक्षरों में पहला मा बोध होता है और परका लोप हो जाता है। यहाँपर पहला I आकार पहलेसे हो दीर्घ हैं इसलिये दोगको फिर दोघं नहीं होता । सो ही लिखा है _ "मृतकस्य मृतिर्नास्ति तथा दीर्घस्य दीर्घता नास्ति" और भी लिखा है। अदीर्घा दीर्घतां याति नास्ति दीर्घस्य दीर्घता । पूर्व दीर्घ स्वरं दृष्ट्वा परलोपो विधीयते॥ 1 १. 'एकमात्रो भवेद् ह्रस्वो विमानो दीर्घ उच्यते ।' अर्थात् एक मात्रावालेको लस्व ओ मात्रावालेको दीर्घ कहते हैं। aamananesयामा Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ अर्थात् मृत मनुष्यको फिर मृत्यु नहीं होती इसी प्रकार बोर्षको वीर्घ नहीं होता। तथा-हस्थको । वीर्घ हो जाता है परन्तु वीर्घको वीर्घ नहीं होता। जहाँपर पहला स्वर दोघे होता है वहाँपर फेवल परका लोप हो जाता है । इस सूत्रके न्यायसे आगेके दूसरे आकारका लोप हो जाता है । इसलिये आ के आगेके आ [२२७ ] का लोप हो जाता है और अकेला आ रह जाता है। फिर उसके आगे उपाध्यायका उ याता है । सो 'उवणे ओ' इस सूत्रसे आ को ओ हो जाता है और उ का लोप हो जाता है। फिर मुनिका मकार आता है उसका 'मोनुस्वारः' मकारको अनुस्वार हो जाता है इस सूत्रसे मकारको अनुस्वार हो जाता है। तथा सूचीसूत्र न्यायसे । वह अनुस्वार ओके ऊपर चढ़ जाता है और 'ओं' ऐसा शब्द सिद्ध हो जाता है । इस प्रकार इस ओंकार शब्दमें । पांचों परमेष्ठी विराजमान रहते हैं। इसीलिये यह ओंकार शब्य सबमें मुख्य माना जाता है और सबसे पहले। उच्चारण किया जाता है । इस प्रकार स्वामिकातिकेयानप्रेक्षाको शुभचन्द्र कृत संस्कृत टोकामें सिद्ध किया है। प्रश्न-यहाँपर ओंकार तो सिद्ध हो गया परन्तु उसके मस्तक पर अनुस्वार होना चाहिये उसके । मस्तकपर अर्द्धचन्द्राकार कला किस प्रकार है ? पहले जो व्याकरणसे सिद्ध किया है उसमें भी अनुस्वार हो । | सिख होता है । अर्द्ध चन्द्राकार कला सिद्ध नहीं होतो? उत्तर-यह ठीक है कि मकारका अनुस्वार ही होता है परन्तु छन्दः अथवा वेदमें अनुस्वारको अर्द्ध चन्द्राकार कला भी हो जाती है । अतएव अनुस्वार तो व्याकरणके अनुसार सिद्ध कर लेना चाहिये और फिर अनुस्वारको वेबके अनुस्वार अर्द्धचन्द्राकार कला बना लेना चाहिये।। कदाचित् यहाँपर कोई यह पूछे कि वेव क्या है तो इसका उत्तर यह है कि यह ओंकार हो स्वयं साक्षात् घेवस्वरूप है। 'छंदसि अनुस्वारः 'अर्द्धचन्द्रकलामापद्यते' वेदमें अनुस्वार अर्धचन्द्राकार हो जाता है। इस सूत्रके अनुस्वार अर्द्धचन्द्राकार हो जाता है । ऐसा समझ लेना चाहिये। यह ओंकार पुरुष है इसीलिये सब कार्योंमें पहले लिखा जाता है । सो हो लिखा है। 'ओंकारः पुरुषो यः' अर्थात् ओंकारको पुरुष समझना चाहिये। ऐसा गायत्रीको टीकामे लिखा है। इसोको पहले उच्चारण कर पोछे और कार्य करते हैं जिससे उन अन्य सब कार्योंको सिद्धि हो आय। यह ओंकार परमब्रह्मका स्वरूप है। बड़े-बड़े योगीश्वर नित्य इसका ध्यान करते हैं तथा यह ओंकार काम और मोक्षका देनेवाला है । सोही । लिखा है URATISeaAPPAMHASTRIPATHAMARTPATRA Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओंकारं बिन्दुसंयुक्तं नित्यं ध्यायति योगिनः । कामदं मोक्षदं चैव ओंकाराय नमो नमः॥ पर्चासागर अर्थात् “यह ओंकार बिन्दु सहित है योगी लोग सदा इसका ध्यान करते हैं, यह इच्छानुसार फल देने1 २२८ ] | वाला तथा मोक्ष देने वाला है ऐसे ओंकारको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ। इसीलिये इस ओंकारको सबसे पहले उच्चारण करते हैं। अन्य मतवाले ओंकारका रूप बावन अमरोंसे भी बनाते हैं। यया-- अकारादि अकारान्तं स्वरा षोडशसंज्ञका। ककारादिमकारान्ताः स्पर्शाश्च पंचविंशतिः ।। यकारादिक्षकारान्तं दशानुस्वार एव च । ओंकारं मातृकायुक्तं तद् द्विपंचाशदक्षरम् ।। वेदशास्त्रपुराणानि मंत्रयंत्राणि यद्विदुः । तत्सर्व मातृकामध्ये मातृकायाः परं न हि ॥ मातृका च परो मंत्रो मूलमंत्रश्च मातृका । तस्माच्च योगिनो नित्यं ओंकारमात्रजापिनः ॥ इस प्रकार इसका स्वरूप है। इसके सिवाय मन्त्रशास्त्रके मतसे अन्य प्रकारसे भी यह ओं शब्द बावन अक्षरोंकी बनी हुई मातृकासे में बनता है। उसका क्रम इस प्रकार है। ककारसे लेकर अपर्यन्त सब अक्षर तथा अकासादक सोलह मात्राएं ये सब मिलकर बावन वर्ण मातका कहलाते हैं। सो सब एक ओंकारको ही कलायें हैं। भावार्थ--सब वर्ण । एक ओंकारसे ही उत्पन्न हुए हैं । ऐसा अन्य मतमें लिखा है। इसका भी विशेष स्वरूप इस प्रकार है। क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ एता कचवर्गकलाः अकारजाः। ट ठ ड ढ ण त थ । दधन एता अष्ट टतवर्ग कलाः उकारजाः। प फ ब भ म य र ल व श एताः पयवर्ग अकारादिक १६ स्वर, चकारसे लेकर मकार तक २५ स्पर्श, वकारसे लेकर अकार तक ( य र ल व श ष स ह ळ क्ष) ये दश तथा एक अनुस्वार ऐसे बावन अक्षरमय ओंकार हैं ये बावन अक्षर मातृका कहलाते हैं इनसे हो सब शास्त्र उत्पन्न होते हैं इसलिये इनको मातका कहते हैं इन्हीं अक्षरोसे ओंकार बना है। वेद, पुराण, यन्त्र, मन्त्र आदि सप मातका में हो गर्भित है मातृकासे बाहर कुछ नहीं है। मातृका ही परम मन्त्र है मातृका ही मूलमन्त्र है इसलिये योनी लोग ओंकार मात्रका ही जाप करते हैं हिन्दीके सिवाय मराठो आदि भाषाओं में ये दो अक्षर और अधिक माने हैं। Sisatimechanisaमामाचा Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F कलाः मकारजाः। ष स ह ळ एता षवर्गकलाः विन्दुजाः।क्ष एषा कला अव्यक्तजा । अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः एता अवर्गकलाः नादजाः इति प्रणवोस्थ चर्चासागर [ २२९ । अर्थात् क ख ग घ ङ च छ ज श ये तो सब कलायें अकारसे उत्पन्न हुई हैं सो इन सबका अ लेना। चाहिये । सयाद तुसाद साहलाएं उकारसे उत्पन्न हुई हैं सो इन सबका एक उ लेना चाहिये । प फ ब भ म य र ल व श ये सब कलाएं मकारसे उत्पन्न हई हैं इसलिये इन सबका मकार लेना १ चाहिये । ष स ह ळ ये सब बिन्दुसे उत्पन्न हुई हैं सो इनका बिन्दु लेना चाहिये। क्ष अव्यक्तकलासे उत्पन्न हुआ है तथा अ आ इ ई उ ऊ ल ल ए ऐ ओ औ अं अः ये सोलह कलाएं नादसे उत्पन्न हुई हैं । इस प्रकार इन सब कलाओंका एक नाद शन्द ब्रह्ममय ओं बनता है। यहाँपर थोड़ासा नादका स्वरूप ( अन्य मतके अनुसार ) लिखते हैं-- एकबार शिव अर्थात् महादेवने कैलाश पर्वत पर अपना डमरू बजाया था उसमेंसे चौवह सूत्र निकले ई थे जो 'अ इ उ ण' 'ऋ लक्' ऐ, ओ, ऐ औ, हयवर लण, यमणनम्, भ ञ घडघा, ज ब ग ड द श, । खफ छ ठ थ च ट त ब, क प य, श ष स र हल् नामसे कहलाते हैं इन्हींसे सब अक्षर बने हैं सो हो । लिखा है। नृत्यावसाने नटराजराजो ननाद ढकका नव पंच वारान् । ऐसा पाणिनीयमें लिखा है। इन सब अक्षरमय अ उम् इनको पहले के अनुसार उवणे ओ। मोनुस्वारः । और छंदसि इन सूत्रोंसे सिद्ध करनेपर ॐ बन जाता है। इन सूत्रोंकी और साधनिका पहले लिख चुके हैं । इस प्रकार सब अक्षरोंसे ॐ बनता है इसलिये सबसे पहले उच्चारण किया जाता है । इस एक ही अक्षरके 'ॐ' मंत्रको 'ॐ नमः' इस प्रकार नमस्काररूप योगी लोग सदा ध्यान करते हैं। इसका विशेष वर्णन कानार्णवसे समझ लेना चाहिये। इस ॐ की महिमा अगम अपार है। ऐसा यह ओंकार है। इसको अन्यमती भी अपने-अपने इष्ट देव रूप मान कर ध्यान करते हैं। दौथ तो इसको शिवरूप । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर [ २३० 3 नाneerpreTTAR Ranालामारी मानते हैं, ब्रह्मवादी परब्रह्मरूप मानते हैं । वैष्णव विष्णुरूप मानते हैं और वेदवाले साक्षात् वेदरूप मानते हैं । इस प्रकार कितने ही प्रकारसे अपने-अपने इष्ट देवको मानते हैं। तथा ब्रह्मा, विष्णु, महेश इन तीनों रूप भी इसको मान कर ध्यान करते हैं, ऐसा जानना । आगे हों का स्वरूप लिखते हैं यह ह्रींकार ह र ई और बिंदु इनसे मिलकर बना है। सो यहाँ भी छंदसि इस सूत्रसे अनुस्वारको अखंचन्द्राकार बना लेना चाहिये । ओंकार तो वेद है सो पुरुष है और यह ह्रीं मायाबोज है सो वेवमाता है तथा गायत्रीरूप है सो स्त्रीरूप वेवमयी है । सोही लिखा है ओंकारः पुरुषो ज्ञेयः गायत्री स्त्री च कथ्यते । इस प्रकार गायत्री टीकामें लिखा है । इस न्यायसे यह भी वेद ही है। इस हौंकारमें हकार तो पाश्र्वनायसंबंधी है नीचेका रकार धरणेन्द्र संबंधो है और ईकार स्वर और बिदु पचायती संबंधी है । इस प्रकार तीनों वेवोंका निवास इस मायाबीज ह्रींकारमें प्राप्त होता है । सो ही उभयभाषाकविशेखर श्रीमल्लिषेण सूरि विरचित पावतीकल्पके तीसरे परिच्छेदमें लिखा है सान्तः पार्श्वजिनेन्द्रस्तदधोरेफः स धरणेन्द्रः। तुर्यस्वरः सविन्दुः स भवेत्पद्मावतीसंज्ञः ॥ ३७॥ जो पुरुष इस मायाबोज ह्रींकारको ओंकारपूर्वक नमस्कारमय एकाक्षरी विद्यामय 'ॐ ह्रीं नमः' इस मंत्रको जपते हैं वे मनोवांछित फल पाते है इसके सिवाय यह मंत्र तीनों लोकोंके जीवोंको मोहित करनेवाला है। सो ही पदमावतीकल्पमें लिखा है त्रिभुवनजनमोहकरी विद्याप्रणवपूर्विका एषा। __एकाक्षरीति संज्ञा जपतः फलदायिनी नित्यम् ॥ यही कथन सोमसेनकृत त्रिवर्णाचारमें लिखा है तथा ज्ञानार्णव, जिनसंहिता, पूजासार, जिनयनकल्प, जिनप्रतिष्ठापाठ, शांतिचक, त्रिवर्गाचार, महाभिषेक आदि शास्त्रों में हीका अर्थ इस प्रकार लिखा है-'हो'. । यह बीज तो भी मरहतका पाचक है। 'हो' यह मोज सिद्धपरमेष्ठोका वाचक है । 'हं.' यह बीज आचार्यका ।। PRATISHT ... - - - Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यासागर २३१] एवाचक है। 'हाँ' यह बीज उपाध्यायका वाचक है और 'ह' यह बीज सर्व साधुका वाचक है। इस प्रकार है ये पांचों बीजाक्षर पंच परमेष्ठी वाचक हैं। इनमें होंकार सिपरमेष्ठोका वाचक बतलाया है। इसीलिये | ओंकारके पीछे ह्रींकार लिखा है । सो हो लिखा है ॐ ह्रां ह्रीं हू ह्रौं हः असि आ इ सा नमः' तथा 'ॐ ह्रां णमो अरहताणं' 'ॐहीं णमो सिद्धाणं' 'ओं , यो मामि हौं णमो उपज्ज्ञायाणं' 'ॐ ह्रः गमो लोए सम्म साहूणं' इन मन्त्रोंमें ह्रीं शब्द सिखवाचक लिखा है। यह ह्रींकार वर्ण हकारादिक अक्षरोंसे बना है। सो इसका नामोच्चारण करने में भी कोशके अनुसार वेवपना सिद्ध होता है और वह इस प्रकार होता है। मातृका निघंटु शास्त्र, मन्त्रशास्त्र आविमें हकारको व्योमबोज का आकाशबीज संज्ञा लिखी है। उसके नीचे जो रकार है उसको अग्निसंज्ञा बतलाई है। तथा चौथा स्वर जो ईकार हे उसको देवोंका ईश्वर संजक बीज बतलाया है। और अनुस्वारको आकाश रूप कहा है। सो ऐसी शक्तिरूपी रकार सब देवोंका ईश्वररूपो ईकार और आकाशरूपो बिदुको यह शक्ति है। ही इस बीजाक्षरमें बड़ा हो देवपना है, यही सिद्धचक्रका मूल बीजाक्षर है। 'है' इसमें ह्रीं ऐसा पाठ नहीं है तो भी रेफ आदि अक्षरोंसे एक ही समझना चाहिये। व्याकरणमें लिखा है। "छिन्नकर्णः लांगूलः न श्वा' जिसके कान कट गये हैं ऐसा लंगूर कुत्ता नहीं हो सकता किंतु लंगूर हो रहता है । अथवा 'एकवेशविकृतमनन्यवत्' जिसका एक देश विकृत हो जाता है वह अन्य नहीं हो जाता किंतु वही रहता है। इस न्यायसे 'ही' तया । 'ह' दोनोंमें कुछ भेद नहीं है। लिखा भी है 'उधिोरयतं सविदु सपरं ब्रह्मस्वरावेष्ठितम्' । इसका विशेष वर्णन ज्ञानार्णव आदिशास्त्रोंसे जान लेना चाहिये। हकार अक्षरका अर्थ व्याकरणके अनुसार हिंसा भी होता है। तथा रकार अक्षर दुष्टके संबोधनके अर्थमें आता है । यहाँ पर दुष्ट आठ कर्म हैं उनको जो हरण करे वह ह है। ऐसा सब देवोंका स्वामी वा प्रभु होता है। तथा यह अर्थ ईश्वरवाचक ईकारके साथ लेना चाहिए । इस प्रकार ह्रीं शब्द बन जाता है । जो फोको जीतकर देवाधिवेव रूप हों तथा व्योम जो आकाश तत्व बिन्दुकर सहित हों ऐसे लोकाग्रनिवासी सिद्ध । परमेष्ठी ह्रीं के वाच्य होते हैं अर्थात् इस प्रकार सिद्धपरमेष्ठीका वाचक ह्रीं शम्न सिद्ध होता है। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चासागर [ २३२ ] इस लोकारसे आकर्षण, स्तंभन, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण, विद्वेषण आदि समस्त कामनाएं जुदे-1 जुवे प्रयोगोंसे सिद्ध होती हैं सो इसका विशेष वर्णन मायाबीज नामके कल्पमें लिखा है। इसीलिये इसको मायाबीज कहते हैं अथवा शक्तिबीज कहते हैं । मन्त्रों में ब्रह्मस्वरूप ओंकार तथा मायास्वरूप होंकार इस प्रकार ब्रह्ममाया दोनों स्वरूप 'ॐ ह्रीं' ऐसा मिला हुआ मन्त्र लेना चाहिये । इस प्रकार यहाँपर मायावीजका थोड़ासा अर्थ लिखा है। इस ओंकार और ह्रींकार विशेष स्वरूप जैनमतके मन्त्रशास्त्र विद्यानुवाद पूर्व, णमोकार कल्प तथा बृहत्पद्मावती कल्पसे जान लेना चाहिये । यहाँ हमने अपने बुद्धि के अनुसार लिखा है। । अहं शब्दका सामान्य अर्थ तो सब जानते ही हैं तथा विशेष अर्थ आगे कहेंगे। पहले जो और और बीजाक्षर बतलाये हैं उनका नाम इस प्रकार है । 'ॐ' प्रणवीज है। 'हो' मायाबोज है। 'श्री' लक्ष्मीबीज है। क्लो' 'ए' कामबीज है । ऐ विद्याबीज हैं । 'अहं' परमेष्ठीबीज है। 'है' व्योमबोज है। 'क्वीं' क्षितिमोज है। 'स्वी' अमृतबीज है। '' और 'प:' जलबोज है । 'स्वा' वायुबोज है। 'नां द्री' बाणमोज है । इस प्रकार समझ लेना चाहिये। १६७-चर्चा एकसौ सड़सठवीं प्रश्न-पहलेके देवदर्शन करनेके श्लोकमें पुनरुक्त पाठ लिखा है यथादर्शनं देवदेवस्य दर्शन पापनाशनम् । दर्शनं स्वर्गसोपानं दर्शनं मोक्षसाधनम् ॥ ऐसा पाठ है सो अशुद्ध मालूम होता है क्योंकि इसमें पुनरुक्त दोष प्रत्यक्ष दिखाई देता है। 'देवदेवस्य दर्शनं पापनाशनम्' ऐसा पाठ पढ़ना हो निर्दोष है। यदि ऐसा पाठ माना आप तो इसमें अक्षर कम होनेसे छंदोभंग होता है। 'दर्शनं देवदेवस्य दर्शनं पापनाशनम्' इसमें पहला दर्शन शब्द व्यर्थ जान पड़ता है । बिना। प्रयोजनके तथा बिना संबोधन आदि अन्य प्रयोजनके एक ही पाठको दुबारा कहना किस प्रकार ठीक हो सकता । है। इससे मालूम होता है कि यह जिनदर्शनका श्लोक किसी छोटेसे पण्डितका बनाया हुआ है। समाधान-ये श्लोक किसी छोटे पंडितके बनाये हुए नहीं हैं किन्तु किसी बड़े विद्वान्के बनाये हुए हैं। केवल न जाननेवालोंको पुनरुक्त दोष मालूम पड़ता है । परन्तु वास्तवमें यहाँ पुनरुक्त दोष नहीं है । देखो Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यासागर [ २३३ ] 'वर्शनंवेव' इन शब्दका पदच्छेद 'दर्शनंया इव' करना चाहिये। वर्श शम्बका अर्थ कृष्णपक्षको अमावस्या है। सोही लिखा है। 'अमावस्या स्वमावस्या वर्गः सूर्येन्द्रसंगमः' अर्थात् अमावस्या अमावस्य वर्षा ये उस बिनके नाम हैं जहां सूर्य चन्द्रमाका समागम होता है अर्थात् कृष्णपक्षको अमावसके हैं। तथा नन्दा शब्दका अर्थ । एकादशी है । सो ही लिखा है 'प्रतिपत्षष्ठी एकादशी नवा इति बालबोधपंचांगे पाठः' अर्थात् पत्या, षष्ठी, । एकादशीको नंदा कहते हैं ऐसा बालबोध पंचागमें लिखा है। घष्णवमतमें और लौकिक शास्त्रमें ऐसा कहा है कि अमावस्या और एकादशी ये दोनों पुण्यतिथि हैं इनमें वान, प्रत, उपवास आदि करनेसे महान् पापोंका नाश होताहै। ये पर्व बहुतसे पापोंके नाश करनेवाले हैं। इसीलिये इनको पुण्यवर्ती कहते हैं। जिस प्रकार अमावस्या और एकादशोके पर्व बहुतसे पापोंके नाश करनेवाले हैं उसी प्रकार व अर्थात् वीतराग परम वेषके दर्शन करना भी बहुतसे पापोंका नाश करनेवाला है। भावार्थ--यहाँपर केवल लौकिक दृष्टांत दिखलाया है। वास्तव में देखा जाय तो वीतराग परमदेवका दर्शन करना अमावस्या और एकादशीके समान नहीं है किन्तु इससे अनेक जन्मोंके पाप नष्ट हो जाते हैं सो लिखा हो है 'नेकजन्मकृतं पापं वर्शनेन विनश्यति' इससे सिद्ध होता है कि वीतराग परमदेवके दर्शन करना सर्वोत्कृष्ट । है। अमावस्या और एकादशो तो उसके सामने कुछ भी नहीं है।' वर्श नंदा इव' इस कच्चे रूपका पक्का रूप व्याकरणके नियमानुसार 'दर्शनंदेव' बन जाता है । नवा | इव इसकी संधि करनेसे 'अवर्ण इवणे ए' अर्थात् 'इवर्ण परे रहते अवर्णको ए हो जाता है तथा परका लोप हो जाता है' इस सूत्रसे वा के आकारको ए हो जाता है और इव के इकारका लोप हो जाता है । इस प्रकार दर्शन ॥ देव ऐसा बन जाता है। इससे सिख होता है कि ये श्लोक किसी साधारण विद्वान्के बनाये हुये नहीं हैं किन्तु किसी बड़े विद्वानके बनाये हुये हैं और इसमें पुनरुक्त आदि कोई दोष नहीं है । निर्वाष पाठ है। १. ग्रन्थकारने यह परमतका उदाहरण दखला कर समाधान किया है परन्तु इसका समाधान इस प्रकार भो होता है । 'दर्शनं । देवदेवस्य' अर्थात् दर्शन देवाधिदेव बरहंतदेवका ही करना चाहिये, अन्यका नहीं। (अरहंतदेवके कहनेसे आहता दीक्षा धारण करनेवाले आचार्य, उपाध्याय, साधु भो उमीमें आ जाते हैं ) 'दर्शनं पापनाशनं' वह दर्शन अर्थात् अरहतदेवका दर्शन करना ! पापोंका नाश करनेवाला है। 'दर्शनं स्वर्गसोपानं दर्शनं मोक्षसाधनम्' बही दर्शन स्वर्गको सीढ़ी है और मोक्षका कारण है । इस प्रकार इसका अर्थ समझना चाहिये। FEATREATURALASAHEART Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्षासागर २३४] RRE-RELATIONALREADARSHA १६८-चर्चा एकसौ अड़सठवीं पहले पूजाके प्रकरणमें लिखा है कि पूजा करनेवालेको भगवानके चरणस्पर्शित पुष्पमाला तो कण्ठमें धारण करना चाहिये, प्रभुके धरणपशित चन्वनका तिलक लगाना चाहिये वा समस्त शरीरमें भाभूषणोंको रचना करनी चाहिये तय जिन्दावाद वा हमला हा चाहिये, ऐसा लिखा है। सो यह लिखना अत्यन्त विपरीत है क्योंकि इसमें प्रत्यक्ष निर्माल्यका दोष आता है। तथा जैनशास्त्रों में निर्माल्यके समान और कोई पाप नहीं बतलाया है । इसलिये ऐसा कहना अथवा करना महा पापकारी है। ऐसा पक्षात जैनियोंका नहीं हो सकता अन्य मतियोंका हो सकता है। प्रश्न-भगवानको मूतिके वरणाविकमें चंदन, केसर आदि गंध लगाना तथा भगवानके चरणपशित पुष्प और पुष्पमाला पहनना आदि समस्त प्रज्ञान विपरीत है। इसमें महा पापका बंध होता है। इसलिये ऐसा श्रवान त्याग करने योग्य है । ऐसा श्रद्धान वा शाम वा आचरण कभी योग्य नहीं गिना जा सकता। ऐसा मान अडान बड़े-बड़े अनोंका मूल है इसलिये ऐसा कयन न हमें मान्य है और न हम ऐसा करनेको तैयार हैं। समाधान--बिना शास्त्रोंको समझे और बिना निवभय किये ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये । भगवानके चरणस्पशित पुष्पमालाको महिमा क्या है और अपने मस्तक पर तथा कंठमें किसने शरण की है उसका थोडासा कथन यहाँपर लिखते है-- भव्य जीवोंको सबसे पहले जल, गंध, अक्षत, पुष्पादिकसे भगवानकी पूजा करनी चाहिये फिर भग-1 वानके चरणस्पर्शित पुष्पमालाको अपने कंठमें धारण करना चाहिये तथा चरणस्पशित शेषगंषका ललाटमें। तिलक लगाना चाहिए । ऐसा वर्णन त्रिवर्णाचारमे लिखा है। यथा-- जिनांनिस्पर्शितां मालां निर्मले कंठदेशके । ललाटे तिलकं कार्य तेनैव चंदनेन च ।। ___यहाँपर जो वकार है उसका अर्थ तिलकपर पूजाके अक्षत लगाना समझना चाहिए । यवि इस कपनको कोई न माने सो जिनप्रतिष्ठापाठमें भी ऐसा हो लिखा है। जिनपवधीको स्पर्शित पुष्पमाला तीनों लोकों पर। ॥ अनुग्रह करने योग्य है। सो ऐसो यह माला स्वर्गलोकको लक्ष्मी मिलाने के लिए तोके समान है। इसलिए । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [२३५] जनपवस्पर्शित श्रेष्ठ पुष्पमाला भव्यजीवोंको आशिक के लिए मस्तकपर धारण करनी चाहिए। सो ही प्रतिष्ठापाठमें लिखा है- जिनांधिस्पर्शमात्रेण त्रैलोक्यानुग्रहक्षमां । इमां स्वर्गरमा दूतीं धारयामि वरलजम् ॥ 'भगवजिनसेनाचार्य भी आदिपुराणके व्यालीसर्वे पर्वमें ऐसी मालाके लिए लिखा है। जिस प्रकार उत्तम कुलमें उत्पन्न हुए बालक अपने गुरुकी मालाको अपने मस्तकपर धारण करते हैं उसी प्रकार उनको भगवान के चरण स्पर्शित माला भो अपने मस्तकपर धारण करना चाहिए। सो ही आदिपुराण में लिखा है-तथाहि कुलपुत्राणां माल्यं गुरुशिरोघृतम् । मान्यमिव जिनेंद्राधिस्पर्शात्मा ल्यांग भूषितम् ॥ जिनयक्ष कल्पकी वृत्तिमें लिखा है कि श्री जिनेश्वर के चरण स्पर्शित पूजाकी माला महाभिषेक के अंतमें बहुत सा धन देकर लेनी चाहिए। यह माला अनर्घ्य ( अमूल्य ) है । इसलिए भव्यजीवोंको अवश्य ग्रहण करनी चाहिए। सो ही वृत्तिमें लिखा है श्रीजिनेश्वरचरणस्पर्शितानयपूजाव्रतां सा माला महाभिषेसावसाने बहुधनेन माझा भव्यश्रावकेनेति । इससे भी ऊपरकी बात ही सिद्ध होती है । अजितनाथकी माता जयसेनाने पहले कुमार अवस्थामें पर्वका उपवास कर पारणाके दिन भगवानकी पूजा कर तथा उनके पदस्पति पूजाको परम पवित्र पुष्पमाला पापोंका नाश करनेके लिए सभामें आकर अपने पिताको दी थी तथा राजाने बड़ी भक्तिसे अपने दोनों हाथोंसे लेकर अपने मस्तक पर धारण की थी । तबनंतर अपनी पुत्रीको पारणाके लिए विवा किया था। सो ही अजितपुराणमें लिखा है- जयसेनापि सद्धर्मं तत्रादायैकदा मुदा । पर्वोपवासपरिम्लानतनुरभ्यर्च्य साईतः ॥ तत्पादपंकजा श्लेषा पवित्रा पापहानये । चित्रा पित्रापि तद्वाभ्यां हस्ताभ्यां विनयेन च ॥ तामादाय महीनाथ भक्त्या पश्य जयाभिधाम् । उपवासपरिश्रान्तां पारयेति विसर्जताम् ॥ इस प्रकार लिखा है । [६ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिलकके लिये शास्त्रों में लिखा है कि देव पूजाको वस्तुओंमेंसे पूजा करने के बाद एक तो गंधोदक। । दूसरा जिनपावस्पशितशेषगंध और पूर्वोक्त जिनपारस्पशित पुष्प अथवा पुष्पोंको माला ग्रहण करनी चाहिये । पळसागर देखो[२५] देवस्यार्चनसारवस्तुनिचयाद् गंधाबु पुष्पत्रयम् । जिनयशकल्पमें भी लिखा हैपूज्यपूजावशेषेण मोशीर्षण धृतानिना । देवाधिदेवसेवाये स्ववपुश्चर्चयेत्सुधीः ॥ पूजासारमें भी लिखा है कि पूजा करनेवालेको जिनाधिस गंधसे तिलक करना चाहिये और जिनाधित चरणस्पर्शित पुष्पमाला विमय से मस्तकपर धारण करनी चाहिये । सो हो लिखा है पुण्याहं घोषयित्वा तदनु जिनपते पादपद्मार्चितां श्री, शेषां संधार्य मूर्ना जिनपतिनिलयं त्रिपरीस्य त्रिशुद्धया ॥ आनम्येषं विसज्यामरगणमपि यः पूजयेत्पज्यपाद, प्राप्नोत्येवाशु सोख्यं भुवि दिवि विबुधाः देवनंदीडितं सः॥ पूजासारमें इसप्रकार लिखा है। - जैनेन्द्रपादयुगयोगविशुद्धगंध संबंधवंधुरविलेपविशुद्धगात्रः। तेनैव मुक्तिवशकृत्तिलकं विधाय श्रीपादपुष्पधरणं शिरसा वहामि । (भगवानके चरण कमलों के संबंधसे अत्यंत विशव हुए गंधसे विलेपन कर शरीरको पवित्र करता। हुआ तथा उसी गंधसे मुक्सिको वश करनेवाला तिलक लगाकर मैं अपने मस्तकपर भगवानके चरणस्पर्शित मालाको धारण करता है।) १-२ इनका अर्थ इनके ऊपर लिखा है। ३-भगवानको पूजासे बचे हुये गंधसे पूजकको भगवानकी पूजा करने के लिए तिलक लगाना चाहिये ४-पुण्याहवाचन पढ़कर जिनदेव के चरण स्पशित श्लेषाको मस्तकपर धारण कर जिनालयकी तीन प्रदक्षिणा देकर नमस्कार कर देवगणोंका विसर्जन कर जो भगवानको पूजा करता है वह स्वर्गाके सुख प्राप्त करता है। मनपETRESEARJARA Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्वासापर [ २३७ ] MITORREचाला भगवानके घरण स्पर्शित पुष्पोंको कठमें धारण करनेका कपन इस प्रकार है। करकंडूके पूर्वभवमें गोपालने धीमुनिराजके उपदेशसे पुष्पराज और सेठके साथ एक सहलबलका कमल भगवानके चरणोंपर क्षेपण किया था जिससे उसको महा पुण्यका बंधा था। तथा उसो पुण्यसे वह राजा करकंडू हुआ था । इसकी कथा आराधना कथाकोशमें विस्तारसे लिली है । यथा तदा गोपालकः सोपि स्थित्वा श्रीमज्जिनाग्रतः। भो सर्वोत्कृष्ट ते पद्म गृहाणेदमिति स्फुटम् ॥ उक्त्वा जिनेन्द्रपादाब्जो परिक्षिप्त्वा सुपंकजम् ॥ इत्यादि पाठ है। इसका अर्थ ऊपर लिखे अनुसार है। तथा मनिराजके उपदेशसे मैना सन्दरीने सिद्धचक्रको पुजा की थी। उस पूजामें भगवानका अभिषेक किया था, चरणोंपर गंध लगाया था और उन घरणोंपर पुष्प मढ़ाये थे। इस प्रकार पूजा करनेके बाद वह अभिषेकका गंधोदक तथा पूजाका गंध और पुरुष ये तीनों ही चीजें मैना सुन्दरीने कुष्ठ (कोढ़ ) रोगको दूर करनेके लिये अपने पति श्रीपालको तथा उनके अंगरक्षक सातसौ योद्धाओंको बड़े हर्षसे दिया था। सो ही श्रीपालचारित्रमें लिखा है। तत्र नंदीश्वराष्टम्यां सिद्धचक्रस्य पूजनम् । चक्रे सा विधिना द्रव्यैर्जलैः कपूरचन्दनैः॥ अक्षतैश्चंपकायैश्च पक्वान्नैर्वरदीपकैः। धूपैः सुगंधिभिर्भक्त्या नालिकेरादिसस्फलैः ॥ तद्विलेपनगंधांबुपुष्पाणि सा ददौ मुदा । श्रीपालायांगरक्षेभ्यः पाणिभ्यां रुग्विहानये ॥ यहाँपर भी गंधपुष्प ऊपर चढ़ाना लिखा है । दूर चढ़ाना नहीं लिखा है। तवनंतर मैनासुन्दरीने मुनिराजके उपदेशानुसार सिद्धचक्रके मंत्रोंके द्वारा चमेली यारिके पुष्पोंसे । सिखचक्रके यंत्रके ऊपर हो जप किया है अर्थात् जपके पुष्प उसके ऊपर ही रक्खे हैं ऐसा श्रीपालचरित्रमें। लिखा है । यथायंत्रस्योपरि दातव्या अष्टोत्तरशतप्रमा । जाप्या एकाग्रचित्तेन जातिपुष्पेन धीधनः॥ -PHISAR = 2 om Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यही बात श्रीगुगभद्राचार्यकृत उत्तरपुरागमें श्रीशतिनाथ पुराण में लिखी है । यथा स्वयंप्रभापिसद्धर्म तत्रादायैकदा मुदा । पर्वोपासपरिम्लानतनुरभ्यर्च्य चाईतः ॥ पासागर । तत्पादपंकजाश्लेषपवित्रा पापहा सृजम्।तां पित्रेपि तद्वयाभ्यां हस्ताभ्यां विनयानतः ।। २२८ तामादाय महीनाथो भक्त्यापश्यत्स्वयंप्रभाम्। उपवासपरिश्रांतां पारयेति व्यसर्जयत् ॥ यशस्तिलकचंपूर्म भी लिखा है। पुष्प स्वदीयचरणाचनपीठसंगात् चूड़ामणिर्भवति देव ! जगत्त्रयस्य । अर्थात् हे वेव ! आपके चरणोंकी पूजाके सिंहासनके सम्बन्धसे पुष्प भी तोनों लोकोंका चूड़ामणि हो जाता है। धर्मरसिकमें भी लिखा है। त्रिःपरीत्य जिनाधीशं भक्त्या नत्वा पुनः पुनः। जिनोनिस्पर्शनात्सूतां शेषां शिरसि धारयेत् ॥ अति- भगवानको तोन प्रदक्षिणा देकर तथा भक्तिपूर्वक बार-बार नमस्कार कर भगवान के चरणोंके स्पर्शसे पवित्र हुई शेषाको मस्तक पर धारण करना चाहिये। देवपूजाके प्राचीन पुस्तकोंके पाठमै पूजाको प्रतिमाके समय पूजकको मंत्रोंके द्वारा सब जगह जिनप्रतिमाके ऊपर पुष्पक्षेपण करनेका विधान है । यया ओं विधियज्ञप्रतिज्ञानाय जिनप्रतिमोपरि पुष्पांजलिं क्षिपेत् ॥ कथाकोशमें मकूटसप्तमोकी एक कया है वह इस प्रकार है। एक सेठके एक कन्या थी उसने श्रीमनिराबसे मुकुटसप्तमीका व्रत लिया था उसको विधिमें मुनिराजने बतलाया था कि श्रावण शुक्ला सप्तमीका उपवास करना चाहिये। उस दिन भगवानका अभिषेक कर पूजा करनी चाहिये । पुष्पोंकी माला पहनामा चाहिये तथा पुष्पोंका मुकुट श्रोजिनबिंबके मस्तक पर धारण कर कहना चाहिये कि हे जिनवर ! आप मुक्तिस्त्रीके वर हो इसीलिये आपके लिये यह मफुट और माला पहनाई जाती है। उन मुनिराजके उपदेशानुसार उस कन्याने ऐसा ही किया था सो ही प्रतकपाकोषामें मुकुटसप्तमोको कथामें लिखा है [ ३ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुषलवादमायालय सराहीदिवसेऽईताम्। स्नपनं पूजनं कृत्वा भक्त्याष्टविधमूर्जितम् ॥ । वध्यते मुकुटं मूमि चितं कुसुमोत्करैः । कंठे श्रीकृषभेशस्य पुष्पमाला च धार्यते ॥ पासागर मुक्तिस्वयंवरालक ते समक्षं सर्वभूभुजाम् । कंठेभूत्तह कंठे तवाहन कुसुमलजम् ॥ 11 इत्युक्त्वा मालतीकुदकुमुदादिसमुद्भवाम् । धारयेदर्हतः कंठे माला पुण्याप्तिहेतवे ।। इस प्रकार कथाकोशमे है । इनका अर्थ ऊपर लिख चुके हैं सो यहाँसे कथा सहित देख लेना चाहिये ।। . मैनासुन्दरीने भी श्रीमुनिराजके उपदेशानुसार सिद्धचक्रको पूजा अभिषेक कर अपने पतिको तया उनके सातसो साथियोंको वह गंधोदक पुष्प और चंदन दिया था और उसीसे उनका कोढ़ रोग दूर हुआ था। जैसा कि श्रीपालचरित्र लिखा है। इति वृद्धिक्रमेणैषा सिद्धान् प्रपूज्य भक्तितः । ददौ भनेंगरक्षेभ्यस्तरपुष्पोदकचन्दनम् ॥ इसके सिवाय श्रीगोम्मटस्वामीको वंदना कहते समय निर्वाण कारके पाठमें लिखा है कि देव लोग पाचसो धनुष ऊँचो उस गोम्मटस्वामीकी प्रतिमापर केशर और पुष्पोंकी वर्षा करते हैं । यथा-- गोमटदेवं वंदमि पंचसयधणहदेहउध्वंतं । देवा कुणति विठ्ठी केसरकुसुमाणि तस्स उवरम्मि । इसके सिवाय और भी अनेक जैनपुराणों में यह कथन लिखा है, वहाँसे जान लेना चाहिये तथा पूजाके पाठोंमें सब जगह लिखा ही है। यथा-- ___ सुजातिजातेः कुमुदाजकुदः, मंदारमाखावकुलादिपुष्पः। मचालिमालामुखरैर्जिनेन्द्रपादारविंददयमर्चयामि ॥ इसका अभिप्राय यह है कि पूजा करनेवाला पूजाके समय कहता है कि जुई, कुमुदिनी, कमल, कुन्च, मंदारजातिके पुष्प मौलिथी आदि उत्तमोत्तम आवि सुगन्धित पुष्पोंसे तथा और भी अनेक प्रकारके पुष्पोंसे जिनपर मदोन्मत्त प्रमरों के समूह गुजार कर रहे हैं ऐसे सुन्दर पुष्पोंसे मैं भगवानके शोनों चरणकमलोंको पूजा करता हूँ। मावि वर्षय है। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [ २४० ] कदाचित् यहाँपर कोई यह कहे कि हम को पूजा पाठ रोज पढ़ते हैं उसमें यदि लिखा हो तो हम मानेंगे, नहीं तो नहीं। उनके लिये कहते हैं। पहले अनेक ग्रंथोंके प्रमाण दिये उनको न मानना और केवल हठकरना योग्य नहीं है । यदि हमारे दिये हुए प्रमाण न माननेका हो हठ है तो तुम जो नित्य पूजापाठ पढ़ते हो उसमें भी पुष्प कहे हैं। यथा- कु' दारविंदप्रमुखप्रसूनैर्जिनेन्द्र सिद्धांतयतीन् यजेऽहम् ॥ अर्थात् 'मैं कुन्द, कमल आदि पुष्पोंसे जिनेन्द्र सिद्धांत और यतियोंकी पूजा करता हूँ' ऐसा लिखा है तथा सिद्धपूजामें भी लिखा है 'सवृगंधाक्षतपुष्पवामचरुकैः' अर्थात् श्रेष्ठ गंध, अक्षत, पुष्पमाला और नैवेद्यसे पूजा करता हूँ, यहाँपर पुष्पमालासे पूजन करना बतलाया है। कहाँ तक कहा जाय बहुतसे पाठ हैं वे सब लिखे भी नहीं जा सकते । विवेकियोंको तो एक ही ग्रन्थका प्रमाण बहुत है तथा न समझनेवालोंके लिये बहुतसे प्रमाण भी हितरूप नहीं हो सकते । इस प्रकार जिनांघ्रि पर गंध और पुष्प लगानेका वर्णन किया । भगवान के चरणस्पशित गंध, पुष्प हो उनके चरणोंकी रज है । वह भव्य जीवोंको गंधोदकके समान मस्तकपर लगाना योग्य है। इसमें किसी प्रकारका संदेह नहीं। यह रज बड़े पुष्प से प्राप्त होती है । इसके लगानेसे जीवोंके बड़े-बड़े पाप कट जाते हैं। देखो पुजासारमे लिखा है-ब्रह्मघ्नोथवा गोनो वा तस्करो वान्यपापकृत् । जिनांघिगंधसंपर्कान्मुक्तो भवति तत्क्षणे ॥ अर्थात् जिसने गया ब्राह्मणकी हत्या को हो अथवा चोरी को हो तथा स्त्री, बालक, कन्याका areप अन्य पाप किये हों सो भी भगवानके चरणस्पर्शित गंधके सम्बन्धसे तिलक लगानेसे उसी क्षणमें उन पापोंसे मुक्त हो जाता है।' इस प्रकार जिनांप्रिस्पर्शित ( भगवान के चरणकमलोंसे स्पशित ) गन्य अर्थात् वंदन, केसर आदिका माहात्म्य है । इसमें इतना और समझ लेना चाहिये कि चन्दन, केसर अथवा पुष्प वा पुष्पमालामें पापों को काट देनेका गुण नहीं है उसमें तो केवल सुगन्धित होनेका ही गुण है । यह गुण तो भगवानके चरणोंका है। उन चरणोंके सम्बन्धसे उनका स्पर्श करनेसे हो उस गंध वा पुष्पोंमें वह गुण आ जाता है । इसी प्रकार जिनगंधोदकमें भी भगवानके शरीरके स्पर्शसे वह पापोंके काटनेका गुण आ जाता है । [ २ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर [ २४१ केवल चन्दन, केसर आदि मिले जलमें केवल शीतल और सुगन्धित होनेके सिवाय और कोई गुण नहीं है । पाप काटने का गुण उसमें केवल भगवान के स्पर्शमात्रमे होता है । इसी प्रकार गंध और पुष्पोंमें समझना चाहिए। गंधोदक तथा गंधमें कुछ होनाधिकता नहीं है । इसी प्रकार पुरुष अक्षतों में भी कुछ अन्तर नहीं है । ऐसा समझ लेना चाहिए । सो ही लिखा है अंगुल्यग्रमिति देश जिनपादाचिंताक्षतान् । सुगंधलेपनस्योर्ध्वे मध्ये भाले धरे गृही ॥ अर्थात् 'गृहस्थोंको जनपादाचित अक्षत, सुगन्ध, लेप वा तिलकके ऊपर उँगलोके अग्रभागप्रमाण ललाटपर लगाना चाहिए।' यहाँपर इतना और समझ लेना चाहिए कि निर्माल्य भक्षणका दोष अक्षतोंके खानेसे होता है बिना खाये नहीं । आसिकाके अक्षत तो मस्तकपर धारण करने ही योग्य हैं। देखो सुलोचनाने अपने पिता राजा अकंपनको पुष्प मालाबिक पूजाको आसिका दी थी । सो हो आदिपुराणमें लिखा है--- विधायाष्टाह्निकी पूजामभ्यर्च्याच यथाविधि । कृतोपवासा तन्वंगी शेषान् दातुमुपागता ॥ नृपं सिंहासनासीनं सोप्युत्थाय कृतांजलिः । तद्दत्तशेषानादाय विधाय शिरसि स्वयम् ॥ उपवासपरिश्रान्ता पुत्रिके त्वं प्रयाहि हि । शरणं पारणाकाल इति कन्यां व्यसर्जयत् ॥ 1 भावार्थ — सुलोचनाने उपवासपूर्वक अष्टान्हिकाफी पूजाकी फिर वह सिंहासनपर बैठे हुए राजा ritant उस पूजाकी शेषा देनेके लिये सभामें गई । राजाने उठकर हाथ जोड़कर वह शेषा ली और स्वयं अपने मस्तक पर रखी । फिर पुत्रोको पारणाके लिये विवा किया।' इस प्रकार लिखा है । गंध, गंधोदक, पुष्प, अक्षत आदि बड़ी भक्तिसे विनयपूर्वक अपने मस्तक आदि उत्तमांगमें यथायोग्य रीतिसे धारण करना योग्य है। इनका धारण करना पुण्यबन्धका कारण है। तथा महा पापको नाश करनेवाला है। जो भाग्यहीन हैं वे हो इसको अवज्ञा करते हैं। यहो अनेक रोगोंको दूर करनेवाला है । गन्ध, गन्धोदक तथा पुष्पाविकको कथा जैन शास्त्रों में श्रीपाल आदि अनेक भव्य जीवोंके चरित्रोंमें लिखो है। तथा इन सबकी महिमा समस्त शास्त्रोंमें वर्णन की है । एक यह बात भी समझने योग्य है कि भगवानके चरणस्पर्शित गन्ध तथा पुष्पोंकी ही चरणरज संज्ञा है । भगवानके चरणों में मार्ग में चलनेसे लगी हुई धूलिकी तो संभावना हो नहीं है फिर चरणरजका वर्णन किस ३१ [ २४ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [ २४२ ] प्रकार किया जा सकता है परन्तु ग्रन्थों में चरणरजके लगानेसे अनेक रोगादिकोंका नादा होना बतलाया है। इससे सिद्ध होता है कि भगवान के चरणस्पर्शित गन्ध धूपको ही चरणरज कहते हैं। जो कोई भीषण जलोदर आदिका रोगी भी इसको लगाता है उसका शरीर भी देवोंके समान अत्यन्त रूपवान हो जाता है। इससे जीयोंके समस्त रोग न हो जाते हैं। जिसका शरीर जलोदर आदि अनेक रोगोंसे जर्जरित हो गया है, जिसकी शोषतोष गवत्या हो गई है मृत्युको निकट पहुँच चुका है, जीवित रहनेको जिसकी आशा छूट चुकी है ऐसा मनुष्य भी यदि भगवानके चरणरजको लगाये तो उसके समस्त रोग नष्ट हो जाते हैं तथा वह कामदेव के समान सुन्दर हो जाता है। ऐसा शास्त्रोंमें लिखा है सो यह गुण, जल, गन्ध, अक्षत, पुष्प आदिमें नहीं है किन्तु भगवानके चरणोंके स्पर्श करनेसे उनमें यह गुण आ जाता है। सो ही श्रीमानतुंगाचार्य श्रीवृषभनाथ की स्तुतिमें ( भक्तामर में ) कहा है उद्भूतभीषणजलोदरभारभुग्नाः, शोच्यां दशामुपगताश्च्युतजीविताशाः ॥ त्वत्पादपङ्कजरजोमृतदिग्धदेहाः मर्त्या भवन्ति मकरध्वजतुल्यरूपाः ॥ इसलिए भगवान के चरणस्पर्शित गंध, पुष्प सदा ही वन्दना करने योग्य हैं। जो कोई पुरुष बिना समझे इसकी निन्दा करते हैं उनके कर्मका बंध होता है। इसलिये ऊपर लिखे अनुसार तिलक आदि बेकर भव्य जीवोंको भगवान की भक्ति करनी चाहिये । प्रश्न- यदि कोई तिलक न करें तो क्या दोष है। यह तो इच्छा पर निर्भर है करें या न करें ? समाधान -- जैनी श्रावकको बिना तिलकके रहनेकी मनाई है। शास्त्रोंमें लिखा है कि णमोकार आदि मन्त्रोंके जप, होम, सत्पात्रों को दान, जैनशास्त्रोंका पाँचों प्रकारका स्वाध्याय, पितृतर्पण, जिनेन्द्रदेवका पूजन तथा शास्त्र श्रवण आदि कार्य बिना तिलक लगाये कभी नहीं करने चाहिये। इससे सिद्ध होता है कि पहले तिलक कर लेना चाहिये पीछे ऊपर लिखे कार्य करने चाहिये । सो ही लिखा है-जंपो होमस्तथा दानं स्वाध्यायः पितृतर्पणम् । जिन पूजाश्रुताख्यानं न कुर्यात्तिलकं विना ॥ १., २. इनका अर्थ उनके ऊपर लिखे अनुसार है । [ २४ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर २४३ ] 15 S कदाचित् कोई यह कहे कि "भगवानके चरणोंके गंध लगाना सरागताका कारण है तथा अयोग्यता आदि अनेक दोषोंको उत्पन्न करनेवाला है परन्तु ऐसा कहना भी बड़े अनर्थका कारण है। यदि यह कहना ठीक है कहनेवाले शास्त्रोका प्रमाण देना चाहिये। भगवानके चरण-कमलों में केशर, चंदन आदिके लगाने का किन-किन शास्त्रोंमें निषेध है उनको लिखना चाहिये। अमुक शास्त्रमें अमुक गायामें तथा अमुक भाषा में गन्धादिकके लगानेका निषेध है सो बतलाना चाहिये । केवल अपनी इच्छानुसार मुखसे ही कहना था लिखना योग्य नहीं है। बिना प्रमाणके ऐसा कहना बड़ी बात है, छोटी नहीं है इसलिए ऐसी बात न लिखनी चाहिये न कहनी चाहिये । प्रश्न- भगवान के चरणोंपर गन्ध लगाना कहाँ कहा है ? समाधान-गन्धका लगाना ऊपर पुष्पादिकके वर्णनमें कह ही चुके हैं तथा जिन-जिन शास्त्रों में ( जैनमत शास्त्रों में ) पूजाका प्रसंग आया है वहाँ ही इसका वर्णन लिखा है। उनमें कुछ शास्त्रोंके नाम श्लोक गाथा आदि लिखते हैं । श्रीशुभचन्द्रस्वामी विरचित सहस्रगुणी पूजामें लिखा है । परिमल विमलाढ्य रिन्दुकश्मीर मिश्रः निखिलमिलितद्रव्येचन्दनैर्वाणपेयैः । शिवसदन निविष्टं नाद्यनन्तं प्रयुक्तं दशशतकरधारं चर्चये सिद्धचक्रम् ॥ अर्थात् कर्पूरादि मिले हुए घिसे चन्दनसे सिद्धचक्रकी पना ( पूजा ) करता हूँ । सकलकीर्तिविरचित श्रीशान्तिनाथ पुराण सन्धि ७ श्लोक १३१ में लिखा है । I स्वच्छनीरैः पवित्रैश्च दिव्यः गंधविलेपनैः । मुक्ताफलादिजैः सौरैरक्षतैः स्वर्गसंभवैः चंपकादिमहापुष्पैर्नैवेद्यैश्च चतुर्विधैः । ज्वलद्वीपैर्महाधूपैः फलैः कल्पद्रुमादिजैः ॥ अर्थात् स्वच्छ पवित्र जलसे, दिव्य गन्धके विलेपनसे, मुक्ताफलादिक अक्षलोंसे, चम्पक आवि पुष्पोंसे नैवेद्य, बीप, धूप, फलोंसे भगवानकी पूजा करता हूँ । [ २४३ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [ २४४ ] SA-223 प्रतिष्ठासारमें भी लिखा है- कर्पूरजोंग कलवंगत्रुटि प्रयंगुकंकोल पूर्व कक रंवितचन्दनोधैः । दूरं स्फुरत्परिमलैर्जिनभर्तु रारात् विद्राणसौरभ मदैरपि चर्चयेन्त्रिम् ॥ अर्थात् “कपूर, लोंग, कंकोल आदि मिले हुए चन्दनसे भगवान के चरण-कमलोंको चर्चता हूँ ।" विकृत प्रतिष्ठापाठमें लिखा है कर्परेलालवणादिव्यमिधितबलैः: सौगंधवानिताशेषदि ङमुखैश्चर्चयेज्जिनम् । अर्थात् " दिशाको सुगन्धित करनेवाले कपूर, इलायची, लोंग आदि थ्योंसे मिले हुए चंदन से मैं भगवान की पूजा करता हूँ ।" भावसंग्रह में भी लिखा है- चंद्रण सुगंध लेऊ जिणवर चरणंसु कुणड़ जो भविओ । mes a faraरियं सुहाय सुपधयं विमलं ॥ अर्थात् "जो भव्य भगवान के चरण कमलोंपर चन्दनका लेप करता है । यह बहुत उत्तम सुगन्धित वैकिकि शरीर पाता है । पद्मनंदिआचार्यकृत पद्यनंदिपंचविशतिकामें भी लिखा है- यद्वचो जिनपतेः भवतापहारि नाहं सुशीतलमपीह भवामि तद्वत् । कर्पूरचन्दनमितीव मयार्पितं सत् स्वत्पादपंकजसमाश्रयणं करोति । अर्थात् जिस प्रकार भगवानके वचन संसारतापको नाश करनेवाले हैं उस प्रकारको शीतलता मुझमें नहीं है परन्तु मैं ऐसा शीतल होना चाहता हूँ इसलिये चंदनको समर्पण करता हूँ । धर्मकीतिकृत नन्वोश्वर पूजामें भी लिखा है कर्पूरकु कुमरसेन सुचन्दनेन ये जैनपादौ परिलेपयन्ति । तिष्ठति ते भविजनाश्च सुगंधगंधा दिव्यांगनापरिवृताः सततं वसंति । He Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विलेपनं गंधसुगंधद्रव्यैर्येषां प्रकुर्वन्त्यमराश्च तेषाम् । कर्नेव नंगे वरचन्ददायनन्दीश्वरदीपजिनाधिपानाम् । चर्चासागर अर्थात् जो भव्यजन कपूर, कुकुम, चन्दन आविसे भगवानके घरगोंको लिपन करते हैं वे सुगन्धित । [ २५ शरीरको धारणकर सुम्बर देवांगनाओं सहित स्वर्ग में निवास करते हैं । नन्दीश्वरद्वीपमें विराजमान जिनप्रति माओंक अंगमें देवगण सुगंधित द्रव्योंसे लेप करते हैं इसीलिये मैं नन्दीश्वर द्वीपमें विराजमान भगवानके चरणोंपर चन्दनका लेप करता हूँ। त्रिवर्णाचारमें भी लिखा हैजिनाधिचन्दनैः स्वस्य शरीरे लेपमाचरेत् । यझोपवीतसूत्रं च कटिमेखलया युतम्।। अर्थात् भगवानके चरण स्पशित चंदनसे अपने शरीरपर लेप करना चाहिये तथा यज्ञोपवीत और फटिमेखला धारण करनी चाहिये । मुक्तावलिपूजामें भी लिखा है-- सदगंधसारधनसारविलेपनैश्च गंधागतालिकुलजाततरुप्रकांडैः । उद्यापनाय जिनपादसरोजयुग्मं मुक्तावलीनतपरस्य यजेतिभक्त्या। अर्थात् 'मुक्तावलीवतके उद्यापन के लिये भगवान के चरणकमलोंको चंदनसे लिपन करना चाहिये। श्रीपालचरित्रमें सिद्धपूजाके समय लिखा हैमिश्रकुंकुमकपरसुगंधचंदनद्रवैः । हेमादिभाजने सिद्धचक्रमुढत्य भक्तितः ॥ अर्थात् 'सुवर्णाविकके पात्रमें कपूर, चंदनाविकसे सिद्धचक्र यंत्रको उर्वतन ( विलेपन ) करना चाहिये । अभयनवितरिकृत श्रेयोविधानमें लिखा है-- काश्मीरपंकहरिचंदनसारसांद्रनिष्पंदमाभिरुचितेन विलेपनेन । अव्याजसौरभतनो प्रतिमा जिनस्य संचर्चयामि भवदुःखविनाशनाय ॥ अर्थात् 'संसारके दुःख दूर करनेके लिये मैं भगवानको प्रतिमाको ( उनके चरणोंको) केशर, चन्दन । आविसे विलेपन कर पूजन करता हूँ। चायनान्य Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चासागर श्रीप्रभाकरसेनप्रतिष्ठापाठ में लिखा हैयश्चन्दनैश्च नवकुकुम र्जिनस्य कर. विलपंति देहम् । अर्थात् जो भगवानके शरीरको ( धरणोंको ) चंदनादिकसे विलेपन करता है। श्रीआशाधरकृत जिनयज्ञकल्पमें लिखा है काश्मीरकृष्णागरुगंधसारकप पौरस्त्यविलेपनेन । निसर्गसौरभ्यगुणोल्वणानां संचर्चयाम्यंधियुगं जिनानाम् ॥ अर्थात् स्वभावसे ही अत्यन्त सुगन्थित ऐसे भगवानके चरणकमलोंको केशर, कपूर, चन्दन आदि द्रव्योंसे विलेपनकर पूजन करता हूँ। त्रिकालचतुर्विशतिका पूजामें लिखा है गंधसारधनगंधविलेपैगंधसारहिमकुकुमयुक्नैः। गंधसारहिमलिंदिकव दैर्यायजीमि ऋषभादिजिनेंद्रान् । अर्थात् 'मैं ऋषभावि जिनेन्द्रोंको चन्दनादिकसे विलेपनकर पूजन करता हूं।' श्रीयोगोन्द्रदेवकृत प्राकृतश्रावकाचारमें बोधक छन्दमें लिखा है __ 'जो जिणु चंदन चच्चइइए' अर्थात जो भगवानको चंदनसे चर्चता है। प्रथमपुराणको संधि २३ श्लोक १०६ में लिखा है-- अथोत्थाय तुष्टाः सुरेन्द्राः स्वहस्तैर्जिनस्यांघिपूजां प्रचकः प्रतीताः॥ सुगंधैः समाल्यैः संदीपैः सधूपैः, सदिव्याक्षतैः प्राज्यपीयूषपिंडैः॥ अर्थात् इन्द्र संतुष्ट होकर खड़े हुए और उन्होंने गंध, माला, बीप, धूप, अक्षत, चरु आविसे स्वयं भगवानके चरणकमलोंकी पूजा की। - - Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर [ २४७ ] पूजासारमें लिखा हैक्षौदैः कर्पूर मिश्रैर्वहलपरिमलाकृष्टभृ गांगनानी, मोदः स्वर्गापवर्गफलम मलमतं चंदनैः क्ष्मारुहाणाम् ॥ नैःफल्यं नेति शैत्यं प्रथयतु न मिलनाप्नुवद्भिः दिगन्तान्, गंधैः संबंधनीयं त्रिजगदधिपतेः पादमापादयामि ॥ अर्थात् भगवानके चरणकमलोंको अत्यन्त सुगन्धित कपूर, चंदन आदिसे दिलेपन करता हूँ पूजासारमें दूसरी पूजामें लिखा है समृद्धभक्त्या परया विशुद्धया, कर्पूरसम्मिश्रितचन्दनेन ॥ जिनस्य देवासुरपूजितस्य, सुलेपनं चारु करोमि मुक्त्यै ॥ ॐ ह्रीं अहं सर्वकर्मविलेपनरहितपवित्राय नमः उद्वर्तनम् । अर्थात् "मोक्ष प्राप्त करनेके लिये इन्द्रोंसे पूज्य भगवानको बड़ो भवितसे चंदनादिकसे विलेपन करता हूँ । समस्त कर्मों के विलेपनसे रहित भगवानका उद्वर्तन ( उबटन ) करता हूँ । भगवदेकसंधिकृत जिनसंहितामें लिखा है ओं चन्दनेन कर्पूरवि मिश्रण सुगंधिना व्यालिंपामो जिनस्यांघ्रिः निलंपाधीश्वरार्चितः ॥ अर्थात् इन्द्रोंके द्वारा पूज्य भगवान के चरणोंकों कपूर, चंदन आदिसे लेपन करता हूँ । शांतिचक्र विधान में लिखा है- श्रीचंद मुदा चर्चे चंद्रगर्भैः स्फुरत्प्रभैः । दिव्यतेजोमयं शांतिमंत्रात्मानमघच्छिदे ॥ अर्थात् पापको नाश करनेके लिए विव्य तेजोमय शांतियन्त्रको केशर, चन्दन आदिसे लेपन करता हूँ । अकृत्रिम श्यालयकी भाषापूजा में लिखा है सौरभेयद्रव्य लेय पादयुग्म चर्चिकें । भवाताप शांत है जिनेंद्रपीठ अर्चिके ॥ तीन लोक जैन भौन अकृत्रिम पूजिये । अष्टकर्म भानि सार सौख्यरूप हूजिये ॥ 455 [ २४ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यासागर [२४८ ] यह बदन चढ़ानेका है। इसी प्रकार और भी पाठ है, जो चतुर्विशतिके मंडलपाठमें अलग-अलग जिनपादके विलेपन करना कहा है। देखो सुपार्श्वनायको पूजामें लिखा हैकुकुमेन की रेण चंदनेन सुगंधिना । श्रीजिनेन्द्रपदाभोज विलेपेहं सुभावतः॥ अर्थात् भगवानके चरण कमलों को कुंकुम, कपूर, चन्दन आविसे लेपन करता हूँ। श्री चन्द्रप्रभको पूजामें लिखा है-- सुकुकुमश्चन्दनचन्द्रमिश्रितैः विलेपयेहं शशिपादपद्म। अर्थात् चन्द्रप्रभके चरण-कमलोको कपूर, चन्दन आविसे लेप करता हूँ। श्री शीतलनाथको पूजामें लिखा है-- सुकु कुमैः चन्दनेन मिश्रितैः विलेपयामि जिनपादपयोजयुग्मम् । श्रीशीतलेश विधिना यजामि संसारतापहननाय सुखाय शांत्यै ॥ अर्थात् भगवानके चरण-कमलोंको कुंकुम, चंबन आदिसे लेपन करता हूँ। श्रीश्रेयांसनाथको पूजामें लिखा है सुकु कुमैश्चन्दनचन्द्रयुक्तैर्विलेपयेहं जिनपादयुग्मम् । श्रेयांसदेव परिपूजयेहं त्रैलोक्यनाथार्चितपादयुग्मम् ॥ तीनों लोकोंके द्वारा पूज्य ऐसे श्रेयांसनाथके चरण-कमलोंको चन्दनादिकसे लेपन करता हूँ। श्रीवासुपूज्यको पूजामें लिखा है-- सुकु कुमैश्चन्दनचन्द्रमिश्रितैः विलेपयेहं जिनपादयुग्मम् । श्रीवासुपूज्यं प्रयजे सदाहं सुवासवानां शतकेन पूज्यम् ॥ अर्थात् सो इन्द्रोंके द्वारा पज्य ऐसे श्रीवासुपूज्यके चरणकमलोंको कपूर, चन्दन आविसे विलेपन । करता है। [ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर २४९ ] मिलनाथको पूजामें लिखा है- कुंकुमपरेण चंदनेन विलेपये। विमल जिनपादाब्जं संसारातापहानये ॥ अर्थात् संसारतापको नाश करनेके लिए विमलनायके चरण-कमलोंको कपूर, कुंकुम, चंदन आदिसे विलेपन करता हूँ । श्री अमरनाथ की पूजा में लिखा है सचन्द्रकर्पूरकुकुमैच विलेपयेऽनन्तपदाब्ज युग्मम् । जे त्रिकालं वरभावतोऽहं अनंतसोख्याय अनन्तनाथम् ॥ अर्थात् अनन्त सुख प्राप्त करनेके लिये अनन्तनाथके चरण-कमलोंको केशर, कपूर, कुंकुमते विलेपन करता हूँ । श्री शान्तिनाथ की पूजामें लिखा है- काश्मीरचंदनसुचंद्रयुतैः सुगन्धैः पादारविंदद्वयले पविलेपनैश्च । शोकारिरोगभवदुःखविनाशनाय श्रीशांतिनाथजिनपं प्रयजे सुखाय ॥ अर्थात् शोक, रोग आदि संसारके दुःख दूर करनेके लिए केशर, चंदन, कपूर आदि सुगन्धित व्रक्योंसे दोनों चरण-कमलोंको विलेपनकर श्रीशांतिनाथको पूजा करता हूँ । श्रीअरनाथको पूजामें लिखा है- मलयारण्यसंभूतैर्गंधचन्दनलेपनैः । दुष्टाष्टकर्मशांत्यर्थं अरनाथमहं यजे || अर्थात् आठ कर्मोंको शान्त करनेके लिए मलयागिरके चंदन से लेपनकर अरनाथकी पूजा करता हूँ । श्री अरिष्टनेमिनाथको पूजामें लिखा है- सुकुकुमैश्चन्दनचन्द्र मिश्रैर्विलेपनैर्ने मिक्रमाब्जयुग्मम् । कृष्णप्रभं नेमिजिनं यजेहं सुकुबुकांकं शिवदेत्रिसूनुम् ॥ अर्थात् शंख धिसहित, शिवदेवोके पुत्र, कृष्ण प्रभाको धारण करनेवाले श्रीनेमिनाथके चरण-कमलोंको कपूर, चंदन, कुंकुम आविसे लेपन कर पूजा करता हूँ । ३२ [ २ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्चासागर - २५० ] श्रीमहावीर स्वामीकी पूजामें लिखा है- मलयचन्दनकुकुमचन्द्रजैः सुभवतापहरैः परिलेपनैः । परमपावनमुक्तिदायकं परियजे जिनवीरपदाब्जकम् ॥ अर्थात् चन्दन, कपूर, कुंकुम आविसे भगवान वीरनाथके धरण-कमलोंका विलेपनकर परम पवित्र और मुक्ति देनेवाले वीरनाथकी में पूजा करता हूँ । इसी प्रकार शांतिचक्र, ऋषिमण्डल, पञ्चकल्याण, कर्मदहन, षोडशकारण, दशलक्षण, रत्नत्रय, सार्द्धयद्वीप, इन्द्रध्वज, पचमेद, नन्दीश्वर पूजा आदि अनेक पूजा-पाठोंमें लिखा है परन्तु ग्रन्थका विस्तार होनेके डरसे इन सबके इलोक नहीं लिखे हैं । प्रश्न- यहाँपर कदाचित् कोई यह कहे कि हमारे भाव लेपन करनेके नहीं हैं इसलिये हम बिना लेपन किये ही पूजा करते हैं इसमें क्या दोष है। तुम लेपन करो, हम नहीं करते ? समाधान -- जिनके चरण-कमल केशर, चन्वन आबिके रससे लेपन नहीं किये गये हैं ऐसी मूर्तिका जो दर्शन करते हैं वे अज्ञानी है। ऐसे लोगोका ज्ञानहीन कहते हैं। ऐसा वसुनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्तीकृत जिनसंहिता नामके शास्त्र में लिखा है । यथा अनचितपदद्वन्दं कुकुमादिविलेपनैः । विम्बं पश्यति जैनेन्द्र ज्ञानहीनः स उच्यते ॥ अर्थात् कुंकुमादि विलेपनके द्वारा जिनके दोनों चरण प्रतिमा जो दर्शन करता है वह ज्ञानहीन कहलाता है। इससे चर्चे बिना नहीं रखने चाहिये, चंदनका विलेपन जरूर करना चाहिये । जिनके चरण-कमल चंवनाबिक से चर्चित हो रहे हैं ऐसी प्रतिमाके जो दर्शन नहीं करते वे कभी धर्मात्मा नहीं हो सकते । सो ही वसुनन्दिकृत जिनसंहितामें लिखा है-पश्येन्नो जिनबिम्बस्य वर्चितं कुंकुमादिभिः । पादपद्मद्वयं यो हि स भवेन्नैव धार्मिकः ॥ अर्थात् जो चंदनाविकसे चर्चित हुए भगवान के चरण-कमलोंके दर्शन नहीं करता वह कभी धर्मात्मा नहीं हो सकता । चर्चित नहीं किये गये हैं ऐसी जिनेन्द्र देवकी सिद्ध होता है कि भगवानके चरण चन्दनसे मर [२ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यासागर [११] जिसने श्रीअरहन्तदेवके वरण-कमलोंको चंदनसे विलेपन नहीं किया वह कभी धर्मात्मा नहीं हो सकता। ऐसा प्रतकथाकोशमें लिखा है । यया--- न लिप्तश्चन्दनैरहन् भगवानके चरण-कमलोंमें केशर, चन्दन लगाना बसुनन्दिकृत श्रावकाचारमें भी लिखा है । यथा-- कपूरकुकुमापरुत्तरुक्कमिस्सेण चंदणरसेण । वरवहलपरिमलामोपवासिया सा समूहेण ॥ वासाणुमग्गसंपत्ता मयमत्तालि एव मुहलेण।सुरम उडघट्टचलणं भत्तिए समलहिज्ज जिणं।। सनि जिसपर मर गुजार कर रहे है इसे पूर, कुंकुम, चंदन आदिसे भक्तिपूर्वक विलेपन करता है वह जिनेन्द्र के समान विभूति पाता है। __ सकलकोति कृत सिद्धान्तसारप्रदीपकको पन्द्रहवीं सन्धिमें लिखा हैतत्र नतोत्तमांगेनाहन्..........."अर्चयन्ति महाभूत्या महाभक्त्या महोस्सवैः। मणिभृङ्गारनालांतनिर्गतैस्तु जलोत्करैः दिव्यामोदनभैाप्त जगत्सारैर्विलेपनैः।। जो भव्यजीव बड़ी भक्तिसे, उत्सवसे, विभूतिसे, मणिके बने भंगारकी नालसे निकले जलसे तथा अपनी ! सुगन्धिसे आकाशको व्याप्त करनेवाले चंदनके विलेपनसे भगवानकी पूजा करता हूँ। षट्कर्मोपदेश रत्नमालामें गंध पूजाके समय लिखा हैनरेण येन नार्या वा कृतं जिनविलेपन । तयोः कथामहं वक्ष्ये श्रोतव्या सावधानतः।। अर्थात् सकलभूषणने लिखा है कि जिन स्त्री, पुरुषोंने भगवानका विलेपन किया उनको कथा कहता हूं सावधान होकर सुनो। धोवसुनन्दिने भी पूजाके फलके समय लिखा है चंदणलेप्पेण णरो जायइ सोहागसंपण्णो। अर्थात् यह मनुष्य चंदनका लेप करनेसे सौभाग्यवान होता है। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [ २५२) यशस्सिलफचम्पूमें लिखा है मंदमदमदनभानं मंदरगिरिशिखरमज्जनावसरे । कंदमुयालतिकायाश्चन्दनचर्चाचितं जिनं कुर्वे ॥ अर्थात् भगवानके चरणोंको चन्दनसे विलेपन कर पूजा करता हूँ। प्रतिष्ठा-पाठ जिन यज्ञ कल्पमें लिखा है किसी एक अहिच्छत्रपुर नगरके राजा वसुपालने अपने घरमें श्रीपाश्र्वनाथका चैत्यालय बनवाया था उसमें प्रतिष्ठापर्वक पार्वनाय बिब विराजमान किया या तथा कितने ही दिन बाद उस राजाने कारसे उस प्रतिमापर लेप चढ़वाया था इसका वर्णन आराधनाकथाकोशमें विस्तारके साथ लिखा है। उसमेंसे लेपका इलोक यह हैतस्यां लेपः कृतस्तेन सलेपः संस्थितस्तदा । कार्यसिद्धिर्भवत्येवं प्राणिना प्रतशालिना ॥ अर्थात् 'उसने फिर उस प्रतिमापर लेप कराया इसलिये वह बिंब लेपसहित विराजमान रहा । सो ठीक हो है प्रती प्राणियोंकी कार्यसिदि इसी प्रकार होती है। जो पुरुष भगवानके चरणकमलों में लेप करते हैं उनके अनेक रोगोंकी शांति होती है। किसो एक मदनावली नामकी रानोने पहले भवमें मुनिको निन्दा की थी उस पापसे उसके शरीर में अत्यन्त दुर्गन्ध उत्पन्न हो गया था सो उसने उस रोगको शांत करनेके लिये किसी अजिकाके उपदेशानुसार भगवानका अभिषेककर सात दिन तक प्रातःकाल, मध्याह्नकाल और सायंकाल तीनों समय गंध लगाकर पूजा की थी उसोसे उसकी वह दुर्गन्ध व्याधि दूर हुई थी। तया आयु पूर्ण होनेके बाद वह पांचवें स्वर्गमें । से उत्पन्न हुई थी। षट्कर्मोपदेशरत्नत्रयमालामें भी इसका वर्णन लिखा है । यथा-- इति मां निश्चयं कृत्वा दिनानां सप्तकं सती। श्रीजिनप्रतिबिंबानां स्नपनं सा ह्यकारयत् ॥ चंदनागुरुकपरैः सुगंधैश्च विलेपनैः। सा राज्ञी विदधे प्रीस्या जिनेन्द्राणां त्रिसन्ध्यकम् ॥ नाराबासमाRAELI Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [ २५३ ] PRAISHIRAAMSASTERDISEASENAMENTSPSCENEPAL अर्थात उस सती रानीने ऐसा निराधयकर सात दिन तक तीनों समय भगवानका अभिषेक किया और चंदन, अगुरु, कपूर आदि सुगंधित द्रव्योंसे विलेपन किया। इस प्रकार और भी कथायें हैं। श्रीउमास्वामीने अपने श्रावकाचारमें पूजा प्रकरणमें गंधके विलेपन करनेका वर्णन किया है सो पहले पूजामें लिख चुके हैं वहाँसे देख लेना चाहिये । श्रीउमास्वामीने इकईस प्रकारको पूजाके प्रकरणमें लिखा है कि सबसे पहले भगवानका अभिषेक करना सो स्नानपूजा है। तदनन्तर चन्दन आदि सुगन्धित द्रव्योंको घिसकर भगवामके घरणोंसे लगाना सो विलेपन पूजा है । फिर पुष्प चढ़ाना सो पुष्पपूजा है। इत्यादि और भी बहुतसा वर्णन है। यया _ "स्नानैर्विलेपनविभूषितपुष्पवासा" इत्यादि । और भी पाठ है। प्रश्न-तुमने जो ऊपर वर्णन किया है वह महा पापका कारण है क्योंकि पूजा आदिमें हिंसादिक महा आरम्भ होता है । इसी प्रकार कोई-कोई अधर्मी रात्रिमें भी पूजा करते हैं सो उसका पाप तो हम जान ही नहीं सकते क्योंकि उसमें महापाप होता है और धर्म जीव दयापूर्वक है। इसलिये ऐसे कथनको हम नहीं मानते । इस प्रकार कितने ही असमझ पुरुष इन कार्योको निन्दा करते हैं। उसका समाधान इस प्रकार है। जैनशास्त्रोंको बिना समझे केवल उद्धत पुरुषके समान इस प्रकारके निन्दारूप बघन कभी नहीं कहना चाहिये। अपना हिताहितका विचार कर विवेकरूप वचन कहना चाहिये । यह जैनमत एकांतपक्षरूप नहीं है अनेकांतरूप है । स्याद्वावरूप नयोंसे सिद्ध है। लिखा भी है.--'स्याद्वावनायकमनंतचतुष्टयाह' स्याद्वादके स्वामी अनंतचतुष्टयको धारण करनेवाले श्रीअरहतवेवकी मैं पूजा करता हूँ। इसलिये एक पक्षको दृढ़ करनेसे मिथ्यात्वका दोष आता है तथा ऐसा कहना अनेक अनाँको उत्पन्न करनेवाला है ।। जो पुरुष भगवानके अभिषेक करनेमें, जिनेन्द्रदेवको प्रतिमाको प्रतिष्ठा करनेमें, जिनालय के निर्मापण ।। कराने में तथा जिनयात्रा, तीर्थयात्रा आदिमें सावध लेश अर्थात् हिंसादिक आरम्भका पाप बतलाते हैं, वे जैन- ।। DAREsaच्या न्यानTHERMA Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चासागर [स ] धर्मको पालन करते हुए भी मिध्यावृष्टी और पापी हैं, सम्यग्दर्शनके घातक हैं और केवल निन्दा करनेवाले हैं ऐसा सारसंग्रह नामके शास्त्रमें लिखा है । यथा जिनाभिषेके जिनपप्रतिष्ठा जिनालये जैनसुपात्रकायाम् । सावधलेशो वदते स पापी स निन्दको दर्शनघातकश्च ।। यहाँपर ऐसे पुरुषको दर्शनका घातक बतलाया है और श्रीकुन्दकुन्दस्वामीने अपने षड्पाहड़में ऐसे धातीको मोक्ष प्राप्त हा निषेध किया है। जैसा कि दर्शनपाहुउमें लिखा है--- दसणभट्टा भट्टा दंसणभट्टस्म णस्थि णित्राणं । सिझंति चरिये भट्टा दसणभट्टाण सिझति ॥ अर्थात् दर्शनसे भ्रष्ट हैं वे भ्रष्ट हैं क्योंकि जो दर्शनसे ( सम्यादर्शनसे-जैनशास्त्रोंके यथार्य श्रद्धानसे ) भ्रष्ट हैं उनको मोक्ष कभी नहीं मिल सकती तथा इसका भी कारण यह है कि जो चारित्रसे भ्रष्ट हैं वे समय पाकर मोक्षमार्गमे लग जाते हैं परन्तु जो सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट हैं वे मोक्षमार्गमें कभी नहीं लगते हैं। श्रीयोगोन्द्रदेवने भी अपने श्रावकाचारमें लिखा है कि जो पुरुष भगवानके अभिषेकमें पाप गिमता है उसके सम्यग्दर्शन कभी नहीं हो सकता । ययाआरंभे जिणण्हाइयेजोसावज्जभणंति दसणं । तेण जिम इयलीयो इच्छुण काई उभंति ॥ कोई-कोई लोग ऐसा कहते हैं कि रात्रिमें प्राषिक-श्राविका आदि चतुर्विध संघ भी भोजनका त्यागी हो जाता है फिर भला रात्रिमें श्री अरहंतवेषको पूजा किस प्रकार करनी चाहिये, उनको नैवेद्य किस प्रकार चढ़ाना चाहिये। यह तो बड़ा अपराध है क्योंकि जो पुरुष रात्रिमें स्वयं नहीं खाता यह भगवानकी जल, फलाविकसे रात्रिमें किस प्रकार पूजा कर सकता है इसलिये रात्रिमें भगवानको पूजा करनेका वा नैवेद्य चढ़ानेका निषेष है। परन्तु इसका समाधान यद्यपि ऊपरके श्लोकोंसे हो जाता है तथापि थोड़ासा फिर भी बतलाते हैं। Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिस दिन हम उपवास करते हैं उस दिन भगवानको पूजा करनी चाहिये या नहीं ? कदाचित् कोई यह कहे कि रात्रिमें पूजा किसने को है तो इसका समाधान यह है कि वाजंघ श्रीमतीने विवाहके बाद अनेक पर्षासागर दोपकोंके उद्योतसे ईर्यापथविशुखिपूर्वक अभिषेक कर रानिमें पूजाको यो सो हो महापुराणके सातवें पर्वमें । [.२५५ ] लिखा है अथापरेयुरुद्यानमुद्योतयितुमुद्यमी । प्रदोषे दीपकोद्योते महापूतं ययौ वरः ॥ कृतेर्याशुद्धिरिद्धाद्धःप्रविश्य जिनमंदिरे । तत्रापश्यद्यतीन् दीप्ततपसः कृतवंदनः ॥ ततो गंधकुटीमध्ये जिनेंद्राचा हिरण्यमयीम् । पूजयामास गंधाधैरभिषेकपुरस्सरः ॥ इसी प्रकार प्रतकथाकोशमें चन्दनषष्ठी आदि अनेक व्रतोंके विधाममें कथा और विधिपूर्वक रात्रिपूजन का कथन किया है । वह सब लिखा भी नहीं जा सकता, ऐसा समझ कर निषेध नहीं करना चाहिये । जो लोग निषेष करते हैं वे जिनश्रुप्तके विरोधी कहे जाते हैं । कोई-कोई ऐसा कहते हैं कि मुनि वनमें ही रहते हैं, मंदिर में नहीं, रहते सो भी पहले बलोकोंमें कहा है कि वनजंघ श्रीमतीने पहले मुनियोंकी वंदना को फिर भगवानको पूजा को । आराधना कथाकोशमें लिखा है कि श्रीमजिनेन्द्रचन्द्र की पूजा पापको नाश करनेवाली है प्रत्यक्ष स्वर्ग मोक्षको देनेवालो शास्त्रोंमें बतलाई है। जो श्रेष्ठ बुद्धिवाले पुरुष भगवानको ऐसो पूजाको धर्मके लिये पवित्र होकर भक्तिपूर्वक करते हैं वे ही सम्यग्दृष्टियों में शुद्ध है और वे ही महाभव्य हैं। इसमें सन्देह नहीं । तथा जो जिनपूजाको निन्दा करते हैं वे पापो इस पृथ्वीपर निन्दनीय होते है और उस मिन्दाके पापसे वुःखो, दरिद्री कोढ़, अन्धापन, लँगड़ापन, जलोदर आदि अनेक रोगोंसे दुःखी होते हैं, पीछे दुर्गतिके पात्र होते हैं ऐसा लिखा है । यथाहुई श्रीमजिनेन्द्रचन्द्राणां पूजा पापप्रणाशिनी। स्वर्गमोक्षप्रदा प्रोक्ता प्रत्यक्षपरमागमे ॥ यः करोति सुधीर्भक्त्या पवित्रोऽपापहेतवे । स एको दर्शने शुद्धो महाभव्यो न संशयः॥ 1 यस्तस्या निन्दकः पापी ल नियो जगति ध्रुवम् । दुःखदारिद्ररोगादि दुर्गते जनं भवेत् ॥ । सामन्यायाoutHATKHATANARASTRIKE ImraMETAswimageATRAPARAMEmanumazA Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर २५६ ] श्रीनेमिचन्द्रकृत कर्मकांडको संस्कृत टीकामें तथा वशाध्याय तत्त्वार्थसूत्रको टीकामें बंध तरवके भेदोंमें ऐसा ही कहा है । श्रीअमृतचन्द्रसूरिने लिखा है कि जो पुरुष तपस्वी गुरु और जिनप्रतिमाको पूजाका लोप करते हैं, दीन, अनाथ, कृपण और भिखारियोंको दान देनेका निषेध करते हैं दूसरोंको बाँधने, मारने, बेड़ी डालने, नासिका छेदन करने आदिके लिये कहते हैं जो प्रमादसे वेवपर चढ़ाये हुए नैवेद्यको ग्रहण करते हैं जो निर्दोष शास्त्रावि उपकरणोंका त्याग करते हैं प्राणियोंका वध करते हैं दान, भोग, उपभोग आदि विघ्न करते हैं जो ज्ञानका निषेध करते हैं और धर्म में विघ्न करते हैं उनके अन्तराय कर्मका आस्रव होता है । भावार्थ- ये सब कार्य अन्तराय कर्मके आयके कारण है। ऐसा लिखा है यथा- तपस्विगुरुचैत्यानां पूजा लोपप्रवर्तनम् । अनाथदीनकृपणभिक्षादिप्रतिषेधनम् ॥ वधबंध निरोधैश्च नासिकाच्छेदकर्तनम् । प्रमादाद्देवतादत्तनेवेद्यग्रहणं तथा ॥ निरवद्योपकरणपरित्यागो वधोऽङ्गिनाम् । दानभोगोपभोगादिप्रत्यूहकरणं तथा ॥ ज्ञानस्य प्रतिषेधश्च धर्मविघ्नकृतिस्तथा । इत्येवमन्तरायस्य भवन्त्या स्त्रवहेतवः ॥ ( तस्वार्थसार अस्त्रववर्णन श्लोक ५५-५८ ) इस प्रकार बहुत-सा वर्णन है । आगे सचित पूजाका विधान कहते हैं जो पुरुष भगवानको पूजामें पुष्प, फल, वाभ, दूब, पत्र, जल आदिमें सचित्तपनेका दोष मानते हैं और उनका निषेध करते हैं वे महापापी हैं, देखो श्रीसमन्तभद्र स्वामीने लिखा है- पूज्यं जिनं त्वाचंयतो जिनस्य सावधलेशो बहुपुण्यराशो । दोषाय नाल कणिका विषस्य न दूषिका शीतशिवाम्बुराशौ ॥ अर्थात् भगवानकी पूजा करनेमें थोड़ा-सा पाप होता है परन्तु पुण्य बहुत बड़ा होता है। उसके सामने वह पाप कुछ चीज नहीं है। शोतल अमृतके समुद्रमें भला एक विषको कणिका क्या दोष उत्पन्न कर सकती है ? [२ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवसुनंदिने भी लिखा है मालाधूपप्रदीपायैः सचित्तैः कोऽर्चयज्जिनम् । सावद्यसंभवं वक्ति यः स एवं प्रबोध्यते॥ पर्चासागर जिनार्चानेकजन्मोत्थं किल्विषं हन्ति यत्कृतम् । सा किन्न यजनाचारैभवसावद्यमगिनाम्॥ [ २५७ ] पर्यन्ते यत्र वातेन दन्तिनः पर्वतोपमाः। तत्राल्पा शक्तितेजस्सु का कथा मषकादिषु ॥ मुक्तं स्यात्प्राणनाशाय विषं केवलमंगिनाम् । जीवनाय मरीच्या दिसदोषधविमिश्रितम् ॥ तथा कुटुम्बभोगार्थ आरंभः पापकृद् भवेत् । धर्मकृद् दानपूजादो हिंसालेशो मतः सदा ॥ अर्थात् जो पुरुष माला, वोप, धूपाविकसे पूजा करता है उसको जो पापलेश बतलाता है उसके लिए कहते हैं कि भगवानकी पूजा अनेक पापोंको नाश करनेवाली है फिर भला वह यत्नाचारपूर्वक होनेवाले प्राणियोंके पापोंको क्यों दूर नहीं कर सकसो । जिस हवासे पर्वतके समान हाथी बह जाते हैं उसके सामने थोड़ी-सी शक्ति और थोड़ेसे तेजको धारणा करनेवाले मच्छरों को काला बात है। जो विष अकेला खाया जाय तो प्राणनाश कर देता है परन्तु मिरच आदिके सम्मेलनसे बही विष जीवनदाता हो जाता है। इसी प्रकार कुटुम्ब वा ॥ भोगोपभोगके लिए किया हुआ आरम्भ पाप करनेवाला होता है परन्तु धर्मको बढ़ानेवाले दान, पूजा आदिमें । वही आरम्भ पुण्य बढ़ानेवाला होता है। इस प्रकार पूजाके निन्दकोंका स्वरूप बतलाया विवेकी पुरुषोंको हट नहीं करना चाहिये । हट जिनधर्मका नाश करनेवाला है इसलिये ऊपर लिखे हुए शास्त्रोंसे निश्चय कर लेना चाहिये और शास्त्रानुसार गंध, 1 पुष्पादिक लगाना चाहिये । केवल अपने मनसे अपनी स्वकल्पित बुद्धिसे हट ग्रहण कर निश्चय किये बिना जो में व्यर्थ ही अनेक प्रकारके वाचालपनेसे कहते हैं तथा शास्त्रोंका प्रमाण देते नहीं उनके मिथ्यात्वके बंधकी श्री वीतराग ही जानते हैं । जो अपनी बुद्धिके बलसे व्यर्थ ही बाद करते हैं उससे मौन धारण करना योग्य है।। इस प्रकार प्रसंग पाकर थोड़ा-सा लिखा है फिर भी विशेष स्वरूप जाननेके लिए प्रश्नोत्तरसहित खण्डन-मण्डन पूर्वक चर्चा करना श्रेष्ठ है। प्रश्न--यहाँपर कोई यह कहे कि हम तो इस कथनको नहीं मानते । अभिषेक, अप्रमाण जल फैलाया ३३ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाता है और बड़ा आरम्भ किया जाता है। इसलिए हम तो केवल प्रतिमाके ऊपरको धूलि, माले, मैल आदि-* को मलिनताको दूर करनेके लिये तथा उसको उज्ज्वल रखनेके लिये थोड़ेसे जलमें वस्त्र भिगोकर प्रतिमाको । वर्चासागर पोंछ लेते हैं। तुम्हारे समान घोर आरम्भ नहीं करते। इन आरम्भोंमें कोई पुण्य नहीं है इनमें तो पाप हो पाप, : २५८ } है। इन अभिषेकादिकमें कार्य वा फल तो थोड़ा है और कर्त्तव्यता वा आरम्भ बहुत है ऐसा कार्य यथार्थ धवानो नहीं करते। यह तो मिथ्यातियोंका कार्य है । इस प्रकार नाना विकल्पजालरूप विरुद्ध बचन कहते । है उसका समाधान इस प्रकार है। पहला विचार यह है कि यथार्थ श्रद्धानी किसको कहते हैं। जो भगवानके कहे हुए तत्त्वोंका श्रद्धान करता है वही यथार्थ श्रद्धानी होता है। ऐसे श्रद्धानके बिना केवल जातिश्रवानी, नामश्रद्धानी अथवा वचनबद्वानो तो यथार्थश्रद्धानी हो नहीं सकते। दूसरी बात यह है कि मुनि वा श्रावकके त्रिकाल करनेको सामयिकमें चैत्यभक्तिके पाठमें नीचे लिखे अनुसार लिखा है इच्छामि भने बेग्यभत्ति काओसग्गो को तस्सा लोचेओ अहलोय, तिरियलोय, उड्ढलोयम्मि, किट्टिमा किट्टिमाणि, जाणि जिणचेइयाणि, ताणि सव्वाणि, तीसु वि लोएसु, भवणवासिय, वाणविंतर, जोइसिय, कप्पवासियत्ति, चउबिहा देवा सपरिवारा दिव्वेण गन्धेण, दिवेण पुफ्फेण, दिव्वेण धुव्वेण, दिव्वेण चुण्णेण, दिव्वेण वासेण, दिब्वेण । हाणेण, णिच्चकालं अंचंति, पुज्जंति, वंदंति, गमंसंति। अहमवि इह संतो तत्थ संताई #णिच्चकालं अंचेमि, पजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मरखओ, बोहिलाहो, सुगइगमणे, समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झ । ___अर्थात् तीनों लोकोंमें कृत्रिम-अकृत्रिम चैत्यालय हैं तथा उनमें जो जिनप्रतिमा विराजमान हैं उनकी पूजा भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क तथा कल्पवासी चारों प्रकारके देव करते हैं। वे देव देवोपनीत गंधसे, दिव्य पुष्पोंसे, दिव्य धूपसे, दिव्य चूर्णसे, दिव्य वाससे, दिव्य स्नपनसे ( अभिषेकसे ) सदा अर्चा करते हैं, पूजा करते । हैं, वंदना और नमस्कार करते हैं । अतएव सामायिक करनेवाला में भी यहाँ ही बैठा हुआ सदा अर्चा करता। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हूँ, पूजा करता हूँ, वंदना करता हूँ, नमस्कार करता हूँ। ऐसा करनेसे मेरे दुःख नाश हों, कर्म नाश हों, रत्नत्रयको प्राप्ति हो सगति में जन्म हो, समाधिमरण हो और भगवानके गुण प्राप्त हों। चर्चासागर इस प्रकार कथन किया है सो क्या देवोंके जिमानोंमें वा आवासों में भी प्रतिमापर धूलि आदि मलि[२९९ ] नता जम जातो है जो देव उसका अभिषेक करते हैं तथा समवशरणमें केवलियोंको छोड़कर मानस्तम्भादिकों पर जो जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं उनको इन्दादिक देव अभिषेकपूर्वक पूजा करते हैं ऐसा जिनसेनाचार्यने आदिपुराणमें लिखा है। सो पया यहां भी प्रतिमाकी मलिनता दूर करने के लिये अभिषेक किया जाता है वहींपर बिना अभिषेकके पूजा क्यों नहीं की जाती ? क्या आप लोगोंको यह श्रद्धान नहीं होता कि समवशरणको भूमि वर्पणके समान निर्मल और निस्कंटक है वहां मलिनता कहांसे आई ? सो खूब विचार कर लेना चाहिये। । इस कथनको कहनेवाले लोक पहले लिख चुके हैं। इसके सिवाय श्रीपालके जीवने पूर्वभवमें सरोवरके किनारे किसो मुनिको देखकर कहा था कि यह मुनि कैसा मलिन दिखता है मानों इसे कोड़ रोग हो गया हो । यह कभी स्नान नहीं करता, इसको देह महा । मैली ग्लानिरूप अमनोज्ञ है जो देखो भी नहीं जा सकती। श्रीपालके जीवकी यह बात सुनकर उसके साथी । सातसौ सुभटोंने भी यह बात मान ली और उन्होंने भी कहा कि हां यह ऐसा ही दिखता है । यह सुनकर श्रीपालके जीवने कहा कि इसको पकड़कर इस सरोवर में डुबा वो तथा पकड़ कर बहुतसे गोते लगाओ। अपने । राजाको यह बात सुनकर उन सुभटोंने वैसा ही किया और उन मुनिराजको भारी उपसर्ग किया। उसी पापकर्मके उवयसे राजा श्रीपालके तथा उनके साथी सातसौं योद्धाओंके महा कोड़ रोग उत्पन्न हुआ था तथा के सातसौ योगा समुद्र में पड़कर इसे थे इस प्रकारका कथन अनेक ग्रन्पोंमें विस्तारके साथ लिखा है। जिन लिंगकी ( मुनि वा प्रतिमा आदिको) विचिकित्सा वा ग्लानि करनेका फल सम्यक्रमका नाश करनेवाला और महापाप बंधका कारण है। इसी प्रकार तुम्हारा भी यह कहना है जो प्रतिमाजी मैली हो जाती हैं, बुरी लगती हैं, अच्छी नहीं लगतीं इसलिये जलके वस्त्रसे पोंछकर उज्ज्वल बार लेते हैं । तुम लोग अभिषेकसे होनेवाले पुष्पको नहीं समझते । एक विद्याधर अपनी बल्लमाके साथ मेरु आदि पर्वतोंको यात्राके लिये जाता था। मार्गमें एक महा। रामायाराम Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर २६० ] वन मिला उसमें एक महामुनि विराजमान थे उन मुनिके शरीर में उनके अशुभ कर्मके उदयसे अत्यन्त दुस्सह दुर्गन्धमय रोग हो गया था। उसकी दुर्गन्ध हवाके सहारे उस विद्याधरके विमान तक फैल गई थी तथा उस विद्याधरको उस दुर्गन्धसे उत्पन्न हुई ग्लानि सहन नहीं की गई थी इसीलिये वह नीचे उतरा और उसने देखा कि महा मुनिराज ध्यानमें लीन हुए खड़े हैं तदनन्तर उसने उनके शरीरपर वाधन चंदनका सर्वांग लेप किया । उस विद्याधर ने वह लेप कुछ भक्तिभावसे नहीं किया था किंतु अपनी ग्लानि दूर करनेके लिये किया था । उस के लगते ही उसकी सुगन्धिसे मुनिराजके शरीरपर बहुतसे भ्रमर आकर लग गये थे जिनसे उन मुनिराजको भारी उपसर्ग हुआ था। जब वे दोनों विद्याधर विद्याधरणी मेरुकी यात्रा कर वापिस आये तो उन्होंने उस भारी अनर्थको देखा। तब उन्होंने अपनी विचिकित्सा वा ग्लानि रूप भावोंकी निन्दा की और उन मुनिराजका उपसर्ग दूर किया। तब अपनी निन्दा करनेसे उस विद्याधरका थोड़ा-सा पाप दूर हुआ। बाकीके पाप कर्मके उदयसे अगले जन्म में वह विद्याधर किसी सेठकी पुत्रो हुआ । तथा कंचन समान ( सुवर्णके समान ) सुन्दर और सुगन्धमय शरीर हुआ । इस प्रकार जिनप्रतिमा, जिनधर्म और जिनलिंगके ( मुनिराज के ) ग्लानि करनेका फल तथा उस पाप फो बूर करनेके लिये अभिषेक तथा चंदनाविक गंधके लगनिका कथन षट्कर्मोपदेश रत्नमाला में गंधकी पूजाके फलमें विस्तार के साथ बतलाया हूँ । सो कहाँ तो शास्त्रोंका यह कथन और कहाँ तुम्हारा यह उनकी निन्दा करनेवाला वचन सो भी तुमको विचार करना चाहिये । Are कोश तथा षट्कर्मोपदेश रत्नमाला में या और भी अनेक ग्रन्थों में ज्येष्ठ जिनवर व्रतके विधानमें ब्राह्मणी की पुत्री तथा कुम्हारको कथा लिखा है। इन्होंने श्रोजिनप्रतिमा की जलकी पूजाके समय कुम्भके ( घटके) जलसे अभिषेक किया था तथा अनुमोदना की थी सो उसका फल उनको अलग-अलग महापुण्यरूप मिला था । ऐसा शास्त्रोंमें कथन है । तथा ब्राह्मणीको सासुने उस अभिषेककी निश की थी सो उस निदाके पापसे उसके मस्तकपर कुम्भके समान बड़ा भारी फोड़ा हुआ। तथा वह महा दुर्भागा और अत्यन्त निद्यनीय हुई थी । तदनन्तर उन सब जीधोंने मुनिराजसे अपने पहले भय सुने थे उनको सुनकर उसने उस ब्राह्मणी के जीवके चरण स्पर्श किये थे । उन चरणोंके स्पर्श करनेसे ही उसका वह फोड़ा अच्छा हो गया था । तब उसने [ २६० Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चासागर [२६१ ] अपनी बड़ी निंदा की थी। उस आत्मनिवासे ही उसका बाको बचा पाप दूर हो गया था, वह भगवानको भक्तिी करने लगी भी और उससे यह स्वर्गमें उत्पन्न हुई थी । इस कथाका वर्णन विस्तारसे उन ग्रन्थों में लिखा है। इसके सिवाय इन्हीं दोनों ग्रन्योंमें तथा और भी शास्त्रोंमें एक पुरंदर विधान लिखा है वह इस प्रकार है। एक किसी विष्णुभट्ट नामके ब्राह्मणने किसी मुनिराजसे पुरंवरविधान व्रत लिया था। उसने पंचामृतका अभिषेककर फिर जल, गंधाविकसे भगवानका महाभिषेक किया था और अष्ट द्रव्यसे पूजा की थी सो उसके। फलसे प्रथम तो उसका दारिद्र दूर हो गया या फिर उसने राजपद प्राप्त किया था और अंतमें समाधिमरण धारणकर सौधर्म नामके प्रथम स्वर्ग में सौधर्म नामका इंद्र हुआ था। देखो कहां तो ऐसा करनेवालोंके महान् पुण्यरूप फलका वर्णन है और कहाँ तुम्हारे मिथ्या और खोटे। वचनोंसे उन पुण्यकार्योको निंदा और निषेधका कथन है। क्या इससे तुमको दोष नहीं लगेगा? परंतु जीवको है जैसी होनहार गति होती है उसकी बुद्धि भी वैसी ही उत्पन्न हो जाती है। यदि कोई शास्त्राविकोंके प्रमाणसे उपदेश देता है तो भी उसको सत्य बात भी झूठी दिखाई पड़ती है । तथा अपनी झूठी बात भी सत्य मालूम पडती है। ऐसे लोग सैकडों शास्त्रोंके वचनोंके तो सबको मिथ्या मानते हैं और अपने वचन सत्य मानते है जो शास्त्रोंकी बात छोड़कर उस मिथ्याभाषण करनेवालेके मुखसे निकली हुई बात झट मान लेते हैं । यदि एक वा दो शास्त्र हों तो न माने जात्रं परंतु अनेक शास्त्र भी सब असत्य माने जाते हैं और उसके निवक वचन सत्य माने जाते हैं यह सर्वया अयोग्य है । जैनधर्मी तो सत्य वचनोंको मानकर सूत्रोंका संग हो छोड़ देते हैं। । तथा जो ऐसे मिथ्याभाषियोंका विश्वास कर और जिन वचनोंसे अचि कर अनेक प्रकारके विपरीत कथन करते हैं तथा अपनेको अपने ही मुखसे श्रद्धानी बतलाते हैं सो सब मिथ्या है। इस, अभिषेक, महाभिषेक, जिनपूजा प्रतिष्ठा, तीर्थयात्रा, देवदर्शन, वंदन, पूजन, प्रभावना अंग, रथयात्रा, राग्निपूजन आदिम जो स्यकपोलकल्पित महापापरूप वचन कहते हैं अनेक प्रकारको निवारूप बकवाद | करते हैं सो इसका कथन पहले लिख हो चुके हैं वहाँसे देख लेना चाहिये। इस अभिषेकपूर्वक पूजा करने के समान गृहस्यों के लिये और कोई भी महापुण्य नहीं है जो लोग इसकी निदा करते हैं वे निंदनीय हैं ऐसे लोगोंको सुभाषित प्रन्थों में सर्वचांडाल कहा है । यथा Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर [ २६२] Tha-DATA- ARASHTRAre PHATRA है पक्षीनां काकचांडालः पशुचांडालगर्दभः । मुनीनां कोपचांडालः सर्वचांडालनिंदकः ॥ __ अर्थात् "पक्षियोंमें कौआ चांडाल है, पशुओंमें गधा चांडाल है, मुनियों में क्रोधो चांडाल है और निवा करनेवाला सबसे बढ़कर चांडाल इसके सिवाय और भी लिखा है यथा। फलस्य कारणं पुष्पं फलं पुष्पविनाशकः । पुण्यस्य कारणं पापं पुण्यं पापविनाशकः ॥ धर्मस्य कारणं पुण्यं पुण्यं धर्मविनाशकः । मोक्षस्य कारणे धर्मः धर्मः मोक्षस्य साधकः ॥ __ अर्थ---जैसे वृक्षमें फल लानेका कारण पुष्प है। परन्तु वह फल पुष्पका नाश करनेवाला है। भावार्थ-पहले पुष्प आता है फिर फल लगता है और जब फल लगता है तो पहलेके लगे हुए पुष्पोंका नाश कर उत्पन्न होता है । इसलिये वह फल पुष्पोंका नाश करनेवाला है। इसी प्रकार धर्मसेवन करनेरूप पुण्यका कारण गृहस्थधर्म में होनेवाले आरम्भमय पाप हैं अर्थात् देवपूजाको सामग्री धोना, मुनियोंको वान वेनेके लिये रसोई बनाना आदि खेतो, व्यापार आदि छहों कर्मोसे उत्पन्न हुए आरम्भमय पाप पहले होते हैं तदनन्तर वान 1 देने, पूजा करने आदि शुभ कार्योंसे पुण्य पोछे उत्पन्न होता है परन्तु वह पहले किये हुये समस्त पापोंका नाश करने वाला है। पूजा करने, वान देने आदिसे जो पुण्य होता है वह जिन आरम्भादिक पापोंसे उत्पन्न हुआ था उन आरम्भादिक पापोंको अवश्य नष्ट कर देता है। जो पुरुष अभिषेक, पूजा, तीर्थयात्रा, प्रतिष्ठा, वान, 1 आदि कार्यों में पहले आरम्भजनित पाप जानकर नहीं करते हैं उनके वह महापुण्य भी उत्पन्न नहीं होता है । जिसने मुनिराजको वान नहीं दिया, मुनिराज आये हुये पोछे लौट गये तब उसके पुण्यका तो अभाव होता हो है किन्तु साथमें महापाप भी लगता है क्योंकि श्रावकके आरम्भपूर्वक ही पुण्य होता है। इसके सिवाय एक बात यह भी है कि देवपूजा करने या दान वेनेसे अनेक जन्मोंके महापाप कट जाते हैं। तो फिर उस पूजा और वान वेनेमें जो आरम्भजनित थोड़ा-सा पाप हुआ है वह तो अवश्य हो कट जाता है । और उसी समय कट जाता है । यदि ऐसा न माना जायगा तो जिस पूजा, दानसे एक बारका पाप भी नहीं कट सका तो फिर जन्म-जन्मान्तरके पाप किस प्रकार कट सकते हैं ऐसा भी निश्चय करना पड़ेगा क्योंकि । जिससे कुत्ता भी न जीता गया वह हाथीको किस प्रकार जीत सकेगा। दूसरी बात यह है कि ऐसा ही मान । reatiewedressmeta ATRATHIPARISTRIESIRE र Hemra- Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्षासागर [२६३ ] लिया जायगा अर्थात् दान, पूजा आविसे तज्जनित आरम्भमय पाप दूर नहीं होते हैं ऐसा मान लिया जायगा। तो फिर दान, पूजाको कुछ सफलता ही नहीं रहेगी। तथा जब दान, पूजाको सफलता ही नहीं होगी तो फिर बिना कारणके उससे फलको प्राप्ति किस प्रकार हो सकेगी। इसलिये जो विधेको पुरुष है वे पहले थोड़ा-सा धनी खर्च करनेपर यदि बहत-सा लाभ होता हो तो उस कार्यको करते ही हैं इसी प्रकार ये सब पुण्य कार्य है तथा | जो कृषण हैं, अज्ञानी वा रंक हैं वे बहुतसे लाभके लिए भी अपना थोड़ा-सा धनका खर्च भी नहीं देख सकते। इसलिए वे व्यापाररहित होते हुए आगामी लाभ नहीं उठा सकते। जिस प्रकार पुष्प फलका कारण है उसी प्रकार पूजा, वान आदि आरम्भोंसे होनेवाला थोड़ा-सा पाप भी महापुण्यका कारण है। जो मनुष्य पुष्पको देख कर उसीको बुढ़तापूर्वक पकड़ लेता है और फलको छोड़ देता है यह अत्यन्त मूर्ख गिना जाता है क्योंकि वह पुष्प भी अधिक दिन तक नहीं ठहरता थोड़े ही दिनमें सूख जाता है तथा उसका फल भो उसे नहीं मिलता। इस प्रकार उसके समान कोई मूर्ख नहीं ठहरता। इसी प्रकार थोडेसे आरम्भजनित पापके डरसे जो धर्मके कारण । पुण्य कार्योंको नहीं करते हैं वे अवश्य ही पुण्यके अभावसे कुगतिमें जाकर उत्पन्न होते हैं। जिस प्रकार फल लगते ही पुष्पका नाश हो जाता है उसी प्रकार दान, पूजा आदिसे उत्पन्न हुए। पुण्यके लगते हो उन कार्योंके आरम्भसे उत्पन्न पाप अवश्य नष्ट हो जाता है । यदि ऐसा न हो तो फिर तुम जो पूजा, दानादिक करते हो वह भी निष्फल है । तथा कर्तव्यता महाहिंसा और आरम्भादिक महापापपूर्वक होती है क्योंकि संसारमें काई भी कार्य और स्थान निरवद्य ( पापराहत ) और निर्जीव नहीं है । इसी प्रकार पुण्य धर्मका कारण है और वह धर्म उसी पुण्यका उत्पादक है तथा वह धर्म मोक्षका कारण और मोक्षका साधक है । इस अनुक्रमसे परस्पर हेतु रूप हैं। जो मनुष्य आरम्भादिक थोड़ेसे पापके उरसे महापापोंको नाश करनेवाले महान् पुण्यबंधको छोड़ देते । हैं वे धर्मके कारण जो पुण्य हैं उसके अभावसे मोक्षके कारण और पापके नाश करनेवाले धर्मको भी छोड़ देते हैं। और धर्मका त्याग कर देनेसे महापाप कर्मके उदयसे नरक निगोवारिक दुर्गतियोंको प्राप्त होते है। यह ऐसी । दुर्बुद्धि बिना अशुभ गति बंधके उत्पन्न नहीं हो सकतो। कोई दो मनुष्य व्रव्य उपार्जन करने के लिए घरसे निकल कर रत्नद्वीपको चले। मार्गमे चलते-चलते ।। RETATE-TEASERरासस [ २६ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर - २६४ ] अनेक प्रकार के कष्ट सहते चोर, भूख, प्यास, ठण्डी, गर्मी, वर्षा आदिके दुःख सहते-सहते अनुक्रमसे समुद्र के किनारे पहुँचे। वहाँ जाकर वे दोनों ही जहाजमें बैठे परन्तु जहाजवालेने वहां ले जानेके लिये भाड़ा माँगा सो एक पुरुषने निकाल कर वे दिया परन्तु दूसरा मनुष्य तुम्हारे समान था सो विचार कर कहने लगा कि "भाई अनेक कष्ट सहकर तो यहाँ तक आये । अब यहाँ सबसे पहले अपने पाससे दाम देने पड़ेंगे रत्नद्वीप पहुँचनेपर न जाने रत्न मिले या न मिले। यदि न मिले तो दाम ही हो जायेंगे इसलिए इस देनेवाले समान हमसे तो दिया नहीं जाता। पहलेसे हो घाटा देनेवाले व्यापारको भला कौन करता है ? इसलिए यहाँ ही रहना ठीक है अपने पाससे द्रव्य देना ठीक नहीं" ऐसा विचार कर वह उस जहाजसे उतर पड़ा और निष्फल होकर उसने वापिस घरका रास्ता लिया । वैवयोगसे मार्गमें चोरोंने उसका सब धन लूट लिया वह दरिद्र हो गया और घर-घर भीख माँगता हुआ पेट भरने लगा। इस प्रकार अपनी आयु पूर्ण कर मर गया। इस प्रकार अत्यन्त कृपणतासे उसने लोकनिद्यगति पायी । ५ दूसरा मनुष्य जहाजका भाड़ा देकर रेस्नद्वीप पहुँचा वहांसे बहुमूल्य अनेक रत लाया तथा फिर थोड़ासा जहाजका भाड़ा देकर उस जहाजमें बैठकर अपने घर आ पहुँचा। वहाँ आकर उसने पूजा, दान तीर्थयात्रा के द्वारा अनेक प्रकारका पुण्योपार्जन किया और फिर अन्तमें स्वर्गारिक शुभगतिको पाकर तथा वहाँके अनेक सुखोंको भोगकर क्रमसे परमपदको प्राप्त हुआ । इस प्रकार यह उदाहरण है । आपके समान बुद्धिको धारण करनेवाले पुरुष थोड़ेसे पापके आरम्भके डरसे महापुष्यके कारण ऐसे दान, पूजाविकके फलको छोड़ देते हैं सो यह बुद्धिमानीका काम नहीं है। ऐसे पुरुष तुच्छ बुद्धिवाले कहलाते हैं । जिस प्रकार अग्नि से जला हुआ पुरुष उसकी शान्तिके लिए किसी अच्छे वैद्यके द्वारा बतलाये हुए क्षार पदार्थोंसे धोता है और फिर अग्निसे सेकता है। यदि वह पुरुष किसी कुवैद्यके कहनेसे उस जले हुएके ऊपर शीतल जल डाल दे तो महाउपद्रव उत्पन्न हो जाय । यदि अग्निसे जला हुआ वह पुरुष क्षार पदार्थसे धोने और अग्नि सेकसे डर जाय और उस कुवैद्यके वचन मानकर सुवैद्यके वचनोंको छोड़कर शीतल जलसे धो डाले तो उसकी मूर्खताका क्या पूछना ? किसी एक मनुष्यने अपने किसी कुमित्रके कहनेसे अधिक भांग पी ली उसके नशेसे उसको बहुत दुःख [ २६ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुमा तब किसी अच्छे वैद्यने उसको थोड़ा-सा सर्पफेन अर्थात् अफीम देवो उसके खानेसे उसका नशा जाता रहा है और वह सुखी हो गया। यह देखकर कोई कुवैद्य कहने लगा कि यह उपाय तो अनर्थ करनेवाला है क्योंकि बर्षासागर इसको भांगका नवा हो हो रहा है यदि इसके ऊपर फिर अफीमका विष दिया जायगा तो यह मर जायगा। २६५ } इस प्रकार उस सुधको निन्दा कर उसको शीतल जलमें रहने की क्रिया बतलाता है परन्तु उससे उसका नशा । और बढ़ जाता है। इसी प्रकार पापोंमें भी अनेक प्रकारके भेव हैं एक तो असि, मसि, कृषी, वाणिज्य, शिल्प, पशुपालन # आवि गृहस्थ सम्बन्धो पाप हैं । दूसरे हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रहरूप पाप हैं। तीसरे चरको, उखली, चल. बहारी. पानी आदिसे होनेवाला पाप है। ये सब पाप निस्य होते हैं और इन्हीं पापोंसे यह जीव नरकादिक दुर्गतियों में जाता है। इन्हीं सब पापोंको दूर करनेके लिए तथा महापुण्य उपार्जन करनेके लिए परम्परासे मोक्षका साधनरूप धर्मके लिए भगवानने षट्कर्म करनेवाले गृहस्थोंको योड़ी-सी आरम्भजनित हिंसासे होनेवाले पूजा, दान आदि उपाय बतलाये हैं क्योंकि गृहस्थोंको असि, मसि आदि छहों कर्मोंसे अथवा इन्द्रियों के विषय में भोगोंसे होनेवाले त्रस स्थावर जीवोंकी हिंसासे महापाप उत्पन्न होता है। ऐसे आरम्भी श्रावकोंके लिये बान, पूजा आदि आरम्भमय कार्योंसे हो पुण्य उपार्जन हो सकता है । जो मुनिराज अनारम्भी हैं सब तरहके बारम्भ। के त्यागो हैं उनके उन आरम्भोंके त्यागसे हो धर्म होता है । गृहस्थ धर्ममें रहकर भी जो थोड़ा-सा मुनियोंका सा आचरण पालन करते हैं उनके लिए ऐसा करना आमाधर्म नहीं है । पूर्वाचार्योंके वचनोंके विरुद्ध परम्परासे । चले आये मार्गका बाथ करना सर्वथा अयोग्य है । भावार्थ-ऐसा करना अपने कर्तव्यको विपरीतता है । देखो दूसरोंके प्राणोंफो पोड़ा पहुंचानेमें धर्म नहीं है साक्षात् पाप है इस बातको सब जीव मानते हैं अन्य मतो भी मानते हैं। सोही लिखा है परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् । अर्थात् "दूसरोंका उपकार करना पुण्य है और दूसरोंको पीड़ा पहुंचाना पाप है।" ये वेद व्यासके वचन हैं। श्रीआचार्य उमास्वामीने भी कहा है-"प्रमत्तयोगात् प्राणव्यरोपणं हिंसा" अर्थात् कषायोंके निमित्तसे । दूसरों के प्राणोंका घात करना हिंसा है" इत्यावि बहुतसे वचन हैं और सब निस्सन्देह रूप है यवि दूसरोंको । न्यायालयाच्याiciana (२६, Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर २६६ ] दुःख पहुंचानेमें कोई बया, धर्म बतलावे तो सब लोग उसको झूठा कहते हैं। तथा है भी इसी प्रकार । परन्तु । । यदि किसी जीवके बात-व्याधि ( वायुका रोग) हो जाय, विसूचिका होकर उदरमें शूल हो जाय अथवा किसी बालकके ऊवश्वास आदि रोग हो जाय अथवा सन्निपात, तिल्ली आदि अनेक प्रकारके रोग हो जाय और कोई परोपकारी भव्य पुरुष उसपर क्याकर उस रोगको शान्त करनेके लिए लोहेको जलती हुई लाल सलाईसे दाग । ।। देकर शरीरके किसी एक भागको अथवा अधिक भागको जलाता है और उस समय वह रोगी अथवा बालक उस जलानेको वेदनासे दुःखी होकर करुणाजनक त्राहि-त्राहि पुकारता हुआ चिल्लाता है। इसी प्रकार गाय, बैल, घोड़ा आदि पशुओके हाथ, पांव बांधकर तथा पृथ्वीपर पटक कर किसी रोगको दूर करनेके लिये उपकारी पुरुष वाग देते हैं और वे पशु उसको भारी वेदनाको सहते हैं । इसी प्रकार यदि किसीके फोड़ा हो जाता है तो उसके उस फोड़ेको शस्त्रसे फाड़ते हैं, चोरते हैं, सोते हैं इत्यादि आसुरी उपाय करते हैं उनसे यह जीव बड़ा भारी कष्ट पाता है। तथा ऐसे उपायोंसे कोई जीव मर भी जाता है। कोई-कोई भव्यजीव किसी मुनिक बन । वेदनाओंके हो जानेपर यही उपाय करते हैं तथा ऐसा उपाय करते-करते भी किसी-किसीका मरण हो जाता है। परन्तु ऐसे उपाय करनेवाले परोपकारीको हिमा होते हुए भी क्या, धर्मका हो महापुण्य होता है। लौकिकमें भो ऐसे पुरुषको हत्याके पापका प्रायश्चित्त नहीं देते हैं। इसका विशेष वर्णन श्रीअमृतचन्द्रसूरिकृत 'पुरुषार्थसिद्धघुपायमें स्पष्ट रीतिसे किया है । तथा इस ग्रन्थमे भी पहले चर्चाओं में लिखा है वहाँसे देख लेना चाहिये। इसी प्रकार असत्य त्याग व्रतको धारण करनेवाला अन्य जीवोंको हिसा होनेक समय केवल बया-धर्मके लिए उन जीवोंको हिसा न होने देनेके लिए सत्यालको छोड़कर असत्य भाषण करता है तो भी उसका सत्यत्रत भंग नहीं होता ऐसे भगवानके वचन हैं। इसका भी कारण यह है कि हिंसा करनेवाला जानबूझकर हिंसा करता हो और उससे वह हिंसा न हो सके तो भो उसको उसके पापका फल मिलता ही है यदि हिंसाका उद्देश्य न हो केवल धर्मके लिए कोई पुण्य कारण किया जाय और उसके निमित्तसे अनाश्रित हिंसा हो । जाय तो उसका फल क्यारूप ही लगता है क्योंकि वह हिंसा जानबूझ कर तो को नहीं है तथा हिंसा करनेके , भाव भी नहीं हैं। १. यह ग्रंथ विस्तृत हिन्दी टीका सहित भारतीयजैनसिद्धांतप्रकाशिनो संस्था नं. १२ विश्वकोष लेन, पोस्ट बाघबाजार, कलकत्तामें छपा है और वहाँसे मिल सकता है। PareaHITHAIHIPHATITISHADARPA N Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rees देखो साक्षात् हिंसा करमेवाला राघव महामरस्य तो नरक जाता है सो तो ठीक ही है क्योंकि वह बड़े-बड़े जलचर समान जीवोंको भक्षण करता है, इसलिये वह नरक जाता है। परंतु उसके कान या आंखके पलक में रहनेवाला तंदुल वा चावलके समान शरीरको धारण करनेवाला शालिसिक्य नामका मरस्य केवल कान वा अर्घासागर २६७ ] । नेत्रके मलको खाकर जोवित रहता है परन्तु जोवघातके बिना भी वह नरफमें जाता है । इसका कारण केवल भावहिंसा है। उसके भावहिंसा सबा बनी रहती है इसीलिये यह नरक जाता है। यह सब कथन पुरुषार्थसिद्धचुपायसे जान लेना चाहिये । इसका वर्णन पहले भी कर चुके हैं। अतएव भगवानके वचनोंको प्रमाण मानकर संशय मिथ्यात्वमें नहीं पड़ना चाहिये और न अनेक प्रकारका विपरीत कथन करना चाहिये । जो कोई ऐसा विपरीत कथन करता है उसके पांचों प्रकारके मिथ्यात्वका दोष लगता है। तथा मिथ्यात्वका दोष लगनेसे सम्यक्त्वको उत्पन्न करनेवाला श्रद्धान नष्ट हो इसलिये जिनपूजा, प्रतिष्ठा, तीर्थयात्रा, रात्रिपूजन, अभिषेक, दान, धर्म आदिमें पापरूप श्रद्धान नहीं करना । चाहिये । जो ऐसा विपरीत अखान करते हैं वे ऊपर कहे हुये शास्त्रोंके, उनका कर्ता आचार्योके तया परंपरासे पंच परमेष्ठोके, जिनधर्म, जिनचैत्य और जिनचैत्यालयके विरोधो समझे जाते हैं। उन शास्त्रोंके प्रमाण पहले । अलग-अलग सबके दे चुके हैं उनको समझ कर विवेको जोवोंको जिनेन्द्रदेव, धर्म, गुरु, शास्त्रका विनय करना चाहिये उनको आजा मानकर उनमें कहे हुये मुख्य धर्मको धारण करना चाहिये । जो ऐसा नहीं करते हैं वे देव, धर्म, गुरु-शास्त्रको निवा करनेवाले मिथ्यात्वी कहलाते हैं। प्रश्न- यहाँपर कोई शंका करता है कि भाई तुम कहते हो सो ठीक है परन्तु यदि निरवध ( सचित्त। घातके दोष रहित ) पूजा आदि हो सकती है तो वहीं करनी चाहिये। समाधान-परन्तु उसका उत्तर यह है कि श्रावकके लिये मुख्यतासे ऐसा होना असंभव है । तुम जो पूजा करते हो वह भी निरवधा ( आरम्भादिफके पापसे रहित ) दिखाई नहीं पड़ती। यदि तुम फिर भी यह कहो कि हम तो निरवद्य ही पूजा करते हैं तो सुनो। सबसे पहले तुम स्नान करते हो सो वह भी प्रसुक जलसे नहीं करते । पूजाके द्रव्य थोते हो सो भी प्रासुक जलसे नहीं धोते । बादाम, सुपारी, नारियल, इलायची आदि सावध फलोंको छोड़कर और कोई निरवद्य फल नहीं चढ़ाते, भगवानका प्रक्षालन करते हो अथवा जल westersnea emaweTaper- Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थारा देते हो उसमें बिना उपवेशके प्रासुक गर्म किया हुआ दूसरेके घरका जल काम नहीं लाते। घरसे निकल कर ईर्यासमितिसे जिनालय नहीं जाते। वर्शन, वंदना, पूजा आदि कार्योको प्रतिलेखन वा प्रतिक्रमणपूर्वक नहीं चर्चासागर करते, तीर्थयात्रा निकलवाते हो, जलयात्रामें जाते हो और साधन मिलाकर इन सब कार्योको देखते हो परंतु ॥ [ २६८ ] इन सब कार्यो से एक भी कार्य ऐसा नहीं है जो विना सावधयोगके होता हो। जो नवीन जिनमंदिर बनवाते हो । उसमें आरम्भाविक महा हिसा होता है, फिर उसमें जिनमूर्ति विराजमान करते हो, चारों ओर बहतसा सामान इकट्ठा करते हो, अनेक प्रकारके पकवान बनाते हो उसमें बहतसा जल फैलाया जाता है तथा और भी कई B प्रकारसे बहुतसे त्रस स्थावर जीवोंकी हिंसा होती है। जो प्रत्यक्ष सबको दिखलाई पड़तो है फिर इतना आरम्भ क्यों करते हो, अपनी शक्तिके अनुसार द्रव्य देकर सीधी तैयार बनो बनाई प्रासुक हवेली मोल लेकर उसमें भगवान । विराजमान क्यों नहीं कर देते ? अथवा अपनी बनी हुई सुन्दर हवेलीमें हो विराजमान क्यों नहीं कर देते ? अपने लिये और हवेली बनवा लेना चाहिये क्या इसमें पुण्य नहीं है ? शिल्पकारसे भूति मोल लेकर योंही बिना प्रतिष्ठाके विराजमान कर पूजा क्यों नहीं करते हो? विनय, भक्ति आदि सब तो अपने भावोंके आधीन हैं फिर प्रतिष्ठा आदिका व्यर्थ आरम्भ क्यों करते हो? प्रयोजन तो केवल धर्मसाधनसे है फिर व्यर्थ ही हिंसादिकका ! आरम्भ क्यों करना चाहिये ? परन्तु ऐसा तुम न करते हो और न करना चाहिये। तुम लोग अपने आरम्भाविक। के योषोंको तो ढकते जाते हो और दूसरेके दोषोंको प्रगट कर निन्दा करते हो सो यह सज्जनोंका धर्म नहीं है। प्रश्न--अभिषेकाविकका वर्णन शास्त्रों में कहां लिखा है ? नित्य अभिषेक पाठ, महा अभिषेकपाठ, शांत्यभिषेक पाठ, पहत् शात्यभिषेक पाठ, व्रतोद्यापन विषान व्रत धारण तथा वोंके धारण करनेको विधि, नित्य पूजा, नैमित्तिक पूजा, प्रायश्चित्त शास्त्र, अष्टान्हिका, षोडशकारण, दशलाक्षणिक, रत्नत्रय, अक्षयनिधि, मुकुटसप्तमी, आदित्यव्रत, ज्येष्ठ जिनबर, मेघमाला, आकाशपंचमी, निर्दोष सप्तमी, चंदनषष्ठी, पुष्पांजलि, अनंत व्रत आदि समस्त जिनभाषित व्रतोंके विधानमें, । कथा सहित व्रतकथा कोशोंमें, प्रतिष्ठा शास्त्रोंमें, बृहत् आदिपुराग, लघु आदिपुराण, उत्तरपुराण, पांडव पुराण, बृहत् हरिवंश, लघु हरिवंश, वृहत्पमपुराण, लघु पापुराण तथा गाथा वक्ष पमपुराण, षट्कर्मोपदेश । रत्नमाला, यशस्तिलक महाकाव्य, पूजासार संहिता, मिन संहिता,' श्रावकाचार आदि समस्त जैनशास्त्रों में २ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा-SAREERTA पंचामृतको आदि लेकर जलारिक गंधोवक पर्यन्त भगवानके मस्तक लेकर समस्त शरीर पर अभिषेक कहा । है यह अभिषेक एक, दो, चार शास्त्रोंमें नहीं किन्तु इस प्रकरणके समस्त शास्त्रों में बतलाया है। चर्चासागर आप लोग भी पूजामें जलको पूजा करते समय भगवान के सामने जलधारा वेते हो तथा व्रतोंके उद्या[२६९ । पनोंमें अल. इक्षरस, घृत, बही. दूध आवि पंचामृत तथा जलके कलश भर-भर कर शब्द करते हुए अपने उत्कृष्ट भाव लगाकर तथा अपने नेत्रोंको आनन्दसे तप्त करते हए भगवानके सामने खड़े होकर दूधमे ही किसी अन्य पात्रमें उनकी धारा देते हो। अब इसमें विचारकी बात यह है कि आप लोग । # भगवानके ऊपर तो जलादिकको धारा नहीं देते किन्तु खड़े होकर सामने देते हो तो यह विधि शास्त्रानुसार करते हो ! या केवल अपने बुद्धिबलसे करते हो ? अथवा दूसरेको देखा-देखो केवल स्पर्धके लिए करते हो। तथा जो करते हो उस कर्त्तव्यका फल एण्यरूप जानते हो या पापल्प ? इन कार्योंके लिए आपको जैसो श्रद्धा हो वैसा करो । जो इन कार्यो में आपको बता पापमयो है तो दूसरोंकी देखा-देखी वा वूसरोंको ईर्षासे व्यर्थ हो। जबर्दस्तो अपना अकल्याण क्यों करते हो । यह काम श्रद्धानियोंका नहीं हो सकता। क्योंकि जो धर्म-कार्योंमें । अपनी मान-बड़ाईके कारण पापोपार्जन करते हैं वे मिथ्यावृष्टि हैं यदि इन कार्योंको धर्मके लिए वा महापापोंको। दूर करनेके लिए और महापुण्य उपार्जन करनेके लिए करते हो तो फिर अन्य ऐसे हो कार्योका निषेष क्यों करते हो। जब दूरसे हो इन जलधाराओंके करनेका इतना शुभफल होता है तो फिर अत्यन्त निकट करनेसे । और अधिक फलका होना स्वयं सिद्ध है। यदि इन कार्योंमें पाप ही माना जाय तो श्रीगुरुओंने शास्त्रोंमें ऐसा । क्यों लिखा है ? ये सब बातें भी तो विचार लेनी चाहिये । इसके सिवाय श्री वसुनन्दिस्वामीने अपने श्रावकाचारके ४९२ गाथामें लिखा है कि "भगवानका । अभिषेक करनेके फलसे यह भव्यजीव मेरुपर्वतपर इन्द्र विक देवोंके द्वारा क्षीरोदधिके जलसे बड़ी भक्तिपूर्वक स्नान कराया जाता है। भावार्थ-अभिषेकके कलसे यह जीव तीर्थकर होता है और फिर इन्द्रादिक देव उसका अभिषेक करते हैं । सो हो लिखा है अहिसेयफलेण जरो अहिसिंचिज्जइ सुदंसणस्सुवरि । खीरोयजलेण सुरिंदपमुह देवेहिं भत्तिस्स ॥ ४६२ ॥ INचारपानाstha LEDIO Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर [ २७० ] टीका - अभिषेकफलेन नरः अभिषेकं प्राप्नोति सुदर्शनमेरौ क्षीरोदधिजलेन सुरेन्द्रप्रमुख देवैः भक्त्या । इस प्रकार लिखा है इसी प्रकार श्रीयोगोन्द्रवेवने अपने श्रावकाचारमें लिखा है । जो जिण व्हावइ घीयय पइ जो भगवानका अभिषेक करता है वह उसी पदको प्राप्त होता है । इसके सिवाय और भी अनेक शास्त्रोंमें लिखा है जो सब लिखा भी नहीं जा सकता। दूसरी बात यह है कि इन कार्योंमें जो जलादि ब्रम्पका आरम्भ होता है उसले महापुज्य बाप्पा होता है। तथा उस आरम्भसे होनेवाला पाप शीघ्र हो नष्ट हो आता है । देखो इस लोक में अनेक प्रकारके विष हैं उनके खानेसे प्रत्यक्ष शीघ्र ही प्राण नष्ट हो जाते हैं परन्तु वही विष यदि किसी सुवेधके द्वारा विधिपूर्वक पकाकर संशोधन कर लिया जाय तो फिर उसको मिरच आदि अन्य औषधियोंके साथ खानेसे सन्निपाताविक महादुस्सह और प्राणांत करनेवाले रोग भी शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं और वह खानेवाला मनुष्य जीवित हो जाता है। यदि वही विष feet कुवैद्यके द्वारा विपरीत क्रियासे शोधा जाय तो वह शीघ्र ही प्राणोंको नष्ट कर देता है । क्योंकि संसारमें जितने पदार्थ हैं ये यथायोग्य पुरुषोंके सम्बन्यसे यथायोग्य गुणोंको धारण करते हैं । अयोग्य और सर्वथा त्याग करने योग्य विष भी अनुपानके द्वारा महागुणकारी हो जाता है । यदि हट करके सब तरहसे ग्रहण करने योग्य उस गुणकारी विषको न ग्रहण किया जायगा तो वह पुरुष मरणको प्राप्त होगा ही । इसलिये किसी एक नयसे तो वह विष है ग्रहण करने योग्य नहीं है त्याग करने योग्य है तथा वही विष दूसरे नपसे ग्रहण योग्य है। इसी प्रकार अपनी इन्द्रियोंके विषय-भोगोंके लिए किये हुए हिंसा आरम्भादिक सावध योग श्यागरूप हैं। परन्तु पूजा, दान, तीर्थयात्रा, प्रतिष्ठा, जिनमन्दिर, जिनप्रतिभादि, अभिषेक, रात्रिका जागरण, प्रभावना, रथयात्रा, नित्य दिन रात्रिगत पुजाभिषेक, गीत, वाविश्र, जिनमहिमा आवि जो-जो धर्मके कारण हैं और प्रवल पुण्य उत्पन्न करनेवाले कार्य हैं उनमें अनाश्रित यत्नाचारपूर्वक कर्तव्योंमें जो कुछ घोड़ा-सा आरम्भ होता है सो उस पूजा, दानादिकके होनेपर उसके प्रबल पुष्पके अतिशय से शीघ्र हो भस्म हो जाता है जैसे 1 [ २७ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर २७१] अग्निका एक छोटा-सा कणा भारीसे भारो मासके तरको पोष्ट ही भस्म कर देता है उसी प्रकार वान, पूजाविकके पुण्यसे उससे होनेवाले आरम्भजनित पाप शीघ्र ही भस्म हो जाते हैं। यदि वह अग्निका कणा फिसो सूखे पुराने धासके पूलेको भी न जला सके तो वह अग्निका कणा हरी वनस्पतियोंको किस प्रकार जला A सकेगा। इसी प्रकार पूजा, दान आविसे उत्पन्न होनेबाला पुण्य यदि उस पूजा, दानाविकके आरम्भसे उत्पन्न । होनेवाले थोड़ेसे पापको ही नष्ट नहीं कर सकेगा तो फिर वह पूजा, दानादिकसे उत्पन्न होनेवाला पुण्य एक। # जन्मके अथवा अनेक जन्मोंके पापोंको किस प्रकार नष्ट कर सकेगा? अर्थात् ऐसे उस पूजा, वानसे अनेक अन्मके पाप कभी नहीं मिट सकते। क्योंकि जिस मनुष्यसे एक सरसोंका बोशा नहीं उठाया जा सकता वह मेरुपर्वसको किस प्रकार उठा सकेगा। हाँ, जो मेरुपर्वतको उठा सकता है वह सरसोंको सहज रीतिसे उठा सकता है । अथवा विषका छोटा-सा कणा शीतोपचार करनेवालेको वा शोतलादि युक्त पुरुषको किसी प्रकार का दोष नहीं कर सकता किन्तु उस शोत था सन्निपात आदि दोषोंको दूर कर अनेक प्रकारके गुण उत्पन्न । 1 करता है। उसी प्रकार भगवानको पूजा, पूजा करनेवालेके आरम्भादिक सावध दोषों को दूर कर महापुण्यराशिको उत्पन्न करती है ऐसा श्रीसमन्तभद्रस्वामीने कहा है जो पहले भी लिख चुके हैं । यथा-- पूज्यं जिनं वाचर्यतो जनस्य सावद्यलेशो बहुपुण्यराशिः। अर्थात् "जो पुरुष पूज्य भगवानको पूजा करता है आरंभजनित पाप बहुत थोड़ा होता है और पुण्यराशि बहुत होती है। श्रीवसुनन्दिस्वामीने भी लिखा हैमालाधूपप्रदीपायः सचित्तैः कोर्चयेज्जिनम् । सावधसंभवं वक्ति यः स एवं प्रबोध्यते । जिनार्चानेकजन्मोत्यं किल्विषं हति यत्कृतम् । सा किन्न यजनाचारैर्भवं सावधमंगिनाम् ॥ प्रेर्यन्ते यत्र वातेन दन्तिनः पर्वतोपमाः। तत्राल्पक्तितेजस्सु का कथा मशकादिषु ॥ भुक्तं स्यात्प्राणनाशाय विषं केवलमंगिनाम् । जीवनाय मरीच्यादि सदोषधविमिश्रितम् ॥ I तथा कुटुंबभोगार्थमारंभः पापकृद् भवेत् । धर्मकृद् दानपूजादो हिंसास्लेशो मतः सदा॥ [२१ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर २७२] HTHAPAASHIKHARNAMATPARATIONA ___ अर्थ-जो कोई संशय रखनेवाला जोष जिनपूजा आदि कार्यो सुगन्धित मनोक्ष पुष्पोंको गूंथो हुई मालासे श्रीखंडाविक सुगन्धित पूर्णको बनी हुई धूपको अग्नि प्रक्षेपण करनेसे तथा अनेक दीपकोंको जलाकर आरती करनेसे पूजामें पाप बतलाता है तथा जल, गंध, अक्षत, नैवेद्य, फल, वृद्ध, दर्भ आदि बड़ानेमें अयवा पंचामृताभिषेक, महाभिषेक, रात्रिपूजा, फोतिकोत्सव आदिको प्रभावनामें, तोर्थयात्रा, रथयात्रा, जिनबिब बनवाना, जिनालय बनवाना, प्रतिष्ठा करना, शान्तिकपूजन, अष्टाल्लिक, महामह, इन्द्रध्वज, कल्पवृक्षादि, हवनादिकके कार्य आदि शास्त्रोक्त धर्मकार्योंमें पाप बतलाता है उसे इस प्रकार समझाना चाहिये कि हे वत्स! भगवानकी पूजा करनेसे अनेक जन्मके उपार्जन किये हुये बड़े-बड़े पाप नष्ट हो जाते हैं फिर क्या उसी पूजासे । उस पूजा करनेवालेके इस जन्मके किये हुये पाप अथवा उस पूजा, रथयात्रा आवि धर्मकार्योसे उत्पन्न हुये कुछ। थोडेसे पाप नष्ट नहीं हो सकते ? अवश्य नष्ट होते हैं जिस प्रकार प्रलयकालको जिस प्रबल पवनसे पर्वतके समान बड़े-बड़े हाथो उड़ जाते है उस पचनसे क्या जरा जरासे मच्छर नहीं उड़ सकते? अवश्य उड़ जाते हैं। ऐसा समझकर ऊपर लिखे अनुसार जिनवाणीकी निन्दा कर अनंत संसारका बंध नहीं करना चाहिये। दूसरी बात यह है कि जिस विषसे यह प्राणी मर जाता है वही विष यदि अच्छी तरह पकाकर शुस कर लिया जाय और कालीमिरच आदि अच्छी तरह औषधियोंके साय खाया जाय तो उसो विषसे रोग दूर हो जाते हैं और खानेवाला मनुष्य मरनेसे बच जाता है। उसी प्रकार कुटम्बको पालन करनेके लिये अथवा भोगोपभोम सेवन करनेके लिये जो पाप किये जाते हैं वे तो पाप हैं परन्तु दान, पूजा आदि धर्मकायाँमें जो कुछ थोड़ासा पाप होता है वह पाप उन धर्म कार्योंसे नष्ट हो जाता है तथा अन्य इकटे हुए सब पापोंको भी नष्ट कर देता है। ऐसे श्रीवसुनंदिके वचन हैं। जिन जीवोंकी होनहार गति अच्छी नहीं है ऐसे जीव ऊपर लिखे आचार्योंके वचनोंको नहीं मानते हैं। प्रश्न-हम लोग ऊपर लिखे कार्योको छोड़कर जो कुछ करते हैं वह यत्नपूर्वक आरम्भको घटा-घटा कर थोड़ेसे ही आरम्भसे करते हैं तुम्हारे समान बहुतसा आरंभ नहीं करते। परन्तु इसका उत्तर वा समाधान यह है कि श्रीजिनमूर्तिका नम्र, महाव्रतरूप और बोतरागस्वरूप है। उसमें अट्ठाईस मूलगुण तथा चौरासो लाख उत्तरगुण सबका समावेश है, उसमें सब पापोंका त्याग है तथा स्नानका त्याग तो मुल्यता है। फिर मान [२७२] Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर २७३ उस मूर्तिको कस्बे जलसे प्रक्षालन क्यों करते हो ? क्या फरसे जलको एक-एक बूँद में असंख्यात जीव नहीं है ? क्या उनका घात नहीं होता ? और फिर भगवानको प्रक्षालन करना उनके त्यागका भंग करना नहीं हैं ? क्योंकि उनके तो स्नानका त्याग है। इसके सिवाय उनके वस्त्रोंका भी त्याग है फिर प्रक्षाल करते समय उनके सब शरीरपर बस्त्रका संबंध क्यों करते हो ? क्या यह उनका व्रत भंग करना नहीं है ? जिस किसी पुरुषने चार प्रकारके आहारका त्याग कर उपवास धारण किया है वह यदि पानीकी एक बूंद पो ले अथवा भोजनका एक कणा मुखमें रखकर खा लें तो उसका उपवास बना रहेगा या भंग हो जायगा । कदाचित् यह कहो कि इससे उसकी प्रतिज्ञा भंग हो जायगी और इसीलिये तुम लोग चरणोंके नाखूनपर थोड़ासा गंध लगाने में भी सरागताका दोष मानते हो तो फिर जो दंतधावनके त्यागी हैं, स्नानके त्यागो हैं, वस्त्रोंके त्यागी हैं और अन्नपानके त्यागी हैं इसलिये स्नान, वस्त्र, जल, नैवेद्य, पुष्प, गंधार्थन आदि आठ द्रव्योंसे उनकी सराग पूजा क्यों करते हो ? क्या इन कार्योंमें आरम्भ नहीं है अथवा आप लोगोंको दोष लग नहीं सकता? क्या बात है ? सो बतलाना चाहिये | अतएव हट करना श्रद्धानियोंका काम नहीं है। ऐसा अनेक ग्रन्थोंमें लिखा है । ज्ञानो पुरुषोंको समझने के लिये तो एक ही शास्त्रका प्रमाण बहुत है। जो भगवानकी आज्ञाका पालन करते हैं वे तो एक ही शास्त्रका प्रमाण मान लेते हैं सो ही हो लिखा है "सुज्ञेषु बहुनोक्तेन किमित्यलम्' अर्थात् "विद्वानोंको बहुत कहने से कोई लाभ नहीं होता" उनके लिए एक हो प्रमाण है परन्तु जो भगवानकी आज्ञा नहीं मानते उनके लिये कहना न कहना दोनों समान हैं, अनेक प्रमाण बतलानेपर भी ये नहीं मान सकते । फिर भी इसी विषयको उदाहरण देकर बतलाते हैं। यदि कोई दुष्ट पुरुष शिकार करके वा जाल फैला - कर अथवा किसी शस्त्रले पशु, पक्षी, मछलो आदि जीवों को मारता हो और उसको अहिंसाणुव्रतको धारण करनेवाला श्रावक उपदेश देकर छुड़ाता हो और वह न मानता हो तो क्या करना चाहिये । उसको जबर्दस्ती छुड़ाना चाहिये या मरने देना चाहिये ? यदि वह जबर्दस्ती छुड़ानेपर भी नहीं मानता है तो पत्थर, लकड़ी, जूते, शस्त्र आदिसे धमका कर था प्रहार कर भी छुड़ाते हैं उस घमको वा मारपीटमें कोई-कोई मर भी जाता है अथवा पशु-पक्षियोंमें अनेक जीव दूसरोंको मारकर खाते हैं उनको पत्थर, लकड़ी आदि की घातसे छुड़ाते हैं। जो जीव पत्थर, लकड़ीके घातसे अपने आहाररूप जीवको छोड़ देता है उसके भोगोंका अन्तराय होता है ३५ [ २७ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [ २७४ ] और भूख न मिटनेसे उसके प्राणोंको पीड़ा होती है । जो खानेकी आशा लगी हुई थी वह निराश हो जाती है। ऐसी हालतमें उस जीवके छुड़ानेका फल वयारूप होता है ? या हिसारूप ? इस विषय में आप लोगोंको । क्या सम्मति है ? जीव तो दोनों में है अन्तर केवल इतना है कि एक स्थानपर तो रागभाव और करुणासे । बचाया जाता है और दूसरी जगह द्वेष-भावसे तथा क्रोधपूर्वक हिंसा करनेके भावसे प्रहार किया जाता है और उसके खाने-पोने में अन्तराय किया जाता है और इसमें प्रत्यक्ष हिसारूप कार्य होता है। मोक्षशास्त्रमें भी लिखा है-"प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा" अर्थात् प्रमाद वा कषायके योगसे जो प्राणोंका वियोग किया जाता है। उसको हिंसा कहते हैं। इससे सिद्ध होता है कि केवल जीवोंका घात करनेसे ही हिंसा नहीं होती किन्तु अपने परिणामोंके अनुसार हिंसा होती है। मानसामान्यातलमाता इसी प्रकार जीवोंके काम-भोगादिकके कार्योंमें वान, लाभ, वीर्याविकके लाभ होनेपर विघ्न करना, रोकना सो अन्तराप कर्मके आस्रवका कारण है सो ही लिखा है-"विधनकरणमन्तरायस्य" अर्थात् दान, लाभाविकमें विघ्न करना अन्तराय कर्मके आसवका कारण है । इसी प्रकार दूसरेके अन्न-पानादिकका रोकमा अहिसाणुव्रतका अतिचार है । सो ही लिखा है-"बन्धबधच्छेवातिभारारोपणान्नपाननिरोधाः" अर्थात् "बांधना, मारना, छेदना, अधिक भार लावना और अन्नपानका निरोध करना ये पांच अहिंसाणुव्रतके अतिचार हैं" इन दोनों बातोंका श्रद्धान, ज्ञान, आचरण तुम लोगोंके किस प्रकार है ? कदाचित् यह कहो कि जोधोंका बचाना केवल उनकी दयाके लिये है उससे चाहे दूसरे जीवको अन्तराय हो या भूखा मरना पड़े अथवा बचाने में किसीका धात भी हो जाय तो भी दयारूप परिणाम होनेके कारण उससे पुण्यबंध हो होता है। इसी प्रकार अभिषेक करनेमें, पूजा करनेमें तया और भी ऊपर लिखे हुए कार्योमें जो थोड़ा-सा आरम्भजनित पाप होता है वह भी पुण्य सम्पावनके लिये है ऐसा ही श्रद्धान, ज्ञान, आचरण आपको करना पड़ेगा। कदाचित् इन अभिषेक वा पूजाविकके कार्यो में हिंसाविक पाप मानोगे या इनको कर्मबंधके कारण मानोगे तो फिर वह श्रद्धान, ज्ञान, आचरण, तेरहपंथो, दूढ़िया साघुओंका हो जायगा । एक जगह बाईस बोलेके टूढ़िया साधु थे। उनमें एक भीष्म नामका टू दिया था। वह अपने गुरुसे लड़ पड़ा और लड़कर उसने अपने नामका एक जुवा हो पंय चलाया। धीरे-धीरे उसके साथ बारह लिया और आ मिले । इस प्रकार उन तेरह भावमियोंका पंथ तेरहपंच Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र कहलाता है। उनका सिद्धांत है कि यदि किसी चूहेको बिल्ली मारे अथवा कोई जीव अपने आहारके लिये किसी जीवको मारने के लिए कई अथवा मार और उसको कोई छुड़ाये तो उसको अठारह प्रकारके पाप लगते हैं। इसलिये दया-धर्म पालन करनेवालेको ऐसे पकड़े हुए जीव नहीं छुड़ाने चाहिये। ऐसा उन तेरहपंथियोंका पर्चासागर श्रद्धान है । तथा इससे मिलता-जुलता तुम्हारा श्रद्धान हो जाता है क्योंकि पूजा, अभिषेक आविमें जो थोड़ासा आरम्भ जनित पाप होता है तुम उनके करनेका हो निषेध करते हो ? इसलिये तुम्हारा श्रद्धान, ज्ञान, आधरण तेरहपंथियोंका-सा समझा जाता है। प्रश्न-कदाचित् यह कहो कि उस पकड़े हुए जोवको छुड़ाना उसके प्राणों की रक्षाके लिये और उसको अभयदान देने के लिये है । क्योंकि पहले उस जीवको छुड़ाने में थोड़ी-सी मारकूट आदि अशुभ कार्योंसे थोड़ा-सा पाप होता है । परन्तु उससे बहुत अधिक नया-धर्म उत्पन्न होता है। तो इसका उत्तर वा समाधान यह है कि यहाँपर पूजा, अभिषेक आदि कार्यों में भी अपनो इन्द्रियोंके विषय-भोग पुष्ट नहीं किये जाते किन्तु भगवानका। स्तोत्र करने, णमोकारादि मन्त्रोंका पाठ करने, भगवान के सामने अनेक प्रकारको भक्ति, ध्यान, वन्दना आदि करनेसे महापुण्य उत्पन्न होता है तथा अनेक जन्मोंके पाप नष्ट हो जाते हैं फिर भला इन कार्योका निषेत्र क्यों करना चाहिये । देखो णमोकार मंत्रके पाठ मात्रसे सब पाप दूर होते हैं ऐसा शास्त्रों में लिखा है। यथा'एसो पंच णमोपारो सव्य पावप्पणासणो।' इसलिये भगवान अरहन्तदेवको आजाको भंग करनेवाला मिथ्यात्वरूप खोटे भवानको छोड़कर जैनशास्त्रोंके अनुसार श्रद्धान करना चाहिये। तभी सच्चा श्रवानी कहलाता है। केवल अपने मुखसे अपनी स्तुति करने और दूसरे किसीकी भी बात न माननेसे कुछ नहीं होता है । जो दूसरेके । द्वारा स्तुति की जाती है वही सच्चो समझी जाती है।। इस ऊपरके कथनको सुनकर कोई बहुत चतुर वृद्ध पुरुष कहने लगा कि आपने अनेक शास्त्रोंका प्रमाण दिया तथा अनेक वृष्टांतोंसे सिद्ध किया सो इन सब शास्त्रोंको घा उदाहरणोंको हम भी जानते हैं परन्तु । हम इनमेंसे किसोको मानते नहीं। हमारे अनुमान ज्ञानमें जो सिख हो जाय उसे तो हम मानते हैं बाकी किसी को नहीं मानते । ऐसे चतुर वृद्धके लिए उत्तमरूप वा समाधानरूप कहते हैं कि तुम सब शास्त्रोंके प्रमाणोंको । । जामते हो परन्तु मानते नहीं सो यह मानना तो सरासर मिथ्या और असत्य है। देखो पहले लंकाधिपति Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रावणने श्रीअनन्तवीर्य केवली भगवानके समीप बलात्कारपूर्वक परस्त्रीसेवनका त्याग वृढ़तापूर्वक लिया था । परस्त्रोसेवनमें महापाप है । अन्य मतवाले भी इसमें महापाप मानते हैं । शैवमतमें लिखा हैचर्चासागर परयोनिगतो बिन्दुः कोटिपूजा विनश्यति ।। । २७६ ] अर्थात् "जो मनुष्य अपनी विवाहिता स्त्रीके सिवाय अन्य स्त्रीको योनिमें अपने वीर्यकी एक छद भी डालता है अर्थात् जो परस्त्रोके साथ संभोग करता है उसके पहले की हुई एक करोड़ प्रमाण महादेवको पूजा है ( अथवा विष्णु आदिको पूजा) सब नष्ट हो जातो है ऐसा अन्य मतियोंके यहाँ भी लिखा है तथा श्रीकेवली । भगवानने इससे भी अधिक महापाप बतलाया है । तथा लोकव्यवहारमे भी उसे अत्यन्त निन्दनीय बतलाया है। इन सब बातोंको जानता हुआ भी वह विधेको जिनभक्त रावण श्रीरामचन्द्रको रानी सती सीताको हर ले । गया । तथा अपनी पट्टदेवी श्रीमंदोदरीके द्वारा, अपने भाई विभीषणके द्वारा, अन्य कुटुम्बियोंके द्वारा, मंत्रियों द्वारा बड़े-बड़े देशोंके अन्य राजाओंके द्वारा, तथा हनुमान आदि महापुरुषों के द्वारा अनेक बार समझानेपर भी। उसने किसीकी न मानी । सीताके हरनेके कार्यको बुरा समझता हुआ भी वह श्रीरामचन्द्रसे युद्ध करनेके लिये । सामने आया परन्तु अंतमें यह हारा और मरकर नरकमें पहुंचा। वहाँपर अनेक प्रकारके परम वुःख भोग रहा। । है और सागरोंतक भोगेगा। इसलिये कहना चाहिये खोटा हट करना जीवोंको सदा दुःख देनेवाला होता है। और सुनो। एक ओरफदंब नामका ब्राह्मण था वह बहुत ही विद्वान् था तथा राजगुरु था। उसके पास राजकुमार बसु, नारद नामका एक विदेशी ब्राह्मण और एक पर्वत नामका उनका ही पुत्र पढ़ा करते थे। कितने ही दिनके बाद राजा मुनि हो गया तथा क्षीरकदंब भी मुनि हो गया । तब राजकुमार वसु तो अपने पिताके सिंहासन पर बैठकर राजा बन गया तथा क्षीरकदंबका पुत्र पर्वत उपाध्याय व राजपुरोहित बन गया। । इसके कितने ही समय बाद किसी एक दिन क्षीरकदंबके पुत्र पर्वसने अनेक शिष्यों के सामने व्याख्यान देते समय कहा कि “यज्ञकर्ममें वेदके मन्त्र पढ़ते हुए अज अर्थात् अजाके पुत्र बकरेको अग्निमें डालकर होमना चाहिये ।। PM उसके इस व्याख्यानको सुनकर नारद ब्राह्मण कहने लगा कि हे पर्वत ! तू मेरा गुरुभाई है और गुरुका पुत्र है। तुझे ऐसे झूठ और हिंसामय वचन कभी नहीं कहने चाहिये। तेरे पिताने ( हमारे तेरे दोनोंके गुरुने ) पढ़ाते । । समय यशकमंके प्रकरणमें अज शब्दका अर्थ बकरा नहीं बतलाया था किन्तु जो फिर उत्पन्न न हो सके ऐसे है Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । तीन वर्षके पुराने जौका नाम अज बतलाया था। ऐसे जोको धीमें मिलाकर होम करनेका विधान बताया ! था । पशुका होम करना तो अत्यन्त निन्दनीय और मिथ्या है। जैसा व्याख्यान तेरे पिता कहा करते थे वैसा सागरहो तू कर । विरुद्ध मत कर। तम पर्वत हट कर कहने लगा कि "अज शम्बका अर्थ तो बकरा ही है, जो [ २७७ ] नहीं है । इस प्रकार सब शिष्योंके सामने उन दोनोंका बहुत कुछ शास्त्रार्थ हुआ। उस शास्त्रार्थमें शेनों ही अपना-अपना पक्ष कहते रहे, हटे नहीं। अन्तमें दोनोंने यह निश्चय किया कि इस शाला राजा वसु भो। पढ़ा है और हमारे साथ पढ़ा है इसलिये वह जो कुछ कह दे वही प्रमाण मान लेना चाहिये। ऐसा न्याय! सबके सामने ठहरा। इस बातको सुनकर क्षीरकवंबकी स्त्री पर्वतकी माता सबसे पहले जाकर राजा वसुके पास पनी और राजासे कहने लगी कि हे राजन् ! आज मैं आपसे गुरुदक्षिणा मांगने आई हूँ, आपके गुरुभाई विदेशी ब्राह्मण नारयने आज सब शिष्योंके सामने शास्त्रार्थ आपके गुरुभाई पर्वतका मानभंग किया है। अब अन्तमें आपके वचनों के ऊपर न्याय ठहरा है। आप जो कह देंगे वही प्रमाण माना जायगा । इसलिये अब पर्वतके वचनोंका पक्ष हटना नहीं चाहिये बस यही गुरुदक्षिणा चाहती हूँ। गुरानोको यह बात सुनकर राजा वसुने उसको धीरज बंधाया और उसके कहे अनुसार काम करनेका वचन देकर उसे विदा किया। इसके कुछ समय बाद ही नारद पर्वत और शिष्यमंडली आदि सब राजाके पास पहुंचे, राजा जिस सिंहासनपर बैठा करता था वह स्फटिकमणिका बना हुआ था। किसी एक दिन वह राजा कोड़ा करनेके लिये किसी वनमें जा पहुंचा या यहाँपर उसने एक स्फटिकमणिका ऊँचा खंभा देखा था वह वहाँसे उसे ले आया था और उसे अपनी राजसभाके मध्यमें रखकर उसके ऊपर सिंहासन कालकर बहुत ऊंचा बैठा करता। था और इस प्रकार बहत हो सुसज्जित और सुन्दर लगा करता था। जिस समय नारद पर्वत आदि पहुंचे थे । उस समय भी वह राजा वसु उसी सिंहासनपर बैठा था । पर्वतने जाकर सब समाचार राजासे कहे और शिष्य । आदि सब राजसभाके सामने कहे। राजा वसु जानता था कि इन दोनोंके वचनोंमें नारवके वचन सत्य है तया पर्वतके मिथ्या हैं तथापि गरानीके कहनेसे जो पक्ष पकड लिया था उस पक्षके वशोभत होकर कहने लगा कि "पर्वतके पचन प्रमाण है" राजाका यह कहना था कि उस महा सूठके पापसे वह स्फटिकका खंभा पृथ्वीमें में घुस गया यह देखकर नारव मावि सब लोगोंने राजासे प्रार्थना की कि "हे राजन् ! सत्र कहो शूठ महावुःख Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ L हा प्रमाण है" तीसरी देनेवाला है ।" लोगोंको इस बासको सुनकर राजा विचार करने लगा कि "वास्तवमें नारबका वधन सभा है। मैंने पर्वतका झूठ पक्ष लेकर असत्य वचन कहा है इसीलिये यह खंभा पृथ्वीमें धंस गया है । परन्तु में चर्चासागर गुरानीके वचनोंसे बँधा हुआ हूँ मैं जानता हूँ कि गुरुजीको ऐसी आजा नहीं है। उनकी आज्ञा नारदके वचनोंके [२७८ ] के अनुसार है । परन्तु जो होनहार होगा सो होगा अब अपने वचनोंका पक्ष तो छोड़ना उचित नहीं है।" इस प्रकार सोच विचार कर वह राजा वसु फिर दुबारा कहने लगा कि "पर्वतके हो वचन प्रमाण है" राजाके इस प्रकार कहनेपर वह स्फटिकर्मागका बाकोका खंभा भी पृथ्वीमें धंस गया। तब मंत्री आदि सब बड़े-बड़े सभासद खड़े होकर राजासे प्रार्थना करने लगे कि "हे राजन् ! आपके असत्य वचनोंके पापसे ही यह स्फटिकमणिका खम्भा सब पृथ्वीमें फंस गया है और आपका सिंहासन पृथ्वीसे आ लगा है। अब आगे क्या हाल होगा। इसको सोचकर सच बात ही कह दीजिये" सब लोगोंको यह बात सुनकर भी उस पापी राजा वसुने अपने हटस अपने वचनोंका पक्ष नहीं छोड़ा और तीसरी बार भी उसने कहा कि “पर्वतके वचन हो प्रमाण बार राजाका इतना कहना था कि उसी समय राजा बसु सिंहासन सहित पृथ्वोमें धंस गया और मरकर । नरकमें पहुंचा। इससे सिद्ध होता है कि कोई भी माननेवाला पुरुष केवल हटसे अपने वचनोंका पक्ष लेता है तो उसको ऐसो हो निधगति प्राप्त होती है। उस समय नारदके ऊपर देवोंने पुष्पोंको वर्षा की थी और सब लोगोंने पर्वतको वहाँसे निकाल दिया था। ऐसे एक नहीं अनेक कथन है सो सब जैनशास्त्रोंसे जान लेना चाहिये। ऐसा ही हट करनेवाला एक सस्यघोष नामका ब्राह्मण था उसने भी अपना हट नहीं छोड़ा था और E अन्ततक झूठ ही कहता रहा था इसलिए उसने भी तीन थाली गोबर खानेका, सब धन हरण करे जानेका, । और मल्लोंको तीन मुठ्ठियोंकी भारी मार सहनेका दण्ड भोगकर तथा प्राणांत होकर सर्पको गतिमें जन्म पाया था इसकी कथा आगे भी बहुत है। इन सब कथाओंसे सिद्ध होता है कि हट करनेवाला अपने कल्याण वा अकल्याणको नहीं देखता, केवल अपने वचनोंको पक्ष पकड़ लेता है । उसको नहीं छोड़ता। परन्तु वचनोंका पक्ष करना वा हट करना । बहुत ही दुःखदायक है । जो मनुष्य भगवान अरहन्त देवकी आज्ञाको मानते हैं वे उनके वचनोंके पक्षको हो अपने मस्तकपर धारण करते हैं। OTHERatranscenatsAHERARATHIयावर ETawaiswarमसामया Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [ २७९ ] प्रश्न --- कदाचित् यह कहो कि- "जो हम मानते हैं वही ठीक है। इस पश्चमकालमें जैनशास्त्रों के ata-ataमें अनेक श्लोक मिलाकर अनेक प्रकारके सदोष वचन लिख दिये है। जिस प्रकार किसी साहूकारके बहुत समय से पीढ़ी दर पीढ़ीसे सच्चे बहुमूल्य रत्नोंका हार चला आ रहा था। किसी एक समय वह बहुमूल्य रत्नोंका हार उजलवानेके लिए सुनारको दिया। उस सुनारने उस हारमेंसे बीच-बीच मेंसे कितने ही बहुमूल्य ter free लिए और उनके बदले झूठे काँचक टुकड़ोंके नग जोड़कर उजालकर यह हार सौंप दिया। वह साहूकार रत्नोंकी परीक्षा करना नहीं जानता था और उसने किसो जानकारको दिखाया भी नहीं था। सुनारसे लेकर ज्योंका त्यों भीतर रख दिया था। कितने ही दिन बाद वह हार किसी जौहरीके हाथ दिया गया तब उनकी परीक्षा हुई। तब मालूम हुआ कि इसमेंसे सच्चे रहन निकाल लिए गये हैं और उनके स्थानपर झूठे stead टुकड़ोंके नग जोड़ दिये गये हैं। इसी प्रकार शास्त्रों में भी इवेताम्बरी, रक्ताम्बरी आदि विषय कथायी लम्पटी और परिग्रह धारण करनेवाले लोगोंने बीच बोचमें झूठे कथन मिला दिये हैं कितना ही नवीन नवीन कथन मिला दिया है। इसलिए उनमेंसे सच्चे कथनको ता हम मान लेते हैं और मिलाये हुए झूठे कपनको नहीं मानते तो इसका उत्तर वा समाधान यह है कि जैसे आप हो वैसा हो सबको जानते हो । सोचो तो सही जो बीच-बीच में कितने हो रत्न झूठे रख दिये गये तब उसकी कीमत सच्चे रत्नोंकी रह गई या झूठोंकी रह गई । किसी एक ठगने सच्चे रश्नोंका हार देखा फिर उसमें कितने ही झूठे नग मिले हुए देखे । तब उसने एक नया हार बनवाया। जिसमें आदि अन्त और मध्य में तो सच्चे रत्न लगाये और बाकी सब रत्न झूठे लगाये और वे झूठे रत्न ऐसे लगाये जिनसे अच्छे-अच्छे जौहरी भी ठगे जा सकें। ऐसा हार बनाकर वह ठग उस हारको बेचने आया और अनुक्रमसे वह उसी जौहरीके पास पहुंचा जिसके पास सच्चे रत्नोंका हार था किन्तु जिसके बीच-बीचमें झूठे रत्न मिले हुए थे उस ठगने आकर उस हार की कीमत सब सखे रत्नोंकी माँगी। तब उस जौहरीने अपने उस पुराने हारसे मिलान किया तो झूठे लगे हुए नग छिप न सके । परन्तु उस ठगने भी जौहरीके हार के बीच बोचमें झूठे रत्न दिखलाये और उन झूठे रत्नोंकी परीक्षाकर उस सब हारको झूठे रत्नोंका ठहरा दिया तथा अपने हारके जो आदि अन्तमें और मध्य में सच्चे रत्न थे उनको भी परीक्षा की और [ २ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनकी परीक्षासे सब हारको सच्चे रस्लोंका सिद्ध कर दिखाया। इस प्रकार यह ठग सबकी मांखों में धूल मल-1 कर उस हारके बदले सच्चे रत्नोंका मूल्य लेकर चला गया। इसी प्रकार तुम्हारे बमाये हुए नवीन-नवीन पर्यासागर शास्त्रोंके वचन हैं। दोनों में सर्वाग मठ वा एकवेश मठ अथवा एकवेश सब किसमें है। इस पंचमकालमें काल-२८० ] दोषसे वा बद्धिको हीनतासे अथवा छपस्थ ज्ञानके कारण किसोके कहने में कुछ भ्रमरूप वचन निकल जाय तो । बिना सर्वज्ञके सन्देह रहित होना कठिन है । पवि उनमें सन्देह मानकर पूर्वाचार्योंके वचनोंका लोप कर नवीन मूठो रचना की जायगो तो अनन्त संसारका बंध होगा। इसलिये तुम्हारे समान जबर्दस्ती अपना अकल्याण १ करनेवाला और कोई नहीं दिखता । यदि किसी भेषीने शास्त्रों में कहीं-कहीं झूठ लिख विधा भी हो तो जो कोई अयोग्यता वा विरुद्धता करेगा वह अपना फल पावेगा । क्योंकि इस प्रकारकी चोरी करना तो सबसे बुरा है । ऐसी चोरो लोभके पशसे करते हैं यद्यपि वे ऐसे कामोंको और उनके फलोंको परम दुःखरूप जानते हैं तथापि लोभसे उसको छोड़ नहीं सकते उनके फलोंको भोगते हए भी करते हो जाते हैं। जिन लिगियोंने जिनागमको विरुद्धता और अनंत संसारमय उसके खोटे फलको जानते हुए भी विरुद्ध वचन लिख दिये हैं उन्होंने बड़ी भारी अज्ञानता की है। पिन खो विया समझना चाहिये ऐसे लोगोंने पूजा की द्रव्य अधया भेंटमें अप्रमाण रुपये, मोहरें ली। लिखी हैं । जब ब्राह्मणों के समान भेंट लेना लिखा है तो उसमें कुछ-न-कुछ मिथ्या भी जरूर लिखा होगा परंतु, A आप लोगोंको वह भी बुरा नहीं दिखता क्योंकि मूठेको दूसरा हो झूठा दिखता है। . यदि थोड़ी देर के लिये बीच-बीच में मिलानेकी बात मान भी ली जाय तो फिर उनके बनाये हुये पहले प्रमाणमें लिखे हुए शास्त्रोंको वा अन्य शास्त्रोंको पयों पढ़ते हो? और उन्हीं शास्त्रों द्वारा अथवा उन्हीं लोगोंके द्वारा प्रतिष्ठा को हुई जिन मन्दिरोंमें विराजमान जिन प्रतिमाओंको क्यों पूजते हो? उनके शास्त्रोंका पढ़ना और उनके द्वारा प्रतिष्ठित प्रतिमाओंका पूजना भी मिथ्या मानना पड़ेगा । कदाचित् यह कहो कि हम तो ऐसा नहीं कहते पूर्वोक्त बड़े-बड़े ग्रन्थोंको अप्रमाण नहीं मानते । तो इसका उत्तर यह है कि तुम्हारे जो भाषा बनिकाके शास्त्र हैं वे पूर्वाचायोंके वचनोंके प्रत्यक्ष विरोधी हैं जो । गाया श्लोक आदि मूल आचार्योके अन्य हैं वे तो प्रमाण है हो । न्यायnalisaaTIERREER -Isra [ २८० nam Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर २८१ ] इसपर कदाचित् कोई यह कहे कि हम भी तो सब कार्य श्रेष्ठ ही करते हैं। जल थोड़ा हो खर्च । करते हैं, पुष्पारिक चढ़ाते ही नहीं, बीपक जलास नहीं, राश्रिपूजा करते नहीं, अभिषेक करते नहीं जो-जो । अच्छी बातें हैं वे सब करते हैं । जो कुछ नवीन भी करते हैं सो भी अच्छा ही करते हैं । परंपरासे चली आई रोतिमें जो-जो दोष दिखाई देते हैं उनको नहीं करते। नवीन-नवीन रीतियाँ भी अच्छी-अच्छो ही करते हैं। इसमें तो गुण हो है बिगाड़ नहीं है। ऐसा करनेसे पाप छूट जाता है और धर्ममार्गकी प्रवृत्ति होती है । तो इसका उत्तर वा समाधान यह है कि तुम लोग अच्छी-अच्छो रीतियां करते हो तो पहलेके आचार्योंने कौनकौनसो बुरी रीतियां चलाई थी ? अथवा ऐमो कौनसी रोति है जो कालदोषके कारण मलिम वा सदोष बन गई है। पूजाविकके द्रव्य तो सब शुद्ध हैं । जैसे किसी सच्ची टकसालमें बने हुये सोने अथवा चांदीके रुपये, मोहरे आदि किसी साहूकारने शत्रु, चोर वा राजाके भयसे पृथ्वोके नीचे गाड़ दिये अथवा और किसी उपायसे छिपा दिये । जिससे वे सब रुपये, मोहरें मैली, घिसी वा फूटीसी हो गई परन्तु खटाई, मसाला आदिसे फिर भी उजालने पर वे सुन्दर हो सकती हैं तथा जो परीक्षा करना जानते हैं वे उनको मैलो जानकर भो छोड़ते नहीं। घड़ेमें भरे हुये धोके समान सवा साररूप ही रहते हैं। यदि कोई ठग कांसे, पीतल आविके खोटे रुपये, मोहरें । बना ले और उन सबको यन्त्रसे उजालकर सुन्दर बना ले तो भी ये सुन्दर और कीमती नहीं हो अथातों । यदि थे। । मैली हों तो उनके बदले कोई कौड़ो भी नहीं देता। यदि कोई ठग उन नकली रुपये, मुहरोंको बेचने जाय और उनको देखकर कोई संदेह करने लग जाय तो उन सच्चे रुपये, मोहरोंमें तो मैले होनेका दोष लगा देता। है और अपने नकलो रुपये, मोहरोंमें ऊपरको चमक दमक विखाकर ठगकर बेच जाता है। इसी प्रकार इस समयके शास्त्रों में कदाचित् कालदोषसे कुछ थोडासा दोष भी हो तो भी उनसे अकल्याण नहीं हो सकसा तथा नवीन मार्ग चलानेवालोंके शास्त्रोंमें सच्चे श्रद्धानका और पूर्वाचार्योके वचनोंका सर्वांग विरोध आता है तथापि ऐसे शास्त्र केवल ऊपरको चमक बमकसे चल जाते हैं। नवीन मतोंमें ऊपरसे लोफरंजनको झलक दिखाई पड़ती है और उसको उस मलकको देखकर ही लोग उसको मान लेते हैं और उसकी प्रवृत्तिके अनुसार चलने लग जाते हैं। अनेक भेष बनाकर उसको वृद्धि करते हैं तथा नधोनता, प्राचीनतासे कुछ अच्छोसी मालूम पड़ती। है इसलिये भी लोग उसमें लग जाते हैं। इसके सिवाय और कोई कारण नहीं है। संसारमें बहतसे लोग ऐसे भी वेखे जाते है जिनको सच्चा भवान तो है नहीं तो भी जो कुछ धर्म ArtsARASTARA Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर २८२ ] कार्य करते हैं वह केवल अपनो स्तुति अथवा दूसरोंकी निन्दा करनेके लिये ही केवल वंभरूप करते हैं। अपने कल्याणके लिये नहीं करते । यहाँपर कदाचित् कोई यह कहे कि हम लोग भेषियोंके द्वारा प्रतिष्ठित जिनबिम्ब के चरणोंसे लगे हुए गंध, पुष्प आदि सब दोषोंको हटाकर तथा उसे निर्दोष कर फिर उसकी पूजा, वंदना करते हैं । सो भी ठीक नहीं है क्योंकि यदि इस प्रकार सदोष पदार्थ निर्दोष हो जाय तो जो कोई बालक अपनी जाति वा कुलका नहीं है उसको भी स्थान कराकर अपना एक बार सेना चाहिये, उसे सब द्रव्यका स्वामी बना देना चाहिये और उसे अपनी जातिमें व्याह देना चाहिये । यदि केवल स्नान करा देने मात्रसे शुद्धि मान लो जायगी तो फिर किसी को भी स्नान कराकर तथा इस प्रकार निर्वाध बनाकर अपना कार्य सिद्ध कर लेना निर्दोष माना जायगा यदि ऐसा होना अयोग्य और बुरा है तो फिर तुम्हारा ऊपर लिखा श्रद्धान भी दंभमय हो सिद्ध होगा। फिर उसे परमार्थ या यथार्थ नहीं कह सकते । इसपर कदाचित् कोई यह कहे कि "तुम्हारा कहना असत्य है इसको हम नहीं मानते। हम जो कार्य करते हैं सो यथार्थ श्रद्धान सहित हो करते हैं, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि यदि आप लोग जिनागमकी आज्ञाप्रमाण कार्य करते हो तो भगवानने उसका शास्त्रों में ऊपर लिखे अनुसार अभिषेकपूर्वक पूजा करना तथा पूजा में गंध, पुष्प, फल आदि चढ़ानेका विधान बतलाया है उसका निषेध आप लोग क्यों करते हो ? देखो भगवानकी पूजा करने से अनेक जन्मके इकट्ठे हुए पाप, महापाप नष्ट हो जाते हैं तथा परम पुण्य प्राप्त होता है। ऐसा पूजा, पाठ आदि समस्त जिन ग्रन्थोंमें विस्तार के साथ लिखा है तथा जिन्होंने भगवानको पूजा की है उनको महाशुभ फलोदयसे स्वर्ग मोक्षके सुख प्राप्त हुए तथा जिन्होंने निन्दा की उनके पहले किये हुए समस्त महापुण्य नष्ट हो गये महापापका बंध हुआ और अत्यन्त दुःख देनेवाली नरकादिक नीच गति प्राप्त हुई। ऐसे जीवोंकी अलग-अलग कथाएँ स्थान-स्थानपर लिखी हैं तथा पूजा करनेवालोंकी महाव्याधियां नष्ट होती हैं और निम्बा करनेवाले कोढ़ आदि अनेक प्रकारके रोग दुःख, दरिद्रता और दुर्गन्धादिमय शरोरकी प्राप्ति होती है। ऐसा अनेक पूजा, पाठ ग्रन्थोंमें तुम लोग प्रतिदिन पढ़ते हो, पढ़ाते हो, सुनते हो, सुनाते हो तथापि अभिषेक, पूजा आदि कार्योंमें होनेवाले थोड़ेसे आरम्भसे डरकर यथार्थ श्रद्धानसे च्युत होकर पूजा, पाठ [ २८२ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [ २८३ करते हो। पूजा, पाठ आदि शास्त्री जी यह लिखा है कि अभिषेक, पूजा आदि करनेसे अनेक जन्मके महापाप मिट जाते हैं और महान् पुष्यकी प्राप्ति होती है सो मालूम नहीं होगी या नहीं ? अथवा यह लिखना सत्य है। वा असत्य ? पूजा- पाठकी जो यह फल-स्तुति ( स्वर्गादिक सुखोंके प्राप्त होनेकी महिमा ) बतलायी है सो ham of बढ़ानेके लिये ही है अथवा सत्य है ? किसी जगह लिखा भी है- "रोचनार्थं फलस्तुति:" अर्थात् किसी पदार्थकी महिमा उसकी ओर रुचि बढ़ानेके लिये हो की जातो । इस प्रकार आप लोगोंका पूजा-पाठ, अभिषेक आदि शंका सहित किया जाता है । जैसे किसी समय किसी सेठने एक वनपालको ( मालीको ) आकाशगामिनो विद्या सिद्ध करनेके लिए " णमो अरिहंताणं" इत्यादि मन्त्र दिया था । तथा उसकी विधि बतलायो यी कि किसी श्मशान भूमिमें बड़के Fast किसी ऊँची शाखाएँ एकसौ आठ लड़ीका एक वाभका छौंका लटकाना चाहिये। उसके नीचे तलवार, किरच आदि बड़े तेज खुले शस्त्र ऊपरकी ओर मुँह करके रख देना चाहिये । फिर उस छींके में बैठकर एकएक मन्त्रको पढ़कर छुरीसे एक-एक लड़ी काटते जाना चाहिये । इस प्रकार सब लड़ियों के कट जानेपर विद्या सिद्ध हो जाती है । वह वनपाल विद्या सिद्ध करनेको तो तैयार हुआ परन्तु उसका हृदय कुछ सशङ्कित भी हो गया। वह विधारने लगा कि यदि कवाचित् सेठकी कही हुई बात झूठी हो जाय और विद्या सिद्ध न हो तो फिर मेरा मरण ही हो जायगा। मुझे तो यह भी मालूम नहीं है कि यह सब सत्य है वा असत्य । इस मन्त्रसे और इस विधिसे विद्या सिद्ध होती है या नहीं ? इस प्रकार आप लोगोंके समान सशक्त होकर वह विचार कर ही रहा था कि इतनेमें एक अञ्जन नामका चोर वहाँपर भागता भागता आ निकला। आते हो उसने वनपालसे पूछा कि तू यह क्या कर रहा है? तब वनपालने कहा कि मैं सेठके दिये हुए मन्त्रको सिद्ध करने की चेष्टा कर रहा हूँ परन्तु साथमें मरनेकी शङ्का भी होती है तब उस अंजन चोरने उस विद्याको सब विधि पूछो तथा उस वनपालको छोकेसे उतार कर आप निःशङ्क होकर उसमें बैठ गया। उसने संशय, विपर्यय आदि सब दूर कर विधिके अनुसार मन्त्रपूर्वक सब लड़ियों काट डालों और उसी समय उसे विद्या सिद्ध हो गई। सवनन्तर वह अंजन चोर उस आकाशगामिनी विद्याके बलसे मेरुपर्वतपर विराजमान उस सेठके पास पहुँचा। वहाँ जाकर चैत्य वन्दना की, पूजा की और ऋद्धिचारी मुनिराजके समीप दोक्षा लेकर तपश्चरण कर २० Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चासागर [ २८४] केवलज्ञान पाकर मोक्ष पहुँचा । इस प्रकार निःशकित सहित आप लोगोंका कार्य दिखाई नहीं पड़ता। आप लोगोंके कार्य धनपालके समान विखाई देते हैं। ___ और देखो रेवती रानीके जिनवचनों में बढ़ श्रद्धान था उसको परोक्षाके लिये एक क्षुल्लक असाचारी । अपनी विद्यासे समवशरण सहित तीर्थकर केवली बनकर आया उसको वन्दना करनेके लिये राजा, प्रजा तथा अभयसेन मुनि आदि सब आये। परन्तु रेवती रानी न गई। राजा, प्रजा आदि सबने रेवतीको समझाया कि 'यहाँपर' पहले ब्रह्मा, विष्णु, महेश आये थे, सब तो तुम नहीं गई थीं, सो ठीक ही था क्योंकि सम्यम्वृष्टि जीवका यही धर्म है परन्तु यहाँ तो समवशरण सहित केवलज्ञानसे सुशोभित साक्षात तीर्थकर भगवान पधारे हैं। सो यहाँ तो अवश्य चलना चाहिये । रुस रानी याला कि ऐसा होना भगवानको आमासे बाहर है। इसलिए मैं नहीं जाती। तीर्थकर चौबीस होते हैं सोहो गये पच्चीसवा तीर्थकर होना शास्त्रों में बतलाया नहीं यदि केवलज्ञानादि सहित साक्षात तोर्यकरका रूप बना ले तो भी जैन शास्त्रोंकी आज्ञाके बिना जानेमें आज्ञा भं ॥ शोष लगता है और आज्ञा भंगका दोष लगनेसे अनन्त संसार परिभ्रमण करना पड़ता है। इसलिए यथार्थ । श्रवानी पुरुषको कभी ऐसा नहीं करना चाहिये । इस प्रकार रेवती रानीके श्रद्धानसे बढ़ता बनी रहो । यदि वह रानी वहाँ जाकर पूजा, बन्दना आदि करती तो क्या उसे मिथ्यात्वका दोष लगता? कभी नहीं । क्योंकि ब्रह्मा, विष्णु, महेशका तो रूप था हो नहीं। वहाँ तो केवलज्ञानी जिनलिंग थे तो भी शास्त्रको आज्ञा न होनेके कारण वह रानी वहां नहीं गई। दूसरी ओर अभव्यसेन मुनिको देखो वह ग्यारह अंग नौ पूर्वका पाठी था और जिन वचनोंमें भी श्रद्धान रखता था। यह महाव्रतोंको पालता था, सैकड़ोंको उपदेश देता था और स्वर्ग मोक्षका मार्ग दिखलाता। था परन्तु जिनवचनोंमें सन्देह होने के कारण क्षुल्लक विद्याधरके द्वारा बनाई हुई घास आदि वनस्पतिके ऊपर | उसने गमन किया, मायामयी सरोवरमें हाथसे पानी लिया और ब्रह्मा, विष्णु, महेश, केवलो सबकी वन्दनाको गया । इस प्रकार उसने भगवानके वचनोंने सन्देह करते हुए धर्मसाधन किया इसीलिए उसने अन्तमें निन्धगति पाई। इसी प्रकार आप लोगोंका कार्य भी सब सशंकित ही जान पड़ता है। और देखो इस पंचमकालके प्रारम्भमै श्रीभद्रबाहु पाँचवें श्रुतकेवलोके समय बारह वर्षका दुष्काल पड़ा A था उसमें रामल्य, स्थूलभद्र आदि बारह हजार मुनि भ्रष्ट हो गये थे। उन्होंने जिन बचनोंमें सशंकित होकर । [ २८ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर २८५] Faisas मूलसंघसे विपरीत कथन किया था। केवली कबलाहार नहीं करते यह मूलसंघका सिद्धांत है परन्तु उन्होंने । इसमें शंका खड़ी कर दो कि केवलो भगवानको स्थिति आठ वर्ष कम एक करोड़ पूर्व तक होती है सो इतने दिन तक बिना कवलाहार किये यह औदारिक शरीर किस प्रकार टिक सकेगा । बस इसो शंकाको सामने रखकर उन्होंने केवलोके कवलाहारका निरूपण कर दिया । इसी प्रकार संशय मिथ्यात्वके उवयसे और भी कितनी ही विपरीत बातें पुष्ट की तथा इस प्रकार वे जिनवचनके विरोधी हए इसलिये जिनवधनों में शंका करना ॥ निःशंकित नामके सम्यग्दर्शनके अंगका घातक है। इस प्रकारको शंकाओं सहित सम्यग्दर्शनका श्रद्धान आप लोगोंके समान पुरुषों के ही होता है। और देखो श्री ऋषभदेवको दिव्यध्वनिमें धर्मका स्वरूप सुनकर तथा उसे अच्छी तरह जानकर भी उनके पोते मारीच आदि मिथ्यातियोंने जिन वचनोंमें शंका रक्खी थी और उस शंकाहोके कारण सांख्य, पातंजलि आदि शास्त्रोंकी रचना को थी तथा दंडी, संन्यासी, परमहंस आदि अनेक भेष धारण कर अनेक प्रकारको विपरीतता पुष्ट की थी। इसीलिये वे सब जिनवचन बाह्य अयवा जिनधर्मके बाहर समझे गये थे। इससे सिद्ध होता जो । जैन वचनोंमें वस्तुके स्वरूपमें संदेहयुक्त प्रवृत्ति करता है वह विपरीतता भी अवश्य करता है यह बात मिथ्या I नहीं है किन्तु सर्वथा सत्य है। कदाचित् यह कहो कि "हमें जिन वचनोंमें रंधमात्र भी शंका नहीं है परन्तु फल तो अपने भावोंके . आधीन है वैसे भाव भी तो होने चाहिये । बिना भावोंके केवल क्रिया करना सब व्यर्थ है। तो इसका सोधा। सा उत्तर यह है कि हम लोग तो बिना भावोंके करते हैं तथा आप लोग सब वैसे ही भावोंसे करते हो? आपके भाव बहुत निर्मल हैं। उनमें रंधमात्र भी संदेह वा शंका नहीं है। क्योंकि आप लोग शास्त्रोक्त विधिके । अनुसार पूजा, पाठ पढ़ते हो और उस, पूजा, पाठमें जो लिखा है जो मुखसे पढ़ते हो उसके अनुसार जो-जो मिल सकता है और बन सकता है वह सब ही करते हो ? उसमेंसे न कुछ घटाते हो? और न कुछ और हो । प्रकार करते हो ? जो कहते हो ? वही करते हो । देखो ! जो तुम नित्य पूजा पाठ पढ़ते हो ! शास्त्र बाँचते हो! । उसमें पुष्पमाला, पुष्पांजलि, नैवेद्य, दीप, फल जो-जो लिखा है सो चढ़ाते हो हो । कल्पवृक्षके पुष्प वा रत्नाविकके । बीपक तो हम तुमसे बन हो नहीं सकते। बाकी सब आप लोग करते हो ? इससे लोगों के भाव निर्मल मालूम। t e-Pactress २८ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपड़ते हैं । यदि कोई दूसरा आपके यहाँ आकर पूजा, पाठ करता है उससे आप क्रोध करते हो । मन्दिरोंमें। यदि अपने सम्प्रदायको मूर्ति हो तो आप लोगोंके भाव निर्मल रहते हैं यदि प्राचीन सम्प्रदायकी हो तो कलुष चर्चासागर भाव हो जाते हैं इस प्रकार आप समान सम्यग्वृष्टियोंके दो प्रकारके भाव होते हुए भी आप लोग धवानी । [२८६ ] कहलाते हो। यह आपका हो मत है। दूसरी बात यह है कि भगवानको प्रतिमाके चरणों में गंध लगानेसे अथवा ऐसी प्रतिमाके दर्शन करने, । उसको पूजा' वंदना, भक्ति, अभिषेक आदि पुण्य कार्य करनेसे, पुष्प चढ़ानेसे, दीपक जलाकर चढ़ानेसे तथा फल चढ़ानेसे तथा अन्य सचित्त पदार्थोंसे पूजा करनेसे कोई जीव मिथ्यादृष्टी हो जाता है, वह नरक, निगोद आदि । नोच गतियोंमें जाता है और अनन्त संसार परिभ्रमण करता है यह बात किसी कथा वा पुराण आदिमें दिखलाना तो चाहिये ? तथा जिनपूजाके निन्दकोंने निद्यगति पाई है सो जिनागममें जहां-तहाँ कथारूपमें विस्तारके । साथ लिखी ही है तथा आप लोग पान जानते ही हो ! विचार करनेकी बात है कि भगवानको पूजा करने, अभिषेक करने, तीर्थयात्रा, रथयात्रा, नैमित्तिक उत्सव, पूजापाठ आदि कार्यो में आरंभजनित जो कुछ स्थावरादि जीवोंको हिंसा होती है उसका दोष यदि उस पजाके करनेसे नहीं मिटता तथा ऐसे कार्योसे जीवोंके असभ कर्मका बंध होता या अशभ गति होती तो जो ५ मुनिराज अहिंसा, महावतावि पांचों महावतोंको पालन करते हैं पांचसमिति, तीन गुप्ति मावि अट्ठाईस मूलगणोंको पालन करते हैं उत्तरगणोंको पालन करते हैं और सब प्रकारके आरंभके त्यागी होते हैं ऐसे महा संयमी मुनिराज स्वयं अपने वयेनोंसे नवीन मंदिर बनवाने, जिनप्रतिमाओंको प्रतिष्ठा कराने, अभिषेक महाभिषेक करने आदि । सावध योगरूप पुण्यकार्योंके करनेका उपदेश श्रावकोंके लिये क्यों करते ? इस बातका विचार तो बहुत छोटा-1 सा आदमी कर सकता है फिर भला मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञानको धारण करनेवाले मनिराजोंको समझमें यह बात न आई ? जो उन्होंने ऐसा उपदेश दिया ? क्योंकि जितने जिनागम हैं वा जितने पूजा पाठ हैं उन सबमें उन्होंके कहे हुये वचन हैं। उन्होंने इन क्रियाओंके करनेका उपदेश दिया है । जैनशास्त्रों में जितने व्रत बतलाये हैं तथा उनका विधान पूजा, अभिषेक आदि जो कुछ कहा गया है वह सब उन्हीं मुनियोंका ! बताया हुआ है । ऐसे पूजा, अभिषेक आदि कार्य जिन्होंने किये हैं उनको कथा शास्त्रोंमें प्रसिद्ध हो है । तथा । । उसी प्रकार अब भी लोग करते हो हैं। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर २०७] और सुनो एक क्षुल्लक ब्रह्मचारी विद्याधर था उसने निमित्तशानी अपने गुरुसे बाना कि हस्तिनापुरमें । सातसौ मुनियोंको घोर उपसर्ग हो रहा है, और उसको विष्णुकुमार मुनिराज दूर कर सकते हैं उस समय आषो रातका समय था। वह विद्याधर उसी समय मुनिराज विष्णुकुमारके समीप पहुंचा । विष्णुकुमारको विक्रिया ऋद्धि प्राप्त हुई थी। उस विद्याधरने मुनिराजसे प्रार्थना की कि महाराज हस्तिनापुरमें सातसौ महा॥ मुनियोंको घोर उपसर्ग हो रहा है । प्रातःकाल नरमेध यजको सिये ॐ सब गुनियोंको अग्निमें होम कर मारेंगे। आपको विक्रिया ऋद्धि प्राप्त है सो आप बचाइये। तब मुनिराजने पहले तो विक्रियाऋद्धिके प्राप्त होनेको परीक्षा को । फिर उसी समय अर्थात् आधी रातमें हो वे हस्तिनापुर आये। वहाँका पचनामका राजा उनका । भाई था सो उसको महलोंमें जाकर जगाया और उसको समना कर कहा कि "तू बड़ा दुष्ट है, पापी है, इस । राज्यमें था इस वंशमें कभी ऐसा नहीं हुआ जो आज हो रहा है" मुनिराजको बात सुनकर राजा पाने हाथ जोड़े नमस्कार किया और फिर निवेदन किया कि महाराज इसमें मेरा वश नहीं है । मैं तो बलि नामके मंत्रीको अपने वचनोंसे सात दिनका राज्य हार गया हूँ। अब यह उपसर्ग मुझसे दूर नहीं हो सकता आपसे ही दूर हो सकेगा। राजाकी यह बात सुनकर वे मनिराज वामनरूप बामणका रूप धारण कर राजा बलिके पास पहुंचे। राजाको आशीर्वाद दिया और तीन पेंट पथ्वी मांगो। राजा बलिने तीन पंड पृथ्वी समृल्प कर दी। तब उन मुनिराजने विकियाऋद्धिसे अपना शरीर बढ़ाया तथा एक पैर मेरु पर्वतपर रक्खा, दूसरा पैर मानुषोतर पर्वतपर रक्खा और तीसरा पैर कहीं रखनेकी जगह न रहने के कारण बलिको पोठपर रक्सा, इस प्रकार राजा बलिको वश कर बांध कर मुनिराजोंका वह घोर उपसर्ग दूर किया। उसी समय आकाशसे देवोंने उन मुनिराजके ऊपर पुष्पोंको वर्षा की, जय जय शब्द किया, अनेक प्रकारके वीणा आदि बाजे बजाकर विष्णुकुमारके । गुणोंको स्तुति को, स्तुतिके गोत गाये । इस प्रकार मुनिराज विष्णुकुमारने सातसौ मुनियोंकी रक्षा की। देखो धर्मको रक्षाके लिये मुनिराजने भी अपने त्यागेका भंग किया और वात्सत्य अंगका पालन कर। १. मुनिराज न तो ऋद्धियोंसे काम लेत है ओर न रात्रिगमन वा इस प्रकारका छल करते हैं। परन्तु विष्णुकुमारने किया सी केबल धर्मको रक्षाके लिए किया उसने आरम्भजानित थोड़ा-सा पाप हुआ परन्तु धर्मको रझा अत्यन्त अधिक हुई। सातसो मुनिराजकी रक्षा हुई और धर्मका महा उद्योत हुला मुनिराजको महापुण्यका बंध हुआ । इसीलिये देवोंने उसो समय पुष्प वृष्टि । कर उगको पूजा की। मुनिराज सब आरंभके त्यागो ये परन्तु थोड़ा-सा आरंभ उन्हें करना पड़ा था इसलिए उन्होंने उसका Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर २८८] Home-RARAMPARATHARASTRAMADIRATISHESI धर्मका उद्योत प्रगट किया। देखो जैनशास्त्रों में त्याग भंग करनेका बहुत ही बुरा फल बतलाया है सो आए । लोग आनते ही हैं। प्राणांत होनेपर भी व्रत भंग नहीं करना चाहिये। जो कोई मनुष्य थोड़ेसे भी व्रत लेकर भंग कर देता है उसको जिनप्रतिमा सहित सहस्रकूट जिनालयके भंग करनेका महापाप लगता है। सो हो । व्रतकथाकोशमें सप्त परमस्थानव्रतको कथामें लिखा है । यथागुरून प्रतिभुवः कत्ता भनालले शुनं तम् । सहस्रकूटजैनेन्द्रसमभंगाघभागलम् ।।१०८॥ अर्थात्- "गुरुओंको साक्षीपूर्वक धारण किये हुए एक प्रतको भी जो भंग करता है उसे सहस्रकूट । चैत्यालयके भंग करनेका पाप लगता है ।" सो विष्णुकुमारने अच्छा किया या बुरा किया। तथा फिर वे । विष्णुकुमार मुनि पूज्य रहे या अपूज्य ? ( व्रतभंग करनेपर भी देवोंने पुष्पवृष्टि कर उसी समय उनकी पूजा । को सो क्यों ?) है और सुनो मुनिराज श्रीवकुमार भी महावतो थे उन्होंने भी अपने पिता आदि बहुतसे विद्याधरोंको। से अपने बचनसे कहा था कि "रानो उर्वला श्रीजिनेन्द्रदेवका रथ निकालना चाहती है और बौद्धमतको पालने वालो उसकी सौत उस रथको रोकना चाहती है । वह कहती है कि पहले बुद्धका रथ चलेगा पीछे जिनेन्द्रदेवI का रथ चलेगा। इसलिये तुम लोग जैनधर्मको प्रभावना करनेके लिये उर्वलाका मनोरथ सिद्ध करो और ॥ श्रोजिनेन्द्रक्षेत्रका रथ सबसे पहले चलबाओ। मुनिराजको यह बात सुनकर उन विद्याधरोंने बुद्धका रथ तो। टुकड़े-टुकड़े कर तोड़-फोड़ दिया और श्रीजिनेन्द्रदेवका रथ बड़े उत्सव और बड़ी भारी प्रभावनापूर्वक चलवाया। सो क्या.महायतोको ऐसा कहना योग्य था। महाव्रती तो मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदनासे समस्त । सावध ( अशुभ ) योगोंके त्यागी हैं फिर उन्होंने अपने मुखसे ऐसे बचन क्यों कहे अथवा मुझसे कहकर ऐसा कार्य क्यों कराया ? कहां तक कहा जाय केवलझानसे सुशोभित श्रीवृषभदेव तीर्थकरसे लेकर श्रीमहावीरस्वामी प्रायश्चित लिया था। गृहस्थ आरंभका त्यागी नहीं है. इसलिये गृहस्थोंको ऐसे कार्य अवश्य करने चाहिये । जब गृहस्थ घरके कामोंके लिए घर बनवाना, बगोचा लगाना आदि सब काम करता है तब जिनालय बनवाना, प्रतिष्ठा कराना, पुष्प चढ़ाना, आदि कार्य भी उसके कर्तव्य है शास्त्रोंको आज्ञा है और वह उसका स्पागी नहीं है इसलिए उसे अवश्य करने चाहिए न करने से वह फसव्यहोन होकर महापापका भागी होता है । Aaनयमान्यचन्ता Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यन्त समस्त तीर्थंकरोंने, वृषभसेन गणधरको आदि लेकर गौतम पर्यन्त समस्त गणधरोंने, समस्त सामान्य केवलियोंने और अनेक ऋद्धियोंको धारण करनेवाले अनेक महाव्रती साधुओंने इन अभिषेक, महाभिषेक, पुष्प, पा सागर फलसे पूजा करने आदिका उपदेश दिया है तथा ऊपर लिखे अनुसार सम्यग्दर्शनके अंग पालन करनेका उपदेश २८२ दिया है तो फिर इन सब पुण्य कार्योंका निषेध करनेवाला उन तीर्थस्थरादिकोंसे भी बड़ा और पूज्य मान लेना। चाहिये जो तीर्थंकरोंके वचनोंका भी उल्लंघन कर झूठी निन्दा करता है ? जो लोग ऐसे निन्दकोंकी बात मानते ! हैं वे अनन्त संसारी हैं। भगवानको आशाके घातक है भगवानको आशाका पालन करनेवाले नहीं हैं। इतना समझ लेनेपर भी कदाचित् कोई यह कहे कि "अभिषेक तो हम भी करते हैं हम उसका निषेध थोड़े ही करते हैं हाँ, अन्तर केवल इतना है कि हम उन कलशोंको भगवानके मस्तकपर नहीं बोलते है उनके सामने ढोलते हैं।" सो यह कहना भी ठीक नहीं है पोंकि नगालाको वश मालभित करना किस शास्त्रमें बतलाया है। कदाचित् कोई यह कहे कि भगवानके मस्तकपर कलशाभिषेक करना कहाँ बतलाया है तो इसका उत्तर यह है कि मस्तकपर कलशाभिषेक करता तो सब पाठों में लिखा है। अभिषेकका अर्थ हो उन कलशोंके तकपर ढालना है। अभिषेकका अर्थ उस जलको दर डाल देना नहीं है। तुम लोग जो प्रतिदिन पूजा पाठ पढ़ते हो, मंगल पढ़ते हो उसमें प्रतिदिन पढ़ते हो "सहस अठोत्तर कलशा प्रभुजीके शिर ढुले" सो क्या यह पाठ सूठा है ? या इसका निषेध करनेवाले आप लोग झूठे हैं दोनोंमें कौन झूठा है सो आप लोग हो बतलाओ । कदाचित् यह कहो कि यह पाठ और यह रोति तो जन्म समयकी है, तपकल्याणक वा ज्ञानकल्याणक समयकी नहीं है । तो इसका उत्तर यह है कि जिनप्रतिमामें क्या जन्मकल्याणक नहीं है और यदि जन्मकल्याTणक नहीं है तो क्या तपकल्याणक है ? अथवा ज्ञानकल्याणक है ? और यदि तप कल्याणक वा ज्ञानकल्याणक ही है जन्मकल्याणक नहीं है तो फिर पहलेकी जन्मसमयको सरागताको रोति क्यों पड़ते हो? और उसके लिये द्रष्य क्यों चढ़ाते हो ? गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, निर्वाण इन पांचों कल्याणकों सहित क्यों पूजते हो । यह चतुराई तो अजानकारोंकी-सी है । इसलिये जो भगवानको आमाको माननेवाले सच्चे सम्यग्दृष्टी अवावान हैं । वे अपनी बुद्धिकी चंचलताको रोककर देव, शास्त्र, गुरुके वचनोंपर बढ़ श्रद्धान रखते हैं तथा वे ही अपने कार्यमे । [२० Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mante सफल होते हैं। जो लोग अपने मनमें अनेक प्रकारके विकल्प उठाकर भगवान जिनेन्द्रदेवकी आज्ञा शंका, संशय, मोह और विपरीतता धारण कर भगवानको आज्ञाका निषेध करते हैं और अपने मनको कल्पनाके अनुसागर - सार चलते हैं वे भगवानको आज्ञाके बाधक समझे जाते हैं । जो लोग भगवानको आशाके विरुद्ध केवल अपनी २९.] बुद्धिसे कई प्रकारसे अधिक-अधिक कल्याण करना चाहते हैं, धर्मपालना चाहते हैं तो भी जिनाशाके विरुद्ध होनेसे उनका एक भी कार्य सिद्ध नहीं होता है । यहाँपर कदाचित् कोई यह कहे कि तुमने अब तक जो कुछ कहा है सो सब बढ़ा चढ़ाकर कहा है सो । क्या इतना बढ़ा-बढ़ा कर कहनेवाले तुम हो विद्वान हो ? तुम ही पढ़े हो ? क्या तुम्हारे सिवाय बाकीके सब मूर्ख ही हैं जो तुम उनके लिये ऐसा कहते हो ? तो इसका उत्तर यह है कि “भाई ज्ञानी का ज्ञान तो अनन्त । है उसका तो पार नहीं है। हमने तो जो शास्त्रों में देखा है वा सुना है, वही लिखा है। यह ठीक है कि हम प्रशंसाके पात्र नहीं हैं न कुछ पढ़े लिखे विद्वान हैं, श्रेष्ठ हैं तथापि आप लोगोंका पढ़ना गुरुमुखसे नहीं हुआ। है, आप लोगोंको विद्या गुरुमुखसे प्राप्त न होने के कारण गुरुमार कहलाती है । जो लोग पहले थोड़ा बहस गुरुसे पढ़ लेते हैं और फिर अपने ज्ञानके मदमें आकर अपने आप सिद्ध बन जाते हैं, गुरुसे द्रोह करने लग जाते हैं। उनकी विद्या गुरुमार विद्या कहलाती है। जो विद्या गुरुआज्ञासे बाह्य होती है यह चोर, छास्थ और छलबलको विद्या कहलाती है ऐसी विद्या कभी सफल नहीं होती। यहाँपर प्रकरणवश लौकिक दृष्टांतको लेकर चार पण्डितोंका उदाहरण लिखते हैं। एक नगरमें चार ब्राह्मणके पत्र परस्पर मित्र थे। वे सब मिलकर कछ धन कमाने के लिये विदेश चले। उन्होंने एक बैलपर पस्त वस्त्र आदि सब समान लाद लिया था। चलते-चलते मार्गमें वृक्षोंकी सघन छाया, जलका पक्का कुआँ, पासमें हो वन और उसके थोड़ी दूर गाँव दिखाई दिया। ऐसे स्थानको देखकर चारोंने सलाह की कि यहाँपर वेधपूजन, स्नान, संघ्या, रसोई आदि सब काम कर लेने चाहिये । तब फिर आगे चलना चाहिये । ऐसा सोचकर वे सब वहाँपर उतर पड़े। उन चारोंने बहुत थोड़ा गुरुओंसे पढ़ा था बाकी वे अपने आप केवल अपनी बुद्धि के हो अनुसार स्वयं पंडित बन गये थे। गुरुमुखसे पूर्ण ज्ञान नहीं पाया था। अन्तमें जाकर गुरुसे विमुख हो गये थे । और अपने ही मनसे कुछका कुछ पढ़कर पंडित बन गये थे। वहां उतरकर उन चारोंने अपना अलग-अलग | arnistralia Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । काम बाट लिया। उनमेंसे एक तो ज्योतिषी था सो वह तो बैल चरानेके लिये वनमें गया। व्याकरणका पढ़नेवाला वैयाकरणी, रसोई बनाने के लिये चौके में बैठा। न्यायशास्त्रको पढ़नेवाला नैयायिक पैसे कटोरी लेकर पर्धासागर धो लेने गांव गया और चौथा वैद्यक शास्त्रको पड़नेवाला वैद्य शाक भाजो लेने गया। इन सबके इस प्रकार काम बाँटनेका अभिप्राय यह था कि ज्योतिषी अच्छा महर्त देखकर बेलको चरने छोड़ेगा जिससे कि वह खोया । न जाय । वैयाकरण रसोई अच्छी बनावेगा इसलिये उसे चौके में बिठाया। नैयायिकको घी लेने इसलिये भेजा कि वह अपनी न्याय विद्याके कारण तौल मोलमें ठगा नहीं जायेगा तथा देख भालकर उत्तम घो लावेगा । तथा वैद्यजी महाराज निरोम शाक लावेंगे इसलिये उनको शाक लेने भेजा था। अब चारोंको पंडिताईका हाल सुनिये। उस ज्योतिषीने मी चौपदी कापी लस्त बेलकर और उसीको निर्दोष मानकर उस निर्जन वनमें चरनेके लिये अपने बैल हाँक दिया और स्वयं एक शीतल वृक्षकी छायामें सो रहा । उस ज्योतिषीने वह लग्न ऐसो स्थापना की थी जिसमें चोरो गये पदार्थ फिर न मिल सकें। ऐसे समयमें बैलको छोड़कर सो रहा था। सो वनके भोलादिक उस बैलको ले गये और आप सोता ही रहा । इधर वैयाकरणने दाल, चावल धोकर बटलोई में रखकर चूल्हेपर चढ़ा दी। जब वह खिचड़ी पकने लगी तो बार-बार खदबद शब्द करने लगी। उसे खरबद शब्दको सुनकर वह वयाकरण सोचने लगा कि व्याकरणमें खद शब्द तो। सिद्ध हो जाता है परन्तु वह वद शब्द सिद्ध नहीं होता। यह शब्द अशुद्ध है। और अशुद्ध शब्दके ऊपर धूल । डाल देनी चाहिये । अर्थात् झूठेके मुखमें धूल डाल देनी चाहिये तथा जो शब्द व्याकरणके विरुद्ध है वह मूठा । हो है। ऐसा समझकर उसने एक मुट्ठो चूल्हेकी राख भर कर उस खिचड़ीमें डाल दी जिससे वह सब खिचड़ी बिगड़ गई । नैयायिकजी गांवमें गये और कटोरीमें धो लिये आ रहे थे। मार्गमें उनका न्यायशास्त्रका तक । उठा कि “यह घी पात्रके आधार है या यह पात्र घोके आधार है अर्थात् घीमें फटोरी है या कटोरीमें घो है। "घृताधारं पात्रं वा पात्राधारं घृत" इस बातको न्यायसे सिद्ध करने के लिये उसने वह घो भरी कटोरी ऑधी । कर दो-उलट दी जिससे सब घी पृथ्वीपर गिर कर धूलमें मिल गया। तदनन्तर उसने उस घोसे मिली हुई है। घलको कटोरीमें रखकर कहने लगा कि हाँ ठीक है 'पात्राधारं घृतं नतु घृताधारं पात्रम्' अर्थात् पात्रके आधार। । धो हे घोके आधार पात्र नहीं है कटोरोमें घो है घीमें कटोरी नहीं है। इस प्रकार निश्चय करते हुए उसने T RAPARMARCrenesamala Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर २९२] वह घो मिली धूल रसोई बनानेवाले वैयाकरणको सौंप दो। वैयाकरणने भी खबधव शम्बके और खिचड़ो। धूल डालनेके सब समाचार कह सुनाये तदनन्तर बैल घरानेवाले ज्योतिषीको बुलाया बैल तो उसका खो हो गया था वह खाली हाथ रोता आया और अन्धी चोपड़ी काणी लग्नको देखकर बैल हाँकनेका सब हाल कहा।। अब ये तीनों ही भूखसे व्याकुल हो रहे थे सो परस्पर विचार करने लगे कि अब क्या करना चाहिये। तब सबने सोचा कि अच्छा वैद्यजी महाराज फल, पत्र, कन्दमूल आदि कुछ तो शाक लागे सो उसीको स्वाकर आगे चलेंगे। इतने में वैद्य भी आ गया। बह शाक-भाजो लेने गया था और उस गांवमें बहुत अच्छे स्वादिष्ट । फल थे परन्तु यह वहींपर निघण्टु शास्त्रके इलोकोंके अनुसार सबके गुण, दोष विचार करने लगा। वह शाक | बाल का है। यह पिस करता है । यह कफ करता है । यह त्रिदोष करता है। यह रक्त विकारो है। यह अजीर्ण है। यह ज्वरातिसार करता है। यह श्वास बढ़ाता है । यह उदरविकार करता है यह छवि (वमन) करता है । यह सोथ शूल और कुष्ट करता है । इस प्रकार सब शाकोंमें वोष देखकर सबको छोड़ दिया। आगे चलकर नीमके पत्ते देखे उनमें कोई दोष दिखाई नहीं पड़ा । इसलिए उन्हींको लेकर आ पहुंचा। इसी प्रकार # आप लोगोंकी विद्वत्ता है। और सुनो...... ...."( यहाँ कुछ पाठ छूट गया है) जिन चैत्यालयके लिए अपनी ऋद्धि छोड़ो काय गुप्ति बिगाड़ी अपने त्यागका भंग किया। तथा रावणने भक्तिकरि तीर्थङ्कर प्रकृतिका बंध किया। विचार करने की बात है कि यदि इस समय कोई जिनधर्मका द्वेषी जिनबिबवा जिनमन्दिरका बिध्न करे वा प्रतिमाजीका भंग कर तब क्या क्रोधादिक क्रूरभाव धारण कर वा उसको बध बंधनाविके द्वारा पोड़ित । कर छुड़ावेंगे या नहीं ? ऐसी अवस्थामें यदि वह क्लेश अधिक बढ़ जाय, दोनों ओरकी अच्छी सामर्थ्य हो है और शस्त्रोंके द्वारा परस्पर मनुष्योंका घात भी हो जाय तथा ऐसा करनेसे बड़ी भारी हिंसा हो जाय तो देव, गुरु, धर्म, जिनबिम्ब, जिनागम आदि की रक्षा करनेके लिए ऊपर लिखे कार्य करने चाहिये या नहीं ? अथवा इन कार्योंमें महापाप समझ कर प्रतिमाजीका भंग और उससे होनेवाला महा अविनय होने देना चाहिये ? उनको । रक्षा नहीं करनी चाहिये ? क्या करना चाहिये सो मतलाओ ? Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [ २९३ ] कदाचित् कोई यह कहे कि ऐसे कार्योंमें पुण्य है अथवा पाप है। सो इसका उत्तर यह है कि यदि निर्बल अपने दूसरा बलवान हो तो उसे शांत करे वा दान वेकर ( शाम, दाम ) छुड़ाना चाहिये । यदि वह हो तो उसे दण्ड और भेवसे रोकना चाहिये। इनमेंसे जो बन सके उनसे हो छुड़ा लेना चाहिये । यदि ऐसे कार्यों में जीवधात होनेकी सम्भावना हो तो धर्मकी रक्षाके लिए करना चाहिये या नहीं सो कहो ? क्या वह आरम्भ, देव, धर्म, गुरु आदिके लिए ही है या नहीं ? तथा ऐसे कार्यक्रों आप करोगे या प्रतिमाजी आदिका भंग होने दोगे सो कहो ? अपना गृहस्थ-जीवन चलाने और धनादिककी रक्षाके लिए तो अच्छे-अच्छे बलवान योद्धा रखते हो यदि कोई उस धनको चुराने आता है तो उसको मारकर छुड़ा लेते हो सो तो आप लोग योग्य समझते हो परन्तु धर्मको रक्षाके लिए आप अयोग्य समझते हो यह कैसा उलटा न्याय ? यदि धर्मकी रक्षा के लिए ये कार्य करना योग्य है तो पूजा, • अभिषेक आदि लिए भी थोड़ा-सा आरम्भ करना योग्य है । S देखो महाव्रती साधु कच्चे बिना छने जलकी एक बूंदमें असंख्यात त्रस स्थावर जीवोंकी हिंसा समझकर उसका त्याग कर देते हैं और सवा प्रासुक उष्ण जल पीते हैं। स्नान करनेके वे सदाके लिए त्यागी हैं हो । फिर भी ये महाव्रती सिद्ध क्षेत्रको वन्बनाके लिए वा जिनचैत्यको वन्वनाके लिए वा धर्मोपदेश देनेके लिए चलते हैं मार्गमें नदी भी पड़ती है उससे पार होनेके लिए नावमें बैठते हैं अथवा छाती तक गहरे जल में प्रवेश कर पार जाते हैं । बतलाओ यहाँ क्या व्रत भंग नहीं होता ? अथवा जीवोंका घात नहीं होता ? और इन कामें क्या उनको पाप नहीं लगता ? क्या नहीं होता सो बतलाना तो चाहिये । कदाचित् यह कहा जाय कि शास्त्रों में जो लिखा है सो ठीक है मुनिराज नदी आदिके पार जाते हैं परन्तु पीछे कायोत्सर्ग और प्रतिक्रमण करके उसके दोषोंका निराकरण कर देते हैं। तो इसका उत्तर यह है fe of कायोत्सर्गसे आरम्भजनित बोष निराकरण हो जाता है तो फिर पूजा, भक्ति, अभिषेक आदि में श्रृंगारादिक, काम-कीड़ा या विषय भोगोंका पाठ है ? अथवा उन कार्योंमें विषय-भोगादिक वा काम-क्रीड़ाएँ की जाती हैं । अथवा गृहस्थ-सम्बन्धी चक्की, उखली, चूल, बुहारी, पानी आदिसे होनेवाले पाँचों पाप किये जाते हैं । उन अभिषेकादिकोंमें भी तो विनय, भक्ति, स्तुति, स्तोत्र, जयमाला, जप, ध्यान आदि सब पुण्य कार्य वा पाप नाश करनेवाले कार्य किये जाते हैं। अभिषेकादिक कार्योंमें द्रव्य पूजा की जाती है और कायोत्सर्ग [= Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ fवा प्रतिक्रमणमें भावपूजा की जाती है आप लोग जो देव दर्शन, बंधन, पूजन, तीर्थयात्रा, नवीन जिनमन्दिरोंका ! अनवाना, प्रतिष्ठादिक कराना आदि कार्य करते हो उसमें भी आरम्भजनित हिंसा होती ही है । ये कार्य भी सागर तो बिना हिंसाके होते दिखाई नहीं देते । ये सब क्रियाएं सावध ( पापपूर्वक ) होती हैं। इसके सिवाय यह भी विचार करना चाहिये कि पूजा, अभिषेकमें जो जलधारासे पूजा करते हो तो सन्मुख दी हुई जलधारास पूजा करने शुभ फलका श्रद्धान रखते हो तो जब सन्मुख बूर धारा देनेसे ही पुण्यको प्राप्ति होती है तो फिर भगवानके मस्तक पर दुग्धादिकको धारा देनेसे क्या पाप हो सकता है ? यदि पाप हो सकता है तो फिर आप लोगोंको भी सन्मुख धारा वेना योग्य नहीं है। कदाचित् यह कहो कि फल तो भावोंके आधीन होता है तो फिर प्रश्न यह है कि आप लोग भावोंसे । करते हो या नहीं ? यदि भावसहित करते हो तो फिर पूजा पाठमें लिखी हुई बातोंका निषेध कर अपने मनके । अनुसार विपरोसता धारण करना नहीं बन सकेगा। तथा पूजा अभिषेकाविकको यथार्थ विषिमें आरम्भजनित पाप नहीं मानना पड़ेगा । यदि कदाचित् आप लोग बिना भावोंके करसे कहोगे फिर बिना भावोंके ऐसा वम्भ । क्यों करना चाहिये ? कदाचित् यह कहो कि भाव तो केवलोगम्य है इसलिये भावोंका निश्चय तो केवलज्ञानी ही कर सकते हैं तो फिर इसका उत्तर यह है कि केवलझानीपर विश्वास रखना पड़ेगा। उनके वचनोंको आजामें शंका वा संशय करना भी नहीं बन सकेगा। यह निश्चय करना पड़ेगा कि जो जिनागममें लिखा है सो सब प्रमाण और मान्य है। यदि उसमें कोई सावधता ( आरम्भजनित हिंसा ) वा निरवद्याता ( पूर्ण अहिंसा ) दिखाई पड़ती है तो उसे भी केवलो हो जाने । हम तो केवल उनकी आज्ञा मानते हैं और उसे अपने मस्तकपर रखते हैं । परन्तु आप लोग ऐसा नहीं मानते अपने मनके अनुसार कल्पना कर उसका निषेध करते हो । भग-। वानको आशामें दोष बताकर नवीन जयोन कल्पना करते हो और फिर भी सम्यक् श्रद्धानी वा सम्यग्दृष्टो बनते। हो । सो यह कैसे हो सकता है। वर्तमानमें सम्यग्दृष्टो कैसे होते हैं उनका स्वरूप अन्यमतका एक उदाहरण देकर असलाते हैं । किसी एक दिन बर्षाऋतुमे सुर्वासा ऋषि गोवर्धन पर्वतपर आये। यह जानकर श्रीकृष्णने अपनी Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 सोलह हजार गोपांगनाओंसे ( रानियोंसे ) आशा की तुम सब एक-एक भोजनके यालमें छाक ( सब प्रकारके । # भोजन ) भरकर दुर्वासा ऋषिको भोजन कराने के लिये जाओ। श्रीकृष्णको यह आज्ञा सुनकर सब रानियाँ पासागर अलग-अलग थालोंमें अनेक प्रकारके भोजा बरदार नसालोंको हामारी कर कहने लगी कि "हे महाराज ! २९५ । इस समय यमुना नदी अथाह जलसे भरी हुई बड़े वेगसे बह रही है। उसमें होकर हम सब किस प्रकार पार, हो सकती हैं ? तब श्रीकृष्णने कहा कि तुम सब लोग यमुना नदीके किनारे जाकर कहना कि "हमारे श्रीकृष्ण यदि सचमुच बालब्रह्मचारी हों तो हमको मार्ग दो।" यह सुनकर उन रानियोंने वैसा ही किया और यमुना किनारे जाकर वैसा ही कहा तब यमुना घुटनोंसे भी नीची हो गयी। उसमेंसे वे सब रानियां उतर गई और गोवर्द्धन पर्वतपर जाकर उन दुर्वासा ऋषिके सामने अनेक प्रकार भोजनोंसे भरे हये सब थाल जाकर रख दिये तथा उनसे प्रार्थना की कि श्रीकृष्णने ये सब थाल आपके भोजनके लिये भेजे हैं। कृपाकर आप भोजन कोजिये । रानियोंको यह बात सुनकर वह दुर्वासा ऋषि उन सोलह हजार थालोंका सब भोजन खा गया । तब जाते समय रानियोंने पूछा कि महाराज ! यमुना अथाह भर रही है हमलोग किस प्रकार पार हों। मरानियोंकी यह बात सुनकर ऋषिने पूछा कि तुम सब यहाँपर आई किस प्रकार थीं ? इसके उत्तरमें रानियों-1 P ने पहलेकी सब बात कह सुनाई । उसको सुनकर सोलह हजार भरे हये थालोंका भोजन करनेवाले दुर्वासा । ऋषि कहने लगे कि तुम यमुनाके किनारे जाकर कहना कि हे यमुना महाराणो ! दुर्वासा ऋषि सदा अल्पाहारी हो अथवा सवाकाल उपवास धारण करनेवाला हो तो हमें मार्ग देना । उन रानियोंने ऐसा ही किया। यमुनाके किनारे खड़े होकर ऐसा हो कहा जिससे यमुना घुटनों तक हो गई और वे सब रानियाँ पार उत्तर ! गई। उन्होंने जाकर यह सब वृत्तांत श्रीकृष्णसे कहा। सो देखो जिस प्रकार सोलह हजार गोपांगनाओंने अनेक प्रकारके भोगविलास क्रीड़ा करता हुआ विषयोंको पुष्ट करता हुआ था परस्त्री सेवन करता हुआ भा बालब्रह्म चारी कहलाया तथा सोलह हजार भरे हुये थालोंको एक ही बारमें भोजन करता हुआ हो सदा अल्पाहारो वा । उपवासी कहलाया। उसी प्रकार सैकड़ों जैनशास्त्रोंमें कहे हुये वचनोंको तथा केवलज्ञानी गणधर आचार्य सामान्य [२७ मुनियोंके कहे हये वचनोंको वा उनके आधारपर बड़े-बड़े आचार्योंके द्वारा कहे हये वचनोंको तो झूठा कह। कहकर उनका निषेध करते जाते हो और केवल अपने वचनोंको हटको स्थापन कर सम्यग्दृष्टो वा यथार्थ श्रद्धानी बनना चाहते हो सो भाई आप लोगोंका यह श्रद्धान ऊपर कहे हये उदाहरणके समान दिखाई पड़ता है। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदाचित् यहाँपर कोई यह कहे कि यह तो बड़ा अंधेर है जो सोलह हजार स्त्रियोंसे भोग विलास 4 करते हुये भी बालब्रह्मचारी कहलाये ? तो इसका समाधान यह है कि यह परमतका कथन है । भगवतादि पुराणमें लिखा है कि यदि वेदको साक्षीपूर्वक जो परयोनिमें लिंग प्रवेश करे तो अबतक वोर्यपात नहीं होता तबतक उसको ब्रह्मचारी संज्ञा है धीर्यपातका दोष माना जाता है इसलिए कुच मर्दन, चुम्बन, लिंगप्रवेशादिका दोष नहीं। यथा परयोनिगतो विंदु कोटि प्रजां विनश्यति । अर्थात् परयोनिमें प्राप्त हुई वीर्यको एक बूंद भी करोड़ों पूजाओंको नष्ट कर देती है । वेद श्रुतिमें भी लिखा है ___यावद्वीर्यस्खलन न भवति तावब्रह्मचारीति श्रुतिः। अर्थात् जबतक वीर्य स्खलन नहीं होता तबतक ब्रह्मचारी संज्ञा है। इसी प्रकार वेद, श्रुति और स्मृति माविके वाक्य दिखलाकर ये लोग ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवोंको तथा ऋषियोको निर्दोष बतलाते हैं सो यह महा-मिथ्यात्व है । ये जैन शास्त्रोंके वचन नहीं हैं। और सुनो आप लोग यह कहते हो कि जहाँपर पूजा, अभिषेक आवि कार्योम बहुत-सा आरम्भ होता हो तो वहाँपर थोड़ी ही वस्तुसे, वा बिना ही उस व्यके अयवा उसके अभावमें उसकी कल्पनासे अथवा किसी ॥ निर्दोष द्रव्यको वैसा ही नाम रखकर क्या पूजा नहीं हो सकती है ? क्या इन्हीं व्रव्योंसे पूजा हो सकती है ? चरणोंमें गंध नहीं लगाया उसके बदले गंध मिला हुआ जल दूरसे पूजाके किसी पात्र में क्षेपण कर दिया। पुष्प न चढ़ाये चावलोंको गंध वा केशरमें रंग कर पूजाके पात्रमें चढ़ा दिये। अनेक प्रकारके शाक, व्यञ्जन, पक। वान, दाल-भात, बही-दूध आदि मिष्ठान्नके बदले गोलाके टुकड़े पूजाके पात्रमें चढ़ा दिये । दीपकको जगमगाती ज्योतिके बदले गोलेके छोटे-छोटे टुकड़ोंको गंध वा केशरसे रंग कर चढ़ा दिया। घूरके सुगंधित धूमके बदले चंबनके चूरा को धोकर चढ़ा दिया। अनेक प्रकारके सार सुगंधित तथा मिष्ट और स्वादिष्ट फलोंके बदले बादाम, सुपारी आदि पूजा पात्रमें चढ़ा दिये। पुष्पांजलिके बदले केशरमें रंगे हुए चावल बखेर कर बड़े ऊँचे ' शब्दोंसे जय-जय शब्दों का उच्चारण कर दिया। सो क्या इस प्रकार पूजा नहीं हो सकती। अवश्य हो सकती [ २९६ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। परन्तु आप लोगोंका यह कहना और इस प्रकारको पूजाको पूजा मानना ठीक नहीं है। क्योंकि यदि सामभ्यं नहीं पूजा करनेवाला असमर्थ हो और वह बहुत अच्छे शुभ परिमाणोंसे इससे भी घोड़े द्रव्यसे भगवान की पूजा करे तो भी वह महाफलको प्राप्त होता है परन्तु जो समर्थ हैं, बनके पात्र हैं वे अपनी इंत्रियोंकी पुष्टिके लिए अपने घरके बने हुए भोजनमें वा किसी एक भी शाफमें यदि थोड़ा-सा नमक भी कम होता है तो मांग कर उसमें डालकर उसे खूब अच्छा स्वादिष्ट बनाकर खाते हैं। यदि ऐसे लोग दूसरेके घर भोजन करने । । जाँय तो लड्डू, बर्फी आदि मोठे पकवानोंको छोड़कर केवल रूखी रोटी कब खाते हैं। अच्छे-अच्छे पकवान । मांग-मांग कर खाते हैं और अबतक वे अच्छे पदार्थ सामने नहीं आते तबतक उनके परिणाम निरन्तर उसके लोभमें ही लगे रहते हैं। यदि एक ही दिन बसरी जगह दो-चार घरोंमें भोजन बना हो तो जहाँ अच्छेसे अच्छा घी, शक्कर, मिश्रीका पकवान बना हो वहीं जाते हैं। यदि किसी गरीबके गुड़का सोरा बमा हो तो उसके यहाँ कोई नहीं जाता है। ऐसे लोग स्वयं सुगन्धित गंध लगाते हैं । पुष्पोंको सार सुगन्धो लेते हैं। अपने घर दीपक जला कर आनन्द मनाते हैं । पान, सुपारी, इलायची, लोंग मावि सुन्दर फल खाकर प्रसन्न होते हैं। विवाह शादियों में अनेक दीपक जलाते हैं नृत्य-गीत, बाजे-गाजे आविसे उत्सव करते हैं जिनमें बस, स्थावर कायके जीवोंका प्रत्यक्ष घात होता है । ऐसे कार्योंसे वे लोग बहुत प्रसन्न होते हैं उन कार्योंमें तल्लीन हो जाते । हैं और उन कार्योंमें होनेवाले पापोंको देखते हुए वा जानते हुए भी उन कार्योका संग्रह करते हैं। अपनी । इन्द्रियोंके भोगोंसे अपने चित्तको वृत्तिको किञ्चित् भी नहीं रोकते। परन्तु पूजा, पाठ, अभिषेक आदि धर्म कार्यों में सबका निषेष करते हो? सो इसमें सिवाय लोभके और कोई कारण दिखाई नहीं पड़ता। यदि आप लोग लड्डू, बरफी आदि मिष्ठान्न भोजनोंके होते हुए भी साधारण भोजनोंसे काम चला लो, जिस तिस तरह अपना पेट भर लो, खोरमें बुरा कम हो वा न हो तो उसे ऐसे हो खा लो अथवा स्वरा वा शक्करके बदले । उसोके समान सफेद पिसा हुआ नमक डालकर खा लो तो हम भी समझें कि आप लोग ठोक कहते हो और जैसा कहते हो वैसा करते हो। परत ऐसा आप करते नहीं। जिस प्रकार पुजामें और और द्रव्योंसे काम लेते हो उसी प्रकार भूख मेटने के लिये केवल अन्नसे पेट भर लेना चाहिये। सो आप लोग करते नहीं इससे मालूम होता है कि आप लोगोंका कहना मिथ्या है। कोरा छल है। और देखो यदि अपने शरीरमें विषय-भोगोंके भोगनेकी होनता आ जाती है वीर्य क्षीण हो जाता है। ३८ FREEEEEERLENGEमराम्यारिलायसवाल Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर २९८ ] SUR तब दूध पीते हो, पौष्पिकर सेवन करते हो ऐसे बाकी बड़े रागले जहाँ-तहाँसे लाकर इकट्ठा करते हो, न महँगी देखते हो न और कुछ देखते हो । तथा उन विषय-भोगोंको मन्द भावोंसे भी सेवन नहीं करते। बाजीकरणके उपाय करते हैं परन्तु जब पूजा, भक्ति, अभिषेक आविका कार्य आ पड़ता है तो उसमें मायाचारीसे काम लेते हैं । जो सर्वथा अयोग्य है । कदाचित यह कहो कि ये तो गृहस्थ सम्बन्धी संसारी कार्य है इनको इस प्रकार किये बिना बनता नहीं । गृहस्थी आरम्भमय हे निमित्त मिलनेपर सब कार्य करने ही पड़ते हैं । परन्तु पूजा, अभिषेक आदि कार्य धर्मरूप हैं इनमें सावद्ययोग वा आरम्भजनित हिंसा नहीं करनी चाहिये। धर्म कार्य और गृहस्थीके कार्य एक नहीं हो सकते । सो भी कहना ठीक नहीं है। क्योंकि क्या संसार सम्बन्धी कार्योंमें पापका फल नहीं लगता है। आप लोग सांसारिक कार्य सब इच्छापूर्वक करते हो उनके करनेमें पापसे नहीं डरते परन्तु पूजा, अभिषेक आदि धर्म कार्योंमें अपने आत्माको बहुत चतुर बनाते हो । आत्मज्ञानी, आत्मण्यानी अथवा अध्यात्मी बनकर पूजा, अभिषेक आदि कार्योंमें अरुचि दिखलाते हो । धर्म कार्योंको बिना द्रव्यके जिस तिस तरह सिद्ध कर लेते हो । देव, धर्म, गुरु और जिनागम के भक्त बनकर उनमें छिद्र ढूंढते हो, दोष लगाते हो और इस प्रकार उनको सदोष बनाकर आप निर्दोष शुद्ध सम्यक्त्वी शुद्ध श्रद्धानी बनते हो । भावार्थ -- स्वयं भक्त होकर भी स्वामीको ( देव, शास्त्र, गुरुको ) सदोष मानकर स्वामित्रहिताका महा दोष लाव कर तथा अपनी स्तुति और परकी निन्दा आदिके सब दोषोंको धारण करते हुए भी शुद्ध श्रद्धानी बनते हो सो आप लोगों के ये कार्य सब दंभमय हैं । देखो एक पाप तो घोके घड़ेपर लगी हुई धूलिके समान होता है। संसार सम्बन्धी विषय भोगोंकी तृष्णारूप वा कषायसे होने वाले अथवा मिथ्यात्व अव्रत योग कषाय प्रभावरूप कार्य सब ऐसे ही पाप हैं इन पापोंका मिटना अत्यन्त कठिन है तथा दूसरे पाप कुम्भारके अवासे ( भट्टीसे ) निकले हुए घड़ेपर लगी हुई धूलिके समान है जो फूक मारते ही उड़ जाती है । उसी प्रकार भगवानका अभिषेक, पूजा, प्रतिष्ठा, नवीन मन्दिरका बनाना, प्रतिमाजीको प्रतिष्ठा कराना, तीर्थयात्रा, नित्यनैमित्तिक पर्व और व्रतोंके विधान वा उद्या पन करनेमें कुछ थोड़ासा पापरूप आरम्भ होता है परन्तु उसका नाश होना अत्यन्त सुसुजसाध्य है। पूजाबिक [ २९८ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९९ है शुभ कार्योसे उसी समय मष्ट हो जाता है । तथा उसके साथ पहलेके किये हुये समस्त पापोंके समूह नष्ट हो जाते हैं। जिस प्रकार थोड़ा-सा घी अग्निकी तीक्ष्ण ज्वालामें पड़कर उसी समय भस्म हो जाता है उसी प्रकार वह पाप उसी समय भस्म हो जाता है। तथा महत पुण्य प्रगट होता है। पवि इसमें संदेह करोगे तो फिर पूजाविक कोई भी कार्य नहीं बन सकेगा क्योंकि फिर तो समस्त आरम्भोंको छोड़ कर केवल ढूंढिया साधुओं के समान बनना पड़ेगा। भावार्थ--निग्नन्थ मुनि सो फिर भी भगवानको पूजा, वंदना आवि करते कराते है । परन्तु दूढिया साघुओंको भगवानको पूजा, वंदना करनी भी अच्छी नहीं लगती। इस प्रकार आप लोगोंका। हाल हो जायगा। इसके सिवाय यह भी विचार करो कि जैसे राजाके यहाँ बहुतसे सेवक होते हैं उनमेंसे कुछ तो निकटवर्ती रहते हैं और कुछ दूर रहते हैं । जो सेवक राजाके निकट रहते हैं वे राजाके हाथ, पैर दाबते हैं राजाको आज्ञानुसार सब सेवा करते हैं और पास रहकर राजाको भक्ति करते हैं तथा जो दूर रहते हैं वे दूरसे। केवल भक्ति करते हैं परन्तु इन दोनों में लाभ किसको अधिक होता हैं ? अधिक भक्तिवाला कोन कहलाता है ? • अधिक सुख, अधिक बड़प्पन और राजाका अधिक प्रेम किसको मिलता है ? अपराधोंका निवारण किसके अधिक होता है ? राजाको सुदृष्टि किसपर अधिक रहती है तो इसके उत्तरमें कहना ही पड़ेगा कि निकट रहनेवाले ॥ सेवकके लिये हो ये सब लाभ अधिक मिलते हैं । इसी प्रकार जो भक्तजन प्रतिमाजीकी अभिषेक, पूजन आदि । कार्यों बार-बार उनके चरणोंका स्पर्श करते हैं तथा अत्यन्त अनुराग, विनय और भक्ति भावोंसे चरणस्पर्शनादि कार्य करते हैं उनके पहले किये हुए सब पाप नष्ट होकर स्वर्ग मोक्षका महा लाभ प्राप्त होता है। यदि किसीके द्वारा योग्य वा अयोग्य अपराध भी बन जाता है तो जिस प्रकार राजा अपने निकटवर्ती । भक्त जानकर क्षमा कर देता है और उनकी भक्ति, स्तुतिसे संतुष्ट हो जाता है उसी प्रकार भगवानके चरणस्पर्श करनेसे, स्नान, विलेपन, पुष्पमाला वा प्रकोणक पुष्प उनको आशिका तथा नमस्कार, भक्ति, प्रार्थना आदि उत्तम कार्योंके द्वारा गृहस्थ सम्बन्धी संचित महा पाप नष्ट हो जाते हैं तथा उस पूजा, अभिषेक आदिसे है होनेवाला आरम्भजनित दोष भी सब दूर हो जाता है। और वह भक्त अपनी इच्छानुसार फल पाता है। कवाचित् यह कहो कि हम भी प्रक्षालन करते समय चरण स्पर्श करते हैं, नमस्कार भक्ति करते हैं, eHRSYTHSHAIRATRAINRHMIRPANDARAMAT Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर [ ३०० 1 पूजते हैं, सब काम करते हैं सो भी कहना अयोग्य ही है। क्योंकि सोधासा न्याय तो यह है कि एक बारका फल एक और अनेक बारका फल अनेक गुणा लिखा भी है, "अधिक अधिक कलत्" अर्थात् किका अधिक फल होता हो है ।" जब तक अत्यन्त निकटवर्ती न हुआ जाय तबतक अभिषेक, विलेपन, पुष्पार्चन आदि कार्यं सिद्ध नहीं होते। जो दूर रहते हैं उनके निकट रहनेवालोंके समान बार-बार भक्ति सिद्ध नहीं हो सकती । तथा उसका फल भी बहुत थोड़ा है। इसलिये जो यथार्थ श्रद्धानी हैं, सम्यग्दृष्टी है, बुद्धिमान हैं वे व्यर्था हटकर केवल अपने वचनोंका पक्ष लेकर अपना अकल्याण नहीं करते। तथा जो ऐसा करते हैं सम्यग् - दृष्टि वा यथार्थ श्रद्धानी नहीं हो सकते । उनको मनोमति वा अपने मनके अनुसार चलनेवाला समझना चाहिये। जैसे ब्राह्मणका लक्षण शास्त्रोंमें लिखा है "ब्रह्म जानाति ब्राह्मणः" अर्थात् जो ब्रह्म वा परमात्माको जाने उसको ब्राह्मण कहते हैं परन्तु इस गुणको धारण न करने पर भी सैकड़ों हजारों केवल जाति से ब्राह्मण हैं वैसे ही शास्त्रानुसार क्रिया न करनेवाले श्रावक भी केवल जातिसे श्रावक समझना चाहिये वे गुणोंसे श्रावक वायार्थ श्रद्धानी नहीं हो सकते। जिस प्रकार कोई सुनार चोरीका त्याग कर दे तो भी जातिसे चोर कहलाता है और वैश्य यदि धोरी कर ले तो भी जातिसे शाह कहलाता है । उसी प्रकार शास्त्रानुकूल क्रिया न करने वाले श्रावक समझना चाहिये। वे गुणसे ( सम्यक्त्वरूप गुणसे ) आवक नहीं हैं किंतु जाति या नामसे श्रावक हैं। ऐसा सम्यग्ज्ञानियों को समझ लेना चाहिये ! " इन पुरुषोंमें बहुतसे जीव मन्दकषायी भी हैं वे यत्नाचरणपूर्वक चलते हैं, विषय-भोगों में रुचि भी कम रखते हैं। क्षमा आदि गुणोंको भी धारण करते हैं, विद्वान् भी हैं और सब गुणोंसे सुशोभित हैं तथापि एक भगवानकी आज्ञा न माननेके दोषसे, राजाकी आज्ञा न माननेवाले वकके समान अपराधी हैं। आशाका मानना सबसे पहला कर्तव्य है। जो जीव राजाको आज्ञा मानते हैं उनके किये हुए अपराध छूट जाते हैं परन्तु जो जीव राजाकी आज्ञा नहीं मानते वे गुणवान होनेपर भी दोषी गिने जाते है इसी प्रकार भगवानको आज्ञा न माननेवाले अनेक गुणोंको धारण करनेपर भी दोषी ही समझे जाते हैं और भगवानकी आज्ञा माननेवाले यदि कुछ अपराध कर भी लें तो भी वह आज्ञा मानने मात्र से नष्ट हो जाता है। ऐसा समझकर विवेकी जीवोंको भगवानकी आशा अपने मस्तक पर धारण करनी चाहिये । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदाचित् यह कहो कि ऊपर लिखे हुए शास्त्रों के सपनको वा ऐसे जिनागमको हम नहीं मानते, उनपर। हमारी श्रद्धा नहीं है इसीलिए हम वैसा आचरण नहीं करते तो इसका उत्तर यह है कि इन शास्त्रोंके कथनको । सागर हजारों ऋषि मुनियोंने कहा है और तुम्हारा कथन केवल एक दो आदमियोंका कहा हुआ है सो हजारों ऋषि ३०१] मुनियोंके वचन कभी मिथ्या नहीं हो सकते और उनके विरुद्ध केवल एक बो साधारण आदमियों के वचन कभी सच्चे नहीं हो सकते । जो कथन मिथ्या है वह मिथ्या ही रहता है और जो कथन यथार्थ है वह यथार्थ हो । रहता है । चन्द्रमाको कितने हो लोग सदोष कहते हैं परन्तु ऐसी झूठो निन्दासे वह सदोषी नहीं होता। यह । तो हाथी और कुसेके समान अपना-अपना स्वभाव है जो जैसा होता है वह दूसरोंको भी वैसा हो समझता है। हमने यह कथन केवल भगवानको आज्ञा माननेवालोंके लिए लिखा है न माननेवालों के लिए नहीं। वुष्ट लोग । सज्जनोंके विरुद्ध सवासे होते चले आये हैं, सो यह उमका स्वभाव मिट नहीं सकता। जो कोई जोव जिन वाणोके एक अक्षरके अर्थको भी छिपाता है वा उसका अर्थ बदल कर दूसरा करता है वह अनन्त संसारी होता है क्योंकि ऐसा करनेसे देव, गरू, धर्म और जिनागमकी आज्ञाका भंग होता है। भारी अविनय होता है। । और ऐसे जीव नरकके पात्र होते हैं । भगवानको आज्ञाको न माननेवाले ऐसे मिध्यावृष्टि जीव लड़कोंको', स्त्रियोंको, भोले-भाले अज्ञानी जीवोंको, थोड़े पढ़े-लिखे नासमझोंको, अपने बच्चोंकी चतुराई दिखला कर तथा शास्त्रोंको झूठी साक्षो दिखलाकर पूर्वाचार्योंके विरुद्ध अपने कपोल कल्पित वचन सिद्ध करते हैं। मान कषायके उदयसे उन्मत्त पुरुषके समान १. ऐसी-ऐसी मिथ्या बातें लड़कोंसे ही प्रारम्भ होती हैं छोटे-छोटे लड़के बा अनपढ़ लोग अथवा विदेशी विद्याओंको सोखनेवाले अभिमानी लोग धर्मका स्वरूप तो जानते नहीं हैं न जाभनेका प्रयल करते हैं ऐसे लोगोंको चतुर मावाचारी तोव मिध्यादृष्टि लोग अपने वचन जालसे शीघ्र ही अपने वश कर लेते हैं। २. वर्तमानमें जो अनेक नवयुवकमंडल वंगमेनस् एसोसियेशन, यार दोस्तोंके मंडल, मित्रमंडल, युवक परिषद आदि नवीन-नवीन संस्थाएँ खुली हैं वे सब इसी प्रकारको संस्थाएं हैं। कुछ खुदगर्ज लोग अपना कार्य सिद्ध करने के लिए केवल धर्मके नामपर इन संस्थाओंको खोल देते हैं परन्तु वे लोग वा वे संस्थाएं मनमाने अधर्मकी प्रवृत्तियाँ चलातो हैं। कोई विजातीय विवाह चलाता है, कोई विधवा विवाह पुष्ट करता है, कोई छुआछूत लोप करता है, कोई मूर्ति पूजाका निषेध करता है, कोई रथोत्सव आदि प्रभावनाओंको रोकता है, कोई पूर्वाचार्योंके वास्त्रोंका खण्डन करता है, कोई पुराणोंको नहीं मानता, कोई जम्बूद्वीप, नरक, स्वर्ग आदिको नहीं मानता। कहां तक कहा जाय ऐसी-ऐसो संस्थाएँ सब अधर्मका प्रचार कर रही हैं। ऐसो संस्थाओंसे बहुत सावधान रहना चाहिये । तथा अपने बालबच्चोंको बहुत दूर रखना चाहिये। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर [ ३०२ ] अनेक अनर्थ उत्पन्न करनेवाले वचन कहते हैं, क्रोध करते हैं, दुर्बखन बोलते हैं, परन्तु अपना हृट नहीं छोड़ते । बार-बार उन्हीं बघनको कहते वा करते जाते हैं। नहीं मानते वे इस वास्तविक मोक्षमार्गमं मू भूर्खस्य पंच चिह्नानि क्रोधी दुर्वचनी तथा । हठी च दृढवादी च परोक्त नैव मन्यते ॥ ऐसे जो लोग पूर्वाचार्योंके कहे हुए जिनागमके वचनों को जाते हैं। अर्थात् क्रोध करना, दुर्वेचन कहना, हठ करना, बारम्बार उसी बातको कहते जाना और दूसरोंकी बात नहीं मानना ये पाँच मूर्खताके चिह्न है। ऐसे लोगोंका श्रद्धान कभी यथार्थं नहीं हो सकता केवल आजीfare लिए कपटरूप झूठा श्रद्धान होता है मोक्षके लिए यथार्थ श्रद्धान नहीं होता । १६६ चर्चा एकसौ उनहत्तरवीं 7 प्रश्न --- पहले पूजामें वाभ, दूब, गोमय भस्मपिण्ड, सरसों आदि पदार्थ लिखे हैं सो ये पदार्थ तो अपवित्र हैं हिंसा आदि अनेक दोषोंसे भरे हैं इसलिये इनको पूजामें क्यों लेना चाहिये । तथा अष्ट द्रव्योंमें कौन-कौनसे द्रव्य लेने चाहिये । समाधान – ये सब अपवित्र पदार्थ नहीं है किन्तु मांगलिक द्रव्य है इनको पहले भी लिख चुके हैं। जिस प्रकार लोह, लाख, हल्बी, मैनफल आदि मांगलिक पदार्थ विवाहमें वर कन्याके हाथमें बांधते है उसी प्रकार अभिषेक, पूजा, प्रतिष्ठा आदि कार्योंमें इन मंगल द्रव्योंको ग्रहण किया है। सो हो वसुनन्दीश्रावकाचारकी संस्कृत टीका लिखा है "यथा विवाहसमये चरकन्याः हस्ते लोहलाक्षासर्षपहरिद्रा दोन्यते तथाभिषेकप्रतिष्ठादौ दर्भदुर्वागोमय सर्षपादीनि मंगलद्रव्याणि गृह्यन्ते । अन्यत्किमपि नास्ति । महापुरुषैयन्मान्यं तदेव मन्यते" अर्थात् " जिस प्रकार विवाहमें वरकन्याके हाथमें लोह, सरसों, हल्दी आदि मंगल द्रव्य देते हैं उसी प्रकार अभिषेक, प्रतिष्ठा आदि कार्योंमें दाभ, दूब, गोमय, सरसों आदि मंगलद्रव्य ग्रहण किये जाते हैं। इनके ग्रहण करनेका और कोई प्रयोजन नहीं है। पहले के महापुरुष जो करते चले आये हैं वही किया जाता वही माना जाता है। तथा बाभके दश भेव हैं सो समयपर जैसा मिले वैसा ही ले लेना चाहिये। हमें बाभ या दुबके हो लिये कोई हट नहीं है । दाभ न मिले तो अनुक्रमसे जो मिले सो ले लेना चाहिये । इस प्रकारके बाभ ये हैं [ ३० Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चासागर ३०३ ] कुशाः कांसाः मा दुई उशीरा पदराः गोधमा व्रीहयो मुजा दश दर्भाः प्रकीर्तिताः ॥ ____ अर्थात्, कुश, कास, जौके पूले, दूब, खसखसके पूले, ककुंदर ( ) गेहूँके पूले, चावलोंके पूले, मूंज ये दस प्रकारके दाभ कहलाते हैं । धर्मरसिकमें भी लिखा है कि वाभके अभाव में कांस ले लेना चाहिये ये दोनों एक ही हैं यथा “कुशाभावे तु कांसाः स्युः कांसा कुशमयाः स्मृताः” १७०-चर्चा एकसौ सत्तरवीं पहले पूजाको विधिमें यक्ष, यक्षिणी, असुरेन्द्र, इन्द्र, दिक्पाल, नवग्रह, क्षेत्रपाल आविका आह्वान, ॥ स्थापन, पूजन आदि लिखा है सो यह तो जैनियोंको करने योग्य नहीं है। ये कार्य तो अन्य मतियोंके हैं। क्योंकि सम्यग्दृष्टि पुरुष तो अरहन्तव्य, वयाप्रणीत धर्म और निम्रन्थ गुरुको छोड़कर और किसोको पूजनाविक नहीं करते। जो करते हैं वे मिथ्यावृष्टि कहलाते हैं ऐसा सब ग्रन्यों में लिखा है। परन्तु तुमने यहाँपर नित्यपूजनमें ही इनका पूजन लिख दिया सो ऐसा श्रद्धान सम्यग्दष्टियोंका नहीं हो सकता । इन यक्ष, यक्षियोंको मन्दिरमें । रखना नहीं चाहिये इनको रखना मिथ्यावृष्टियोंका काम है। जैनियोंमें जो यह रीति चली है सो विपरीत । चलनेवाले लोगोंने चलाई है । सभ्यग्दृष्टि तो प्राणति होनेपर भी इनको पूजनादिक नहीं करता। समाधान—तुमने जो यह प्रश्न किया सो बहुत ठीक किया । यह ठीक है कि श्रीअरहन्तदेवके सिवाय अन्य देवोंको मानना मिथ्यात्व है। परन्तु अन्यमतके स्थापन किये हुये कुदेवादिकोंके पूजन करनेका निषेध किया है। जिन शासन देवोंका विधान जैन शास्त्रों में लिखा है उनका निषेध नहीं किया है यदि ऐसा न होता सो चौबीस तीर्थङ्करोंके गोमुख आवि चौबीस यक्षोंका वर्णन, चक्रेश्वरी आदि चौबोस यक्षियोंका वर्णन तथा क्षेत्रपाल आदि शासन देवताओंका वर्णन जैनशास्त्रोंमें क्यों लिखा जाता तथा इन यक्ष, यक्षियोंकी मूर्ति प्रतिमा के अगल-बगल वा नीचे क्यों बनाते? और इनके पूजनाविकको विधि शास्त्रोंमें क्यों कहते ? यदि इनका I पूजना मिथ्यात्व होता तो जैनशास्त्रोंमें क्यों लिखते ? Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर कदाचित् कोई यह कहे कि इनका पूजन किन-किन शास्त्रों में लिखा है तो इसका उत्तर यह है कि न "जिनप्रतिष्ठापाठ, इन्द्रध्वज, सार्द्धद्वितयद्वीपक्षेत्रपूजा, शान्तिचक्र, लघुस्नपन, मध्यस्नपन, बृहत्स्नपन, पंचकल्याण चतुर्विशतिपूजा, जिनयज्ञकल्प, एकसंधिस्वामी कृत जिनसंहिता, पूजासार, त्रिवर्णाचार, हवन पाठ इनको आदि लेकर समस्त जैनपुरागोंमें यथा अवसर इनका पूजन विधान लिखा है । भगवधि नसेनाचार्यने श्रीमदादिपुराणमें गर्भान्वय आदि क्रियाओंका वर्णन करते समय इन्द्रादिकोंका पूजन, आह्वान आदि लिखा है। श्रीऋषभवेबके जन्माभिधेकमें मेरु पर्वतपर अपने यथायोग्य स्थानपर दश दिक्पाल बैठे थे ऐसा लिखा है । यथा दिकपालश्च यथायोग्यं दिग्विदिग्भागसंश्रिताः । ___ तिष्ठन्ति समं निकायैः जिनोत्सवदिक्षया ॥ इसी प्रकार श्रीप्रभा चन्द्रने पावपुराणमें लिखा है कि "इन्द्रने दश दिक्पालोंको स्थापन कर संतुष्ट किया।" बृहवहरिवंशपुराणमें अन्तमंगल करते समय श्रीजिनसेनाचार्यने चौबोस तीर्थंकरोंके महाभक्त चौबीसों । जिनशासन देवताओंको तथा चक्रवरी, पळायती, अम्बिका, ज्वालामालिनी आदि सम्यग्दृष्टी देव-देवियोंको । 1 पुराणके माश्रय बतलाया है कि ये सब शासनदेवता जिनधर्मीके समीप रहते हैं। गिरनार पर्वतपर श्रीनेमि नायके मन्दिरको उपासना करनेवाली सिंहवाहिनी, चक्रको धारण करनेवाली अम्बिकादेवी है जिसके सामने । क्षुद्र देवता टिक नहीं सकते ऐसो वह अम्बिकादेवो कल्याणके लिये जिनशासनको सेवा करती है। इसलिये यहाँपर परचक्रका विघ्न नहीं हो सकता। इसके सिवाय नव ग्रह, असुर, नाग, भूत, पिशाच, राक्षस आदि नोच देव लोगोंके हितकी प्रवृत्तिमें विघ्न ! करते हैं । इसलिये विद्वान लोग शासन देवताओंके गुण स्मरण कर उन क्षुद्र देवताओंको शान्त करते हैं। ऐसा कथन ग्यारहवें, बारहवें श्लोकमें लिखा है सो विचार कर लेना चाहिये। रविषेणाचार्यने सुग्रीव यक्षको अर्ध देनेका कथन पद्मपुराणमे लिखा है तथा सोमसेनकृत लघुपपपुराणमें लिखा है कि "रावण अपने श्रीशान्तिनाथके मन्दिर में बहुरूपिणो विद्या सिद्ध कर रहा था। उसमें विघ्न करने के लिये बानरवंशियोंके कुमार लंकापुरोमें गये और अनेक विघ्न किये परन्तु रावण अपने ध्यानसे नहीं डिगा । उस समय वह रावण अपने ध्यानमें ऐसा । लोम बना रहा कि यदि ऐसा ध्यान मुक्ति के लिये करता तो यह मुनि केवलज्ञानको अवश्य प्राप्त होता । उस [३० Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बसागर ३०५ ] समय प्रशान्तिनाथके मन्दिर में स्थापन किये हुये क्षेत्रपालने उन वानरवंशी कुमारोंको डरा कर भगा दिया था । तथा उन पूर्णभव, मणिभद्र क्षेत्रपालने जाकर उलाहना दिया था कि ये लोग मंदिरोंमें जाकर विघ्न करते हैं सो यह बात ठीक नहीं है। तब रामचन्द्रने उन क्षेत्रपालोंसे कहा कि "आप लोग अन्याय मार्गपर चलनेवाले रावणकी तो रक्षा करते हो और धर्मात्माकी रक्षा नहीं करते सो तुमको ऐसा करना योग्य नहीं है। ऐसा पद्मपुराण में लिखा है । इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि क्षेत्र रहते ही हैं। यशस्तिलक महाकाव्यकी टीकामें लिखा है भगवान अरहन्तवेध तीनों जगतके नेत्र हैं जो कोई पूजा करनेवाला चतुणिकाय देवोंको भगवान अरहन्तदेयके समान जानकर पूजा करते हैं, दोनों को समान जानते हैं वे नरकगतिमें जाकर उत्पन्न होते हैं । परमागम वा जैन शास्त्रों में व्यन्तरादिक देवोंको जिनशासनको रक्षाके लिए कल्पित किया है। इसलिए सम्यग्दृष्टी जीवोंको इन शासन देवताओंके लिये यज्ञांश देकर ( पूजाका भाग दान कर ) मानना चाहिये ऐसा सम्यग्दृष्टियोंके लिए लिखा है। यथा- देवजगत्त्रयीनेत्र व्यन्तरायाश्च देवताः । समं पूजाविधानेषु पश्यन् दूरं व्रजेदधः ॥ ताः शासनादि रक्षार्थं कल्पिताः परमागमे । अतो यज्ञांशदानेन माननीयाः सुदृष्टिभिः ॥ तच्छासनैकभक्तानां सुदृशां सुव्रतात्मनाम् । स्वयमेत्र प्रसीदन्ति ताः पुंसां सपुरंदराः ॥ और देखो विजयाद्ध पर्वतपर विद्याधर निवास करते हैं उनमें कितने हो सम्यग्दृष्टी उसी भवसे मोक्ष जानेवाले वा स्वर्ग जानेवाले ऐसे राजा, महाराजा हुए हैं जिन्होंने विद्या सिद्ध करनेके लिए यक्ष-यक्षा आदि व्यन्तरोंकी पूजा वा आराधना की है। यह विषय श्रीगुणभद्राचार्यकृत उत्तरपुराण आदि अनेक ग्रंथोंमें प्रसंग पाकर अनेक स्थानोंपर लिखा है । श्री पालचरित्र में लिखा है कि जिस समय धवल सेठने राजा श्रीपालको समुद्रमें गिरा कर उसको रानोका सतीत्व हरण करना चाहा था उस समय उस सती रानोकी महिमा प्रगट करनेके लिये पद्मावती, चक्रेश्वरी, ज्वालामालिनो आदि यक्षियों तथा पूर्णभद्र, मणिभद्र आदि क्षेत्रपाल ये सब शासनवेवता अपने-अपने वाहन और शस्त्र लेकर आ उपस्थित हुए थे और सबने उस पापी सेठका घोर अपमान किया था और सतोकी महिमा प्रगट की थी । यथा- ३९ X ૨૦૧ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ०६ ] केम्पमानासना बहो जिनशासनदेवताः । आजग्मुः शीलरक्षायै बह्रो व्यन्तरामराः ॥७०॥ मणिभद्रमरः शीघ्र ं चक्रेब्धिमतिचंचलम् । वातैः प्रलयकालाभैः वणिक्पोता दिनाशनम् ॥ ७१ ॥ चक्रेश्वरी च पोतान्यभ्रमयच्चक्रवत्तदा । व्यधावृष्टिहरं धूपं महान्तं रोहिणी क्षणात् ॥७२॥ अग्नि प्रज्वालयामासाहो ज्वालामालिनी क्रुधा । पद्मावती चपेटायैः तन्मुखे मारयद्भृशम् ॥ श्वारूढक्षेत्रपालोघारपापिनं तन्मुखे दहन् । तच्छीलसिद्धये ज्वलता ता तेन तत्क्षणम् ॥ आरूढो गरुडं व्यन्तरेन्द्रो दशमुखाहयः । बंधनैः पृष्ठपाणि बोद्ध ह्रीमधो मुखः ॥ ( ? ) विन्ध्याचल पर्वतपरके चैत्यालय में रहनेवाले यक्षने भीमको गया नामका शस्त्र दिया था सो पाण्डवपुराणमें लिखा ही है । I की श्रीभद्रबाहु स्वामीने नवग्रह स्तोत्रमें लिखा है कि ग्रहोंकी शांतिके लिए भगवानको पूजाके साथ नवग्रहों पूजन भो करनी चाहिये । यथाजगद्गुरुं नमस्कृत्य श्रुत्वा सद्गुरुभाषितम् । ग्रहशांतिं प्रवक्ष्यामि लोकानां सुखहेतवे ॥ जैनेन्द्रखेचरा ज्ञेया पूजनीया विधिक्रमात् । पुष्पैर्विलेपनैधूपं नैवेद्यः फलसंयुतेः ॥ जन्मलग्ने च राशौ च यदि पीडितखेचराः । तदस्य पूजाया धीमान् खेचरैः सहिता जिन ॥ आदित्य सोम मंगल बुधशुक्रशनीश्चराः | राहुप्रमुखः जिनपतिपुरतोयं तिष्ठति ॥ इति भणित्वा पंचवर्णासु पुष्पांजलिं क्षिपेत् । जिनानां गृहे स्थित्वा ग्रहाणां तुष्टिहेतवे ॥ नमस्कारं ततो भक्त्या जपेदृष्टोत्तरं सुधीः । श्रीरुद्रबाहुभवाचेदं पञ्चमः श्रुतकेवली ॥ १. इनका अभिप्राय यह है । उस समय शासन देवताओंका आसन कम्पायमान हो गया और शोलको रक्षा करनेके लिये वे सब देवता आ गये । मणिभद्रने प्रलयकालके समान हवा चला कर समुद्र चंचल कर दिया जिससे जहाज नष्ट होता दिखाई दिया। चक्रेश्वरी जहाजको धक्रके समान फिरा दिया। रोहिणोने ऐसा धुआं फैलाया जिससे कुछ न दिखाई दे । ज्वालामालिनीने अग्नि जला दी । पद्मावतीने उस सेठ के मुँहपर मार लगाई। क्षेत्रपालने उसका मुँह जलाया । दशमुख नामके व्यन्तरेन्द्रने उसको बाँध लिया । २. इन सबका भावार्थ यही है कि यदि ग्रह दुष्ट हों, पोड़ा देते हों तो भगवान की पूजा करनेके बाद इन ग्रहों को पूजा करनी चाहिये । [ ३०६ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यासागर [३०७) इसका अर्थ विचार लेना चाहिए । और देखो भरत आदि पक्रवतियोंकी आयुधशालामें जब धक आयुष प्रगट हुमा सब उन्होंने उसको पूजा की सो यह कथन प्रसिद्ध हो है । इन बारह चक्रवतियोंमेंसे आठ चक्रवर्ती तो उसी भवसे मोक्ष गए और दो स्वर्गमें मर । ये सब सम्यम्वृष्टो थे । इनके सिवाय दिग्विजय करनेके लिए जब चक्रवर्ती निकलते हैं तब समाके किनारे जाकर यक्षको वश करनेके लिये वाभके आसन पर बैठकर तेला (तोन उपवास ) धारण करते हैं यह सब चक्रवतियोंको रोति है । श्रीमत् आदिपुराणके उनचालीसवें पर्वमें लिखा है कि तीर्थदूरोंके सिवाय विश्वेश्वरादिक और भी देव है जो शान्तिके करने वाले हैं। इन विश्वेश्वरादिकके सिवाय मांसाहारी क्रूर वेव और भी हैं सो उनका त्याग कर देना चाहिये अर्थात् उनको नमस्कार, पूजन आदि नहीं करना चाहिये ऐसा लिखा है यथा-- विश्वेश्वरादयो ज्ञेया देवता शांतिहेतवः । ऋरास्तु देवताः हेयाः येषां स्याद् वृत्तिरामिशैः ।। इससे मालूम होता है कि शान्ति करनेके लिये सीर्थंकरोंके सिवाय और भी देव हैं। छयालीसवीं लियाका वर्णन करते समय लिखा है कि नौ निधि और चौदह रत्नोंकी पूजन कर फिर चकका महोत्सव किया। यथा--- संपूज्य निधिरत्नानि कृतचक्रमहोत्सवः । दखा किमिच्छिकंदानं मान्याः संमान्य पार्थिवाः ॥ २३६ ॥ . यथावदभिषिक्तस्य तिरीटारोपणं ततः। क्रियते पार्थिवैः मुख्यैश्चतुर्भिः प्रथितान्वयैः ॥२३७॥ इस प्रकार महापुरुषोंने भी किया फिर हमारे तुम्हारे समान श्रद्धानियोंको तो बात हो क्या है ? दूसरे लघु पद्मपुराणमें भगवान मुनिसुव्रत तीर्थकरके जन्माभिषेकके समय लिखा है कि “इन्द्रने मेरु पर्वतपर अभिषेक करते समय पहले वश विपालोंको तया लोकपालोंको स्थापन किया, अर्घ देकर उनका पूजन, किया और फिर पांचवें क्षीरसागरका जल लाकर भगवानका अभिषेक किया । यथा Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततः शक्रेण दिकपाला लोकपाला यथाक्रमम्। संस्थाप्य पूजिता अध्यः सर्वशांतिकहेतवे ॥ ७॥ नर्चासागर जंतूविष्टं जलं चात्र तस्माचक्षीरसागरात् । ममानीय जिनो देवः तेन संस्नाप्यते मया ॥ [ ३०८] यहाँ इन्टने भी ऐसा किया सो क्या इसके सम्यक्त्व नहीं है जो अपने सेवकोंका भी अर्घ देकर पूजन किया। श्रीमद् आदिपुराणके बालोसवें पर्वमें क्रियाओंके मन्त्राधिकारमें पीठिका मन्त्र आदि मंत्रों में जिनेन्द्रदेषके सिवाय अन्य देवोंको भी पूजना लिखा है । यथा "सम्यग्दृष्टे आसन्नभव्यनिर्वाणपूजा अग्नीन्द्राया स्वाहा" इति पीठिका मंत्रः। "सम्यग्दृष्टेशानभूत सरस्वति स्वाहा' इति जातिमंत्रः। “ग्रामपतये स्वाहा” इति निस्तारमंत्रः। “अनादिश्रोत्रियाय स्वाहा”। श्रावकाय स्वाहा । देवब्राह्मणाय स्वाहा । सुब्राह्मणाय स्वाहा । सम्यग्दृष्टे भूपते नगरपते कालश्रवणयक्षाय स्वाहा” इति ऋषिमंत्रः । "सम्यग्दृष्टे कल्पपते दिव्यमतें धज्रनामाय स्वाहा” इति सुरेंद्रमंत्रः। इस प्रकार और भी परम मन्त्र राजादिक मन्त्रों में अग्नींद्र, कालश्रमण, यक्ष तथा इन्द्र आविका पूजन ! है । सो सब विचार कर लेना चाहिये। यहाँपर कदाचित् कोई यह कहे कि यह सब लिखा है सो तो सब ठीक है परन्तु गोम्मटसार, त्रिलोकसार आदि ग्रन्थों में तो नहीं लिखा है। तो इसका समाधान यह है कि प्रथम तो गोम्मटसारमें यह प्रसंग हो नहीं आया है। पयोंफि जिनमन्दिर, जिनप्रतिमा, पूजा, प्रतिष्ठा, श्रावकधर्म आदिका वा प्रथमानुयोगका जहाँ । वर्णन है यहाँ यह सब कयन किया है । इसलिये यदि एक गोम्मटसारमें नहीं है तो जैनधर्मके अन्य शास्त्रोंमें तो। है । यदि एक गोम्मटसारको ही मानोगे अन्य शास्त्रोको नहीं मानोगे तो गाम्मटसारके बिना अन्य सब शास्त्र १ अप्रमाण मानने पड़ेंगे । फिर उन शास्त्रोंका स्वाध्याय श्रद्धान आदि करना भी नहीं बन सकेगा। कदाचित् आपको ऐसा ही हट है कि त्रिलोकसार, गोम्मटसारके बिना हम और ग्रन्थोंका श्रवान नहीं करते तो देखो त्रिलोकसारमें अकृत्रिम चस्यालयों में विराजमान श्रीजिनप्रतिमाओं का स्वरूप दिखलाते समय लिया। Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चासागर ३०९] है कि अकृत्रिम चैत्यालयों की प्रतिमाओंके दोनों ओर तथा नीचे सर्वाल्हाव और सनत्कुमार श्रादि बत्तीस-बत्तीस म यक्ष और श्रीदेवी तथा श्रुत देवता स्त्री मनुष्योंके आकारमें अनादि निधन विराजमान हैं। भावार्थ-प्रतिमा के दोनों ओर बत्तीस-बत्तीस यक्ष तो चमर दुला रहे हैं तथा श्रीदेवी वा लक्ष्मीदेवी और श्रुतदेवता वा सर. स्वती देवी वहीं पर विराजमान हैं। प्रतिमाजीके नीचे सल्हिाद और सनत्कुमार ये दोनों जिनभक्त यक्ष बैठे हैं। उनके आगे अष्ट मंगलद्रव्य रक्खे हैं । यथा दसतालमाणलक्खणभरिया पेक्खंत इव वंदंता वा । पुरुजिणतुगा पडिमा रयणमया अट्ट अहियसया ॥ ६७६ ॥ चमरकरणागजक्खग वत्तीसं मिहुणगेहि पुह जुत्ता । सिरसीए पत्तीए गम्भगिहे सुट्ट सोहंति ॥ ६७७ ।। सिरिदेवी सुहदेवी सव्वाण्ड्सणकुमारजक्खाणं। रूवाणिय जिणपासे मंगलमढविहमधि होदी ॥ ६७८ ॥ इस प्रकार त्रिलोकसारमें लिखा है । इसका अर्थ ऊपर लिखे अनुसार है। इसी प्रकार गोम्मटसारमें कर्मकांडके नौवें अधिकारको समाप्तिमें जहाँ समस्त ग्रन्थ पूर्ण होता है तया # शास्त्रको पूर्णता होती देख कर आचार्य श्रोनेमिचन्द्र सिद्धांत चक्रवर्तीको प्रतिज्ञा पूरी होती है वहाँपर अन्त । मंगल करते समय लिखा है कि पंचसंग्रह सूत्ररूप यह गोम्मटसार ग्रन्थ सदा जयशील हो । तथा गोम्मट नामके पर्वतके शिखरपर श्रीचामुण्डरायके किये हुये जिनालयमें श्रीगोम्मट जिन अर्थात् श्रीनेमिनाथ तीर्थङ्करको । एक हाथ प्रमाण ऊँची इंद्रनीलमणिको प्रतिमा विराजमान है वह सदा जयशील हो। इसी प्रकार जिस राजा चामुण्डरायने श्रोनेमिनायके जिनालयमें जो एक बहुत ऊँचा स्तम्भ खड़ा किया है तथा उसपर जो पक्षदेवको । मूर्ति स्थापित की है जिसके मृफुटके अग्रभागसे निकलती हुई किरणरूपो जलसे सिद्धपरमेष्ठीके आत्मप्रवेशोंके । आकारस्वरूप दोनों शुद्ध चरण धोये जाते हैं ऐसा वह राजा चामुण्डराय सदा जयशील हो । यहाँपर जो यक्षके । मुकुटकी किरणोंसे सिद्धपरमेष्ठीके चरण धोये आनेको बात लिखी है सो केवल उपमामात्र है उस खम्भेकी Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊंचाई अधिक विखलाई है। कुछ वे किरणे सिद्धों तक थोड़े ही पहुंचती हैं । अभिप्राय केवल इतना ही है कि । राजा चामुण्डरायने बहुत ऊंचा स्तम्भ बनवाया है जिस पर यक्षको मूर्ति स्थापित को है, ऐसा गोम्मटसारमें वर्गासागर लिखा है। यथा[३१ ] गोम्मटसंगहसुगो गोम्मटसिहरुबरि गोम्मटजिणोय । गोम्मटरायविणिम्मियदक्खिणकुक्कडजिणो जयऊ ॥५२॥ जेणुब्भियर्थभुरिमानावखसिमीरणनिलजलधोया । सिद्धाण सुद्धपाया सो राओ गोम्मटो जयऊ ॥ ५३ ॥ इस प्रकार गोम्मटसारमें भी जिनालयमें स्थापन किये हुए यक्षदेवका वर्णन है । और देखो देवेन्द्रनागेन्द्रनरेन्द्रवंद्यान् शुभत्पदान् शोभितसारवर्णान् । दुग्धाब्धिसंस्पर्द्धिगुणैर्जलोधैर्जिनेन्द्रसिद्धांतयतीन यजेऽहम् ।। इत्यादि पूजा-पाठ नित्य पढ़ा जाता है । यह पाठ नरेन्द्रसेन भट्टारककृत प्रतिष्ठापाठका है उसी पाठमें यक्ष, पक्षी, इन्द्रादिक, देव, नवप्रह, दिक्पाल, क्षेत्रपाल आविको पूजा करना लिखा है । श्रीसमन्तभद्रस्वामीने अपने रत्नकरण्डश्रावकाचारमें लिखा है कि सम्यादृष्टी पुरुषोंको भय, आशा, ।। स्नेह वा लोभसे कुगरु, कुवेव और कुशास्त्रोंको नमस्कार और विनय कभी नहीं करना चाहिये । यथाभयाशास्नेहलोभाच्च कुदेवागमलिंगिनाम् । प्रणामं विनयं चैव न कुयुः शुद्धदृष्टयः ।। यहाँपर कुवेवोंका निषेध किया है सम्पवृष्टी देवोंका निषेध नहीं किया है । इस प्रकार अनेक शास्त्रोंमें लिखा है। कदाचित् यहाँपर यह कहो कि शास्त्रोंमें लिखा है तो हम क्या करें ? हमको तो किसी प्रकार करना योग्य नहीं है । क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीव किसी प्रकार भी इन देवोंको पूजा, वन्दना आदि नहीं करते क्योंकि समस्त अनग्रन्थोंमें फुदेवोंके माननेका त्याग लिखा है। कुदेवोंके माननेका त्याग किसी एक शास्त्रमें नहीं किन्तु Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर 1 समस्त शास्त्रोंमें लिखा है। इसलिए सम्यग्दृष्टि पुरुषोंको इस प्रकारका ( इन देवोंके पूजनेका ) श्रवान, मान, | आचरण करना ठीक नहीं है। परन्त इसका उत्सर वा समाधान यह है कि आपका कहना तो सत्य है सर वा समाधान यह है कि आपका कहना तो सत्य है और । शास्त्रोंमें भापके कहे अनुसार ही लिखा है आपका यह कहना अन्यथा अथवा मिथ्या नहीं है किन्तु उन शास्त्रोंमें कुवेवोंका त्याग लिखा है। जो ब्रह्मा, विष्णु, महेश, विनायक, क्षेत्रपाल, चंडी, भैरव, मारुति आदि कुवेव। I अन्य मतियों के स्थापन किये हुये हैं उन्होंकी पूजा सेवाके स्याग करनेके लिये लिखा है। जैनशास्त्रोंमें कहे हुये । सम्यग्वृष्टी शासन देवताओंका निषेध नहीं है। यदि जैनशास्त्रों में कहे हुये शासन देवताओंका निषेध माना #जायगा तो अनेक शास्त्रोंमें इनका वर्णन क्यों लिखा जाता ? क्योंकि जैनशास्त्रोंमें तो पूर्वापरविरुद्धरहित यवि ऐसा न मानोगे तो गोम्मटसारके पहले अधिकारमें लिखा है कि "महाभारत का रामायण आदि । शास्त्रोंको नहीं सुनना चाहिये । सो क्या जैनशास्त्रों में कहे हुये भारत अर्थात् कौरवों पांडवोंका चरित्र वा याक्ववंशियोंका कयन जो हरिवंशपुराण वा परिवपुराणाविकोंमें लिखा है तथा रामायण अर्थात् रामचन्द्र रावणको कथा जो पद्मपुराणमें लिखी है वह भी क्या नहीं सुननी चाहिये । परन्तु हम आप सब हो इन ग्रन्थोंको पढ़ते-पढ़ाते वा सुनते-सुनाते हैं। इससे सिद्ध होता है कि अन्य मतके रामायण, भारत आदि ग्रन्थ नहीं सुनने चाहिये । जैनशास्त्रों में कहे हुये रामायण, भारत आदिके सुननेका निषेध नहीं है । यदि जैनशास्त्रोंमें कहे हुये भारत, रामायण आदिके सुननेका निषेध मानोगे तो हरिवंशपुराण, पांडवपुराण, पपपुराण आदि ग्रन्धोंका भी लोप करमा मानना पड़ेगा। इसलिये अपना और परका विचार कर कहना चाहिये। जैनशास्त्रों में जो शासन देवताओंका पूजन लिखा है सो ये सब देवता सम्यग्दृष्टो जिनभक्त हैं और जनशासनके रक्षक हैं इसलिये ये सामियों के समान हैं। यदि सम्यग्दष्टी पुरुष इनकी पूजा सत्कार करे तो । । क्या दोष है। जो साधर्मी पुरुष अपनेसे गण, तप वा आयु आदिमें बड़े हों उनको विनय, भक्ति, यपाय । सन्मान, विनय आदि अन्य साधर्मों परुष करते हो यह रोति सदासे चली आ रही है। शास्त्रोंमें भी साधर्मी की सेवा, आदर, सत्कार आदि करना लिखा ही है। तथा वर्तमान समयमें भी श्रावक परस्पर वात्सल्यभाव धारण कर एक दूसरेको दान, मान और सन्मान कर संतुष्ट करते ही हैं तो फिर देवगतिके सामियोंको मानने Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्षासागर 1 ३१२] । में मिथ्यात्वका दोष किस प्रकार आ सकता है ? अन्य कुवेवाविकके मानने में मिथ्यात्व वा हिंसाका दोष प्रत्यक्ष आता है इसलिये सम्यग्दृष्टो पुरुष उनको कभी नहीं मानते हैं और न कभी मानना हो चाहिये । जो पुरुष । | इस कथनसे विपरीत कथन करते हैं वे सम्भकारी नहीं हैं सामान लिया है। ऐसा अनेक शास्त्रों में लिखा है। १७१-चर्चा एक सौ इकहत्तरवीं प्रश्न-पहले सब कार्योंमें मंत्र शब्द लिखा है सो मंत्र इन दोनों अक्षरोंका अर्थ क्या है और इनसे मिले हुए मंत्र शब्दका अर्थ क्या है। ___समाधान-मन्त्र शब्दमें दो अक्षर है पहला अक्षर में है उसका अर्थ मन अथवा मनसे सम्बन्ध रखनेबालीमनोकामना है और शब्दका अर्थ रक्षा करना है। इन दोनों अक्षरोंके मिलानेसे मंत्र शब्द बनता है। जो 'म' अर्थात् मन दा मनोकामनाकी 'त्र' अर्थात् रक्षा करे उसको मन्त्र कहते हैं । सोही लिखा हैमकारं च मनः प्रोक्तं प्रकारं त्राणमुच्यते । मनसस्त्राणयोगेन मंत्र इत्यभिधीयते। १७२-चर्चा एकसौ बहत्तरवीं प्रश्न-पहले जो जिनपूजाका वर्णन लिखा है सो उस पूजाको करनेवाला कैसा होना चाहिये ? समाधान- जैन शास्त्रों में पूजाके प्रकरणमें पूज्य, पूजक, पूजा, पूजा हेतु और फल ये पांच प्रकरण लिखे हैं । इनका स्वरूप इस प्रकार है । जो क्षुधा, तृषा आदि अठारह दोषोंसे रहित है, केवलनानसे सुशोभित है, जो कृतार्थ है अर्थात् अष्ट कर्मों के नाश करने रूप कार्यको कर चुके हैं, सिद्ध हो चुके हैं, जो सबका भला । करनेवाले हैं, इन्द्रादिक देव भी जिनके चरण कमलोंको पूजा करते हैं, जो आठों प्रातिहायोंसे विभूषित हैं और ॥ छयालीस गुणोंसे सुशोभित हैं ऐसे वीतराग अरहन्त देव पूज्य है। भावार्थ-~अन्य मतके द्वारा माने हुये हरि, हर, चंडी, मुंडी, भैरव, क्षेत्रपाल, दुर्गा, बोजासणी, शीतला, भवानी, गणपति, हनुमान, अऊत, पन्न, भूस, प्रेत, पितर, सतो आवि अनेक प्रकारके मिथ्यादृष्टी कुवेवादिक कभी पूज्य नहीं हो सकते । सम्यग्दृष्टी जोव ऐसे ॥ कुबेवादिकोंको कभी पूजा नहीं कर सकते किन्तु भगवान अरहंत देव हो सदा पूज्य होते हैं सो ही पूजासारमें लिखा है। भारताचा ३१ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूज्यः स प्राप्तकैवल्यो निष्ठितार्थो जिनेश्वरः । सार्वः सर्वेन्द्रवंद्यांधिःप्रातिहार्यादिसंयुतः॥ आह्वाम, स्थापन, सन्निधिकरण, पूजा और विसर्जन इस प्रकार पंचोपचारी पूजाफा स्वरूप जो पहले। बर्चासागर कहा है उसका करना पूजा है। पूजा करना पुण्यवृद्धिका कारण है यही पूजाका हेतु है । मोक्ष प्राप्त होना ३१३ ] पूजाका अन्तिम फल है। पूजकका स्वरूप अभी आगे बतलाते हैं । इस प्रकार पूजाके पांच भेद हैं सो ही पूजा सारमें लिखा हैम पंचोपचारविधिना पंचशद्धयान्विनाईतः। भव्यात्माचरणं पूजा प्रतिष्ठादिक्रियाविधिः ।। पूज्यो जिनपतिः पूजा पुण्यहेतुः जिनार्चना । फलं साभ्युदयामुक्ति भव्यात्मा पूजकः स्मृतः ॥ ऐसा क्रमसे समझ लेना चाहिये। आगे पूजक अर्थात् पूजा करनेवालेका विशेष स्वरूप लिखते हैं। जो जाति और कुलसे शुद्ध हो, शीलवान हो, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वा उत्तम शूद्र हो, बतोंको वृढ़ताके साथ पालन करनेवाला, आचरण जिसके वृढ़ हों, जो सत्य बोलनेवाला हो, शौचाचारको पालन करनेवाला हो, मित्र-बान्धव आदिके द्वारा पवित्र हो, ( जातिव्युत न हो) अपने गुरुके दिये हुए मन्त्रसे सुशोभित हो ( अष्ट। मलगण और यज्ञोपवीत आधिको धारण करनेवाला हो) और जो जीवोंकी हिंसासे अत्यन्त दूर हो ऐसा मनुष्य। भगवानको पूजा करनेका अधिकारी होता है । सो ही पूजासारमें लिखा है-- ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यःशद्रो वाथ सुशीलवान् । दृढव्रतो दृढाचारः सत्यशोचसमन्वितः। कुलेन जात्या संशुद्धः मित्रबंधादिभिः शुचिः । गुरूपदिष्टमंत्रादयः प्राणिवधादिदुरगः ।। आगे पूजा करनेघालेका लक्षण और भी विशेषतासे कहते हैं। जो पवित्र हो ( जिसके कुल में धरेजा।। या विषया विवाह न हो) जो प्रसन्न यवन हो, सदा प्रसन्न रहनेवाला हो, जो गुरुका भक्त हो, तोंको दृढ़ता१. शूद्रके लिये जो पूजाका अधिकार लिखा है सो इसका अभिप्राय यह है कि जिन शूद्रोंमें विधवाका घरेजा नहीं होता ऐसे शूद्रों- को उत्तम शूद्र कहते हैं ऐसे शूदोंको केवल दूरसे पूजा करनेका अधिकार है उसको अभिषेक, चरणस्पर्श आदि करनेका अधिकार नहीं है । जिन कुलोंमें विधवाओंका घरेजा होता है वे चाहे ब्राह्मण हों चाहे देश्य हों और चाहे शूद्र हों वे सब निंद्य शूद्र कहलाते हैं ऐसे लोगोंको पूजा आदि करनेका कोई अधिकार नहीं है। [ ३१ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ३१४ ] के साथ पालन करनेवाला हो, दयालु हो, चतुर हो, जप, तप कर सहित हो और बीजाक्षरोंको धारण करनेवाला हो वही भगवानकी पूजा करनेका अधिकारी होता है । सो ही पूजासारमें लिखा है शुचिः प्रसन्नो गुरुदेवभक्तो दृढव्रतः सत्यदयासमेतः । दक्षः पटुः वीजपदावधारी जिनेन्द्रपूजासु स एव शस्तः ॥ आगे दूसरे प्रकारसे भी पूजा करनेवालेका स्वरूप लिखते हैं। जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीनों क्षणोंमेंसे कोई 'हो, जो अत्यन्त रूपवान हो, सम्यग्दृष्टी हो, अणुव्रती हो, चतुर हो, जो सदा सदाचारका पालन करनेवाला हो, पंडित हो वह पूजा करनेका अधिकारी होता है। को हो लिखा है-त्रैवर्णिकोतिरूपांगः सम्यग्दृष्टिरणुव्रती । चतुरः शौचवान् विद्वान् योग्यः स्याज्जिनपूजने ॥ ऐसा जिनसंहिता के तीसरे सर्गमें लिखा है । १७३ - चर्चा एकसो तिहत्तरखीं प्रश्न - - पूजा करनेवालेका स्वरूप तो जाना परन्तु जो पूजा करने योग्य नहीं है उनका स्वरूप क्या है ? समाधान -- साधारण रीतिसे तो यह समझ लेना चाहिये कि जो ऊपर लिखे कथनसे विपरीत चलनेवाला पुरुष है वही पूजा करनेके अयोग्य है। तथा विशेष रीतिसे इतना और समझ लेना चाहिये कि पूजा करनेके वे ही अधिकारी हैं जो कुलहीन न हो, मिथ्यादृष्टी न हो, पापी न हो, मूर्ख न हो, निकृष्ट क्रियावाला और निकृष्ट आचरणवाला न हो, किसी रोगसे दूषित न हो अर्थात् वाद, खुजली, विचचिका, कोढ़, मेवा आविक रोग न हो, जिसका मुँह बुरा बिखने वाला न हो, जो अन्धा, बहरा, काणा, ऐखाताना न हो, जिसके शरीर पर सफेद फूल न हो, जो गूंगा, लंगड़ा, पागल, टोंटा न हो तथा और २ ऐसे ही रोगोंसे पीड़ित न हो, जिसके शरीरमें अधिक अंग न हो, छह उँगली न हो, हाथ, पैर आबिमें कोई अंग अधिक न हो, कोई अंग कम १. इस श्लोक ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य हो पूजा करनेके अधिकारी लिखे हैं। इससे सिद्ध होता है कि शूद्रोंको पूर्ण पूजा करनेका ( अभिषेक पूर्वक पूजा करनेका) अधिकार नहीं है। ऐसी पूजा करनेका अधिकार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यको हो है । शूद्र केवल दूरसे ही द्रव्य चढ़ा सकते हैं वे ब्राह्मण, यात्रिय, वैश्योंके साथ मिलकर भी पूजा नहीं कर सकते। अलग रहकर ही द्रव्य चढ़ा सकते हैं। आगेकी चर्चा में ही शूद्रोंको पूजा करनेका निषेध लिखा है। [ ३१ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासागर PARMACINEMAHESearespearedwapermawe न हो, हाथ, पैर, मुख, मस्तक, नाक, कान आदि शरीरके अवयव जिसके कम न हों । जो मूर्ख न हो, अत्यन्त । बूढ़ा न हो, बालक न हो, साहसिक ( मारने आविकी हिम्मत रखनेवाला) न हो, जो अधिक लम्बा न हो, बौना न हो, कुरूप न हो, शास्त्रोंका अजानकार न हो, न लोभो हो, न अत्यन्त क्रोधी हो, न दुष्ट हो, जो अभक्त वा भक्तिहीन न हो, धनको अत्यन्स इच्छा रखनेवाला न हो, पाखंडो न हो, वदसूरत न हो, जो क्रोधी न हो, अत्यन्त मोहवाला न हो, धोठ न हो, व्रतोंको शिथिलतासे पालन करनेवाला न हो, रोगी न हो अर्थात् ज्वरातिसार संग्रहणी, अजीर्ण, विशूचिका, कृमि, पांडु, रक्त, पित्त, श्वास, कास, शूल, गुल्म आदि अनेक रोगोंमसे जिसको कोई रोग न हो, जो अन्यायी न हो, अविनयो न हो, ज्यारी न हो, अज्ञानी न हो विदूषक न हो, नाटयकर्मका उपासक न हो, नपुसक न हो, महावतो न हो, सो पूजा करने योग्य है तथा ऊपर लिखे हुये दोष जिसमें हो वह पूजा करने योग्य नहीं है । सो हो पूजासारके दूसरे अधिकार में लिखा है। न कुलीनो न दुईष्टिर्नपापीनाप्यपण्डितः। न निकृष्टक्रियावृत्तिर्नातंकपरिदूषितः ॥ ३०॥ नाधिकांगो नहीनांगो नातिदी? न वामनः।न विरूपोन मूढात्मा नातिवृद्धो न वालकः॥ न साहसिकदुर्वेषो नाशास्त्रज्ञोन लोभवान् ।नातिकोधी न दुष्टात्मा नाभक्तो न विरूपकः॥ न क्रोधावी न मोहावी न दुष्टो नाहढवतः । नानर्थी न च पाखंडी न रोगी नाविनीतकः ॥ न यूतव्यसनासतो नाविद्वान् न विदूषकः । न नाव्योपासको पंडः नानयो न महाबती॥ जिनमें ऊपर लिखे दोष हों वे पूजा करनेके अधिकारी नहीं हैं। इनके सिवाय और भी कितने हो दोष हैं वे भी पूजा करनेवालेको छोड़ देने चाहिये । जैसे आलसी, तन्द्रालु, अत्यन्त मानी, मापाचारो, शूद्र हो और जो जिनसंहिताके मार्गको अर्थात् पूजा-पाठ करने आदि की क्रियाओंको न जानता हो वह भो पूजा करनेके योग्य नहीं है । सो हो भगवद् एकसन्धिकृत जिनसंहिताके तीसरे अधिकार में लिखा है । यथा-- न शूद्रः स्यान्न दुई ष्टिर्न पापाचारपंडितः। न निकृष्टक्रियावृत्तिनातकपरिदूषितः ।। ३ ॥ नाधिकागो न होनांगो नातिदीर्घो न वामनः।न विदग्धो न तन्द्रालु तिवद्धो न वालकः॥ नातिलुब्धो न दुष्टारमानातिमानी न मायिकः। नाशुचिर्नविरूपांगो नाजानन् जिनसंहिताम्॥ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर । ३१६ ] प्रवन-यहाँपर जिनसंहिताके मार्गको न जाननेवालेके लिए पूजा करनेका निषेष लिखा सो इसका कारण क्या है ? . समाधानजैनमतके संहिताशास्त्रों में जिनस्नपन पूजा, प्रतिष्ठा आदि अनेक कर्तव्य कोको विधि लिखो है । यदि कोई पुरुष जिनसंहिताको नहीं जानेगा तो वह पूजाके मार्गको भी नहीं जानेगा । इसलिए पहले। जिनसंहिताका अभ्यास कर लेना चाहिये। पूजाके मार्गको, विधिको जान लेना चाहिये तब फिर पूजा करनी चाहिये । जो पुरुष इन संहिताओंको नहीं जानता वह पूजा, प्रतिष्ठा यादि को विधिको भी नहीं जान सकता। इसलिये सबसे पहले जिनसंहिताओंका अभ्यास करना चाहिये, पूजादिकको विषि जाननी चाहिए और फिर पूजा, अभिषेक आदि कार्य करने चाहिये । जो पुरुष संहिता प्रन्थोंको नहीं जानता उनके न जाननेसे पूजा, प्रतिष्ठाको आम्माय वा विधि भी नहीं जान सकता जिससे वह अनेक प्रकारके संशय उठाता है अनेक विपरीत कार्य करता है और फिर अपने मनको कल्पनाओं के अनुसार करता है। इसलिए जो संहिताग्रन्थों में कही हुई विधिको नहीं जानता यह पूजा करनेके अयोग्य है। प्रश्न-जिनसंहिताका अर्थ क्या है ? समाधान-संहिता शम्द दो शब्दोंसे बना है-सं और हित । जो कल्याण वा हित करनेवाली है उसको है हिता कहते हैं, जो सं अर्थात् सम्यक् वा अच्छी तरह जीवोंका कल्याण करनेवाली हो उसको संहिता कहते हैं। अथवा जिसके संसर्गसे जीवोंका कल्याण हो उसको संहिता कहते हैं तथा जो जिन अर्थात् भगवान अरहन्तदेवसे ६ सम्बन्ध रखनेवाली अरहन्तदेवको कही हुई हो उसको जिनसंहिता कहते हैं। सो हो पूजासारके पहले अधिकारमें लिखा हैसंगतं हितमेतस्या भव्यानामिति संहिता। जिनसंबंधिनी सेयं नाम्ना स्याज्जिनसंहिता ॥ इस प्रकार इसकी निरुक्ति है। १. शास्त्र और विधि ग्रंथोंकी आज्ञा है कि बालकको सबसे पहले श्रावकाचार पड़ाना चाहिये । उन श्रावकाचारों में भी सबसे पहले संहिता ग्रंथ है । देवदर्शन करना, पूजा, भवित, अभिषेक आदि करना हो सबसे पहले सिखाने चाहिये फिर मूलगुण उत्तरगुणोंका स्वरूप सिखाना चाहिये। इसके बाद फिर अन्य विद्याएँ सिखानी चाहिए। जो ऐसा नहीं करते उनको सन्तान सदा अधार्मिक उत्पन्न होती है। Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४-चर्चा एकसौ चौहत्तरवीं पहले योग्य-अयोग्य पूजकका स्वरूप दिखलाते हुए जो यह लिखा है कि अयोग्यको पूजा नहीं करनी पर्चासागर । चाहिये सो यदि किसी देशकालमें किसो अयोग्यके द्वारा पूजा हो जाय तो इसमें क्या दोष है पूजा करनेमें तो गुण [ ३१७ ] ही है क्योंकि यदि ऊपर लिखे अनुसार फिसी पूजा करनेवाले गुणवानका प्रसंग न मिले तो जैसा मिले वेसा कर लेना ठीक है । परन्तु इसका समाधान यह है कि पहले तो भगवानको ऐसो आज्ञा नहीं है। ऐसा करनेसे भगवानको आज्ञाका भंग होता है जिसस महापाप होता है। फिर भी जो कोई अयोग्य मनुष्य पूजा करता है । उसका फल शास्त्रों में ऐसा कहा है "जो अयोग्य मनुष्य मोहवश होकर जिनपूजा करता है अर्थात् तीवभाव। होनेपर भक्तिके वश होकर पूजा करता है तो उस पुरुषका, उस देशका. उस देशके राजाका तथा उस राज सब साम्राज्यका नाश हो जाता है । इस प्रकारकी पूजा करनेवाले और करानेवाले इन दोनोंको पूजाके फलकी प्राप्ति नहीं होती । उनको वह पूजा निष्फल होती है । इसलिये ऊपर काहे लक्षणोंसे सुशोभित होनेवाले पुरुषको ही भगवानको पूजा करनी चाहिये । सो ही पूजासारके प्रथम अधिकारमें लिखा है यदि मोहासथाभूतो पूजयेत् त्रिजगद्गुरुम् । पुरं राष्ट्र नरेशश्च राज्यं सर्व विनश्यति ॥ ३५ ॥ न को फलमाप्नोति नापि कारापिता स्वयम् । तस्मात्सल्लक्षणोपेतो जिनपूजासु शस्यते ॥ ३६ ॥ यहाँपर अयोग्य पुरुषसे पूजा करानेवालेको भी अशुभ फल होता है ऐसा समझ लेना चाहिये । सो ही जिनसंहिताके तीसरे अधिकारमें लिखा हैनिषिछः पुरुषोदेवं यद्यचेत् त्रिजगत्प्रभुम् । राजराष्ट्रविनाशः स्यात्कर्तृकारकयोरपि ॥६॥ तस्मायलेन गृहीयात् पूजकं त्रिजगद्गुरोः। उक्तलक्षणमेवार्यः कदाचिदपि नापरम् ॥७॥ इससे सिद्ध होता है अपोग्य पुरुषसे कभी पूजा नहीं करानो चाहिये । तथा जो कोई कराता है उसको Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कदाचित् कोई यह कहे कि ऐसा करनेसे तो सब जगह पूजा करनेका लोप हो जायगा । क्योंकि ऊपर जो पूजा करनेवालेके लक्षण लिखे हैं ऐसे लक्षण वाले तो पुरुष बहुत थोड़े हैं। तथा जिनमन्दिर बहत हैं । ऐसी हालसमें क्या करना चाहिये। तो इसका उत्तर यह है कि पूजफके दो भेद हैं एक तो जिनप्रतिष्ठाविक महा। Patel | कार्यों में पूजा करनेवाला सो तो ऊपर लिखे लक्षणोंसे सुशोभित ही होना चाहिये। अन्य नहीं होना चाहिये। तथा मिस पूजा विधाल करने पर हिलोलोंसे रहित होना चाहिये। यदि ऐसा न हो तो महादोषोंसे रहित समयानुसार जो यथायोग्य हो उसको हो पूजा करनी चाहिये। जिसके महादोष प्रगट दिखाई देते हों जो सर्वथा अयोग्य हो उसको नित्यपूजा भी नहीं करनी चाहिये । सो ही पूजासारमें लिखा है-- पूजकः पूजकाचार्यः इति द्वेधास्तु पूजकः। आदौ नित्यार्चकोऽन्योस्तु प्रतिष्ठादिविधायकः ॥ इससे सिद्ध है कि पूजा करनेवाला योग्य ही देखना चाहिये।। १७५-चर्चा एकसौ पिचहत्तरवीं प्रश्न-पूजा करते समय किसोके हाथसे प्रोजिनप्रतिमा पृथ्वीपर गिर पड़े तो उसका प्रायश्चित क्या है ? समाधान-जो पूजा करते समय जिनमूर्ति पृथ्वीपर गिर पड़े तो उस पूजा करनेवालेको उस मूर्तिका शुद्ध जल तथा गंधोदक पर्यन्त भरे हुये एक सौ आठ कलशोंसे मन्त्रपूर्वक भगवानका अभिषेक करना चाहिये । फिर पूजा कर एकसौ आठ मूलमन्त्रोंसे आहुति देकर फिर वहीं विराजमान कर देना चाहिये। ऐसा इसका प्रायश्चित्त है । सो ही जिनसंहितामें आठवें अधिकारमें लिखा हैपतिते जिनबिम्बेऽष्टशतेन स्नापयेद् घटः। अष्टोत्तरशतं कुर्यान्मूलमन्त्रण चाहुतीः ॥२४॥ इस प्रकार मूर्तिक गिर पड़नेपर बहुतसे लोग बिना समझे केवल अपने मनसे ही किसी सचित्त वस्तुके खानेका त्याग कर देते हैं या उपवास, एकाशन आदि कर लेते हैं वा करा देते हैं सो शास्त्रको विधिसे विपरीत है। १७६-चर्चा एकसौ छिहत्तरवीं प्रश्न-पूजा करते समय मन्त्रपूर्वक नैवेद्य आदि चढ़ानेमें किसीके हाथसे वह नैवेद्याविक पृथ्वी आवि अन्य क्षेत्रमें गिर जाय, पूजाके स्थाममें न चढ़ाया जा सके बीच ही में गिर जाय तो क्या करना चाहिये। (२७ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ३१९ ] 223 समाधान — पूजा करते समय मन्त्र पढ़कर द्रव्य चढ़ाना चाहिये यदि वह द्रव्य बोधमें गिर जाय तो उसे छोड़ देना चाहिये । फिर जो ध्य गिरा है उसी द्रव्यको लेकर और उसी मन्त्रको पढ़कर एफसी माठ आहूति देनी चाहिये अर्थात् अक्षत गिरा हो तो अक्षतका मन्त्र पढ़कर अक्षतको एकलौ आठ आहूति देनी चाहिये । यदि पुरुष गिरा हो तो इसी प्रकार पुष्पको एकसौ आठ आहूति देनी चाहिये। इस प्रकार जलादिक आठों द्रव्योंमेंसे जो ग्रव्य गिरा हो उसीका मन्त्र पढ़कर एकसौ आठ आहूति देनी चाहिये। फिर माफीकी पूजा पूर्ण करनी चाहिये । यही इसका प्रायश्चित्त है। सो ही संहिताके अठारहवें अधिकारमें लिखा है-प्रपांत वलिपिंडस्य जिन मन्त्रेण मन्त्रवित् । अष्टोत्तरशतं कुर्यादाहुतीस्तद्विधिक्रमात् ॥ १७७ - चर्चा एकसौ सतहत्तरवीं प्रश्न -- यदि कोई हीन जातिका अस्पृश्य मनुष्य जिनबिम्बका स्पर्श कर लेवें तो उस मूर्तिका क्या करना चाहिये ? समाधान -- जो जिनबबके गिर जानेका प्रायश्चित है वहो प्रायश्चित्त अस्पृश्य मनुष्यके द्वारा जिनfare स्पर्श कर लेनेपर करना चाहिये । अर्थात् उस मूर्तिका एकसौ आठ कलशोंसे अभिषेक कर, पूजाकर मूलमन्त्र एकसौ आठ आहूती देनी चाहिये फिर उसको वहीं विराजमान कर देना चाहिये। सो ही पूजासारमें लिखा है- अस्पृश्यजनसंस्पर्शेप्येवंमेवं जिनेशिनाम् । १७८ - चर्चा एकसौ अठहत्तरवीं प्रश्न- यदि स्पृश्य बिना स्नान किये जिनप्रतिमाका स्पर्श कर लेवे तो क्या करना चाहिये ? समाधान -- यदि स्पृश्य मनुष्य बिना स्नान किये भगवानको मूर्तिका स्पर्श कर लेवे तो भगवानका पच्चीस कलशोंसे मंत्रपूर्वक अभिषेक करना चाहिये। सो हो जिनसंहिता में लिखा है-स्पृष्टेऽनियजनैः पंचविंशत्या स्नापयेद घटैः । A [ ३१९ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६-पर्धा एकसो उन्यासीवीं 'प्रचन-यदि किसीके हापसे प्रतिमाका भंग हो जाय तो क्या करना चाहिये । पासागर समाधाम-यदि किसीके हाथसे जिनप्रतिमाका भंग हो जाय तो उसो तीर्थकरकी अन्य प्रतिमाका एक ३२० ] हजार आठ शुद्ध जलके कलशोंसे तथा पंचामृतसे मंत्रपूर्वक महाभिषेक करना चाहिये। फिर एकसौ आठ बार मूलमन्त्रसे आहूती देनी चाहिये । तथा उस भग्न हुई प्रतिबिम्बको किसी अगाध जलमें विराजमान कर देना चाहिये ऐसा करनेसे वन दोष दूर होता है और तांति होती है । सो हो जिनसंहितामें लिखा हैस्नापयेदंगभंगेष्टसहस्रण जिनेश्वरम् ।होमं वा पातवत्कुर्याद् भग्नं चांगं सुसेवयेत् । ततो जलाधिवासादिप्रतिष्ठापनमाचरेत् । १८०-चर्चा एकसौ अस्सीवीं । प्रश्न- यदि क्षेत्रपालाविक यक्षोंकी पूजाका द्रव्य गिर जाय तो क्या करना चाहिये ? समाधान--क्षेत्रपालादिकको पूजाका द्रव्य गिर जाय तो उसको परखीस आहुती देनी चाहिये। यदि क्षेत्रपालकी मूर्ति गिर जाय तो इतने ही घटोंसे स्नान कराना चाहिये। यदि उसकी मूर्तिका भंग हो जाय तो वैसी हो दूसरी मूर्तिका एकसौ आठ कलशोंसे अभिषेक करना चाहिये। यदि उसके स्थानका भंग हो जाय तो गिर पड़नेके समान प्रायश्चित्त करना चाहिये। यह यक्षको पूजाका प्रायश्चित्त है। सो हो जिनसंहितामें लिखा हैयक्षाचापतने पंचविंशस्या तत्सम घटै। भंगे त्वष्टशतेन स्यारसद्मभेदे तु पातवत् ।। १८१-चर्चा एकसौ इक्यासीवीं प्रश्न-यदि जिममन्दिरमें हड्डो, मास आदिके गिर जानेसे वह दूषित हो जाय अथवा उसमें धागाल आदि अस्पृश्य मनुष्य घुस जाय तो क्या करना चाहिये ? समाधान-पहले तो हड्डो, मांस आदि अपवित्र पदार्थोको दूर कर समस्त मन्दिरको जलसे धुलवाना चाहिये। ध्वजारोपण, अंकुरारोपण और घूपके धूए से पवित्र करना चाहिये। फिर भगवानका अभिषेक कर । पूजा, जप और होम करना चाहिये । सो जिनसंहितामे लिखा है ARASTRATA-ATYALSTRAPAHARASTAASPASAWA THANIRAH Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चासागर [ ३२१ ] ॥ दूषितेऽस्थ्यादिभिर्देवधाम्न्यस्पृश्यजनेरपि । संशोध्य सकलं धाम हुस्खा धूम्रध्वजांकुरैः ।। सिक्त्वा च सुधयों देवं तैरेव स्नापयेद् घटेः॥ २८ ॥ १८२-चर्चा एकसौ वियासीवीं । प्रश्न-भगवानको पूजा सोनों समय को जाती है। यदि किसी एक समय प्रतिमाजी अपूज्य रहें, दो। समय वा तीन समय अपूज्य रहें । इसी प्रकार एक दिन, वो बिन, तोन दिन, चार, पांच, छह, सात दिन तथा पन्द्रह दिन, एक महीने तक जिनप्रतिमाजी अपूज्य रहें । इतने दिन तक उनको पूजा न हो तो फिर क्या करना है चाहिये। समाधान---प्रतिमाजीके अपूज्य रहनेका प्रायश्चित्त अलग-अलग है उसीको अनुक्रमसे लिखते हैं। यदि एक समय पूजा न बन सके तो दूसरे समय दूनी पूजा कर लेनी चाहिये तथा एकसौ आठ बार णमोकार मन्त्रका जप करना चाहिये। यदि वो समय तक भगवानको पूजा न हुई हो तो सोलह घटोंसे भगवानका अभिषेक करना चाहिये। यदि एक दिन भगवानकी पूजा न हुई हो तो उन प्रतिमाओंका पच्चीस कलशोंसे जलाभिषेक करना । चाहिये । यदि पांच दिन तक भगवानको पूजा न हुई हो तो इक्यावन कलशोंसे उन प्रतिमाजीका अभिषेक करना। चाहिये । यदि दश दिन रात तक भगवानको पूजा न हुई हो तो उस मन्दिरमें विराजमान मूर्तिका इक्यासी कलशोंसे अभिषेक करना चाहिये। यदि पन्द्रह दिन तक भगवान अपूज्य रहे हों तो एकसौ आठ कलशोंसे अभिषेक करना चाहिये। यदि एक महीने तक भगवानका पूजन न हुआ हो तो दोसौ आठ कलशोंसे उनका अभिषेक करना चाहिये। यदि दो महीने तक पूजा न हुई हो तो उन अरहतको प्रतिबिंबका तीनसौ आठ कलशोंसे स्नपन करना चाहिये । पवि सोन महोने तक पूजा न हुई हो तो चार सौ आठ घटोंसे अभिषेक करना चाहिये। पवि चार महीने तक पूजा न हुई हो तो पांच सौ आठ कलशोंसे उनका अभिषेक करना चाहिये । यदि पाँच । महीने तक पूजा न हुई हो तो फिर एक हजार आठ कलशोंसे महाभिषेक करना चाहिये। यवि छह महीने तक। प्रतिमाजो अपूज्य रहें तो एक हजार आठ कलशोंसे महाभिषेक कर संप्रोक्षण करना चाहिये । संप्रोक्षण करनेकी विधि जिनसंहितासे जान लेनी चाहिये । १. उस मन्दिर पर सफेदी भी करानी चाहिये। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [ ३२२ ] Sems इस प्रकार प्रत्येक पाँच-पाँच दिन अपूज्य रहनेपर उन पापोंकी शांति के लिये अधिक अधिक कलशोंसे अभिषेक करना चाहिये। ऊपर लिखो सब विधियोंमें अभिषेक पूर्वक आठों द्रव्योंसे पूजा करनी चाहिये । एक सौ आठ बार मूल मन्त्रोंसे जप करना चाहिये और आहुति देनी चाहिये । यदि सात, आठ, नौ, दश, ग्यारह, बारह महीने तक या इससे भी अधिक काल तक वा बहुत समय तक प्रतिमाजी अपूज्य रहें तो सर्वलोकशरण्य विधि करनी चाहिये और बलिविधान, प्रतिष्ठापनविधान, प्रोक्षणविधि और बिहार विधान आदि जिन संहितामें कहे अनुसार करना चाहिए। यहाँपर ग्रन्थ विस्तार होने के डर से नहीं लिखा है। इस प्रकार अनुक्रमसे पहले कहे हुए कथनको विचार कर समझ लेना चाहिए । यह सब कथन भगवदेकसंधिकृत जिनसंहिता नामके शास्त्र में आठवें अध्याय में लिखा है । यथा- एकसंध्याचंनाभावे जिनेन्द्रप्रतिमालये । संध्यायामपरस्यार्या पूजयेदधिकं विभुम् ॥२॥ जिनेन्द्राभ्यर्चने हीनसाधेन सति धीधनैः । जपो हृदयमंत्रः स्याद्वारानष्टोत्तरं शतम् ॥३॥ संध्यायाचनाशून्ये जिनदेवनिकेतने । घटेः षोडशसंख्यानैः स्नापयेद खिलेश्वरं ॥४॥ एकवासरमभ्यरहिते देवधामनि । कलशैः पंचविंशत्या स्नापयेत्परमेष्टिनम् ||५|| त्यक्तदेवार्चणा देवभवने पंचवासरान्। एकपंचाशतैः कुभैः स्नापयेत्रिजगद्गुरुन् ॥६॥ देवाचविकले देवमंदिरे दशवासरान् । घटे रेकोत्तराशीत्या स्नापयेच्चतुराननम् ॥७॥ अर्द्धमासं जिनेंद्राचसंत्यक्ते जिनवेश्मनि । अष्टोत्तरशतेनार्हत्स्वामिनं स्नापयेद घटेः ॥८॥ मासं जिनेश्वराभ्यर्चाविहीने जिनसद्मनि । देवमष्टशतेन इयर्हतेन स्नापयेद् घटैः ॥६॥ मासौ द्वौ चर्चनारिकते जाने जैनेश्वरालये । त्रिभिरष्टशतैः कुभै स्नापयेरित्रजगत्प्रभुम् ॥ १०॥ मासान् त्री वर्जिने चैत्यपूजया जिनधामनि । चतुःघ्नेन घटै रष्टशतेन स्नापयेज्जिनम् ॥११॥ जिनाभ्यर्चापरित्यक्ते तु मासं जिनालये । अर्द्धनाष्टसहस्त्रस्य स्नापयेद् जिनपं घटेः ॥ १२ ॥ जिनचैत्यालये पंचमासं मानविवज्जिते । अष्टोत्तरसहस्रेण स्नापयेत्कलशैः प्रभुम् ॥१३॥ देवष्णे विनिर्मुक्ते पण्मासं देवपूजया । कृत्वा संप्रोक्षणे देवे तदेव स्नापयेद् घटैः ॥ १४॥ [ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर - ३२३ ] पंचपंचदिनान्येवं प्रध्वस्ताशेषकल्मषम् कलशैरुदितैरती ः स्नापयेत्पापशांतये ॥ १५॥ अष्टोत्तरशतं कुर्यान्मूलमंत्रेण चाहुतीः । अभिषेकदिनेष्वार्यस्तदन्ते तद्विधिक्रमात् ॥ १६॥ इस प्रकार पाठ है। इसके सिवाय जो अपने मनसे और अनेक प्रकारको विधि करते हैं सो सब शास्त्र बाह्य है । मनोनुकूल प्रमाण नहीं है। जो पुरुष बिना शास्त्रोंके अपनी बुद्धिके अलसे अपने मनको कल्पनानुसार कहते हैं वे पुरुष बाचाल गिने जाते हैं इसलिये उनके वाक्य अप्रमाण माने जाते हैं । कदाचित् कोई यह कहे कि यह भी तो शुभ कार्य ही बतलाया है तो इसका उत्तर यह है कि प्रायfreeकर्म चिकित्साशास्त्र अर्थात् रोग दूर करनेके लिए बधाईका देना, लग्न मुहूर्त गणित शास्त्र आदि ज्योतिषशास्त्र और धर्मशास्त्रका निर्णय सब बातोंको इनके अलग-अलग शास्त्र देखे बिना जो अपने मनसे हो बुद्धिमान बनकर अपने मनके अनुसार कहता है अथवा तू ऐसा कर ले इस प्रकार दूसरोंसे कहता है उसको लौकिक शास्त्र में ब्रह्मघाति बतलाया है । अर्थात् लौकिक नीति अनुसार उसे हत्यारा वा पानको कहते हैं । सो ही लिखा है--- प्रायश्चित्तं चिकित्सां च ज्योतिषं धर्मनिर्णयम् । विना शास्त्रेण यो ब्रूयात्तमाहुर्ब्रह्मघातकम् ॥ dus शास्त्र में भी लिखा है कि जो आचार्य ( प्रायश्चित्त आदि धर्मशास्त्रका निर्णय देनेवाला ) ज्योतिषी, राजा और वैद्य ये चारों हो पुरुष अपने-अपने कामोंको बिना शास्त्र देखे केवल अपने मनसे वा ham बुद्धि बलसे करते हैं उनको मानों ब्रह्माने यमके दूतोंके समान केवल प्रजाको मारनेके लिये हो इस पृथ्वीपर बनाया है । सो ही लंघन पथ्यनिर्णयशास्त्र में लिखा है- आचार्यदेवज्ञनृपाश्चत्रैद्याः ये शास्त्रहीना स्वयन्ति कर्म । देवैः पृथिव्यां यमदूतरूपाः सृष्टाः प्रजासंहरणाय नूनम् ॥ यहाँपर आचार्य शब्दसे प्रायश्चित्त देनेवाला वा धर्मशास्त्रका उपदेश देनेवाला समझना चाहिये । १८३ - चर्चा एकसौ तिरासवीं प्रश्न- यदि कोई पुरुष प्रायश्चित्तकी विधि न करे तो क्या हो ? [ ३२३ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मगर - ३२४ : समाधान--जिनसंहितामें ऐसा लिखा है कि ओ कोई पुरुष अनेक प्रकारके अनर्थ उत्पन्न करनेवाले जिनपूजा सम्बन्धी दोषोंको शांत करनेके लिये ऊपर लिखे अनुसार प्रायश्चित्त नहीं करना तो वह पुरुष अपने नगरसे, देशसे, राष्ट्रसे, सबसे भ्रष्ट हो जाता है, सबसे रहित हो जाता है। इसलिये पापोंकी शांतिके लिये ऊपर गुरु प्रायश्यिय वा करने जातीये । सो हो लिखा है-- इत्थं प्रायश्चित्तमनर्थे प्रतिषिद्धे जाते दोषे शीघ्रतरं लप्रविधेयम् । नो चेदेवं राष्ट्रमशेष परिहीनः नगरं राष्ट्रपति प्रविहीनः ॥ ३३ ॥ १८४-चर्चा एकसौ चौरासीवों प्रश्न--यदि कोई जैनी गृहस्थ श्रावक वा श्राविकाके किसी कारणसे अनाचार वा होनाचरण करनेमें आ जाय तो उस दोषको दूर करने के लिये क्या प्रायश्चित्त करना चाहिये ? समाधान-यदि किसी श्रावक वा श्राविकाने अपने अजानपतमें बिना समझे मद्य, मांस, मधु (शहर), बड़फल, पीपल फल, गूलर, अंजीर और पाकर इन आठ वस्तुओं से किसी एक वस्तुका भक्षण कर लिया हो। है तो उसको नीचे लिखे अनुसार प्रायचित्त देना चाहिये । अलग-अलग तोन उपवास करना, बारह एकासन करना, जिनके साथ अपना पंक्तिभोजन है ऐसे एकसौ आठ पुरुषोंको पंक्तिभोजन कराना, भगवान अरहन्तदेव को प्रतिमाका एकसौ आठ कलशोंसे अभिषेक करना, अपनी शक्ति के अनुसार केशर, चंदन, पुष्प, अक्षत मावि द्रव्योंसे भगवानकी पूजा करना, एकसौ आठ बार पुष्पोंके द्वारा णमोकार मंत्रका जप करना और दो तीर्थयात्रा करना, इस प्रकार प्रायश्चित्त लेनेपर वह शुद्ध होता है पंक्तिमें बैठने योग्य होता है । सो ही लिखा है॥ मथं मांसं मधु भुक्ते अज्ञानात्फलपञ्चकम् । उपवासत्रयं चैकभक्तद्वादशकं तथा ।। ७५ ॥ । अन्नदानाभिषेकश्च प्रत्येकाष्टोत्तरं शतम् । तीर्थयात्राद्वयं गन्धपुष्पाक्षतस्वशक्तितः ॥ ७६ ॥ यदि कोई श्रावक-श्राविका म्लेचछ जातिके घर वा किसी नीचके घर भोजन-पान कर ले तो उसको तीस उपवास, तिरेपन एकासन, अपनी जातिके दोसो पुरुषोंको आहार दान, गौ-दान, पांच-पांच घड़ोंसे दोसौ बार भगवानका अभिषेक, गंध, पुष्प अक्षतादिकसे भगवानको पूजन और विशेषताके साथ दो तीर्थक्षेत्रोंकी यात्रा aakoNIRAHARAJRIPALESEATMELASSAIREDictionaमाध्य म Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ his-TEMPETENTIRE करनी चाहिये । यह उसका प्रायश्चित्त है। इतना कर लेनेपर वह शुद्ध होता है, पंक्तिमें बैठने योग्य होसा है। सो हो लिखा है-- पर्चासागर । म्लेच्छादिनीचजा गेहे भुक्त त्रिंशदुपोषणम् । एकभुक्ते त्रिपंचाशत् पात्रदानं शतद्वयम् ॥ ३२५ । एका गौः पंचकु भैश्चाभिषेकानां शतद्वयम् । पुष्पाक्षतं तीर्थयात्राद्वयं कुर्याद्विशेषतः॥ यदि कोई श्रावक-श्राविका विजाप्तिके घर ( जो अपनी जातिका नहीं है दूसरी जातिका है उसके घर) । भोजन कर ले तो उसको नौ उपवास, नो एकासन, नौ अभिषेक, अपनी जातिके मौ पुरुषोंका आहार दान और । तीनसौ पुष्पोंसे जप करना चाहिये । यह उसको दण्ड चा प्रायश्चित्त है । इतना कर लेनेपर वह शुद्ध और पोक्त । । योग्य होता है । सो हो लिखा है । यथा। विजातीयानां गेहे तु भुक्तं चोपोषणं नव । एकभुक्त्यन्नदानाभिषेकपुष्पशतत्रयम् ।। जिसके घर कोई मनुष्य पर्वतसे गिर कर मर गया हो अथवा साँपके काट लेनेसे मर गया हो अथवा हाथी, घोड़ा आदि किसी सवारीसे गिर कर मर गया हो तो उसके बाद रहनेवालेको नीचे लिखे अनुसार प्रायचित्त लेना चाहिये । उसको पचास तो उपवास करने चाहिये और पचाप्त ही भगवानके अभिषेक करने | चाहिये । तथा पूजा करनी चाहिये । इतना प्रायश्चित्त करनेपर वह शुद्ध और पंक्ति योग्य होता है। सो हो। लिखा है-- गिरेः पातो हि दष्टश्च गजादिपतनान्मृतः । उपवासाश्च पंचाशदभिषेकाश्च तैः समाः॥ यदि कोई अग्निमे पड़कर मर गया हो तो उसके पीछे वालेको पचपन उपवास, अपनी जातिक पांचपाँच पुरुषोंको अन्नवान, एक तीर्थयात्रा, बोस भगवानके अभिषेक, गऊ-दान, केशर, चंदन, पुष्प, अक्षत आदिसे । भगवानकी पूजा, अपनी शक्तिके अनुसार गुरु-पूजा और भगवानके भण्डारमें अपनी शक्तिके अनुसार द्रव्यदान । देना चाहिये । इतना प्रायश्चित्त कर लेनेपर वह शुद्ध और पंक्ति योग्य होता है । सो हो लिखा है। मृतेऽग्नौ पातके जाते प्रोषधाः पंचपंचाशत् । पंचपंचान्नदानं च जिनाभिषेकविंशतिः॥ । तीर्थयात्रा च गोदानं गंधपुष्पाक्षतादयः । यथाशक्ति गुरुपूजा द्रव्यदानं जिनालये ॥ n wa Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ३२६ ] __ सब प्रायश्चित्तोंमें प्रायश्चित्त लेनेवाले पुरुषको अपने मस्तकका मुण्डन कराना चाहिये, केशर, अगुरु, । चंदन और पुष्पादिक पूजाके द्रव्य अपनी शक्ति के अनुसार जिनालयमें देना चाहिये, यथायोग्य यह ग्रह पूजा करनी चाहिये, सम्यग्दृष्टि जैनी ब्राह्मणोंको दान देना चाहिये, यथायोग्य रीतिसे चार प्रकारके संघको पूजा करनी चाहिये और गृहस्थ श्रावकोंको भोजन देना चाहिये। ये सब बातें यथायोग्य रीतिसे सब जगह समझ लेना चाहिये । यह सब प्रायश्चित्तोंमें समच्चय प्रार्याःचत्त है । सो हो लिखा हैप्रायश्चित्तेष सर्वेष शिरोमुण्डं विधीयते । काश्मीरागुरुपुष्पादि द्रव्यदान स्वशक्तितः॥ प्रहपूजा यथायोग्यं विप्रेभ्यो दानमुत्तमम् । संघपूजा गृहस्थेभ्यो ह्यन्नदानं प्रकीर्तितम् ॥ यदि किसी स्त्री आदिका चाण्डाल आदिसे संसर्ग हो जाय तो उसे पचास उपवास, पांचसौ एकाशन, सुपात्रोंको दान, तीर्थयात्रा, पचास बार पुष्प, चंदन, अक्षत आविसे भगवानकी पूजा, संघपूजा, मंत्रके जप, व्रत और जिनालयमें द्रव्य दान देना चाहिये। इतना प्रायश्चित कर लेनेपर वह शख और पंक्ति योग्य होता है। सो हो लिखा है चांडालादिकसंसर्ग कुर्वन्ति वनितादिकाः। पंचाशत्प्रोषधाश्चैकभक्ताः पंचशतानि च ।। । सुपात्रदानं पंचाशत्पुष्पचन्दनपूजनम् । संघपूजा च जाप्यं च व्रतं दानं जिनालये ॥ यदि स्त्री आदिका माली आदिसे संसर्ग हो जाय तो उसे पांच उपवास, वश एकाशन, अपनी जातिके । बीस पुरुषोंको भोजन देना चाहिये । इतना प्रायश्चित कर लेनेपर वह शुद्ध और पंक्ति योग्य होता है । सो हो लिखा हैमालिकादिकसंसगं कुर्वन्ति योषितादयः । प्रोषधा पंच चैकान्नं दश पात्राणि विंशतिः ॥ इसी प्रकार वृद्धि सूतको ( किसी बालकके जन्म होनेसे जो सूतक लगता है उसमें ) अथवा मृत्यु सूतक (किसीके मरनेपर जो सूतक लगता है उसमें) पाँच उपवास, ग्यारह एकाशन, पात्र-दान और केशर, चन्दन आदि द्रव्योंसे भगवानकी पूजन करनी चाहिये । इतना प्रायश्चित्त कर लेनेपर उसका वह सूतक दूर होता । है। तथा वह शुद्ध होकर पंक्तियोग्य होता है । सो हो लिखा है-- ११ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ।२७ ] सूतके जन्ममृत्योश्च प्रोषधाः पंचशक्तितः। एकभुक्ता दशैकाथाः पात्रदानं च चंदनम् ॥ जिस पुरुषने किसी वस्तुका त्याग कर रक्खा है वह यदि बिना जाने खानेमें आ जाय तो एक उपवास, दो एकाशन और अपनी शक्तिके अनुसार पुष्पाक्षताविकसे भगवानको पूजा करनी चाहिये। तब वह ।। त्यागभंगका प्रायश्चित्त होता है । सो ही लिखा है (यहाँ एक श्लोकको छूट है ) इसी प्रकार बिना आने यदि मुखमें हड्डीका टुकड़ा आ जाय तो तीन उपवास, चार एकासन और । अपनी शक्ति के अनुसार केशर, चन्दन, अक्षत आदि पूजाको सामग्री मन्दिरमें देनी चाहिये तब उसको शुद्धि होती है। सो ही लिखा हैआयाते मुखेस्थिखण्डे चोपवासास्त्रयो मताः। एकभुक्ताश्च चत्वारो गंधाक्षताः स्वशक्तितः॥ यदि अपने हाथसे हड्डीका स्पर्श हो जाय अथवा अपने शरीरसे हड्डीका स्पर्श हो जाय तो स्नान कर दोसौ बार णमोकार मंत्रका जप करना चाहिये । यह उसका प्रायश्चित्त है। यथा। स्पर्शितेस्थिकरे स्वांगे स्नात्वा जाप्यशतद्वयम्। अस्थि यथा तथा चर्म केशश्लेष्ममलादिकम्।। जिस प्रकार हड्डोके स्पर्शका प्रायश्चित्त बतलाया है वही प्रायश्चित गोले चमड़ेके स्पर्श करनेका, केश-श्लेष्म ( कफ, खकार नाकका मल आविका हाथसे वा शरीरसे स्पर्श हो जाने पर लेना चाहिये। अपनी स्त्रीके गर्भपातसे उत्पन्न होनेवाले पापके होनेपर बारह उपवास, पचास एकाशन और अपनी । ही शक्तिके अनुसार पुष्प, अक्षतादिक जिनालयमें देना चाहिये तब शुद्धि होती है । सो ही लिखा हैगर्भस्य पातने पापे प्रोषधा द्वादशाः स्मृताः। एकभक्ताश्च पंचाशत्पुष्पाक्षतादिशक्तितः॥ यदि अज्ञानसे वा प्रमावसे वोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय आदि विकलत्रय जीवोंकी हिंसा हो जाय तो दोइन्द्रिय जीवकी हिंसा होनेपर दो उपवास करने चाहिये और णमोकार मंत्रको बा मालाएँ जपनो चाहिये। इन्द्रिय जीवको हिंसा होनेपर तीन उपवास और णमोकारमंत्रको तीन मालाओंका जप करना चाहिये तथा! चौइन्द्रिय जीवको हिंसा हो जानेपर चार उपवास और णमोकार मंत्रको चार मालाओंका जप करना चाहिये।। सब उसको शुद्धि होती है । सो ही लिखा है [ ३२० Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अज्ञानाद्वा प्रमादाद्वा विकलत्रयघातके । प्रोषधा द्वित्रिचत्वारो जपमालाः तथैव च ।। यदि धास, भुस खानेवाले पंचेन्द्रिय पशुका घात हो जाय तो अट्ठाईस उपवास, पात्रदान, गोगन र्चासागर और अपनी शक्तिके अनुसार पुष्प, अक्षत आदि पूजाके द्रव्य जिनालयमें दान देना चाहिये तब उसकी शुद्धि । ३२८ होती है तथा तभी वह पंक्तिके योग्य होता है । सो ही लिखा है-- घातिते तृणभुकजीवे प्रोषधा अष्टाविंशतिः । पात्रदानं च गोदानं पुष्पाक्षतादि स्वशक्तितः॥ यदि जलचर, थलचर या किसी पक्षीका किसीसे घात हो जाय अथवा चूहा, बिल्ली, कुत्ता आदि दाँत1 से हत्या करनेवाले जीवका किसीसे घात हो जाय तो उस पुरुषको बारह उपवास, सोलह एकाशन, सोलह ॥ अभिषेक, गोदान, पात्रदान करना चाहिये तथा अपनी शक्तिके अनुसार गुरु जो बतलार्वे सो करना चाहिये । तब वह शुद्ध और पंक्तियोग्य होता है । सो ही लिखा हैजलस्थलचराणां तु पक्षिणां घातकः पुमान् । गृहे मूषकमार्जारश्वादीनां दन्तदोषिणाम् ।। प्रोषधा द्वादशकान्नाभिषेकाश्चानुषोडश । गोदानं पात्रदानं तु यथाशक्ति गुरोर्मुखात् ॥ यवि किसीसे गाय, घोड़ा, भैंस, बकरी आदि जीवोंकी हिंसा हो जाय तो उस पातकोको तेईस उपवास, एकसौ एक एकाशन तथा अपनी शक्ति के अनुसार पात्रदान, तीर्थयात्रा आदि करना चाहिये। तब वह शुद्ध और पंक्तिके योग्य होता है सो ही लिखा है-- गोऽश्वमहिषीलागीनां वधकर्ता त्रिविंशतिः। प्रोषधा एकभक्तानां शतं दानं तु शक्तितः॥ यवि किसीसे किसी मनुष्यको हिंसा हो जाय तो उसको तीनसौ उपवास, गोदान, पात्रदान आदि पहले । कही हुई सब विधि और तीर्थयात्रा आदि करनी चाहिये लब वह शुद्ध और पंक्तिके योग्य होता है । सो हो। लिखा है-- । मनुष्यघातिनः प्रोक्ता उपवासाः शतत्रयम् । गोदानं पात्रदानं तु तीर्थयात्रा स्वशक्तितः॥ [ ३२८ यदि कोई पुरुष किसी पुरुषके कारणसे विष खाकर वा और किसी तरह मर जाय अपवा अन्न, जल. * का त्याग कर मर जाय अथवा पतिके मरने पर कोई विधवा स्त्री अग्निमें प्रवेश कर मर जाय अथवा बरोब Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र्चासागर ३२९ ] PARERamai विक्री आवि व्यापारके सम्बन्धसे किसी मनुष्यका घात हो जाय अयथा घरमें अग्नि लगने पर कोई मनुष्य वा । पशु मर जाय, अपना कुआ खोदनेमें कोई मर जाय, अपने तलाबर्मे पड़ कर कोई मर जाय, जो अपना सेवक द्रव्य कमाने गया हो और मार्गमें चोर आदिके द्वारा वह मारा जाय अथवा अपने मकानको वीवाल पड़ जानेसे। कोई मर जाय तो जिस मनुष्यको कारण मानकर वह मरा है अथवा जिसके कुआ, तलाब, दोवाल आरिसे वह मरा है उसको पाँच उपवास करने चाहिये, बावन एकाशन करना चाहिये, गौदान, संघपूजा, दयादान, अभिषेक, ॥ पुष्प, अक्षत आदि पूजा द्रव्यको जिनभंगारमें देना और गमोकारमंत्रका जप यथायोग्य रीतिसे करना चाहिये। तब वह शुद्ध और पंक्ति योग्य होता है । सो ही लिखा है। यस्योपरि मृतो जीवो विषादिभक्षणादिना । क्षुधादिनाथ वा भृत्ये गृहदाहे नरः पशुः ॥ कपादिखनने वापि स्वकीयेत्र तडागके । स्वद्रव्योपार्जिते भृत्ये मार्गे चौरेण मारिते॥ ॥ कुडयादिपतने चैव रंडा वह्नौ प्रवेशने । जीवघातो मनुष्येण संसर्गे क्रयविक्रये ॥ प्रोषधाः पंच गोदानमेकभक्ताद्विपंचाशत् । संघपूजादयादानं पुष्पं चैव जपादिकम् ॥ यदि अपने पानी आदिके मिट्टोके बर्तन अपनी जातिके बिना अन्य जातिके मनुष्य से स्पर्श हो जाय । है तो उतार देना चाहिये । यदि तांबे, पोतल, लोहेके बर्तन दूसरी जातियालेसे छू जाय तो राखसे ( भस्मसे ) H मांज कर शुस कर लेना चाहिये। यदि कांसेके वर्तन अन्य जातियालेसे छु जाय तो अग्निसे गर्म कर शुद्ध करना चाहिये । काठके बर्तन कठवा, कठौती, कुंगे आदि हों और चौकामें काम आ जाने पर दूसरोंके द्वारा छूये जाय तो वे शुद्ध नहीं हो सकते । यदि कांसे, तांबे पा लोहेके बर्तन में अपनी जातिके सिवाय अन्य जाति वाला भोजन कर ले तो अग्निसे शुद्ध कर लेना चाहिये। जिस बर्तनमें मद्य, मांस, विष्ठा, मूत्र, निष्ठीवन । (उलटी वा वमन ) खकार, कफ, मषु आवि अपवित्र पदार्थाका संसर्ग हो जाय तो उस पात्रको उत्तम श्रावक त्याग कर देते हैं । फिर काम नहीं लेते । चलनी, वस्त्रसे मढ़ा सूप, मूसल, चक्की आदि रसोईके उपकरण अपनी मासिके बिना अन्य जातिके लोगोंसे स्पर्श हो जानेपर बिना घोये हुए शुद्ध नहीं होते। उनको धोकर मुख कर लेना चाहिये। यदि स्वप्नमें किसी अन्नाविक वस्तुका भक्षण किया जाय तो उस वस्तुका तीन दिन तकके लिये। Daini Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर १३०] त्याग कर देना चाहिये । यदि किसीने स्वप्नमें मद्य, मांसका भक्षण किया हो तो दो उपवास करना चाहिये। यदि नीदमें परवश होकर ब्रह्मचर्यका भंग हो जाय तो एक हजार णमोकार मंत्रका जप करना चाहिये और तीन एकाशन करना चाहिये। यदि स्वप्नमें अपनी माता, भगिनी, पुत्री आदिका संसर्ग हो जाय तो दो उपवास और एक हजार मंत्रका जप करना चाहिये। यदि कोई मियासिस एक रात्रि रहकर भोजन कर ले अथवा एक बार शूबके घर भोजन कर ले तो उसको पांच उपवास और दो हजार णमोकार मंत्रका जप करना चाहिये । यदि शूद्रके घर अपनी रसोई । भी बनाकर खावे तो भी दोष हो है। इस प्रकार यह थोड़ी-सी प्रायश्चित्त की विधि बतलाई है। विशेष जाननेको इच्छा हो तो अन्य अनेक जैनशास्त्रोंसे जान लेना चाहिये । सो ही लिखा है-- स्वतोन्यैः स्पर्शितं भाडं मृन्मयं चेत्परित्यजेत् । ताम्रारलोहभांड चेच्छुध्यते शुद्धभस्मना । वहिना काश्यभांडं चेत्काष्ठभांडं न शुद्धयति।काश्य तानं च लोहं चेदन्यभुक्तेग्निना वरम्॥ यन्नाजने सुरामांसं विण्मूत्रश्लेष्ममाक्षिकः। क्षिप्तं ग्राह्य न तब्रांडं तत्त्याज्यं श्रावकोत्तमैः॥ चालिनीवस्त्रसूपं च मुशलं घट्टियंत्रकम् । स्वतोन्यैः स्पर्शितं शुद्धं जायते क्षालनात्परम् ।। स्वप्ने तु येन यद्भुक्तं तत्याज्यं दिवसत्रयम् । मयं मांसं यदा भुक्तं तदोपवासकद्वयम् ॥ (ब्रह्मचर्यस्य भंगे तु निद्रायां परवश्यतः। सहस्लैकं जपेज्जापमेकभुक्तं त्रयं भवेत् ॥ मात्रा तथा भगिन्या च समक्षे योग आगते। उपवासद्वये स्वप्ने सहस्लैकं जपोत्तमम् ॥ | मिथ्याष्टिगृहे रात्रौ भुक्तं वा शूद्रसद्मनि । तदोपवासाः पंच स्युः जाप्यं तु द्विसहस्रकम् ॥ इत्येवमल्पशः प्रोक्तःप्रायश्चित्तविधिः स्फुटम्।अन्यो विस्तारतो ज्ञेयः शास्त्रेष्वन्येष भूरिषु ॥ इस प्रकार प्रायश्चित्तका विधान त्रिवर्णाचारके नौवें अध्यायमें लिखा है कदाचित् यहाँपर कोई यह प्रश्न करे कि इस प्रायश्चित्तकी विवि गौदान तथा ब्राह्मणको दान देना। लिखा है सो यह कहना वा करना तो जिनधर्मसे बाह्य है ऐसा तो अन्यमती कहते हैं इसलिये ऐसा श्रद्धान । करना खोटा है । तो इसका समाधान यह है कि जैनशास्त्रोंमें चार वर्ण बतलाये हैं। तीन वर्ण तो अनाविसे गरिमामाच-TRATESealitware Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म चले आ रहे हैं तथा चौथा ब्राह्मण वर्ण महाराज भरतने स्थापन किया है। जो क्षत्रियवंशमें उत्पन्न हुए । । सम्यग्वृष्टि, उपासकाचारके साधक, दानके पात्र, ब्रह्मज्ञानके प्रकाशक, बारह तप और पांचों अणुव्रताविकोंको पालन करनेवाले थे उनको ब्राह्मण वर्ण स्थापन किया था । सो ही लिखा है ब्रह्मज्ञानविकाशकाः तपोवतयुतास्ते ब्राह्मणाः । ऐसे ब्राह्मण सम्यग्दर्शन आदि अनेक गुणोंको पालन करते हैं और रत्नत्रयके चिह्न स्वरूप यज्ञोपवीतको धारण करते हैं । ऐसे धर्मात्मा ब्राह्मणोंको दान देना लिखा है। यदि ब्राह्मण मिथ्यावृष्टि, पाखण्डो, विषयभोगके लम्पटी, दुराचारी, हिंसादिक महापापके धारी, महारम्भी, जैनधर्मके निन्दक, द्रोही, अभिमानी और दूसरोंको ठगनेवाले ऐसे अपात्र हों तो गयो, वादाशिक यात्री नहीं देता नाहिये। ऐसे ब्राह्मणोंको दानका फल जैनशास्त्रों में खोटा लिखा है । ऐसे ब्राह्मणोंको कभी दान नहीं देना चाहिये। प्रश्न-यदि वर्तमान समय में सम्यग्दृष्टि ब्राह्मण न मिले तो क्या करना चाहिये तो इसका उत्तर यह है कि जैनशास्त्रोंमें और प्रकारसे भी गौदान करना लिखा है। भगवान अरहन्तदेवके अभिषेक करनेके लिए श्री जिनमन्दिरमें गौदान देना चाहिये। इसलिये यदि सम्यादृष्टि ब्राह्मण न मिले तो जिनमन्दिरमें गोदान करना । चाहिये। प्रश्न--जिनमन्दिरमें गोदान करना कहां लिखा है तथा इसकी प्रवृत्ति भी आजकल कहाँ है । तो इसका उत्तर यह है कि यह प्रकरण त्रिवर्णाचारमें बश दानका वर्णन करते समय लिखा है वह इस प्रकार हैपहले तो उत्तरपुराणमें लिखा है। शास्त्रदान, अभयदान और अन्नदान ये तीनों दान बुद्धिमानोंको देने चाहिये। । ये तीनों दान अनेक प्रकारके फल देने वाले हैं। सो ही उत्तरपुराणमें लिखा है। शास्त्राभयान्नदानानि प्रोक्तानि जिनशासने । पूर्वपूर्व बहुपात्रफलानीमानि धीमता ॥ और देखो वश तीर्थकर श्रोशीतलनायके अन्तरालमें एक भूतिशर्मा नामके ब्राह्मणके एक मुण्डशालायन नामका पुत्र हुआ था। उसने बहुत विद्या पढ़ो यो परन्तु मिथ्यात्वकर्मके तीव्र उदयसे यह जिनधर्मका तोत्र द्रोही था। उसने जिनधर्मके विरुद्ध बससे शास्त्र बनाये और लोभके वशीभूत होकर अपनी आजीविकाके लिये "ब्राह्मणोंको कन्या आधि दश प्रकारके दान देना चाहिये" ऐसा वर्णन किया और उसमें बहुत पुण्य बत Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर १३२] लाया । कम्या, हाथी, सुवर्ण, घोड़, कपिला (गों) बासी, तिल, रथ, भूमि, घर ये वश प्रकारके वान ब्राह्मणों। को देने के लिये बतलाये । इस प्रकार उसने महा हिंसाको प्रवृत्ति करनेवाले कुत्सित वानोका स्थापन किया । सोही लिखा हैकन्याहस्तिसुवर्णवाजिकपिलादासीतिलाः स्यन्दनं, क्षमागेहप्रतिबद्धमंत्रदशधा दानं दरिद्रेशिनम् ॥ तीर्थान्ते जिनशीतलस्य सुतरामाविश्चकारः स्वयं, लुब्धो वस्तुषु भूतिशर्मतनयोऽसौ मुण्डशालायनः॥ ऐसे पुरुषोंको जो बान बतलाया है वह हिंसादिक महापापोंका बढ़ानेवाला है। जैनधर्मको धारण करनेवाले धर्मात्माओंको कभी ऐसा दान नहीं देना चाहिये । परन्तु इन्हीं दानोंका वर्णन जैनशास्त्रोंमें भी है। किन्तु उनके देनेका अभिप्राय जुदा है । जैनधर्ममें । तीन प्रकारके पात्र बतलाये हैं। उत्तम पात्र मुनि हैं, मध्यम पात्र व्रत प्रतिमाको आदि लेकर ग्यारह प्रतिमा तकको धारण करनेवाले हैं। तथा जघन्यपात्र ब्राह्मणादि वर्गों में उत्पन्न हुए सम्यग्दृष्टी मूलगुणाविकोंको ॥ धारण करनेवाले सप्त व्यसनाविक किसने हो पापोंके स्यागो ऐसे वती गृहस्थ वा गृहस्थाचार्य हैं। इनमेंसे जघन्य पात्रोंको योग्यायोग्य विचार कर ऊपर लिखे दस प्रकारके वान देने चाहिये तथा मध्यम और उत्तम पात्रोंको । आहार, औषध, आहार और वसतिका इन चार प्रकारके वानोंमें ययायोग्य रीतिसे कोई-सा भी दान देना। चाहिये । सो ही लिखा हैविचार्य युक्तितो देयं दानं क्षेत्रादिसंभवम् । योग्यायोग्यसुपात्राय जघन्याय महात्मभिः॥ मध्यमोत्तमयोर्लोके पात्रयोने प्रयोजनं । क्षेत्रादिना ततस्ताभ्यां देयं पूर्व चतुर्विधम् ॥२॥ ___ इससे सिद्ध होता है कि जघन्यपात्रको भूमि आदिका दान देना चाहिये। इसके सिवाय भगवान जिनेन्द्रदेवका मन्दिर बनवाना, प्रतिमाजी बनवा कर तथा उनकी प्रतिष्ठा कराकर उस मंविरमें विराजमान करना, उस प्रतिष्ठामें जो श्रावक-श्राविका संघ आया हो उसको भोजनवान । । ना तथा सुवर्ण मान वेकर सबको तृप्त करना, उस मूर्तिको पूजा सदा काल होती रहे इसके लिये भूमि, क्षेत्र । [३३२ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्नासागर [ ३३३ ] और गांव भादिका वान देना तथा पंचामृतसे भगवान अरहंत देवका नित्य अभिषेक होता रहे इसके लिये जिनमन्दिरमें गौदान करना प्रत्येक गृहस्थका कर्तव्य है । मन्दिरमै गौवान वेनेसे दूम, वही, घी आदि पंचामृतसे भगवान अरहन्तदेवका नित्य अभिषेक होता रहता है जिससे सदाकाल टिकनेवाला महा पुण्य होता है । ऐसा महा मुनियोंने कहा है । इसी प्रकार जो धर्मात्मा श्रावक अपनो जातिमें उत्पन्न हुआ है जो जाति कुलसे शुख है, ऐसे निर्धन धर्मात्माके पुत्रको भो धर्मको स्थिति अच्छी तरह पालन करनेके लिए अपनी कन्या देनी चाहिये। सो ही लिखा है-- चैत्यालयं जिनेन्द्र स्य निर्माप्य प्रतिमा तथा। प्रतिष्ठा कारयेद्धीमान् हेमैः संघं तु तर्पयेत् ॥ पूजाये तस्य सरक्षेत्रं प्रामादिकं प्रदीयते । अभिषेकाय गोदानं कीर्तितं मुनिभिस्तथा ॥२॥ शुद्धभावकपुत्राय धर्मिष्ठाय दरिद्रिणे । कन्यादानं प्रदातव्यं धर्मसंस्थितिहेतवे ॥३॥ यदि घरमें भार्या न हो तो उसका सवाचार अच्छी तरह पालन नहीं हो सकता तथा घरमें भार्याक होनेसे हो पात्रदान हो सकता है और पात्रवान, जिनपूजन आदि धर्मके कार्य आगामी कालमें परम्परा तक सवा होते रहें, इसके लिये गृहस्थोंको स्त्रोको परम आवश्यकता है। विवाहका मुख्य उद्देश्य अपने समान धर्मात्मा पुत्रको उत्पन्न करना है जिससे कि धर्मको संतति बराबर चलती रहे। इसके लिये अपनी जातिके धर्मात्मा श्रावकको कन्यादान देना चाहिये। सो हो लिखा हैविना भायाँ सदाचारो न भवेद् गृहमेधिनाम् । दानपूजादिकं कार्य प्रगे सन्तति सम्भवः॥ यदि किसी अशुभ कर्मके उदयसे कोई धर्मात्मा श्रावक दरिद्री हो जाय और दरिद्र हो जानेके कारण उसका श्रावकाचार नष्ट होता हो तो उसके धर्माचरणको स्थिर करनेके लिये उसे सुवर्ण दान देना बतलाया है। सो हो लिखा है-- श्रावकाचारनिष्ठोपि दरिद्रः कर्मयोगतः । सुवर्णदानमाख्यातं तस्मै माचारहेतवे ॥१॥ यदि कोई धर्मात्मा मनुष्य निराधार हो, उसके रहनेका ठिकाना न हो तथा निर्धन हो और वा धनके ॥ बिना जिसकी निश्चलता न हो और पूजा-दान आदि श्रावक धर्ममें विघ्न आता हो ऐसे घर रहित श्रावकको Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर धर्मको रक्षाके लिये और पूजा-बानको दृढ़ताके लिए, उसके रहने योग्य घरका देना वास्तुवान कहलाता है वास्तु-4 दान देनेसे उसके परिणाम निश्चल और निर्मल रहते हैं और धर्मसाधन बन सकता है। सो ही लिखा हैनिराधाराय निःस्वाय श्रावकाचाररक्षिणे। पूजादानादिकं कर्तुं गृहदानं प्रकीर्तितम्॥ यदि कोई धर्मात्मा पुरुष अपने पैरीस तीर्थयात्रा आदि धर्मकायाक लिये जाने में असमर्थ हो और वह पूजा, मन्त्राविक गुणोंसे सुशोभित हो, जिनधर्मी सुपात्र हो उसको तीर्थयात्रा आदि धर्मसाधनके लिये गाड़ी, घोड़ा । आदि सवारी देना जिसके कि उसकी तीर्थयात्रा आदि धर्मसाधन अच्छी तरह हो जाय अथवा भगवानको में विराजमान करने के लिये और प्रभावना अंगको सिद्धि के लिये जिनालयमें अमूल्य रथ बनवा कर देना गृहस्थका ! कर्तव्य है । सो हो लिखा है पद्भ्यां गन्तुमशक्ताय पूजामंत्रविधायिने । तीर्थक्षेत्रसुपात्राय स्थाश्वदानमुच्यते ॥ तथा भट्टादिक आदि जिनाश्रमों में रहनेवाले प्रभाव बढ़ानेवाले धर्मात्मा है उनके लिये धर्मको प्रभावना प्रगट करने और अपनी कोसि बढ़ानेके लिये हाथी आदिका वान देना बतलाया है। ऐसे कीर्तिपात्रों को हाथीका दान देना भी निष्फल नहीं है । सो ही लिखा है भट्टादिकाय जैनाय कीर्तिपात्राय कीर्तये । हस्तिदान परिप्रोक्त प्रभावनांगहेतवे ॥ इसी प्रकार जो मार्ग निकट और कठिन हो और जिसमें कुआ, तालाब, बाबड़ी आदि कोई जलाशय न हो ऐसे मार्ग में चलनेवाले लोगोंको प्यास व दाह बुनाने के लिये शुद्ध छना हुआ शीसल मीठे जलको प्याऊ बनवा देना चाहिये । इसको प्रपाशालाका वान कहते हैं । सो ही लिखा हैन दुर्घटे विघटे मागें जलाशयविवर्जिते । प्रपास्थानं परं कुर्यात् शोधितेन सुवारिणा ॥ १. किसी समय श्रीपूज्य सम्मेदाचल पर्वतको तलहटी मधुवनके जिनालयमें किसोका दान दिया हुआ हाथी या । जाड़े दिनों में जब यात्री लोग तीर्थयात्रा करने आते हैं और उनमें से जो वहाँपर रथोत्सबको शोभामें वह हाथी काम आता था। कभी-कभी वह हाथी जैनधर्म ध्वजा फहराता हुआ आगे चलता था और कभी-कभो भव्यजनोंको सवार कराकर उनकी शोभा बढ़ाता था। इस प्रकार वह धर्मको प्रभावना करता था। इसमें भी सिद्ध होता है कि धर्मकी प्रभावनाके लिए हाथो देना भी सफल है। तथा जिनालय आदिमें हाथो देनेक रोति प्राचीन है। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चासागर [३३५ ] इसी प्रकार अपनी शक्तिके अनुसार प्रत्येक गांवमें अन्नक्षेत्र बनवाना चाहिये जहाँसे लोगोंको अन्न मिलता रहे तथा शीतकालमें शीतकी बाधा दूर करनेके लिये सुपात्रोंको रुईको सौड, बिछौना, अंगरखा, टोपा आदि वस्त्र वेना चाहिए । सो ही लिखा है अन्नक्षेत्रं यथाशक्ति प्रतिग्राम समर्पयेत् । शैत्यकाले सुपात्राय वस्त्रदानं सतूलकम्॥ जिन लोगोंके साथ अपने अन्न-पानीका व्यवहार है ऐसे अपनी जाति के लोगोंका व्यवहार चलाने के लिये और उनको अन्न-जल भरनेका सुभीता हो इसके लिये धर्मात्मा सुपात्रों को कांसे आदिके थाल, लोटा आदि वर्तन देना चाहिये । महाव्रतो मुनियों के लिये पोछी, कमण्डलु देना चाहिये। जिनमंदिरों में सोने-चांदी, तांबे, कासे आवि धातुओंके बने हुए थाल, भुंगार आदि पूजाके उपकरण देना चाहिये और पूजा, मन्त्र आदिको विधि को जाननेवाले जैनशास्त्रों के ज्ञाता विद्वानोंको अच्छे भूषण देना चाहिये । सो हो लिखा हैजलान्नव्यवहाराय पात्राय काश्यभाजनम्। महाव्रतियतोन्द्राय पिच्छं चापि कमंडलुम्॥ जिनगेहे प्रदेयानि पूजोपकरणानि वै। पूजामंत्रविधेष्टाय पण्डिताय सुभूषणम् ॥ इस प्रकार दानके अनेक भेद हैं सो विवेको पुरुषोंको यथायोग्य अपनी शक्तिके अनुसार देना चाहिये। इनके सिवाय और भी प्रकारान्तरसे गृहस्थोंको दान देना बतलाया है । यथा-इस संसारमें उत्तम पात्र निर्ग्रन्थ महामुनि हैं, मध्यम पात्र ग्यारह प्रतिमाओंको धारण करनेवाले श्रावक हैं और जघन्य पात्र अव्रत सम्यग्दृष्टि श्रावक हैं। ऐसे मुनि, अजिका, श्रावक-श्राविका आदि चारों प्रकारके संघको आहारदान, अभयवान, औषधदान, शास्त्रदान, वसतिकादान, वस्त्रदान आदि यथायोग्य वेना चाहिये। तथा स्त्री आदि सांसारिक सुखमें रहनेवाले धर्मात्मा पात्रोंको श्रावक धर्मको सिद्धि के लिये अपनो शक्तिके अनुसार शुभ वस्त्र वा आभरण देना चाहिये। जो देने योग्य होकर भी नहीं देता और उस धर्मात्माके वचनको नहीं मानता तो फिर उसके घरमें पूजा-दान । आदि धर्म कार्पोका लोप हो जाता है। सो ही लिखा है-- भोगपात्र तु दारादिसंसारसुखदायक। तस्य देयं सुभूषादि स्वशक्त्या धर्महेतवे ॥ यदि न दीयते तस्मै करोति न वचस्तदा। पूजा दानादिकं नैव कार्य हि घटते गृहे ॥ संसारमें अपनी कोतिको बढ़ानेवाले भाट आदि याचक जन है इसलिये यश बढ़ाने और सुखी होनेके ।। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( स लिए ऐसे भाट मादि याचकजनोंको भी बहुत-सा धन शेमा चाहिये । क्योंकि संसारमें यदि पनो लोगोंको कोत्ति न हो तो लोकापवाद होने के कारण उनका जन्म ही व्यर्थ हो जाता है। अपनी निन्दाके सुननेसे मानसिक वुःख होता है, मानसिक दु:खसे आतंध्यान होता है और आतंत्र्यानसे पापबंध होता है । इसलिये अपनी यशःकोतिके विसिागर लिये समयानुसार और योग्यतानुसार भाट आदिको भी धन देना चाहिये । सो हो लिखा है। भट्टादिकं यशस्पात्र लोके कीर्तिप्रवर्तकम् । देयं तस्मै धनं भूरि यशसे च सुखाय च ॥१॥ विना कीर्त्या वृथा जन्म मनो दुःखप्रदायकम् । मनोदुःखे भवेदातः पापबंधस्तथार्ततः ॥२॥ वासी-दास, नौकर-चाकर आवि जो सेवाके पात्र हैं उनको यथेष्ट ( आवश्यकतानुसार ) अन्न, वस्त्र देना चाहिये । तथा वया पालन करनेके लिये समस्त जीवोंको अपनो शक्तिके अनुसार यथोचित् दान देना चाहिये । इसी प्रकार पाय, सा, भैस आदि मूखे-प्यासे जानवरोंको घास, भुस और छना पानी आदि देना चाहिये । सोही लिखा हैसेवापात्रं भवेदासी दासभृत्यादिकं ततः। तस्मै देयं पटाद्यन्नं यथेष्टं च यथोचितम् ॥१॥ दोहेतोस्तु सर्वेषां देयं दानं स्वशक्तितः । गोवत्समहिषीनां च जलं च तृणसंचयम् ॥ ? ___इस प्रकार दानका स्वरूप अनेक प्रकार है और इन सबका फल जुदा-जुदा है । सो ही लिखा हैपाशे धर्मनिबंधनं तदितरे श्रेष्ठं दयायापकं, मित्रो प्रीतिविवर्द्धनं रिपुजने वैरापहारक्षमम्।। । भृत्ये भक्तिभरावहं नरपतो सन्मानसंपादकं, भट्टादौ तु यशस्करं वितरणं तत्क्वाप्यहो निष्फलम् ॥ अर्थात् अपने हायसे जो पात्रोंको दान दिया जाता है वह स्वर्ग:मोक्षको वेनेवाला और धर्मको वृद्धि करनेवाला है तथा उत्तम, मध्यम, जघन्य तीनों पात्रोंके सिवाय अन्य जीवोंको क्याके लिये दिया हुआ दान । उत्तम हो है । देखो मित्रको विया हुआ दान प्रेम बढ़ाता है। शत्रुको दिया हुआ शान वरको दूर करता है। वासी-दास, नोकर-चाकर आदिको विया हुआ वान भक्ति बढ़ाता है। राजाको विया हुआ दान अपना सन्मान बढ़ाता है । तथा भाट, राव आदि याचकोंको दिया हुआ दान अपनी कोत्तिको बढ़ाता है। इससे सिड होता है। मानाmaliSadSARALIA Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि हाथसे दिया हुआ दान कभी निष्फल नहीं होता। वानका ऐसा ही माहात्म्य है। इसलिये प्रायश्चित्तोंमें जो गोवान लिखा है सो वह भी समयानुसार यथायोग्य पात्रको देना चाहिये। सर्वथा एकांत पक्षको पकड़कर मारहठ नहीं करना चाहिये । जैनमत स्यावाब रूप है। । ३३७ ] इसके सिवाय जैनधर्ममें अनेक शास्त्र हैं सो किसी एक शास्त्रको पकड़ कर हट नहीं करना चाहिये। 'सामान्यशास्त्रतो नूनं विशेषो बलवान् भवेत् ।' अर्थात् सामान्य शास्त्रसे विशेष शास्त्र बलवान होते हैं । यह सब । न्याय और नीति समझ लेती साहिये। गृहस्थोंको यह सब वान महा पापोंको दूर करनेके लिये तथा अपनी जाति धर्मको वृद्धि करनेके लिए और अपने प्रायश्चित्सको शुद्धिके लिये लेना चाहिये । यह सब लोकाचरण है जिन लोकाचरणोंमें सम्यग्दृष्टी तो श्रावकको सम्यग्दर्शन और व्रतोंमें दोष न लगे ऐसे लोकाचरण करने में कोई हानि नहीं है। सो ही यशस्तिलक चम्पूमें लिखा है । और वर्षा समाधानमें भी लिखा है। यथा॥ सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लोकिको विधिः । यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यत्र न प्रदूषणम् ।। यह विषय और भी अनेक शास्त्रोंमें लिखा है श्री आदिनाथके पुत्र महाराज भरतेश्वरने एक बार ऐसा विचार किया था कि दान किसको देना चाहिये। उसी समय यह निश्चय किया था कि जो अहिंसा आदि अणुव्रतोंमें धीर हों, जो गृहस्थ धर्म धारण करनेवालोंमें अप्रेसर हों ऐसे लोगोंको हाथी, घोड़ा, रथ, चाकर, वाहन आदि मनोवांछित पदार्थ तथा अन्न, 1 वस्त्र, घर, गौ आदि दान देकर उनको आशा पूर्ण करनी चाहिए। ऐसा श्री आदिपुराणके अस्तोसवे पर्वमें है ६ आठवें श्लोकमें वर्णन किया है। यथा-- ये च व्रतधरा धीरा धौरेया गृहमेधिनाम्। तपणीया हि तेऽस्माभिरीप्सितैः वस्तुवाहनः ॥ यद्यपि इस श्लोकमें गो शब्द नहीं है तथापि धातूनां अनेकार्थत्वात्, अवयवानां अनेकार्थत्वात् । अर्थात धातुओंके अनेक अर्थ होते हैं तथा अवयवोंसे अनेक कार्य बनते हैं। इस प्रसंगको देख लेना चाहिये । प्रकरण वानका है इसलिये ईप्सित वा इष्ट पदार्थोंमें गौ भी आती है। इसके सिवाय इसी अड़तीसवे पर्षमें पात्रदान, दयावान, समवान, अन्वयवान ऐसे दानके चार भेव Fal ४ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ S HEAL a लिखे हैं उनमेंसे समबत्तिदानमे ऐसा लिखा है कि जिनको आत्मा सभान है तथा क्रिया, मंत्र, वत आदि भो । जिनके समान हैं ऐसे निस्तारक वा गृहस्थाचार्योको पृथ्वी, सुवर्ण आदि दान देना चाहिये । जो व्रत क्रिया है चर्चासागर मन्त्र आविसे समान हैं ऐसे भावकोंको धर्मको स्थिरताके लिये पृथ्वी, सोना मावि बान देना चाहिये । यथा३३८ ] समानायात्मनान्यस्मै क्रियामंत्रवतादिभिः। निस्तारकोत्तमायेह भूहेमाद्यतिसर्जनम् ॥३॥ श्री पद्मनन्दि मुनिने अपने पंचविंशतिका काव्यमें दूसरे दान प्रकरणमें लिखा है कि अभयवान औषषिवान, आहारदान, शास्त्रदान ये चार वान हैं सो ये चारों ही दान अलग-अलग महाफल देनेवाले हैं। सो ही लिखा हैज्ञानवान् ज्ञानदानेन निाधो भेषजैर्भवेत् । अन्नदानात्सुखी नित्यं अभयोऽभयदानतः ॥ ___अर्थात् ज्ञानदानमे ज्ञानी होता है । औषध दानसे निरोग रहता है। अन्नदानसे सदा सुखी रहता है। और अभयदानसे सदा निर्भय रहता है । इन चार दानोंके सिवाय अन्य मतियों के द्वारा कल्पना फिये गये ऐसे । गोदान, सुवर्णदान, भूमि, रथ, कन्या आवि पहले कहे हुए जो दस दान हैं वे सब दान पापके कारण हैं। सो हो पंचविंशतिकाने लिखा है चत्वारि यान्यभयभेषजभुक्तिशास्त्रदानानि तानि कथितानि महाफलानि ॥ नान्यानि गोकनकभूमिरथांगनादि, दानादि निश्चितमवद्यकराणि यस्मात् ॥॥॥ इससे आगे उसी पंचविंशनिकामें लिखा है भूमि आदिका दान जिन मन्दिरमें देना चाहिये जिप्से । नवोन मन्दिर बन सके तथा सुवर्ण, गौ प्रादिभी जिनमन्दिरमें देना चाहिये जिससे दीर्घ काल तक वह मन्दिर बना रहे, जिनशासनको प्रवृत्ति बनी रहे और नवा पूजा, अभिषेक आदि धर्म कार्य होते रहें । सो हो लिखा है-- यहीयते जिनगृहाय धरादि किंचित् नत्तत्र संस्कृतिनिमित्तमिह प्ररूटम् । आस्ते ततस्तदतिदीर्घतरं हि कालं जैनं च शासनमतः क्रतमस्ति दातुः॥ यद्यपि इस काव्यमें गौ दानका स्पष्ट उल्लेख नहीं है तथापि आदि शब्दसे कहा है। कदाचित् यहाँपर कोई यह कहे कि यहाँ काध्यमें गौ वानका वर्णन आदि शब्दसे कहा है सो इससे । FAIRSaiRamananesa amanaimaatravasaasREAakase Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IABore..." । ३३९1 हमारा संदेह दूर नहीं होता तो इसका उत्तर यह है कि देखो-जिस समय सोसाजीकी दाई आँख फड़की थी । । तब सीताजीने अपशकुन समझकर शालिको बुलाया जा और सम होनहार हिनको शान्तिके लिये तथा अपने है । सुखको इच्छासे उस भंडारीसे कहा था कि हे भंडारके स्वामो! हमारे घरसे पात्रोंके लिये चारो प्रकारके वान, दो। हमारे वेशमें सब जगके जीवोंको रक्षा करो, कराओ। हमारे देश किसीके द्वारा भी जीवघात न होने पावे । इसी प्रकार हमारे देशमें अनेक ऊँचे शिखरोंसे सुशोभित जिनमन्दिर कराओ। तथा भगवानका नित्य अभिषेक होनेके लिये बहुतसी गायें जिनमन्दिरों में वो, जिनपूजा कराशो और जिनमन्दिरों में भगवानको नाटयशालायें बनवाओ । इस प्रकार सोताजीने आक्षा की। सीताजीको यह आज्ञा सुनकर भंडारीने वैसा ही करने देनेका सब प्रबंध कर दिया अर्थात् सीताजीके कहे हुये सन कार्य कर दिये ऐसा स्पष्ट कथन लिखा है । यथाभांडागाराधिपे प्राह सीता स्वस्य सुखेप्सया। देहि दानं च सर्वेभ्यो पात्रकेभ्यश्च मदग्रहात् ।। जीवरक्षां च सर्वत्र कारयेद्विषये मम । मद्देशे कारयेज्जैनप्रासादाः शिखरान्विताः ॥४८॥ । अभिषेकाय विम्बानां जिनानां गोधनं बहु । देहि चैत्यालयेषु त्वं कारयेत्पूजनं परम् ॥४६॥ नाटयशाला जिनेन्द्रस्य कारयेजिनसद्मसु । तच्छ वा तेन तत्सर्वं कृतं परं च तत्क्षणात् ।। इस प्रकार प्रसंगानुसार लिखा है इलोकोंका अर्थ ऊपर लिखा जा चुका है । इसके सिवाय श्रीअकलंकदेवकृत श्रावकप्रायश्चित्त नामका ग्रन्थ है उसमें भी प्रायश्चित्त वर्णनमें यथोचित गोदान लिखा है । जैसे कलशाभिषेकश्चैको गौरेका च प्रदीयते ॥ अर्थात् एक कलशाभिषेक करना चाहिये और एक गाय देनी चाहिये। द्विशतं भुक्तिदानानं तिस्रो गावो भवंति हि ॥ अर्यात् दोसौ आहारदान और तीन गायें देनी चाहिये ।। द्विगावो कलशस्नानम् ॥ वो गाय देना चाहिये और कलशाभिषेक करना चाहिये। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चासागर [ ३४० पंचाशदभुक्तिदानानि गावस्तित्र उदाहृताः ॥ पचास व्यक्तियों को जिमाना । पचास आहारदान और तीन गायें देनी चाहिए। त्रयाभिषेकाः कलशैर्गावस्तिसः प्रकीर्तिताः॥ कलशोंसे तीन अभिषेक करने चाहिए और तीन गायें देनी चाहिए। द्वौ गावो दशगंधस्य फलानि कुसुमानि तु ॥ वो गायें, वश गंध, वश फल और दश फूल देने चाहिये । द्विगावो भक्तिदानानि ।। वो गाये और आहारदान घेना चाहिए। मोक्करला गौर्हि एका स्यादुपवासादयो मताः ॥ मोफरला एक गौ उपवासाविक करने चाहिए। द्वौच गावो भुक्तिशतद्वयम् ॥ दो गाय और सौ आहारदान देना चाहिए । गौरेकात्र प्रदीयते॥ इसमें एक गाय देनी चाहिए। गोरेकाहारदानानि ।। एक गाय और आहारदान देना चाहिए। गौरेका त्रीणि लक्षाणि पुष्पं गंध फलानि च । एक गाय, तीन लाख पुष्प, गंध, फल देने चाहिए। गौरेकाहारदानानि पंचपंचाशदेव हि । एक गाय और पचपन आहारदान देना चाहिए । Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर ३४१ 1 धेनुरेका प्रदीयते ॥ एक गाय देनी चाहिए । इस प्रकार अकलंक वेवने अपने प्रायश्चित्त ग्रन्थ कहा है। यहाँ कथा (गोड़ा-सा वर्णन ) किया है। विशेष विस्तार जानता हो तो बोरसेनकृत तथा अकलंकदेवकृत प्रायश्चित्त ग्रन्थोंमें देखना चाहिये । प्रश्न - प्रायश्चित प्रत्योंमें जो शिरमुंडन लिखा है सो यह आम्नाय तो अन्य मतियोंका है सो जैनशास्त्रोंमें क्यों लिखी गई है। समाधान- प्रायश्चिसके समय जैन शास्त्रोंमें शिर मुंडन करानेका उपवेश है। इसलिये लिखा है । देखो मुनि आजका प्रायश्चित्त ग्रन्थों में भी लिखा है तहय सुवण्णादीणं दव्वं इच्छयाणजह जोगं । सिर मुंडर्ण च कुज्जा लेयाणं किं गाहणटुं ॥ अर्थात् - यथायोग्य सुवर्णादिक ग्रथ्य लेना चाहिए। और सिर मुण्डन करना चाहिए। इसमें भी शिर मुण्डन लिखा है। तथा दूसरी जगह लिखा है सकृद्भांत्यथ दर्पाद्वा सेविता दुर्जनेरिता । प्रायश्चित्तोपवासाः स्युः त्रिशतं शीर्षमुडनम् ॥ अर्थात् किसी दुष्टht प्रेरणासे वा प्रमावसे एकबार मुण्डन सेवन की हो तीन सौ उपवास शिर मुण्डन करना उसका प्रायश्चित्त है । किसी दुष्टकी प्रेरणा से एक बार अभक्ष्य सेवन किया हो । १८५ - चर्चा एकसौ पचासीवीं प्रवन - मुनियोंके प्रायश्चिस विधि क्या है ? [ समाधान---बारह प्रकारके तपोंमें एक प्रायश्चित्त नामका तप है। यदि किसी मुनिके अज्ञान अथवा प्रमावसे पांच महाव्रताविक, अट्ठाईस मूलगुणोंमें वा अन्य किसी क्रया आचरणमें किसी प्रकारका अतिचार वा अनाचार लग जाय तो ये मुनिराज अपने गुरु आचार्यके निकट जाकर अपने किये हुए दोषको प्रगट करते हैं । तदनन्तर आचार्य महाराज जो प्रायश्चित वे उसे दे अपने दोष दूर करनेके लिये बड़े हर्षके साथ स्वीकार करते हैं। गुरुके दिये हुए प्रायश्चित्तोंमें किसी प्रकारका विवाद नहीं करते किन्तु उसको यथोचित रीतिसे पाल कर Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है शुद्ध होते हैं। वही प्रायश्चित्त पोड़ा-सा यहाँ लिखते हैं। मुनियोंके प्रायश्चित्तकी विधि ग्रहस्थके समान नहीं है किन्तु उसको विधि अलग ही है और वह इस क्रमसे है। पसिागर म प्रायश्चित, विशुद्धि, मत हरण, पापनाशान्त और छेवन ये पांच भेव है। उसमें से नौ णमोकार मंत्रका ३४२ एक कायोत्सर्ग होता है । बारह कायोत्सर्गका एकसौ आठ णमोकार मन्त्रोंका एक जप होता है। एवं जपका फल एक उपयास है । यहाँपर उपवास शब्दका अर्थ यही है । आचामल, निविडि, गुरुनिरत, एक स्थान, उप-है । वास ये पांचों मिलकर एक कल्याणक होता है। यदि कोई मुनि इस कल्याणकके पांचों अंगोंमेसे आचाम्ल पाँच, निविड पाँच वा उपवास पांच इनमेंसे कोई एक कर लें तो वह लधु कल्याणक कहलाता है । यदि पांचों कल्याणकोंम में कोई एक कम करे तो उसको भिन्न कल्याणक कहते हैं । यदि वे आचाम्ल, गुरु निरत, एक स्थान, निविड । इनको करें तो अर्बकल्याणक कहा जाता है। ऐसा सब जगह समझ लेना चाहिये। सो हो लिखा हैपायच्छित्त विसोही मलहरणं पावणासणं छेदो।पंचाया मूलगुणं मासियसट्ठाण पंचकल्लाणे॥ एकेहिवि कायोस्सग्गे णव णवकारा हवेति वारससु। सय अट्टोत्तर भेदे भवन्ति उववासयं सफलं ॥ ! आयं विलण वियडि पुरिमंडल सेयट्ठाणमुववासं । कल्लाणमे गमेदे हि पंच हि पंचकल्लाणं॥ आयंविलेण पउणं खमण पुरिमंडले तहापादो। एकट्ठाणे अद्धं णिवि पडिए पराभेव ।। यहाँपर मूलगुण मुनियोंके अलग हैं और श्रावकोंके अलग हैं उसी प्रकार उत्तरगुण भी अलग-अलग हैं। उनको क्रमसे बतलायेंगे। आगे अहिंसा महायतमें जो दोष लगते हैं उनको शुद्धि के लिये प्रायश्चित्त कहते हैं। यदि किसो मुनिसे बारह एकेन्द्रिय जीवोंका घाल अज्ञानपनेसे हो जाय तो ऊपर लिखा हुआ (बारह कायोत्सर्गका) एक उपवास करना चाहिये। यदि छः, वो इंद्रिय जीवोंका घात हो जाय तो भी ऊपर लिखा एक उपवास करना चाहिये। यदि चार, तेइन्द्रिय जीवोंका घात हो जाय तो भी एक उपवास करना चाहिये। यदि सीन, चतुरिन्द्रिय जीवोंका ॥ घात हो जाय तो भी एक उपवास करना चाहिये। यदि छत्तीस एकेन्द्रिय जीवोंका धात हो जाय तो प्रतिक्रमण । ATMENTREATMELBRITER e leasRETATE Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर [ ३४३ ] पूर्वक तीन उपवास करने चाहिये। इसी प्रकार अट्ठारह दो इन्द्रिय, बारह तेइन्द्रिय, नौ चौइन्द्रिय जीवोंके घात का प्रायश्चित्त प्रतिक्रमण पूर्वक तीन उपवास समझना चाहिये । यह जघन्य प्रायश्चित है । यति किसी सुमि एकेन्द्रिय जीवोंका, नब्बे दोइन्द्रिय जीवोंका वा साठ तेइन्द्रिय जीवोंका वा पैंतालीस चतुरिन्द्रिय जीवोंका वध हो जाय तो अलग-अलग एक-एक पंचकल्याणक करना चाहिये। यह उत्कृष्ट प्रायश्चित्त है। अन्य आचार्योंके मतमें पंचकल्याणक छः आवश्यक और प्रतिक्रमण सहित पंचकल्याणक समझना चाहिये । सो ही लिखा है-मूलगुणावि दुविहा समणाणं चेवयाणं च । उत्तरगुण तहेव यन्ते हिंसोहिं पच्चखामि ॥ ए इंदियाय काओ दो इंदिय गणणाय जीव चउइंदी । एकाउसग्गेय तथा वारस छह उच्चट्ट तिहकमणं ॥ छत्तीसारसवारस यहि छट्ठपरिकमणं । सिदि सयण उदिद्दि सट्ठियण दाल एहि मूलगुणं ॥ यदि नौ प्राणोंको धारण करनेवाले असैनी पंचेन्द्रिय जोवका वध हो जाय तो अलग-अलग आठ प्रकारके मुनियोंको अलग-अलग प्रायश्चित्त होता है। सो ही लिखा है पंचेदिय असणीए बधकरणे चैव मूलगुणमन्तो । थिर अथिर पयदचारी अपदोई दरा ए ॥ अर्थ- मूलगुणके भेद चार, उत्तरगुणके भेद चार, स्थिर मूलगुण चारित्रवारी १, अस्थिर मूलगुण चारित्रवारी २, प्रयत्नचारित्र मूलगुणधारी ३, अप्रयत्नचारित्र मूलगुणधारी ४। ये हो चार भेद उत्तरगुणधारियोंके समझने चाहिये। इन सबके जुदा-जुदा प्रायश्चित होता है । यथा-स्थिर मूलगुण चारित्रमालेको प्रतिक्रमण पूर्वक तीन उपवास करना चाहिये । अस्थिर मूलगुण चारित्रवालेको प्रतिक्ररण पूर्वक एक पंचकल्याre, प्रयत्तचारित्र मूलगुण चारित्रवालेको प्रतिक्रमण पूर्वक तीन उपवास और अप्रयत्त मूलगुणवालेको प्रतिक्रमण पूर्थक एक पंचकल्याणक प्रयत्न चारित्र मूलगुणचारित्र वालेको प्रतिक्रमण पूर्वक तीन उपवास और अप्रयत्नचारित्र मूलगुणवाको प्रतिक्रमण पूर्वक एक लघुकल्याणक करना चाहिये । इसी प्रकार अनुक्रमसे ऊपर कहा हुआ प्रायश्चित उत्तर गुणवालोंका जानना चाहिये। यह प्रायश्चित्त एक पंचेन्द्रिय असेनी जीवके वत्र होनेका है। [ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न- यदि किसी मुनिसे अनेक पंचेंद्रिय असैनी जीवोंका वष हो जाय तो उसे क्या प्रायश्चित्त लेना। पसायर उत्तर--यदि ऊपर लिखे आठ प्रकारके मुनियोंसे नौ प्राणोंको धारण करनेवाले असेनी पंचेंद्रिय घोषोंLaw का अनेक बार वध हो जाय तो उन्हें अनुक्रमसे नीचे लिखे अनुसार प्रायश्चित्त लेना चाहिये। पहलेको (स्थिर । मूलगुण चारित्रधारीको ) तीन उपवास, अस्थिर मूलगुणधारीको एक कल्याणक, प्रयत्नचारित्रमूल गुणधारोको वो लघु कल्याणक, अप्रयत्नचारित्र मूलगणवारीको तीन पंच कल्याणक इस प्रकार इनका प्रायश्चित्त समझ लेना। चाहिये। सो हो लिखा हैबहुवारेसु विच्छेदो छ? लहुमास मासियं मूलं । तिष्णुववासा छट्ट लहुगच्छट्ठाणमट्ठण्णं ॥ यदि उत्तरगुणको धारण करनेवाले साधु अपने प्रमावसे एकेंद्रियसे लेकर चतुरिन्द्रिय पर्यन्त जीवोंके गमन आगमनको रोके तो एक कायोत्सर्ग करें। यदि वे असैनी पंचेंद्रियका गमनागमन रोके तो एक उपवास करें । यदि मूलगुण धारण करनेवाले साधु प्रमावसे एकेंद्रियसे लेकर चतुरिन्त्रिय पर्यन्त जीवोंके गमन आगमनको रोके तो एक कायोत्सप करें। यदि मूलर णधारो साधु अपने किसी अहंकारसे असैनी पंचेंद्रियका गमन आगमन । रोके तो वे सेरह उपवास करें। सो ही लिखा हैउत्तरमूलगुणीणं पमाददप्पं हि जाणमलहरणं । काओसग्गोवासो इंदियपाणेण गमणाए ॥ तथा जहाँ-जहाँपर प्रयत्नाचार वा अप्रत्यलाचारफे द्वारा एकेन्द्रिय पर्यन्त जीवोंका वा असेनी पंचेंद्रिय जीवोंका गमन-आगमन रुके तो एक कायोत्सर्ग करना चाहिये यदि ऐसे हो साधुओंसे सैनी पंनिय जीवोंका गमन-आगमन रुके तो बारह कायोत्सर्गका एफ उपवास करना चाहिये । सो ही लिखा है-- अहवा जतनाजतने इंदियगण्णाय पाणगण्णाय।काओस्सग्गो होति उववासा वारसा देहि। यवि फिसो मुनिसे प्रोधादिक कषायोंके वश होकर अपनी सामर्थ्य से तथा अशुभ कर्मके उदयसे अनेक अनयोका मूल ऐसा महापात हो जाय अर्थात् यद्यपि महामुनि समस्त जीवोंको रआ करनेवाले हैं, सब प्रकार को हिंसाका त्याग कर अहिंसा महाव्रतको धारण करनेवाले हैं तथापि यदि दैवयोगसे दुष्ट बुद्धिसे उनसे कोई । अनुचित बन जाय तो वे मुनि भारी बण्ड देनेके योग्य हैं । आगे उसी दण्डको अनुक्रमसे कहते हैं। यति मारने AMARHATRAPAINARASIMARATHAM Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [ ३४५ ] का प्रायश्चित्त एक वर्ष पर्यन्त निरन्तर तेला पारणा करना चाहिये । श्रावक मारनेका प्रायश्चित्त छः महीने पर्यन्त निरन्तर तेला पारणा करना चाहिये । बाल हत्या, स्त्री हत्या, गौ हत्या हो जानेपर यति हत्या अनुक्रमसे आषा-आषा दण्ड लेना चाहिये अर्थात् पति हत्याका एकवर्ष पर्यन्त तेला, श्रावक हत्याका छः महीने तक तेला, बालहत्याका तीन महीने तक निरंतर तेला पारणा, स्त्री हत्याका डेढ़ महीने तक निरंतर तेला पारणा । गौ हत्याका साढ़े बाईस दिन तक निरन्तर तेला पारणा करना चाहिये । परमती पाखण्डोके मारनेका प्रायश्चित्त छः महीने तक सेला पारणा करना है, पाखण्डियोंके भक्तके मारनेका प्राचीनता है और नीचके मारनेका प्रायश्चित्त डेढ़ महीने तक तेला पारणा करना है । ब्राह्मणके मारनेका प्रायश्चित्त आदि अन्तमें तेला करना और छः महीने तक एकांतर उपबास (एक उपवास, एक एकासन) करना है। क्षत्रियके मारनेका आदि अन्तमें तेला और तीन महीने तक एकांतर उपवास है । वैश्यके मारनेका डेढ़ महीने तक एकांतर उपवास और आदि अन्तमें तेला करना है। शूद्रके मारनेका प्रायश्चित्त तेईस दिन तक एकांतर उपवास और आदि अन्समें तेला करना है । किसी-किसी आचार्यके मसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रके मारनेका प्रायश्चित आठ महीने, चार महीने दो महीने और एक महीने तक एकांतर उपवास और आदि अन्तमें तेला बतलाया है । I इसी प्रकार घास-भुस खानेवाले पशुके मर जानेपर उसकी शांतिके लिए चौदह उपवास, मांसभक्षी पशु मर जानेपर ग्यारह उपवास, पक्षी, सर्प, जलचर, छिपकली आदि जीवोंके मरनेका प्रायश्चित्त नौ उपवास हैं । यहाँपर बारह कायोत्सर्ग से होनेवाला उपवास नहीं है किन्तु तेला-बेला के सम्बम्धसे चार प्रकारके आहारका त्याग करना उपवास लिया है। सो ही लिखा है रिसि साक्य वालाणं इरिथ गोघायणं हि मलहरणं । बारसमासादीनं अद्धन्द्धकमेण घट्ट घट्ट तवं ॥ पाडा तवगुरु जोणि सरिताण घादण छेदो । बम्मासं छट्टतवं अद्धन्द्धं होदि णायठवा ॥ [ वंम्मण खत्तिय वेस्सास सुद्दा चउपयंग दुण पायम्मि । एगंतर छम्मासा अद्धद्धं घट्टमासमंतेण ॥ ४४ AJA Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [ १४६ ] 15UARI 2 तणवत्थाय विहंगम उरपरिसप्पाण जलचरवधेहिं । चोदसमोदिक्कादि उणवंत खमणाणि मलहरणं ॥ इस प्रकार अहिंसा नामक प्रथम महाव्रतका तथा अहिंसा उत्तरगुणका प्रायश्चित्त बतलाया । एक बार प्रत्यक्ष असत्य कहनेका प्रायश्चित्त एक कायोत्सर्ग है। एक बार परोक्ष असत्य कहनेका प्रायश्चित हो उपवास है। एक बार मन, वचन, कायसे असत्य कहनेका प्रायश्चित्त तीन उपवास है। अनेक बार प्रत्यक्ष कहनेका प्रायश्चित्त पंचकल्याणक है। अनेक बार परोक्ष असत्य भाषण करनेका प्रायश्चित्त पंचकल्याणक है। अनेक बार प्रत्ययान दिले हुए कत्य कहनेका प्रायश्चित्त पंचकल्याणक है । अनेक बार मन, वचन, कायसे असत्य कहनेका प्रायश्चित्त पंचकल्याणक है। सो हो लिखा है सइ पचक्ख परोक्खं उभयं तियकरण नोसमासीसे । काउस्सग्गुवबसो एशुत्तव असइसद्वाणं ॥ इस प्रकार असत्य त्याग महाव्रतका प्रायश्चित्त बतलाया । यहाँ पर बारह कायोत्सर्गका एक उपवास समझना चाहिये। चार प्रकारके आहारका त्यागरूप उपवास नहीं है । यदि मोहसे एकबार परोक्ष चोरी की जाय तो एक कायोत्सर्ग प्रायश्चित है। यदि एकबार प्रत्यक्ष चोरीको जाय तो एक उपवास प्रायश्चित्त है । यदि एकबार प्रत्यक्ष परोक्ष दोनों प्रकारको चोरी की जाय तो दो उपवास प्रायश्चित्त है । यदि एकबार मन, वचन, कायसे चोरी की जाय तो तीन उपवास प्रायश्चित है । यदि अनेक बार परोक्ष चोरी की जाय तो पंच कल्याणक प्रायश्चित्त है । यदि अनेक बार प्रत्यक्ष चोरोकी जाय तो पंच कल्याणक प्रायश्चित्त है । यदि अनेक बार मन, वचन, काय तीनोंसे छोरीको जाय तो पंचकल्याणक प्रायश्चित है । सो ही लिखा है- सुद खुद सुणं हि समक्खेणाभोगे अदत्त गहिद म्हि । काउस्सग्गुववासा गुत्तर असइमा सिद्धं ॥ यहाँ भी बारह कायोत्सर्गका उपवास समझना चाहिये। इस प्रकार अचौर्य महाव्रतका प्रायश्चित्त बतलाया । [ ३४ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । उपवास है। यदि मनि __ आगे ब्रह्मचर्यके दोषोंका प्रायश्चित्त बतलाते हैं । यदि मुनि नियमरहित और देवचंदनासहित रात्रिमें न निद्रा लें और स्वप्नमें वीर्यपात हो जाय तो उसका प्रायश्चित प्रतिक्रमण पर्वक दो उपवास है सागनियम सहित देव वंदना पूर्वक रात्रिमें निता लें और स्वप्नमें वीर्यपात हो जाय सो प्रतिक्रमण पूर्वक एक [३४७ ] उपवास प्रायश्चित्त है । यदि पिछली रातमें सामायिक कालके पहले निद्रामें वीर्यपात हो जाय तो प्रतिक्रमण पूर्वक एक उपवास प्रायश्चित्त है। यदि शामकी सामायिक करनेके बाद नियम सहित सोनेवाले साधुके नीदमें वीर्यपात हो जाय तो प्रतिक्रमण पूर्वक एक प्रायश्चित्त है। एक सामायिक कर नियमसहित देव । वंदना पूर्वक सोते हुये वीर्यपात हो जाय तो प्रतिक्रमण पूर्वक तीन उपवास प्रायश्चित्त है। यदि कोई मुनि | आसक्त होकर स्त्रीके साथ वचनालाप करें तो प्रतिक्रमण पूर्वक एक उपवास करना चाहिये । यदि स्त्रीका स्पर्श हो जाय तो प्रतिक्रमणपूर्वक एक उपवास करना चाहिये। यदि किसी मुनिने अपने मनमें स्त्रीका चितवन किया हो तो प्रतिक्रमण पूर्वक एक उपवास करना चाहिये । सो ही लिखा है-- पाथो सणियमरहिदे बंदण सहियं णमज्झएसुतस्सेर। दणिर वरणे उवधा वण दणिखवण्णाणी।। मणियमे जुत्तस्स पुणो सेसरिहं सछेद पुवं वासण्णा परहियसुत्तो पावदीउ च वासेण त्तसेण॥ । सो हि लहह रेदणिक्खरणे............... सज्झाय णियम स हियं वंदण रहियं सरेदणिक्खरणे। उवट्ठावण उववासो चेरकं यणं वासणियमस्सछ । सज्झायणिम वंदण तिणि विकाउण जो सुबई। साडरेदेदे गिरकरणं हिय उवट्ठा वण छट्ठ दिवसेय ॥ अभंग घासत्तो इस्थिहिय मोहिपदाध इछत्तो। काउसग्गुववासो उवणा बट्ठदप्पं हि॥(?) यदि कोई तिर्यच, देव वा मनुष्य किसी मुनिपर उपसर्ग करें और उस उपसर्गमें प्रमावसे मुनिका ब्रह्मचर्य भंग हो जाय उससे मैथुन कर ले तो उसका प्रायश्चित्त प्रतिक्रमण पूर्वक पंचकल्याणक है। यदि मुनि कामविकारसे मन, वचन, कायसे स्त्रीसे फिर भी मैथुन करें तो उनका महाव्रत भंग हो जाता है। वे फिर । दुबारा दीक्षा लेनेपर शुद्ध हो सकते हैं । सो हो लिखा है ENTERTAINMIRATEERTAIN-AyearSpeese-STREACTERNET Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ३४८ ] तिरियादि दुवस्सग्गे अबंभं सेविदं समूलगुणं । मूलट्ठाणं दप्पे तिरयण सेविसस्स जणणादो ॥ यदि कोई महाव्रतो मुनि किसी आजकाले एकवार मैथुन सेवन करे तो उसका प्रायश्चित्त प्रतिक्रमण सहित पंचकल्याणक है । यदि कोई मुनि अनेक बार किसी आर्जिकासे मैथुन सेवन करे तो उसका महाव्रत भंग हो जाता है। फिर दीक्षा लेनेसे यह शुद्ध होता है। यदि इस बातको बहुतते लोग जान लें या देख लें और फिर भी वह न छोड़े तो फिर उसको उस देशसे निकाल देना चाहिये । सो ही लिखा है-आलासं संगोण मूलगुण मूलठाण बहुवारं । जणणादं हि विवेगो देसादो शिद्धाउण होदि || इस प्रकार चतुर्थ ब्रह्मचर्यं नामके महाव्रतका प्रायश्चित बतलाया। आगे अपरिग्रह महाचलका प्रायश्चित्त कहते हैं । यदि एकबार उपकरणादिक, पदार्थोंके संग्रह करने की इच्छा करें, उन मुनिको एक उपवास प्रायश्चित्त करना चाहिये । यदि एकबार प्रेमपूर्वक उपकरणाविक पदार्थ रक्खें तो उसका प्रायश्चित्त एक उपवास है । यदि नित्य प्रति सवा किसी उपकरणाविक पदार्थके रखनेको इच्छा करें तो उसका प्रायश्चित्त एक उपवास है । यदि और लोगोंसे दान दिलावें तो उसका प्रायश्चित्त पंचकल्याणक । यदि सब परिग्रहोंको रक्खे तो उसका महाव्रत भंग हो जाता है । यदि वह फिरसे दीक्षा ले तो शुद्ध हो सकता है। सो हो लिखा है-उवयरण ठवण लोहिदि णमुहे दाणमण विखादे । सग्गग्गइणखमणं बट्टट्ठ मूलगुणल घति ॥ इस प्रकार महाव्रतका प्रायश्चित बतलाया । जो मुनि रोगके वश होकर एक रातमें चारों प्रकारके आहारका अन पान करें तो उसके प्रायश्चितमें तीन उपवास करना चाहिये । यदि रोगके वशीभूत होकर एक जल-ग्रहण करें तो उसका प्रायवित्त एक उपवास है। यदि किसीके उपसर्गसे कोई मुनि रातमें भोजन पान करें तो उसका प्रायश्चित पंचकल्याणक है । यदि कोई मुनि अपने दर्पसे अनेक बार भोजन-पान करें तो फिर उनका महाव्रत भंग हो जाता है। वे फिर दीक्षा लेनेसे शुद्ध हो सकते हैं। सो ही लिखा हैरतिगलाणमभुत्ते चउविह एगं हि घट्टखमणं तु । उवसग्गो सट्टाणं चरियाए मूलगुणे भुत्ते ॥ - इस प्रकार रात्रि भोजन त्याग नामके मूलगुणका प्रायश्चित है । ANAS [ ३४८ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बासागर ३१] पदि कोई मुनि टेढ़े मार्गको एक कोससे कम प्रासुक भूमिमें गमन करें तो उसका प्रायश्चित्त एक कापसा यदि किसी वासी एक कोस अप्रासुक भूमिमें गमन करें तो उसका प्रायश्चित्त एक उपवास है। यदि कोई मुनि वर्षाकालमें तीन कोस तक प्रासुक भूमिमें गमन करे तो एक उपवास प्रायश्चित्त करें। यदि वर्षाकालमें दिनमें दो कोस अप्रासुक मार्गमें गमन करें तो उसका प्रायश्चित्त एक उपवास है। यदि कोई मुनि वर्षाकालमें रात्रि एक कोस गमन करें तो उसका प्रायश्चित्त वा वण्ड धार उपवास हैं। यदि र शीतकालमें दिनमें प्रासुक भूमिपर छ: कोस तक कोई मुमि चलें तो उसका प्रायश्चित्त एक उपवास है। यदि शोतकालमें दिनमें अप्रासक भमिपर छः कोश तक चलें तो उसका प्रायश्चित्त एक उपवास है। यदि क मागसे चार कोस तक चले तो उसका प्रायश्चित्त एक उपवास है। यदि गर्मीके दिनोंमें नौ कोस तक प्रासक भमिमें गमन करें तो उसका प्रायश्चित एक उपवास है। यवि गर्मीके f । भूमिमें छः कोस तक चले तो उसका प्रायश्चित्त एक उपवास है । र्याद गर्मीमें रातमें अप्रासुफ मार्गसे छः कोस ॥ तक चले तो उसका प्रायश्चित्त दो उपवास है। यदि मुनि बिना पोछीके सात पॅड तक चले तो उसका प्रायश्चित्त एक कायोत्सर्ग है। यदि बिना पोछोके एक कोस तक गमन करें तो उसका प्रायश्चित्त एक उपवास है । यदि मुनि घुटने तक पानी में होकर गमन करे तो उसका प्रायश्चित एक कायोत्सर्ग है। यदि घुटनेसे चार अंगुल ऊपर तक पानी में गमन करें तो एक उपवास प्रायश्चित्त है। फिर आगे प्रति चार अंगुल पर दूनेने उपवास प्रायश्चित्त है । सो ही लिखा है वियायामगमण मुणिणो उमग्गो पासुगो असुद्धं । काउस्सग्गो खमणं अपुण्णकोसं हि दायत्वं ॥ वासरते दिव वसो पासुगा य गर्छ हि पदरगा। दिष्चति यद्ग कोसे एगोगां तिणि चड खमणं ॥ लहमे तेहिय दिवसो पातुय गच्छं हि पदरगा। दिच्चति पदुगे कोसे एगोगां वे णित्तिय खमणं ॥ . Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चेसागर [५० ] गिण्छे दिवि संदि चहा पासुगों हि यद्दारण्हादि । चण गच्छ एकोसे एगोगां दोण्णि डुग खमणं ॥ काउस्सगे सुद्धदि सत्तसु पादेसु पिच्छि विण गमणे । सुगमणादि पडिक्कमणं णो खमणं होदि नियमेण ॥ जहं हि विजो सगो खमणं चउंगलं हि तसुवारं । तं भोयदुगण दुगणे उववासा अंगुलं चडके ॥ इस प्रकार यह ईयसमिति नामके मूलगुणका प्रायश्चित्त है । यदि कोई मुनि लोगों में जाकर भाषा समितिमें दोष लगाते हुए वचन कहें तो उसका प्रायश्चित्त एक कायोत्सर्ग है । यदि कोई मुनि सम्यग्दृष्टि श्रावकके दोष प्रकाशित करें तो उसका प्रायश्चित्त चार उपवास है । यदि कोई मुनि जल, अग्नि, बुहारी, चक्की, उखली और पानी आदि छः कर्मोके करनेका वचन कहे तो उसका प्रायश्चित्त तीन उपवास है । यदि कोई मुनि श्रृंगारादिकके गोत स्वयं गावे या किसीसे गवावे तो उसका प्रायश्चित्त चार उपवास है। सो ही लिखा है-. भाताण पउज्जो वेज्जो वोल्लइ पुवस्थिणं दोस । काउस्सग्गो अट्टम अविरदया सुभबोधं हि ॥ छक्कम देश करणे उपवासे अट्टमं तु गिदिदिंचा । वण अवराह गाणं गदि दालणं होई ॥ इस प्रकार भाषासमिति नामके मूलगुणका प्रायश्चित्त बतलाया । यदि कोई मुनि बिना जाने कन्द मूलाबिक साधारण प्रत्येक सचित्त, अचित्त वनस्पति एक बार भक्षण करें अर्थात् कन्दमूल अचित्त भी भक्षण करे तथा अन्य वनस्पति सचित भक्षण करे तो उसका प्रायश्चित्त एक कायोत्सर्ग है । यदि बिना जाने अनेक बार कन्दादिक वनस्पतियोंका भक्षण करे तो उसका प्रायश्चित्त एक उपवास है । यदि कोई मुनि रोगके वशीभूत होकर कन्दादिक वनस्पतियोंका भक्षण करें तो उसका प्रायश्चित्त एक कल्याणक है । यदि कोई मुनि अपने सुख के लिये एकबार कंवादिकका भक्षण करें तो उसका प्रायश्चित्त [ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यासागर [ ३५१] Paraanaamarnationakalaचय पंचकल्याणक है । यदि कोई मुनि अपने सुखके लिये अनेक बार कंदादिकका भक्षण करें तो उनको दीक्षा भंग हो जाती है । सोही लिखा है-- अण्णाणि ण वाहि दप्पे भक्खण कंदादि एग वहुवारं। काउस्तग्गुववासो खमणणय गच्छमूलगुणमूलं ॥ यदि मुनिराजके आहार ले लेनेपर दाता कह कहे कि भोजनमें जंतु था उसको दूर कर हमने आपको आहार दिया है नहीं तो अंतराय पड़ जाता, इस प्रकार सुन लेनेपर उसका प्रायश्चित प्रतिक्रमण पूर्वक एक उपचास है । यदि आहार लेते समय थालोके बाहर ( गीली हड्डी आदि भारो) अन्तराय दिखाई पड़े तो। उसका प्रायश्चित्त प्रतिक्रमणपूर्वक तीन उपवास है। यदि भोजनमें हो ( गोली हड्डी, चमड़ा आदि भारी) अन्तराध आ जाय तो प्रतिक्रमण पूर्वक चार उपवास करना चाहिये । सो ही लिखा हैवट्ठतराय जादे सुदं हि तु तं स होइ खमणं खु । स भुजमाण दिद्वे छट्टट्ठमुट्ठपडिकमणं । यदि कोई मुनि तीन, चार घड़ी दिन चढ़नेसे पहले अथवा गोसर्जन समयमें एकबार आहार करें तो । उसका प्रायश्चित्त एक कायोत्सर्ग है। यदि कोई मुनि तोन, चार घड़ी दिन चढ़नेसे पहले अथवा गोसर्जन समयमें। र अनेक बार भोजन करें तो उसका प्रायश्चित्त एक उपवास है । यदि कोई मुनि रोगके वशीभूत होकर एकबार A अपने हायसे अन्न बनाकर भोजन करें तो उसका प्रायश्चित्त एक उपवास है। इसी प्रकार यदि कोई मुनि किसी रोगके वश होकर कई बार अपने हाथसे भोजन बनाकर आहार करें तो उसका प्रायश्चित्त तीन उपवास है। यदि निरोग अवस्थामें कोई मुनि एकबार अपने हाथसे बनाकर भोजन करें तो उसका प्रायश्चित्त पंचकल्याणक है। यदि निरोग अवस्थामें कोई मुनि अनेक बार अपने हाथसे बनाकर आहार करें तो उनका महाव्रत भंग हो जाता है । सो ही लिखा हैआधा कम्मेणादो गलाण पीरोगए बहुवारे । उववास छट्टमासे मूलं पय होइ मलहरणं ।। इस प्रकार एषणा समितिका प्रायश्चित्त बतलाया । यदि कोई मुनि विनमें काठ, पत्यर आदि पदार्थोंको हटावे वा दूसरी जगह रक्खे तो उसका प्रायश्चित्त । [३ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [३५२ ] एक कायोत्सर्ग है यदि कोई मुनि रातमें किसी काठ, पत्थरको उठावे वा हिलावे वा दूसरी जगह रक्खे अथवा रात में इधर-उधर फिरे तो उसका प्रायश्चित्त एक उपवास है। सो ही लिखा है- उट्ठादि वियडि दालण ठाणादो वा खिवेज अण | काउस्सगं पक्खड़ असंखविषपं उवासो ॥ यह आदाननिक्षेपण समितिका प्रायश्चित है। यदि कोई मुनि हरित काय पृथ्वीपर रात्रिमें एक बार मलमूत्र निक्षेपण करें तो उसका प्रायश्चित्त एक कायोत्सर्ग है । यदि वे बार-बार निक्षेपण करें तो उसका प्रायश्चित्त एक उपवास है। सो ही लिखा है-हरिभूद्द चेज उवरिं उच्चारादि करेदि पदेहिं । दो वे काउस्सग्गुववासो जाण बहुवारं ॥ इस प्रकार यह प्रतिष्ठापन समितिका प्रायश्चित्त बतलाया । स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँच इन्द्रियाँ हैं। यदि कोई मुनि अप्रमत्त होकर स्पर्शन इन्द्रियका विषय पोषण करे उसको वशमें न रक्खे तो एक कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त है। रसना इन्द्रियको वशमें न करनेका प्रायश्चित्त दो कायोत्सर्ग है और इसी प्रकार प्राण इन्द्रियको वशमें न करनेका प्रायश्चित तीन कायोत्सर्ग । चक्षु इन्द्रियको वशमे न करनेका प्रायश्चित्त चार फायोत्सर्ग और कर्ण इन्द्रियको वशमें न करनेका प्रायश्चित्त पांच कायोत्सर्ग है। यदि कोई मुनि प्रभावी होकर इन इन्द्रियोंको वशमें न रक्खे तो उनका प्रायश्चित इस प्रकार है-प्रमत्त होकर स्पर्शन इन्द्रियोंको वशमें न रक्खे तो एक उपवास, रसना इन्द्रियको वशमें न रक्खे तो वो उपवास, प्राण इंद्रियको वशमें न रक्खे तो लोन उपवास, चक्षु इंद्रियको वशमें न रक्खे तो चार उपवास और श्रोत्र इंद्रियको वशमें न रक्खे तो पाँच उपवास प्रायश्चित्त है। सो हो लिखा है- फरस रस घाण चक्खु सोददि चोर पमत्त इदरस्त । पयुत्तर वढिया कमसो ॥ काउसम्ववासो इस प्रकार यह पंचेन्द्रिय निरोधका प्रायश्चित्त बतलाया । यदि कोई मुनि वंदना आदि छहों आवश्यकोंके करनेमें तीनों कालोंके नियमोंको भूल जाय अथवा [ # Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समयका अतिक्रम हो जाय तो उसका प्रायश्चित्त प्रतिक्रमणपूर्वक एक उपवास है। यदि कोई मुनि तीन पक्ष तक प्रतिक्रमण न करे तो उसका प्रायश्चित्त दो उपवास है। यदि कोई मुनि चातुर्मासिक प्रतिक्रमण न करे तो पर उसका प्रायश्चित्त आठ उपवास है। यदि कोई मुनि वार्षिक प्रतिक्रमण न करे तो उसका प्रायश्चित्त चौबीस [ ३५३ ) उपवास है । सो ही लिखा है वंदणग्गह णियम विरहि उपवासो होइकाल छिण्णेवा । तह सज्झाव चउक्के काउसम्गो अवलाए । ते हि अधिकं तु पक्खे चउमासे य जाण वासो य । सोवट्ठावण छेदो यह षट् आवश्यकोंका प्रायश्चित्त बतलाया। यदि कोई रोगो मुनि चार महीनेसे ऊपर केशलोंच करें तो उसका प्रायश्चित्त एक उपवास है। यदि कोई रोगो मुनि एकवर्षसे ऊपर केवालोंच करें तो उसका प्रायश्चित्त तोन उपवास है। यदि कोई रोगो मुनि पाँच वर्षके ऊपर केशलोंच करे तो उसका प्रायश्चित्त पंचकल्याणक है । यदि कोई नौरोग मुनि चार महीने बाद वा एकवर्ष बाद वा पांच वर्ष बाद केशलोंच फरे तो उसका प्रायश्चित्त निरन्तर पंचकल्याणक प्रायश्चित्त है । सो ही लिखा हैचउम सिय वरसिय जुगं तरे चेव मदि चोर। उपवास छट्ठ मासिय गिलाण इदरे च णर वादं॥ यह केशलोंच मूलगुणका प्रायश्चित्त है । यदि कोई मुनि किसीके उपसर्गसे वस्त्र ओढ़ लें तो उसका प्रायश्चिस एक उपवास है। यदि कोई मुनि व्याधिके वश होकर वस्त्र ओढ़ लें तो उसका प्रायश्चित्त तोन उपवास है। यदि कोई मुनि अपने दर्पसे अहङ्कारवश होकर वस्त्र ओढ़ लें तो उसका प्रायश्चित्त पंचकल्याणक है। इनके सिवाय अन्य किसी कारणसे वस्त्र ओढ़ लें तो महानत भंग होता है। सो ही लिखा हैउवसग्गवाहिकरणे दप्पेण चेलभंग करणे हि । उपवास छट्ठ मासिय कमेण मूलं च होइ सयं ।। इस प्रकार वस्त्र त्याग मूलगुणका प्रायश्चित है। नियामचलायामाचा Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि कोई पनि एक बार स्नान करे तो उसका प्रायश्चित्त एक पंचकल्याणक है। यदि एकबार दन्त धावन (बतौन ) करें तो उसका भी प्रायश्चित एक कल्याणक है। यदि एकबार कोमल शय्यापर शयन करें तो पर्यासागर उसका प्रायश्चित्त भी एक कल्याणक है । यदि इनको बार-बार करें तो प्रत्येकका प्रायश्चित्त पंचकल्याणक है। [ ३५४ ] यदि कोई मुनि प्रमावसे एकबार बैठकर भोजन करें, खड़े होकर भोजन न करें तो उसका प्रायश्चित पंच कल्याणक है। यदि कोई मुनि प्रमादसे विनमें दो बार आहार करें तो भी उसका प्रायश्चित्त पंचकल्याणक है। यदि कोई मुनि महङ्कारके वश होकर एक बार बैठकर भोजन करें अथवा विनमें दो बार भोजन करें तो उसका प्रायश्चित्त दीक्षा छेव है । यदि कोई मुनि बार-बार बैठकर आहार लें अपवा बार-बार दिनमें दो बार माहार लें तो उसका प्रायश्चित्त फिरसे दीक्षा देना है अर्थात् उसके मूलगुणका नाश हो जाता है । सो हो लिखा हैई अदन्त अण्हाणस्स भंगे गिहत्ते लिज्जासु एइए सुत्तो। ऐगेवारे पणगंबहुवारे पंचकल्लाणं॥ अच्छिय अणेय भुत्ते पमाद दप्पे हि एग बहुबारे । पणगं मासिय छेदो मूलं च कमेण जाणादि॥ यदि कोई मनि पांच समिति, पांचों इन्द्रियोंको निरोष, भू-शयन, केशलोंच और अवसाधावन इन। तेरह मूलगुणोंमें एकबार संक्लेश परिणाम करें तो उसका प्रायश्चित्त एक कायोत्सर्ग है। यदि कोई मुनि इन तेरह मलगणोंमें बार-बार संक्लेश परिणाम करें तो उसका प्रायश्चित्त एक उपचास है। यदि कोई मनि बाकी के पन्द्रह मूलगुणोंमें अर्थात् पांच महाव्रत, छः आवश्यक, खड़े होकर आहार लेना, नग्न रहना, स्नान करना । इन पन्द्रह मूलगुणोंमें एकबार संक्लेश करे तो उसका प्रायश्चित्त पंचकल्याणक है। यदि कोई मुनि इन पन्द्रह । मूलगुणोंमें बार-बार संक्लेश करे तो उनका महाप्रत भंग हो जाता है । सो हो लिखा हैसमिर्दिदिय खिदिसयणे लोचं दन्तधवण संकिलेसेण। काउस्सग्गुववासो वहुवारे मूलभिदाराणं ॥ इस प्रकार मुनिराजके अट्ठाईस मूलगुण हैं उनके प्रमाव-अप्रमादसे होनेवाले दोषोंका ऊपर लिखे अनुसार प्रायश्चित्त समझना चाहिये। इस प्रकार अट्ठाईस मूलगुणोंका प्रायश्चित्त समाप्त हुआ। [स Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [ ३५५ यदि कोई मुनि मर्यादापूर्वक स्थिरे योग धारण करे तो जितने कालकी मर्यादा थी उसके बीच में ही किसी कारण से योग समाप्त करना पड़े तो जितना काल शेष रहा है उतने हो उपवास करना उसका प्रायश्चित्त है। एक महीनेके तोन भाग करना चाहिये। ऐसा करने से वश-दश दिनका एक-एक भाग होता है। यदि कोई मुनि महीने के पहले भागमें प्रतिक्रमण न करे तो उसका प्रायश्चित्त एक पंचकल्याणक है। यदि दूसरे भागमें प्रतिक्रमण न करे तो जितने दिन प्रतिक्रमण न किया हो उतने दिन उपवास करना चाहिये । यदि तीसरे भाग में प्रतिक्रमण न किया जाय तो एक लघु कल्याणक करना चाहिये । सो ही लिखा हैथिर जोगाणं भंगे वाही पडिकारकं च जावंतं । जड़ दिवसा तइ खमणं इष्णगं हि रायण्णं ॥ स पडिकमणं मासि तब्बुववासा तहेब लहुमांस । पढमे पक्खे वदिये पच्छिम पक्खेय जोगहिदे ॥ इस प्रकार ये उत्तर गुणोंके प्रायश्चित्त हैं । यदि किसी मुनिने किसी अप्रासुक भूमि एकचार योग धारण किया हो तो उसका प्रायश्चित्त प्रतिक्रमणपूर्वक एक उपवास है। यदि किसी अप्रासुक भूमिमें अनेक बार बाग धारण किया हो तो उसका प्रायश्विस पंचकल्याणक है । यदि कोई मुनि किसी योगकी भूमिको मनोहर बेख कर उससे मोह वा प्रेम करे तो उसका प्रायश्चित पंचकल्याणक है। यदि कोई मुनि किसी योगको मनोहर भूमिको देखकर उस पर अहंकार करे तो फिर उसका व्रत भंग हो जाता है। सो हो लिखा है अप्पासह सत्तो य बहुवेर मोहहंकारे । उक्वासा पणयमासिय सोट्ठाणं इणइ मूलगुणं ॥ जो मुनि गांव, नगर, घर, वसतिका आदिके बनवाने में दोषोंको न जानता हुआ उनके बनवानेका उपवेश करता है उसका प्रायश्चित्त एक कल्याणक है। यदि उनके बनवानेके दोषों को जानता हुआ उनके आरंभका उपदेश देता है उसका प्रायश्चित्त पंच कल्याणक है। यदि वह गर्व वा अहंकार में चूर होकर उनके बनवानेका उपवेश दे तो उसका व्रत भंग हो जाता है। १. वृक्षमूल और अतोरण ये योग स्थिर योग हैं आतापन, स्थिर और चल दोनों प्रकार है । अभ्रावकाश स्थाने मौन और वीरासन योग हैं। अथवा सभी योग स्थिर हो सकते हैं। 200 [ ३५ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ३५६ ] जो मुनि पूजाके आरंभ से उत्पन्न होनेवाले दोषोंको नहीं जानता है वह यदि एक बार गृहस्थों को पूजा करनेका उपदेश दे तो उसके आरंभके अनुसार आलोचना अथवा कायोत्सर्ग को आदि लेकर उपवास पर्यंत प्रायश्चित है। यदि वे मुनि बार-बार उपदेश दे तो उसका प्रायश्चित्त कल्याणक है । जो मुनि पूजाके आरंभके दोषोंको जानते हैं वे यदि एकबार पूजाके आरंभका उपदेश दें तो उसका प्रायश्चित्त प्रतिक्रमण सहित कल्याणक है । यदि वे बार-बार उपदेश दें तो उनका प्रायश्चित्त मासिक पंच कल्याणक है । तथा जिस पूजाके उपदेश देनेसे छह काधिक जीवोंका वध होता हो तो उसका प्रायश्चित छेदोपस्थापना वा पुनर्दीक्षा है । 1 यदि कोई सल्लेखना करनेवाला साधु क्षुधा तृषासे पीड़ित होकर लोगोंके न देखते हुये भोजन कर ले अथवा सल्लेखना न करनेवाला साधु अनेक उपवासोंके कारण भूख प्यास से पीड़ित होकर लोगोंके न देखते हुए भोजन कर ले तो उसका प्रायश्चित्त प्रतिक्रमण सहित उपवास है । यदि ऊपर लिखे दोनों प्रकारके मुनि किसी रोगी मुनिके देखते हुये भोजन कर लें तो उसका प्रायश्चित्त पंचकल्याणक है । यदि कोई मुनि सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हुये लोगोंके साथ अपना व्रतोंसे भ्रष्ट हुए लोगोंके साथ विहार करें उनकी संगति करें तो उसका प्रायश्चित्त पंचकल्याणक है। यदि वे अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्व साधुओंमें अवर्णवाद लगायें, उनकी निंदा करें, झूठे दोष लगायें तो उसका प्रायश्वित्त प्रतिक्रमण कायोत्सर्ग सहित उपवास करना है । यदि कोई मुनि सिद्धांतके अर्थको जानते हुये भी उपदेश न दें, सिद्धांतको विनय करके हो अलग हो जाँय तो उसका प्रायश्चित आलोचना पूर्वक कायोत्सर्ग है। यदि वे सिद्धांतके श्रोताओंको संतोष उत्पन्न न कर क्षोभ उत्पन्न करें तो उसका प्रायश्चित एक उपवास है। afa कोई मुनि विद्या, मंत्र, तंत्र, यंत्र, वैद्याबिक अष्टांग निमित्त, ज्योतिष, वशीकरण, गुटिका चूर्णं आदिका उपदेश दें तो उसका प्रायश्चित्त प्रतिक्रमण पूर्वक एक उपवास है । यदि कोई अप्रमत्त मुनि ( उमाद रहित ) जोव जंतुओंसे रहित प्रदेशमें सांथरेको न शोधकर सो गये हों तो उसका प्रायश्चित कायोत्सर्ग है यदि ये मुनि उमादसे जीव जंतुओंसे रहित स्थान में सांथरेको न शोधकर ३५६ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर ५७] । सोये हों तो उसका प्रायश्चित्त एक उपवास है। यदि कोई उमाद रहित मुनि जीवजंतुओं रहित स्थानमें । । सांथरेको न शोधकर सो गये हों तो उसका प्रायश्चित्त एक उपवास है । यदि कोई उमाद सहित मुनि जीव । जंतुओं सहित स्थानमें सांथरेको न शोधकर सोये हों तो उसका प्रायश्चित्त कल्याण है। यदि किसी मुनिसे कमंडलु आवि उपकरण नष्ट हो गये हों, फूट टूट गये हों तो जितने अंगुल फूटे हों उतने उपवास करना चाहिये अथवा किसी आचार्यके मतने जितने घनांगुल फूटा हो उतने उपवास करना चाहिये । सो ही लिखा हैगामादिआरभाणं अजाणमाणो करेदि उवदेसं । जाणतोदं मत्तं पणमासिय मूल गारविए।। आलोयण तणुसग्गो अजाणमाणो स पूज उबदेसे । एय वहुवार भुज्झति उवसेसो पयण पडिकमणं ॥ जाणतं स बिसोही पूजा करणेहि एग वहवारं । पणगं मासिय बहुसो बधकरणे मूल पडिकमणं ॥ इतिरिय जवकाले सभा हि भूदोवि एहि भुजप्पे । अण्णादे उववासो मासिय पडिकमण जणणादे ।। वदर्दसणदो भट्टे सज्जो गिज्जो मुहादिसं अरुहादि।अवण्णेणध पावदि उपवासं पडिकमण।। सुत्तत्थ चोरियाए गिण्हतो विणय पुच्छ रहिदो वा । आलोचण तनु संगो पावहि दिहवकोरोय सुदगुरणे ॥ विज्जा मंतो वेज्जं अटुं गणिमत्त मूलगुणं । चूणाणि जो कुणइ सो पावइ उपवास पडिकमणं ।। सत्तारम सोहंतो पयदा पहदे सुखवण पणगंतु । काउसम्गुववासो सुद्धा सुखंहि जाणावे ॥ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिगर १८ ] अह उवकरणेणढे जावदिया अंगुलिया तावदिया। उववासा तावदिया वंदति घणमंगुलं केई ॥ इस प्रकार प्रायश्चित्त भूलिका नामके ग्रन्यसे यह थोड़ोसी प्रायश्चित्तको विधि लिखी है विशेष कथन और प्रायश्चित्त ग्रन्योंसे समझना चाहिये । ये सब नाथाएँ प्रायश्चित्त चूलिकाको समझना चाहिये। १८६-चर्चा एकसौ छयासीवीं प्रश्न-यवि अजिकाके वसाधरणमें कोई दोष लगे तो उसके प्रायश्चित्तको विधि क्या है ? समाषान-जो पहले मुनीश्वरों के प्रायश्चित्तका वर्णन किया है, उसी प्रकार अजिकाओंका प्रायश्चित समझना चाहिये । उसमें विशेष केवल इतना ही है कि आजकाको त्रिकाल योग्यका धारण तथा सूर्य प्रतिमा। योग धारण ये वो प्रकारके योग धारण नहीं करना चाहिये। बाकी सब प्रायश्चित्त मुनियों के समान हैं । सो ही लिखा है सह रूमणाणं भणियं समणीणं तय होइमलहरणं । वज्जिय तियाल जोग्गं दिणपडिमं छेदभालं च ॥ १८७-चर्चा एकसौ सतासीवी प्रश्न-जिका रजस्वला समयमें क्या करें ? समाधान- यदि अजिका रजस्वला हो जाय तो उस दिनसे चौथे दिन तक अपने संघसे अलग होकर किसो एकान्त स्थानमें रहना चाहिये। उन दिनों आचाम्लव्रत ( भात, माड़ खाकर ) तथा निविड वा उपवास धारण कर रहना चाहिये । सामायिक आदिका पाठ मुखसे उच्चारण नहीं करना चाहिये। इन सामायिक पाठोंका मनसे चितवन कर सकती है। उसे दिन-दिनमें प्रासुक जलसे अपने अंग और वस्त्र यथायोग्य रोतिसे शुद्ध कर लेना चाहिये, पांचवें दिन प्रासुक जलसे स्नान कर तथा यथायोग्य रोतिसे वस्त्र धोकर अपने गुरुके समीप जाना चाहिये और अपनी शक्तिके अनुसार किसी एक वस्तुके त्याग करनेका नियम कर लेना चाहिये । सो ही लिखा है Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चासागर [ ३५९ ] पुफ्फ पस्सदि विर दित दिवसादि चउवट्ठ दिवसोत्ति। आय विलि णिवेयडि खमणे वा तत्थ कायव्वा ।। आवायसयथि मोणे ण चेव तिस्से तदा समुद्दिटुं । वदरेहर्ण पि पच्छा कादव्वं गुरु सविवं हि ॥ इसमें जो अजिकाके लिये स्नान और वस्त्र प्रक्षालन लिखा है सो ये दोनों ही क्रियाएँ गृहस्थों के समान नहीं है किंतु अपने वा दूसरेके कमंडलुके प्रासुफजलसे यथायोग्य शरीरको धोना और रक्त मिले हुए वस्त्रको । शुद्ध करना कहा है। यदि यह इतना भी न करे तो उसका नितराय आहार फैसे हो । तथा सामायिक । आदिक छह आवश्यक कर्म किस प्रकार बन सकें। गणिनोके साथ बैठना, गणिनी वा अन्य अजिकाओंको स्पर्श करना, धर्मका उपदेश देना, पढ़ना, पढ़ाना, जिन दर्शन करना, आचार्याविकके दर्शन करना और शास्त्र अक्षण करना आदि कार्य किस प्रकार बन सकें। यदि वह स्नानादिक न करे तो चार दिन तक वह जो एकान्त स्थानमें मौन धारण कर, गणिनोसे अलग, सामायिक आदिको क्रियाओंके धारणसे रहित रहती है सो उसका यह रहना भी नहीं बन सकेगा । अजिकाके साक्षात् महावत तो है नहीं, न साक्षात् अट्ठाईस मूलगुण हैं इसलिये उसको स्नानाविकका दोष नहीं लगता। इसके सिवाय एक बात यह भी है कि वह जो स्नान और वस्त्र प्रक्षालन करती है उसका वह प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध होती है। अजिका जो वह स्नान करती है सो सुलके । लिये नहीं करती । सो ही प्रायश्चित्त ग्रन्थमें लिखा है अज्जाक चेलधवणे उपवासो आउकाउपादेण । काउस्सग्गो कहिओ पास गणीरेण पात्तादी ॥ यदि आजिका अप्रासुक जलसे वस्त्र धोये तो इसका प्रायश्चित्त एक उपवास है । यदि वह अपने पात्र शरीर तथा वस्त्रोंको प्रासुक जलसे धोवे तो उसका प्रायश्चित्त एक कायोत्सर्ग है। इस प्रकार वह अजिका यथायोग्य रीतिसे अपने शरीर वस्त्रादिकके षोनेका प्रायश्चित.लेती है गहस्थके समान स्नान करनेका तो उसको अधिकार हो नहीं है। क्योंकि जैनशास्त्रों में तीन प्रकारके स्नान लिखे हैं। -SamaARARASHTRAम्यानचन्य Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । जलस्नान, व्रतस्नान और मन्त्रस्नान । इनमेसे गृहस्थोंके लिये जलस्नान बतलाया है तथा साधुओंको व्रतस्नान और मन्त्रस्नान कहा है । सो ही लिखा है-- पासागर तिविहोवि होइ पहाणं तोयेण वदेण मंतसंजुत्तं । तोयेण गिहथाणं मंतेण वदेण साहणं ।। ३६० ] इस प्रकार अजिकाकी विधि है । १८८-चर्चा एकसौ अठासीवी प्रश्न-जैन मतके गृहस्थोंके सूतक पासकके विचारकी विधि क्या है ? समाधान--सूतक दो प्रकार है । जो गृहस्थ के घर पुत्र-पुत्री आदिका जन्म हो तो बस दिनका सूतक है है यदि मरण हो सो बारह दिनका सूतक है। जिस घरमें वा जिस क्षेत्रमे प्रसूति हो उसका सूतक एक महीनेका है। यह सूतक जिसके घर जन्म हो उसको लगता है। जो उसके गोत्र वाले हैं उनको पांच विनका सूतक लगता है। यवि प्रसूतिमें ही बालकका मरण हो जाय तो अथवा देशान्तरमें किसोका मरण हो जाय या किसो । संग्राममें मरण हो जाय अथवा समाधिमरणसे प्राण छोड़े हों तो इन सबका सूतक एक दिनका है। घोड़ी, गाय, भैंस, दासी आदिको प्रसूति यदि अपने घरमें वा आँगनमें हो तो उसका सूतक एक दिनका लगता है यदि गाय, भैंस आदिको प्रसूति घरमै न हो घरके बाहर किसो क्षेत्रमें वा बगीचेमें हो तो उसका सूतक नहीं लगता। जिस गृहस्यके यहां पुत्रादिकका जन्म हुआ है उसको बारह दिन पीछे भगवान अरहन्त देयका अभिषेक, जिनपूजा और पात्रदान देना चाहिये तब उसको शुद्धि होती है । अन्यथा शुद्धि नहीं होती। यदि दासी-दास घा कन्याको प्रसूति वा मरण अपने घर हो तो उस गृहस्पको तीन दिनका सूतक लगता है । वह प्रसूति या मरण अपने घर हुआ है इसलिये दोष लगता है। यदि किसी गृहस्थ के स्त्रियोंके गर्भका स्राव हो जाय वा पात (गर्भपात ) हो जाय तो जितने महीनेका वह गर्भ हो उतने ही दिनका सूतक लगता है, इस प्रकार समुदाय रूपसे सूतकका वर्णन है उसमें भी थोड़ा Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [ ३६१ Sanise सा विशेष यह है कि क्षत्रियोंको पाँच दिनका सूतक है, ब्राह्मणोंको यस दिनका सूतक है, वैश्यको बारह दिनका सूतक है और शूद्रको पन्द्रह दिनका सूतक है । सो ही प्रायश्चित्त प्रत्यमें लिखा है पण दश वारण नियमा पण्णारस होइ तहय दिवसे हि । खत्तिय वंभा विस्ला सुद्दा हि कमेण सुद्धन्ति || इस अनुक्रमसे सूतक जानना चाहिये । लौकिकमें जो सती होती है उसके बाद रहनेवाले घरके स्वामीको उसकी हत्याका पाप छः महीने तक रहता है। छः महीने बाद प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध होता है। जिसके घरमें कोई सतो हो गई हो उसको छः महीने पहले प्रायश्चित्त देकर शुद्ध नहीं करना चाहिये । afa कोई अपघात कर मर जाय तो उसके बाद रहनेवाले घरके स्वामीको यथायोग्य प्रायश्वित देना चाहिये । का दूध प्रसूति दिनसे पाह दिन पीछे शुद्ध होता है । गायका दूध प्रसूतिके दिनसे बस दिन बाद प्रसूतिके दिनसे आठ दिन बाद शुद्ध होता है इन सबका वृष ऊपर लिखे दिनोंसे शुद्ध होता है। बकरीका दूध पहले शुद्ध नहीं होता। इस प्रकार गृहस्थोंको संक्षेपसे सुलकका विचार समझ लेना चाहिये । सो ही मूलाधारको टोकामें लिखा है सूतकं वृद्धिहानिभ्यां दिनानि दश द्वादश । प्रसूतिकास्थानं मासैर्क दिनानि पंच गोत्रिणाम् ॥ प्रसूतौ च मृते बाले देशान्तरे मृते रणे । सन्यासे मरणे चैव दिनैकं सूतकं भवेत् ॥ २ ॥ अश्वी च महिषी चेटी प्रसूता गो हांगणे । सुतकं दिनमेकं स्यात् गृहवाह्य े न सूतकम् ॥ ३॥ पुत्रादिसूतके जाते गते द्वादशके दिने । जिर्नभिषेकपूजाभ्यां पात्रदानेन शुद्धयति ॥ ४ ॥ दासी दासस्तथा कन्या जायते मरणे यदि । त्रिरात्रिं सूतकं ज्ञेयं गृहमध्ये तु दूषणम् ॥५॥ यदि गर्भ - विपत्तिः स्यात् स्त्रावणं चापि योषितः । यावन्मासं स्थितो गर्भस्तावद्दिनानि सूतकं ।। દ્ GATA Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर [ ३६२ पंचहान् सूतकं क्षत्रे दशाहान् ब्राह्मणे विदुः । द्वादशाहान् च वैश्ये हि शूद्रे पकसूतर्क ॥ सतीनां सुतकं हत्यापापं षण्मासकं भवेत् । अन्येषामपहत्यानां यथापापं प्रणाशयेत् ॥८॥ महिष्याः पक्षकं क्षीरं गोक्षीरं च दिनं दश । अष्टमे दिवसेऽजायाः क्षीरं शुद्धं न चान्यथा । इस प्रकार सूतकका सामान्य वर्णन समझना चाहिये । १८६ - चर्चा एकसौ नवासीवीं प्रश्न--गोत्रीको सूतक किस प्रकार पालना चाहिये । समाधादपि गोमो चौरी चौकी का हो तो उसको दस रात तक सूतक लगता है, पाँचवीं पीढ़ी वालेको छः रातका सूतक लगता है। छठीं पोढ़ी वालेको चार दिनका सुतक लगता है चार दिन बाद वह शुद्ध है, सातवीं पीढ़ी वाला तीन दिन बाद शुद्ध होता है। आठवीं पीढ़ी वालेको एक दिन रातका सूतक है, पोछे वह शुद्ध है, नौवीं पीढ़ीवालेको वो पहरका सूतक है। तथा दशयों पीठो वालेको स्नान करने मात्रका सूतक है । इसके बाद सब शुद्ध हैं । इस प्रकार गोत्रका सूतक समझना चाहिये। सो ही मूलाचारको टीकामें लिखा है- ८ चतुर्थे दशरात्रिः स्यात् षट्रात्रिः पु ंसि पंचमे । षष्ठे चतुरहः शुद्धिः सप्तमे चदिनत्रयम् ॥ अष्टमे पुस्योरात्रिः नवमे प्रहरद्वयम् । दशमे स्नानमात्रं स्यादेतद् गोत्रस्य सूतकम् ॥ | इस प्रकार गोत्रके सूतकका विचार है। दूसरी, तीसरी पोढ़ीका सूतक पहिलो पीढ़ीके समान है। पीछे सूतकके दिन घटते जाते हैं। ऐसा समझ लेना चाहिये । प्रश्न - मुनिको अपने गुरु आदिके मरनेका सूतक किस प्रकार है ? तथा राजाके घर मुत्यु आविका सूतक किस प्रकार है ? समाधान-मुनि तो एक कायोत्सर्ग कर लेनेपर एक क्षणमें हो शुद्ध हो जाते हैं। तथा राजाके पाँच दिनकर सूतक लगता है । सो ही प्रायश्चित्त शास्त्रमें लिखा है- यतिः क्षणेन शुद्धः स्यात्पंचरात्रेण पार्थिवः । [ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ३६३ ] - १६०-चर्चा एकसौ नव्वेवीं प्रश्न – गृहस्थोंके घर स्त्रियाँ रजस्वला होती हैं उनके योग्य अयोग्य आचरणको विधि किस प्रकार है ? समाधान- इसका विधान भाषाके क्रियाकोश आदि शास्त्रोंमें लिखा है । तथापि यहाँपर कुछ विस्तार और विशेषता के साथ लिखते हैं। स्त्रियाँ जो रजस्वला होतो है सो प्रकृतिरूप से तथा विकृतिरूपसे ऐसे दो प्रकारसे होती हैं। जो स्वभावसे हो प्रत्येक महीने योनिमार्गसे रुधिरका स्राव होता है वह प्रकृतिरूप होता है। जो असमय में ही अर्थात् महीनेके भीतर ही रज:स्राव होता है उसको विकृतिरूप कहते हैं वह दूषित नहीं है उसके होनेपर केवल स्नानमात्रसे शुद्धि होती है । उसका सूतक नहीं होता । यदि पचास वर्षके बाद पचास वर्षकी अवस्थासे ऊपर रजःस्राव हो तो उसकी शुद्धि स्नान मात्र ही है। अभिप्राय यह है कि जो रजःस्राव महोनेसे पहले होता है वह विकाररूप है और रोगसे होता है। स्त्रियोंके प्रदर आदि अनेक रोग होते हैं उन्होंसे होता है । इसी प्रकार रजोधर्मका समय पचास पर्यतक है। उससे बाद जो रजोधर्म हो तो वह रजःस्थलाके समान सदोष नहीं है उसकी शुद्धि स्नानमात्र से ही होती है । जो बारहवर्षको अवस्था से लेकर पचास वर्षतक प्रतिमास रजोधर्म होता है वह काल रजोधर्म है। इसके बाद अकालरूप कहा जाता है। इस प्रकार इसके दो भेद हैं। आगे इसका विशेष वर्णन लिखते हैं। जिस विन स्त्रीके रजका अवलोकन हो उस दिनसे लेकर तीन fer तक अशीच है। यदि उस दिन आधी रात तक रजोदर्शन हो तो भी पहला ही दिन समझना चाहिये । आगे इसीका खुलासा लिखते हैं। रात्रिके तीन भाग करना चाहिये । उसमेंसे पहला और दूसरा भाग तो उसी दिनमें समझना चाहिये । और पिछला एक भाग दूसरे बिनको गिनतीमें लेना चाहिये। ऐसो आम्नाय है । 'यदि ऋतुकालके बाद फिर वही स्त्री अठारह बिन पहले ही रजस्वला हो जाय तो वह केवल स्नानमात्र हो शुद्ध हो जाती है। उसको तीन दिनका अशौच नहीं लगता है। यदि कोई स्त्री अत्यंत यौवनवतो हो और वह रजःस्वला होनेके दिनसे सोलह दिन पहले ही फिर रजःस्वला हो जाय तो वह स्नान करने मात्रसे शुद्ध हो जाती है। इसका भी स्पष्ट अभिप्राय यह है कि रजस्वला होनेके बाद फिर वही स्त्री रजस्वला होनेके दिनसे यदि अठारह दिन पहले ही फिर रजस्वला हो जाय तो वह स्नान करने मात्रसे शुद्ध हो जाती है। यदि उसके अठारहवें दिन रजोधर्म हो तो उसको वो बिनका सूतक पालन करना चाहिये यदि उसके उम्मीसवें दिन [ ३६२ Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजोधर्म हो तो उसको तीन दिन तक सूतक पालन करना चाहिये । तब वह शुद्ध होती है । यदि रजस्वला होनेके बाद चौथे दिन स्नान कर ले और फिर रजस्वला हो जाय तो फिर वह अठारह दिन तक शुद्ध नहीं होती अर्थात् । बासागर उसे अठारह दिनतक सूतक पालन करना चाहिये । सो ही त्रिवर्णाचारके तेरहवें परिच्छेदमें लिखा है। ३६४ ] है रजः पुष्पं ऋतुश्चेति नामान्यस्यैव लोकतः। द्विविधं तत्त नारीणां प्रकृतं विकृतं भवेत् ॥ तत्प्रकृतं यत्तु स्त्रीणां मासे मासे स्वभावतः। अकाले द्रव्यरोगायुद्रेकात्तु विकृतं मतम् ।। । अकाले चेयदि स्त्रीणां तद्रजो नैव दुष्यति । पंचाशद्वर्षादूचं तु अकाल इति भाषितः॥ रजो वा दर्शनास्त्रीणां अशौचं दिवसत्रयम् । कालेज चारात्राच्चेत् पूर्व तत्कस्यचिन्मतम्॥ रात्रेः कुर्यान्त्रिभागं तु दो भागौ पूर्ववासरे। ऋतौ सूते मृते चैव ज्ञेयोऽन्त्यः स परहनि ।। ऋतुकाले व्यतीते तु यदि नारी रजस्वला । तत्र स्नानेन शुद्धिः स्यादष्टाददिनात्पुरा ॥ ६ दिनाच्चेषोडशादर्वाक नारी या चातियौवना।पुनः रजस्वलापिस्याच्छद्धिः स्नानेन केचन ॥ । रजस्वलायाः पुनरेव चेद्रजः प्रागदृश्यतेऽष्टादश वासराच्छुचिः। अष्टादशाहि यदि चेद् दिनद्वयादेकोनविंशे त्रिदिनात्ततः परम् ॥ ८ ॥ रजस्वला यदि स्नात्वा पुनरेव रजस्वला । अष्टादशदिनादर्वाक् शुचित्वं न निगद्यते ॥६॥ आगे रजस्वला स्त्रोके आचरण आदिके योग्य-अयोग्यको विधि लिखते हैं । यदि कोई स्त्री अपने समयपर रजस्वला हुई हो तो उसको तीन दिन तक ब्रह्मचर्य पूर्वक रात्रिमें किसी एकांत स्थानमें जहाँ मनुष्योंका संचार न हो ऐसी जगह डाभके आसनपर सोना चाहिये। उसको खाट, पलंग, ॥ शय्या, वस्त्र, रुईका बिछोना तथा ऊनका बिछौना आदिका स्पर्श न करना चाहिये। तीन दिन तक उसको देव धर्मको बात भी नहीं करनी चाहिये । जिस प्रकार मालती, माधवी वा कुन्द आदिको वेल संकुचित रूपसे रहती । है उसी प्रकार संकुचित होकर प्राण धारण कर रहना चाहिये। तीन दिन तक शीलवत पालना चाहिये दूध, वही, घी, छाछ मावि गोरसका त्याग कर देना चाहिये। एक बार रुखा अन्न खाना चाहिये। उसको नेत्रों में । काजल, अंजन आदि कुछ नहीं डालना चाहिये । उबटन करना, तेल लगाना, पुष्पमाल पहनना, गंध लगाना Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर [ ६५ ] आदि शृंगारके सब साधनोंका त्याग कर देना चाहिये । तीन दिन तक उसको अपने वेव, गुरु, राजा और अपने कुलदेवताका रूप दर्पण में भी नहीं देखना चाहिये तथा न इनसे किसी प्रकारका सम्भाषण करना चाहिये। इन स्त्रियोंको तीन दिन तक किसी वृक्षके नीचे अथवा पलंगपर नहीं सोना चाहिये तथा बिनमें भी नहीं सोना चाहिये । उसे अपने मनमें पंच णमोकार मंत्रका स्मरण करना चाहिए। उसका उच्चारण नहीं करना चाहिये केवल मनमें चितवन करना चाहिये। अपने हाथमें वा पसलमें भोजन करना चाहिये। किसी भी धातुके बर्तन में भोजन नहीं करना चाहिये । यदि वह किसी तांबे, पोतल आदिके पात्र में भोजन करे तो उस पात्रको अग्निसे शुद्ध करना चाहिये। चौथे दिन गोसगं कालके बाद स्नान करना चाहिये । प्रातःकालसे लेकर छः घड़ो गोसा कहा जाता है। लो दिन स्नान करनेके बाद वह स्त्री अपने पतिके और भोजन बनानेके लिये शुद्ध समझी जाती | देव पूजा, गुरु-सेवा तथा होम कार्यमें वह पाँचवें दिन शुद्ध होती है। सो ही त्रिवर्णाचारमें लिखा है काले ऋतुमती नारी कुशासने स्वपेत्सती । एकांतस्थानके स्वस्था जनदर्शन वर्जिता ॥ १० ॥ मौनताथ वा देवधर्मवार्ताविवर्जिता । मालतीमाधवीवल्लीकुंदादिलतिकाकरा ॥११॥ रक्षेच्छीलं दिनं त्रीणि चैकभक्त विगोरसम् | अंजनाभ्यंगस्नान गंधमंडनवर्जिता ॥ १२ ॥ देवं गुरु ं नृपं स्वस्य रूपं च दर्पणेपि वा । न पश्येत्कुलदेवं च नेव भाषेत तैः समम् ॥ १३ ॥ वृक्षमूले स्वपेन्नैव खट्वाशय्यासनं तथा । मंत्रं पंचनमस्कारं जिनस्मृतिं स्मरेद् हृदि ॥ १४॥ अंजलावश्नीयात्पर्णपात्रे ताम्रे च पैत्तले । भुक्त्वा चेत्कांश्यजे पात्रे शुद्धयति तत्तु वह्निना ।। १५ चतुर्थे दिवसे स्नायात् प्रातः गोसर्गतः परम् । पूर्वाह्न घटिका षट्कं गोसर्ग इति भाषितः ।। १६ । शुद्धा भर्तुश्चतुर्थेह्नि भोजनं रंधनेऽपि वा । देवपूजागुरूपास्तिहोम सेवासु पंचमे ॥ १७ ॥ रजस्वला स्त्रियोंके आचरण इस प्रकार बतलाये हैं। जो स्त्रियों रजोधर्मके तीन दिनमें अंजन लगाती हैं, उबटन करती हैं, पुष्प माला पहनती हैं, गंध लगाती है, तेल मर्दन करतो हैं और ऊंचे स्वरसे बोलती है उनका गर्भ सदोष और विकृत रूप हो जाता है। [# Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर - ३६६ ] स्त्रियोंको ऋला तीन दिन तक ब्रह्मचर्यपूर्वक दाभके आसनपर सोना चाहिये, अपने पतिको भी न देखना चाहिये । हायपर रखकर अथवा मिट्टोके सकोरामें वा पत्तों की पत्तलोंमें रखकर रूखा अन्न भोजन करना चाहिये । आँसू डालना, नाखून काटना, उबटन लगाना, तेल लगाना, नस्य लगाना, आँखों में अंजन लगाना, पानी में डूबकर स्नान करना, बिनमें सोना, दौड़ना, बहुत ऊँचे स्वरसे, किसीको आवाज देते हुए बोलना, ऐसे ही ऊँचे शब्द सुनना, हँसना, अधिक बकबाद करना, कूटना, पीसना, अधिक बोझा उठाना, पृथ्वी खोदना, फैल फूटकर ( बहुत-सी जगह घेर कर ) बैठना वा सोना तथा और भी ऐसे ही ऐसे अयोग्य कार्य तीन तक नहीं करना चाहिये । यदि कोई स्त्री अपनी अजानकारीसे वा प्रमादसे था उसमें लोलुपताके कारण अथवा वैधयोगसे ऊपर लिखे कार्योंको करती है तो उसके अनेक प्रकारके दोष उत्पन्न हो जाते हैं। यदि कोई स्त्री इन ऋतुके तीन दिनों में रोती है तो उसके गर्भके बालकके ( जो बालक आगे गर्भमें आयेगा ) उसके नेत्र विकृत हो जाते हैं । अन्धा हो जाता है, धुंधला हो जाता है, माँखमें फूला हो जाता है वा काना, ऐंचा ताना हो जाता है । अथवा यह ढेर हो जाता है । उसकी आँखोंसे पानी बहता रहता है। उसकी आँखें लाल हो जाती हैं वा बिल्लोकीसी ( माँजरी ) आँखें हो जाती है। इस प्रकार उस बालकके नेत्रों में अनेक प्रकारके विकार उत्पन्न हो जाते हैं । यदि कोई स्त्री तीन दिनोंमें नाखून काटती है तो उसके बालकके नाखूनों में विकार हो जाता है । उस बालक के नाखून फटे-टूटे सुखे, कालें हरे, टेड़े, और देखनेमें बुरे हो जाते हैं। यदि वह स्त्री इन तीन दिनोंमें उबटन करती वा तेल लगाती है उसके बालकके अठारह प्रकारके फोड़ रोगोंमेंसे कोईसा भो कोढ़ रोग हो जाता है । यदि वह इन तीन दिनोंमें गंध लगाये वा जलमें डूबकर स्नान करे तो वह बालक दुराचारी व्यसनी होता है। यदि वह आँखोंमें अंजन लगावे तो उसके बालकके नेत्र नाद सहित हो जाते हैं। दिनमें सोनेसे वह बालक रातदिन सोनेवाला होता है । अथवा सदा ऊँघनेवाला बालक होता है । जो स्त्री इन तीन दिनोंमें दौड़ती है उसका बालक चंचल होता है, उत्पातो, उपद्रवी होता है। ऊँचे स्वर से बोलने वा सुननेसे उसका बालक बहिरा होता है। जो स्त्री इन तीन दिनोंमें हँसती है उसके बालकके तालु, जीभ, ओठ काले पड़ जाते हैं। इन तीन दिनोंमें अधिक बोलनेसे उस स्त्रीके प्रलापी बालक होता है। जो झूठा हो, लवार हो उसको प्रलापी कहते हैं । ३६६ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - वर्षासागर [२६] 03 ST 'प्रलापो नृतभाषणम्' झूठ बोलनेका नाम प्रलाप है। जो स्त्री रजोधर्मके समयमें परिश्रम करती है उसके उन्मत्त उन्माद रोगवाला वा बायला पुत्र होता है। जो स्त्री उन दिनों पृथ्वी खोबती है उसके दुष्ट बालक होता है । जो चौड़ेमें सोती है उसके उन्मत्त बालक होता है। इस प्रकार अयोग्यतासे अनेक दोष उत्पन्न हो जाते हैं | इसलिये ये अयोग्य कार्य नहीं करने चाहिये । विवेक पूर्वक रहना चाहिये। यह कथन जैन शास्त्रोंका नहीं है किन्तु लटकन मिश्रके पुत्र भाव मिश्रके बनाये हुए भावप्रकाश नामके वैद्यक शास्त्रमें लिखा है यहाँ प्रकरण समझ कर लिख दिया है । यथा- अज्ञानाद्वा प्रमादाद्वा लौल्याद्वा दैवतश्च वा । साचेत्कुर्यान्निषिद्धानि गर्भे दोषास्तदाप्नुयात् ॥ एतस्या रोदनाद् गर्भो भवेद्विकृतलोचनः । नखच्छेदेन कुनखी कुष्ठी त्वभ्यंगतो भवेत् ॥ अनुपात्तथा स्नानाद दुःशीलो जननादहरू । स्वापिशीलो दिवास्वापाचचंचलः स्यात्प्रधावनात् ॥ अत्युच्चशब्दश्रवणाद्वधिरः खलुः जायते । तालुदंतौष्ठजिह्वासु श्यामो हसनतो भवत् ॥ प्रलापी भूरिकथनादुन्मत्तस्तु परिश्रमात् । खलोतिभूमिखननादुन्मत्तो वातसेवनात् ॥ इस प्रकार अयोग्य कमौके करनेके दोष बतलाये है सो इनका त्याग करना ही उचित है । जो कोई अनाचारी भ्रष्ट इनका दोष नहीं मानते। कितने हो लोग स्पर्श करनेपर भी स्नान नहीं करते। कितने ही लोग दूसरे, तीसरे दिन स्नान कराकर उसके हाथ के किये हुए सब तरहके भोजन खा लेते हैं । कोई-कोई लोग उन्हीं दिनोंमें कुशोल सेवन भी करते हैं परन्तु ऐसे लोग महा अधर्मी, पातकी, भ्रष्ट और नोचातिनीच कहलाते हैं। ऐसे लोग स्पर्श करने योग्य भी नहीं है । इसका भी कारण यह है कि रजोधर्मवाली स्त्रीको पहले दिन चांडालो संज्ञा है दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी संज्ञा है तीसरे दिन रजको संज्ञा है और चौथे दिन शुद्ध होती है । यथा प्रथमेहनि चांडाली द्वितीये ब्रह्मघातिनी । तृतीये रजकी प्रोक्ता चतुर्थेहनि शुद्धयति ॥ इसलिये स्त्री चौथे ही विन शुद्ध होती है । जो स्त्री परपुरुषगामिनी है वह जीवनपर्यन्त अशुद्ध रहती [ Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। व्यभिचारिणी स्त्री स्नानाबिक कर लेने पर भी शुद्ध नहीं होती। वह परपुरुषका त्याग कर देने मात्रसे हो! शुद्ध हो सकती है। तो हो लिखा है-- पर्चासागर त्रिपक्षं जायते सूता ऋतुधात्री दिनत्रयम् । परजनरता नारी यावज्जीवं न शुद्ध्यति ॥ [ ३६८ ] कितने ही अधर्मी इन तीन दिनों में भी सामायिक प्रतिक्रमण तथा शास्त्रके स्पर्श आदि कार्योको करते है है ऐसे लोग उससे होनेवाले अविनय और महापापको नहीं मानते। पवि कोई इन कामोंके करनेके लिये निषेध करता है तो उत्तर देते हैं कि इस शरीरमें शुद्ध कार्य है ही था ? TM म सार शा बहते रहते हैं यदि किसीके गांठ वा फोड़ा हो जाता है और वह पककर फूट जाता है उसी प्रकार स्त्रियोंका यह मासिकधर्म है।। इस प्रकार कहकर वे लोग मानते नहीं परन्तु ऐसे लोग आशाबाह्म हैं महापातको वा अनाचारी हैं। रजस्वला स्त्रियोंके स्पर्श, अस्पर्शका, उसकी भूमिको शुद्धिका तथा संभाषण आदिके दोषोंका और उनके शुद्ध करनेका वर्णन विशेषकर त्रिवर्णाचार आदि प्रायश्चित्त शास्त्रोंसे जान लेना चाहिये। यहां संक्षेपसे | लिखा है। कितने ही पापी अपनी लक्ष्मीके मवमें आकर रजस्वला स्त्रियोंको भूमिपर नहीं सोने देते किन्तु उन्हें । पलंगपर हो सुलाते हैं । यदि कोई इसका निषेध करता है तो अपनी राजरोतिका अभिमान करते हुए नहीं । मानते हैं किन्तु उसी तरह चलते हैं परन्तु ऐसे लोग बड़े अधर्मी और पातकी गिने जाते हैं । जो मुनि होकर । घोड़ेपर चढ़े, जो स्त्री रजस्वला अवस्थामें हो पलंगपर बैठे या सोवै तथा जो गृहस्थ शास्त्रसभामें बैठकर । बातें करें ऐसे पुरुषोंको देखकर ही वस्त्र सहित स्नान करना चाहिये । भावार्य-जब ऐसे लोगोंको देखनेसे हो देखनेवालोंको वस्त्र सहित स्नान करना पड़ता है तो फिर उन लोगोंके पापको तो बात ही क्या है अर्थात् वे ॥ बहुत भारी बोषके भागी होते हैं सो ही लिखा है-- अश्वारूढं यतिं दृष्ट्वा खटवारूढा रजस्वलाम्।शास्त्रस्थाने गृहवक्तन् सचेल स्नानमाचरेत्।। १६१-चर्चा एकसौ इक्यानववीं। प्रश्न-यदि रजस्वला स्त्रीके पास बालक हो तो उसके स्वास्पर्शको शुद्धि किस प्रकार है ? समाषाम-यदि कोई बालक मोहसे रजस्वला स्त्रीके पास सोवै, बैठे वा रहे तो सोलह बार स्नान Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर [ ३६९ ] करनेसे उसकी शुद्धि होती है यदि कोई दूत्र पीने वाला बालक दूध पीनेके लिये उसका स्पर्श करे तो जलके छोटे देने मात्रसे हो उसको शुद्धि हो जाती है । ऐसे छोटे बालकको स्नान करनेका अधिकार नहीं है। सो हो त्रिवर्णाचारमें लिखा है तयासह तद्वालस्तु व्यष्ट स्नानेन शुद्धयति । तां स्पर्शन् स्तनपायी वा प्रोक्षणे नैवशुद्धयति ॥ कदाचित् कोई यहाँपर छोटा वेनेका सन्देह करे तो इसका उत्तर यह है कि प्रायश्चित शास्त्रों में और भी कितने ही पदार्थ बतलाये है जिनमें स्पर्शका दोष नहीं माना जाता । जैसे-मक्खी, हवा, गाय, सुवर्ण, अग्नि, महानदी, नाव, पाथोवक और सिंहासन अस्पश्यं नहीं होते ऐसा विद्वानोंका कहना है-मक्षिका मारुतो गावः स्वर्णमग्निमहानदी । नात्रः पाथोदकं पीठं नास्पृश्यं चोच्यते बुधैः ॥ १६२ - चर्चा एकसौ बानवेवीं प्रश्न – ऊपर लिखे अनुसार गृहस्थका यथायोग्य आचरण तो मालूम हुआ परन्तु यदि रजस्वला स्त्री रोगिणी हो, अशक्त हो उसको स्नानाविक किस प्रकार कराना चाहिए । समाधान---यदि कोई स्त्री किसी रोग वा शोकसे अशक्त हो वा बुढ़ापेले अशक्त हो और वह रजस्वला हो जाय तो उसकी शुद्धि इस प्रकार करना चाहिये कि चौथे दिन कोई निरोग सशक्त स्त्रो उसे स्पर्श करे फिर स्नान करे, फिर स्पर्श करे, फिर स्नान करे। इस प्रकार वह दस बार उसको स्पर्श करे तो वह स्त्री शुद्ध हो जाती है । अन्तमें रजस्वलाके वस्त्रोंको बदलवा कर बस वर बारह आधमन कर तथा स्नान कर लेनेसे वह नीरोग स्त्री भी शुद्ध हो जाती है रोगिगी रजस्वला स्त्रीको शुद्धिका यह क्रम है। सो हो त्रिवर्णाचार में लिखा हैआतुरे तु समुत्पन्ने दशवारमनातुरा । स्नात्वा स्नात्वा स्पर्शेदेनामातुरा शुद्धि माप्नुयात् ॥ जराभिभूता या नारी रजसा चेत्परिप्लुता । कथं तस्य भवच्छौच्यं शुद्धिः स्यात्केन कर्मणा ॥ चतुर्थेनि संप्राप्ते स्पर्शेदन्या तु तां स्त्रियम् । सा च सचैव प्राह्मा यः स्पर्शेस्नात्वा पुनः पुनः। दश द्वादश वा कृत्वा ह्याचमनं पुनः पुनः । अन्स्ये च वासमां त्यागं स्नात्वा शुद्धा भवेत्तु सा ॥ १६३ - चर्चा एकसौ तिरानवेवीं [ ३ प्रश्न- - सोलह स्वर्गके ऊपर नो प्रेवेयक, मौ अनुविश और पांच पंचोत्तर विमान बतलाये हैं सोनो ४७ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ३७० ] प्रैवेयक और पांच पंचोसरका विमानोंका नाम तथा वहाँको आयु, काय आविका स्वरूप तो मालूम है । परन्तु नव अनुदशके नाम प्रगट सुननेमें नहीं आये। सो कौन-कौन हैं ? समाधान-अ, अचिमालिनो, बैर, वैरोचन में चार विमान तो पूर्व, दक्षिण, पविचम, उत्तर इन चार दिशाओंमें श्रेणीबद्ध विमान हैं तथा सोम, सोमरूप, अंक, फलिक ये चार विमान आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य और ईशान इन चारों विदिशाओं में प्रकीर्णक विमान हैं और आदित्य नामका विमान सबके मध्य में इन्द्रक विमान है । इस प्रकार नौ अनुविशके नौ विमान हैं। सो ही त्रिलोकसारमें लिखा हैअच्चीय अचिमालिणि वइरे वइरोयण अणुद्दिसगा । सोमो य सोमरूवे अंके फलिके य आइये ॥ इनकी आयु, काय आदिका वर्णन त्रिलोकसारमें जान लेना चाहिए । १६४ - चर्चा एकसौ चौरानवेवीं प्रश्न -- जिन देवोंकी आयु जितने सागरोंकी है उनका मानसिक आहार उतने ही हजार वर्ष बाद होता है । तथा उनका श्वासोच्छ्वास उतने ही पक्ष बाद होता है। यह कथन प्रसिद्ध है परन्तु जिन देवोंकी आयु पल्यों की है उनके आहार और श्वासोच्छ्वासका क्या नियम है। समाधान — भवनवासियोंमें उत्कृष्ट आयु असुरकुमार देवों की है। सो उनके मानसिक आहार एक हजार वर्ष से अधिक समय बाब होता है तथा सूर्य, चन्द्रमा आदि ज्योतिषी देवोंके सागरोपके अंशोंके हिसाब से अलग-अलग है । और बाकोके जो नौ प्रकारके भवनवासी समस्त देवांगनाओंके मानसिक आहारका समग्र इसी क्रमसे समझना चाहिये। सो ही लिखा है असुरेतित्तिसु सासाहारा पक्खं समासहस्संतु । सुमुहत्त दिणाणद्धं तेरस वारस दल ॥ भावार्थ - असुरकुमारनिके एक पक्ष भये एक बार उच्छ्वास होता है, हजार वर्षे गये एक बार आहार होता है । बहुरि नागकुमार आदि सीन जातिविषै साढ़ा बारा मुहूर्त भये उच्छ्वास हो है साढ़ा बारा दिन गये आहार हो है । बहुरि दिक्कुमार आदि सोन जातिविषै साढ़ा सात मुहूर्त भये उच्छ्वास होव साठा सात दिन गये आहार हो है । [ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ३७१ ] भवणावासादीणं गोडरपाया गणच्चणादिधरा भोम्माद्दारुस्सा सा साहिय पणदिण मुहुत्ताय ॥ — त्रिलोकसार | बहूरि व्यन्सरनिके आहार किछू अधिक पांच दिन भये अर उच्छ्वास किछू अधिक पाँच मुहूर्त भये जानना । ज्योतिष्कों का आहार कुछ अधिक एक हजार वर्ष पीछे होता है। कुछ अधिकका परिमाण अन्तर्मुहतं अधिक लेना चाहिये । जैसा कि मूलाचारमें लिखा है I उक्कस्सेणाहारो वाससहस्सा दिएण भवणाणं । जोदिसियाणं पुण भिण्णमुहुतेणेदि सेस उक्कस्सं ॥ १०५ ॥ इसी प्रकार ज्योतिषियोंका भिन्न मुहूर्त अधिक एक पक्षके पोछ उच्छ्वास होता है जैसा-उक्कस्सेच्छासो पक्खेणादिएण होइ भवणाणं । मुहुचपुतेण तहा जोइसिणगाण भोमाणं ॥ १०६ ॥ मू० १६५ - चर्चा एकलौ पिचानवेवीं प्रश्न- दंडक में लिखा है कि तीसरे नरकसे निकल कर कोई जीव तोर्थर भी होते हैं सो यह वर्णन किस प्रकार है ? समाधान -- बलदेव, वासुदेव और चक्रवर्ती ये जीव नरकसे निकलकर कभी नहीं होते । स्वर्गलोकसे जानेवाले जीवोंको ही यह पद प्राप्त होता है। इसका भी कारण यह है कि यह पदवी विना संयम प्राप्त नहीं होती तथा संयम सहित मरण करनेवाला जीव नरकमें जाता नहीं। इसलिये इन पदवियोंको पानेवाला स्वर्गसे ही आता है । सो ही मूलाधार में लिखा है। रिएहि णिग्गदाणं आणंतरभवेहि णत्थि नियमा दु । वलदेववासुदेवतणं च तह चक्कवट्टीणं ॥२०॥ यह नियम है कि नरक योनिसे निकल कर बलभद्र, वासुदेव और चक्रवर्तीकी पदवी प्राप्त नहीं होती । [ ३७१ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ३७२] सो हो सिद्धांतसार बीपिकामे लिखा है-- निर्गत्य नरकाज्जीवा चक्रेशपलकेशवाः। तच्छत्रवो न जायन्ते चयन्त्यंते यतो दिवात् ॥ चिलोकसारमें भी लिखा है णिरयचरो णस्थि हरिबलचक्की ॥२०४॥ इस प्रकार लिखा है। प्रश्न- यहाँपर कदाचित् कोई यह पूछे कि तिरेसठ शलाका पुरुष कहाँ-कहाँसे आकर उत्पन्न हो सकते हैं और कहां-कहांसे आकर उत्पन्न नहीं होते इसका खुलासा किस प्रकार है ? उत्तर-मनुष्य तथा तियंचगतिसे आकर तीर्थकर, चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण और बलभा नहीं । होते । स्वर्ग वा नरक इन दो गतियोंसे ही आकर उत्पन्न होते हैं सो हो मूलाचारमें लिखा है माणुस तिरियाय तहा सलाग पुरिसा ण होति खलु णियमा। तेंलि अण्णंतरभवे भयणिज्जं हिब्बुदीगमणं ॥ प्रश्न--जो शलाकापुरुष देवर्गातसे आकर होते हैं वे किन-किन देवोंकी जातियोंसे आकर होते हैं और किन-किन निकायोंसे नहीं होते। समाधान-भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी इन तीन निकायोंके देव तो आकर शलाका पुरुष होते नहीं । तथा सोलह स्वर्ग, नौ अवेयक, नौ अनुविश और पंचोत्तरके देव आकर तीर्थकर आदि शलाका पुरुष हो सकते हैं। ऐसा नियम है । सोही मूलाचारमें लिखा है आजोदिसित्ति देवा सलागपुरिसा ण होति ते णियमा । तेसिं अणंतरभावे भयणिज्ज णिब्बुदीगमणं ॥ त्रिलोकसारमें भी लिखा हैणरतिरियगदीहितो भवणतियादो य णिग्गया जीवा।ण लहंतेते पदविं नेवदिसलागपुरिसाणं॥॥ स्वर्गलोकमें भी कल्पवासी तथा कल्पातीत देवोंमें भी कितने ही जीव आकर इन पदवियोंको पाते हैं। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चासागर [३७३ ] और बहुतसे जोव नहीं पाते । उनका क्रम इस प्रकार है । अनुदिश या अनुसर विमानवासी कल्पातीत देव वहाँसे आफर बलभद्र, तीर्थकर, चक्रवर्ती पर पाते हैं किंतु वहाँसे देवोंमेंसे आकर वसुदेव नहीं होते। यह नियम है । सो ही मूलाचारमे लिखा है णिबुदिगमणे रामत्तणे य नित्ययरचक्कवद्वित्ते । अणदिसणुत्तरवासीतदो चुदा होंति भयणिज्जा ।। ४० ॥ ऐसा शलाका पुरुषोंके होनेका नियम है। १९६-चर्चा एकसौ छयानवैवीं प्रश्न- यह मनुष्य किस-किस गतिसे आकर हो सकता है तथा किस-किस गतिसे आकर नहीं हो सकता। समाधान-अग्निकाय और वायुकाय इन दोनोंके सूक्ष्म तथा स्थूल ओष आकर मनुष्यभव धारण नहीं करते ऐसा नियम है बाकीके समस्त गतियोंके जीव आकर मनुष्य हो सकते हैं । सो ही मूलाचारमें लिखा हैसव्वेपि तेउकाया सव्वे तह बाउकाइया जीवा।ण लहति माणुसतं णियमादु अणंतर भवेहिं ।। दंडक भाषामें भी लिखा है तेजकाय अरु वायुकाय । इन विन और सबै नर थाय । १९७-चर्चा एकसौ सतानवेवीं प्रश्न-अन्यमतके तपसी परिवाजक आदि तप करते हैं वे भरकर ऊपर स्वर्गमें कहाँ तक जा सकते हैं। समाधान--असंख्यात वर्षको आयुवाले जीव अर्थात् कुभोगभूमिके मनुष्य वा तिथंच मरने के बाद अपने मिथ्यात्वरूप भावोंसे भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क इन तीनों ही जासिके देवोंमें उत्पन्न होते हैं । वे आगे वैमानिक देवोंमें उत्पन्न नहीं हो सकते। इसी प्रकार जो उत्कृष्ट भावोंको धारण करनेवाले हिंसापूर्वक पंचाग्नि १. नरकसे निकलकर चक्रवती, बलदेव, प्रतिवासुदेव नहीं होते ऐसा नियम है इसमें तीर्थंकरका निषेध नहीं है तथा शलाका पुरुषोंका मनुष्य तिथंच गतिसे आकर होनेका निषेध है। इससे सिद्ध होता है कि तीर्थकर स्वर्ग वा नर फसे आकर हो सकते हैं। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि तप धारण करने वाले और कंवमल भक्षण करनेवाले तपस्वी मरनेके बाद अपने अज्ञान सपके फलसे। भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क और कल्पवासो देवों तक सोलहवें स्वर्ग तक उत्पन्न हो सकते हैं आगे कल्पातीत म सागर । बेबोंमें उत्पन्न नहीं होते सो हो मूलाचारमें लिखा है। - ३७r ] संखादीदाऊणं मणुयतिरिक्खाण मिच्छभावेण । उववादोजोदिसिए उपकस्सं तावसाणं तु॥ तमा ब्यापप्रपती परिकामा लोगो शुभाशेते मरकर भवनवासियोंसे लेकर बारहवें सहस्रार स्वर्ग तक उत्पन्न हो सकते हैं। आगे नहीं जा सकते । सो हो लिखा है-- परिवाजगण णियमा उक्कस्सं होदि वंभलोगम्हि । उक्कस्स सहस्सार ति होदि या आजीवगाण तहा ।। भाषामें भी लिखा है। परिवाजक नामा परमती । सहस्त्रार ऊपर नहि गती ।। १९८-चर्चा एकसौ अठानवैवीं प्रश्न-सुना जाता है कि एफेंद्रियसे लेकर पर्चेद्रिय तकके जीव सब तीनों लोकोंमे सब जगह भरे । हुए हैं सो क्या यह बात ठीक है ? समाषान-पह बात ठोक नहीं है इसमें इतना विशेष है कि पृथ्वोकायिक, अपकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक तथा नित्यनिगोव, इतरनिगोदके समस्त एफेंत्रिय जीव ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक, अषोलोक समस्त तीनों लोकोंमें भरे हुए है, तथा पंचेन्निय देव, नारकी, मनुष्य, तिथंच आदि सैनो जीष तीनों लोकोंमें रहनेवालो सनाखोमें भरे हुए हैं और दो इन्द्रिय, ते इन्द्रिय, चौ इन्द्रिय, असैनी पशु और मनुष्य गतिके पंचेंद्रिय जीव मध्यलोकमें हो उत्पन्न होते हैं। ये जीव दूसरी जगह उत्पन्न नहीं होते। नरक, स्वर्ग तथा सिखस्थानमें ये जीव उत्पन्न नहीं होते, मध्यलोकमें हो उत्पन्न होते हैं । सो ही मूलाचारमें लिखा है एइंदियाय पंचेंदियाय उद्धमह तिरयलोएसु । सयल विगलिंदिया पुण जीवा तिरिय हि लोयं हि ।। ६०॥ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर ३७५ ] HIRAIP-Amuse- S HASTMASAAMANIPAT स्वामिकात्तिकेयानुप्रेक्षामें भी लिखा हैवितिचउक्खा जीवा हवंति णियमेण कम्मभूमीसु। चरिमे दीवे अद्धे चरिमसम्मुद्दे सुसब्वेसु॥ १६६-चर्चा एकसी निन्यानवेवीं प्रश्न--पहले एक चर्चामें लिखा है कि देवगतिमें देवोंके केश उत्पन्न नहीं होते सो केशोंमें ऐसा क्या । । दोष है ? समाधान–शरीरमें केश आवि कितने ही चिह्न ऐसे हैं जो पिताके गुणों से उत्पन्न होते हैं । सोही शारीरिक शास्त्रमें लिखा है। केशः स्मश्रुच लोमानि नखा दंताः शिरास्तथा।धमन्यःस्नायवःशुक्रमेतानि पितृजानि हि ।। अर्थात् शिरके केश, बाढ़ी, मछ, रोम, नख, वात, शिरा, चौबीस धमनी नाड़ी, नसाजाल और वीर्य सब शरीरमें पिताके वीर्य के गुणसे उत्पन्न होते हैं । बाकोके माँस, रुधिर, मज्जा, मेदा, यकृत प्लोहा, अंतड़ो, । नामि, दय, गुदा आदि मास धिर नाम पातुसे उत्पन्न होते हैं। सो ही शारीरिक शास्त्रमें लिखा हैमांसासकमज्जामेदा च यकृत्प्लीहांत्रनाभयः। हृदयं च गुदा चापि भवन्त्येतानि मातृतः॥ इस प्रकार ये सब गुण माताके रुधिरसे उत्पन्न होते हैं। वेवोंके शरीरमें रस, रुधिर, मांस, मेदा, | अस्थि, मज्जा, शुक्र आदि धातु-उपधातु है नहीं फिर केश कैसे उत्पन्न हो सकते हैं। देवोंका शरीर वैक्रियिक है और केश आदि सब गुण औदारिकके हैं। देवोंका जन्म उपपाद जन्म है यथा-'देवनारकाणामुपपादः' देव नारकियोंका उपपाद जन्म होता है। इस सूत्रसे देवोंके उपपाद जन्म होनेके कारण माता-पिताके गुणोंका। अभाव सिद्ध होता है। H देवगतिमें चतुर्णिकाय देवोंके तथा देवियोंके केश अर्थात् मस्तक, भृकुटी, नेत्र, नासिका (नाक), दाढ़ी, । मछ आदिफके केश, लिंग, वृषण आविके केश शरीरपर होनेवाले रोम नहीं होते। इसी प्रकार हाथ-पांवकी बोसों उँगुलियोंमें नख नहीं होते, समस्त शरीरपर विभासिनी नामका पहला चमड़ा ( चमड़ेके ऊपर एक पतलासा चमड़ा ) नहीं होता। इसी प्रकार सात प्रकारके चमड़े, नख, रुधिर, हड्डी, मल, मूत्र, दोर्य, रसीना, छाया नेत्रोंको टिमकार आवि समस्त बेवोंके नियमसे नहीं होते हैं । सो हो मूलाचारमें लिखा है Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्षासागर केस गह मंसु लोमा चम्म वसा रुहिर मुत्ति पुरीसं वा। णेवट्टी व सिरा देवाण सरीरसंठाणे ॥ ११ ॥ प्रश्न--यदि देवोंके केश नहीं है तो उनका रूप रंड-मुण्ड-सा मालूम पड़ता होगा। समाधान-समस्त देव-देवांगनाओंका शरीर तथा तीर्थङ्करादिक शलाका पुरुषोंका शरीर अत्यन्त सुन्दर होता है। जिस प्रकार सोलह वर्षका राजकुमार शोभायमान होता है उसी प्रकार सदा शोभायमान बना रहता है । जहाँ-जहाँ जैसी सुन्दरता धाहिए वहाँपर वैसी ही सुन्दरता पुण्यपरमाणुरूप नाम कर्मके उदयसे बन जाती है ।। का गियोग न गन्ध ग्रन्योंसे जान लेना चाहिये। २००-चर्चा दोसौर्वी प्रश्न--आश्रमोंमें रहनेवाले त्यागी लोग गृहस्थोंके बालकों को पांचों उवम्बर फल और मद्य, मांस, मधुका त्याग करा देते हैं। परन्तु किसने ही अनाचारी किसी रोगी बंद्योंके कहनेसे औषधिमें शहद खा लेते हैं। । सो क्या ठीक है? समाधान-स्याग करनेके बाद जो खाते हैं सो महापापी हैं। यदि केवल शहदसे हो प्राण बचते हों है तो भी त्याग करने बाद नहीं खाना चाहिये । अवशाल नामके भीलके समान दृढ़ रहना चाहिये। इसके सिवाय यह शहद ही मद्य और मांसके समान है।षयोंकि मद्य, मांस और शहद तीनों ही एकसे कहे गये। इसलिये जैनीके कुलमें जन्म लेकर इनका ग्रहण कभी नहीं करना चाहिये । जैनशास्त्रोंमें इसके सेवन करनेका महादोष लिखा है। देखो जैसा मय है वैसा ही शहब है। इसके सेवन करनेवाले पुरुषको महापाप लगता है। यह पदार्थ हो अत्यन्त घृणित, अपवित्र और निन्दनीय है । इसलिए इसका स्याग करना ही उचित है इसको सेवन करना कभी उचित नहीं है। जिस प्रकार भोजनमें कोई मक्ली पड़ जाय तो उसको देखकर लोग कहते हैं कि इसमें माली पड़ गई है अब यह कैसे लाया जा सकता है तो फिर शाहव तो उन्हीं मक्खियोंके मण्डोंका निचोड़ वा अर्क है उसे लोग कैसे खा जाते हैं । बसुनन्दोभावकाचारमें लिखा है - - - Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्षासागर [ ३७७ ] जह मज्जय तहय मधु जनयति पावं णरस्स अइबहुगं। असुइव्व जिंदणिज्जं वज्जेयव्वं पयत्तेण ।।८०॥ दण असनमज्झे पडिइ जई मत्थियपि णिट्ठिवई। कह मत्थपिंडयाणं णिज्जासं णिग्घिणो पवई ॥१॥ अन्यमती भी शहरके खाने महापाप बतलाते हैं । उनके यहां लिखा हैसप्त ग्रामेषु दग्धेषु यथार्थ जायते मृणाम् । तपाय जायते पुंसां मधुर्विद्वेकभक्षणात् ।।१।। सात गांवोंके जलानेमें जो पाप होता है उतना पाप शहदको बूब खानेसे होता है। जो लोग सदा । शहद खाते रहते हैं वे अवश्य नरकमें जाते हैं इसमें कोई संदेह नहीं है । सो हो वसुनविश्रावकाचारमें लिखा है जो अवलेहद णिच्चं णरयं सो जाइ णस्थि संदेहो। इसके सिवा और भी अनेक शास्त्रोंमें शहक्के सेवन करने का निषेध लिखा है वहाँसे देख लेना चाहिये ।। बहुत कहाँ तक कहा जाय प्राणांत होनेपर भी शहद नहीं खाना चाहिये। प्रश्न--रोगाविकके उपायोंमें शहदका अनुपान बहुत जगह लिखा है। इसलिये बिना शहदके बदले क्या उपाय करना चाहिये । इसके बिना तो रोगीका काम ही नहीं चल सकता ? उत्तर--चिकित्सा शास्त्रमें लिखा है कि यदि औषधिके अनुपानमें मधु लिखा हो और वहाँपर मधु न। मिलता हो तो उसके बदले पुराना गुड़ काममें ले लेना चाहिये । पुराना गुड़ भी शहरके समान गुण करनेवाला है इसलिये गुड़से काम चला लेना चाहिये किन्तु शहद कभी नहीं खाना चाहिये । सो हो लटकन मिश्रके पुत्र भावमिथ विरचित भावप्रकाशमें लिखा है-- मधु यत्र न लभते तत्र जीर्णो गुडो मतः। शाघर संहितामें लिखा है मध्वभावे गुई जीर्ण । भाषाके वैद्यरत्नमें भी लिखा है-- शहत टौर प्राचीनगुड़ गुणकर शहत समीप । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसलिये धर्मात्मा जैनियोंको अपने कल्याण के लिये जैने शास्त्रोंके अनुसार हो अपना कर्तव्य करना। पर्यासागर [ १७८] २०१-चर्चा दोसौ एकवीं प्रश्न--श्रीऋषभदेव तीर्थङ्कर थे तथा भरतेश्वर चक्रवर्ती थे। यह बात तो प्रसिद्ध हो है परन्तु कोईकोई इनको कुलकर भी कहते हैं। सो यह कथन किस प्रकार है ? । समाधान-कुलकर चौवह होते हैं परन्तु जैनशास्त्रोंमें ऋषभदेवको पन्द्रहवाँ कुलकर और भरत चक्रगि सोहन गुलमा नातामा है इसका भी करण यह है कि ये दोनों हो तीसरे कालके अन्तमें हुए हैं। श्रीऋषभदेवने पहले चौदह कुलकरोंके समान बाल्यावस्थामें ही असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प, पशु-1 पालन आदिको रचना लोगोंको बतलाई थी। तथा लोगोंको बहुतसे धनका दान दिया था, प्रजाफा प्राण पोषण किया था। दीक्षाके समय जिनलिंगको रीति प्रगट की थी। तथा केवलज्ञानके समय धर्मका मार्ग दिखलाया था और स्वर्ग मोक्षका मार्ग प्रगट किया था सो ही लिखा है--- वत्ताणटाणे जणधणु दाणे पयपोसिउ तवखत्तधरू । तव चरणविहाणे केवलणाणे तवपरमप्पह परमपरू।। इसलिये श्री ऋषभदेवको पन्द्रहवां कुलकर कहते हैं। भरतेश्वरको सबसे पहले चक्रवर्तीकी पदयो प्राप्त हुई थी जिससे उसने छहों खंडोंको सिद्ध किया था १. मक्खियाँ फूलोंके रसको पोती हैं पेटमें उनका कुछ देर तक पाक होता है शहद बन जाने के बाद उसे वे छत्ते में गलती है। उगलती हुई चीज में अनेक जीव उत्पन्न होनेको शक्ति उत्पन्न हो जाता है इसलिये उसमें सदा जीव उत्पन्न होते और मरते हैं। दूसरी बात यह है कि शहद निकालने वाले पहले मक्खियोंको उड़ा देते हैं जिससे हजारों मक्खियां घर रहित हो जाता हैं। यद्यपि उम मेंसे बड़ी-बड़ी मविख्याँ उड़ जाती हैं तथापि सैकड़ों छोटो-छोटो मक्खियों और सेकड़ों अंडे उस छते में रह जाते। हैं । शहद निकालने वाले मक्खियोंके उड़ जानेपर उस छतेको निचोड़ लेते हैं। जिससे उन अंडोंका तथा छोटो छोटो मक्खियोंका सब खून मांसका अर्क उस शहदमें आ जाता है उसमें प्रतिसमय अनेक जोव उत्पन्न होते रहते हैं इस प्रकार शहदका स्वरूप ही महा अपवित्र, घृणित और महापापको खानि है। [३७ हैं । शहद मिक्खियाँ उड़ जातीयों को उड़ा देते हैं बिदा जीव उत्पन्न होने Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और देशोंमें राज्यको रीति स्थापित की थी इसलिये इसको सोलहवां कुलकर कहते हैं । सो हो आविपुराणके ! | ३ पर्व श्लोक २१३ में लिखा है । यथा-- वृषभस्तीर्थकृच्चैव कुलकृच्चैव संमतः। भरतश्चक्रभृच्चैव कुलधृच्चैव वर्णितः॥ पसागर प्रश्न-कुलकरोंको मनु भी कहते हैं सो कुलकर शब्दको तथा मनु शब्दको निरुक्ति क्या है क्योंकि निरुक्तिके बिना अर्थ स्पष्ट नहीं होता है। उत्तर--जो कुल उत्पन्न करे पुत्र-पौत्राविकको वंश वृद्धिको बढ़ाये उसको कुलकर कहते हैं । व्याकरणके कृवन्त प्रकरणमें लिखा है कुलं करोतीति कुलकरः। उन कुलकरोंसे ही संतान परंपरा अब तक चली आ रही है और आगामी कालमें भी बराबर चलती चलेगी। मनु शब्द 'मनु अवबोधने' धातुसे बना है। अवबोधनका अर्थ दूसरोंको बतलाना है। जितने कुलकर, हुए हैं उन सबने प्रजाके लिये यथायोग्य बातोंका ज्ञान कराया है। उन्हें अनेक बातें समझाई हैं। इसीलिये उन सबको मनु कहते हैं । श्रीऋषभदेवने तथा महाराज भरतने प्रजाके लिये अनेक बातें बतलाई हैं इसलिये ये भो। मनु वा कुलकर कहलाते हैं । सिद्धांतसारदोपकर्म भो नौवें अधिकारमें यही बात लिखी है। नाभेः कुलकरस्यांतिमस्यात्रासीत्सुतः परः । ऋषभस्तीर्थकृत्पूज्यः कुलकृत त्रिजगद्धितः ॥२७॥ हा मा विग्नीतिमार्गोक्तोऽस्य पुत्रो भरतोग्रजः। चक्रीकुलकरो जातो बधबंधादिदण्डभृत् ।।। २०२-चर्चा दोसो दोवीं प्रश्न-मिथ्यात्व आदि चौदह गुणस्थानों में कौन-कौनसे संहनन होते हैं ? समाधान-मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरत, देशविरत, प्रमत्त, अप्रमत्त इन सातों गुणस्थानोंमें छहों संहननवाले जीव रहते हैं । अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसापराय, उपशांत मोह इन चारों गुणस्थानोंमें रहनेवाले तथा उपशमश्रेणी घड़नेवाले साधुओंके पहलेके तीन संहनन होते हैं । अर्थात् पहले के तीन संहननवाले जोव हो । 1 उपशम श्रेणी चढ़ सकते हैं इसी प्रकार आठ, नो, बस तथा क्षीणमोह नामके बारहवे गुणस्थानमें और सयोग न जिन नामके तेरहवें गणस्यान अपकोणो बढ़नेवाले साघुओंके पहला वनवृषभनाराचसंहनन हो होता है । सो हो सिद्धांतसार दीपकमें ग्यारहवों संषिमें लिखा है--- नान्समाचाATAR २०१ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८०] . . . . .. . . . . . . . .. मिथ्यात्वाथप्रमत्तान्तगुणस्थानेषु सप्तसु । प्रमत्तवन्तजीवानां सन्ति संहननानि षट् ॥ अपूर्वकरणाभिख्येऽनिवृत्तिकरणाये । सूक्ष्मादिसापरायाख्ये य पशांतकषायके ॥२५॥ वर्षासातर श्रेण्यामुपशमाख्यां तिष्ठतां योगिनां पृथक । त्रीणि संहननानि स्युरादिमानि हढानि च ॥ अपूर्वकरणाख्ये चानिवत्तिकरणाभियों । सूक्ष्मादिसापरायाख्य क्षीणकोयनामनि ॥ २७॥ सयोगे च गुणस्थाने झाधि संहननं भवेत् २०३-चर्चा दो सौ तीसरी प्रश्न--श्री तीर्थकर केवलोके समवसरणमें पहले दूसरे कोट के बोचमें चारों ओर अशोक बन, पम्पक वन, आम्रवन और सप्तच्छा बन बतलाये हैं जो कि बहुत भारी शोभाको धारण करते हैं। उनमें से एक-एक वृक्ष भगवान अरहंत वेवकी प्रतिमासहित विराजमान है जिसको चैत्यवृक्ष कहते हैं । सो अशोक, चंपक और आनके। वृक्ष तो देखे सुने जाते हैं परन्तु सप्तच्छव कौनसा वृक्ष है और वह कहाँ उत्पन्न होता है । समाधान-सपासछव सावड्य अथवा सातवीको कहते हैं। इसके पत्ते बड़े-बड़े होते हैं और एक पसा सात-सात पत्तोंके आकारका होता है । ऐसे पत्ते उस वृक्ष पर बहुतसे लगते हैं इसलिये उन वृक्षोंका नाम सप्तन्छव है । अमरकोशमें लिखा है-- सप्तपर्णो विशालत्वकू शारदो विषमच्छदः। धन्वन्तरी कुस निघंटुमें भी लिखा हैसप्तपर्णः सुपिपर्णः छत्रपर्णी सुपर्णकः । सप्तच्छदो गुच्छपुन्छस्तथा शाल्मलिपत्रकः । प्रश्नयहाँपर सप्तच्छवे वृक्षका नाम नहीं बतलाया है किंतु सप्त छव, सप्तपर्ण वा सप्तदल बतलाया है है सो कोई और वृक्ष होगा। उत्तर--यह कहना मिथ्या है, शास्त्रोंसे विरुद्ध है । क्योंकि छद, बल, पर्ण, सब पत्तोंके नाम हैं । लिखा। भी है-'पत्रं पलाशं छदनं दलं पर्ण छवः पुमान् । पत्र, पलाश, छदम, बल, पर्ण और छद ये सब पत्तोंके नाम हैं । 1 इन सबका एक ही अर्थ है। इसके सिवाय विचारनेकी बात यह है कि वृक्षोंको शोभा सुन्दर पत्ते, सुगंधित पुष्प और फलोंसे होती है। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर [ ३८१ ] प्रश्न -- इस वृक्षमें कौन-कौन गुण हैं ? उत्तर-- इसमें अनेक गुण हैं। निघंटुमें लिखा है- सपर्णी त्रिदोषी सुरभी दापिनी परम् । अर्थात् सप्तपर्ण वृक्ष, वात, पिस, कफ इन तीनों दोषोंको नाश करनेवाला है । बहुत ही सुगन्धित है और दीपन, पाचन है । इसके पत्ते बहुत ही सुगन्धित हैं और सात पत्तोंके आकारके, छत्रके आकार के समान बहुत ही सुशोभित होते हैं। ऐसा स्पष्ट अर्थ है । प्रश्न --- दाड़िम, नारंगी, केला, नोबू, बिजोरे, सुपारी, नारियल आदि अत्यन्त शोभायमान वृक्ष क्यों नहीं बतलाये । सप्तच्छवका ही वन क्यों कहा ? उत्तर- इस जम्बूद्वीपमें अनादिनिधन जम्बूवृक्षको वैश्यवृक्ष बतलाया है। तथा धातकी द्वीपमें धातकी बा आवडावा पाय वृक्षको चैत्यवृक्ष बतलाया है । तथा पुष्कर द्वीपमें शाभला, शीमला अथवा शाल्मलि वृक्षको चैत्यवृक्ष कहा है । सो यहाँ भो क्या आप लोग सर्क करेंगे ? कि अच्छे वृक्ष क्यों नहीं बतलाये ? अनावि निधन रचना जैसी है वैसी हो शास्त्रों में कही है । उसमें सन्देह नहीं करना चाहिये। जो लिखा है उसमें ही प्रमाण मानना चाहिये । यही कथन अकृत्रिम जिनमन्दिरोंकी शोभामें अशोक, आन्न, चम्पक, सप्तच्छद आदि की शोभाका वर्णन है। वह भी विवेकी पुरुषोंको शास्त्रोंसे जान लेना चाहिये । २०४ - चर्चा दोसौ चारवीं प्रश्न --- श्रीपंचणमोकार मंत्र द्वादशांगका मूल है, पैंतीस अक्षरमयी है, उसके अपनेसे करोड़ों जन्मोंके महापाप कट जाते हैं। अनेक प्रकारके विघ्न जाल मिट जाते हैं। संसार में सार पदार्थ एक यही है। इस महामन्त्र के प्रसादसे अनेक जीवोंने स्वर्ग मोक्ष प्राप्त किया है इसकी महिमा अपार है। इसकी महिमा जैनशास्त्रोंमें अनेक जीवोंकी कथाओं सहित लिखी है। इसको मन्त्रराज कहते हैं। यह अपराजित मन्त्र है । समस्त पापको नाश करनेवाला है । समस्त मंगलों में प्रथम मंगलमय है । इस प्रकार अनेक महिमाओंमें सुशोभित यह पंच नमस्कार मन्त्र है । सो इसके पर्वोंके अक्षरोंकी रचनाका स्वरूप क्या है। इसमें कौन-कौन सेव हैं यह मन्त्र किस-किस धातु [ ३ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर २८२ ] किस-किस प्रत्ययसे, किस-किस संधि और विभक्तिसे बना है। इसका क्या अर्थ है तथा क्या फल है सो इन सबका स्वरूप समझना चाहिये । समाधान -- यह प्रश्न बड़े धर्मात्मा भव्यजीवोंका है। क्योंकि यह णमोकार मंत्र जीवोंको संसाररूपी समुद्रसे पार करनेवाला है । उसका स्वरूप रुचिसे पूछना अहोभाग्य है। संसार में वह जीव धन्य है जो मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदनासे इस णमोकार मन्त्रका निरन्तर जाप करता है या इसके स्वरूपका निरन्तर चिन्तवन करता है, अभ्यास करता है। वही जीव संसाररूपी वनको छेद कर मोक्ष गतिको प्राप्त होता है । इसलिए इसकी और श्रद्धा लिए अरे उसका स्वरूप पूछता है वह भी धन्य है । आगे इसका थोड़ा-सा स्वरूप शास्त्रोंके अनुसार अपनो भक्तिसे लिखा जाता है। यह पंच णमोकार मन्त्र अनादिनिधन है । इसका कोई कर्ता नहीं है । यह अनादिकालसे स्वयं सिद्ध चला आ रहा है । कालाप व्याकरणका पहला सूत्र है- 'सिद्धो वर्णसमाम्नाय :' अर्थात् वर्णोका समुदाय सब स्वयंसिद्ध है। अकारसे लेकर ह् तकके अक्षरोंको वर्ण कहते हैं-वे ये हैं। अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ लृ लू ए ऐ ओ औ अं अः क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व श ष स ह ळ क्ष । ये सब अक्षर स्वाभाविक हैं इन्हीं अक्षरोंके द्वारा द्वादशांग की रचना हुई है। यह भी अनादिनिधन है और परम्परासे बराबर चली आ रही है। ओ और गमो अरहंताणं इत्यादि द्वादशांगका मूल है। सो भी अनादिनिधन है । इनका विशेष और सम्पूर्ण स्वरूप तो श्रीसर्वज्ञदेव ही जानते हैं । अथवा गणधराविक उत्तरोत्तर ऋद्धिधारी छन्दमयी णमोकारकल्प मुनि जानते हैं। परन्तु इस समय जैनशास्त्रों में बारह हजार प्रमाण प्राकृत, घत्ता, नामका सिद्धांत शास्त्र है उसमें इसका स्वरूप बहुत अच्छी तरह बतलाया है। विशेष ज्ञानियोंको वहाँसे जान लेना चाहिये। यह हम अपनी छोटी-सी बुद्धिके अनुसार थोड़ा-सा लिखते हैं वह भव्य जीवोंको विचार लेना चाहिये । मूलमन्त्र यह है । णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्व साहूणं ॥ इसका अर्थ यह है-- अरहन्तोंको नमस्कार हो, सिद्धोंको नमस्कार हो, आवायको नमस्कार हो, [ ८ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ३ ] 1 उपाध्यायोंको नमस्कार हो और इस लोकमें रहनेवाले समस्त साधुओंको नमस्कार हो। ऐसा मान्य अर्थ है। । अथवा नमः शब्धके साथ चतुर्थी विभकिन लगती है । इसलिा शरमन्मके लिए नमस्कार हो, सिद्धोंके लिए । नमस्कार हो इस प्रकार पांचों पदोंमें जोड़ लेना चाहिये। अब अलग-अलग पदोंका अर्थ बतलाते हैं। पहला पद णमो अरहताण' अथवा 'णमो अरिहंताणं' है। । अर अथवा अरि शत्रुको कहते हैं। हंता मारनेवाले वा घात करनेवालेको कहते हैं इन दोनोंके मिलनेसे द्वितीया विभक्तिका बहुवचन सरिहंतु बनता है । जमोका अर्थ नमः है इनके मिलानेसे 'शत्रुओंको कर्मरूप वा रागद्वेष रूप शत्रुओंको नाश करनेवाले अरहन्त भगवानको नमस्कार करता हूँ' ऐसा अर्थ होता है । प्रश्न-पहले तुमने इस मन्त्रको बड़ी महिमा असलाई। इसको समस्त विघ्नोंका नाश करनेवाला वा पापोंका नाश करनेवाला और समस्त मंगलोंमें मुख्य मंगल बतलाया है। लिखा भी है-- । एसो पंच णमोयारो सव्वपावप्पणासणो । मंगलाणं च सव्वेसि पढम होइ मंगलं ॥ तथा "विघ्नौघाः प्रलयं यान्ति" इत्यादि बहुतसी महिमा लिखी है। मंगलाचरणोंमें सबसे पहले इसका उच्चारण करते हैं सो उच्चारणमें सबसे पहले भगवानका नाम लेना चाहिये परन्तु यहाँपर सबसे पहले। । अरि अर्थात् शत्रु, वैरो वा रिपुका अमंगलकारो नाम लिया है। और फिर उसके बाद हंताणं शरद कहा है। । हताणं शब्द भी हन, हिंसायां अर्थात् हिंसार्थक, हन पातुसे बना है। इस प्रकार यह दूसरा शब्द भी रक्षा। वाधक नहीं है । घात वाचक दुःखरूप है । इसलिये यह निःसंबह शब्द नहीं है । संदेह रूप है। समाषान--सेबसे पहले अन्य मतोंके द्वारा अरिहंताणं शब्दको मांगलिक पद सिद्ध करते हैं । यहाँपर, पहले पदमें जो अरहन्त पब है सो विशेषणरूप है। यथा--जो ज्ञानावरणादि कर्मरूपो अरि वा शत्रु अथवा रिपु वा द्वेषके हंता घातक है ऐसे जो सकल परमात्मा, सर्वश, वीतराग अरहन्त मावि एक हजार आठ नामोंसे । कहे जाते है अथवा अनंत नामोंसे कहे जाते हैं ऐसे धोकेवलजानो भट्टारक अरहंतदेवको अरहंत वा अरिहंत । कहते हैं । ऐसे अरहन्तदेवको नमस्कार हो ऐसा प्रथम पदका अर्थ है सो ही लिखा है । "कारातोन् हंतीति । अरहन्त अथवा अरीन हंसीसि अरिहंत" इस प्रकार व्याकरणके सूत्रसे इसको निरुक्ति है। कदाचित् इस शम्मको दूषित कहोगे और अरि तथा धात रूप होनेसे अमंगल रूप बतलाओगे तो । Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसका उत्तर यह है कि इसमें 'अरहंत' ऐसे चार अक्षर हैं। इनमें भी पहला अक्षर है। यह 'अ' अब रक्षणे । अथवा अब रक्ष पालने इस धातुसे कृवरतीय प्रत्यय लगकर बनता है। जिसका अर्थ रक्षा करना वा पालन । करना होता है। फिर भला यह अमंगलरूप कैसे हो सकता है ? सिागर cr] इसके सिवाय एक बात यह है कि यह 'अ' वर्णावि है वर्णोका प्रारम्भ इसीसे होता है इसलिये भी यह मांगलिक है । मंत्रोंमें अ को अनाहत मंत्र संज्ञा है। जो सज्जन इस मंत्रका स्थिरीभूत होकर अभ्यास करते हैं, शांत भावोंको प्राप्त करते हैं और वे इस संसार सागरसे पार हो जाते हैं । जो सज्जन मनको निश्चल कर इस 'अ' ध्यान करते हैं वे निर्मलताको प्राप्त होते हैं तथा पोछ विषयोंसे उत्पन्न हए मनके विकारोंको । नष्ट कर एक क्षणमें साक्षात् मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं, इसके ध्यान करनेसे मणमादिक सब सिद्धियां प्राप्त होती है। बैत्य, वानव आदि सब इसको सेवा करते हैं। इससे आज्ञा और ईश्वरता सब सिख हो जाती है । तथा अनेक क्लेशोंसे भरे हुए संसाररूपी वनसे पार हो जाते हैं और शीघ्र हो मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं। ऐसा केवल यह पहला अक्षर 'अ' है । सो हो झानसमुद्र में लिखा है-- विदुहीनं कलाहीनं रेफद्वितीयवर्जितम् । अनक्षरस्वमापन्नमनुच्चाय्यं विचिंतयेत् ॥१॥ चन्द्रलेखासमं सूक्ष्म स्फुरन्तं भानुभास्करम् । अनाहिताभिधं देवं दिव्यरूपं विचिंतयेत् ॥२॥ अस्मिन् स्थिरीकृताभ्यासाः शांतिभावमुपाश्रिताः। अनेन दिव्यपोतेन नीत्वा जन्माप्रसागरम् ॥ ३ ॥ तदेव च पुनः सूक्ष्मक्रमात् बालाग्रसन्निभम् । ध्यायेदेकाग्रता प्राप्य कतु चेतः सुनिश्चलम् ॥ ततोपि गलिताशेषविषयकृतमानसः । अध्यक्षमीक्षते साक्षात् जगज्योतिर्मयं क्षणे ॥५॥ सिद्धयति सिद्धये सर्वा अणिमाद्या न संशयम् । सेवा कुर्वन्ति दैत्याद्या आज्ञैश्वर्यं चजायते ॥ क्रमात् प्राच्याव्य लक्षेभ्यःअलक्षे निश्चलं मनः।दधतोऽस्य स्मरन्लतज्योतिरत्यक्षमक्षयम् ।। एतत्तत्त्वं शिवाख्यं वा समालंब्य मनीषिणः। उत्तीर्य जन्मकान्तारमनंतक्लेशसंकुलम् ॥८॥ इस प्रकार एक अकार अक्षरका स्वरूप ऊपर लिखे श्लोकोंसे लेना चाहिये। ऊपर इन्हीं श्लोकोंका । थोडासा सामान्य अर्थ लिखा है । इससे सिद्ध होता है कि यह अकार मांगलिक और परमेश्वरमय है। मायामासासाचा Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्षासागर [ ३८५ ] जो भव्य जीव आनंदित और एकाप्रचित्त होकर पाँचसौ बार इस केवल अकार अक्षरका जप करते । हैं उनको एक उपवासका फल प्राप्त होता है तथा बहुतसे कर्मोको निर्जरा होती है । ऐसा यह केवल एक अकार है । सो हो ज्ञानार्णवमें लिखा हैअवर्णस्य सहनाई जपन्नानन्दसंभृतः। प्राप्नोत्येकोपवासस्य निर्जरा निर्जिताशयः ।। इसके सिवाय इस आकारको अन्य मतियोंफे शास्त्रोंमें विष्णु संज्ञा कही है। सो ही एकाक्षरी वर्णमात्रा कोशमें लिखा है अकारो विष्णुनामा स्यात्। विष्णुका अर्थ सर्व व्यापक है । श्रोअरहंत भगवान अपने केवलज्ञानके द्वारा तीनों लोकोंमें रहनेवाले घर, अपर समस्त पदार्थोके त्रिकालवी द्रव्य.गण. पर्यायोंको एक समयमें ही जानते हैं उनके ज्ञानके बाहर कोई पदार्थ नहीं है । इस प्रकार सिद्ध होता है कि सर्व व्यापक एक सर्वज्ञ देष ही हैं और कोई नहीं है। अन्यमती लोग सर्वव्यापक विष्णुको कहते हैं परंतु विष्णु सर्वध्यार बम नहीं समझा। इसका भी। कारण यह है कि किसी एक दिन अर्जुनका संदेह दूर करने के लिये विष्णुने अपना मुख फाड़कर अपनी वाहमें तीनों लोक विखाये थे। जब उसको बाढ़में ही सोनों लोक आ गये तब वह व्यापक कहां रहा ? परन्तु फिर भी उसको व्यापक कहते हैं सबमें व्याप्त बतलाते हैं जैसा कि विष्णुपंजरमें लिखा है-- जले विष्णुः थले विष्णुः विष्णुः पर्वतमस्तके । ज्वालामालाकुले विष्णुः सर्वविष्णुमयं जगत् ॥ मार्कंडेय पुराणमें भी लिखा हैपृथिव्यामप्यहं पार्थं वायावग्नौ जलेप्यहम् । वनस्पतिगतस्याहं सर्वभूतगतोप्यहम् ॥ अर्थात् पृथ्यो, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति आदि सबमें हूँ। यह समस्त संसार विष्णुरूप है। इस प्रकार विरुणुको सर्वव्यापक मानते हैं परन्तु जब महाकालासुरने विष्णु के पुत्र प्रद्युम्नकुमारको हर लिया था तब कृष्णको मालूम भी नहीं हुआ था। इसी प्रकार रामावतारमें जब सोताका हरण हुआ था तब है रामचंद्र उसके विरहसे पर्वत, वृक्ष, पक्षी आदि सबसे सीताको पूछते थे। सोलाको कौन हर ले गया सो भो उनको । Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खबर नहीं हुई थी। उस समय उनकी सर्वव्यापकता कहाँ चली गई थी। ऐसी-ऐसी अनेक विरुद्ध बातें हैं जिनसे विष्णको सर्वव्यापकता सिद्ध नहीं हो सकती। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापक एक सर्वजदेव वर्षासागर । अरहत ही हैं और कोई नहीं है। कोई-कोई कहते हैं कि अरहंत नामका कोई राजा हुआ है उसका चलाया यह जैनमत है । परंतु यह कहना सब मिथ्या ओर वृथा है । सत्य नहीं है । भगवान सर्वज्ञ वीतरागको हो अरहंत कहते हैं। उन्होंने जो कुछ प्रतिणवन किया है वही जैनधर्म है। इस प्रकार यह अकार परमेश्वर है। समस्त विघ्नोंका नाश करनेवाला और समस्त पापोंका घात करनेवाला है। महा मंगलरूप है और सज्जनोंका रक्षक है इसीलिये यह प्रथम मंगलवाचक है। इस अकार अक्षरको अन्यमतमें श्रीकंठ, केशव, निवृत्ति, ईश्वर, मातृका, वात आदि कितने ही नामसे पुकारते हैं और ये सब नाम मांगलिक तथा मोक्षके वाचक है । सो ही मातृका निघंटुमें लिखा हैश्रीकंठः केशवश्चापि निवृत्तिरीश्वरादिकः । अकारो मातृकाद्याश्च वात इत्यपि कीर्तितः ॥ इस प्रकार अरहंतका प्रपम अमर अकारका स्वरूप सिद्ध किया । अब दूसरे अक्षर 'र' का स्वरूप दिखलाते हैं । र का अर्थ राग है, बल है, रव अर्थात् शब्द है जेस्व अर्थात् जय होना है, शब्ब है और गधेको आवाज है सो हो एकाक्षरी वर्णमात्रा कोशमें लिखा है रागे वले रखे जत्वे शब्दे च खरशब्दके। यहाँ शुभ प्रसंग है । इसलिये 'र' शब्दका अर्थ बलवान, सामर्थ्यपना, शब्दपना अथवा जय वा जीत लेना चाहिये । इस प्रकार यह रफार अक्षर भी मांगलिक और अनेक गुणोंवाला सिद्ध होता है। इसके आगे हकार है।ह का अर्थ हर्ष और हनन है। प्रकरणके वशसे यहाँ हर्ष हो लेना चाहिये । सो हो एकाक्षरो वर्णमात्रा कोशमें लिखा है। "हर्षे च हनने हः स्यात्"। हकारके ऊपर अनुस्वार है तो इसकी अन्यमतमें परब्रह्म संज्ञा है। और परब्रह्म श्री अरहंतको कहते है। एकाक्षरी वर्णकोशमें लिखा है। "हं परब्रह्मसंज्ञकः" इस प्रकार यह तीसरा अक्षर 'ह' परमात्मस्वरूप । और मांगलिक सिद्ध होता है। हं शब्बका अर्थ मत भी है । एकाक्षरी कोशमें लिखा है । 'हं मते' । , Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस हकारको सदा शिव कल्याणरूप और मोक्ष वा मुक्तिका वाचक भी लिखा है। अथवा प्राणसंज्ञाको कहनेवाला है। इस प्रकार इसके और भी नाम हैं सो हो मातृका निघंटुमें लिखा है। सागर । नभो वराहो नकुली हदो वामः पदस्थितः । सदाशिवोरुणप्राणो हकारश्च दयाननः॥ १८७] इस प्रकार हकारका स्वरूप बतलाया। उसके आगे चौथा अक्षर 'त' है । तकारका अर्थ शूरता और चोर है । सो हो एकवर्णमातृका निघंटुमें लिखा है-'शूरे चौरे च तः प्रोक्तः' सो यह मंगलाचरणमें शूरता अर्थ लेना चाहिये। शूरताका अर्थ सामर्थ्य वा बल है । सो अनंत बल भगवान अरहंतदेवमें है । इस प्रकार तकारका अर्य बतलाया । इस अनुक्रमसे अरहंत शब्दका अर्थ बतलाया। आगे इसकी निरुक्ति बतलाते हैं। जो नमस्कारके अहति अर्थात् योग्य हों उनको अरहंत कहते हैं। । अथवा जो पूजाके आहे अर्थात् योग्य हों उनको अरहत कहते हैं । अथवा लोकमें भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक ऐसे चार प्रकारके देव हैं। इन चारों प्रकारके क्षेत्रोंसे जो उत्तम हों उनको अरहंत कहते हैं। अथवा मोहनीय और अंतराय फर्मको अरि कहते हैं। अरि शब्दका पहला अक्षर 'अ' है । तथा ज्ञानाबरण और दर्शनावरणको रज कहते हैं। रजका पहला अक्षर 'र' है इस प्रकार 'अर' शब्दका अर्थ चारों घातिया कर्म होते है। ये चारों धातिया कर्म इस जीवके शत्रु है इसलिये इन चारों घातिया फर्मोंको अरि भी कहते हैं उन चारों । घातिया कर्मरूपी शत्रुओंको जो हता अर्थात् नाश करनेवाले हों उनको अरहंत वा अरिहंत कहते हैं। इस प्रकार अरहंत शब्द की निरुक्ति होती है। सो ही मूलाचारमें संस्कृत धारामें लिखा है। अर्हन्ति नमस्कारमी पूजाया अहंतः। वासुरोत्तमा लोके तथा अन्तिः। वा रजसः हतारः । अरेश्च हतारश्चाहतस्तेन उच्यते । यही बात गाथामें लिखी है । यथाअरिहंता णमोकारं अरिहा पूया सुरोत्तमा लोए। रजहंता अरिहंता अरहता तेण उच्चंते ।। ।। इस प्रकार अरहंत पद अथवा अरिहंत पद सिद्ध होता है। अरिहंत शब्दमें जो पिछला हंत पद है वह हन हिंसागत्योः अर्थात् हिसार्थक और गत्यर्थक हन पातुसे Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ i८८] हि शतङ् प्रत्यय होकर हंतु शब्द बनता है उसके प्रथमाका एक वचन हंता बनता है । इसका अर्थ मारनेवाला, घात करने वाला होता है। सबका मिलकर अर्य होता है । "ज्ञानावरणादिचतुर्धातिकर्मारातीन हगीति अरिहंत । अथवा कर्मारातीन् हंतीति अरहत । अथवा अरीन् हंतीति अरिहंत । अर्थात् जो ज्ञानाधरणादि चारों धातिया कर्मरूपी शत्रुओंको मारे, धात करे वह अरहंत है । अथवा कमरूप शत्रुओंका घात करनेवाला अरहंत है । इस । प्रकार अरहंत शम्ब बनता है। इसकी द्वितीयाका बहुवचन अरिहंतुन् बनता है। अरिहंतु शब्दसे द्वितीयाको बहुवचन विभक्ति शस आतो है । अकारका लोप ही जाता है। पूर्व स्वरको कार्घ होकर सकारको नकार हो । जाता है। इस प्रकार अरिहंतुन बन जाता है । इसके पहले णमो शब्द है । "णम प्रभुत्वे शब्बे च" अर्थात् णम् । धातुका अर्थ प्रभुपना और शब्द है । चकारसे भक्ति करना, नम्र होना भी है। उससे नमः बनता है । अथवा नमः अव्यय है । उसका अर्थ नमस्कार करना होता है । नमःके संयोग, चतुर्थी विभक्ति हो जाती है। लिखा ई भी है । "नमः स्वस्ति स्वाहा स्वधा अलं वषट् योगे चतुर्थो" अर्थात् नमः स्वस्ति स्वाहा स्वधा असं वषट् इनके योगसे चतुर्थी हो जाती है । इसके संयोगसे अरहंत शब्दमें चतुर्थी विभक्ति होती है। ऐसा करनेसे 'नमोहंते। अथवा 'नमो अरिहते' वा 'नमो अरहते' बनता है । नमः अर्हते यहाँपर व्याकरणके नियमानुसार संधि होनेपर। (विसर्गको उ और अउ मिलकर ओ हो जानेपर ) नमो बन जाता है और नमोहंते सिद्ध हो जाता है प्राकृत भाषा नकार होता नहीं है। इसलिये 'गमो' ही रहता है । तथा प्राकृत भाषामें चतुर्थो विभक्तिमें अरहताणं ही बनता है यह प्राकृत भाषाका हो रूप है । इस प्रकार ‘णमो अरिहंताणं' अथवा 'गमो अरहंताग बनता है। अरिहंत अथवा अरहंत पदमें चार अक्षर हैं इन चारों अक्षरोंका माहात्म्य शास्त्रोंमें बहुत कुछ वर्णन । किया है । ज्ञानार्णवमें लिखा है-- चतुवर्णमयं मंत्रं चतुर्वर्गफलप्रदम् । चतुःशतं जपन् योगी चतुर्थस्य फलं लभेत् ॥ म अर्थात् यह "अरहंत" मंत्र चार अक्षरोंका है। सो यह धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थोंको देनेवाला है। जो योगी इसको चारसौ बार जप लेता है वह एक उपवासके फलको प्राप्त होता है। इस I प्रकार इसका अचित्य माहात्म्य है और अचित्य फल है । [३८८ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गिर ८९ ========> MS={1}&w====}} इसी अरहंत शब्द 'अहं' नोक्ष की पते हैं।को अन्य मतमें परमतस्व कहते हैं । जो इसको जानता है वही तत्त्वोंका जानकार समझा जाता है। इस 'अहं' पदमें पहला अक्षर अकार है, अन्तमें हकार है । हकारके ऊपर रेफ व रकार है जो अकार हकारके मध्य में है । तथा अंतमें बिंदु वा अनुस्वार है । सोही लिखा है अकारादिकारान्तं रेफमध्यं सर्विदुकम् । तदेव परमं तत्त्वं यो जानाति स तत्ववित् ॥ इस प्रकार यह दो अक्षरोंका अहं मंत्र है। यह मंत्र अरहंतमय है । ज्ञानका बीज है, समस्त संसारके द्वारा वंदनीय है और जन्म, जरा, मरणको दूर करनेवाला है। यह 'अहं' मंत्र अकार हकार रेफ बिंदु और कलासे बनकर "अ" ऐसा बना है। यह भुक्ति-मुक्तिका देनेवाला अमृतमयी किरणोंको बरसानेवाला है और सब मंत्रोंका राजा है। जो बुद्धिमान् अपनी नासिकाके अग्रभागमें, भ्रूलताओंके मध्यमें अथवा महान् उज्जवल तालु foot द्वारा अथवा निर्मल मुखरूपी कमलसे एकबार भी समस्त सुख देनेवाले इस मंत्र का उच्चारण करते हैं। अथवा इस मंत्र को अपने हृदयमें स्थिरतापूर्वक धारण करते हैं वे मोक्ष जानेके लिये मानों अपने साथ पाथेय ले जाते हैं। मार्ग खानेके लिये जो सामान साथ लिया जाता है उसको पाथेय कहते हैं । जो पुरुष इस महामंत्रराज अहंका ध्यान करता है वह अपने समस्त कर्म नष्ट कर मोक्ष सुखको प्राप्त होता है। इस दो अक्षर वाले अर्ह मंत्री ऐसी ही अपार महिमा है । सो ही ज्ञानार्णव में लिखा है- ज्ञानबीजं जगद्वन्धं जन्ममृत्युजरापहम् । अकारादि हकारान्तं रेफबिन्दु कलान्वितम् ॥ भुक्तिमुक्त्यादिदातारं स्ववन्तममृतांशुभिः । मंत्रराजमिमं ध्यायेद्धीमान् विश्वसुखावहम् ॥ नासाने निश्चलं वा भ्रूलतांतरे महोज्वलम् । तालुरन्ध्रेण वा मातं विशन्तं वा मुखाम्बुजे ॥ सकृदुच्चारितो येन मन्त्रोयं वा स्थिरीकृतम् । हृदि तेनापवर्गाय पाथेयं स्वीकृतं परम् ॥ इस महामन्त्रराजं यः व्यायाति स कर्मक्षयं कृत्वा मोक्षसुखं प्राप्नोति । इस प्रकार अहं मन्त्रका स्वरूप है। इसकी निरुक्ति आदि सब पहले लिख चुके हैं। तथा अहं पदकी रिक्ति फिर भी लिखते हैं जो मोहरूपी शत्रुको अथवा भूषा, तृषा आदि समस्त दोषरूपी शत्रुओंको घात करनेके अहं अर्थात् योग्य हो उसको अहं कहते हैं अथवा सदाकाल कर्मरूपी रजको घात करनेके अहं अर्थात् योग्य [ ३८५ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ९०] हो उसको अहं कहते हैं । अथवा विशेषकर रहः अर्थात् अन्तराय कर्मके घात करनेके योग्य हो उसको अहं कहते हैं अथवा जो पूजाके अहं अर्थात् योग्य हो उसको कहते हैं लिखा है मोहारि सर्व दोषारिघातकेभ्यः सदा हत रहोभ्यः । विरतिरहस्कृतिभ्यः पूजाद्भ्यो नमोईद्भ्यः ॥ इसके सिवाय इस अहं पवको ब्रह्मवाचक अथवा परमेष्ठी वाचक बतलाया है। सो ही लिखा हैअर्हमित्यक्षरं ब्रह्मवाचकं परमेष्ठिनः । इसी मन्त्रको सिद्धचक्रका बोज बतलाया है । यथा -- 'सिद्धचक्रस्य सब्बीजम्' ऐसे इस अहं पदको हम लोग सवा निरन्तर प्रणाम करते हैं। सो लिखा भी है- "सर्वतः प्रणमाम्यहम् ।” इस प्रकार णमोकार मन्त्रमें जो 'नमो अरहंताणं' ऐसा प्रथम पद है उसका स्वरूप बसलाया । अब आगे णमो सिद्धाणं पदको सिद्ध करते हैं इसका पहला अक्षर सि है। उसका अर्थ सिद्ध है । सो ही एकाक्षरी वर्ण मात्रा कोशमें लिखा है 'सि सिद्धी च' सिद्ध परमात्माके हो समस्त कार्य सिद्ध हो गये हैं कोई कार्य बाकी नहीं रहा है इसलिए सिद्ध भगवानको ही सिद्ध कहते हैं। सिद्ध भगवान निष्ठितार्थ है अर्थात् उनके समस्त अर्थ सिद्ध हो गये हैं तथा वरिष्ठ हैं, सर्वोत्तम हैं इसलिए उनको सिद्ध कहते हैं । सामायिक पाठ लिखा भी है सिद्धेभ्यो निष्ठितार्थेभ्यो वरिष्ठेभ्यो कृतान्तरः । - भगवान सिद्ध परमेष्ठी लप, संयम, चारित्र, वर्शन, ज्ञान आदि सब हो सिद्धियाँ, ऋद्धियाँ प्राप्त हो चुकी हैं इसलिये ही उनको सिद्ध कहते हैं । सामायिक पाठमें लिखा हैतवसिद्धे णयसिद्धे संयमसिद्धे चरितसिद्धे य । णाणमयं दंसणमयं सिद्धं सिरसा णमस्सामि ॥ तथा धर्मार्थकाममोक्षादिसकलपुरुषार्थानां सिद्धिर्भवति येषां ते सिद्धाः । तथा स्वात्मोपलब्धीनां सिद्धिभवति येषां ते सिद्धाः अर्थात् धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों ही पुरुषार्थ जिनके सिद्ध हो गये हों उनको सिद्ध [ ३९० Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर ३९१] । कहते हैं । अथवा जिनको अपने शुद्ध आत्माको प्राप्ति हो गई हो उनको सिद्ध कहते हैं ऐसी सिद्ध शब्दको । निरुषित है। अब आगे दूसरे प्रकारके सिद्ध शब्बको निरुक्ति बतलाते हैं। यह जीव ज्ञानावरणादि आठों कोके द्वारा अनादिकालसे दुःखी हो रहा है। वह जीव जब कर्मरूप प्रकृतियोंके संक्रमण, उदय, उदीर्णा, उत्कर्षण नादि 1 से रहित हुए सित अर्थात् कर्मबंधको ध्वस्त अर्थात् नाश कर देता है और सम्यग्ज्ञानमय शुद्ध आत्मभावको निषत्त अर्थात् प्राप्त होता है तब उसको सिद्ध कहते हैं। सोही मूलाचारमें लिखा है-- दीर्घकाखमयं जन्तुरुषितश्चाष्टकर्मसु । सिते ध्वस्ते निधत्ते च सिद्धत्वमुपगच्छति ॥ गाथामें भी लिया .. दीहकालमयं जन्तु उसिदो अटुकम्महि । सिदे धत्ते निधत्ते य सिद्धत्तमुवगच्छइ ॥ अब आगे-यह जीव सिद्धत्व पदको किस प्रकार प्राप्त होता है सो ही उदाहरण देकर बतलाते हैं जावेशनी अर्थात घल्हा वा भट्टी तो यह शरीर है। इन्द्रियां ही ऐरण (घन जमीनमें गाइनेका बहुत बड़ा लोहा ) हतोड़ा, संशसा आदि उपकरण है। मन हो आकरी अर्थात् केवलज्ञानरूप जानकार उपाध्याय था लुहार है और यह आत्मा धातु है । इस आत्मारूपो षातुको निर्मल करने के लिये अग्निमें वहन करना । चाहिये । जिस प्रकार चतुर लुहार धातुओंको अग्निमें पकाकर शुद्ध कर लेता है उसी प्रकार शरीररूपी भट्ठी या चूल्हेमें बाईस परोषहरूपी अग्निके द्वारा इन्द्रियरूपी हथोड़े, संडासी आदि उपकरणों के कर्म रूपो मैलका नाश कर तथा शरीर और इन्द्रियरूपी भट्ठो वा औजारोंको छोड़कर यह आत्मरूप सुवर्ण धातु अपने आप शुद्ध हो जाता है तथा केवलज्ञानरूप सिद्धत्वपदको प्राप्त हो जाता है। उसोको सिद्ध कहते हैं। इस उदाहरणके । ई समान उपाय करनेसे यह आत्मा सिद्ध हो जाता है । सो हो मूलाचारमें लिखा हैआवेशनीशरीरं इन्द्रियाभांडानि मन वा आकरी ध्यातव्यं जीवलोहं द्वाविंशतिपरीषहाग्निभिः। ___गाथामें भी लिखा हैआवेसणी सरीरदियभंडो मणो व आगरियो । धमिदव्व जीवलोहे वावीसपरीसहग्गीहि ॥ इस प्रकार सिद्धपक्की निरुक्ति है। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँपर भी विभक्ति मावि सब पहले के समान समझ लेना चाहिये । व्याकरणके अनुसार नमः सिद्धेभ्यः ।। अथवा नमो सिमान् सिद्ध होता है । 'प्राकृतमें गमो सिद्धार्ण' ऐसा सिद्ध होता है। जो भव्यजीव प्रकारांतरसे इस सिद्धपक्का जप करते हैं वे समस्त सिद्धियोंको प्राप्त होते हैं। लिखा। चरwirew पचासागर । ३९२) a R । वर्णद्वयं श्रुतस्कंधे सारभूतं शिवप्रदम्। ध्यायेज्जन्मोद्भवाशेषक्लेशविध्वंसनक्षमम् ।। अर्थात्-सिद्ध यह दो अक्षरका मन्त्र है। समस्त द्वादशांगका सार है। शिव अर्थात् कल्याण वा मोक्ष देशाता है। ऐसे शियो का बह शम्चको जो ध्यान करते हैं वे लोग बहुत शोघ्र अपने जन्म-जन्माम तरके पापोंको नष्ट कर देते हैं। अहं शम्ब पहले अरहन्त शाब्दमें भी कह आये हैं और अब फिर कहा है। इसका अभिप्राय यह है कि अहं यह बोजाक्षर अरहन्तका भी वाधक है और सिद्धका भी वाचक है । लिखा भी है सिद्धचक्रस्य सदीजं सर्वतः प्रणमाम्यहम् । इस प्रकार यह सिद्धपद सिद्ध होता है। इस संसारमें बहुतसे अन्यमतवाले इस सिद्ध शब्दका अर्थ नवनाथ वा चौर सिद्ध कहते हैं तथा वे! रात-दिन निरन्तर इस मध्यलोकके आकाशमें परिभ्रमण करते रहते हैं। जो लोग परस्पर शुभ वा अशुभ की बात कहते हैं उनके लिये 'तथास्तु' ऐसा हो हो, इस प्रकार कहते चले आ रहे हैं ऐसे चौरासी सिद्ध बतलाते । ॥ है सो सब मिथ्या हैं क्योंकि सिद्ध होनेपर भी जिसको इतना करना बाकी रहा यह सिद्ध नहीं हो सकता। सिद्ध तो वे ही हैं जिनका स्वरूप ऊपर लिखा है। बाकी सब मिथ्या है। 1 णमो सिद्धार्ण' के बाद णमो आइरिमाण पत्र है। यह प्राकृत भाषाका है इसका संस्कृतमें आचार्य बनता है। इसका पहला अक्षर 'आ' है इसका अर्थ सूर्य और मर्यादा है। सो यहाँपर मर्यादा अर्थ लेना चाहिये और मर्यादाका अर्थ प्रमाण होता है। उसके 'चार्य' है जो चर धातुसे बना है। घर धातुका अर्थ रक्षण और पति है अथवा चर धातुका अर्थ गति और भक्षण है। सो प्रकरणवश यहाँ पर धातुका अर्थ गति लेना चाहिये । आ पूर्वक चर धातुसे आचार्य शब्द बना है। जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप और बोर्य इन पांच S-SATA-THE-TRA -RSHARELIPED Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकारके आचारोंको स्वीकार करें अथवा इन पांचों प्रकारके आचारोंमें जो गमन करें उनको आचार्य कहते हैं। लिखा भी है "दर्शनज्ञानचारित्रतपोवोन आचारन्ति इति आचार्याः ।" अथवा 'आ' का अर्थ आमंत्रण भी है। आमंत्रणका अर्थ सामने करना है। अथवा सामने होना है। पर्चासागर [ ३९३ ] जो दर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, वीर्य इन पांचों आचायोको अपने सामने करें अथवा जो स्वयं इन पाँचों आचारों के सामने हों उनको आचार्य कहते हैं। आगे इसको निरुक्ति कुछ और विशेषताके साथ लिखते हैं। जो वर्शन, ज्ञान, चारित्र, तप, वीर्य इन पांचों आचारोंके स्वरूपको रातदिन यथार्यरूपसे जाने, परमार्थसे जाने उनको 'सदाचार' कहते हैं सत् शब्द का अर्थ अचछा भला सुशोभित है। वित् शब्दका अर्थ सम्यग ज्ञान है जिसके सुशोभित होनेवाले पांचों गावारों से जाना हो, जो पांचों सत्रोंको परमार्थ से जाने उनको । सदाचारवित् आचार्य कहते हैं । जो गणधराविक महामुनियों के द्वारा अंगीकार किये हये, धारण किये हुए । आचरणोंको स्वयं सदाकाल आचरण करें उनको सवाचरितंचर आचार्य कहते हैं। अथवा सवा आचरण करने योग्य अर्थात मनिपरके योग्य दीक्षाकाल शिक्षाकाल आदि सबका अच्छी तरह आचरण कर जो कता चके उनको सदाचारितंचर आचार्य करते हैं। अथवा जो अन्य मनियोंसे पांचों आचारोंका अ । उनको आचार्य कहते हैं। इस प्रकार आचार्यपवको निशक्ति है । सो हो मूलाचारमें लिखा है-- सदाचारवित् सदाचरितंचरः आचारं यत्लाच्चर्यते तेनोच्यते आचार्यः। प्राकृत भाषामें भी लिक्षा है-- सदा आयारविदण्हू सदा आइरियं चरे आपारं आयारवंतो आइरिय उच्चते ॥ इस प्रकार यह आचार्य पद सिद्ध होता है सो इसको विभक्ति आदि पहले कहे हुए अरहन्त वा सिद्धके समान समझ लेना चाहिये । शस् विभक्ति लाकर द्वितीयाका बहुवचन आचार्यान् सिर कर लेना चाहिये । र अथवा नमः शब्दके योगमें चतुर्थी विभक्ति लगाकर 'नमः आचार्येभ्यः' बना लेना चाहिये। इन दोनोंका प्राकृतभाषामें 'णमो आइरिआणं' बन जाता है लोकमें ब्राह्मणोंमें भी कितने ही आचार्य होते हैं किन्हींका गोत्र आचार्य है, कोई रसोई मावि बनाने । Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर [ ३९४ ] F से आचार्य कहलाते हैं सो सब मिष्या है। वे नामके आचार्य हैं, यथार्य आचार्य नहीं हैं। पांच प्रकारके म आचारोंको पाले बिना आचार्य कहना सर्व मिथ्या है। भारतके शांतिपर्व में लिखा है ___अन्यथा नाममात्रं स्यादिन्द्रगोपस्य कीटवत् ।। अर्थात् "पवि गुण न हो तो केवल नाममात्रसे ही वह पदार्थ पुकारा जाता है। जैसे बरसातमें लालकोडेको इन्सको गाय कहते हैं।। इसके आगे 'णमो उवण्शायाण' ऐसा पद है। इसका संस्कृतमें 'नमः उपाध्यायेभ्यः' बनता है। यह उपाध्याय शब्द उप उपसर्ग पूर्वक इङ्ग अध्ययने धातुसे बनता है । जो अध्यापयति अर्थात् अध्ययन करावे उनको । अध्यापक वा अध्याय कहते हैं। जो द्वादशांग श्रुतज्ञानको स्वयं अध्ययन करें वा दूसरोंको अध्ययन करावे उनको अध्याय वा अध्यापक कहते हैं उसका अर्थ समीप है । जो द्वादशांगको समीप कर उध्ययन करावे उनको उपाध्याय कहते हैं। इन्हीं उपाध्यायको पाठक कहते हैं। यह पाठक शब्द पठ् धातुसे बनता है। जिसका । अर्थ पठनपाठन है। जो वादशांगको स्थयं पढ़ें या औरोंको पढ़ावें उनको पाठक कहते हैं । इस प्रकार उपाध्याय वा पाठक शब्द सिद्ध होता है । आगे प्रकारान्तरसे इसकी निक्ति लिखते हैं--- भगवान अरहन्तदेवने जो ग्यारह अंग, चौवह पूर्वरूप द्वादशांगका निरूपण किया है उसको जो अध्ययन करें, फरावे उनको उपाध्याय कहते हैं । सो हो मूलाचारमें लिखा है-- द्वादशांगंजिनाख्यानं स्वाध्यायः कथितोबुधैः । उपदिशति स्वाध्यायं तेनोपाध्याय उच्यते॥ प्राकत में भी लिखा है-- वारं संगं जिणक्खादं सज्झायं कथिदं बुधै। उवदेसइ सज्झाया तणोवज्झाय उच्चदि ।। स्वाध्यायोऽध्येतव्यः । जो अपने में व्यापक हो उसको स्वाध्याय वा उपाध्याय कहते है। अधि शम्वका अर्थ व्यापक है । जो द्वादशांगमें व्यापक हा, तल्लीन वा तन्मय हो, तवरूप हो उसको स्वाध्याय कहते हैं। जो द्वादशांग श्रुतज्ञानमें स्वयं लीन हो तथा औरोंको भी लोन कराधे, स्वयं पठन-पाठन करे वा औरोंको पठनपाठन करावे उसको उपाध्याय वा पाठक कहते है। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीमार ३१५ ] इसका द्वितीयाका बहुवचन शस् विभक्ति लगाकर अरहन्त, सिद्ध था आचार्य के समान उपाध्यायान बनाना चाहिये । उसके पहले नमो शब्द लगाकर नमो 'उपाध्यायान्' अथवा 'नमः उपाध्यायेभ्यः' पद सिद्ध होता है। इसोको प्राकृतभाषामें 'णमो उवज्लायाणं' कहते हैं। संसारमें ब्राह्मणोंमें भी बहुतसे उपाध्याय वा पाठक कहलाते हैं। परन्तु उनमें उपाध्यायोंके गुण नहीं म हैं वे केवल नाममात्रके उपाध्याय हैं जिस प्रकार वैष्णवों में एक वासुदेव हुआ है उसको कथा भागवत नामके पुराणमें लिखी है। सा जमार उपको 'भो नालाप्राचार्य, काथ्याय वा पाठक समझना चाहिये । वे सच्चे । ब्राह्मण वा पाठक नहीं हैं। जो शान्त हो, दांत वा तपश्चरणके क्लेश सहनेमें समर्थ हो, जिसके कर्ण शास्त्रकरि परिपूर्ण हो, इन्द्रियोंको दमन करनेवाला हो, परिग्रह त्यागो हो और जो गृहस्थोंको तरणतारण करनेमें समर्थ हो उसको ब्राह्मण कहते हैं। जिसने स्त्रीमात्रका त्याग कर दिया है, जो आचारवान् है, जिसने भोगोंका त्याग कर दिया। है और जो जितेन्द्रिय है उसीको गुरु कहते हैं। यही समस्त प्राणियोंको अभयदान देने योग्य है। ब्राह्मण ब्रह्मचयंसे ही कहलाता है जैसे जो शिल्पोका काम करे उसको शिलावट कहते हैं । जो ब्रह्मचर्य पालन नहीं करता। वह केवल नाम मात्रका ब्राह्मण है । जैसे बरसातमें होनेवाले लालकीड़े वा वीरबहटोको संस्कृतमें इन्द्रगोप कहते हैं। उसमें इन्द्रगोपके गुण नहीं है किन्तु नाम मात्रसे कोडेको हो इन्द्रगोप कहते हैं । उसी प्रकार बिना ब्रह्मचर्यके ब्राह्मण भी नाममात्रके ही समझना चाहिये । वह गुणसे ब्राह्मण नहीं है । जिसके सत्यता हो, तप हो, इन्द्रियोंका निग्रह हो, समस्त प्राणियों में क्या हो वही ब्राह्मण कहलाता है। जिसके सत्य नहीं है, तप नहीं है, इन्द्रियाँ वशमें नहीं हैं और जीवोंको क्या नहीं है वह ब्राह्मण नहीं है किंतु चांडाल है। क्योंकि ये बांगलके लक्षण हैं ब्राह्मणके नहीं हैं। ऐसा महाभारतके शांतिपर्वमें लिखा है। यथा ये शान्तदाता श्रुतपूर्णकर्णा जितेन्द्रियाः प्राणिवधे निवृत्ताः। परिग्रहैः संकुचिता गृहस्थास्ते ब्राह्मणास्तारयितु समर्थाः ।। त्यकदाराः सदाचारा मुक्तभोगा जितेन्द्रियाः । जायन्ते गुरवो नित्यं सर्वभूताभयप्रदाः॥ [३९. Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चरmarie- म ब्राह्मणा ब्रह्मचर्येण यथा शिल्पेन शिल्पिकः । अन्यथा नाममात्र स्यादिन्द्रगोपस्य कीटवत्॥ सत्यं ब्रह्म तपो ब्रह्म-ब्रह्म चेन्द्रियनिग्रहः । सर्वभूतदया ब्रह्म एतद् ब्राह्मणलक्षणम् ॥ वर्षासागर सत्यं नास्ति तपो नास्ति नास्ति चेन्द्रियनिग्रहः। सर्वभूतदया नास्ति एतच्चांडाललक्षणम् ॥ [३९६1 ऐसा महाभारतमें लिखा है। यदि को अपनी जातिमात्र से ही ब्राह्मणपनेका अभिमान करता है तो वह शूद्रके समान माना जाता है। भारतमें लिखा है--जो जातिसे शूद्र है परंतु जो शीलवतको पालन करनेवाला है, स्त्री मात्रका स्थागी है, ब्रह्मचर्य व्रतसे परिपूर्ण है तो वह गुणवान् ब्राह्मण कहलाता है। यदि कोई जातिसे ब्राह्मण होकर भी क्रिया. होन हो, व्यभिचारी हो, परस्त्रीलंपटी हो तो वह शूबके पुत्रके समान माना जाता है। सो ही भारतमें लिखा हैशूद्रोपि शीलसम्पन्नो गुणवान् ब्राह्मणो भवेत्। ब्राह्मणोपि क्रियाहीनःशूद्रापत्यसमो भवेत् ॥ इससे सिद्ध होता है कि जाति पूज्य नहीं है किंतु गुणपूज्य है। लिखा भी है "गुणाः सर्वत्र पूज्यन्ते। अर्थात् सब जगह गुण हो पूज्य होते हैं । यस चाणिक्यमें भी लिखा है--- गुणेषु यत्नः क्रियतां साटोपैः किं प्रयोजनं । विक्रियन्ते न घंटाभिर्गावः क्षीरविवर्जिताः॥ _ अर्थात् बिना दूधवाली गायके गलेमें चाहे जितने घंटे बांधो तब भी वह नहीं बिकती और दूधवाली गायके गलेमें एक भी घंटा न हो तो भी वह तुरंत बिक जाती है। इसलिये गुण धारण करने में प्रयत्ल करना चाहिये, व्यर्थके आडंबरसे कोई प्रयोजन नहीं है । कवाचित कोई यह कहे कि हमारी जाति और कुल हो पूज्य है चाहे वह गुणवान हो या न हो तो । इसका उत्तर यह है कि कहनेसे तो कोई मानता हो नहीं है इसलिये जो महाभारतमें लिखा है वही थोडासा ! यहाँ दिखाया जाता है। देखो वाल्मीक ऋषि भीलिनोके गर्भसे उत्पन्न हुए हैं तथापि वे तपसे हो ब्राह्मण कहलाये हैं । वशिष्ठऋषि उर्वशी नामको वेश्यासे उत्पन्न हुये हैं सो भो तपसे हो ब्राह्मण हुये हैं। पाराशर ऋषि चाण्डालिनीके गर्भसे जन्मे हैं तो भी वे तपसे ब्राह्मण कहलाये हैं। गार्ग्य नामके मुनि गर्दभीसे उत्पन्न हुये हैं। । वे भी तपश्चरणसे हो ब्राह्मण कहलाये हैं। ऋषि मुनि हिरणोसे उत्पन्न हुये हैं वे भी तपश्चरणसे हो । Rames [३९ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pाण गहे गये हैं। निमामि शानिमाणीके कुलसे उत्पन्न हुये हैं वे भी तपसे ही ब्राह्मण हुए हैं। मांडव्य ऋषि । मेंडकोसे जन्मे हैं वे भी तपसे हो ब्राह्मण हये हैं। विदुर नामके ऋषि वासीसे उत्पन्न हुये हैं तथापि वे तपसे है पर्यासागर ब्राह्मण हुये हैं। मत्स्यगंधा चोवरीसे वेदव्यासका जन्म है सो भी तपसे हो ब्राह्मण हुये हैं। इससे सिद्ध होता [ ३९७) है कि ब्राह्मण जातिको ऊँचता केवल जातिसे ही नहीं होतो किंतु ब्राह्मणकी पूज्यता तपसे हो होती है । सो है ही महाभारतमें लिखा है-- भिल्लिगर्भसमुत्पन्नो वाल्मीकस्तु महामुनिः। तपसा ब्राह्मणो जातःतस्माज्जाति नै कारणम् । । उर्वशीगर्भसंभूतो वशिष्ठोपि महामुनिः । तपसा ब्रह्मणो जातः तस्माज्जातिर्न कारणम् ।। चाडांलीगर्भसंभूतः पाराशर महामुनिः । तपसा ब्राह्मणो जातः तस्माज्जाति ने कारणम् ।। गर्दभीगर्भसंभूतो गाग्यों नाम महामुनिः। तपसा ब्राह्मणो जातः तस्माज्जातिर्न कारणम् ॥ । हरिणीगर्भसंभूतः ऋषिश्रृंगो महामुनिः । सपसा ब्राह्मणो जाता तस्मज्जाति ने कारणम्॥ क्षत्रियाणां कुले जातो विश्वामित्रो महामुनिः। तपसा ब्राह्मणो जातः तस्माज्जातिर्न कारणम्।। । मंडुकीगर्भसंभूतो माडव्योयं महामुनिः । तपसा ब्राह्मणो जातः तस्माज्जातिनं कारणम् ॥ दासीगर्भसमुत्पन्नो विदुरो यो महामुनिः। तपसा ब्राह्मणो जातः तस्माज्जातिर्न कारणम् ॥ इस प्रकार ऋषियोंको उत्पत्ति जातिहीन है परंतु इन्होंने तपरूपी गुणसे ब्राह्मण पद प्राप्त किया है। इसलिये जातिमात्रका अहंकार करना व्यर्थ है । गुण हो पूज्य होते हैं । कदाचित् कोई यह कहे कि हमारे श्रीकृष्णने कहा है ब्राह्मण चाहे विद्याहीन हो या विद्या सहित हो दोनों हो मेरे शरीररूप हैं, मेरे ही शरीर हैं। गुणवान् वा निर्गुण दोनों ही मेरे देह हैं। सो हो भगवद्गीतामें है लिखा हैअविद्यो वा सविद्यो वा ब्राह्मणो मामकी तनुः। [३५ इससे सिद्ध होता है कि ब्राह्मण सब भगवानका शरीर हैं । परंतु इसका उत्तर यह है कि शरीरके वो । भेव हैं एक उसमांग और दूसरा अधमरंग । उन दोनों से गुणवान ब्राह्मण तो भगवानके मुखभागके उत्तमांगके । BREAKERata Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर - ३९८ ] अधिकारी हैं और केवल जातिमात्रका अभिमान करनेवाले निर्गुणी ब्राह्मण भगवान के शरीर के अषमभाग गुदाके भागी हैं ऐसा श्रीकृष्णने ही कहा है। यथा सव ब्राह्मणो ह्यास्यमविधो मामकी मुदा । इस प्रकार भगवान शरीरमें भी जुवे जुदे भाग हैं उससे उत्पन्न हुए ब्राह्मण केवल नाममात्र से पूज्य नहीं होते किन्तु गुणसे हो पूज्य होते हैं। इसी प्रकार पहले कहे हुए आचार्य, उपाध्याय वा पाठक ऊपर कहे हुए गुणोंसे ही पूज्य हैं। केवल नामसे पूज्य नहीं होते । आगे पांचवां पद ' णमो लोए सम्बसाहूणं' ऐसा प्राकृत पद है। इसको संस्कृतमें 'नमो लोके सर्वसाधून्' अथवा 'नमः लोके सर्वसाधुभ्यः' बनता है । आगे इसकी निरुक्ति लिखते हैं। 'साधुकार्याणि साधयन्तीति साधवः' जो अच्छे कार्योंको सिद्ध करें उनको साधु कहते हैं । अथवा जो 'आत्महितानि साधयन्ति इति साधवः जो अपने आत्मा हितको सिद्ध करें उनको साधु कहते हैं। अथवा 'पंचमहाव्रतादि अष्टाविंशतिमूलोतरगुणादि साधुव्रताचरणं साधयन्ति इति साधयः' जो पंचमहाव्रत आदि अट्ठाईस मूलगुण या उत्तरगुणरूपी साधुओंके व्रतोंको वा धरणोंको सिद्ध करें उनकी साधु कहते हैं । इस प्रकार इसकी निरुक्ति है । साधु शब्दका अर्थ शोभनोक, अच्छा, योग्य, शिरोमणि और पूज्य है। जो शुभ कार्योको सिद्ध करें उनको साधु कहते हैं। अथवा निर्वाणको सिद्ध करनेवाले और मोक्ष प्राप्त करनेवाले ऐसे योग ध्यान वा भूलगुणाविक तपश्चरणको जो रात-दिन समस्त समय में अपनी आत्मामें सिद्ध करें उनको साधु कहते हैं । तथा जो छहों कायके समस्त प्राणियों में समताभाव धारण करें उनकी साधु कहते हैं । सो ही मूलाचार में लिखा हैनिर्वाणसाधकान् योगान् सदा युजन्ति ते साधवः । सर्वेषु भूतेषु समभावं प्राप्नुवन्ति ते साधवः ॥ प्राकृत भाषामें भी लिखा है णिव्वाणसाध जोगे सदा जुजुति साधवो । समा सब्र्व्वसु भूदेसु तम्हा ते सव्वसाधवो ॥ इस प्रकार साधुपवकी निरुपित है । इस मध्यलोकके ढाईद्वीपमें अर्थात् दोनों समुद्रवर्ती तथा पांच भरत, पांच ऐरावत और पांचों महा AJA [1 Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चान चिसिागर चाहिन्नाचा-चाचा- विवेहोंमें रहनेवाले साधुओंको लोके सर्वसाधु ऐसा कहते हैं। इसके रूप भानु शवक्के समान चलते हैं । शस्। विभक्ति लगा कर लोके समान ऐसा हिलोणाला नामुमत जनता। इसके पहले नमो शब्द लगानेसे 'नमो लोके सर्वसाधून्' बन जाता है। इस संसारमें संयोगी साधु, अयोगी साधु, रामवत् नोमावत्, विष्णुस्वामी, माधवाचार्य आदि कितने ही साधु कहलाते हैं तथा निर्मोही नागा, साखी, दादुपंथी कबीर रामचरण क्यालके शिष्य आदि कितने ही प्रकारके साधु कहलाते हैं। परंतु वे सब गुणोंसे साधु नहीं हैं केवल जातिमाप्रसे साधु कहलाते हैं । जिस प्रकार किसीकी जाति क्षत्रिय है. किसीकी वैश्य है. किसीको ब्राह्मण है तथा किसीको शव है। उसी प्रकार उन साधुओंको जाति भी साधु ही है वे केवल नाम मात्रके साधु हैं । यदि उनको नाम मात्रसे साधु न माना जाय। तो फिर उनमें शस्त्र धारण करना, खेती करना, विवाह करना, व्यापार करना, हिंसादिक महारम्भ करना, । वस्त्राभरण धारण करना, खाद्य-अखाद्य भक्षण करना, हिंसा, सूट, चोरी, कुशील, परिग्रह आदि पांचों पापोंमें । तल्लीन रहना, मन्त्र, यंत्र, तंत्र, ज्योतिष, वैद्यक, शिल्प, गोत, नृत्य, वावित्र आदिके द्वारा जीविका करना, आकर्षण स्तम्भन मोहन, वशीकरण, मारण, उच्चाटन आवि विद्याओंके द्वारा आजीविका करना, असि-मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प, पशुपालन आदिमें तल्लीन रहना और मोक्षके उपायोंसे बहुत दूर रहना आदि क्रियाएँ । फैसे बन सकेंगी। जो नाम मात्रके साधु है वे ही इन क्रियाओं को करते हैं । उनको साघु मानना मिथ्या है। यदि भेषमात्रको ही साधु माना जाय उनमें गुण न देखा जाय तो इस संसारमें भाड़ भी भेष धारण कर लते हैं, । साधु बन जाते हैं उनको भी साधु मानना पड़ेगा । इसलिए जिनमें ऊपर लिखे गुण हों, जो मोक्षके साधक हों उनको सच्चे साधु कहते हैं अन्यथा नहीं। कबाचित् कोई यह कहे कि इन साधुओंमें सब हो तो ऐसे नहीं होते। इनमेंसे कितने हो पंचाग्नि तप । तपते हैं, कोई ऊर्ध्वबाहु ( ऊपरको मोह उठाये रखना ) ऊर्वपाव ( ऊपरको पैर उठाये रखना ) अघोशीश (नोचेकी ओर शिर लटकाये रहना ) आदि तपोंके द्वारा अनेक प्रकारका कष्ट सहते हैं। कितने हो फेवल दूध पोकर रहते हैं, कितने हो पत्ते, पुष्प-फल, कन्दमूल आदिका ही आहार करते हैं, अन्न नहीं खाते। कितने ही संयमी हैं । कितने ही मौनी हैं, कितने ही ध्यानी है, कितने ही भजनानन्दि हैं सो इन सबका निषेध क्यों है Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चासागर [४०] करते हो। परन्तु इसका उत्तर यह है कि ये सब प्रकारके साधु षटकायिक जीवोंको हिंसा पूर्वक अपने सब। कार्य करते हैं, सब क्रोध, मान, माया, लोभके वशीभूत हैं और सब अज्ञान, तप करनेवाले हैं। परमार्थ स्वरूप आत्माको जाननेवाले कोई नहीं हैं। इनमें से कितने हो मांसभक्षक हैं, कितने ही मद्य पीते हैं, कितने हो स्वरूप भारमाका जाननेवाले कोई नहीं अन्य प्रकारसे जीवोंके घातक हैं। इस प्रकार सब साधु अधोगतिके कारणोंको करनेवाले हैं । इनमेंसे कोई गिर, कोई पुरा, कोई नाय मावि नामसे कहलाते हैं परन्तु इनमेंसे मोक्षके पात्र कोई नहीं हैं। इसी प्रकार ब्राह्मणोंमें कान्यकुब्ज आदि कितने ही ब्राह्मण ऐसे हैं जो मांसभक्षक हैं, शक्तिके उपासक ब्राह्मण मध, मांसका । भक्षण करते हैं इसलिये कहना चाहिये कि न तो ऐसे साधु ही साधु हैं और न ऐसे ब्राह्मण हो साषु हैं । इस लिये ऊपर लिखे गणोंसे पुण्य ही साध हैं। सम्यग्दष्टियोंको उन्हींको पूजा करना चाहिये। प्रश्न--पर लिखे हए नाथ, गिर आदि साध भो तप करते हैं महा कष्ट सहते हैं। सो इनका फल भो अच्छा ही होगा । तप और कष्ट व्यर्थ तो न जायगा ? उत्तर-अज्ञानतपका फल भवनत्रिक आदि असुरोंमें उत्पन्न होना बतलाया है सो वहाँके फल भोगकर फिर वे निगोदके पात्र होते हैं । इसलिये वे मोक्षमार्गके पात्र साधु नहीं कहे जा सकते। । प्रश्न-इस समय ऐसे अतिथि वा साधु कोई नहीं हैं जिनको माना जाय ? - उत्तर-संसारसे अतिथि वा साधुजन बे हो मानने योग्य हैं जो स्नानके त्यागी हों, भोगोपभोगोंसे रहित हों, तिलक, श्रृंगार, अलंकार, आभूषण आदि सबसे रहित हों, जो शहद, मांस, मद्यके त्यागी हों उन्हों. को गुणवान् अतिमि कहते हैं । जो सत्यता, निष्कपटता, दया आदि गुणोंसे सुशोभित हों, जीवहिंसा आदि पापारम्भोंसे सर्वथा रहित हों, जो वेला, तेला आवि उग्र-उप महा सपश्चरणसे सुशोभित हों चे हो निश्चयसे अतिथि वा साधु कहलाते हैं। तिथि पर्व वा त्योहारका नाम है । जिसने तिथि वा पर्वके दिनोंके समस्त उत्सवों का त्याग कर विया है सो हो अतिथि वा साधु कहलाते हैं । जो अतिथि वा त्योहारोंके उत्सवोंको मानते हैं घे कभी अतिथि वा साधु नहीं हो सकते। ऐसे लोगोंको प्राघूर्णक वा पाहुना कहते हैं। जब किसी घरमें। पाहुना आता है तब उसके सामने अनेक प्रकारको भोजनपानको सामग्री, शरपा, आसन आदि देकर उसको प्रसन्न करते हैं परन्तु उनको साधु वा अतिथि नहीं कहते, पाहुना कहते हैं। सो ही महाभारतके शांतपर्वमें लिखा है ४०० Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्नानोपभोगरहितः पूजालंकारवर्जितः । मधुमासनिवृत्तश्च गुणवानतिथिर्भवेत् ॥१॥ सत्यार्जवदयायुक्तः पापारम्भविवर्जितः । उग्रोग्रतपसायुक्तः जानीयादतिथिर्बुवम् ॥२॥ वर्षासागर तिथिः पर्वोत्सवाः सर्वे स्यक्ता येन महात्मना।अतिथि तं विजानीयात् शेषं प्राणकं विदुः ।। [ १] ऐसे अतिथि या साधु कहलाते हैं। बाकीके सब नाममात्रके साधु हैं सो सब व्यर्थ हैं। इनके सिवाय श्वेताम्म राम्नायके चौरासो गचछ हैं उनमेंसे भी लोंकागच्छ निकला है तथा लोंकागच्छमेले भी ढूंढिया साधु तथा भीष्म साधु आदि अनेक गच्छ वा भेष निकले हैं सो वे सब साधु नाममात्रके नाम ! रखने योग्य साषु हैं। वे अपनी हो शास्त्रोंसे विपरीत चलते हैं इसलिये वे कभी साधु नहीं कहलाये जा सकते। इनका विस्तार पूर्वक वर्णन भद्रबाहु चरित्रमें तथा अन्य कितने हो शास्त्रों में किया है इनकी उत्पत्ति मावि सब लिखी है सो वहाँसे जान लेना चाहिये । इनके इतिहासका, आचरणोंका दिगम्बर आम्नायके विरुद्ध चौरासी चर्चाओंका तथा और भी अनेक प्रकारके इनके शिथिलाचारका वर्णन वसुनम्बिश्रावकाचारको वचनिका लिखा है वहाँसे जान लेना चाहिये। तथा कुछ इनका स्वरूप आगे भी लिखेंगे । यहाँ विस्तार होनेके हरसे । नहीं लिखा है। इससे सिद्ध होता है कि पहले कहे हुए अट्ठाईस मूलगुणोंसे जो सुशोभित हैं और जो रत्नत्रयको धारण । करते हैं वे हो सच्चे साप हैं । अन्यथा केवल नाममात्रके धारो हैं । सो हो विष्णुपुराणमें लिखा हैमुडनात्श्रमणो नैव संस्काराद् ब्राह्मणेन च । मुनि रण्यवासिवाद बल्कलान च तापसः॥ इससे सिद्ध होता है कि केवल मुंडन करनेमें वन में, रहने आविसे साष नहीं हो सकता । कोई-कोई कहते हैं कि जन्मसे तो शुद्ध हो होता है फिर संस्कारसे ब्राह्मण होता है । जिसको विज कहते हैं । । यमा जन्मना जायते शूद्रः संस्काराद्विज उच्यते ॥ सो भी ठीक नहीं है। क्योंकि केवल संस्कारमात्रसे हो ब्राह्मण नहीं हो सकता और न केवल बनमें रहनेसे मुनि हा सकता है तथा भोजपत्र, वृक्षको छाल आदिका लंगोट लगाने वा छाल ओढ़नेसे तापसी नहीं हो सकता। यह तो केवल बाह्य भेष है परन्तु गुणोंके बिना केवल बाह्य भेष कार्यकारी नहीं है। सो हो। भारतमें लिखा है ५१ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ४०२ ] =\W~~}} यद्वत्काष्ठमयो हस्ती यद्वच्चर्ममयो मृगः । ब्राह्मणस्तु क्रियाहीनस्त्रयस्ते नामधारकाः ॥ अर्थात् काठका बना हुआ हाथी, चमड़ेका बना हुआ हिरण और क्रियाहीन ब्राह्मण ये तीनों हो केवल नामको धारण करनेवाले हैं। काठका बना हाथी केवल नामका हाथो है, चमड़ेका बना हिरण केवल नामका हिरण है उसी प्रकार क्रियारहित ब्राह्मण अथवा केवल जातिमात्रका ब्राह्मण नाममात्रका ही ब्राह्मण समझना चाहिये । वह गुणसे ब्राह्मण नहीं कहा जा सकता 1 इस प्रकार पंच णमोकार मंत्रके पाँचों पद सिद्ध हुए। सबको इकट्ठा लिखने से "नमः अरिहंतान्, नमः सिद्धान् नमः आचार्यान् नमः उपाध्यायान्, नमो लोके सर्व साधून् । इस प्रकार सिद्ध होते हैं। अब इनकी द्वितीयाके बहुवचन और प्राकृत भाषा के शब्दोंको मिलाकर यंत्र रचनाके द्वारा दिखलाते हैं। यदि इन्हीं शब्दोंकी ष्ठीका बहुवचन बनाया जाय तो इन शब्दोंसे आम् विभक्ति लगाकर नु का आगम करते हैं न् आम् नाम् हो जाता है, नाम परे रहते अकारको दोघं हो जाता है न सब क्रियाओंको कर लेने पर अरहंताणं, सिद्धानां आचार्यानां, उपाध्यायानां तथा भानु शब्द के समान सर्वसाधूनां सिद्ध होते । नमः शब्दके लगानेसे इन सबको नमस्कार हो, ऐसा अर्थ होता है । प्राकृत भाषाके अनुसार इन सब विभक्ति सहित शब्दोंकी यंत्र रचना इस प्रकार है । षष्ठीका बहुवचन नमो अरिहंतानां संस्कृत द्वितीयाका बहुवचन नमो अरिहंतान् नमो सिद्धान् नमो आचार्यान् नमो उपाध्यायान् नमो लोके सर्वसाधून नमो सिद्धान नमो आचार्याणाम् नमो उपाध्यायानाम् नमो लोके सर्वसाधूनाम् प्राकृत भाषाका पाठ णमो अरिहंताणं अथवा णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरिणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्व साहूणं [ ४०२ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ४०३] grease-memaSHOLE-HeremRWANSITARATHI प्रश्न-इस णमोकार मंत्रमें नमः शब्द है । इसके योगमें चतुर्थो विभक्ति होती है । सो तुमने द्वितीया और षष्ठोका रूप क्यों लिखा है। चतुर्थी विभक्तिका हो रूप लिखना चाहिये। ___समाधान-चतुर्थो विभक्ति भी होती है परंतु द्वितीया, षष्ठीका निषेध नहीं है । आगे प्रश्नके अनुसार चतुर्थो विभक्तिका भी रूप दिखलाते हैं। णमो अरहंताणं-नमोहंदभ्यः अरहंतोंके लिये नमस्कार हो । णमो सिद्धाणे नमः सिद्धेभ्यः सिद्धोंके लिये नमस्कार हो। णमो आइरिआणं नमः आचार्येभ्यः आचार्योंके लिये नमस्कार हो । णमो उवज्झायाणं नमः उपाध्यायेभ्यः उपाध्यायोंके लिये नमस्कार हो । णमो लोए सम्बसाहूणं नमः लोके सर्वसाधुभ्यः लोकमें समस्त साधुओंके लिये नमस्कार हो। इस प्रकार द्वितीया चतुर्थी और षष्ठी तीनोंके रूप सिद्ध होते हैं। अरहंत, सिद्ध, भाचार्य, उपाध्याय साप इन पांचोंको परमेष्ठो कहते हैं । पर शब्दका अर्थ उत्कृष्ट है। #मा शब्दका अर्थ लक्ष्मी है। इन दोनोंके मिलानेसे परम शब्द बनता है । इसका अर्थ उत्कृष्ट लक्ष्मी होता है। इसके आगे उसको सप्तमीका एकवचन परमे बनता है । इसके आगे षष्ठी शब्द है जो स्था धातुसे बना है । स्था पातुका अर्थ रहना वा ठहरना है। जो उत्कृष्ट लक्ष्मीमें ठहरें, निवास करें उनको परमेष्ठी कहते हैं। । संसारमें सबसे उत्कृष्ट लक्ष्मी स्वात्मस्वरूप है, जो अपने शुद्ध आत्मामें ठहरे निवास करें उनको परमेष्ठी कहते हैं ।। र अरहतादिक पांचों ही अपने शुद्ध आत्मामें निवास करते हैं इसलिये घे पांचों ही परमेष्ठी कहलाते हैं। "अर्ह तादि पंचानां परमेष्ठीनां संहारः इति पंचपरमेष्ठी" ऐसी इसको निरुक्ति है । इस प्रकार ये पांचों हो परमेष्ठी। कहलाते हैं। आगे इन परमेष्ठियोंके गुण बतलाते हैं। अरहता छीयाला सिद्धा अट्टेव सूरि छत्तीसा । उवज्झाया पणत्रीसा अठवीसा होंति साहणं ॥ अरहंत भगवानके छपालोस गुण हैं उनमेंसे दस जन्मके अतिशय, दस केवलज्ञानके अतिशय और । चौदह देवकृत अतिशय ऐसे चौंतीस अतिशय हैं, आठ प्रातिहार्य हैं और चार अनंतचतुष्टय हैं। इस प्रकार छयालीस गुण होते हैं। भगवान अरहंत परमेष्ठी समवसरणको बाह्य लक्ष्मीसे सुशोभित हैं और अनन्त- । चतुष्टयरूप अंतरंग लक्ष्मोसे सुशोभित है वोनों प्रकारको लक्ष्मीसे सुशोभित होनेके कारण भगवान अरहंतदेव परमेष्ठी कहलाते हैं। Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर or ] शाय T कोई-कोई लोग ब्रह्मा को ही परमेष्ठी कहते हैं। लिखा भी हैब्रह्मात्मभूः सुरज्येष्ठो परमेष्ठी पितामहः । सो ठीक नहीं है पहलु हो जो राग बढ़ा लिया था, पात्र, दण्ड, कमआदि उसके सदा साथ रहनेवाले पदार्थ उसको अकृतार्थताको सिद्ध करते हैं। जिसने तपसे भ्रष्ट होकर और क्रोधित होकर इन्द्रादिक देवताओंसे युद्ध किया ऐसा रागी, द्वेषी, क्रोधी, ब्रह्मा, परमेष्ठी कैसे हो सकता है। जो क्षुषा, तृषा मावि अठारह दोषोंसे रहित हों और सर्वश हों ऐसे भगवान अरहन्तदेव ही ब्रह्मा कहे जा सकते हैं और वे ही परमेष्ठी कहलाते हैं । अकलङ्काष्टक स्तोत्र में लिखा है--- उर्वश्यामुदपादि रागबहुलं चेतो यदीयं पुनः । पात्री दंड कमंडलुप्रभृतयो यस्या कृतार्थस्थितिम् ॥ आविर्भावयितु भवन्ति स कथं ब्रह्मा भवेन्मादृशां । चाहिये । क्षुत्तृष्णाश्रमरागरोगरहितो ब्रह्मा कृतार्थोस्तुनः ॥ ऐसा श्री अलबेवकृत अफलकस्तोत्रमें लिखा है। तथा इनका विशेष स्वरूप धर्मपरीक्षा से जान लेना ब्रह्मा का अर्थ सबसे बड़ा है। जो सबसे बड़ा हो, सबसे प्रथम हो, पूज्य हो उसको ब्रह्मा कहते हैं ऐसे ब्रह्मा श्रीवृषभदेव हो हो सकते हैं और नहीं भगवान सिद्धपरमेष्ठीमें आठ गुण है । यथा सम्मत णाण दंसण वीरिय सुहमं तव अवगणं । अगरुलहु अव्यवाहं अट्ठगुणा होंति सिद्धाणं ॥ अर्थात् सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, बीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहन, अगुरुलघु और अव्याबाध ये आठ गुण सिद्धों में होते हैं। इस प्रकार जो आठ गुणरूपी बाह्य लक्ष्मोसे तथा अनन्त गुणरूपी अन्तरंग लक्ष्मोसे सुशोभित हैं जो मोक्षरूप या शुद्ध आत्मस्वरूप सर्वोत्कृष्ट स्थानमें विराजमान हैं उनको सिद्ध परमेष्ठी कहते हैं । संसारमें बहुत से लोग महादेवको हो सब देवोंका देव, सबमें बड़ा देव महादेव वा शिवरूप कहते हैं सो [ ४०४ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 1 ठीक नहीं है। महादेव कभी भी शिवरूप वा देवोंके देव महादेव नहीं हो सकते। यदि महादेव ईश्वर हैं तो। सब देवोंने सथा ऋषियोंने उसका लिंग क्यों काट डाला । जब उसका लिंग कट रहा था तब उसको ईश्वरता सामर कहाँ चली गई थी। मा विशेष वर्णन धर्मपरीक्षासे जान लेना चाहिए । बहुतसे लोग इसी महादेवको विगतभय वा भयरहित कहते हैं परन्तु यदि वह भयरहित होता तो हाथमें त्रिशूल क्यों लिए रहता क्योंकि बिना भयके कोई शस्त्र धारण नहीं कर सकता । इसलिए वह भयरहित भी नहीं है इसी प्रकार इसको सबका स्वामी वा सबका नाथ कहते हैं परन्तु यदि वह सबका स्वामी होता तो भीख क्यों मांगता ? भिखारीके बिना कोई भीख नहीं मांगता । इसलिए वह सबका स्वामी भी नहीं है। इसके सिवाय महादेवको यति कहते हैं । परन्तु यह भी ठीक नहीं बनता क्योंकि यदि वह यति होता तो गंगा, गौरो, भीलनी आविसे रमण कैसे करता? तथा यदि यह यति होता तो स्वामिकात्तिकेय आदि उसके पुत्र कैसे होते। यति तो वही हो सकता है जो समस्त विषय कवाय वा इन्द्रियोंको जोते। सो ये गुण उसमें है नहीं। इसलिए वह कभी यति नहीं हो सकता। यदि महादेव यति होता तो उसके पास लक्ष्मी क्यों नहीं दिखाई पड़ती। उसका तो स्वरूप महा बरिद्र है। उसके शरीरपर भस्म है, ओढ़ने-बिछानेको हिरणका चमड़ा है। हाथमें मनुष्यको खोपड़ी है। गलेमें मनुष्योंकि डोंकी माला है, एक सर्व है, मस्तकपर जटाएं हैं। कमरमें लैंगोट है। अथवा नग्न रहता है। इस प्रकार । उसका भयङ्कर रूप है, श्मशानमें वह रहता है, श्मशानमें ही सोता है, बैठता है, लेटता है तथा भूत-प्रेतोंमें , त किस प्रकार हो सकता है। इसी प्रकार उसको अजन्मा वा स्वयंभ कहते हैं। जो बिना जन्मके स्वयंसिद्ध हो उसको स्वयंभू कहते हैं सो वह स्वयंभू भी नहीं हो सकता। क्योंकि यदि वह स्वयंभू । होता तो आमि उत्पन्न हुआ क्या कहलाता ? लोग उसको वेत्ता भी कहते हैं परन्तु वह वेत्ता होता तो अपने । । विघ्नोंको तो जानता? सो वह अपने विघ्नोंको भी नहीं जानता । इसलिए वह वेता नहीं है इसी प्रकार उसको पशुपति कहते हैं इसी प्रकार उसको कितनी हो विरुद्ध चेष्टाएं या विरुद्ध नाम बतलाते हैं। उसको इस सृष्टिका पहरण करनेवाला वा मारनेवाला बतलाते हैं और शिव भी कहते जाते हैं। परन्तु जो घातक है यह शिव वा कल्याणरूप कैसे हो सकता है । इनका सिद्धांत है कि ब्रह्मा सृष्टिको उत्पन्न करता है, विष्णु रक्षा करता है । और शिव उसका संहार वा भक्षण करता है सो ऐसा अनर्थ करनेवाला महादेव शिवरूप वा मोक्षल्प कल्याणमय कभी नहीं हो सकता। सो हो लिखा है Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर [ ४०६ ] ईशः किं छिन्नलिंगो यदि विगतभयः शूलपाणिः कथं स्यात् । नाथः किं भैक्ष्यचारी यतिरिति स कथं सांगनः सात्मजश्च ॥ आर्द्राजः किन्त्वजन्मा सकलविदित किं वेत्ति नात्मान्तरायं । संक्षेपात्सम्यगुक्त पशुपतिमपशुः कोत्र धीमानुपास्ते ॥ इससे सिद्ध होता है कि महादेव सब देवोंका देव वा शिवरूप मोक्षरूप नहीं हो सकता । जो आठों कर्मोसे रहित हैं वे ही शिव वा सिद्ध हो सकते हैं। तीसरे परमेष्ठी आचार्य परमेष्ठी है के आचार्य परमेष्ठी पंचाचार आदि छत्तीस गुणरूपी बाह्य लक्ष्मीसे तथा रत्नत्रयरूपी अन्तरंग लक्ष्मीसे सुशोभित रहते हैं तथा अपने शुद्ध आत्मारूपी सर्वोत्कृष्ट स्थानमें लोन रहते हैं इसलिये वे आचार्य परमेष्ठी कहलाते हैं। सो ही नीतिसारमें लिखा हैपंचाचाररतो नित्यं मूलाचारविदग्रणीः । चातुर्वर्णस्य संघस्य स आचार्य इतीष्यते ॥ चौथे पदमें उपाध्याय परमेष्ठी है वे उपाध्याय परमेष्ठी पच्चीस गुणरूपी बाह्य लक्ष्मीसे तथा रत्नत्रयरूपी अन्तरंग लक्ष्मीसे सुशोभित रहते हैं तथा शुद्ध आत्मस्वरूप उत्कृष्ट स्थानमें सदा लोन रहते हैं । इस लिये वे उपाध्याय परमेष्ठी कहलाते हैं । सो हो नीतिसारमें लिखा है अनेक भयसंकीर्णशास्त्रार्थविक्कुतिक्षयः । पंचाचाररतोज्ञेय उपाध्यायसमाहिते || पांचवें पदमें सर्व साधु परमेष्ठी हैं । वे साधु परमेष्ठी अट्ठाईस मूलगुणरूपी बाह्य लक्ष्मीसे तथा रत्नत्ररूपी अन्तरंग लक्ष्मीले सुशोभित रहते हैं और निज शुद्धात्मरूपी परम स्थानमें विराजमान रहते हैं। इसलिये ये साधु परमेष्ठी कहलाते हैं। सो ही नीतिसारमें लिखा हैसर्वद्वन्द्वविनिर्मुको व्याख्यानादिषु कर्मसु । विरक्तो मौनवान् घ्यानी साधुरित्यभिधीयते ॥ [ ४० इस प्रकार सिद्ध होता है कि अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्व साधु ये पांचों ही परमेष्ठी हैं और इन्हीं वाचक णमोकार मंत्र है । इसलिये यह णमोकार मंत्र पंच परमेष्ठीका वाचक है । earer कोई यह कहे कि यहाँपर "गमोअरहंताणं" पाठ सिद्ध किया है सो "नमो अरहंताणं" " Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर - ४०७ ] |_ ऐसा क्यों नहीं सिद्ध किया ? तो इसका उत्तर यह है कि यह प्राकृत भाषाका शब्द है । संस्कृतका नहीं है। प्राकृत भाषामें नकारको णकार हो जाता है। इसलिये णमो ही बनता है । नमो नहीं । कदाचित् कोई यह कहे कि संस्कृत ही बना लेगा यहिये । नमो अरहंतान् अथवा नमो मरहंतानां ऐसा बना लेना चाहिये वा नमोर्हद्भ्यः बना लेना चाहिये । सो भी ठीक नहीं है क्योंकि यह मूलमन्त्र अनावि है । आम्नायपूर्वक ऐसा ही चला आ रहा है । इसलिये इनको इसी प्रकार " णमो अरहंताणं" इसी रूपमें पढ़ना चाहिये । इस णमोकार मन्त्रकी महिमा अपरम्पार है । जो जोब इसका जप करते हैं वे इच्छानुसार फल पाते हैं। इस मन्त्रके प्रसादसे पहले अनेक जीव तिर चुके हैं। अब अनेक जीव तिर रहे हैं और आगे अनेक जीव तिरेंगे । इस महामन्त्रके गुणोंकी महिमा अनंत है, अपार है, योगी लोग भी इसकी महिमाका पार नहीं पा सकते फिर अन्य तुच्छ बुद्धिवाले तो इसका पार कैसे पा सकते हैं। इस महामन्त्रको जपनेवाले वा धारण करनेवाले अनेक जीव अनेक प्रकारके फलोंको पाकर स्वर्गादिक उत्तम गतियोंमें उत्पन्न हुये अथवा केवलज्ञान पाकर मोक्ष पधारे। अनेक जीवोंके अनेक प्रकारके विघ्न दूर हुए। इस्थादि इस महामन्त्रके गुणोंको महिमाका वर्णन पुण्यास्तव, आराधना कथाकोश, व्रतकथाकोश, पादचंपुराण, महापुरा, हरिवंशपुराण, पद्मपुराण आदि अनेक जैन शास्त्रों में कथासहित बहुत विस्तारके साथ वर्णन किया है। वहाँसे देख लेना चाहिये । वह सब यहाँ लिखा नहीं जा सकता । 1 इस महामन्त्र जप करनेके और भी बहुतसे प्रकार हैं। जैसे पैंतीस अक्षरका मन्त्र, सोलह, छह, पाँच चार, वो, एक आदि अक्षरोंके मन्त्रों द्वारा तथा गुरुके उपवेशानुसार अन्य मन्त्रोंके द्वारा इसका ध्यान वा चितवन करना चाहिये । सो ही लिखा है पणतीस सोल छप्पण चदु दुगमेगं च जवह झाएह । परमेट्ठि वाचयाणं अण्णंचगुरूवएसेण ॥ - द्रव्य संग्रह गाथा ४९ । पैंतीस अक्षरका मंत्र णमो अरहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरिआणं । णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं ॥ • DES M [ vot Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोलह अक्षरका मन्त्र-"अहत्सिवाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नमः" अथवा "अरहंत सिद्ध आइ-1 रिया उचजमाया साह" है। छह अक्षरका मंत्र-"अरहंत सिद" पांच अक्षरका मंत्र-"असि आ उ सा" सागर चार अक्षरका मन्त्र-'अरहंस' हे अथवा 'अर्हस्सिव' है। दो अक्षरका मन्त्र "सिद्ध" वा 'अहं' है। एक अक्षर का मंत्र-४' वा 'अ' है। ये सब मन्त्र पंच परमेष्ठोके वाचक है । सब णमोकारमय हैं। इनके जप करने 1 की धा चिन्तवन करनेको विधि पहले लिख चुके हैं। वहाँसे जान लेना चाहिये। ऐसे इस पंच परमेष्ठीके वाचक णमोकार मन्त्रको हमारा बार-बार नमस्कार हो । यह णमोकार मंत्र । संसारके परिभ्रमण और कर्मोदयसे उत्पन्न हुए अनेक प्रकारके दुःखोंको दूर करो तथा ज्ञानावरणादि माठों कोका नाश करो। इसके प्रसाबसे शुद्धात्मस्वरूपका और रत्नत्रयका लाभ हो, सुगति प्राप्त हो, समाधिमरण हो, भगवान अरहन्तदेवके अनंत चतुष्टय आविक छयालीस गुण प्राप्त हों। इस णमोकार मन्त्रके प्रसादसे हमारे ये सब पदार्थ प्राप्त हों ऐसी प्रार्थना है, वह पूर्ण हो । णमोअरहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरिआणणभो उबझायाणं णमो लोए सव्वसाहणं ऐसे इस णमोकार मंत्रका जप करो तथा भव भव यही हमारे शरण हो । हमने अपनी तुच्छ बुद्धिके अनुसार णमोकार मंत्रका स्वरूप बहुत थोड़ासा बसलाया है परंतु इसका । वर्णन करना महान कार्य है यदि इसमें कोई भूल रह गई हो तो विशेष बुद्धिमान लोग क्षमा करें। २०५-चर्चा दोसौ पांचवीं प्रश्न-तीर्थकर आदिक पदवीधर पुरुषोंपर जो चमर बुलाये जाते हैं उनका प्रमाण क्या है ? समाधान-श्री तीर्थकर केवली भगवानके तो सवा चौसठ चमर दुलते रहते हैं। चक्रवर्तीके बत्तोस लते हैं, नारायणके सोलह, महामंडलेश्वरके आठ, अधिराजके चार और महाराजके वो घमर दुलते हैं। सो हो लिखा है [ ४०८ तीर्थकराणामिति चामराणि चत्वारि षष्ठयात्यधिकानि नित्यं । अद्धिमानानि भवन्ति तानि चक्रेश्वरायावदसो सुराजा। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SIRape- २०६-चर्चा दोसौ छहवीं प्रश्न-स्वयंभूरमण तोप और समुद्रके पशु पक्षियोंकी आयु उत्कृष्ट है परन्तु यहाँके पशु पक्षियोंको । पासागर । फितनी है ? ४०१1 समाधान-ज्योला, चहे, घस, बाघ, चोते, कबूतर, कुत्ते और सूअर आदि पशुओंको आयु भगवान अरहंत देवने बारह वर्षको बतलाई है तथा इसी प्रकार अन्य पशुओंकी भी यथायोग्य होन बा अधिक समस लेनी चाहिये । हो हो त्रिलोकानप्तिा लिया है। नकुलानां मूषकानां घुषकानां तथैव च । व्याघ्रचित्रकपोतानां मंडलानां जिनोदितम् ॥ शुकराणां तथैवात्र संवत्सराणां द्विषट् मतम् । २०७-चर्चा दोसौ सातवीं प्रश्न-मुसलमान आदि कितने ही यवन, कितने ही शूद्र, कितने ही क्षत्रिय तथा अधोगतिक पात्र । कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञानको धारण करनेवाले अपने वचनोंकी चतुरतासे अपनेको बड़े बुद्धिमान माननेवाले ऐसे कितने ही ब्राह्मणादिक अपनी इन्द्रियोंको पृष्ट करनेके लिये महा अधर्म रुप वचन कहते हैं। वे कहते हैं कि । जीवोंका आहार हो जीव है । जीवोंके आहारके बिना यह जीव जोषित नहीं रह सकता। इस संसा पल नहीं सकती। चावल, जौ, गेहूँ, उड़द, मूंग, मसूर, चना, ज्वार आदि अनेक धान्य हैं तथा पाक, पत्र, फल, पुष्प, जल आदि अनेक भक्ष्य वा खाने योग्य पदार्थ हैं परंतु इन सबमें जोच है, बिना जीवके इनमें कोई नहीं है। तया धान्योंको धा शाक, फल आदिको सब भक्षण करते हैं उसी प्रकार हम पशु, पक्षी आदि जीवोंके मांसका। । भक्षण करते हैं । क्या अन्न आदिम जोव नहीं है। क्योंकि बिना जोवके पृथ्वीपर बोनेसे कैसे उत्पन्न हो जाते है और उनपर फल, पुष्प आदि कैसे लग जाते हैं इससे सिद्ध होता है कि जीव सबमें हैं। हाँ, अंतर केवल इतना है कि मांसादिकके खानेसे एक जोवके मांससे अनेक जीवोंका पेट भर जाता है इसलिये मांस खानेवाले को एक जीवको हिंसाका थोड़ासा भाग लगता है। परंतु अन्न खानेवाले सेर, आधासेर अन्न खाते हैं । उसमें जितने दाने हैं उतने ही जीव है इसलिये उनको अनेक जीवोंकी हिंसाका पाप लगता है । इस प्रकार अन्नादिक ५२ Hariwestrarapew o [४०९ rmatireares Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांसागर ४१० भक्षण करने में बहुत पाप लगता है और मांस भक्षण करनेमें थोड़ा पाप लगता है इसलिये मांस अक्षणका निषेध करना ठीक नहीं है। समाधान-समस्त जीवोंको समान मानकर मांसभक्षण पुष्ट करना दुष्टोंका काम है। ऐसे दुष्टोंकी बुद्धिको धिक्कार हो । इस जीवको जैसो गति होनहार होती है वैसी हो बुद्धि उत्पन्न होती है। लिखा भी है "बुद्धिः कर्मानुसारिणो" यदि समस्त जीवोंको समान मान लिया जाय तो फिर पांच प्रकारके स्थावर और चार प्रकारके प्रस। । आदि जो जीवोंके भेव हैं वा योनियोंके भेबसे चौरासी लाख भेव हैं अथवा कुलकोडके भेदसे एकसौ साड़े। निन्यानवे लाख कुलकोडि जीवोंके भेद हैं वे अलग-अलग जीवोंके भेद किस प्रकार सिद्ध होंगे। यदि समस्त जीवोंको एकसा माना जाय तो स्त्री योनिको अपेक्षासे माता, पुत्री, बहिन आदि सब हो स्त्रीके समान हो जायगी फिर क्या स्त्रोके समान सबसे संभोग करना चाहिये। अथवा माताके समान स्त्रीका भी स्तनपान करना चाहिये । क्योंकि सब स्त्रिया एक ही हैं, सब समान हैं फिर किसीमें भेदभाव नहीं रखना चाहिये। यदि सब स्त्रियां स्त्रीपर्यायको अपेक्षासे समान होनेपर भी उन्हें माता, पुत्री स्त्रीको अपेक्षासे भेद । मानोगे तो फिर जीवोंमें भी भेव मानना हो पड़ेगा। जीवोंको उत्पत्ति, इन्द्रियाँ, प्राण, पर्याप्ति आदिको होना• धिकतासे उनकी हिंसा भी भेव पड़ता है तथा हिसामें अंतर पड़नेसे पाप भी होनाधिकता होती है। सब जीवोंके घातका समान पाप नहीं लगता । किसी एक एकेन्द्रिय जीवको हिसासे लद आदि वीन्द्रिय जोषको हिंसामें अनेक गुणा पाप लगता है। । बोइन्द्रियसे तेइन्द्रिय जोवको हिंसामें अधिक पाप लगता है तेइन्द्रियसे छोइन्द्रिय और चौइन्द्रियसे पंचेन्द्रिय । जीवोंकी हिंसामें अधिक पाप लगता है इसलिये हो एकेन्द्रिय जीवोंके कलेवरके सिवाय अन्य समस्त जीवोंके १. एकेन्द्रिय जीवोंके कलेवरकी मांस संना नहीं होतो । गेहूँ, जौ, उडद आदिको वा लकड़ो, फल, पत्तोंको कोई मांस नहीं कहता। शास्त्रोंमें भी यहो लिखा है मांसं जोवशरोरं जीवशरीरं भवेन्न वा मांसम् । यद्वनिम्बो वृक्षः वृक्षस्तु भवेन्न वा निम्बः ।। अर्थात्-मांस जोवका शरीर ही होता है परन्तु जोबोंके जितने शारीर हैं वे मांस होते हैं अथवा नहीं भी होते जैसे नीम एक वृक्ष होता है परन्तु जितने वृक्ष हैं वे सब नोन नहीं होते कोई होते हैं और कोई नहीं भी हाते। अभिप्राय यह है कि प्रस जोवोंके Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चासागर किलेखोंने भाण करनेका त्याग तलाया है। तथा एकेन्द्रिय जीवोंमें भी जो योग्य हैं वे ही ग्रहण करने योग्य की हैं अनन्त जीवोंका समुदायरूप साधारण जीवोंका वहां भी त्याग बतलाया है। तू जो समस्त जीवोंको एक-सा बतलाता है सो इसमें तो बड़ा भारी दोष आता है। साक्षात् पंचेंद्रिय { ४११ 1 जोबको मार कर उसका मांस खाना अत्यन्त हिंसाका, निर्दयीपनेका, क्रोध, मान, माया, लोभका तथा महा असृद्धिका कारण है । यह साक्षात् चांडाल कर्म है इसलिए उसमें महादोष उत्पन्न होता है। स्थावर जंगमके भेदसे जीयोंके दो भेद हैं। उनमेंसे जंगम वा त्रस जीवोंके शरीर पिंडमें तो मांस। उत्पन्न होता है। परन्तु स्थावर जीवों के शरीर पिडले मांस नहीं निकलता। उसमें तो पते, फल-फूल आदि निकलते हैं । यह प्रत्यक्ष है इसमें प्रमाणको आवश्यकता नहीं है । जिस प्रकार स्त्रियोंमें माता भोग्य नहीं है और अपनी स्त्रीके स्तनपान करना योग्य नहीं है । उसी प्रकार मांस कभी भी किसी भी हालतमें भक्षण करने H योग्य नहीं है । ऐसा निश्चित सिद्धांत है । सो ही लिखा है। स्थावरा जंगमाश्चैव प्राणिनो द्विविधाः स्मृता । जंगमेषु भवेन्मासं फलं च स्थावरेषु च ॥ । जीवत्वेनेह तुल्यास्ते यद्यप्येते भवन्ति वै। स्त्रीत्वे सति यथा माता अभक्ष्या जंगमास्तथा। इस प्रकार समस्त जीवोंको समानता नहीं हैं। यदि सब जोष एक हैं तो फिर जीवोंके शरीरका, उनको गति वा इन्द्रियोंका जुदा-जुदा आकार क्यों दिखाई पड़ता है। इससे सिद्ध होता है कि सब जीव एक नहीं है। कोई बड़ा है, कोई छोटा है, कोई स्त्रो है, कोई पुरुष है, कोई नपुंसक है, कोई पुत्र है, कोई पिता है, कोई पुत्री है, कोई भगिनी है, कोई मामा है, भानजा है इत्यादि व्यवहार सबको एक मान लेनेपर कैसे होगा ? तथा पशु-पक्षी, जलचर आदि जुदे-जुवे जीवोंका जुदा-जवा आकार किस प्रकार होगा। कलेवरोंको तो मांस संज्ञा है परन्तु एकेन्द्रिय जीवों के कलवरोंको मांस संज्ञा नहीं है। क्योंकि उसमें हड्डी, रुधिर आदि कुछ भी नहीं होता है । त्रस जीवोंके कलवरोंमें बदबू होती है। उसमें अनन्तानन्त जोब प्रति समयमें उत्पन्न होते और मरते रहते । हैं और इसीलिये उसमें बदबू होती है। परन्तु गेहूँ, जौ आदि धान्योंमें यह बात नहीं है। न उसमें बदबू है और न उसमें प्रति समयमें अनन्तानन्त जोव उत्पन्न होते हैं। जिस प्रकार गायका दूध पीने योग्य है परंतु गायका मांस खाने योग्य नहीं है । वह त्याग करने योग्य है उसो प्रकार एकेन्द्रिय जीवोसे उत्पन्न हए धान्य भक्ष्य हैं और मांस कभी किसी हालत में भी भक्ष्य नहीं है। बदल होती है। उसमें यह बात नहीं है। गायका मांस RTHAM नी भक्ष्य है Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Bara चासागर ४१२ ] m are-Year-e- कदाचित् कोई यह कहे कि जीव तो सब एक हैं परन्तु परमेश्वरकी इच्छानुसार सब जुदे-जुदे हो गये। है सो भी ठीक नहीं है। क्योंकि तुम्हारे कहनेसे हो दो भेद हो जाते हैं। फिर एकता कैसे रह सकती है। कदाचित् कोई यह कहे कि जीव तो सब एक ही हैं क्योंकि सबमें एक परमेश्वरको ही सत्ता है अर्थात् । भगवान सबमें है सो यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि ऐसा मानना अनेक अनयोंकी जड़ है। क्योंकि यदि । सब जीवमें ईश्वर हैं तो फिर जो जीवोंको मार कर खाते हैं वे परमेश्वरको ही मार कर खाते हैं ऐसा मानना पड़ेगा और इसमें महापाप स्वीकार करना पड़ेगा। कदाचित् मोई यह कहे कि जीवोंमें परमेश्वरका अंश नहीं है किन्तु सब जीव एक हैं । सो यह कहना। भी ठीक नहीं है। क्योंकि यदि सब जीव एक हैं, तो फिर ब्रह्माने जब सृष्टि रची तब उसको अपनी माया । कैसे बतलाई तथा विष्णुको सर्वगत किस प्रकार बतलाया और सब सृष्टिम परमात्मा कैसे बतलाया? यह सब कहना व्यर्थ हो जायगा। इसलिए कहना चाहिए कि जीवों में सर्वत्र परस्पर भेद है। सब जीव समान नहीं हैं। राजा वा सेवकके समान अपने-अपने कर्मोके उदयसे समस्त जीव इस संसारमें अनेक प्रकारके पुगलोंको ग्रहण करते हुए अनेक रूप धारण करते हैं। फिर भला एकेन्द्रिय और पंद्रिय जीव समान कैसे हो जायेंगे। इससे सिद्ध होता है कि एकेन्द्रिय जीवोका कलेवर तो फल, फूल, पत्ते'आदि वमस्पति रूप है तथा को इंद्रिय, तेइन्विय, चौइन्द्रिय, पंचेन्द्रिय जीवोंका पारीर मांसरूप है। एकेन्निय जीवोंका कन्द-मूल, पत्र, फल, पुष्प रूप शरीर जलसे उत्पन्न होता है। तथा पंचेंद्रिय मनुष्य वा पशु पक्षी जलचराविक जीव पिताके बीर्य g और माताके रुधिरसे उत्पन्न होते है । इस समयके मुसलमान आदि यवन लोग शूद्र जातिके मुत्रको बूंदमें तो बड़ा दोष मानते हैं परन्तु उसी मूत्रको खूबसे बने हुए मांसको खा जाते हैं। उसमें कोई दोष नहीं मानते । सो । यह उनको बड़ी भारी भूल है। किसने ही उत्तम जातिके लोग वा उसम कुलके लोग वेदको मानते हैं उसमें लिखे हुए वाक्योंकी पुष्टि करते हुए यशफर्म करने, उसमें जीवोंका हाम करने तथा देवताओंके लिये बलिदान देकर जोवोंके मारने और उसकी प्रसादी समझकर उन जीवोंके मांसभक्षण करनेका विधान करते हैं। तथा इस प्रकारका मांस भक्षण करते हैं। यदि कोई उनके इस कामको निया करता है तो वेदोंके वाक्य बतला देते हैं। यदि कोई वेवोंको - -- Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व सागर [४१३] र नहीं मानता तो उसको चांडाल कहते हैं। उनके यहां लिखा है "वेदवाहास्तु चांडालाः"इस प्रकार वे लोग। - अपना मांस भक्षण पुष्ट करते है। वे लोग यह भी कहते हैं कि पहले बड़े-बड़े लोग मांस भन्नण करते थे। श्रीरामचंद्र की शिकार खेलते थे। क्योंकि सुवर्णके मृगको मारने के लिये वे बोड़े ही थे। बड़े-बड़े राजाओंने जीवोंका वधकर उनका मांस खाया है । हमारे त्रिय वंशका यही धर्म है । इस प्रकार कहकर वे लोग अपने शरीर और इंद्रियोंकी पुष्टि करते हैं परन्तु उनका यह सब कहना व्यर्थ है। यदि उनके वेद और पुराणोंमें होम आदिके द्वारा जीवोंका वध करना लिखा है और उनके मांस भक्षणका विधान बतलाया है तो फिर उन शास्त्रोंको शास्त्र ही नहीं कहना चाहिये । जिन शास्त्रोंके वचनोंसे जीवोंका वध हो ये शास्त्र नहीं किंतु शस्त्र हैं। उनका प्रयोग उपदेश अर्थको कहनेवाली शास् धातुसे नहीं बना है किंतु हिसार्थक शस् धातुसे बना है। । वे लोग उन शास्त्रोंको वेद कहते हैं सो वह वेब नहीं है किंतु बॅत है । जिस प्रकार बेतको मारसे मनुष्य आदि जीवोंका चमड़ा उधर आता है । उसी प्रकार जिसके ऋचारूपी इतके उच्चारणरूपी प्रहारसे पशु आदि जीवों का बघ होता हो, पशुओंका चमड़ा उतारकर होमते हों वह वेद नहीं है किंतु बहुत बड़ा बेत है । इस प्रकार बह वेद शास्त्र नहीं है किंतु शस्त्र है । ऐसे वेदको मानना महा पाप है, महा हिंसाका कारण है। इसके सिवाय एक बात यह भी है कि जीवोंको हिंसा करना तथा मांस भक्षण करना इस लोकमे ।। महापाप माना जाता है। यह बात सब शास्त्रों में लिखो है । हिंसा और मांस भक्षणका फल महा दुःस्वरूप है, और नरकादि अनेक दुर्गतियोंका कारण है। शास्त्रों में ऐसे लोगोंकी अनेक कथाएँ लिखी हैं। इन सब शास्त्रोंको जानते हुए भी लोलुपी लोग सबका लोप कर फिर भी मांस भक्षणाविककी पुष्टि करते हैं और कहते हैं कि वेबमें लिखा है "यज्ञार्थे पशवः सृष्टाः" अर्थात् इस संसारमें पशुओंको रचना यज्ञके ही लिये हुई है। वे लोग उन यज्ञोंके भी कितने हो भेव बतलाते हैं। जिसमें बकरा होमा जाय वह अजामेष या है। जिसमें गाय होमी। जाय वह गोमेष यज्ञ है। जिसमें घोड़ा होमा जाय वह अश्वमेध यज्ञ है। जिसमें मनुष्य होमे जाय नरमेष यन है । इस प्रकार के लोग यज्ञों के अनेक भेव बतलाते हैं उन यज्ञोंमें अनेक जीवोंको होमते हैं और उनका अलग-अलग फल बतलाते हैं। सो सब महापापका मूल है। क्योंकि इन्होंके शास्त्रों में जोवोंके होम करनेमें, उनका वध करनेमें और मांस भक्षण करनेमें महापाप लिखा है । तथा ऐसे-ऐसे समस्त कार्योके करनेका त्याग ! Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना बतलाया है। उनके शास्त्रों में ऐसे महापापोंका निषेध कहाँ-कहाँ लिखा है सो यहाँ प्रसंग पाकर थोडासा लिखते हैं। भारतमें लिखा है-मयका पोना, मांस भक्षण करना, रात्रिमें अन्न, पान, लेा, स्वाध आदि चारों पचासागर [१४] प्रकारके आहारका भक्षण करना, कंदमूल खाना महापाप है। जो कोई पुरुष इनका सेवन करता है उसकी तीर्थयात्रा, जप, तप आदि सब व्यर्थ होता है । उनके यहाँ सब अड़सठ तीर्थ माने हैं सो जो पुरुष मांस, मद्य, रात्रिभोजन, कंदमूल आदिका सेवन करते हैं उनको अजसठ तीर्थोंको यात्रा व्यर्थ होती है । राम, कृष्ण, परमे। श्वर आदिका जप सब व्यर्थ होता है। गायत्री मंत्रका जप भी सब व्यर्थ होता है। तथा चान्द्रायण व्रत तथा और ना मा पारित करानेक प्रकारके कष्ट देनेवाले तप सब व्यर्थ हो जाते हैं। सो ही भारतमें। लिखा हैमद्यमांसाशनं रात्रौ भोजनं कंदभक्षणम् । ये कुर्वन्ति वृथा तेषां तीर्थयात्रा जपस्तपः॥ __उसीमें आगे लिखा मद्य, मांस भक्षण करनेवाले वा रात्रि भोजन करनेवालोंके एकादसो व्रत का उपवास करना नारायणके मंदिरमें जागरण करना, पकरको यात्रा करना और चंद्रायणं तप करना आदि सब व्यर्थ। हो जाता है। जबतक वह मद्य मांसाविकका त्याग नहीं करता तब तक उसको जप, तप, व्रत, उपवास आदिका कोई फल नहीं मिलता । मद्य मांसाविकका त्याग करनेसे ही इनका फल मिल सकता है । सो ही भारतमें। लिखा है_वृथा एकादशी प्रोक्ता वृथा जागरणं हरेः । तथा च पुष्करीयात्रा वृथा चंद्रायणं तपः॥ मनुस्मृतिमें लिखा है जो कोई जीवोंकी हिंसा करता है उसके न तो ध्यान हो सकता है, न स्नानसे शुद्धि हो सकती है, न वह दान दे सकता है । तथा न यह शुभ क्रियाएँ कर सकता है । हिंसा करनेवालेके इन ! || सब बातोंका अभाव हो जाता है। यदि वह इन क्रियाओंको कर भी डाले तो भी जीवघात करनेसे उसका सब किया हुआ निष्फल हो जाता है। सो हो मनुस्मृतिमें लिखा है। न च ध्यानन च स्नानं न दानेन च सस्क्रियाः। सर्वे ते निष्फलं यांति जीवहिंसा करोति यः॥ भारतमें लिखा है-जो प्राणी बकरा, हिरण, सांभर, गोवड़, सूअर आदि पशुओंका घात करता है । ४ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [x4] वह उस पाप के फलसे उस पशुके शरीरमें जितने रोम हैं उतने ही हजार वर्ष तक अग्निमें पकाया जाता है। यथा याति पशुरोमाणि पशुगात्रेषु भो नर । तावद्वर्षसहस्राणि पश्यन्ते पशुघातकाः ॥ भारतमें श्रीकृष्ण अर्जुनसे कहते हैं कि विष्ठाके कीड़ेको और स्वर्गमें रहनेवाले इन्द्रको दोनोंको जीवित रहनेकी आकांक्षा एकसी है। दोनोंके जीवित रहनेकी इच्छामें कोई कमी नहीं है । इन्द्र महा सुखी है सो उसे तो जीवित रहने की इच्छा सबा लगी ही रहती है। परन्तु विष्ठाका फोड़ा भी मरना नहीं चाहता दुखी होने पर भी वहीं रहना चाहता है। इससे सिद्ध होता है कि उसको भी जीवित रहनेको इच्छा लगी हुई है। इसी प्रकार मरनेका भय दोनोंको एकसा है। दोनों ही मरनेसे डरते हैं मरनेमें सभीको समान दुःख होता है। इस लिये जिस प्रकार अपने प्राण मुझे प्यारे लगते हैं उसी प्रकार अन्य प्राणियों को भी अपने-अपने प्राण प्रिय लगते हैं । यही समझकर बुद्धिमान पुरुषोंको धोर और भयंकर ऐसा प्राणियोंका वध कभी नहीं करना चाहिये । उपदेश बुद्धिमानों को ही दिया जाता है। मूर्ख और अज्ञानी पुरुष तो किसीकी मानता हो नहीं है इसलिये उसको कहना हो व्यर्थ है । सो ही भारतमें लिखा है— अमेयमध्ये कीटस्य सुरेन्द्रस्य सुरालये । समाना जीविताकांक्षा समं मृत्युभयं द्वयोः || १ || यथा ममप्रियाः प्राणास्तथा चान्यस्य देहिनः । इति मत्त्रा न कर्तव्यो घोरप्राणिवधो बुधैः ॥ इसी प्रकार मार्कंडेय पुरागमें श्रीकृष्णने अर्जुनसे कहा है कि हे अर्जुन! इस पृथिवीमें भी में हूं। समस्त अग्नि, वायु, वनस्पति आदिमें भो मैं हूँ और तीनों लोकोंके समस्त प्राणियोंमें भी मैं हूँ। मैं सर्वगत वा सब जगह सब पदार्थों में, सब जीवोंमें रहनेवाला हूँ। इसलिये सब ओवोंमें मुझे समझकर जो जीवको हिंसा नहीं करते उनकी रक्षा में करता हूँ। जो जावोंको हिंसा करते हैं उनका क्षय होता है। ऐसा मार्कंडेय पुराण में लिखा है। यथा पृथिव्यामप्यहं पार्थ सर्वाग्नौ च जलेप्यहम् । वनस्पतिगतोप्यहं सर्वभूतगतोप्यहम् ॥ यो मां सर्वगतं ज्ञाखा न हिंसति कदाचनः । तस्याहं न प्रणस्यामि स मे न प्रणस्यति ॥ [ ४१ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिागर DिAEESEउनास्थाpahal शिवधर्म में लिखा है कि मांसमें, मध, शहबमे और मक्खनमें उसी वर्णके ( मांस, मक्खन वा पाहवके । रंगके ) असंख्यात जीव हर समय उत्पन्न होते रहते हैं । यथामये मांसे मधुनि न नवनीते वहि न ते । उत्पद्यन्ते असंख्यातास्तवर्णास्तत्र जन्तवः ॥ इस प्रकार मांसमें महावोष है। पहले तो यह जीवोंको हिंसासे उत्पन्न होता है। तथा फिर उसमें अनेक दोष हैं यही समझकर धर्मात्मा पुरुष हिंसाका और मांस भक्षणका त्याग कर देते हैं। जो जीव स्वयं मांस नहीं खाते परन्तु वूसरोंको उपदेश देते हैं। कहते हैं यह राजाओंका धर्म है । शिकार खेलना राजाओंका धर्म है। उसके लिये मुहूर्त देते हैं सो हिंसा करना या उसके लिये उपदेश देना, कारण सामग्री मिलाना सब एक है। जो लोग इन निय कार्यो का उपदेश देते हैं वे धर्मके नाश करने वाले पापको बढ़ानेवाले, इंद्रियोंके लंपटी, अधर्मी और महा पतित हैं। ऐसा समझना चाहिये। प्रश्न-यदि मांसमें ऐसा दोष है तो श्राद्धमें मांस खिलानेका विधान क्यों लिखा है। स्मृतिशास्त्रमें लिखा है "मछलीका मांस खिलानेसे पितर लोग दो महीने तक तृप्त रहते हैं। हिरणके मांससे तीन महीने तक रहते हैं । भड़के मांससे चार महोने तक सप्त रहते हैं पक्षियोंके मांससे पांच महीने तक । करेके मांससे छह महीने तक, कबूतरके मांससे सात महोने तक, एण जातिके हिरणके मांसस आठ महोने तक, रोरव नामके हिरण नौ महीने तक, सूअर तथा भैसके मांससे दस महीने तक, खरगोश और कच्छपके मांससे ग्यारह महोने तक और गायके दूधको खोर खिलानेसे बारह महीने तक पितर लोग तृप्त रहते हैं। सो हो। लिखा है-- द्वौमासौ मत्स्यमासेन त्रिमासा हारिणेन वै। औरभ्रेण तु चत्वारः शाकुनेन तु पंचवै ॥ षट्मासाः छागमासेन पार्वतेन तु सप्त वै । अष्टावेणस्य मांसेन रोखेण नवैव तत् ॥२॥ दशमासास्तु तृष्यन्ति वराहमहिषामिषैः । शशकर्मस्य मांसेन मासा एकादशेव च ॥३॥ संवत्सरं तु गव्येन पयसा पायसेन वै। प्रश्न- इस प्रकार धादमें मांस का विधान लिखा है सो क्यों लिखा है ? समाधान-जो लोग इस प्रकार मांसका विधान करते हैं वे चाहे श्रद्धा करनेवाले गृहस्थ हों, चाहे स अचान Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [४१७] श्राद्ध करानेवाले आचार्य हों अथवा तृप्त होनेवाले पितर हों वे सब राक्षस वा भील समझने चाहिए। क्योंकि मांसका विधान करना राक्षसोंका काम है। दूसरी बात यह है कि यदि मांस के विधानका ही दृढ़ विश्वास किया जायगा तो श्राद्ध अधिकारमें जो तिल, चावल, जल, शर्कश, घी, दूध, मधु, दही आदिका पिंड करना कैसे बतलाया। देखो श्राद्धकल्पमें लिखा भी है तिलान्नं चैव पानीयं शर्कराज्यं पयस्तथा । मधु दध्ना समायुक्तः अष्टांगः पिंड उच्यते ॥ इस प्रकार जो अष्टांग पिंड बतलाया है वह सब व्यर्थ हो जायगा । आगे तुम्हारे यहाँ लिखा है विन्ध्यस्य चोतरे भागे मांसभक्षी न दोषभाक् । अर्थात विन्ध्याचलके उत्तर भागमें मांस भक्षण करनेवाला दोषो नहीं गिना जाता। इस प्रकार कह कर बहुतसे शक्ति के उपासक कान्यकुब्ज, सनोडिया, सर्वरिया, पुरविया आवि ब्राह्मण, मछली, बकरा आदिका मांस भक्षण करते हैं। परन्तु उनका यह कहना और करना सब मिध्या है। क्योंकि मांस कुछ पृथिवी जलसे तो उत्पन्न होता ही नहीं है अथवा फलोंके समान वृक्षोंपर लगता नहीं है। वह जंगम जीवोंके घात करनेसे होता है । इस प्रकार जंगम जीवोंके घात करनेसे उत्पन्न हुए मांसको भक्षण करनेवाले लोगोंके भला जीवदया किस प्रकार पल सकती है क्योंकि श्राद्धादिकमें मांसका काम पड़ता ही है। इसलिये कहना चाहिये कि इस प्रकार कहनेवाले वा माननेवाले बड़े ही अधर्मी है। आगे जो लोग यह कहते हैं कि क्षत्रियोंके कुलमें परम्परासे मांस भक्षण वा शिकार खेलना चला आया है तथा उनमेंसे कितने ही इन्द्रियोंके लम्पटी, विषय- कषायों को पुष्ट करनेवाले, महाकामी, अधोगतिके जाने बाले, भ्रष्ट, महापापी, चांडालोंके समान क्रूर परिणामी, क्रोधी, अधर्मी लोग शास्त्रों में भी मांस भक्षणको पुष्टि करते हैं, धर्म मान कर हिंसाको वा मांसभक्षणको पुष्टि करते हैं परन्तु ऐसे लोग महादुर्बुद्धि और महामिध्यावृष्टि हैं। ऐसे लोग ग्रामीण सूअरोंके समान हैं। जैसे प्रामीण सूअरोंके सामने चाहे जैसे उत्तम पकवान रक्खे जाँय परन्तु वह सुअर उन उत्तम उत्तम पकवानोंको छोड़कर विष्ठापर ही पड़ता है। उसीको प्रेमसे खाता है और तृप्त होकर आनन्द मानता है । अथवा उल्लू जातिका पक्षी अनेक प्रकारके उत्तम उत्तम भोजनोंको ५३ I v Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छोड़कर पक्षियोंका मांस भक्षण कर हो अपना पेट भरता है उसी प्रकार दुष्ट बुद्धिके लोग उत्तम-उसम पवार्यो को छोड़कर मांस भक्षणका विधान करते हैं। जिनको नीच गति होनहार होती है उनके ऐसे ही नीच बुद्धि चिसिागर उत्पन्न हुआ करती है ऐसे नील अनिवालों के जत्तम बुद्धि कभी नहीं हो सकती। ४१८] ऐसे लोग ऊपर लिखे शास्त्रोंको कहकर अपने मिथ्या धर्मको पुष्टि करते हैं परन्तु पहली बात तो यह है कि श्राद्धकर्म कुछ मोक्ष देनेवाला नहीं है। यह तो स्वार्थी लोगोंने अपने स्वार्थ के लिये चलाया है। इसलिए वह कभी प्रमाणरूप नहीं हो सकता । कसाचित् यह कहा जाय कि हमारे वेदमें लिखा है सो भी ठीक नहीं है। क्योंकि जो जीवहिंसाका उपदेश दे वह वेव कभी नहीं कहा जा सकता। उसे तो बंधक-जीवोंका घात करने वाला कहना चाहिये भला जो 'यज्ञार्थ पशवः सष्टाः' अर्थात् पशुओंको यज्ञमें होमनेके लिये ही उत्पन्न किया है"! इस महाहिंसाको पुष्टि करते हैं वे महाहिसक, महापाप रूप, घातक शस्त्रोंके समान समझे जाते हैं। इसलिये। । उनको बंध वा वेषक कहना चाहिये। यहाँपर कदाचित् कोई वेदको माननेवाला यह कहे कि 'यशमे पशुओंको होमना हमारे वेदमे लिखा है । सो मन्त्रोंको आहुतियोंसे होमना बतलाया है। इसी प्रकार देवताको बलिदान देने के लिए होमके अन्समें वष। करना भी होमके लिए है । अश्वा उस देवताके लिए है इसलिए ऐसी हिंसामें हिंसाका पाप नहीं लगता। ऐसे १ यज्ञोंको जो करता है अथवा कराता है अथवा जो बकरा, भैंसा, घोड़ा, मनुष्य आदि जीव होमे जाते हैं वे सब। स्वर्गमें जाते हैं इसलिये हो यज्ञमें जीय होमनेका निषेध नहीं हैं। किन्तु कर्तव्य है ऐसा वेद कहता है' इस प्रकार वेद माननेवालेका कहना महाहिंसाके दोषको उत्पन्न करता है क्योंकि यदि बेद यह कहता है कि 'मंत्रपूर्वक जीवोंका होम करनेसे पाप नहीं लगता" तो वेदका यह कहना मुसलमानोंके कहनेके समान हुआ। क्योंकि F मुसलमान भी यह कहते हैं कि हमारे कुराणको लिक्का जीवके ऊपर पड़नी चाहिये और उसको शास्त्रसे मारकर ॥ उसका मांस भक्षण करना चाहिये । इस प्रकार जोवको मारने और उसका मांसभक्षण करनेमें कोई दोष वा ॥ पाप नहीं है । लिक्का पढ़ लेनेके बाद फिर उसमें कोई दोष वा पाप नहीं रहता । यदि कोई जीव अपने आप मर जाय तो हम (मुसलमान ) उसे छूते भी नहीं हैं। लिक्का पढ़नेके बाद जो जोव मारा जाता है वह सोपा विहिश्त (स्वर्गमें ) जाता है। इस प्रकार देवका कहना और मुसलमानोंका कहना समान ही हुआ। वेद Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चा सागर [ ४१९ ] माननेवाले गायको अच्छी मानते हैं और मुसलमान सूअर को अच्छा मानते हैं बस इतना ही दोनों में अन्तर विलाई पड़ता है। हिंसा करता दोनोंका बराबर है। दोनों ही समान हिंसक हैं। यहाँपर कदाचित् कोई यह कहे कि पहले लोग ऐसे समर्थ होते थे कि वे जीवों को होम भी देते थे और फिर उनको मंत्र पढ़कर जीवित भी कर देते थे । सो उनका यह कहना भी मिथ्या है। क्योंकि यदि वे इतने समर्थ थे तो फिर उन्होंने अपने कुटुबको मरनेसे क्यों नहीं बचाया । अपने सब कुटुंबको अमर क्यों नहीं बना दिया । परंतु आज तक किसीने अपने कुटुंबको अमर नहीं बनाया इससे सिद्ध होता है कि उनका इस प्रकार कहना त मिथ्या है।जोहोकले हैं वे सब सीधे स्वर्ग चले जाते हैं यदि यह बात सच है तो फिर उन लोगोंने अपने कुटुंबको ही क्यों नहीं होम दिया, जिससे उनका सब फुटुंब स्वर्ग चला जाता ? परंतु अपने कुटुंबको कोई नहीं होमता । इससे मालूम होता है कि होम करना सब स्वार्थ और जिह्वा लंपटता लिये है । इसके सिवाय एक बात विचार करनेकी यह है कि यदि मांसभक्षण योग्य होता तो भारत आदि तुम्हारे हो शास्त्रों में मांसको अत्यंत निद्य और स्याग करने योग्य क्यों बतलाया जाता ? जैसा कि पहले भारतका प्रमाण देकर लिख चुके हैं तथा यहाँ फिर भी प्रसंग आ गया है इसलिये प्रसंगानुसार कुछ और भी लिखते हैं। आपके धर्मशास्त्र में लिखा है , मांसाशिनो न पात्राः स्युर्न मांसदानमुत्तमम् । तस्पित्राणां कथं तृप्त्यै भुक्तं मांसाशिभिर्भवेत् ॥ पुत्रेणार्पितदानेन पितरः स्वर्गमाप्नुयुः । तर्हि तत्कृतपापेन तेपि गच्छति दुर्गतिम् ॥ २ ॥ किं जाप्यहोम नियमैस्तीर्थस्नानेन भारत ।। यदि मांसानि खादन्ति सर्वमेव निरर्थकम् ॥३॥ अर्थ — जो मांस भक्षी हैं वे कभी पात्र नहीं हो सकते। कितने ही लोग कहते हैं हम ब्राह्मण इसलिये दानके पात्र हैं परंतु उनका यह कहना मिष्या है। जो ब्राह्मण होकर मांस भक्षण करता है वह न तो ब्राह्मण है और न कभी पात्र हो सकता है । इसी प्रकार मसिका दान भी बान नहीं कहा जा सकता । ऐसी हालत में उन पितरोंको सुप्ति कैसे हो सकती है। कदाचित् ब्राह्मणोंको मांस खिलानेसे पितर लोग तृप्त हो जांय तो फिर यह भी मानना पड़ेगा कि वे पितर लोग भी मांसभक्षी हैं। यदि अपने पुत्रके द्वारा दान देनेसे यदि [ ४१ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Seasoरानाम्यरचना पितर लोगोंको स्वर्गको प्राप्ति होती है तो फिर पुत्रने जो मांसदानके लिये जीवोंका वध किया वा कराया, मांस पिंस दिया तया मांसका भक्षण किया उसके पापसे पितरोंको दुर्गति को भी प्राप्ति होनी चाहिये। हे भारत ! जो जोव मांस भक्षण करते हैं वे चाहे जितना रामकृष्ण आविका नाम उच्चारण कर जप करें, चाहे जितना होम करें, चाहे जितने स्पिन करें, पाहे जितनी शोमात्रा करें और चाहे जितने तीर्थ स्नान करें परंतु । उनका सब करना व्यर्थ है, मिथ्या है । इस प्रकार धर्मशास्त्र और पुराणों में केवल मांसभक्षण के हो अनेक दोष बतलाये हैं। भारतके शांतिपर्व में लिखा हैन देयानि न ग्राह्याणिषड्वस्तूनि पंडितः। अग्निर्मधु विषं शस्त्रं मयं मांस तथैव च ॥ १ ॥ ___ अर्थ-विधारशील पंडितोंको अग्नि, शहद, विष, शस्त्र, म और मांस ये छह वस्तुयें न तो किसोको देनी चाहिये न किसीसे लेनी चाहिये । जब इन छहों पदार्थोका लेन देन भी निषिस बतलाया है तब फिर मांस भक्षण करना वा कराना किस प्रकार संभव हो सकता है । फिर भी जो लोग मानते हैं सो सब मिथ्या है। इसके सिवाय भी भारतके शांतिपर्व में लिखा हैएकतश्चतुरो वेदा ब्रह्मचर्य च एकतः। एकतः सर्वपापानि मद्यमांसं च एकतः ॥ १॥ न गंगा न च केदारं न प्रयागं न पुस्करम् । न च ज्ञानं न व ध्यानं न तपो जपभक्तयः ।२।। न दानं न च होमाश्च न पूजा न गुरौ नुतिम् । तस्यैव निष्फलं यान्ति यस्तु मांसं प्रखादति । तिलसर्षपमात्र व यो मांस भक्षयेन्नरः । स याति नरकं घोरं यावच्चन्द्रदिवाकरौ ॥४॥ जिस प्रकार एक ओर चारों वेद हैं और एक ओर ब्रह्मचर्य है उसी प्रकार एक ओर संसारभरके समस्त। पाप है और एक ओर मद्यमांसका सेवन है। भावार्थ-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेव ये चार वेद हैं। सो चारों हो वेद तो एक ओर हैं और स्त्री मात्रका त्याग करनेरूप ब्रह्मचर्य एक ओर है इनमें भी चारों P वेवोंसे शीलवतकी महिमा अधिक है जिस प्रकार चारों वेदोंसे ब्रह्मचर्य की महिमा अधिक है उसी प्रकार संसार भरके समस्त पापोंसे मामास सेवनका पाप अधिक है । इससे सिद्ध होता है कि मद्य मांस सेवन करनेसे सबसे अधिक पाप होता है। [४२० Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चासागर Tea mPARASHASHTRANSante- . इसी प्रकार जो मांस भक्षण करते हैं उनके न तो गंगा है, न केवार, है, न प्रयाग है, न पुस्कर है,। नशान है, न ध्यान है, न जप है, न सप है, न भक्ति है, न दान है, न होम है, न पूजा है, न वंचना है। अर्थात् मांस भक्षण करने वालेकी सब क्रियायें व्यर्थ है । उसके किये हुये समस्त पुण्यकार्य भी व्यर्थ हो जाते है--निष्फल हो जाते हैं । इस प्रकार महा दोषसे भरे हुए मांसको जो तिल वा सरसों मात्र भी खाता है वह जब तक आकाशमें सूर्य चन्द्रमा रहेंगे तब तक घोर नरकमें सड़ता रहेगा। इस प्रकार मांस खानेका फल महा निय और नीच बतलाया है। भारतमें लिखा है-श्रीकृष्ण पांडवोंसे कहते हैंस्नानोपभोगरहितः पूजालंकारवर्जितः । मधुमासनिवृत्तश्च गुणवान् तिथिर्भवेत् ॥ अर्थ-जिसने शहब और मांसका त्याग कर विया है वह चाहे स्नान उपभोगसे रहित हो और चाहे । तिलफ आदि पूजाके अलंकारोंसे रहित हो तो भो वह गुणवान् अतिथि माना जाता है । बहुतले लोग स्नान । आधमन, संध्या, तर्पण, तिलक, कंठी आदिका अभिमान करते हैं परन्तु उन्हें सोचना चाहिये कि सबसे मुख्य शहद और मांसका त्याग है। जिसने शहद और मांसका त्याग नहीं किया है उसके स्नान, आचमन आविका कोई मूल्य नहीं है । बिना मांस, शहदका त्याग किये केवल स्नानाविक करने में कोई गुण नहीं है। शहद और मांसका त्याग करना सबसे श्रेष्ठ है । शक्तिके उपासकोंको वा अन्य शहब मांस खानेवालोंको यह उपदेश बहुत ॥ अच्छी तरह समझ लेना चाहिये । कितने हो भेषमात्रको धारण करनेवाले वैरागी शहद और मांसका भक्षण करते हैं और शहद मौस1 को खाते हुये भी अपनेमें ब्राह्मगपना मानते हैं सो भो मिथ्या है। क्योंकि शहर और मांसका खाना ब्राह्मण का लक्षण नहीं है किन्तु चांडालका लक्षण है । सो हो महाभारतके शांतिपर्व में लिखा हैमद्यमांसमधुत्यागी पंचोदुम्बरदूरगः । निशाहारपरित्यक्तः एतद्ब्राह्मणलक्षणम् ॥१॥ सत्यं नास्ति तपो नास्ति नास्ति चेंद्रियनिग्रहः। सर्वभूतदया नास्ति एतच्चांडाललक्षणम् ॥२॥ ____ अर्थ-जिसके मद्य, मांस और शहद के भक्षण करनेका त्याग हो, बड़फल, पीपल फल, गूलर, पाकर, । अंजीर इस पांचों उबंबर फलोंका स्याग हो और जिसके रात्रिमें भोजन करनेका त्याग हो वही ब्राह्मण हैं। PARAI Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र्चासागर ४२२ सद्य, ब्राह्मणके ये हो लक्षण हैं इन लक्षणोंके बिना केवल अपने आप ब्राह्मण बननेवाले कभी ब्राह्मण नहीं हो सकते । जिसमें ऊपर लिखे ब्राह्मणके लक्षण हों और जो सम्यग्दर्शनसे सुशोभित हों वहीं ब्राह्मण मानने योग्य समझा जाता है । जिसके मादिका स्थान न हो, न सत्य भाषण करता हो, न तपश्चरण करता हो, न इन्द्रियों निग्रह करता हो और जो समस्त प्राणियोंकी क्या पालन भी न करता हो वह ब्राह्मण नहीं किन्तु चांडाल कहा जाता है। क्योंकि यह चांडालके लक्षण है। मद्य मांसाविका सेवन करनेवाला कभी ब्राह्मण नहीं हो सकता । प्रश्न- यदि यह बात है तो धर्मकी उत्पत्ति किस प्रकार है, ऐसा प्रश्न अर्जुनने श्रीकृष्णसे पूछा है । सो ही भारत शांतिपयमें लिखा है कथमुत्पद्यते धर्मः कथं धर्मो विवर्द्धते । कथं च स्थाप्यते धर्मः कथं धर्मो विनश्यति ॥ अर्थ -- अर्जुन पूछते हैं कि हे भगवन् ! धर्म किस प्रकार उत्पन्न होता है कि किन-किन कारणों से बढ़ता है किस प्रकार ठहरता है और किस प्रकार नाशको प्राप्त होता है। इनका उत्तर जो श्रीकृष्णने दिया है यह इस प्रकार है । जैसा कि भारतमें लिखा हैसत्येनोत्पद्यते धर्मोदयादानेन वर्द्धते । क्षमया स्थाप्यते धर्मों क्रोध लोभाद्विनश्यति ॥ अर्थ — सत्यव्रतले सो धर्म उत्पन्न होता है । वया पालन करने और वान देनेसे बढ़ता है समस्त जीवोंपर क्षमाभाव धारण करनेसे धर्मकी स्थिरता रहती है तथा क्रोध और लोभसे धर्मका नाश होता है । तस्य व्यर्थाणि कर्माणि सर्वे यज्ञाश्च भारत ! । सर्वे तीर्थाभिषेकाश्च यः कुर्यात्प्राणिनां वधः ॥ अहिंसा सत्यमस्तेयं त्यागो मैथुनवर्जनम् । एतेषु पंचसूक्तेषु सर्वे धर्माः प्रतिष्ठिताः ॥ २ ॥ अहिंसालक्षणो धर्मः अधर्म त्राणिनां वधः । तस्माद्धर्मार्थिना लोके कर्तव्या प्राणिनां दया ॥ धवं प्राणिव यज्ञो नास्ति यज्ञ हिंसकः । सर्वसस्वेष्वहिंसैव सदा यज्ञो युधिष्ठिर ॥४॥ अर्थ -- जो प्राणियोंका वध करता है उसको सब क्रियाएं, सब यज्ञ और समस्त तीर्थो पर किये हुए अभिषेक व्यर्थ है । क्योंकि अहिंसा, सत्य, परिग्रहका त्याग और मैथुन करनेका त्याग वा ब्रह्मचयंका पालन करना इन पांचोंमें ही सब धर्मोका समावेश हो जाता है। इस संसारमें अहिंसा वा किसी प्रकारकी हिंसा न [ ४२२ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यासागर [१२३ ] करना हो धर्म है और प्राणियोंका वध करना ही अधर्म है इसलिये धर्मात्मा लोगोंको समस्त प्राणियों पर दया अवश्य पालन करनी चाहिये । जो यज्ञ प्राणियोंका बध करनेसे होता है वह कभी या नहीं कहा जा सकता। क्योंकि प्राणियोंका बध करनेवाला हिंसक समझा जाता है । और हे युधिष्ठिर ! यज्ञ वही कहलाता है जिसमें समस्त प्राणियोंपर दयापालन की जाय, किसी भी प्राणीको हिंसा न की जाय। इसी भारतके शांतिपर्वमें लिखा है-- इन्द्रियाणि पशून् कृत्वा वेदी कृत्वा तपोमयीम्।अहिंसामाहुतिं कुर्याच्चात्मयज्ञं यजामहे ॥ अर्थ-पांचों इन्द्रियां ही होम करनेको सामग्री बनाना चाहिये, तपश्चरणको वेवी बनाना चाहिये और अहिंसाको आहुति देनी चाहिये। इस प्रकार आत्मयज्ञ सवा करते रहना चाहिये । इस संसारमें देखो बलियान लेनेवाले देवता भी फैसे निर्दयो हैं जो हाथी, घोड़े, सिंह आदिका बलि तो नहीं लेते किन्तु केवल बकरेका होम बतलाते हैं । सो ठोक ही है। वैव भी दुर्बलोंका हो घात करता है। सो ही लिखा है-- __ अश्वं नैव गजं नैव सिंहो नैव च नैव च । अजापुत्रं बलिं दद्यात् दैवो दुर्बलघातकः ॥ जो देवता बलिदान चाहते हैं वे देवता भी निर्दयो समझने चाहिये और उनका कर्ता भी महापापी समझना चाहिये । लिखा भी है__ यज्ञं कृत्वा पशून हत्वा कृत्वा रुधिरकर्दमम् । यद्यष गम्यते स्वर्ग नरके केन गम्यते ॥ अर्थात्-यज्ञ करनेवाले यज्ञमें अनेक पशुओंको मार कर और रुधिरकी कीचड़ मचा कर यदि स्वर्ग । चले जाते हैं तो फिर वे नरफमें किन-किन कामोंके करनेसे जायेंगे। भावार्थ-ये सब काम तो नरकमें जानेके कारण हैं यदि इनको स्वर्गका कारण मान लिया जायगा तो फिर नरकका कारण संसारमें कुछ मिलेगा ही नहीं अथवा अहिंसा, सत्य आदिको नरकका कारण मानना पड़ेगा, परन्तु ऐसा हो नहीं सकता इसलिए यज्ञादिकको कल्पना सब व्यर्थ है। भारतके शांतिपर्वमें कृष्ण अर्जुनक संवायके समय लिखा है कि लोभी, मायाचारी, । कपटी और इंद्रियोंके विषय-भोगोंके लोलुपी मनुष्योंने केवल अपने स्वार्थके लिए जीवोंकी हिंसामें धर्म माना है सो उनको यह विपरीतता है । सो ही लिखा है Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | लोभमायाभिभूतानां नराणां भोगनाक्षिणम् । एषां प्राणिवधे धर्मो विपरीता भवन्ति ते ॥ भारतमें क्या और हिंसाका स्वरूप दिखलाते हुए लिखा हैपर्यासागर । अहिंसा सर्वभूतानां सर्वज्ञैः प्रतिभासिता । इदं हि मूल धर्मस्य शेषं तस्यैव विस्तरः ।। । उद्यन्तं शस्त्रमालोक्य विषादमयविह्वलाः।जीवाःकम्पति संत्रस्ता: नास्ति मृत्युसम भयम्॥ अर्थ-समस्त जीवोंको क्या पालना, सबको रक्षा करना अहिंसा है । यही सब धर्मोका मूल है। बाकी सब इसीका विस्तार है । भावार्थ-जिस प्रकार वृक्षके टिकमेका मुख्य कारण जड़ है। जड़ होनेपर उसकी शाखाएँ । प्रति शाखाएं होती हैं और शाखाएं आदि होनेपर उनपर फल लगते हैं उसी प्रकार धर्मरूपी वृक्षको जड़ या मूल दया है । दयाके सहारे ही यह धर्मरूपी वृक्ष टिका है । बाकी सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य आदि सब इसी दया । रूप मूलकी शाखाएं हैं तथा त्याग, व्रत, जप, तप, संयम, उपवास, तीर्थयात्रा, दान आदि भी सब इस दया। धर्मकी शाखाएं हैं। इस प्रकार यह क्या-धर्म सर्वोत्तम धर्म है ऐसा सर्वनदेवने कहा है। हिंसा इससे विपरीत है। देखो जिस समय चण्ड कोको करनेवाला, वुष्ट बुद्धिको धारण करनेवाला, हिंसाके भावरूप रौद्र परिणामों से अत्यन्त भयानक, महापतित, अधम, नीच, भ्रष्टाचारी कोई घातक वा शिकारी पुरुष पशु-पक्षियोंको देखकर उनके मारनेके लिये उनपर शस्त्र उठाता है उस समय उस चमचमाते हुए शस्त्रको देखकर अपने मरनेके भयसे वह पशु वा पक्षो अत्यन्त विषादको प्राप्त होता है अत्यन्त विह्वल हो जाता है, घबड़ा जाता है उसका शरीर कांपने लगता है तथा वह बहुत ही भयभीत हो जाता है । सो ठोक हो है क्योंकि इस संसारमै मृत्यु के समान और कोई भय नहीं है । ऐसी हिंसाको न जाने लोग किस प्रकार कर डालते हैं। भारतमें लिखा हैह कंटकेनापि विद्धस्य महती वेदना भवेत् । चक्रकुतासिशक्त्याये छिद्यमानस्य किं पुनः॥ अर्थ-यदि अपने पैर आदि शरीरमें कहीं कांटा भी लग जाता है तो उससे हो बड़ो भारी देबना था 1 दुःख होता है फिर भला अभ्य जीवोंपर पक, भाला, बरछा, तलवार, शक्ति, तीर, गोलो आदि अनेक प्रकार के शस्त्रोंके प्रहार करनेपर छिदते वा मरते हुए उन जीवोंको कितना दुःख होता होगा । अपने शरीरमें काटेका। भी महादःख होता है और उस कांटेसे बचने के लिये जता पहनते हैं या और अनेक उपाय करते हैं परन्त वे ही लोग अन्य जीवोंपर शस्त्रोंका प्रहार करते हुए उनके शरीरमें अनेक घाव करते हुए उनको मार डालते हैं । Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [ ४२५ यह कितना बड़ा अन्याय है। ऐसे लोग शिकारी पा व्याया कहे जाते हैं। उनके वस्त्र, भेष आदि भी महा विकराल और पापरूप दिखाई पड़ता है । भारत में लिखा है— श्रीकृष्ण युधिष्ठिरसे कहते हैं कि यो दद्यात्कांचनं मेरु कृत्स्नां चापि वसुन्धराम्। एकोऽपि जीवितं दद्यात् न च तुल्यं युधिष्ठिर ॥ अर्थ — श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे युधिष्ठिर ! किसी पुरुषने मेरुपर्वतके समान सुवर्ण दान दिया । तथा समस्त द्वीपोंकी समस्त पृथ्वी दान दे वी । तथा किसी दूसरे मनुष्यने किसी एक जीवको अभयदान दिया अर्थात् उसे मरने से बचाया उसे जीवदान दिया तो उस सुवर्णदान वा पृथ्वी दान बेनेवालेका पुण्य जीवदान देनेवालेके पुण्यके समान नहीं होता । भावार्थ-उस सुवर्णदान वा समस्त पृथ्वीवानसे भो एक जीवके अभयदानका पुण्य बहुत अधिक है। संसार में अभयदान के समान और कोई पुण्य नहीं है अथवा कोई दान नहीं है। जो लोग अपने स्वार्थको सिद्धिके लिये जीव हिंसाकी पुष्टि करते हैं वे अस्यन्त कुष्ट और नीच हैं । भारतमें लिखा है— यो यत्र जायते जन्तुः स तत्र रमते चिरम् । ततः सर्वेषु भूतेषु दयां कुर्वन्ति साधवः ॥ अर्थात् — यह जीव जहाँ जन्म लेता है वहीं रम जाता है, क्रीड़ा करने लगता है, वहीं सुख मानता है और वहाँ ही बहुत दिन तक रहकर जीना चाहता है । इसीलिये सज्जन पुरुष वा उत्तम मनुष्य समस्त प्राणियों पर क्या पालन करते हैं । भारतमें लिखा है यस्य चिसं द्रवीभूतं कृपया सर्वजन्तुषु । तस्य ज्ञानं च मोक्षं च किं जटाभस्म चाम्बरैः ॥ अर्थ - जिसका हृदय समस्त प्राणियों में होनेवाली दयाके द्वारा द्रवीभूत है, फोमल है उसीको जानकी प्राप्ति होती है और उसीको मोक्षको प्राप्ति होती है। ज्ञान और मोक्षके लिये जटाओंका बढ़ाना, शरीरमें भस्मका लगाना तथा गेरु आदिके रंगे हुए वस्त्रोंको धारण करना सब व्यर्थ है। बिना क्याके केवल भेष धारण करना स्वांग है उस भेषसे मोक्ष नहीं मिल सकती । वह भेव केवल लोभके लिये है । यदि जीवोंके बघ करनेमें, ओयोंकी हिंसा करनेमें धर्म है और जीवोंका घात करनेवाले वा मांस भक्षण करनेवाले पुरुष स्वर्गमें जाते हैं तो फिर संसारका त्याग करनेवाले व्रती, संयमी, तपस्वी वा अनेक यम नियमोंको धारण करनेवाले पुरुषोंको स्वर्गलोककी प्राप्ति कभी नहीं होनी चाहिये। ऐसे तपस्वियोंको फिर नरककी प्राप्ति होनी चाहिये परन्तु ऐसा होता नहीं है । भागवतमें लिखा है--- ५४ [r Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर ४२६ ] यदि प्राणिव धर्मः स्वर्गश्च खलु जायते । संसारमोचकार्ना तु कुतः स्वर्गोभिधीयते ॥ इससे सिद्ध होता है कि जीवोंकी हिंसा करनेवाले, मांस भक्षण करनेवाले वा और भी सप्त व्यसनोंका सेवन करनेवाले जीव ही नरकमे जाते हैं। लिखा भी है-व्यूतं च मासं च सुर्रा च वेश्य पापर्द्धिचोरीपरदारसेवाम् । सेवन्ति सप्तव्यसनानि लोकाः घोरातिघोरे नरके प्रयान्ति ॥ अर्थ- जुआ खेलना, मांस भक्षण करना, मापान करना, बेश्या सेवन करना, शिकार खेलना, चोरी करना और परस्त्री सेवन करना ये सात व्यसन कहलाते हैं। जो पुरुष इन सातों व्यसनोंका था इनमेंसे किसी भी व्यसनका सेवन करते हैं वे घोरसे भी महाघोर नरकमें जाते हैं। इन व्यसनोंके सेवन करनेका ऐसा ही नरक में जाना ही फल है। कोई-कोई कहते हैं कि हम तो तोर्थोपर स्नान करके अथवा और कोई पुण्य कार्य करके इन व्यसनोंसे उत्पन्न हुए पापोंको धो डालते हैं सो उनका यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि इसका उत्तर पहले अनेक इलोकोंका प्रमाण वेकर अच्छी तरह बसला चुके हैं। तथा प्रसंगानुसार थोड़ासा यहाँ भी लिखते हैं। भारत में लिखा है- मृदो भारसहस्त्रेण जलकुम्भशतेन च । न शुद्धयन्ति दुराचाराः तीर्थस्नानशतैरपि ॥ १ ॥ कामरागमदोन्मत्ताः स्त्रीणां ये वशवर्तिनः । न ते जलेन शुद्धयन्ति स्नानतीर्थशतैरपि ॥२॥ 1 अर्थ- जो पुरुष दुराचारी है वह अपनी शुद्धताके लिये यदि हजार भार प्रमाण मिट्टी अपने हाथ पैर आदि सब शरीरसे लगावे और फिर गंगा, यमुना, सरस्वती आदि नदियोंके पवित्र जलके सैकड़ों घड़े भरकर स्नान करे तो भी वह शुद्ध नहीं होता । दुराचारी सेकड़ों तीर्थस्थानोंसे भी शुद्ध नहीं हो सकते । इसी प्रकार जो लोग कामके रागसे मदोन्मत्त हो रहे हैं और जो सदा स्त्रियोंके वशीभूत रहते हैं ये पुरुष न तो जलसे शुद्ध होते हैं और न सैकड़ों तीर्थस्नानोंसे शुद्ध होते हैं। दुराचारो लोगों को ऐसा ही महापाप लगता है जो तोके स्नानसे भी नहीं छूट सकता । फिर भला वह पाप दूसरी जगह कहाँ छूट सकता है ? अर्थात् वह पाप कहीं नहीं छूट सकता । [ ४ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिसागर ve हाईवन संहिता शिक्षा - कर्षाभ्यामर्द्धपलं ज्ञेयं सुक्ति.रष्टमिका तथा । सूक्तिभ्यां च पलं ज्ञेयं मुष्टिरानं चतुर्थिका ॥g दशमासेका एक कर्ष होता है। लिखा भी है "कर्षस्तु दशमासकः" दो कर्षका एक पैसा होता है। दो पैसे का एक टका होता है। यहाँ टका कहनेसे टकाभर तौल समझना चाहिये इस प्रकार चालीस मासेका # एक टका भर तौल समझना चाहिये। भागे उसी शायरमें लिखा है पलानां द्विसहस्रं तु भारः एकः प्रकीर्तितः ॥ ___ अति दो हजार पलोंका एक भार होता है। इस प्रकारके एक हजार भार मिट्टोसे तथा गंगा आदि । तीयोंके सैकड़ों घड़े जलसे भी मांसाहारी कभी शुद्ध नहीं हो सकता । यही बात पहले पर्वमें लिखी हैचितं रागादिसंक्लिष्टमलीकवचनैमुखम् । जीवहिंसाभिः कायोयं गंगा तस्य परान्मुखी ॥ अर्थ-जिसका चित्त राग, द्वेष, मोह, मद, काम आदिसे मलोन है, मुख मिथ्या वचनोंसे मूठ बोलनेसे । । मलीन है और जीवोंकी हिंसा करनेसे जिसका शरीर मलीन है उसके लिये गंगा भी प्रतिकूल हो जाता है। से गंगा ऐसे पुरुषके सन्मुख कभी नहीं हो सकती। ऐसे पापियों को नहीं मिल सकती भर्यात ऐसे पापियोंके पाप। तीयों में भी नहीं कट सकते। ... कोई-कोई लोम तीयोंमें स्नान करने मात्रसे हो समस्त पापोंका छूट जामा मानते हैं तथा शुभ गतियों का होना मानते हैं सो भी ठोक नहीं है । क्योंकि यदि तीयोंमें स्नान करने मात्रसे जीव तिर जाय, पापोंसे छूट जाय तो फिर गंगा आदि तीर्थोके जलमें रहनेवाले मछलो, मेंडक, मगरमरछ, कछया आदि जलधर जीव सब ही मुक्त हो जाना चाहिये । सबहीके पाप छूट जाना चाहिये । परंतु ऐसा होता नहीं है । लिखा भी है| ययंबुस्नानतो देही कृतपापाद्विमुच्यते । मुक्ति यांति सदा सर्वे जीवास्तोयसमुद्भवाः ।। वेदव्यासने अठारह पुराण बनाये हैं। परन्तु उन सबका सार केवल दो बचनोंमें लिखा है। जीवोंको अभयवान वेनेसे तथा अन्य प्रकारसे पर जोवोंका उपकार करनेसे पुण्य होता है तथा अन्य जीवोंको पीड़ा देनेसे । पाप होता है। बस सब पुराणोंमें ये हो वो बचन सार हैं और बाकी सब निःसार हैं । सो हो लिखा है अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् । परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् । । Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ४२८ ] इस प्रकार और भी अनेक पुराणोंमें जीवोंकी हिंसा करने और गांव मग में दोष बतलाये हैं। तथा स्थान-स्थानपर इनके त्याग करनेका उपवेश दिया है। इसलिये सत्पुरुषोंको इन दोनोंका त्याग कर देना ही उचित है। जो निर्दयी, नीच, शूद्रोंके समान विषयों के लंपटी, महापापोंके द्वारा अधोगतिको जानेका नाश करनेवाले और पापोंको बढ़ानेवाले लोग अनेक प्रकारको बातें बनाकर जीवहिंसा करने, मांस भक्षण करने, मद्यपान करने, शहद खाने तथा और भी महापापोंका आचरण करने में आनंद मानते हैं। और धर्मकी हँसी करते हैं वे महा अशुभ कर्मोका बंध कर नरकादि कुगतियोंमें चिरकाल तक परिभ्रमण करते रहते हैं । यहाँपर कदाचित् कोई यह कहे कि सब लोग सो ऐसा करते नहीं हैं। ग्राविणी संप्रवायके ब्राह्मण सो इसका नाम उच्चारण होते ही भोजनका त्याग कर प्रायश्चित्त लेते हैं। वे अपने धर्ममें इतने वृढ़ हैं। परन्तु कुछ संप्रदायवाले इनका ग्रहण करते हैं सो वे जुड़े हैं । सो उनका यह कहना भी ठोक नहीं है। क्योंकि यद्यपि द्राविड़ी आदि संप्रदाय के लोग इनका ग्रहण नहीं करते तथापि वे इनके ग्रहण करनेका उपवेश तो देते हैं, वेद, पुराण, ज्योतिष, वैद्यक, यंत्र, तंत्र, मंत्र आदि कार्यों में जीव हिंसाका उपदेश बेते हैं। यज्ञमें जीवोंके हवन करनेका तथा देवताओंको बलिदान देनेका उपदेश देते हैं। राजा आदि क्षत्रियोंको शिकार खेलना तथा मद्य, मांस, शहद आदिका सेवन करना उनका परंपरासे चला आया कुल घमं बतलाते हैं। इन सब पापको शास्त्रोक्त बतलाते हैं और उसमें धर्म बतलाते हैं। परन्तु उनका यह उपदेश देना उनके सेवन करनेसे भी बढ़कर है । जो अपने स्वार्थके लिये बकरे, भैंसा आदि पशुको मारता है वह अवश्य नरक में जाता है। तथा इनका उपदेश वेनेवाला इनके करनेवालोंसे बहुत अधिक पापो गिना जाता है । बहुत से लोग कहते हैं देवताओं की पूजाके लिये, पितरोंको तृप्त करनेके लिये, यज्ञमें होम करनेके लिये पशुओं की हिंसा करनी हिंसा नहीं कहलाती है। वे लोग ऐसे कार्यों में पशुओं को मारते हैं, उनके मांसको खाते हैं। और कहते हैं कि इसमें कोई पाप नहीं है। यह मांस नहीं है किंतु देवताओंका प्रसाद है। ऐसा कहकर तथा उसे निर्दोष बताकर उपदेश देते हैं और फिर उसमें शास्त्रोंको साक्षी बतलाते हैं जैसा कि शाई गघर कथित सुभाषित संहिता तीसवें परिच्छेबमें लिखा है TA [ ४२७ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्षासागर आत्मार्थं यः पशुहन्यात सोऽवश्यं नरक बजेत् । देवान् पितृन् समभ्यर्थ्य खादन्मासं न दोषभाक् ॥ ३५ ॥ ___ इस प्रकार बहुतसे ग्रामण उप शिया करते हैं परंतु उनका यह उपदेश देना महा मिथ्या है। क्योंकि उपदेश देनेसे करनेसे भी अधिक पाप लगता है। करनेसे एक ही जीव द्वारा हिंसा होतो है और उपदेश देनेसे हजारों जीवोंके द्वारा हिंसा होतो है तथा हजारों जीवोंको मिथ्या श्रमान और मिथ्या ज्ञान हो जाता है । इसलिये ऐसा करना वा कराना सत्पुरुषोंका धर्म नहीं है। ऐसा समन्न कर उत्तम धर्मका सेवन करना चाहिये और हिंसामयो धर्मका दूरसे हो त्याग कर देना चाहिये । यही कहनेका अभिप्राय है। इनके वेद पुराणोंमें भी जीवोंको प्रत्यक्ष हिंसा तथा अनेक अनाचारोंमें धर्म बतलाया है । तथा बड़ेबड़े विरुद्ध वचन लिखे हैं । जैसे-मत्स्यावतारके मरस्यका उदर बनाते हैं, कच्छपावतारमें कछुएका मुँह बताते हैं, वराह ( सूअर ) अवतारमें सूअरका तुण्ड कहते हैं, नृसिंहावतारमें सिंहका मह बताते हैं । इस प्रकार उन अवतारोंको पशुओं के आकारके बतलाते हैं तथा उन्हें पशुओंको योनि मानते हैं। इसी प्रकार कल्की अवतारको केवल अश्यरूप ( घोड़ेके आकारका ) मानते हैं और कहते हैं कि परमेश्वरने देस्याविक दुष्ट जीवोंका वध करने के लिये अथवा भक्तोंका पालन करने के लिये उस घोड़ेमें आकर निवास किया है। ऐसे पुराणोंके वाक्य है। ऐसे वाक्योंको कहते हुए भी बड़े-बड़े वैष्णव तथा शैवधर्म वाले अथवा भील आदिक जीव उन मत्स्योंको, कछुओंको, सूअरोंको और सिंहोंको शस्त्रोंसे वा जालमें पकड़ कर मारते हैं और फिर उसको शिकार कहते हैं । वे लोग उनके मांसको खाते हैं और कहते हैं हम वैष्णव हैं । वे लोग जनेऊ पहिनते है, तिलक लगाते हैं, कण्ठी पहिनते हैं, स्नान, सन्ध्या, आचमन, तर्पण, पूजन, वान आदि करते हैं और फिर पोछे भोजनके समय जो छूने । योग्य नहीं ऐसी अस्पृश्य रसोईमें बैठकर उन्हों पात्रोंमें जीवोंका मांस भक्षण करते हैं। उसे अपना कुलधर्म बतलाते हैं। उस मांसको बड़ी प्रशंसा करते हुए खाते हैं और साथ मद्य भी पीते हैं। ऐसे अनेक निध कर्तव्य करते हैं। परन्तु उस समय वे लोग ठोक शूबोंमें खटीक जातिके शूद्रोंके समान तथा मुसलमानों में मको करनेवालों के समान दिखाई पडते लोग जो जनेऊ पहिनते हैं और अपनेको पवित्र ॥ मानते हैं सो उनका जनेऊ पहिनना वा पवित्र मानमा मद्य भरे हुए पके समान है। जिस प्रकार मचके घड़े। Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को मिट्टीसे मान कर ऊपरसे गंगा जलसे षोते हैं इस प्रकार उसे ऊपरसे साफ कर लेते हैं तथापि उसके भीतर को अशुद्धता कभी जाती नहीं वह मन भरा हुआ घड़ा मांजने और गंगाजलसे धोनेपर भी कभी शुद्ध नहीं हो। पर्चासागर सकता। उसी प्रकार मद्य, मांस आदिका सेवन करनेवाले पुरुष जनेऊ पहिनने वा गंगाजलसे स्नान कर लेनेपर PM] भी कभी शुद्ध नहीं हो सकते। इन लोगोंको विरुद्धता कहां तक कही जाय देखो जिस मुखसे तुलसी और शालिगरामका चरणामृत लेते हैं और फिर उनके भोगका महाप्रसाद भी खाते हैं और फिर उससे अपनी अच्छी गति भी पाहते हैं सो यह बड़ा अनर्थ है । देखो इस समय भी लोक परम्पराके अनुसार वृद्ध पुरुष भूठ बोलनेवालोंसे कहा करते हैं। कि जिस मुखसे खांडबाई जाती है उस मखसे क्या पलि खानी चाहिये। सो उनका यह कहना सत्य है। क्योंकि जिस मुखसे तुलसोका चरणामृहसेना उसो मुरबसे क्या मांस खाना और पच पोना योग्य है ? और । उस मांस भक्षण करने तथा मद्यपान करनेमें धर्म मानना अधोगतिका कारण नहीं है । अवश्य हो ऐसे लोगोंको । । नरमादिगा लगोगति पाण होती है। यहाँपर कदाचित् कोई मह कहे कि गति तो मुसलमान, जैनी वा वैष्णव तीनोंकी नहीं हो सकती। ये लाग चाहे तो मद्य-मांसादिकका सेवन करें अथवा उसका त्याग करें, तथापि तीनों हो नरकके पात्र हैं। सो हो लिखा है। म्लेच्छा ध्यानं दया जैनी भक्तिर्भागवता जनाः ।। प्रयोपि नरकं यान्ति हिंसा अशुचि निन्दनात् ॥ अर्थ-सलमान आदि म्लेच्छ लोग तो ध्यानको मुख्य मानते हैं । एक दिनमें पांच बार नमाज पढ़ते है तो भी वे जीयोंको हिंसा करनेसे नरक में जाते हैं। जीव हिंसाके कारण उनका ध्यान भी कुछ काम नहीं करता । जैनी लोग क्या पालन करते हैं परन्तु एक अपवित्रताके पापसे वे भी मरक जाते हैं। इसी प्रकार भागवती वैष्णव पुरुष नारायणको भक्ति करते हैं तथापि परनिन्दाके पापसे घे भी नरकके पात्र कहे जाते हैं। इस प्रकार मुसलमानोंके ध्यानके फल तो हिंसा करनेसे निरर्थक हो जाता है, जैनियों को क्या पालनेका शुभ फल १ मलिनताके दोषसे व्यर्थ हो जाता है और वैष्णवोंकी भक्तिका फल परनिन्दासे मिथ्या हो जाता है। इस प्रकार । Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर 1 ४३१ ] तीनोंको ही अच्छी गति नहीं मिल सकती परन्तु उनका यह कहना कुछ अंशोंमें सत्य है । लेखक ध्यान तो कुछ ध्यान ही नहीं है और न वह कुछ प्रशंसा के योग्य है क्योंकि उनकी सब क्रियाएं उलटी हैं। इसलिये वे सर्वथा अयोग्य हैं । भागवतो पुरुष पर निन्दा के महापापसे नरक जाना ही चाहिये। भागवती पुरुष जैनधर्मसे भारी शत्रुता रखते हैं। अरहन्तवेव और जैनधर्मको बड़ी निन्दा करते हैं। जैनधर्मसे द्वेव करते हुए अनेक प्रकारके विपरीत कार्य करते हैं। 'न गच्छेज्जैन मन्दिरम्' अर्थात् 'जैनियोंके मन्दिरमें कभी नहीं जाना चाहिये।' यहां तक वे उपवेश देते हैं। सां ऐसे पुरुषोंको नरक होना ही चाहिये । इसमें कोई सन्देह नहीं । परन्तु जैनियोंकी aur अपवित्रताके दोषसे नरक जानेवाली बतलाई सो ठोक नहीं है। क्योंकि सब जैनी अपवित्र नहीं है। कुछ केवल नाम मात्र जैनी कहलाने वाले श्वेताम्बराविक ऐसे हैं जिन्होंने अपवित्र आचरणोंका निरूपण किया है। उन्हीं श्वेताम्बरों में परस्परके रागद्वेषसे तथा क्रोध, मान आदि कषायोंसे विजयगच्छ, खरतरगच्छ, पुण्यागच्छ आषि अलग-अलग चौरासी गच्छ हो गये हैं। उन्होंमें एक लोकागच्छ हुआ था उसने अनेक प्रकारके हीनाचरण स्थापन किये हैं। उस लोकागच्छके उत्पन्न होनेके कितने हो वर्ष पीछे ढूंढिया साधु हुए हैं। उनके पीछे एक भीष्म नामका डूढिया हुआ था जिसने तेरह ढूंढियाओंका अलग समुदाय बनाकर अपने नामका भीष्मपंथ अथवा तेरहपंथ चलाया । इस प्रकार इन लोगोंने अलग-अलग धर्म चलाये है और होनसे होन, महा अपवित्र, महा अशुद्ध आचरणोंका निरूपण किया है। ये लोग दया पालनका तो उपवेश देते हैं परन्तु महा अशुद्ध रहनेके कारण उनके द्वारा अनेक जीवोंकी हिंसा होती है। इसलिये ऐसो हिंसा करनेवाले इंडिया आदि जेनी नरकके पात्र है ही एक ढूंढियाओंके निद्य आवरणोंको देखकर सब जैनी ऐसे अपवित्र नहीं है। ऐसा जानकर जीवोंकी दया सदा पालन करते रहना चाहिये । संसारमै जीव दया ही मुख्य धर्म है । यहाँपर कदाचित् कोई यह कहे कि संसार में जीवों को दया पल कैसे सकता है । क्योंकि बिना आहारके तो कोई जीव जीवित रह ही नहीं सकता। परन्तु उसका यह कहना भो ठीक नहीं है। क्योंकि जिसने जीवोंकी रक्षा हो सकती है उतने जीवोंको रक्षा जरूर करनी चाहिये । श्रस जोवोंकी रक्षा करना तो मनुष्य मात्र का धर्म है तथा अपने भाव सब जीवोंको रक्षा करनेके रखने चाहिये। बहुतसे आरम्भका तो त्याग कर देना ही चाहिये। तथा अल्प आरम्भमें अपने भावोंसे महा हिंसाका त्याग कर देना चाहिये । संसारमे यही सार है। और सब असार है । [ v Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावर ४३२ ] इन्स्टी कितने ही मुसलमान या चांडालादिक तीच शूत्र हिंसा करते हैं मद्य, मांसका सेवन करते हैं और अपने कुमतिज्ञान या कुश्रुतज्ञानके बलसे उस मद्य, मांसाविकके सेवनको ठीक बतलाते हैं सो वे प्रत्यक्ष अधोगामी हैं इसमें किसी प्रमाणको आवश्यकता नहीं है । कदाचित् यहाँपर कोई मुसलमान यह कहे कि "तुम लोग खाते-पीते हो क्या उसमें जीवोंकी हिंसा नहीं होती ? सो भी कहना मिथ्या है क्योंकि इसका उत्तर पहले बहुत कुछ दिया जा चुका है। तथा फिर भी अत्यन्त संक्षेपसे इसका उत्तर यह है कि इस संसारमें जीव दो प्रकार हैं। एक तो ऐसे हैं जिनमें जीवकी सत्ता जीवके प्राण वा जीवका स्वरूप प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है ऐसे जीवोंको त्रस जीव कहते हैं। तथा दूसरे ऐसे हैं जिनमें जीवको सत्ता वा स्वरूप केवल अनुमानसे जाना जाता है बाहरसे ये अजीबसे ही दिखाई पड़ते हैं । ऐसे जीवोंको एकेन्द्रिय जीव कहते हैं। ये एकेन्द्रिय जीव पसे, पुरुष, फल आबिक जलसे उत्पन्न होते हैं इसलिये ये माता के दूषके समान ग्रहण करने योग्य वा खाने योग्य समझे जाते हैं। तथा पशु, पक्षी, मछली, मनुष्य आबिक जीव स जीव है जो माता-पिता रुधिर, वीर्य ने उत्पन्न होते हैं। जिनको तुम लोग पेशाब से उत्पन्न होना बतलाते हो । सो ऐसे स्त्रीके दूधके समान अग्राह्य वा स्याग करने योग्य अभक्ष्य बतलाये है। जिस प्रकार स्त्रियोंके दूधकी अपेक्षा माता और स्त्रोका दूध समान है तथापि माताका दूध पीने योग्य है और स्त्रीका दूध पीने योग्य नहीं है। उसी प्रकार जीवत्वकी अपेक्षासे जीव एक हैं तथापि उनकी उत्पत्तिमें अन्तर होनेसे तथा वृक्ष आविक एकेन्द्रिय जीवोंके शरीरकी मांस, संज्ञा न होनेसे वे ग्रहण करने योग्य वा भक्ष्य कहे गये हैं। जिस प्रकार गायके दूध और गायके मांसमें अन्तर है जिस प्रकार मनुष्य के विष्ठा और गायके गोबर में अन्तर है उसी प्रकार नस और स्थार जीवोंमें भी अन्तर है। मांस भक्षण स्त्रीके दूधके समान ग्रहण करने योग्य नहीं है पेशाब से उत्पन्न होने के कारण नापाक वा अपवित्र है । जिस पैशाबके लगनेसे किया हुआ रोजा भी नहीं लगता उस पेशाब से बने हुये मांस भक्षण करनेसे भला पवित्रता कहाँ रह सकती है । Sternal) (2) Samia 25 perat - इस प्रकार अन्य शास्त्रोंके प्रमाण देकर मसिके अनेक दोष बतलाये। आगे जैन शास्त्रोंके अनुसार इसका विचार करते हैं। श्री वसुनन्दिश्रावकाचार में लिखा है hi अमेझसरिसं किमिकुलभरियं दुगं विभत्थं । पाणवि णत्थि वे उ जंण नीरए स कह भोतु ॥ [ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३३ अर्थ-यहाँ मांस मनुष्यकी विष्ठाके समान है। विष्ठा और मांसमें कोई भेद नहीं है। दोनों एक ही हैं इसलिये मांस विष्ठाके समान है। पांधफे सूअर तथा कोवे, गीय मांसाहारी जीव मांस और विष्ठा दोनों पर्चासागर को खाते हैं इससे साबित होता है कि मांस बिल्कुल विष्ठाके समान है। इसके सिवाय वह मांस लट तथा । अन्य छोटे-छोटे जन्तुओंसे भरा हुआ है। अत्यन्त दुर्गन्धमय घुणित है। पैरसे भी छूने योग्य नहीं है। और न कोई उसके पास जाता है। ऐसा मांस भला भक्षण योग्य किस प्रकार हो सकता है ? अर्थात कभी नहीं हो सकता। ऐसे महा निन्दनीय मांसको खाना अत्यन्त अशुभ कर्मके उदयका माहात्म्य है । ऐसे घृणित मांसको घृणित जानते हुये जो खा जाते हैं वे अवश्य नरकके पात्र हैं इसमें कोई संदेह नहीं। ऐसे जिन शास्त्रोंके वचन हैं। इसका विशेष स्वरूप अन्य ग्रन्थोंसे जान लेना चाप्रिये । मांसारित भएकरने में व्यापमंका लोप होता है। जो जीव इनका त्याग नहीं करते वे उस पापM के उदयसे नरकमें हो जाते हैं ऐसा सिद्धांत है। जो लोग लोभी हैं, कपटी हैं, मानी हैं, क्रोधी हैं, इन्द्रियोंको ॥ पुष्ट करनेवाले विषय भोगोंके लंपटी हैं उन्होंने अपना स्वार्थ सिद्ध करनेके लिये तथा राजा, महाराजा आदि। बड़े लोगोंको ठगनेके लिये हिंसामयी शास्त्र बनाये हैं । तथा ऐसे शास्त्रोंफा पढ़ना-पढ़ाना भी स्वार्थके हो लिये। होता है। राजा, महाराजाओंको खुश रखनेके लिये उनको इच्छानुसार अर्थ निरूपण किया है। धर्मके अनुसार चलनेवाले स्पष्ट वेत्ताओंके स्पष्ट वाक्य नहीं है इसलिये विपरीत हैं और सम्यग्दृष्टियोंके श्रद्धान करने योग्य नहीं हैं। शास्त्रोंमें जो यह लिखा है कि येषां न विद्या न तपो न दानं । न चापि शीलं न दया न धर्मः।। ते मर्त्यलोके भुवि भारभूताः मनुष्यरूपेण मृगाश्चरंति ॥ अर्थात्-जिसके पास न विद्या है, न तप है, न वान है, न शील है, न क्या है, और न धर्म है अर्थात् जो जीवोंकी हिंसा करते हैं । मांस भक्षण करते हैं मद्यपान करते हैं ऐसे जीव इस मृत्युलोको पृथ्वीके भार [४६ हैं। ऐसे मनुष्य मनुष्यके आकारके पशु ही समझने चाहिये। यह जो शास्त्रों में लिखा है सो ऐसे ही हिंसक वा मांसाहारियोंके लिये लिखा है। Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ४३४] जन्यमान्याममायाdmaARISATTARARIES मांसाहारी पुरुषोंके आचरण कुत्तोंसे भी गपे बोते हैं। देखो राजा, महाराजा आदि बड़े-बड़े मांसाहारी पुरव मांसके लोभसे धनमें शिकार खेलने जाते हैं। हमार जग शिकारी कुने रहते हैं तथा उन कुत्तोंको । पालने वाले चांडाल आदि भी साथ रहते हैं। उन चांगलोंको उच्छिष्ट वा झूठन वे कुत्ते खाते ही हैं। ऐसे कुत्तोंको हिरण, सांभर, रोज आदि जंगली जानवरोंपर छोड़ देते हैं वे कुत्ते अपने मुंहसे उन पशुओंको पकड़ । लेते हैं तथा मारकर ले आते हैं। फिर उसका शरीर फाड़कर मांस निकालते हैं और वे राजा, महाराजा आदि बड़े आवमी उस मांसको खा जाते हैं। भला सोचनेकी बात है चांडाल वा मुसलमान आदिको मूठन खानेवाले शिकारी कुत्तोंके मुहसे पकड़ा हुआ यह मांस बड़े-बड़े पुरुषोंके द्वारा खाया जाता है। सपा वे बड़ेबड़े पुरुष उस कुत्तोंकी झूठन मांसको खाकर अपनेको बहुत कुछ कृतार्थ मानते हैं। एक तो वह मांस दूसरे । कुत्तोंकी झूठन परंतु फिर भी लोग उसे खा जाते हैं ऐसे मांसको खानेवाले संध्या, आचमन भी करते हैं, नमाज पढ़ते हैं, रोजा रखते हैं, हज करते हैं और इन कामोंको करते हुए अपनेको बहुत कुछ कृतार्य मानते हैं। परन्तु विचार करनेपर वे सब चांडालके समान वा कुत्तोंके समान अस्पृश्य मालूम होते हैं। कदाचित् यहीपर कोई वेवांती यह कहे कि ये सब जोवारमा प्राणी मात्र इस ब्रह्मांडमें सृष्टि मात्रके भूत वा प्राणो हैं वे सब सदा जीवित रहते हैं। वे किसीके द्वारा मारे नहीं जाते। यह जीव अनाविकालसे जीता आई रहा है, वर्तमानमें जी रहा है, और आगे जीवेगा। न कभी मरा है, न कभी मरेगा इसलिये क्या पालन करना। व्यर्थ है । क्योंकि किसी भी जीवको कभी हिंसा होती ही नहीं है। परन्तु वेदान्तीका यह कहना सर्वथा मिथ्या । है। और महा अनर्थका मूल है। क्योंकि यदि यह जीव अमर है कभी मरता हो नहीं तो फिर माय, ब्राह्मण आदि की हत्या करनेवालेको हत्यारा क्यों कहते हो ? तथा जब तक उसे प्रायश्चित्त नहीं दे लेते तब तक उसे है पंक्तिबाह्य क्यों रखते हो ? स्त्री, बालक, राजा, कन्या, ब्राह्मण, गरु, गाय, मुनि आदिको हिंसा करनेवालेको महापापी क्यों कहते हो ? यदि जीवको सर्वथा अमर मानोगे तो अन्य जीवोंकी हिंसा करनेसे पाप उत्पन्न होता है और ऊपर लिखे स्त्री, बालक आदि जीवोंकी हिंसा करनेसे महापाप उत्पन्न होता है। ग्रह जो शास्त्रोंने । लिखा है सो सब व्यर्थ हो जायगा परन्तु यह शास्त्रोंका लिखना कभी व्यर्थ नहीं हो सकता और तेरा कहना कभी सत्य नहीं हो सकता क्योंकि पुराणों में लिखा है कि माय, ब्राह्मण आविको घया पालनी चाहिये उनको । Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मलागर ४३५ ] । रक्षा करनी चाहिये । उनकी क्याके लिये क्षत्रियोंको उचित है कि वे सिंहादिक दुष्ट जीवोंके शब्द सुनते हो। भोजन छोड़कर उनके बचानेके लिये जाय । जब यहाँ तक जीवोंको दयाका विधान है तो फिर वेदांतियोंका। कहा कभी सत्य नहीं हो सकता। दूसरी बात यह है कि जिस प्रकार गाय, ब्राह्मण आविको हिसा फरनेमें महापाप होता है और उनकी रक्षा करनेमें महाधर्म होता है उसी प्रकार अन्य जीवों को हिंसा करने में भी महापाप होता है और उनको क्या पालन करने वा रक्षा करने में महाधर्म होता है। वास्तव में देखा जाय तो समस्त जोधोंको दया पालन करना हो सबसे बड़ा धर्म है। पाप कार्य करनेसे यह जीव नरक, तिर्यच गति पाता है । पुण्य कार्य करनेसे मनुष्यगति पाता है और धर्म साधन करनेसे स्वर्ग, मोक्ष पाला है। यह जो शास्त्रोंमें लिखा है सो कभी व्यर्थ नहीं हो सकता । और इसीलिये तेरा कहना कभी सत्य नहीं हो सकता। यदि यह मान लिया जायगा कि जीव सब एक समान हैं क्योंकि सब ब्रह्मस्वरूप हैं तो फिर माता, पुत्री, बहिन, स्त्री आदिका ब्रह्म भी एक ही माना जायगा और फिर सबके साथ विषय-सेवन करना भी एकसा ही माना जायगा परन्तु ऐसा कहना वा मानना अनोंका उत्पन्न करनेवाला है। इसलिये इस प्रकार कहने वाला वेदांतमत कभी ठीक नहीं हो सकता। । यहाँपर कोई आयुर्वेदी कहता है कि यह जीव अपनी आयु पूर्ण होनेपर ही मरता है किसीके मारनेसे नहीं मर सकता । आयु पूर्ण होनेपर चाहे कितने ही यन्त्र, मन्त्र किये जाय परन्तु वह बच नहीं सकता । इससे सिद्ध होता है कि आयु पूर्ण हुए बिना कोई मर नहीं सकता। हो, जिसको जैसा निमित्त मिलना होता है या जैसी होनहार होती है जिस प्रकार मृत्युका होनहार निश्चित होता है उसी प्रकार वह जीव मरता है। जिसकी आयु अधिक होती है जो दीर्घ आयु वाला होता है वह बिना प्रयत्नके भी बच जाता है। बचामेसे कोई जीव बचता नहीं और मारनेसे काई मरता नहीं। भारमे वा मचानेका कर्तव्य करना सब झूठा है । सो ही लघु। चाणिक्यमें लिखा हैभवितव्यं यथा येन नासो भवति चान्यथा। नीयते तेन मार्गेण स्वयं वा तत्र गच्छति ॥६॥ अर्थात्-जो होनहार होता है वह अन्यथा नहीं हो सकता। जिसका जहाँ जैसा होनहार होता है वह चमचमान्यनियमानायला ४३५ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खिायर १६ ] वैवके द्वारा उसी मार्गसे ले जाया जाता है अथवा वह स्वयं उस मार्गसे चला जाता है। ऐसा माठवें अध्यायमें लिखा । है। परन्तु आयुर्वेदोका यह कहना भो सत्य नहीं है। यदि यह बात सत्य मान ली आय तो जब वह मनुष्य स्वयं रोगी होता है अथवा उसके परिवार वा फुटुम्बका कोई मनुष्य रोगी होता है तो उसको औषधि क्यों दी जाती है है। यदि कोई शस्त्रादिकसे मारना चाहता है तो उसके बचानेका उपाय क्यों किया जाता है । उसका रोग दूर करने अथवा उसको बचानेके लिये देव, देवियोंका आराधन क्यों किया जाता है। पान, पुण्य, जप क्यों किया। जाता है, परमेश्वरका भजन वा भक्ति क्यों की जाती है। यदि जीव मारनेसे मरता हो नहीं, आयु पूर्ण होनेपर। ही मरता है तो फिर संसारमें जो-जो उपाय किये जाते हैं वे सब व्यर्थ मानने पड़ेंगे। क्योंकि यदि आयु होगी तो यह बिना किसी उपायके अपने आप बच जायगा । आयु पूर्ण हुए बिना कोई भी रोगी नहीं मर सकता इसलिये उसको चिकित्सा करना, इलाज करना व्यर्थ हो जायगा परन्तु संसारमें ऐसा होता नहीं है और न यह किसीका सिद्धांत है इसलिये आयुर्वेदोका ऊपर लिखा सिद्धांत सर्वथा मिथ्या है। यदि जन्म, मरण कोई चीज नहीं है तो अपने मरने के समय तथा अपने कुटुम्बके किसोके मरने समय । शोक क्यों करते हो ? रोते क्यों हो, किसीका जन्म होते समय हर्ष क्यों मनाते हो । यदि जन्म, मरण कुछ नहीं है तो जन्म, मरणके समय हर्ष, विषाद भी नहीं करना चाहिये परन्तु समस्त संसार करता है और शास्त्रों# में भी लिखा है इसलिये जन्म, मरणको न मानना लोकविरुद्ध और शास्त्रविरुद्ध है। दया धर्मका लोप करने वाला है और हिंसादिक महापापोंको उत्पन्न करनेवाला है इसलिये धर्मात्माओंको कभी मान्य नहीं हो सकता।। कदाचित् यहाँपर कोई यह कहे कि आयु पूर्ण हुए बिना जीव मरता है यह बात अभी तक निःसंदेह नहीं हुई है । तो इसका उत्तर यह है कि मरणके दो भेद हैं। उदय और उदीरणा । जो शस्त्र, अग्नि, जल, श्वासोच्छ्वासका निरोध मर्मस्थानको चोट, क्षुधा, तुषा, दुस्तर रोग और पतन आविसे जीवका मरण होता है उसको कवलीघात मरण अथवा उदीरणामरण कहते हैं। इसका विशेष स्वरूप अष्टपाहड़ आदि शास्त्रोंमें लिया है। इसी प्रकार अपनी आयु पूर्ण होनेपर जो मरण होता है उसको उदय मरण कहते हैं। जिस प्रकार कच्चे आमको पालमें वेकर पका लेते हैं और वह पालमें देनेसे मर्यादाके पहले ही पक जाता है उसी प्रकार विष, शस्त्र आदिके कारण मिलनेसे जो आयुके समस्त निषेक बोबमें ही खिर जाते हैं उसको अकालमरण । [३६ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर ४३७ ] कालीघातमरण वा उतोरणा मरण कहते हैं तथा जिस प्रकार आम बालीपर लगा हुआ क्रम-क्रमसे अपने समय। पर पकता है और पककर गिर जाता है उसी प्रकार आयु पूर्ण होनेपर मरण होना उदय मरण कहलाता है। लिखा भी हैआपक्वमपि चूतस्य सुठिगुडप्रलेपनात् । धर्म संस्थापनादेव सुस्वादु पक्वत्वां व्रजेत् ॥ अर्थात्-कच्चे आमको सोंठ, गड़का लेप करनेसे तथा धूपमें रखनेसे वह पक जाता है और स्वाविष्ट हो जाता है उसी प्रकार का मिलनेपर मरण भी समय पूर्ण हुये बिना ही हो जाता है। श्रीउमास्वामीने भी श्रीतस्वार्थसूत्र में लिखा है औपपादिकचरमोत्तमदेहासंख्येयवर्षायुषोऽनपवायुषः॥ अर्थात्---वेव, नारको उत्तम शरीरको धारण करनेवाले चरमशरोरी और असंख्यात वर्षको आयुवाले भोगभूमियों । इनकी आयु तो बीचमें नष्ट नहीं होती अर्थात् इनका तो कदलीघातमरण नहीं होता बाकी जीवों का नियम नहीं है | होता भी है और नहीं भी होता। यहाँपर सब ही घरमशरीरियोंका ग्रहण नहीं है किंतु उत्तम शरीर कहनेसे तीर्थकरका ही ग्रहण करना। चाहिये । अन्य सामान्य केवली, चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण, गुरुवत्त, पांडव आदिके उदय, उबीरणा दोनों मरण समझना चाहिये। जिस प्रकार दोपफमें तेल रहते हुये भी वायुके शोकेसे वीपक बुझ आता है उसी प्रकार । उपसर्ग वा शस्त्रादिकसे आयु पूर्ण हो जाती है। यहाँपर कदाचित् कोई तत्त्ववादी यह कहे कि यह आत्मा पुपियी, जल, अग्नि, वायु, आकाश इन पांच तत्त्वोंसे बना है आयु पूर्ण होनेपर इसके सब सत्व अपने-अपने तस्वोंमें मिल जाते हैं। इसलिये जीवोंको । । हिंसा वा क्या कुछ नहीं है । जीबके मरनेका अर्थ तत्त्वका तस्वमें मिल जाना है सो इसमें हिंसा होतो नहीं है। । परन्तु उनका यह कहना भी सर्वथा मिथ्या है । तथा महा पापरूप है ! यदि पंचतत्त्व मिलकर हो शरीरमें जीव १. सर्वार्थसिद्धि राजवातिक आदि ग्रंथों में सब हो च रमशरीरियोंका मरण उदयमरग बतलाया है। उसमें लिखा है कि चरमशरीरियोंका शरीर उत्तम होता ही है इसीलिये उत्तम शरोर यह चरमशरोरियोंका विशेषण है। यदि 'घरमोसमदेहाः' इसको जगह चरमदेहाः ऐसा पाठ कर दें तो भी कोई हानि नहीं है इसके अनुसार राजकुमार पांडव आदि अन्तकृतकेवलियोंको जो मोक्ष हुई है सो आयुके पूर्ण होनेपर ही हुई समझना चाहिये। Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m ewatantan १बन जाता है उसके पुण्य, पाप कुछ होता नहीं है फिर स्वर्ग का मरकों में जीका आकार अमेफरूपका किस प्रकार हो जाता है । इन गलियों में जीव अनेक प्रकारके सुख-दुख किस प्रकार भोगते हैं । स्वामी, सेवक, माता, पर्चासागर पिता, पुत्र, पौत्र, भगिनी पुत्र आदिका व्यवहार किस प्रकार हो जाता है। तेरी तथा अन्य मनुष्योंकी उत्पत्ति [८] माता-पितासे ही क्यों होती है पंचतत्वोंसे ही क्यों नहीं होती ? यदि पंचतत्वसे जीव उत्पन्न होता है पंच तस्वसे ही उत्पन्न होना गाने फिर गालासे क्यों इल्पन्न होता है । यदि जीव पंचतस्वसे उत्पन्न हुआ है तो फिर येव-पुराणों में यह जो लिखा है कि जीव मर कर परलोकमें जाता है। वहांपर धर्मराय सबके पुण्य-पापका हिसाब देखते हैं तथा उनके कर्तव्य के अनुसार उनको नारकाविक गति देते हैं सो यह पंचतस्वके मिले बिना उत्पन्न हुआ जीव कौन-सा है। जो इस प्रकार परलोकमें आता है। __ यदि जीव पंचतस्पसे बना है और मर कर पंचतत्त्वमें ही मिल जाता है तो फिर जो कोई मर कर । सर्प का भूत-प्रेत योनिमें जन्म धारण कर लेता है और फिर अपने कुटुम्बसे कहता है कि हम प्रेताविक योनिमें उत्पन्न हुए हैं। हमारा उद्धार करो। गंगा, यमुना, प्रयाग, काशी, गया माविमें पिण भरो, श्राद करो और इस प्रकार हमारी गतिका उद्धार करो । सो लोग भी श्राड, पिंडाविक करते ही हैं। इसी प्रकार स्वर्गके लिये। विष्णु-भक्ति, तीर्थयात्रा, यजन, याजन, यज्ञ, दान, पुण्य, व्रतोपवास आवि करते हैं सो सब व्यर्थ मानना । पड़ेगा। क्योंकि यदि जीव पंच तस्वसे जुवा हो नहीं है फिर ये सब कार्य किसके लिए करना चाहिये। यदि जीव पंचतरवसे जुवा नहीं है तो फिर गाय, ब्राह्मणकी दयाका पालना वा भोजनाविकका दान देकर उनको । । सन्तुष्ट करना आदि सब व्यर्थ हो जायगा । इसी प्रकार परमेश्वर वैकुण्ठसे आकर यहाँ अवतार लेते हैं और दैत्यादि दुष्ट जीवोंका विध्वंस कर भक्तोंको सहायता करते हैं सो सब व्यर्थ हो जायगा। क्योंकि सबके मिलापसे बने हुए शरीरसे भिन्न कोई जीव है ही नहीं फिर परमेश्वर किसके लिये ये सब कार्य करता है। जब इस शरीरमें पांच तत्व मिले ही हैं फिर अपने कुटुम्बकी रक्षा क्यों की जाती है। मरनेसे बचनेका उपाय क्यों किया जाता है। रोगाविकके होनेपर औषधि देकर उसके जीनेका उपाय क्यों किया जाता है। स्नान, ॥ सन्ध्या, तर्पण आवि किसके लिये किया जाता है। इससे सिद्ध होता है कि पंचतस्वसे जीव अलग पदार्थ है। a waranantatwasand Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ४३९] विचार करनेकी बात है कि यह जीव पंच तत्वोंके मिलनेसे ही उत्पन्न होता है तथा पंच तत्वोंके अलग अलग हो जानेसे जीव उन्होंमें मिल जाता है। तो फिर रसोईघर में जिस बटलोई में बाल पकती है उसमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश आदि सभी तस्व मिले हुए हैं फिर उनमें जीव क्यों नहीं उत्पन्न हो जाता ? चौका, चूल्हा, बटलोई आदि पृथिवी तस्त्र है । बटलोईमें जो जल भरा है वह जल तत्व है। अग्नि जलती है जल, बटलोई आदि सब अग्निरूप हो जाता है वही अग्नि तत्त्व है । वायु सब जगह भरी हुई है और आकाश सब जगह व्याप्त है ही । इस प्रकार वहाँपर पांचों तत्त्व उपस्थित हैं। फिर वहाँपर जीव उत्पन्न क्यों नहीं हो जाता ? परन्तु कहीं किसी भी रसोईमें जीव उत्पन्न नहीं होता इससे सिद्ध होता है कि जीव पंचतत्वसे उत्पन्न नहीं होता किन्तु जुदा पदार्थ है । कदाचित् कोई यह कहे कि तत्त्वोंमें तो जीव नहीं है। तत्त्व तो पुद्गल स्वरूप है, जीव इन तत्वोंसे जुदा है । सत्त्व जड़ हैं और जीव चैतन्य स्वरूप है। परंतु उसका यह कहना भी मिष्या है क्योंकि इसमें भी हिंसाकी ही पुष्टि होती है। जब तत्व, तथ्य में मिल जाता है और जीव जुदा रहता ही है। तब फिर जीवके मारने से हिंसा भी नहीं होती और उसके बचानेसे दया भी नहीं होती। क्योंकि जब जीवका विनाश ही नहीं होता, केवल तस्व तत्वमें मिल जाता है। तो फिर जीवका विनाश हुए बिना ही हिंसा किस प्रकार सिद्ध हो सकती है । इस प्रकार महादोष उत्पन्न होता है। इसलिये ऐसा मानना भी हिंसाको सिद्ध करता है। इससे दयाका पालन नहीं होता। यथा और भी अनेक दोष उत्पन्न होते हैं। इसलिये ऐसे मिथ्या वचन कहने में कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। जीवोंको दया पालन करना ही सत्य धर्म है। जो लोग हिंसाको धर्म कहते हैं सो सब मिया है । शास्त्रोंमें लिखा है । आचारः प्रथमो धर्मः सर्वधर्मे प्रकीर्तितः । अर्थात् अपने आत्माको शुद्ध रखना, स्नान, सन्ध्यादिक करना और मद्य, मांस आदि अभक्ष्य पदार्थोंका भक्षण न करमा हो आधार है। यह आचार समस्त धर्मोसे श्रेष्ठ धर्म है। परन्तु ऊपर लिखे हुए आयुaath सिद्धांतके अनुसार यह सर्व व्यर्थ हो जाता है और यह आचाररूप धर्म कभी व्यर्थ हो नहीं सकता इसलिए आयुर्वेदका कहना ही मिथ्या है । [४ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ we] गरिमामयारियाचारaasRTAIमारवायालय कदाचित् यहाँपर आविशक्तिका उपासक यह कहे कि आदिशक्तिके कटाक्षमें अनेक अवसर हो गये। है इसलिए शक्ति आदि है । खप्पर आदिके द्वारा मद्य, मांसाविकका सेवन करना उसको उपाधि है। इसका है विशेष वर्णन रामायण, वेद-पुराण आश्मेिं लिखा है। रामचन्द्र आदि सब देवताओंने सहस्रनाम आदिके द्वारा इसकी स्तुति वा पूजा की है। जब वे लोग शक्तिके तेजको सह नहीं सकते थे सब नमस्कार कर उसके स्वरूप को सोच करनेके लिए प्रार्थना करते थे इसीलिए हम लोग (शक्तिके उपासक लोग ) उसकी उपासनाके लिए दुर्गा, चण्डो, कात्यायनी, विन्ध्यवासिनी, अम्बिका, काली आदि अनेक स्वरूपोंको धारण करनेवाली शक्तिकी पूजा करते हैं । उसको पूजाके लिए बकरे, भैंसे आविको मार कर बलिदान देते हैं । उसपर मद्य चढ़ाते हैं और उसकी प्रसादी समक्ष कर उस मध, मांसका भक्षण करते हैं। यही सबसे बड़ा धर्म है। तथा ब्राह्मण मात्र सब शक्तिके उपासक हैं ऐसा हो सब शास्त्रों में लिखा है। इस संसारमें शिव तथा विष्णुके उपासक कोई नहीं ! है। लिखा भी है-'ब्राह्मणाः शाक्तिकाः प्रोक्ता न शैया न च वैष्णवाः' । अर्थात् ब्राह्मण सब शक्तिके उपासक हैं शिव वा विष्णुके उपासक कोई ब्राह्मण नहीं है इसीलिये हम शाक्तिक हैं। इस प्रकार वे लोग कहते हैं । परन्तु उनका यह कहना सब हिंसामय है। पापका बढ़ानेवाला है। ऐसे लोगोंसे जीवोंको दया कभी नहीं पल सकती। क्योंकि वे सब कुछ जानते हुए, देखते हुए भी मद्य, मांसका सेवन करते हैं, और उसको सोमपा कहते हैं सो यह किस प्रकार बन सकता है। उनका यह कहना सब मिथ्या है सोम शब्दका अर्थ अमृत है और पा शब्दका अर्थ पीनेवाला है। जो अमृतको पोवे उसको सोमपा कहते हैं । मद्य, पान करनेवाला कभी सोमपा नहीं हो सकता। उसे तो राक्षस कहना चाहिये । वह तो । उपासना करने योग्य कभी नहीं हो सकता । वह तो दूरसे ही त्याग करने योग्य है । जो लोग ऐसोंको उपासना करते हैं वे भी राक्षस हो हैं । प्रश्न-यदि ऐसा है तो माता, गाय, भैंस, बकरी आदिका बूध, दही, घी, छाछ आदि क्यों खाते। पीते हो? यह भी तो शरीरसे ही उत्पन्न होता है । रस नामके पातुसे उपधातु बनता है उसी प्रकार मांस भो शरीरसे उत्पन्न होता है । लगभग दूध और मांस एक-सा है । फिर दूधके समान मांस खानेमें क्या दोष है ।। उत्तर-पद्यपि बूध और मांस दोनों ही शरीर उत्पन्न होते हैं। तथापि मांस त्याग करने योग्य है । Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! और दूष ग्रहण करने योग्य है। जिस प्रकार स्त्री भी स्त्री है और माता भी स्त्री है, स्त्री पर्यायको अपेक्षा दोनों का एकसे हैं तथापि स्त्री सेवन करने योग्य है माता सेवन करने योग्य नहीं है तथा भगिनी पुत्री आदि भी सेवन पर्चासागर करने योग्य नहीं है। उसी प्रकार मांस भक्षण करना कभी योग्य नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक पदार्थमे । भिन्नता माने बिना कभी काम नहीं चल सकता । सबको एक मानना सर्वथा मिथ्या है । इसलिये दूष, दही, । घी आदि पदार्थ पवित्र होने के कारण ग्राह्य है और मांस सर्वथा हेय वा त्याग करने योग्य है । प्रश्न-हम तो जीवोंको तुरन्त मारकर उसका मांस खाते हैं । इसको हलाल कहते हैं । हलाल कर खानेमें कोई दोष नहीं है । न कोई पाप है। पाप तो मरे हुए जीवके मांसमें है । क्योंकि उसको हराम कहते है । सो उसका खाना योग्य नहीं है। उत्तर-ऐसा कहनेमें भी महा दोष उत्पन्न होता है। क्योंकि हलाहल और हरामका भेव करना तो । लोगोंको बहकाना है। लोगोंको बहकानेके सिवाय और कुछ नहीं है। क्योंकि प्रत्यक्ष जीवोंको मारना तो योग्य समाना जाय और मरे हुए का स्पर्श करना भी अयोग्य समसा जाय । यह कभी नहीं हो सकता है । ये दोनों ॥ बातें एक ही हैं इनमें कोई अन्तर नहीं है। जो लोग ऐसा कहते हैं वे अपनी इन्द्रियोंको पुष्टि के लिये अथवा अपनी जिला इन्द्रियके स्वादके लिये कहते हैं । भावप्रकाशमें लिखा हैपूतिमासंस्त्रियो वृद्धाः वालार्कस्तरुणं कधि । प्रभाते मैथुनं निद्रा सद्यः प्राणिहराणि षट् ॥ अर्थ-दुर्गन्धमय मांसका भक्षण करना, वृद्ध स्त्रियोंका सेवन करना, कन्याराशिकी धूपको सहना, १ तुरन्तके जमाये हुये वहीको खाना, प्रभातके समय मैथुन करना तथा प्रभातके समय नींद लेना । इन छह बातों के करनेसे शीघ्र हो प्राण नष्ट हो जाते हैं । यहाँ पर प्राण शब्दका अर्थ बल है। इन ऊपर लिखे छहों कामोंमेंसे कोई-सा भी काम करनेसे उसी समय बल नष्ट हो जाता है। सब पराक्रम जाता रहता है । आगे उसी भाव प्रकाशमें लिखा है॥ सद्यो मांसं नवान्नं च वालास्त्री क्षीरभोजनम् । घृतमुष्णोदकस्नानं सधःप्राणकराणि षट् ॥ " [४४i अर्थ-तुरन्त मरे हुए जीवका मांस भक्षण करना, नव यौवन स्त्रीका सेवन करना, तुरन्त बनी हुई। ॥ रसोईका भोजन करना, वूष पीना, घी खाना और गर्म जलसे स्नान करना। इन छ: कार्योंके करनेसे शोघ्र । AaradAATATEMEDEX १६ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर WP] ही बल पराक्रम बढ़ जाता है । इत्यादि भावप्रकाशके वचनोंके आधारसे वे लोग जीवोंको तुरन्त मारकर उनके मांस खानेको पुष्टि करते हैं सो केवल अपने स्वार्थके लिये अनेक प्रकारके वचन जाल फैलाकर लोगों को ठगते हैं यह सब उनके मिध्यात्व कर्मके उदयका माहात्म्य हैं। ऐसे लोग संसारके नासमझ लोगों को यह समझाया करते हैं कि जो बाजे चमड़ेसे मढ़े जाते हैं वे सब जीवोंको तुरन्त मारकर उनके चमड़े से मढ़े जाते हैं इसीलिये उस चमड़ेको जीवित चमड़ा कहते हैं परन्तु अपने आप मरे हुएके चमड़े से मढ़ा हुआ बाजा कभी नहीं बजता । इसी प्रकार मरे हुए जोवका मांस नहीं खाना चाहिये किन्तु जीवको तुरन्त मारकर उनका मांस खाना चाहिये परन्तु उनका यह कहना महा पापका कारण है । 'ताजे चमड़े से बाजे मड़े जाते हैं, अपने व्याप मरे हुए जीवोंके चमड़ेसे नहीं मढ़े नाते' उसका कारण तो यह है कि अपने आप मरे हुए पशु घड़ी दो घड़ी घंटे पहर रात दिन आदि किसने काल तक पड़े रहते हैं इसलिये उनका रुधिर वा शरीरका द्रव ( पतला ) भाग उनके चमड़के रोम-रोम में भर जाता है। इसी कारण चमड़ा गूंगा हो जाता है इसीलिये लोग उसी समय निकाल लेते हैं रोम सब बन्द हो जाते हैं और वह मारे हुये जीवका चमड़ा वे कसाई वह चमड़ा भारी हो जाता है उसके वह बजता नहीं है । परन्तु उसी समय इसलिये उसके रोमोंमें रुधिर भर नहीं सकता रोमोंमें रुधिरके न भरनेसे चमड़ा भारी और गूंगा नहीं होता तथा रोम खुले रहते हैं इसलिये वह ठीक तरहसे बजता है इसके सिवाय उसमें और कोई भेद नहीं हैं । तथा मांस तो दोनोंका ही महा घृणित और अपवित्र है इसलिये कभी ग्रहण करने योग्य नहीं हो सकता । ऐसे ही ऐसे बुष्टोंके वचनोंको सुनकर कितने ही क्षत्रिय भी ऐसा ही कहने लगे हैं तथा जीवोंको मारकर मांस भक्षण करने लगे हैं सो वे भी उन्हीं के समान हैं। क्षत्रियोंका धर्म तो यह है कि जो कोई अपराधी भी हो परन्तु उनके सामनेसे भाग जाय तथा उस अपराधको क्षमा करानेके लिए पीछे उनके सामने आवे, अपने केशोंको छूटे हुए रक्खे, मुखमें तृण बनाये तो फिर उसको वे क्षत्रिय लोग कभी नहीं मारते हैं, उनके छोड़ देते हैं तो फिर हिरण आदि पशु तो सबा बनमें ही रहते हैं, किसी का कोई अपराध नहीं करते, केश सवा छूटे रहते हैं, मुखमें सवा तृण दाबे रहते हैं और मनुष्योंको देखते ही भाग जाते हैं। ऐसे हिरण आदि पशुओंको क्षत्रिय होकर भी शस्त्रसे मारना और मारकर उनका मांस खाना कभी योग्य और क्षत्रियोंका [ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म नहीं हो सकता। ऐसा यह निंदनीय कार्य कभी क्षत्रियोंका नहीं हो सकता। इस प्रकार जो लोग कहते है है वे सब मिथ्या है ये लोग नरकाविक कुगतियों के बीज बोते हैं । यह क्षत्रियोंका धर्म नहीं है किन्तु नीच शूद्रों-1 का कार्य है । क्षत्रिय शब्दकी व्याख्या तो इस प्रकार है "क्षतात् श्रायन्ति इति क्षत्रियाः" अथवा "क्षिति, पर्चासायरा इति सप्रिया जाति जो कत जर मरते हुएको प्राथति अर्थात् रक्षा करे उसको क्षत्रिय कहते हैं, [ ३] क्षत्रियका धर्म है कि किसोके द्वारा मारने नहीं देवे, सबको रक्षा करे वही क्षत्रिय कहलाने योग्य है। अथवा क्षिति अर्थात् पृथिवी की रक्षा करे उसको क्षत्रिय कहते हैं । जहाँ तक अपनी पृथ्वी है वहाँ तकके मनुष्य, पशु, भी जीवोंकी रक्षा करे उसको क्षत्रिय कहते हैं। इस प्रकार क्षत्रिय शब्दको निरुक्ति है। इस निरुक्तिसे भी सिद्ध होता है कि हिंसा करनेवाले कभी क्षत्रिय नहीं हो सकते । जो जीवोंकी हिंसा करते हैं, मह, मांसका । सेवन करते हैं और पृथ्वोकी प्रजाको लूटते हैं ऐसे अन्यायी अधर्मी वर्तमानके कुछ क्षत्रिय कभी क्षत्रिय नहीं । कहे जा सकते। ऐसे ऐसे ही मांसभक्षी क्षत्रियोंके आचरण वेखकर तथा उनके फुसलाने में आकर कितने ही श्वेताम्बर सम्प्रदायके वैश्य मांसभक्षण वा मद्यपान करते हैं यदि कोई उनको निन्दा करता है तो कहते हैं कि हम पहले। अत्रिय थे अब वैश्य हो गये तो क्या हो गया। हम तो पहलेके क्षत्रिय हैं इसलिए मांसभक्षण आदि करना तो हमारे लिए तो ठीक ही है। इस प्रकार मांस भक्षणाविकके लिए वे जबर्दस्ती क्षत्रिय बनते हैं परन्तु जिसको । जैसी होनहार होती है उसी प्रकार उसकी बुद्धि हो जाती है और फिर उसी प्रकार वह बकता है। आचरणों से कुछ क्षत्रिय वा वैश्य नहीं होता। चाहे क्षत्रिय हो, चाहे वैश्य हो, निंद्य आचरणोंसे निध कहलाता है और | उत्तम आचरणोंसे उत्तम कहलाता है इसका भी कारण यह है कि इस संसारमें साक्षात् सर्वज्ञ वीतराग अरहंत देवका कहा हुआ अहिंसामयो धर्म ही जीवोंको स्वर्ग, मोक्ष देनेवाला है। इसके सिवाय हिंसाका प्रतिपादन करनेवाले समस्त धर्म संसारके कारण हैं अनन्त कालतक दुःख देनेवाले हैं। इसलिए भगवान अरहंतदेवके कहे । हुए जैनधर्मका शरण लेना हो जीवोंका कल्याण करनेवाला है सो सवा जयवंत हो। २०--चर्चा दोसौ आठवीं प्रश्न-कोई कोई अन्यमती ऐसा कहते हैं कि तुम्हारे केवली भगवान अरहंतवेव अनन्तदर्शन, अनंत Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चासागर SAIRATAAR चामानाALATASTHAN शान, अनंतसुख और अनंतवीर्य इन चारों अनंत चतुष्टयोंसे सुशोभित हैं परन्तु यह बात सत्य नहीं है क्योंकि ज्ञान और बर्शन तो एक हैं । जो जानना है वही देखना है और जो देखना है वही जानना है। इसलिए अनंतबर्शन वा अनंतनानमेंसे एक ही रह सकेगा शेनों नहीं बन सकते। समाधान-शान दर्शन एक नहीं है किन्तु जुदे जुदे हैं। ज्ञानका कार्य केवल जानना है और दर्शनका कार्य केवल देखना है। जिस प्रकार अंधा पुरुष मार सकता है परन्तु देत हो सकता और लंगडा पुरुष देख सकता है परन्तु दूर म जा सकनेके कारण पूरके पदार्थोको जान नहीं सकता। छोटा बच्चा अनेक पदार्थोको । देखता है परन्तु जानता नहीं। इससे सिद्ध होता है कि वर्शन अलग पवार्थ है और शान अलग पवार्थ है "शनाषः वर्शनं पंगु" जैसे अंधा और लंगड़ा शोनों मिल जाय तो अपने कार्यकी सिद्धि कर सकते हैं। उसी प्रकार ज्ञान दर्शन दोनोंसे ही पदार्थका स्वरूप जाना जाता है। दोनों हो आत्माके अलग-अलग गुण है। इसलिए । अनन्त चतुष्टय अच्छी तरह सिद्ध हो जाता है। प्रश्न-यदि अरहंत भगवान देखते हैं और जानते हैं तथा त्रिलोकवती समस्त पदार्थोको और उनकी तोनों कालमें होनेवाली समस्त पर्यायोंको प्रत्यक्ष देखते और जानते हैं तो फिर कहना चाहिये कि वे बड़े निर्दयो हैं। क्योंकि संसारी जीव नरकादिक गतियों में अनेक प्रकारके दुख पा रहे हैं उनको देखते जानते हुए भी बचाते। नहीं । हमारे ईश्वरके समान अवतार धारण कर सबको रक्षा करना चाहिये । सो अरहन्त देव करते नहीं। इसलिये कहना चाहिये कि वे बड़े निर्दयी हैं। AKSHARMA १. प्रत्येक पदार्थ में सामान्य और विशेष दो धर्म रहते हैं ऐमा कोई पदार्थ नहीं है जिसमें ये दोनों धर्म न रहते हों तया में दोनों धर्म अविनाभायी हैं। एक दूसरेके साथ रहते हैं। बिना सामान्य के विशेष नहीं रहता और बिना विशेष सामान्य नहीं रहता। लिखा है "निविशेषं हि सामान्यं भवेत्सर विषाणवत्। विशेषरहितत्वाच्च विशेषस्तद्वदेव हि ।" अर्थात् बिना विशेष के सामान्य गधके सीमके समान अभावरूप हो रहता है। इसी प्रकार बिना सामान्यके विशेष भो गधेके सींगके समान है। इससे सिद्ध होता है कि पदार्थका स्वरूप उभयास्मक है। तथा आस्माका समस्त पदार्थोका जानता है। पदार्थों में जो सामान्य गुण है उसका ॥ ज्ञान होना दर्शन है और विशेषका ज्ञान होना ज्ञान है। इसीलिए ज्ञान साकार है और दर्शन निराकार हैं दर्शनमे "यह घट है यह पट है" ऐसा आकार नहीं होता है। ज्ञानमें यह आकार होता है । आत्मामें ज्ञान गुण अलग है इसलिये उसको ढकनेवाला ज्ञानावरण कर्म अलग है। तथा दर्शन गण अलग है इसलिए उसको तकनेवाला दर्शनावरण कर्म अलग है। इस प्रकार हर तरहसे दर्शन और शान दोनों गुण अलग-अलग सिद्ध होते हैं । Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ उत्तर-भगवान अरहन्तवेव निर्दयी नहीं हैं किन्तु सबसे अधिक दयालु हैं। तथा वे इसने क्याल है । कि यदि जातिविरोधी जोव भी उनके समीप आ जाय उनके समवसरणमे आ जाय तो भगवान अरहन्तदेवके । प्रभावसे वे सब जीव अपना-अपना विरोध छोड़ देते हैं इससे बढ़कर और दयालुता कोई हो नहीं सकती। ] | परन्तु साथ ही अरहन्त देव सबसे बड़े पुरुष हैं और बोसराग हैं । जो पुरुष सबसे बड़ा और न्यायवान होता। है वह किसीके लेन देनमें बोलता नहीं। यदि वह बोचमें बोले तो अन्यायी समझा जाता है। इसी प्रकार । समस्त संसारी जीव अपने-अपने किये हुये फर्मोक फलको भोगते हैं। कोका फल कभी छूट नहीं सकता। यदि छूटेगा तो उसीके ध्यानाविकसे छूटेगा। इसलिये उनके बीचमें पड़ना न्यायवान् महापुरुषोंका काम नहीं । है। इसके सिवाय भगवानके राग द्वेष वा मोह नहीं है। जो रागी वा द्वेषी है वे हो मारने वा बचानेका काम किया करते हैं और इसीलिये वे परमेश्वर नहीं कहे जा सकते। भगवान अरहंत देव वीतराग हैं। इसीलिये वे परमेश्वर कहे जाते हैं । वे अठारह दोषोंस राहत हैं और सर्वज्ञ हैं। २०६-चर्चा दोसौ नवमी प्रश्न-कोई परवादी कहते हैं कि तुम्हारे निर्गन्ध गुरु प्रत्यक्ष रागीद्वषी हैं क्योंकि जो नवधाभक्ति । करता है उसके घर आहार लेते हैं और ओ उनको नमोस्तु आदि न करें उनके घर माहार नहीं लेते। यह एक । प्रकारका अभिमान वा राग, द्वेष समझना चाहिये । समाधान-वास्तबमें यह बात नहीं है। महामुनिराज छयालीस बोष, मत्तोस अन्तराय और चौवह मलोंको टालकर दिन में एक बार खड़े-खड़े आहार लेते हैं। जो जैनी नहीं है वह न तो आहारको विधि जानता है और न निर्दोष प्रासुक शुद्ध आहार तैयार कर सकता है । इसलिये वे मुनिराज नमोस्तु आदि पड़गाहनको विधिको न देखकर अंतराय समझकर चले जाते हैं। रागद्वेष वा मानसे नहीं जाते। अपने गुरुको आये हुए । । समझकर भक्तिसे उठना, सामने जाना, प्रदक्षिणा देना, नमोस्तु कहना, पड़गाहन करना, पाद प्रक्षालन करना, पूजन करना आवि आहार देनेको विधिको जैन शास्त्रोंके जाननेवाले श्रावकोंके बिना अन्यमती जानते नहीं। इससे उनके प्रासुक शुद्ध आहारकी अजानकारी भी स्वयं सिद्ध हो जाती है। इसलिये अन्तराय समझकर के मुनिराज चले जाते हैं । जो जैनो श्रावक बड़े-बड़े विद्वान् होकर भी इस विषिको नहीं करते उनके घर भी वे Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर [m] अम्मराव राममकर छोड़ देते हैं। ऐसे घरोंका छोड़ना केवल अपने व्रतोंकी रक्षाके लिये है और कुछ नहीं है। यदि वे मुनिराज किसी धनवान, राजा या मित्रके घर तो चले जाँय और दरिद्री, रंक वा शत्रुका घर छोड़ दें तब तो वे रागी, द्वेषी समझे जाँय परन्तु ऐसा वे कभी करते नहीं। इसलिये उनके रागद्वेष कभी सिद्ध नहीं हो सकता। इसके सिवाय वे मुनि स्वादिष्ट भोजनमें वा स्वादिष्ट भोजन देनेवालेमें राम नहीं करते तथा स्वावहीन भोजनमें था उसके देनेवालेमें द्वेष नहीं करते इसलिये भी रागद्वेष रहिल सिद्ध होते हैं। जो पड़गाहन करते हैं उन्हींके घर आहार लेते हैं इसका एक कारण यह भी है कि मुनिराज के भ्रामरी आहार । जिस प्रकार भ्रमर बिना किसीको सताये फूलका रस लेता है उसी प्रकार के मुनिराज बिना किसीको तकलीफ दिये अपना निर्वाह करना चाहते हैं और वह इसी प्रकार पड़गाहन करनेसे दातारकी उत्कट इच्छा हो सकता है अन्यथा नहीं। इस प्रकार भी वे मुनिराज रागद्वेषरहित स्वार्थरहित परम वीतरागी सिद्ध होते हैं । २१० - चर्चा दोसौ दशवीं प्रश्न -- मुनिराज पीछो रखते हैं सो इसमें ऐसा कौनसा गुण है जो वे सामायिक, वन्दना, देवदर्शन करनेमें, चलने-बैठनेमें सब कामोंमें उसको अपने पास रखते हैं। तथा उसके वियोग में प्रायश्चिस लेते हैं, सो यह क्या बात है ? समाधान – पीछो में पांच गुण होने चाहिये जो धूल और पसीनेको दूर करे, जो कोमल हो, जो चिकनी हो और जो छोटी वा हलकी हो। ये पाँच गुण पीडीमें होने चाहिये ऐसी पीछीसे जीवोंको अभयदान दिया जाता है । यह उसमें सबसे उत्तम गुण है। ऐसा भगवान अरहन्तवेवने कहा है। यदि पीछी न हो साधुजनोंकी ईर्यासमितिका नाश हो जाता है। तथा स्थूल, सूक्ष्म आदि अनेक जीवोंका घात होता है । जिससे उन मुनियोंका मुनिपद हो भ्रष्ट हो जाता है। इसीलिये पोछीके वियोग में मुनिराज प्रायश्चित्त लेते हैं । सोही सकलकीतिकृत धर्मप्रश्नोत्तरमें लिखा है-अथ पिच्छिकागुणाः रजः स्वेदाग्रहणद्वयम् । मार्दवं सुकुमालत्वं लघुत्वं सद्गुणा इमे ॥ पंच ज्ञेयास्तथा ज्ञेया निर्भयादिगुणोत्तमाः । मयूरपिच्छजातायाः पिच्छिकाया जिनोदिताः ॥ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । समितिस्ता विना नश्येत्साधूनां कार्यसाधने । स्थूलसूक्ष्मादिहिंसाया व्यर्थ जन्मदीक्षणम्।। इस पंचमकालके वोषसे कितने ही ऐसे मुनि बन गये हैं जो पीछी नहीं रखते और अपने को मुनि मानते । चसागर है परन्तु बास्तबमें वे मुनि नहीं हैं। शास्त्रों में उनको जैनाभास (जैनी तो नहीं है परन्तु जैनियों के समान wwविलाई पड़ते हैं ) बतलाया है । सो हो नीतिसारमै लिखा है कियत्यपि गते काले सतः श्वेताम्बरोऽभवत् । द्राविडो यापनीयश्च केकीसंघश्च मानतः ॥ केकिपिच्छः श्वेतवासो द्राविडो यापनीयकः । नि:पिच्छश्चेति पंचैते जैनाभासाः प्रकीर्तिताः ।। स्वस्वमत्यनुसारेण सिद्धांतव्यभिचारिणः । २११-चर्चा दोसौ म्यारहवीं प्रश्न-सिद्धक्षेत्रोंमें सबसे पहले कैलाश बतलाया है और वहाँसे श्री ऋषभदेव मोक्ष पधार है । तथा । महाराज भरतने सुवर्णमय बहत्तर जिनालय बनवाकर उनमें भूत, भविष्यत, वर्तमान तीनों कालोंके चौबीस तीर्थकरोंको बहसर प्रतिमाएं विराजमान की हैं । ऐसा शास्त्रों में लिखा है सो वह कैलाशपर्वत कहाँ है। अन्यमती भी कैलाश पर्वत मानते हैं और वहाँ पर शिवका निवास मानते हैं सो वह भी कहीं जाना नहीं जाता। इसलिए बताना चाहिये कि वह कहा। समाधान-कैलाश पर्वत विजयाद्ध पर्वतकी ओर है। अयोध्या नगरीसे संतालीस हजार बोसो सिरे । सठ लघु योजन दूर है। इसके एक लाख नवासी हमार बावन कोस होते हैं। यह अयोध्यासे उत्तर पूर्वको ओर ईशान दिशाको ओर है। चक्रवर्ती मकर संक्रांतिके दिन अपने महलों पर चढ़कर अपने नेत्रोंसे फैलासकी। ध्वजाको देख लेता है । इस प्रकार केलाशका स्वरूप एक चर्धाको पुस्तकमें लिखा है । उसमें श्लोक वा गाया आदिका कुछ प्रमाण नहीं दिया है। इससमय यहाँ पर किसीका गमन नहीं है। श्रीअजितनाथ तीर्थकरके । समय दूसरे सगर चक्रवर्तीके साठ हजार पुत्रोंने गंगा महानदीका किनारा तोड़कर उसके जलका प्रवाह कैलाश पर्वतके चारों ओर कर दिया है। इससे वहां पहुंचना अशक्य है । तथा अत्यन्त दूर और दुर्गम होने के कारण भी वहां पहुंचना शक्य है। अन्यमती भी यही कहते हैं कि कैलाशके बीच हिमालय पर्वत है। इसलिए वहां किसी का गमन नहीं है। --TOAELaaanामनामाचा Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ४४८ ] २१२ - चर्चा दोसौ बारहवीं प्रश्न- शास्त्रोंमें पुरुषोंका उत्कृष्ट आहार बत्तीस ग्रास तक बतलाया है। इसी प्रकार स्त्रियोंके आहारका प्रमाण क्या है ? समाधान — स्त्रियोंका उत्कृष्ट आहार अट्ठाईस ग्रासका बतलाया है। सो ही आचार्य शिवकोटिविरचित भगवती आराधना में लिखा है । बत्तीसं किर कवलाहारो कुक्खिपूरणो होई । पुरुलस्त महिलाए अट्ठावीसं हवे कवला ॥ यही कारण है कि मुनि और आजका इसी बत्तीस और अट्ठाईस ग्रासके प्रमाणसे आहार लेते हैं यह उत्कृष्टता से है इसीलिए मुनि आर्जिका इससे कम ग्रास ले लेते हैं इससे अधिक नहीं लेते । प्रश्न - एक ग्रामका प्रमाण क्या है ? समाधान -- एक हजार चावलोंका उत्कृष्ट एक ग्रास होता है। सो हो षद्धर्मोपदेशमें लिखा हैद्वात्रिंशत्कवलैः पुंसामाहारः कथितो जिनैः । अष्टाविंशति संख्यैश्च स्त्रीणां लेपः प्ररूपितः ॥ १५ ॥ सहस्रतंदुलैः प्रोको ह्येकः कवल उत्तमः । इस प्रकार अट्ठारहवें परिच्छेद में लिखा है । २१३ चर्चा दोसौ तेरहवीं प्रश्न - कोई कोई कहते हैं कि विदेहक्षेत्र में तीर्थंकरोंके पंचकल्याणकोंका नियम नहीं है । ज्ञानकल्याor और निर्वाणकल्याणक ये वो ही कल्याणक सामान्य केवलीके समान होते हैं। पाँचों कल्याणकोंका नियम नहीं है तो भी वे तीर्थंकर कहलाते हैं । समाधान - तीर्थंकर प्रकृतिके बंधके लिए दर्शनविशुद्धि आदि सोलह कारण भावनाएं हैं। सो जिसने पहले भवमें सोलह कारण भावनाओंका चितवन नहीं किया है। उसके पाँचों कल्याणक नहीं होते। उनके केवल दो कल्याणक होते हैं। उनके समवसरण भी नहीं होता । सामान्य केवलोके समान गंधकुटी होती है। जन्मके समय मति, श्रुत, अवधि ये तीनों ज्ञान नहीं होते। जन्मके वश अतिशय नहीं होते। फिर तीर्थंकरोंके य [w Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर चौंतीस अतिशयोंमेंसे चौबीस ही अतिशय मानने पड़ेंगे। तथा ऐसे तीर्थंकरोंको हीनपुण्य मानना पड़ेगा। सो । ऐसा वेताम्बर मानते हैं। वास्तवमें ऐसे तीर्थकर तो पूर्ण पांचों कल्याणकोंको धारण करनेवाले ही होते हैं। ऐसा नियम है । कम कल्याणकपाले तीर्थकर नहीं होते। शास्त्रों में लिखा है कि मेरु पर्वत एक लाख योजन ऊँचा है। उसके ऊपर चौथा पांडुक नामका वन है। उसकी प्रदक्षिणा रूपसे चूलिकाको ईशान दिशामें चार पांडुक शिला हैं वे अखं चन्द्रमाके समान सुशोभित हैं सो योजन लम्बो पचास योजन चौड़ी और आठ योजन ऊँची हैं। ये शिलाएं स्वयं सिद्ध अनावि अनिधन शामाती विराजमान हैं। एमा रोक शिकायर तीन तीन सिंहासन विराजमान हैं। मध्यके सिंहासनपर श्री तीर्थकर विराजमान होते हैं और अगल-बगल सिंहासनोंपर अभिषेक करनेके लिए इन्द्र खड़े होते हैं । भरत। क्षेत्रको अपेक्षा ईशान कोणकी पांडुक शिलापर भरतक्षेत्रके तीर्थंकरोंका जन्माभिषेक होता है। अग्निकोणको शिला पर पश्चिमविवेहमें उत्पन्न हुए तीर्थकरों का जन्माभिषेक होता है। मेरु पर्वतको नैऋतकोणमें शिलापर रखे हुए मध्यके सिंहासनपर ऐरावत क्षेत्रके तीर्थकरोंका जन्माभिषेक होता है। तथा मेरु पर्वतके वायव्य कोणमें विराजमान पांडुक शिलाके मध्यभागमें रक्खे हुए मध्यके सिंहासन पर पूर्व विदेह क्षेत्रके तीर्थकरोंका जन्माभिषेक होता है । इसी प्रकार दो मेरु पर्वत धातकी वोपमें हैं तथा वो मेरु पुष्कर द्वीपमें हैं । इन चारों मेरु पर्वतों पर भी उन उन द्वीपोंके क्षेत्रोंमें उत्पन्न हुए तीर्थंकरोंका जन्माभिषेक होता है। ऐसा शास्त्रोंमें है । जिसका जन्माभिषेक होता है उसके पांचों कल्याणक अपने आप सिद्ध हो जाते हैं । ऐसा सिद्धान्त है। प्रश्न-पांडक शिलाएँ किस रंगको हैं चारों हो शिलाएं एक रंगको हैं अथवा अलग-अलग रंगकी है। समाधान-चारों पांडुक शिलाए अलग-अलग चार रंगकी है । जिसपर भरतके तीर्थकरोंका अभिषेक होता है वह सुवर्णमय है। जिस पर पश्चिम विदेहके तीर्थंकरोंका अभिषेक होता है वह सफेद चांदोको है। जिस पर ऐरावत क्षेत्रके तीर्थंकरोंका अभिषेक होता है वह ताये हुए सोनेके समान हैं और पूर्व विदेहके तीर्थकरों का अभिषेक जिस पर होता है वह पराग मणिके समान अथवा गुलाबी कमलके समान है । इस प्रकार इन चारों शिलाओंका स्वरूप है। एक-एक शिलापर जो तीन सिंहासन हैं उनमेंसे मध्यके सिंहासन पर तो तीर्थकर विराजमान होते हैं। Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यासागर यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि ऐसा कपन किसी शास्त्र में नहीं आया है। यदि ऐसा होता तो शास्त्रोंमें जो पांडुशिला माविका वर्णन लिखा है। सो क्यों होता। इससे सिद्ध होता है कि तीर्थसूर गर्भसे हो होनहार है तीर्थकर होते हैं और इन्द्राविक देव उनके गर्भ कल्याणक आदि पांचों कल्याणक करते हैं । जन्म समयमें जन्मकल्याणक करते हैं तब सब तीनों लोक उनको तीर्थकर कहते हैं । पोछे अनुक्रमसे तप कल्याणक, जान कल्याणक । और निर्वाणकल्याणक होते हैं। पहले तीर्थकरके मोक्ष जानेके बाद गदी खाली न रहनेका कोई नियम नहीं। है। यह निश्चित है कि पांचों कल्याणकोंके बिना तीर्थकर नहीं होते जैसा कि पहले बता चुके हैं । यदि सामान्यकेवलीको हो सोकर कह विया जायेगा तो इसमें दोष आवेगे। यदि यह कहोगे कि उस क्षेत्रके स्वभावसे । ऐसा होता है तो फिर श्वेताम्बरोंके समान इसे अछेड़ा मानकर मानना पड़ेगा। इसलिये ऊपर लिखे अनुसार शास्त्रोक्त श्रद्धान करना ही योग्य है । अन्यथा नहीं। २१४-चर्चा दोसौ चौदहवीं प्रश्न-भगवान तीर्थंकर जन्माभिषेक के समय अपने-अपने इन्द्रों सहित चारों निकार्योंके व आते । हैं। उस समय इन्द्रको सवारीके आगे इन्द्रकी सात प्रकारको सेना चलती है । वह सातों प्रकारको सेना गुणानुवाद करती चलती है । सो वह सेना तीर्थकर भगवानके हो गुण आती है या और भी किसीके गुण आती है। समाधान-सातों हो प्रकारको सेना नृत्य करती हुई चलती है। उनमेंसे प्रथम सेनाके देव, विधाधर, कामदेव और राजाधिराजोंके चरित्र और गुण गाते हुए गमन करते हैं। दूसरो सेनाके देव अर्द्ध, मण्डलोक, । सकल मण्डलीक और महा मण्डलीक राजाओंके चरित्र और गुग गाते हुए तथा नृत्य करते हुए गमन करते हैं। तीसरी सेनाके देव बलभद्र, नारायण और प्रतिमारापोंके बल, वीर्य गुण आदिका वा उनके जीवनचरित्रका वर्णन करते हुए तथा नुस्य करते हुए गमन करते हैं। चौयो सेनाके देव चक्रवर्तीको विभूति तथा बल, वीर्य आदिका गुण वर्णन करते हुए चलते हैं। पांचों सेनाके देव लोकपाल जातिके देवोंका गणानुवाद तथा उसी 'भवसे मोक्ष जानेवाले घरमशरीरी मुनियोंका गुणानुवाद करते हुए चलते हैं। छठी सेनाके देव गणधरव तथा शारिधारी मुनियों के गुण और यशको वर्णम करते हुए चलते हैं। सातवीं सेनाके येव तीर्थकरके छयालोस गुणोंका वा उनके जीवनचरित्रका वर्णन करते हुए पाते नृत्य करते हुए गमन करते हैं । सो हो सिद्धान्तसार । बीपक लिखा है Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमे नर्तकीनीके विद्याधरकामदेवराजाधिराजनां चरित्रेण नटन्तोऽमराः गच्छन्ति। द्वितीये सकलार्द्धमहामंडलीकानां वर चरित्रेण नर्तनं कुर्वन्तः सुराश्च । तृतीये बलभद्रवापासागर। सुदेवप्रतिवासुदेवानां वीर्यादिगुणनिबद्धचरित्रेण नृत्यंतो देवाः गच्छति। चतुर्थे चक्रवर्तिना - ४५२ विभूतिवीर्यादिगुणनिबद्धचरित्रेण महन्नर्तनं भजन्तोऽमराश्च । पंचमे चमरांगतिलोक पालसुरेन्द्राणां गुणरचितचरित्रेण नटन्तो निर्जराश्च । षष्ठं गणधरदेवानां ऋद्धिज्ञानादिगुणोत्पन्नवरचरित्रण परं नृत्यं कुर्वाणः सुराः यान्ति । सप्तमे नर्तकानीके तीर्थकराणा चतुस्त्रिशदतिशयाष्टप्रातिहार्यानन्तज्ञानादिगुणरचितचरित्रेण तद्गुणरागरसोत्कटाः नाकिनः प्रवरं नर्तनं प्रकुर्वन्तो गच्छन्ति । प्रश्न-वे देव किस स्वरमें गाते हैं ? समाधान-खड्ग, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद ये सात स्वर है । इनमेंसे एक-एक । सेना एक-एक स्वरसे गाती है तथा अनुक्रमसे गातो है । सो हो सिद्धान्तसारदीपकमें लिखा है आद्यनीके खड्गस्वरेण जिनेन्द्रगुणान् गायन्तः, द्वितीये कृषभस्वरेण च गानं कुर्वन्तः, तृतीये गांधारनादेन गंधर्वा गच्छन्ति । चतुर्थे मध्यमध्वनिनाजन्माभिषेकसंबन्धिगीतान् गायन्तः, पंचमे पंचमस्वरेण गानं कुर्वाणः, षष्ठे धैक्तध्वनिना च गायन्त, सप्तमे निषादघोषणकलं गीतगानं कुर्वन्तो गंधर्वा ब्रजन्ति । २१५-चर्चा दोसो पंद्रहवीं प्रश्न—सातों हो नरकोंमें कोई महापापी जीव अलग-अलग नरकोंमें उत्कृष्टता कर कितनी-कितनी । बार जन्म धारण करता है? समाधान--पहले घम्मा नामके नरक उत्कृष्टता कर असंज्ञो जीव जाता है तो वह अधिकसे-अधिक 1 आठ बार जाकर जन्म लेता है । दूसरे बंशा नामके नरको सरीसृप अर्थात् सर्प ( फणा रहित जातिका ओड़ी । Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर जातिका सर्प) को आदि लेकर महापापके उदयसे अधिकसे अधिक सात बार जन्म धारण करते हैं। तीसरे मेधा नामके नरकमें दुष्ट पक्षो आदि जोध उत्कृष्ट पापके उदयसे छह बार जाकर जन्म लेते हैं। चौथे अंजना नामके नरक साविक तिर्यच महापापके उदयसे पांच बार उत्कृष्ट जन्म धारण करते हैं । पांचवें अरिष्टा नामके नरक सिंहादिक जीव अधिकसे-अधिक चार बार जाकर जन्म लेते हैं। मघवी नामके छठे नरकमें मनुष्यणी स्त्री अधिकसे अधिक तीन बार जन्म लेती है।माघवी नामके सातवें नरकमें मनुष्याविक जीव अधिक से अधिक दो बार जन्म लेते हैं । इस प्रकार ये जीव मिथ्यात्वाविक महापाप फोसे तथा हिंसादिक पापोंसे । उत्पन्न हुए कर्मोंके सत्यसे नरकोंमें उत्कृष्ट जन्मोंको धारण करते हैं। तथा वहाँपर सागरों पर्यन्तकी आयु तक में छेबन, भेदन, शूलारोपण, ताडन, पोडन आविके महा कुःख भोगते हैं। उन दुःखोंको भगवान् सर्वजदेव हो में जानते हैं । इसलिये भव्यजीवोंको मिथ्यात्वाविक महापापोंका त्याग कर देना चाहिये, सम्यग्दर्शन धारण करना । चाहिये तथा अपने आत्माका कल्याण करनेके लिये अहिंसा आदि प्रतोंको धारण करना चाहिये। प्रश्न—यहाँपर नरकोंमें जानेको जो संख्या लिखी है सो नरकोंसे निकल कर अन्य जन्मोंको धारण करता है फिर नरकमें जाता है । सो नरकसे निकल कर किन-किन मतियोंमें जन्म लेता है। _समाधान-नरक गतिसे निकल कर मनुष्य और तिर्यञ्चगति ही प्राप्त होती है। मनुष्य वा तियंञ्च गतिको पाकर बाकी बचे हुए पहलेके पापफर्मके उदयसे या उस भवमें किये हुए पापकर्मोके उदयसे फिर नरकहै में जाता है । सातवें नरकसे निकल कर तिर्यञ्च ही होता है । सो हो सिद्धांतसारमें लिखा हैहै उत्कृष्टेन स्वसंतत्या सोऽसंज्ञी प्रथमावनौ। अष्टवारान् क्रमाद् गच्छेत्सरीसृपोतिपापतः ॥१॥ सप्तवारान् द्वितीयायां तृतीयायां खगो ब्रजेत् ।षड्वारांश्च चतुर्था हि पंचवारान् भुजंगमः ।। पंचम्यांच चतुर्वारान् याति सिंहो निरंतरम्।षष्ट्यां योषित्रिवारान् सप्तम्यां वारद्वयं पुमान्॥ श्वभ्रेभ्यो निर्गता एते तिर्यग्नरगतिद्वये। कर्मभूमिष जायन्ते गर्भजाः संज्ञिनः स्फुटम् ॥४॥ २१६-चर्चा दोसो सोलहवीं प्रश्न-पहले नरकसे लेकर सातवें नरक तक तीस लाख आदिके क्रमसे चौरासी लाल बिल हैं। m Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिलों में ये जीव अपने पापकर्मके उदयसे उत्पन्न होते हैं। पहले उन बिलोंके ऊपर बने हुए घण्टाकार घृणित ऐसे ही र उपपाद स्थानोंमें उत्पन्न होते हैं और फिर वहाँसे नीचे नरकमें पड़ते हैं । सो किसी समय वे बिल खाली रहते है पसिागर हैं या नहीं अथवा उनमें जीव सदा ही बिना किसी अन्तरके उत्पन्न होते रहते है। इसका स्वरूप क्या है। समाधान-ये बिल कभी खाली तो रहते नहीं हो, जब कभी उसमेंके नारकोकी आयु पूरी हो। जाती है तो नियत अन्तरालके बाद दूसरा नारकी अवश्य उत्पन्न हो जाता है। उन नरकोंमें एक नारको मरनेके बाद दूसरे नारकोके उत्पन्न होने तक जो अन्तराल रहता है वह नीचे लिखे कोष्ठसे स्पष्ट हो जाता है। नरको नाम बिलोंका प्रमाण उत्कृष्ट अन्तराल रत्नप्रभा। तीसलाख ३०००००० चौवोस महत शर्कराप्रभा पच्चीस लाख २५००००० सात दिन बालुकाप्रभा पन्द्रहलाख १५००००० पन्द्रह दिन पंकप्रभा वसलाख एक महीना घूमप्रभा तीनलाख ३००००० दो महोना तमःप्रभा पाँच कम एकलाख ९९९९५ चार महीना महातमःप्रभा छ: महीना इस नियत अन्तरालके बाद कोई जीव अवश्य होता है । सो हो सिद्धांतसारदीपकमें लिखा हैप्रथमे नरके ज्येष्ठमुत्पत्ती मरणांतरम् । चतुर्विशतिसंख्यानां मुहूर्ता द्वितीयेङ्गिनाम् ॥११॥ दिनानि सप्त वै श्वभ्रे तृतीये पक्षसंख्यकम्। चतुर्थे चैकमासो हि पंचमे मासयुग्मकम्॥१५ षष्ठे मासचतुष्कं च सप्तमे नरकात्मनाम् । षण्मासा अन्तरं निःसरणप्रवेशयोमहत् ॥१६॥ २१७-चर्चा दोसौ सत्रहवीं प्रश्न-स्वर्गलोकमें जो जीव उत्पन्न होते हैं उनमें भी इसी प्रकार अन्तराल है अथवा उनमें अन्तराल है ही नहीं ? समाषान-घेवोंके उत्पन्न होने में जो अन्तराल होता है वह कमसे इस प्रकार है। सौधर्म, ऐशान इन। Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर HD वो स्वर्गामें किसी देवके मरण होनेपर दूसरे देखके उत्पन्न होनेका अन्तर अधिकसे अधिक सात दिन है । सानकुमार, माहेन्द्र में उत्कृष्ट अन्तरल एक पक्ष है ।बा, ब्रह्मोसर, लोतव, कापिष्ट इन चार स्वर्गामें किसी देवके । मरनेके बाद दूसरे देवके उत्पन्न होनेका अन्तर एक महोना है । शुक्र, महाशुक्र, सतार, सहस्रार इन चार स्वर्गोमें किसी देवके मरनेपर उसके स्थानपर दूसरे देवके उत्पन्न होनेका अन्तर दो महोना है। आनत, प्राणत, आरण, अच्युत इन चार स्वर्गामें उत्कृष्ट अन्तर चार महीना है। इन सोलह स्वर्गोसे ऊपर न अबेयक, नौ । अनुदिश और पांचों पंचोत्तर इन समस्त कल्पातीत विमानोंमें किसी अहमित्रके मर जानेपर दूसरे अहमिंद्रके । उत्पन्न होनेका अन्तर अधिकसे अधिक छह महोता है। इस प्रकार इनका अन्तर है। सो ही सिद्धान्तसार वोपकमें लिखा है। सौधर्मेशानयोःप्रोक्तमुत्पत्तो मरणेऽतरम् । उस्कृष्टेन च देवानां दिनानि सप्त नान्यथा।१३।। । सनत्कुमारमाहेन्द्रवासिना कर्मपाकतः । संभवे मरणं ख्यातं पक्षकमन्तरं परम् ॥१४॥ अंतरं ब्रह्मनाकादिचतुःस्वर्गनिवासिनाम् । उत्पत्तौ च्यवने स्याच्य महत्मासैकमेव हि ॥१५॥ । अंतरं मरणोत्पत्ती भवत्येव च नाकिनाम् । मासौ द्वौ परमं शुक्रादिवास्वर्गचतुष्टये ॥१६॥ आनतादिचतुःस्वर्गवासिनां परमंतरम् । चतुर्मासाश्च विज्ञेयं मरणं च संभवे तथा ॥१७॥ नवप्रैवेयकाद्येषु मरणे च समुद्भवे । सर्वेषामहमिंद्राणां मासपटक परान्तरम् ॥१८॥ इस प्रकार सिद्धान्तसार दीपकके सोलहवें अधिकार में लिखा है। २१८-चर्चा दोसों अठारहवीं प्रश्न-नरक और स्वर्गों में अलग-अलग कौन-कौनसे कालकी प्रवृत्ति रहती है ? समाधान-सातों हो नरकोंमें सदा शाश्वता समस्त असाताओंकी खानि ऐसा अतिदुःलमा अथवा दुःखमा-दुःखमा नामका छठा काल रहता है। तथा चतुर्णिकाय देवोंके स्थानोंमें, भवनोंमें, आवासों में का विमानों में सब जगह शाश्वता सदा सुखोंका समुद्र ऐसा सुखमा-सुखमा नामका पहला काल रहता है । सो ही सिद्धांत। सारके बीपकके नौवें अध्याय में लिखा है HAMARPrademaaranaamRATER Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर [ ५६ ] कालोतिदुःखमाभिख्यो नरकेष्वस्ति सप्तसु । विश्वासाताकरीभूता शाश्वतो नरकांगिनाम् ॥ चतुर्णकाये देवानां स्वर्गादिसर्वधामसु । सुखमासुखमा यालो नित्योस्ति सुखसागरः ॥२॥ यहाँपर जो सुखमा सुखमा वा दुःखमा दुःखमा काल बतलाया है । सो केवल सुख वा दुःखको अपेक्षासे बतलाया है उस कालको आयु, काय आविकी अपेक्षासे नहीं बतलाया है। भावार्थ ---नरक, स्वर्गकी जो आयु वा काय नियत है वही रहता है । उसमें अन्तर नहीं पड़ता केवल सुख या दुःख उस कालके समान है । २१६ - चर्चा दोसौ उनईसवीं प्रश्न – स्वर्गके विमान आकाशमें किसके आधारपर स्थित है ? समाधान – सौधर्म स्वर्गसे लेकर सहस्रार तक बारह स्वगोंके विमान जल और पवनके आधार हैं तथा आनत स्वर्गसे लेकर बाकी स्वर्ग, नौ वैयक, नौ अनुविश और पांचों पंचोसरोंके समस्त विमान बिना किसी आधारके निराधार अपने आप स्थिर हैं । सो हो सिद्धांतसार दीपकके प्रथम अध्यायमें लिखा है जलवातद्वयाधोरणैव व्योम्नि मनोहराः । प्रगान्ताधिकल्पानां चतुर्वर्णा विमानकाः ॥७६॥ मैवेयकादिपंचानुत्तरान्तानां भवन्ति ते । निराधारास्त्रयोविंशाग्रसहस्त्रप्रमाः स्वयम् ॥८०॥ प्रश्न यह लोक किसके आधार है ? समाधान -- यह लोक घनोदधि वात, घनवात और सनुवातके आधार है। अर्थात् यह लोक घनोदधि नामकी धनीभूत वायुसे घिरा है। उसीके आधारपर ठहरा है, घनोदधि वायु घनवायुके आधार है, घनवायु वायुके आधार हैं और तनुवायु आकाशके आधार है तथा आकाश स्वयं अपने आधार है। सो ही सिद्धांतसारमें पहले अधिकारमें लिखा है घनोदधिर्धनाख्यश्च तनुवात इमे त्रयः । सर्वतो लोकमावेष्ट्य नित्यास्तिष्ठति वायवः ॥८०॥ श्रुतसागरी टीका में भी इसी प्रकार लिखा है घनोदधिजगत्प्राणः सर्वलोकस्य वेष्ठन | घनप्रभजनो नाम द्वितीयस्तदनंतरम् ॥ तनुवात उपयस्य त्रलोक्याधारशक्तिमान् । वाता एते स्थितिस्तेषां कथ्यमानानि शम्यतं ॥ [ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर ४५७ Sea २२० - चर्चा दोसौ बोसवीं प्रश्न - एक मुनि, एक अजिका, एक आवक और एक श्राविका इन चारों धर्मात्माओंका चतुविध संघ रहेगा और कल्की इनसे दण्ड मागेगा सो इन चारोंका क्या नाम है ? समाधान- - मुनिका नाम वीरांगव होगा जो इन्द्रराज मुनिके शिष्य होंगे। अजिकाका नाम सर्वश्री होगा । श्रावकका नाम अग्निल होगा और उसको स्त्रीका प्रयंगुसेना होगा। इस प्रकार इन चारोंके नाम होंगे । उस समय जो कल्की होगा वह पापी इनसे ग्रासका वण्ड मांगेगा। सो ये चारों ही जीव संन्यास धारण कर मरण करेंगे और पहले स्वर्ग में उत्पन्न होंगे । प्रश्न-इनका मरण किस महीने की किस तिथि में होगा ? समाधान — ये चारों जीव तीन दिन तक संन्यास धारण करेंगे फिर दुःखमा कालके अन्तमें जब तीन वर्ष साढे आठ महीना बाकी रहेंगे उस दिन कार्तिक कृष्णा अमावस्याके दिन प्रातः काल मरण करेंगे। ये चारों ही जीव सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न होंगे। वहाँ पर मुनिके जीवकी आयु एक सागरकी होगी और बाकीके fatatant आयु एक-एक पस्यको होगी । सो ही सिद्धांतसार दीपकके नौवें अधिकारमें लिखा है— इन्द्रराजमुनेः शिष्यो यतिवरांगदाभिधः । अंतिमश्वार्थिका सर्वश्री श्रावकोग्निलाख्यकः ॥ श्राविका प्रिया तस्य प्रियंगुसेनाभिधा तदा । कालदोषेण चस्वारोऽमी स्थास्यंति सुधर्मिणः ॥ स कल्की पापधीः पापात् पूर्ववत्तस्य सम्मुनेः । समासहरणाद्यैर्महोपसर्गं करिष्यति ॥ चत्वारस्ते तदा तस्मिन्नुपसर्गे शिवाप्तये । ग्रहीष्यन्ति सुसन्यासं त्यक्त्वाहारं चतुर्विधम् ॥ ततो दिनश्रयेणैवमुक्त्वा प्राणान् समाधिना । दुःखमस्येव कालस्यावसानस्य स्थितेषु च ॥ सार्द्धाष्टमाससंयुक्त त्रिवर्षोद्धरितेष्वपि । पूर्वा कार्तिके कृष्णेमावस्यायां शुभोदयात् ॥ अन्ते सोधर्मकल्पान्ते चत्वारः सुखसागरम् । गमिष्यन्ति महाशर्मभोकारो धर्मतत्पराः ॥ तन्मुनेः सागरैकं च भवितायुरखंडितम् । तत्र शेषत्रयाणां च पल्यमेकं हि साधकम् ॥ ५८ [ ४५ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ I AJSHATHORTAL Sahsaसान्चनरम ... २२१-चर्चा दोसौ इकईसवीं प्रश्न-असुर कुमारोंके इंद्र घमरेंद्र और वैरोचनेन्द्र हैं ये दोनों सौधर्म स्वर्गके स्वामी सौधर्मेन्द्रसे तथा पर्चासागर । ऐशान स्वर्गके स्वामी ऐशानेन्द्रसे युद्ध करनेको गये थे। तब इन्द्र ने इनपर बत्रका प्रहार किया था तब चमरेंद्र ४५८ ] वहाँसे भागा और अपने पातालमें आ छिपा । ऐसी कहावत है सो क्या सत्य है ? यह कहावत असत्य है । दिगम्बर आम्नायके विरुद्ध है । यह कहावत श्वेताम्बर आम्नाय को है इसलिये विरुद्ध और श्रद्धान करने योग्य नहीं है प्रश्न-यदि ये दिगम्बर आम्नायके वाक्य नहीं है तो फिर दिगम्बर आम्नायमें यह कहावत प्रचलित । क्यों है ? समाधान कुछ क्ष का स्वभाव ही ऐसा है जिसस चमरेन्द्र सौधर्म इन्द्रसे व्यर्थ ही ईर्षाभाव रखता है। इसी प्रकार वैरोचन इन्द्र ईशान इन्द्रसे व्यर्थ ही ईर्षाभाव रखता है । यद्यपि ये दोनों हो सौधर्म, ऐशान। इन्द्रोंका कुछ कर नहीं सकते तथापि ईर्षाभाव रखकर व्यर्थ हो पापका बंध करते हैं । ऐसा वर्णन सिद्धांतसार प्रदोपकके दशा अधिकारमें आया है । यथा। सौधर्मेन्द्रेण चित्ते चमरेन्द्रः कुरुते वृथा। सहाकिंचित्करामीयां क्षेत्रसद्भाववर्तनात् ॥७॥ तथैशानसुरेन्द्रेण सहेष्या निष्फलो मुधा । हृदि वैरोचनेन्द्रोपि करोति पापकारिणीम्॥७१ इससे सिद्ध होता है कि ये लड़ने नहीं गये, लड़नेको बात कहना मिथ्या है ।। २२२-चर्चा दोसौ बाइसवीं प्रश्न-भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषी ये तीनों भवनत्रिकदेव कौनसे तप करनेसे होते हैं ? समाधान--जो जीव उन्मार्गचारी (मोक्षमार्गको छोड़कर कुमार्गमें चलनेवाले ) होते हैं, सम्यग्दर्शनके घातक, अकाम निर्जरा करनेवाले, युवावस्थामें हो तपश्चरण धारण कर शिथिलाचाररूप श्वेताम्बरादिक धर्म को धारण करनेवाले अथवा मिथ्या संयमको धारण करनेवाले, पंचाग्नि तप करनेवाले, दूसरोंकी निवा करने वाले, तापसियोंका भेष धारण करनेवाले, अज्ञानतासे कायक्लेश करनेवाले ऐसे शिव धर्मके उपासक शैवलिंगी RR aanti- Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैष्णव तथा और भी अनेक भेषोंको धारण करनेवाले मनुष्याविक जीव मरकर भवनत्रिकों में देख उत्पन्न होते है। हैं। इनके सिवाय जो चलो, मुडो, भैरव, क्षेत्रपाल, बोजासणी, शोतला, दुर्गा, कात्यायनी आदि अनेक नीच व सागर । देवोंकी उपासना करनेवाले जीव तथा पांचों महापापोंको धारण करनेवाले क्रोधो, माती, कपटो, लोभी, कामी । आदि अनेक अवगुणोंको धारण करनेवाले. केवल भेष बनाकर लोगोंसे जबर्दस्तो गुरु बनवान ऐसे नोच गुरुओं की सेवा करनेवाले और हिंसामयो नीच धर्मको माननेवाले, झूठ, चोरी, कुशील, परित्रह, आरम्भ आदिमें धर्म । माननेवाले वा ऐसे धर्मको धारण करनेवाले, नीच पाखण्डियोंके भक्त, नीच भेष या खोटे भेषको धारण करने वाले, हिंसा धर्मको प्रतिपादन करनेवाले, खोटे शास्त्रोंको माननेवाले जीव नीच देवोंमें जाकर उत्पन्न होते हैं। ऐसा समझकर अपने आत्मसुखके लिये स्वर्ग मोक्षके देनेवाले जैनधर्मको ही धारण करना चाहिये । यही कल्याण का मार्ग है । दुष्टोंके समान कुमार्ग वा मिध्यामार्ग कभी स्वीकार नहीं करना चाहिये । सो ही सिद्धांतसार 11 दोपकके चौदहवें अधिकारमें लिखा है उन्मार्गचारिणो येत्र विराधितसुदर्शनाः। अकामनिर्जरायुक्ता बालावलतपोन्विताः ॥२४॥ शिथिला धर्मचारित्रे मिथ्यासंयमधारिणः ।पंचाग्निसाधने निष्ठा सनिदानाश्च तापसा॥२५॥ अज्ञानक्लेशिनः शैवलिंगिनो ये नरादयः।भावनादित्रयाणां ये यान्ति जीवगतित्रयम् ॥२६॥ ये नीचदेवसंसक्ता नीचानीचगुरुश्रिताः। नीचधर्मरताः नीचपाषंडोभक्तिकाः शटाः ॥२७॥ नीचसंयमदुर्वेशाः नीचशास्त्रतपोन्विताः। तेऽहो सर्वत्र नीचाः स्युः देवत्वेऽन्यत्र च सदा॥ मत्वेति जैनसन्मार्ग स्वमोक्षदं सुखार्थिभिः। विमुच्च श्रेयसे जातु न ग्राह्य दुष्पथं खलम्॥२६॥ २२३-चर्चा दोसो तेवीसवीं प्रश्न-चतुणिकायके वेवों में महाऋद्धियोंको धारण करनेवाले इन्द्रादिक देव अपनो आयु पूरो कर किस किस गतिको प्राप्त होते हैं ? समाधान-सौधर्म इन्द्र सम्यग्दर्शन प्राप्त होनेके प्रभावसे उसको महादेवी इन्द्राणी, समस्त दक्षिण दिशाके इन्द्र, चारों लोकपाल, समस्त लोकान्तिक देव और सर्वार्थसिद्धिके अहमिन्द्र अपनी आयुके क्षय होनेपर । वहाँसे चयकर महापुण्याधिकारी मनुष्यभव धारण करते हैं। बहाँपर वे पुरुष ही होते हैं। संसारके सुखोंको ! Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोग कर मुनिव्रत धारण कर तथा तपश्चरण कर केवलझान पाकर मोक्ष जाते हैं। अर्थात् ऊपर लिखे हुए। सौधर्म इन्द्रादिक देव एक भवावतारी जीव हैं । एक मनुष्य भव धारण करके ही मोक्ष जाते हैं। नौ अनुविशोंके । सागर बक, पाचा पचात्तरा व, पाँचों पंचोत्तरोंके देव वहाँसे चयकर नारायण, प्रतिनारायण पदको कभी नहीं पाते हैं । इस प्रकार तिर्यश्च । मनुष्य और भवनत्रिक के देव अपनी आयुके क्षय होनेपर वहाँसे चयकर शलाका पुरुष कभी नहीं होते अर्थात् । चौबीस तीर्थकुर, बारह चक्रवर्ती, नौ नारायण, नो बलभद्र और नौ प्रतिनारायण इन तिरेसठ शलाका पुरुषोंकी पदवीको कभी प्राप्त नहीं होते । तथा विजयादिक विमानोंके रहनेवाले अहमिन्द्र तथा अनुदिशोंके अहमिन्द्र दो मनुष्य भव धारण कर मोक्ष जाते हैं । अर्थात् वहाँसे चयकर मनुष्य होकर फिर विजयादिकमें जन्म लेकर फिर मनुष्य होकर मुक्त होते हैं । सो ही मोक्षशास्त्र में लिखा है विजयादिषु द्विचरमाः। यही सब बात सिद्धांतसार प्रदीपकके पन्द्रहवें अधिकारमें लिखी है। सौधर्मेन्द्रस्य दृष्ट्याप्ता महादेव्यो दिवश्च्युताः। सर्वे च दक्षिणेन्द्रा हि चत्वारो लोकपालकाः॥३७७॥ सर्व लोकांतिका विश्वे सर्वार्थसिद्धिजामराः। निर्वाणं तपसा यान्ति संप्राप्य नृभवं शुभम्॥ नवानुत्तरजा देवाः पंचानुत्तरवासिनः । ततश्च्युत्वान जायन्ते वासुदेवा न तद्विषः।।३७६ तियंचो मानवाः सर्वे भावनादिनिजामराः । शलाकाः पुरुषाः जातु न भवन्स्यमरार्चिताः॥ विजयादिविमानेभ्योऽहमिन्द्रा गत्य भूतलम् । मर्त्यजन्मद्वयं प्राप्य ध्रुवं गच्छन्ति नितिम्॥ २२४-चर्चा दोसौ चौबीसवीं प्रश्न-इस मध्यलोकमें जम्बूद्वोपसे लेकर स्वयंभूरमण समुद्र तक कालचक्रका बर्ताव किस प्रकार है। । अर्थात् सुखमा-सुखमा आदि छहों कालोमेंसे कौन-कौन काल कहाँ वर्तता है ? समाधान-दाई वीपके पंचमेरु सम्बन्धी पांचों भरस-क्षेत्र और पांचों ऐरावत क्षेत्रों में अनुक्रमसे है " उत्सर्पिणी और अवसर्पिणो कालके छहों कालोंका बरताव रहता है अर्थात् अवसर्पिणो कालका पहला, दूसरा, Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तोसरा, चौषा, पांचवां, छठा तथा उत्सर्पिणी कालका छठा, पांचवा, चौथा, तीसरा, दूसरा, पहला इस प्रकार I इन दशों क्षेत्रोंमें कालचक्र बराबर फिरता रहता है तथा इन्हीं कालोंके द्वारा उनमें वृद्धि-हास सवा होता रहता है है। इसी प्रकार समस्त विजयार्द्ध पर्वतोपर तथा प्रत्येक क्षेत्रके पांचों म्लेक्षस्यग्डोंमें सवा चौथा काल रहता है। पर्चासागर । उसमें भी इतना अन्तर है कि विदेड क्षेत्रके विजयाडौंको छोड़कर बाकीके भरत, ऐरावत सम्बन्धी वशों विजया?में चतुर्थकाल होनाधिक रूपसे रहता है । अर्थात् उनमें तीर्थरोंकी आयु कायके समान होनायिकता होती रहती । है । पहले तीर्थङ्करके समय पाँचसौ धनुषका शरीर और एक करोड़ पूर्वकी आयुवाले विद्याधर होते हैं । तथा । । अन्तिम तीर्थङ्करके समय एक धनुषका शरीर और एकसौ बीस वर्षकी आयुवाले विद्याधर होते हैं। बाकोके । विदेह क्षेत्र सम्बन्धी एकसौ साठ विजयार्द्ध निवासी विद्याधरोंको आयु काय उत्कृष्ट श्री सीमंधर स्वामीके । समान सदा रहती है। वहाँकी आयु काय होनाधिक नहीं होती। विदेहक्षेत्रको एकसौ साठ नगरियोंमें तथा पंच मेरु सम्बन्धो वश कनकाचल पर्वतों पर सदा मोक्षमार्ग-1 का प्रवर्तक चौथा काल रहता है अर्थात हुन क्षेत्रों में कभी दसरा काल नहीं बदलता, सवा चौया कालही रहता। है । पाँचों मेरु पर्वतको दक्षिण, उत्तर दिशाको ओर जो वेवकुरु और उत्तरकुरुको दश भूमियां हैं जिनमें सदा उत्कृष्ट भोगभूमि रहती है उसमें सदा पहला काल ही रहता है। पांचों मेरु सम्बन्धी पांचों हरिक्षेत्रोंमें तथा पांचों रम्यक क्षेत्रोंमें सदा मध्यम भोगभूमि रहती है और सदा दूसरा काल रहता है । इसी प्रकार पांचों हैमवत क्षेत्रोंमें और पांचों हरण्यवत क्षेत्रोंमें सदा जघन्य भोगभूमि रहती है और सदा तीसरा काल रहता है। मानुषोत्तर पर्वतसे आगे नागेन्द्रनामके पर्वत तक मध्यके असंख्पात द्वीप समुद्रोंमें सदा जघन्य भोगभूमिको रचनाके समान तीसरा काल रहता है । नागेन्द्र पर्वतसे आगे स्वयंभूरमण नामके अन्तके द्वीपके आधे क्षेत्रमें सदा पांचवां काल रहता है । इस प्रकार मध्यलोकमें कालको किरनका स्वरूप है । सो हो सिद्धांतसार बीपकके नौवें अधिकारमें लिखा है। भरतैरावतक्षेत्रेषु सर्वेषु द्विपंचसु । द्विषटकालाः प्रवर्तन्ते वृद्धिहासयुताः सदा ॥३५॥ । विजयार्द्धनगेष्वत्र म्लेक्षखंडेषु पंचसु । चतुर्थकाल एवास्ति शाश्वतो निरुपद्रवः ॥३५५॥ । किंतु चतुर्थकालस्य यदा स्याद्भरतादिषु। आयुःकायसुखादीनां वृद्धि हासाश्च जन्मिनाम् ॥ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SILPA HEART अर्यासागर [4 ] ESHWARPATHAMPCASHAIRATEprma तदा तेन समः कालो वद्धिहासयतोभवेत । रूप्याद्विम्लेच्छखण्डेष शेषकालश्च न क्वचित् ।। पूर्वापरविदेहेष द्विपंच स्वर्णपर्वते । चतुर्थकाल एवैको मोक्षमार्ग प्रवर्तकः ॥३५८।। । देवोत्तरकुरुष्वेव द्विपंच भोगभूमिष । दक्षिणोत्तरयो मेरौ प्रथमः काल ऊर्जितः ॥३५६।। । हरिरम्यकवर्षेषु मध्यमा भोगभूमिषु ।वृद्धिह्रासातिगः कालो द्वितीयो मध्यमो मतः ॥३६०॥ । हैमवताख्यहरण्यवत्क्षेत्रेषु ।द्वपंचसु । तृतीयः शाश्वतःकालो जघन्यभोगभूमिषु ।।३६१॥ तिर्यग्द्वीपेष्वसंख्येषु मानुषोत्तरपर्वतात् । वाह्यस्थेष्वन्तरेस्थेषु नागेन्द्रशैलतःस्फुटम् ॥३६२॥ । जघन्य भोगभूयागस्थितियुक्तेषु वर्तते । जघन्योभोगभूकर्ता नित्यकालस्तृतीयकः ॥३६३॥ नागेंद्रपर्वताबाह्य स्वयंभूरमणाणेवे । स्वयंभूरमणद्वीपाद्धे कालः पंचमोऽव्ययः ॥२६॥ इस प्रकार कालका निर्णय है। २२५-चर्चा दोसौ पच्चीसवीं प्रश्न-~-यह जीव पात्रदानसे तो उत्कृष्ट वा मध्यमादिक भोगभूमियोंमें जन्म लेता है परन्तु कुभोगभूमियोंमें किस कारणसे उत्पन्न होता है ? समाधान- जो कुमार्गगामो अपने मायाजालसे आहतो दीक्षा धारण करते हैं, जो बिना आलोचनाके । तप वा व्रत पालन करते हैं जो परत्रिवाहकरण आदि पापरूप कार्योकी अनुमोदना करते हैं । जो ज्योतिष, मंत्र, तन्त्र वा वैद्यक कर्मके द्वारा अपनी आजीविका करते है, पंचाग्नि तप करते हैं, जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रकी विराधना करते हैं, मिथ्या तप और मिथ्याज्ञान धारण करते हैं, जो खोटे भावोंसे नीच कुलों में भी मौन रहित भोजन करते हैं, जो सूतक, पातक वा रजस्वलादिके सूप्तकोंमें आहारादिक ग्रहण करते हैं, जो अभक्ष्य आदि सदोष भोजनोंको भी कर जाते हैं तथा इनके सिवाय और भी कितने ही प्रकारके शिथिलाचारोंको धारण करते हैं, जो इन्द्रियोंके लंपटी और शुद्धता रहित हैं ऐसे जो मायापारी साधु हैं वे सब कुपात्र कहलाते हैं। जैनियोंके भेषको धारण करते हुये भी जो ऊपर लिखे निन कार्य करते हैं ऐसे शिथिलाचारो साधु श्वेतांबर वा अन्य लिंगको धारण करनेवाले मानी मायायो साधु सब कुपात्र कहलाते हैं। जो मूर्ख इन कुपात्रोंको पात्र E RTeamssks Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर मनाउdAINImundanामाmam समझकर वान देता है यह कुपात्रदानके पुग्यसे कुभोगभूमियोंमें जन्म लेकर कुमनुष्य होता है । वहाँपर जघन्य। भोगभूमिके समान सुल, आयु, काय आदिको भोगता है। सो ही सिद्धांतसार दीपकके दशवें अधिकारमै लिखा है-- येऽहल्लिंगप्रपनन्नादिकारिण:कुमार्गगाः । अनालोचनपूर्व ये तपोबतचरन्ति च ॥ ६५ ॥ परेषां ये विवाहादिपापानुमतिकारिणः । ज्योतिष्कमन्त्रतंत्रादिवैद्यकर्मोपजीविनः ॥ १६ ॥ पंचाग्न्यादितपोनिष्ठ ये दृगादिविराधिनः । कुज्ञानकुतपोयुक्ता मौनहीनान्नभोजिनः ॥६॥ । कुकुलेषु च दुर्भावारसूतकादियुतेषु वा । आहारग्रहणोद्युक्ताः सदोषाशनसेविनः ॥ ६ ॥ इत्यादिशिथिलाचारा मायाविनः सिटपटाः।शुद्धिहीनाश्च ने सर्वे स्युः कुपात्राणि लिंगिनः॥ तेभ्यः कुपात्रलिंगेभ्यो दानं ददति ये शठाः । ते कुपुण्यांशतो जन्म लभन्तेऽत्र कुभूतिषु ॥ जघन्यभोगभूमेर्या मृत्यूत्पत्त्यादिका स्थितिः। सा ज्ञेया कुमनुष्याणां कुत्सिताभोगभूमिषु॥ २२६-चर्चा दोसौ छब्बीसवीं . प्रश्न—मौनव्रतसे भोजन न करना सदोष बतलाया सो मौन कहां-कहाँ धारण करना चाहिये ? समाधान-लघुशंका ( पेशाब करते समय ) वोर्घशंका जाते समय ( शौच जाते समय ) में, स्नान करते समय, पंचपरमेष्ठीको पूजन करते समय, स्त्रीसम्भोग करते समय, भोजन करते समय और सामायिक आदि जप वा ध्यान करते समय इन सात स्थानोंमें मौन धारण करना चाहिये । सो हो लिखा है हदनं मूत्रणं स्नानं पूजनं परमेष्ठिनाम्। भोजनं सुरस्तोत्रं कुर्यान्मोनसमन्वितः ॥ इन सात स्थानोंमें मौन धारण करना चाहिये इनके सिवाय जहाँपर वचन बोलनेसे राग वा द्वेष उत्पन्न । होता हो, वहाँपर भी मौन धारण करना योग्य है । लिखा भी है दोषवादे च मौनम्। इस प्रकार आठ स्थानों में मौन धारण करना चाहिये। sanaanaananda Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यासागर २२७-चर्चा दोसो सत्ताईसवीं प्रश्न-छठे कालमें मनुष्य कैसे होंगे तथा उनका व्यवहार कैसा होगा ? समाधान-छठे कालका नाम दुःखमा दुःखमा है। वह इफईस हजार वर्षका है उसके प्रारम्भमें मनुष्य धूए के रंगके होंगे, वो हाथ ऊँचे होंगे, बन्दरोंके समान नग्न होंगे । उनको उत्कृष्ट आयु बीस वर्षकी होगी । एक विनमें अनेक बार भोजन करेंगे, मांस भक्षी होंगे। उनके निवास बिलोंमें होंगे। उस समय नगर, पुर, गाँव आदि की रचना नहीं रहेगी। उनका स्वभाव बुष्ट होगा। नरक वा तिर्यञ्च गतिसे आये हुए ही यहाँपर उत्पन्न होंगे । अपनी माता, भगिनी, पुत्री आदि स्त्रियों के साथ हो पशुओंके समान काम सेवन करेंगे। तथा । अपनी आयुके अन्त में मर कर तिर्यच वा नरक में ही उत्पन्न होंगे। इस प्रकार छठे दुःखम दुःखमा कालमें दुराचारी, महापापी मनुष्य होंगे और वे घोर दुःखोंके भोगनेवाले होंगे। उस समय बादलोंमें पानी नहीं रहेगा, पृथ्वीके वृक्षादिक वनस्पतियों में कोई रस स्वाद नहीं रहेगा। मनुष्य, स्त्रियां सब निराश्रय रहेंगी उस छठे कालके नमें मानुषाकी पाईएमा हाम अगी। वे बहुत कुरूपी होंगे। उस समय उत्कृष्ट आयु सोलह वर्ष 1 को होगी। तथा शीत उष्णको बाधासे ये बहुत ही पीड़ित होंगे। सोही सिद्धांतसारकोपकके नौवें अधिकारमें लिखा है। अस्यादौ धूम्रवर्णाभा नरा हस्तद्वयोन्नताः।शाखामृगोपमा नग्ना वर्षविंशतिजीविनः॥३०॥ । मांसाद्याहारिणोनेकवाराशिनो दिन प्रति। विलादिवासिनो दुष्टा आयान्ति दुर्गतिं द्वयात् ॥ मात्रादिकामसेवांधास्तिर्यकनरकगामिनः भविष्यन्ति दुराचाराः पापिनो दुःखभोगिनः॥३०६ तस्मिन्काले शुभातीते मेघाः स्वच्छजलाप्रदा स्वादुवृक्षोज्झिता पृथ्वी निराश्रया नरास्त्रियः।। । कालस्यान्ते करैकोच्चदेहा नराः कुरूपिणः । उत्कृष्टषोडशाब्दायुष्काः शीतोष्णादिपीडिता २२८-चर्चा दोसौ अट्ठाइसवीं प्रश्न-श्रीमहावीर स्वामीको तथा पार्श्वनाथ स्वामीको तपश्चरण करते समय उपसर्ग हुआ था परंतु उस समय तीनों लोकोंके इन्द्रोंको वा चतुणिकायके वेधाविक अन्य जीवोंको भी मालूम नहीं हुआ था। क्योंकि Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्यासागर [१५] न्याTERamaeatmentreatment श्रीपार्श्वनायपर सात दिन तक बराबर उपसर्ग होता रहा।सात दिनके बाद धरणेन्द्र पद्मावती आये और उप-1 सर्ग दूर किया । तदनंतर भगवानको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ सो धरणेन्द्र पावतो भी पहले क्यों नहीं आये।। इसका कारण क्या है? समाधान यदि धरणेन्द्र पनावतो उसो समय आ जाते तो इतने दिन तक उपसर्ग कैसे रहता ? वे अपने पहले बंधे हुए फर्मोक फलको किस प्रकार भोगते ? तथा उस उपसर्गसे जो अनंत कोको निर्जरा हुई । थी सो कैसे होती ? तथा बिना कर्मोको निर्जराके इतनी शोघ्रतासे केवलज्ञान किस प्रकार उत्पन्न होता ? इसलिये कहना चाहिये कि इनके लिये ऐसे ही निमित्त मिलने थे। जिससे कि इतना उपसर्ग हो और नियत समयपर केवलज्ञान हो। दूसरी बात यह है कि इस भरतक्षेत्रमें असंख्यात उत्सपिणो अवसपिणी काल बीत जानेपर एक हुंगवसर्पिणो काल आता है। उसमें उस हुंगवसपिणो कालके दोषसे कितनी ही बातें विपरीत होती हैं। लिखा, भी हैहंडावसर्पिणीकाले णियमेण भवंति पंच पाषंडा। चक्किहरमाणभंगो उवसग्गोजिणवरंदाणा अर्थात्---असंख्यात उत्सर्पिणी तथा अवसर्पिणो कालके बोतने पर इस भरतक्षेत्रमें एक हुंडावसर्पिणी काल आता है। उसमें नियमसे पंच पाखंड बढ़ जाते हैं। एकान्त, विनय, विपरीत, संशय, अज्ञान ये पांचों मिथ्यास्व बढ़ जाते हैं । चक्रवर्तीका का मान भंग होता है और तीर्थंकरोंको छनस्य अवस्थामें उपसर्ग होता है। यह सब हुंडावसर्पिणीका माहात्म्य है। इसका विशेष वर्णन सिद्धांतप्रवीपकमें लिखा है । यथाउत्सर्पिण्यवसर्पिण्यसंख्यातेषु गतेस्वपि । हुंडावसर्पिणीकालः इहायाति न चान्यथा ॥७३॥ तस्या हुंडावसर्पिण्यां पंचपापंडदर्शिनः । शलाकाः पुरुषा जाताः सद्य भेदा अनेकशः ॥७॥ जिनशासवमध्ये स्युः विपरीता मतान्तराः।चीवरायावता नियाः सग्रंथाः संति लिंगिनः ॥७५ उपसर्गा जिनेन्द्राणां मानभंगाश्चचक्रिणाम् । कुदेवमठमूर्त्याद्याः कुशास्त्राणि अनेकशः॥ __भरतस्य चाहुबलिना मानभंगः प्रजायते । ___ इस प्रकार इस हुंडावसपिणो कालके ऊपर लिखे हुए पांचों मिथ्यात्वोंको वृद्धि हुई है। शलाका Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर [ ४६६ ] प पुरुषोंमें कमी हुई है ।' जिनशासनमें भो वस्त्रोंको धारण करनेवाले श्वेताम्बरोंके साधु हुये है श्वेताम्बरोंने और भी कई प्रकारको विपरीतता चलाई है सो सब काल बोधका प्रभाव है । इसके सिवाय तीर्थंकरोंको उपसर्गका होना, चक्रवर्तीका मानभंग होना, कुवेवोंकी मूर्ति या मठ स्थापन होने और कुशास्त्रोंका बहुत प्रचार होना आदि सब काल दोष है । इस प्रकार इस काल दोषका वर्णन संक्षेप से कहा है । यदि इसका विस्तार जानना हो तो त्रिलोकप्रज्ञप्तिले जानना चाहिये । - प्रश्न --- श्रीपार्श्वनाथ के तपश्चरण करते समय उपसर्ग हुआ था और उपसर्गके समय घरणेन्द्र पद्मायतीने उनके मस्तकपर उस उपसगंको दूर करनेके लिये सर्पका फणा बनाया था । तदनन्तर भगवानको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था । केवलज्ञानके समय वह कना नहीं रहा था तथा भूर्ति केवलज्ञानके समयकी बनाई जाती है और उस समय उनके मस्तकपर फणा या नहीं। फिर अब उनकी मूर्तिपर फणा क्यों बनाया जाता है ? समाधान — केवलज्ञानका स्वरूप गर्भ, जन्म, तप इन तोनों कल्याणोंके बिना नहीं होता । तुमको जो केवल केवलज्ञानकल्याणको मूर्ति प्रतिभासित होती है सो नहीं है किन्तु वह प्रतिमा गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान, निर्वाण इन पाँचों कल्याणमय है । प्रतिष्ठाके समय भी पाँचों कल्याणकों की प्रतिष्ठा होती है । तप कल्याणकी विधि पार्श्वनाथकी प्रतिमापर फणावली जो होनी चाहिये इसी अभिप्रायको लेकर प्रतिमाके निर्माण करते समय धातु वा पाषाण में कनाका चिह्न बनाया जाता है । बननेके बाद वह दूर हो नहीं सकता। तथा प्रतिष्ठाके समय पहले के पंच कल्याणकोंके संस्कार सब होने हो चाहिये । प्रतिमाजी तभी प्रतिष्ठित कहलायेंगी । ऐसी प्रतिष्ठित प्रतिमाएँ मंदिरोंमें विराजमान रहती हैं इसी कारण उनपर फणाका चिह्न रहता है। यह स्म रण रखना चाहिये कि समस्त तीर्थंकरोंको प्रतिमाएँ पंच कल्याणकमयो ही होती हैं । इसीलिये उनका पंचामृताभिषेक किया जाता है तथा जल-गंधाविकसे स्नान वा विलेपनादिक कर पूजनादिक किया जाता है। जो कोई ज्ञानकल्याणकमय वा तप कल्याणकमय मानते हैं सो सब मिथ्या है। १. शांतिनाथ, कुन्युनाथ, अरनाथ ये तीर्थकर भी थे और चक्रवर्ती भी थे। इस प्रकार तिरेसठ शलाका पुरुषोंमें तोन जीबों को कमी हुई है । [ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 2 चासागर कोई-कोई श्रावक भगवान पार्श्वनाथजीको प्रतिमापर फणोंका चिन्ह होते हुए प्रक्षाल, अभिषेक, पूजन, दर्शन, वंदन आवि करते समय मनमें अरुचि लाते हैं, कितने ही श्रावक प्रक्षाल करते समय फणाको छोड़ देते हैं। तथा कोई-कोई श्रावक फणा सहित प्रतिमाको पूजन वा वर्शन नहीं करते सो ठोक नहीं है। उनकी यह क्रिया शास्त्रविरुद्ध और अपने मनको कल्पनाके कदाचित् कोई यह कहे कि हम तो परीक्षाप्रधानी हैं, आज्ञाप्रधानी नहीं हैं तो इसका समाधान यह है कि धर्मध्यानके चार भेव वा दश भेद बतलाये हैं उनमें आज्ञाविचय नामका भेद सबसे पहले और सबसे मुख्य १. उत्तरपुराणमें लिखा है-- ततो भगवतो ध्यानमाहात्म्यान्मोहसंक्षय । विनाशमगतिश्यो विकार: कमठःविषः ॥ अर्थ-तदनन्तर भगवान ध्यानमें तल्लीन हये ध्यानके माहात्म्यसे मोहनीयकर्म नष्ट हो गया और मोहनीयके नाश होनेसे कमठ शत्रुका सब विकार नष्ट हो गया। इसके पहले उत्तरपुराणमें लिखा हैभारमस्थावावृत्य तत्पत्नी च फणाततेः। उपर्युच्चैः समुदत्य स्थिता वन्चातपच्छवम् ॥१४०॥ पर्व ७३ ॥ अर्थात्-उसकी देवो पद्मावती अपने फणाओंके समूहका वजमयो छत्र बताकर बहुत ऊंचा ऊपर उठाकर खड़ी रहो। इससे सिद्ध होता है कि वह वधमय फणा पयावतीने बनाया। तथा उसो अवस्थामें उनको केवलज्ञान हुआ क्योंकि जब तक वह उपद्रव दूर नहीं हुआ था तबतक तो वे धरणेन्द्र पद्मावती हट हो नहीं सकते थे । तथा उन्होंने जो फण किया था सो बहुत ऊंचा किया भगवानके शरोरसे उसका सम्बन्ध नहीं था। तथा वह उपद्रव मोहनोय कर्मके नाश होने के बाद हुआ है। इससे सिब है कि वह फणा मोहनीय कर्मके नाश होने तक था। तथा मोहनीय कर्मके नाश होनेपर अन्तर्मुहर्तमें हो केवलशान हुआ है । आगे इसो उत्तरपुराणमें लिखा है कि केवलज्ञान होने के बाद वह संवर ज्योतिषो देव पाांत हो गया। यथा तवा केवलपूजां व सुरेन्द्रा निरवर्तयन । संवरोपात्तकालाबिलब्धिः शममुपागमत् ॥ १४५ ।। अर्थात् केवल ज्ञान होनेपर इन्द्रोंने पूजा की और काललब्धि प्राप्त होनेसे संवर ज्योतिषी भी शान्त हो गया। इससे सिद्ध होता है कि केवलशान प्राप्त होने तक वह ज्योतिषी शान्त नहीं हुआ है। ऐसी अवस्थामें पद्मावती देवी भी उसी तरह रही होगी। यह बात उत्तरपुराणमें लिखी हो है कि पद्मावतीने यह फणा बहुत ऊँचा लगाया था और भगवानके शरीरसे उसका कोई संबंध नहीं था तथापि कमसे कम मोहनीय कर्मके नाश होने तक तो फणा था ही। अब उसके हटानेका समय वही होना चाहिये जो इन्द्रादिक देवोंके आसन कंपायमान होनेका या आनेका है। जैसा कि १४५ श्लोकसे सिद्ध होता है । इस प्रकार यह मूर्ति केवलसान उत्पन्न होनेके समय की ही है। [A रा Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर ४८) बतलाया है । वह व्यर्थ हो जायगा। भगवान वीतराग सर्वज्ञदेवने अपने फेवलज्ञान वा केवलवर्शनके द्वारा अत्यन्त सूक्ष्म पदार्थोंका भी निरूपण किया है। उनका जानना वा देखना छपस्थ पुरुषोंके ज्ञानगम्य नहीं है।। एक जलको व्दमें असंख्यात त्रस जीव बतलाये हैं यदि वे कबूतरका शरीर धारण कर उड़ने लगे तो इस एक लाख योजन व्यासवाले जंबूद्वीपमें भी न समावें । इसी प्रकार पृथिवीकाय आदिमें जीवोंको संख्या बसलाई है। एक निगोविया जीवके शरीरमें अनन्तानन्त निगोविया जीवोंका निवास बतलाया है। उनमेंसे यदि एक जोवका मरण हो तो सबका मरण हो जाता है। एकका जन्म हो तो सबका जन्म हो जाता है । इनके सिवाय मेहपर्वत, कुलाचल पर्वत, गंगा, सिन्धु आदिक नदियां, विदेहक्षेत्र, समुद्र, असंख्यात द्वीप समुद्र, स्वर्ग, नरक, तीनों लोक. अलोक. छह तव्य, सात तत्त्व, नौ पदार्थ, पंचास्तिकाय आदिका वर्णन किया है सो इनसे नेत्रों के द्वारा वा इन्द्रियों के द्वारा बहुत थोड़ा देखा वा जाना जाता है। बाकी सब सर्वज्ञगोचर है। छपस्थके ज्ञानगोचर नहीं है। यदि उन सबकी परीक्षा कर ही श्रद्धान किया जायगा तो यथार्थ श्रद्धानको विराधना माननी पड़ेगो।। तथा इसके साथ-साथ अनन्त संसारका परिभ्रमण स्वीकार करना होगा । सो हो नरेन्द्रसेनकृत सिद्धांतसारसंग्रहको चौथो संधि लिखा हैजिनोक्तानां हि भावानां श्रद्धानमेकलक्षणम् । शुद्धाशुद्धविमिश्रादि भेदतस्तत्रिधा मतम् ।। । कथमप्यक्षरं यस्तु जिनोदितमनिंदितम् । अन्यथा कुरुते तस्यात्मानंतसंसृतेभवेत् ॥१४॥ । यस्तुतत्त्वमिदं सम्यक् जीवाजीवादिगोचरम् । विपरीतं करोत्येषः किं स्यात् ज्ञानादिकेवली।। इससे सिद्ध होता है कि परम्परापूर्वक सनातनसे जो शास्त्रोक्त तथा प्रमाण पुरुषोंके द्वारा विधि चली आ रही है वही करनी चाहिये। अपने बुद्धिके बलसे केवल संशय धारण नहीं करना चाहिये। जो ऐसा । संशय करते हैं वे श्वेताम्बरों के समान मिथ्यावृष्टि समझे जाते हैं। एक बात बहुत विचारनेकी यह है कि श्रीपाश्वनाथको प्रतिमाजीपर फणाका चिह्न परम्परा पूर्वक । चतुर्थ कालसे ही चला आ रहा है उसका वर्णन शास्त्रोंमें जहां-तहाँपर बहुत मिलता है। उदाहरणके समान योड़ा-सा यहाँ लिखते हैं। आराधना कथाकोशमें आचार्य पात्रकेशरीको एक कथा लिखो है। पात्रफेसरीने जब आप्तमोमांसाका पाठ सुना और अष्टशती उसको टोका वेखी सम उनको ब्राह्मणोंके माने हुए ( नैयायिक TARANTEREOREnternational-postmaitheateETERS 40 : Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ fआदिके माने हुए ) अनुमानके लक्षणमें सन्देह हुआ था। उस समय पपावती देवीने रात्रिमें ही श्री पार्श्वनाथ को मूर्तिके मस्तकपर रहनेवाले सर्पके फणापर अनुमानका लक्षण लिख दिया था और पात्रकेसरीको स्वप्नमें उस मन्दिरके दर्शन करनेके लिये कहा था । पात्रकेसरीने प्रातःकाल होते ही भगवान के दर्शन किये उन लिखे [HETAहुए श्लोकोंको देखकर अपना संदेह दूर किया। यह कथा प्रसिद्ध है । इसके सिवाय श्रीमाधनंदि मुनिकृत जयमालामें भी पार्श्वनाथको स्तुतिमें सर्पके फणाका वर्णन किया है यथा फणिमणिमण्डितमण्डपदेहं । पार्श्वनि जगतहत संदेहम् ।। पण्डितप्रवर बनारसीदासजीने लिखा है "सजल जलद ननु मुकुट सपत फण” इत्यादि इस समय सैकड़ों वा हजारों वर्षोंकी प्रतिमा विखाई पड़ती हैं जिनपर फणाका चिन्ह है। इसलिये ऐसी प्रतिमाओंकी जो मन वचन, कायसे अवज्ञा करता है उसे जिनमतका विरोधी समझना चाहिये। प्रकार भगवानके पांचों ही कल्याणक पूज्य है । केवल एक या दो नहीं। २२६-चर्चा दोसौ उनतीसवीं प्रश्न--पहले हुण्डावसपिणी कालदोषसे विपरीत आवि पांच प्रकारके मिथ्यात्व बतलाये सो इन पांचों मिथ्यात्वोंका स्वरूप क्या है? समाधान-इनका विशेष स्वरूप तो जैन ग्रन्थों में प्रसंगानुसार महो तहाँ बहुत लिखा है। तो भी यहाँ बहुत संक्षेपमें लिखते हैं । पाँच मिथ्यात्वोंके नाम ये हैंएयंतं संसइयं विवरीयं विणयजं महामोहं । अण्णाणं मिच्छंतं णिदिलृ सब्वदरसी हि । अर्थ-एकांतमिथ्यात्व, संशयमिथ्यात्व, विपरीतमिथ्यात्व, विनयमिथ्यात्व और अज्ञानमिथ्यात्व ये पाँच प्रकारके मिथ्यात्व भगवान सर्वज्ञ देवने कहे हैं। अब इनका अलग-अलग स्वरूप बतलाते हैं। जो जीवोंके स्वरूपको क्षणिक बललाते हैं, यह जीव क्षण-क्षण में बदलता रहता है पहला नष्ट हो जाता है और क्षण-क्षण में नया उत्पन्न होता रहता है। इस प्रकार कर्मोको करनेवाला अन्य जीव है और Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर YSO] उनके फल भोगनेवाला अन्य है इस प्रकार प्रत्येक पदार्थके स्वरूप क्षणिक माननेवाले एकान्त मिध्यात्वी हैं । ये freandi कहते हैं कि यह ओव पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश इन पाँच तत्वोंसे बना है । अथवा पच्चीस तत्वोंसे बना है। मछली, हिरण, बकरा, भैसा, सुअर, मुर्गा, कबूतर, लावा, तीतर, मोर आदि त्रस जीवोंके भक्षण करने में कोई पाप नहीं है। इस प्रकार कहनेवाले अत्यन्त दुःख देनेवाली मिथ्याबुद्धिको धारण करनेवाले तथा दुष्टोंके कहे हुए कल्पित वचनोंको धारण करनेवाले सब एकांत मिथ्यात्व समझने चाहिये | जो केवली भगवानको फलाहार मानते हैं, जो स्त्री पर्याय में महाव्रत धारण करना, केवलज्ञानका उत्पन्न होना और उन स्त्रियोंको मोक्षकी प्राप्ति होना मानते हैं । जो कहते हैं कि श्री महावीर स्वामीका गर्भ किसी ब्राह्मणीके उवरमें हुआ था फिर इन्द्रने बहाँसे उठाकर त्रिशलाके उदरमें रक्खा । श्रीमहावीर स्वामीको समवशरण में भी उपसर्ग हुआ । समवसरणमें विराजमान रहते हुए भी महावीरस्वामीके रक्तातिसार रोग हो गया। इस प्रकार जो विपरीत कथन करते हैं जो जिनलिंगको धारण करनेवाले महावती माधुओंके भी दंड, वस्त्र, पात्र आदि चौदह उपकरण मानते हैं । इस प्रकार माननेवाले श्वेताम्बर सब संशयमिष्यत्यो समझने चाहिये | इनका विशेष वर्णन श्री भद्रबाहुचरित्रसे तथा वसुनंदिधविकाधारको वचनिकासे तथा और भी अनेक शास्त्रोंसे स्पष्ट जान लेना चाहिये । जो जीवोंकी हिंसामें पुण्य मानते हैं, यश में बकरा, भंसा, घोड़ा, मनुष्य आदिको मार कर होमते हैं, जो देवताओंपर बकरा, भैंसा आदि जीवोंको मार बलिदान देते हैं तथा इसी प्रकारके जीवघात करनेमें जो पुण्य मानते हैं। जैसा कि उनके यहाँ लिखा है--- देवान् पितॄन् समभ्यर्च्य खादन्मांसं न दोषभाक् । अर्थात् देवता और पितरोंको बलिदान वेकर फिर उस मांस खानेमें कोई दोष नहीं है इस प्रकारके यश वा बलिदान करने वा करानेवालोंको स्वर्गकी प्राप्ति होना मानते हैं, जो तोर्थोपर स्नान करने मात्रले आत्माकी शुद्धि मानते हैं। जो क्रूर कर्म करनेवाले या महापापरूप आरम्भ करनेवाले कुवेवोंकी पूजा भक्ति करते हैं, कामी, क्रोधी, लोभी तथा महा आरम्भ परिप्रहधारी गुरुओं की सेवा भक्ति करते हैं। जो गाय, हाथी, घोड़ा, बैल, भैंस, भैंसा आदि पशुओंकी पूजा करते हैं, जो दुष्ट सर्प, कौआ, उल्लू, कुत्ता आदि पशुओंकी पूजा [ ४७० Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर करते हैं जो अपने माता-पिताके मरण होने के बाद जल, तिल आदि पदार्थोंसे सर्पण करते हैं, श्राद्ध करते । ई है, सिवान करते हैं। इस्पावि ब्राह्मणोंके बहकाये हुए जो बिना विचारे कार्य करते हैं सो सब विपरीतमिथ्यात्व है। जो बेव, कुदेव, गुरु, कुगरु, धर्म, कुधर्म, पात्र, अपात्र आदि सबको एकसा मानकर सबको एकसा विनय करते हैं सबको एकसी भक्ति, सेवा, नमस्कार, पूजन आदि करते हैं ऐसे तापसियोंको विनयमिथ्यात्वी समझना चाहिये। जो मद्य, मांस, शहद, पांच उदंबर, बाईस अभक्ष्य आदिके खानेके विचारसे रहित हैं ऐसे म्लेच्छ आविसे उत्पन्न हुआ धर्म तथा शून्यबावियोंसे उत्पन्न हुआ धर्म सब अज्ञानमिथ्यात्व है। इस प्रकार पांचों मिथ्यात्वोंका थोडासा स्वरूप बतलाया सो ही प्रश्नोत्तरोपासकाचारमें लिखा है-- कथ्यते क्षणिको जीव यत्र तत्त्वं च सर्वथा। अन्यः कर्म करोत्येव भुक्ते चान्यो हि तत्कलम्॥ मत्स्थादिभक्षणे दोषो नास्ति दुःखाकरं खलम् । मिथ्यात्वं विद्धि तन्मित्र कुबोधमतकल्पितम्।। ब्रूयते यत्र तीर्थेशे चाहारो मुक्तिसम्भवम् । स्त्रीणां गर्भापहारं च वर्द्धमानस्य दुःखदम् ॥ यष्टिकवस्त्रपात्रादि सर्व धर्मस्य साधनम्। तद्धि संशयमिथ्यात्वं भवेत्स्वेतपटनजम् ॥ पुण्यं जीववधायत्र शुद्धिः स्नानेन कथ्यते । क्रूरकर्मरताः देवाः गुरवः कामलालसाः ॥ पूजनं पशुदुष्टाहीस्तर्पणं मृतसज्जलात् । विपरीतं च तज्ज्ञेयं मिथ्यास्वं द्विजसम्भवम् ॥ विनयो गीयते यत्र पात्रापात्रेषु प्रत्यहम् । देवादेवेषु तद्विद्धि मिथ्यात्वं तापसव्रजम् ॥ अज्ञानजं कुमिथ्यात्वं भवेन्म्लेच्छादिगोचरम् । खाद्याखाद्य परित्यक्तविचारं शून्यवादिजम् ॥ इस प्रकार इन मिथ्यात्वोंका श्रीपार्श्वनाथजोके समयमें सरयू नामको नबोके किनारे एक पलास नामके गांवमें रहनेवाले पिहितालव गुरुके शिष्य बुद्धिकोतिने एकान्त नामका मिथ्यात्व स्थापन किया था । उस एकांत मिथ्यात्वमें आत्माको क्षणिक माना है और मांसभक्षणाविक दोष नहीं बतलाया है। इस प्रकार एकांत मिथ्यात्वको उत्पत्ति हुई। है। सो ही लिखा है = [ ७१ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर [ ४७२८ ] सिरि पासनाह तिथे सरऊ तीरे पलास णयरत्थो । पहियासवस सिस्सो पहासदो बुद्धिकित्तिये ॥ इसी पंचकालमें महाराज विक्रमके परलोक जानेके एकसौ छत्तीस वर्ष बाद सोरठ नामके देशके बल्लभीपुर नगर में अर्द्धफाल्समना हुआ था । वही संशय मिथ्यात्व है । सो हो लिखा है एयसया छत्तीसे विक्कम रायस्स मरणपत्तेसु । सोरट्ठे वलहीए उप्पणो सेवडो संघ ॥ विपरीत मिध्यात्वकी उत्पत्ति आगे बतलावेंगे । श्री ऋषभदेवके पौत्र मारोजको आदि लेकर सब तीर्थंकरोंके समय में अनेक तापसियोंने विनय मिथ्यात्व चलाया है । सो ही लिखा है सव्वेसु तित्थेसुप वेणइयाणं समुज्झ चौ अस्थि । जडा पुंडीय सिस्सा मिहिणो ण गायके इम ॥ दु गुणवंतं विय समया भत्तिण सव्वदेवाणं । णमण दंडो व जणेयरि कलियंते हि मूढे हि ॥ उसह जिण पुतपुतो मिच्छत्सकलंकि दो महामोहो । सव्वेसिं भट्ठाणं धुरि गुणी उपत्तसरीहिं ॥ श्रीमहावीर स्वामी तीर्थमें बहुश्रुतके उपासकके संघकी सीमा ऐसे मस्तक पूर्ण नामके आचार्यने इस लोक अज्ञान मिथ्यात्व अर्थात् म्लेच्छ वा मुसलमान आदि यवनोंका मत तथा शून्यवादियोंका मत स्थापन किया है । इस अज्ञान मिध्यात्वमें अज्ञानताकी मुख्यता है । ये लोग मुक्त जीवके भी ज्ञान नहीं मानते। उसे भी अज्ञान रूप ही मानते हैं । ये लोग भव-भवमें जोवोंका उत्पन्न होना और मरना नहीं मानते । ये सब जोव शुद्ध बुद्ध, कर्ता और एकरूप हैं तथा यह लोक सब शून्य है ऐसा वर्णन करते हुए अज्ञान पंथ स्थापन किया है। इस प्रकार अज्ञान मिथ्यात्थकी उत्पत्ति है। सो ही लिखा है सिरि वीरनाह तिथे बहुसुदोपाससंघगणितीमो । मक्कड पूरण साहू अण्णाणं भासिए लोए ॥ अादी मुक्खाणं णस्थिति मुत्तजीवाणं । पुणरागमणं भमणं भवे भवे णत्थि जीवस्त || TRUTES Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिसागर ७३) समानताना श्रीऋषभदेवके पुत्र भरत थे और भरतका पुत्र मारीच था। जब महाराज ऋषभदेवने दोक्षा ली थी तब उनके साथ बिना समझे तथा बिना गुरु आम्नायके केवल ऋषभदेवको भक्तिसे मारीचको आदि लेकर चार ॥ हजार राजाओंने दीक्षा ली थी। वह दीक्षा केवल देखा-देखी ली थी। तदनन्तर वे सब मुनि क्षुधा, तृषा, शोत, उष्ण, दंशमसक आवि परोषहोंसे पीड़ित होकर तथा अपने मनसे हो उस संयमको विराधना कर अनेक भेषोंको धारण करने लगे। कोई त्रिदण्डो हुए, कोई परिव्राजक आए। इस प्रकार उन्होंने अपने मनके अनुसार जुदे-जुदे ।। । अनेक भेष बनाकर अनेक मत स्थापन किये । वे सब कन्द, मूल, पत्र, पुष्प, फल और बिना जलका आहार लेने लगे। उन सबमें मारीच मुख्य था सो उसमें अपनी बुद्धिसे सांल्य और पातञ्जलि नामके दो शास्त्र बनाकर। सांस्यमत और पातञ्जलि मसका स्थापन किया । सो ही लिखा हैविवरीय मखें किच्चा विणासयं सव्वसंयम लीए । तत्तो पत्तासे वे सत्तमणरयं महाघोरं ।।। उसी समय महाराज भरतने ब्राह्मण वर्णको स्थापन किया था। वे ब्राह्मण कालदोषसे दशवे तोधकर । श्रीशीतलनायके समयमें जैनधर्मके श्रद्धान, ज्ञान और आचरणसे विमुख हो गये थे। तथा जैनधर्मके द्रोही और निन्दक बन गये थे। उसी समय एक मुखशालायन नामके ब्राह्मणने धर्मके लिये ब्राह्मणों को गोदान, सुवर्णवान आदि दश प्रकारके दान देनेको स्थापना की थी। उस समय उन्होंने और भी किसने ही प्रकारको विपरोसता, स्थापन की थी। तदनन्तर श्रीमुनिसुव्रतनाथके समयमें एक क्षीरकवम्ब ब्राह्मणके पुत्र पर्वतने महाविपरीत मिथ्यात्वका स्थापन किया। उसने विचित्र यश-कर्म करनेका विधान बसलाया। यश अज अर्थात् जो बोनेसे । फिर उत्पन्न न हों ऐसे तीन वर्षके पुराने चावल पा जौसे होम करनेका निषेध किया और अपने चलाये हुए। झूठे और विपरीत मतके अनुसार उस यज्ञकी अग्निमें अज अर्थात् बकरेके होम करनेका विधान बतलाया। इस प्रकार उसने महापापरूप वचनोंका स्थापन किया। उसी समय उसी क्षीरकदम्बके शिष्य नारद नामके ब्राह्मणने । । उस पर्वतके मतका खण्डन किया, परन्तु राजा बसुने पर्वतका पक्ष लेकर नारद ब्राह्मणको झूठा करना चाहा।। । परन्तु वह राजा बसु उस झूठके पापसे उसी समय सिंहासन समेत पृथ्वीमें फंस गया और मरकर नरक। पहुंचा । इस प्रकार विपरीत मिथ्यात्वको उत्पत्ति हुई है। यह कथन उत्तरपुराण, पञ्चपुराण, वहरिवंशपुराण, । पुण्यालय, आराधनाकथाकोश तथा और भी अनेक शास्त्रों में लिखा है । यहाँसे विस्तारके साथ जान लेना चाहिये। ६० Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चासागर [ ४] किसी एक दिन अयोध्या नगरके राजा सामान्य भायामकी प्रतिभाको पूजन करनेम सन्देह हुआ था वह ॥ सोचने लगा था कि यह भगवान की मूर्ति धातु और पाषाणको बनी हुई है। ये सब मूतियां जड़ हैं अचेतन हैं । और अजीव हैं । इनसे स्वर्ग मोक्षको प्राप्ति किस प्रकार हो सकती है। इसी सन्देहमें पड़कर उसने मुनिराजसे, पूछा। मुनिराजके उपदेशसे उसका सब सन्देह दूर हो गया। उस समय उन मुनि महाराजने उस राजाको तीनों लोकोंमें विराजमान श्रीजिन मन्दिरोंका और उनमें विराजमान श्रीजिन प्रतिमाओंका स्वरूप बतलाया उन्होंने सूर्य, चन्द्रमा आदि ज्योतिषी देवोंके विमानोंमें विराजमान श्रीजिनमन्दिर और जिन प्रतिमाका वर्णन । सबसे पहले किया था फिर अन्य सब मन्दिर और प्रतिमाओंका वर्णन किया था। उसको सुनकर वह राजा उस । दिनसे प्रतिदिन सर्यबिम्बमें विराजमान जिनप्रतिमाको प्रणाम करने लगा और अर्घ देकर पूजन करने लगा। तथा । अन्य जिन प्रतिमाओंकी पूजा भी बह बड़ी श्रद्धा और भक्सिके साथ करने लगा। उसने सूर्यके विमानके आकारका एक नवीन मन्दिर बनवाया उसमें जिनप्रतिमा विराजमान की और फिर उनकी पूजन वह बड़ी भक्तिके साथ प्रतिदिन तीनों समय करने लगा। लोगोंने उस समय राजाके वास्तविक अभिप्रायको तो समझा नहीं केवल राजाको रोतिको देखकर सूर्यको ओर पूजनके लिये जलांजलि देकर निस्य अर्घ देने लगे। इस प्रकार । राजरीतिको देखकर सूर्यको अर्घ देना चल पड़ा जो आजसक चला आ रहा है । लिला भी है 'यथा राजा तथा प्रजा' इस प्रकार यह विपरीत मिथ्यात्व चला है । सो हो पाश्र्वनाथपुराणमें लिखा है- . इत्यादि हेतुदृष्टान्तैरुत्पाद्य निश्चयं शुभम् । भूपतेः श्रीजिनार्चादौ धर्मपूजादिकं तथा ॥७॥ तत्कथावसरे लोकत्रयचैत्यालयाकृतीः। सम्यग्वर्णयितु बांच्छन् विस्तरेण महाद्भुतान्।।७१|| प्रागादित्यविमानस्थजिनेन्द्रभवनं महत् । स्वर्णरत्नमयं दिव्यं महाभूत्युपलक्षितम् ॥७२॥ भानुकोट्यधिकासीत्र तेजो बिम्बौघसंभृतम्। मुनीशो वणयामास सूर्यदेव नमस्कृतम् ॥७३॥ कृत्वा साधारणी भूर्ति महतीं जिनधामजाम्। श्रुत्वा वहन पर श्रद्धामानन्दोपि मुदान्वितः दिनादौ च दिनान्ते श्रीजिनेशां रविमंडले। स्वकरो कुड्मलीकृत्य करोति स्तवनं परम् ॥७॥ # आनम्रमुकुटो धीमांस्तद्गुणमामरंजितः । धर्ममुक्त्यादिसिद्धयर्थ ज्ञानादिगुणसंचयैः ॥७॥ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांसागर । पुनरकविमानं सः शिल्पिभिर्मणिकांचनैः। जिनेन्द्र भवनोपेतं कारयामास ह्यभुतम् ॥७॥ चतुर्मुखं रथावर्त सर्वतोभद्रमूर्जितम् । कल्पवृक्षं च दीनेभ्यो ददद्दानमवारितम् ॥७॥ तद्विलोक्य जिनाः सर्वे तत्प्रामाण्य स्वयं च तत् । स्तोस्तुमारेभिरे भक्त्या पुण्याय रविमण्डलम् ॥ ७६ ।। । अहो लोका प्रवर्तन्ते नृपाचारेण भूतलो सद्विचारे न जानन्ति कार्याकार्य शुभाशुभम् ॥८॥ तदा प्रभृति लोकस्मिन् वभूवाकोपसेवन । मिथ्याकारं च मृढानां विवेकविकलात्मनाम् ॥१॥ इसके सिवाय जैनमतमें भी विमो निष्पाला उरला है उसोका दर्शन करते हैं । सिरिपुज्जपोदसिस्सो दाविडसंघस्स कारण दुट्ठो।णामेण वजणंदी पाहुणवेदी महासत्थो॥१॥ अप्पासुयचणयाणं भक्खण दोसो ण वज्जिओ मुणिहिं। परिरइयं विवरीयं विसेसियं वयण वोज्ज ॥ २ ॥ वीएसुणस्थि जीवो ऊणवणं णस्थि फासुयं णस्थि ।। __ सावज गहु मण्णइ ण गणइ गिहकप्प अढे ॥ ३ ॥ कच्छे खेतवसही वाणिज्जं कारिऊण जीवंतो। व्हाइंतो सीयलणीरे पावं पउरं समजेरी ॥ अर्थ-श्रीपूज्यपाद मुनिका वचनंदि नामका एक दुष्ट शिष्य था उसने प्राभूतवेदी नामका महाशास्त्र । बनाया और द्राविड नामके संघको स्थापना करनेके लिये अनेक प्रकारका विपरीत कथन किया । उसने बतलाया, कि कम्चे धनोंके खानेमें सचित्त द्रव्यके समान पाप नहीं लगता अर्थात् कच्चे चने में जीव नहीं है वह अजीव है, अचित्त है इसलिये भक्षण करने योग्य है । इस प्रकार वचन स्थापन कर विपरीतमिथ्यात्यको पुष्ट किया। इसी प्रकार बीजमें भी जीवका निषेध किया। उसने बतलाया कि गृहस्थोंको अन्न, जल, खेत, व्यापार आबिके । कामोंमें होनेवाले थोडेसे पाप गिनने ही नहीं चाहिये । शीतल कच्चे जलसे स्नान करनेमें कोई पाप नहीं है इस प्रकार उसने बहुत कुछ विपरीत मिथ्यात्वका प्रचार किया। चायाaaspees [ on Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चासागर [ ४७६ ] सिरिवीरसेणसिस्सो जिणसेणो सयलसस्थ विण्णाणी। सिरि पउमणंदी पच्छा चउसंघ समुद्धरण धीरो ॥ १॥ तस्स य सिस्सो गुणवंतो गुणभद्दो दिब्बणाणपरिपुण्णो । परमावुद्धी सामी महातवो भाव लिंगोय ॥२॥ तेण पुणोवि य मञ्चु णाऊण मुणी स विणयसेणस्स। सिद्धतं घोसित्ता सयमत्थं जाण लोयस्स ॥३॥ आसी कुमारसेणो णंदि पडविणयसेण दिक्खीय । सण्णासभंजणेणय अगहिय पुण दिक्खिओ जाऊ ॥ ४॥ परिवज्जिऊण पीछे चमरं चित्तण मोहकालदण । ऊमग सकिालसं वागविसयेसु सव्वेसु॥ इत्थीणं पुण दिक्खा खुल्लयलोयस्स वीरचरियंत। ककस्सकेसगहणं छठे गुणव्वदं णाम॥ आयम अत्यपुराणं पायच्छित्तं च अण्णहा किंपि।विरइत्ता मिच्छत्तं पट्टियं मुढलोएसु ॥७॥ सोसवणसंघवज्झो कुमारसेणो हु समयमिच्छत्तो । चत्तोबसमो रुद्दो कट्टं संघ परवेदी॥८॥ । सत्तसये तेवपणे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । गंदियरे बरगामे कट्ठो संघो मुणेयवो ॥६॥ गंदियरे वरगामे कुमारसेणो य मिच्छविण्णाणी। कट्ठोदसणभट्टो जादोसल्लेहणा काले ॥१०॥ अर्थ-राजा विक्रमके मरण होनेके सातसौ वर्ष बाद नंदिवर नामके गांवमें विनयसेन मुनिके शिष्य कुमारसेन भुनिने पहले अपने संन्यासका भंग किया फिर मूलसंघसे दूसरा काष्ठसंघ नामका एक संघ स्थापन किया । उसका क्रम इस प्रकार है। श्री आचार्य बोरसेनके शिष्य श्री जिनसेनाचार्य हुए। वे जिनसेनाचार्य समस्त शास्त्रोंके जाननेवाले थे। उनके बाद श्री पपनंदि नामके आचार्य हुए जो चारों प्रकारके संघको धारण करने के लिये बड़े धोर वीर थे। उनके शिष्य श्री गुणभद्राचार्य थे जो बड़े ही मुणवान् थे, दिव्यज्ञानसे परिपूर्ण थे, परमबुद्धिके स्वामी थे, महा तपस्वी थे और भालिंगी थे। गुणभद्राचार्य के शिष्य विनयसेन थे जो समस्त । पदार्थोको जानते थे। उन विनयसेन मुनिका शिष्य कुमारसेन नामका मुनि हुआ। जिसने गुरुसे संन्यास धारण Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चासागर [७७ ! किया और फिर उसका भंग किया। तब तर उसने अगृहीत बीक्षा ली अर्थात् गुरुके पास छेदोपस्थापना किये। बिना हो स्वयं वीक्षा ले ली। उसने मयूर पीछीका त्याग कर दिया और सुरागायके पुछके बालोंको पोछी ले । ली। उसने उन्मार्ग अर्थात् सनातन मोक्षमार्गसे विरुद्ध काष्टसंघका स्थापन किया और मूलसंघ दिगंबराम्नायके विरुद्ध कितनी ही बातोंका प्रचार किया। उसने स्त्रियोंको पुनः दोक्षा लेनेका अधिकार विया । अल्लक, धायकोंको वीरचर्याका अधिकार दिया और कठोर केशोंके ग्रहण करनेका विधान बतलाया। इस प्रकार उसने और भी कितनी हो विपरीत बाते स्थापन की। इसके सिवाय आगम, शास्त्र, पुराण, प्रायश्चित्त आदि शास्त्रोंमें भी अन्यथा वर्णनकर अज्ञानो लोगों में प्रवृत्ति की। इस प्रकार कुमारसेन मुनिने मुनियों में रुनके समान प्रकाष्ठ-1 संघको वत्ति की और यह काष्ठसंघ मलमासे अलग स्थापन हary ! इसके कुछ वर्ष बाद इसी काष्ठसंघमें और भी विपरीतता हुई। सीताको जनककी पुत्री बतलाया, अभिषेकमें पहले घृताभिषेक बतलाया। काष्ठको प्रतिमा बनाना, सीताका दंडकवनमें हरण होना, पूजामें अष्टद्रव्यों में अक्षतके पहले पुष्प चढ़ाना, पुष्पोंके बाद अक्षत चढ़ाना। श्रीनेमिनाथका द्वारावती में जन्म होना इत्यादि किसनो हो बातें मूलसंघसे विरुद्ध स्यापन की। इस । प्रकार संक्षेपसे काष्ठसंघका वर्णन किया। इसी प्रकार विक्रम सम्वत् सात सौ पांचमें कल्याण वर नामके नगरमें श्वेतांबर मतमेसे एक पापुलोय । संघ प्रगट हुआ। इन्होंने अपने साधुओंका स्वरूप तो नग्न ही रक्खा पर आचरण सब श्वेतांबरोंके समान शिथिल हो रक्खे । इसका विशेष वर्णन भद्रबाहु चरित्रमें लिखा है । यथा। कल्लाणे वरणयरे सत्तसयं चउत्तरे जादे। जावलियसंघभावो सिरिकलसादोवि सेवडादो॥ इसके दो सौ वर्ष बाद मथुरा नगरमें माथुरान् नामके गुरुके शिष्य रामसेन नामके साधुने निपिच्छ संघ स्थापन किया। उसमें उन्होंने कमंडलु और पोछोके ग्रहणको भी परिग्रह बतलाया । सो हो षट्पाहुडमें। लिखा हैजिहिजाइरूपसरसो तिलतुसमत्तसु अत्थेसु । जहि लइ अप्प बहुलं तत्तो पुण जाइ णिगोदं ।। इत्यादि पचनोंको ग्रहणकर मुनिका स्वरूप पोछीरहित बतलाया तथा सम्यक्प्रकृति मिथ्यात्यको स्थापना करते हुये उसने ममत्व बुद्धिसे प्रतिमा भी विपरीतता को स्थापन को । प्रतिष्ठा रहित प्रतिमाको हो पूज्य । Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । बतलाया, गुरुओंको पीछी रहित बताया इस प्रकार उसने संघको नाश करनेका विचार किया। इस प्रकार नि:पिछि मत स्थापन हुआ । इस समयमें भी कितने ही लोग बिना समझे मुनिको पोछी रहित हो मानते हैं । वापर पौछीको परिग्रह कहते हैं । सो उनको भी मूलसंघसे बाह्य समझना चाहिये । सो हो लिखा है[ wwe ] तत्तो दुसएसीदे महराए माहुराण गुरुणाहो। णामेण रामसेणो णिपिच्छं वण्णयं तेण । सम्मत्तपयडमिच्छत्तं कहियं जंजिणंदविवेसु। अप्पयर णि?पसु य ममत्तबुद्धिए परिवसणं ।।। ऐसो मम दो भु गुरु अवरो गरियोति चित्तपरिरमणं । संग गुरु कुलाहिमाणो इयरेसु विभंगकरणं च ॥ इस प्रकार नि:पिच्छ मतको उत्पत्ति बतलाई । श्रीमहावीर स्वामीके अठारहसौ वर्ष बाद दक्षिण वेशके पुस्खल नगरमें बारिचन्दमुनिने भिल्लुसंघको स्थापना की। उसने उसमें सोनीय गच्छ स्थापन किया। प्रतिक्रमणमें तथा अन्य किसने हो क्रिया चरणोंमें उसने मूलसंघसे विपरीत बातें निरूपण की । सो ही लिखा है-- दक्खिणदेसे विझे पुर कलए चारचंद मुणिणाहो । अट्ठारसएतीदे मिल्लुघं संघ परवेदी । सो णियगच्छं किच्चा पडिकमणं तय मिण्णकरि आऊ । वण्ण वण्ण विवाई जिणमग्गं सुझुणिहरेदे ॥ इस प्रकार भिल्लुसंघको उत्पत्तिका वर्णन किया। इस प्रकार पंचमकालमै जनमतमें भी विपरीत मिथ्यात्वको उत्पत्ति हुई है। उन सबमें उनके स्थापन । । करनेवालोंने अपनी-अपनी बुद्धिके अनुसार सिद्धांताविक शास्त्रों में मूलसंघसे विरुद्ध विपरोत बातें निरूपण को हैं। सोही नीतिशतकमें पूर्व श्रीमूलसंघस्तदनु सितपटः काष्ठसंघस्ततो हि तत्राभूद्र द्राविडाख्यं पुनरजनि ततो पापुलीसंघ एकः । - - - Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ---- - तस्मिन् श्रीमलसंघ मुनिजनविमले सेननंदी च संघौ स्यातो सिंहाख्यसंघी भवदुरुमहिमा देवसंघश्चतुर्थः ।। सागर कियत्येपि ततोऽतीने काले श्वेताम्बरोऽभवत् । द्राविडो यापनीयश्च केकीसंघश्च नामतः॥ -७९ । केकीपिच्छःश्वेतवासः द्राविडो यापनीयकः। नि:पिच्छश्चेति पंचैते जेनाभासाः प्रकीर्तिताः॥ स्वस्वमत्यनुसारेण सिद्धांतव्यभिचारणम् । विरचय्य च जैनेन्द्र मार्ग निर्भेद याति भो ॥४ अर्थ-मूलसंघ तो अनादि निधन है उसके पीछे अर्द्धफाल्कोके द्वारा श्वेताम्बर गच्छ उत्पन्न हुआ। उसके बाद काष्ठसंघ उत्पन्न हुआ। उसके कितने काल बाद श्वेताम्बर धर्म सेवड़ासंघ प्रकट हुआ। तदनंतर प्राविडसंघ, यापनीयसंघ, केकीसंघ प्रकट हुए। केको, श्वेताम्बर, ब्राविड, यापनोय, नि:पिच्छ ये पांचों संघ जैनाभास कहलाये। इनका मायलिंग तो जैनियोंका रहा परन्तु क्रिया आवरण आदि सब शिथिल और होन। बने रहे। इनका श्रद्धान. ज्ञान, आचरण सब मलसंघसे विरुद्ध है इसलिये इनको जैनाभास कहते हैं। इन पांचों जैनाभासोंके आचार्योंने अपनी-अपनो बद्धिके अनुसार अपने सिद्धांतमें दोष उत्पन्न करनेवाले विस बातें निरूपण की और अपने संघको स्थापना की सो सम्मज्ञानियोंको श्रदान करने योग्य नहीं है। इन सबके पीछे भोपाल नामके नगरमें सिरोज (भेलसा) गांवका रहनेवाला ताराचंद नामका श्रावक था। वह बड़ा मानी, अधोगतिका पात्र, महा मिथ्यात्यो था। किसो एक दिन वह अपने पिताके साथ विवेशके लिये चला । उसके पिताके भगवानको नित्य पूजन करनेका नियम था। इसलिये उसने अपने साथ श्री जिनप्रतिमाजो ले रक्खी यों। मार्गमें प्रातःकाल के समय किसो नदीके किनारे उतरे। पिताने बह प्रतिमाजी और पूजनको सामग्रो आवि सब अपने पुत्र के पास रख दी और स्वयं शौच होनेके लिये बाहर गया। ताराचन्दने ! अपने पिताको अपने मतमें वृढ़ करनेके लिये वे प्रतिमानो और पूजनको सब सामग्रो उस नवीमें अगाध जलमें । लो हो। पिताने आते ही सामग्री आदि पूछो तब ताराचन्दने कहा कि तुम्हारे दर्शन और पूजा करनेका दृढ़। नियम है तो भगवान आप आकर मिल जायगे । यदि जिनेन्द्रदेव सच्चे हैं तो वे जलसे निकल कर तुम्हारा धर्म रख लेंगे । हमें भी तो देखना है तुम्हारे भगवान कैसे हैं। ताराचन्दको यह बात सुनकर पिताने अन्न अलका त्याग किया और संन्यास धारण कर मरण किया। पिताके मर मानेपर ताराचन्दने जनको भी उस अगाष REPHearPawater Rea p eRAMANTRA [url Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर E. ] अलमें डुबा दिया । तदनंतर उसने एक नवीन भाषामें छन्दोमय शास्त्र बनाया। उसमें धर्मका स्वरूप तथा कथाएँ आदि तो जैनधर्मसे मिलती-जुलती लिखों । परन्तु श्रीमंदिरों में विराजमान जिनप्रतिमाओंको अचेतन और जडरूप बतलाकर उनका निषेध किया तथा कितने ही मन्दिरोंमेंसे प्रतिमाएँ उठवा व और उन वेदियों में बड़ी विनयके साथ केवल शास्त्र विराजमान किये। वे लोग नित्य उन शास्त्रोंकी पूजा करने लगे, उनको बाँचने लगे और उन पर नैवेद्य चढ़ाकर उसका प्रसाद बाँटने लगे और खाने लगे। उन्होंने जिनप्रतिमाके दर्शन, वंदन, भक्ति करने लगे । यदि कोई पूजन आदिका निषेध किया और समाज केवल शास्त्रोंकी हो पूजा, उनसे इसका कारण पूछता है तो ये कहते हैं कि हमारे यहाँ एक तारणस्वामी हुए हैं उन्होंका चलाया हुआ यह धर्म है। ये तारणपंथी लोग भैसके सींग समान हैं अथवा रोडोका मलिन पृथ्वीके समान है। भैंसके सींग और रोडोको मलिन पृथ्वी ऊपरको नहीं जाती । टेडो ही जाती है। कोमल पृथ्वी हो ऊपरको आती है। इस प्रकार उनके लिये भ्रष्ट दृष्टांत दिया जाता है। जैसे वे हैं वैसे ही उदाहरणके द्वारा उनको उपमा मिली है । जैसे लोकमें कहावत है "जैसी शीतला देवी वैसे ही उसको गधेको सवारी ।" लिखा भी हैयादृशी शीतला देवी तादृशो खरवाहनः । प्रश्न- यहाँ शीतला का उदाहरण दिया सो इस उदाहरणसे क्या प्रयोजन है ? उत्तर -- स्कंधपुराण में लिखा है नमस्ते शीतला देवि सूर्यालंकारमस्तके । सस्मिता च लंबोष्ठी च रासभस्था दिगम्बरी ॥ करे तु मार्जनोपेता अर्थात् जिसका मस्तक सूर्यसे सुशोभित हो रहा है, जो मंद-मंद हँस रही हैं, जिसका होठ लम्बा है, जो गधेपर बैठी है, नग्न है और जिसके हाथमें बुहारी है। ऐसी शीतला देवी है उसके लिये नमस्कार हो । इसका अभिप्राय यह है कि जैसो वह देवी थो वैसी ही उसको सवारी मिली। उसी प्रकार जैसे वे तारणपंथी थे वैसा ही उनके लिये भैसके सींगका उदाहरण दिया गया है। [ ४८० Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ears वर्षासागर ४८१ 1 उन तारणपंथियोंसे यदि कोई पूछता है कि ये तारण स्वामी कौन हुए है तो वे उत्तर देते हैं कि ने श्रेणिकजी महाराज पहले नरकसे निकलकर तीर्थकर रूप प्रगट हुए हैं। इस प्रकार उन्होंने अनेक प्रकार विरुद्ध वचनोंके द्वारा विपरीत मिथ्यात्व स्थापन किया है और उसका नाम तारणपंथ रक्खा है । यह तारणपंथ समैया । जातिमें चला आ रहा है, समैया जातिका अर्थ यह है कि इनमें कोई जुदी-जुदी जातियोंका व्यवहार नहीं है । । इनके धर्ममें जो कोई शामिल हो जाता है चाहे वह नीच जातिका हो वा ऊँच जातिका हो वह वही समैया । कहलाता है । उसीके साथ ये लोग रोटी बेटो आदिके देने लेनेका व्यवहार कर लेते हैं। इस प्रकार यह तारण स्वामोके मतको तारणपंथको उत्पत्ति एक समैयाके मखसे सुनकर लिखी है । सो समझ लेनी चाहिये। पहले जो अर्द्धफास्कीका श्वेताम्बर मत लिख आये हैं उसमें भी कितनी हो विपरीत बातें उत्पन्न हुई। उमको जाननेके लिये थोडीसी यहाँपर भी लिखते हैं। श्रीमहावीर स्वामीके मोक्ष मये बाव धीमहि त्वामी, सुबमावा और अंजूस्यामी में तीन तो केवली हुए। ये तीनों केवलो बासठ वर्षमें हुए। तबनंतर सौ वर्षमें विष्णुकुमार, नदिमित्र, अपराजित, गोबर्द्धन और भाबाहु ये पांच द्वादशांगके धारक श्रुतकेवलो हुए। यहांतक भगवानके मोक्ष जानेके बाद एकसौ बासठ वर्ष व्यसोत हुए थे। इनमें से पांचवें श्रुतकेवलो भद्रबाहुके समयमें उज्जयिनो नगरीमें राजा चन्द्रगुप्त राज्य करता था। उसने रात्रिमें कल्पवृक्षको शाखाका भंग होना आदि महा अशुभको सूचना देनेवाले सोलह स्वप्न देखे। प्रातःकाल उनके फल सुननेको इच्छासे कुछ चितवन करता हुआ बैठा ही था कि इतनेमें ही किसीने आकर भद्रबाहके आनेको बधाई दी। मुनिराजको आये हुए जामकर राजाको बहुत ही हर्ष हआ। उसने मुनिराजके। समीप जाकर उनके दर्शन किये, वंदना की, पूजा को और धर्मवृद्धि ग्रहणकर लेनेके बाद उसने रातमें देखे हर सोलह स्वप्नोंका फल पूछा। भद्रबाइने भी राजाके सामने उनके होनहार फल कहे । भद्रबाहने यह भी समझ । लिया कि यहाँपर बारह वर्षका महा दुर्भिक्ष पड़ेगा। उनके साथ चौबीस हजार साधुओंका संघ था उन सबसे । भद्रबाहुने ये समाचार कहे । तथा कहा कि यहां संयम पलना कठिन है इसलिये संयमको रक्षाके लिये अन्य वेशमें चलना चाहिये । आचार्यको यह बात सुनकर बारह हजार मुनि तो उनके साथ हो लिये और बाकोके बारह हजार मुनि सेठ कुवेरमित्र, जिनदास, माधवक्स और बंधुमित्र आदि सेठोंके आग्रहसे वहींपर रह गये। । दुष्कालके पड़ते हो वहाँपर बहुतसे लोग बाहरसे आ गये जिससे ऊपर लिखे सेठोंके घरका सब अन्न निबट गया। aitadosantarvasawitattoTERSATIODES [ ४४१ A Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [ ४८२ ] ज्यों-ज्यों दुष्काल भीषण होता गया त्यों-त्यों कंगाल और दरिद्रोंकी तथा मांगनेवालोंको संख्या बढ़ती । गई। उनके कारण मुनियोंके आहारमें भी विघ्न होने लगा। किसो एक दिन रामलाचार्य आदि कितने ही साधु आहार लेकर वनमें जा रहे थे परन्तु मार्गमें उन मांगनेवाले कंगलोंने किसी मुनिका पेट फाड़ डाला और उनके पेटमेंसे खाया हुआ अन्त निकाल कर भक्षण कर गया। इस बातको सुनकर सब शहरमें हाहाकार मच गया। तब कुबेरमित्र आदि सेठोंने उन मुनियोंसे प्रार्थना को कि महाराज आप धनमें रहना छोड़ दीजिये और नगरमे । रहिये । तब वे मुनि नगरमें आ गये और अलग-अलग उपाश्रयों में रहने लगे। इतना सब करनेपर भी भोजनके समय मार्गमें कंगलोंके द्वारा अंतराय होना बंद नहीं हुआ। तब श्रावकोंके हटसे उन मुनियोंने विनमें आहारके लिये जाना छोड़ दिया और रातमें तुम्बीफलके पात्रमें (सफी तूंवड़ोमे ) आहार लाकर विनमें खाने लगे। किसी एक दिन एक नग्न मुनि रातमें आहार लेने के लिये एक यशोभद्र नामके सेठके घर गये, उस हासेठको धनश्री नामकी सेठानी गर्भवती थो सो हाथमें वंउपात्र लिये नग्न और दुर्बल मुनिको देखकर तथा उन्हें राक्षस समानकर वह डर गई और दाते ही उसका गर्भपात हो गया। वे मुनि तो वापिस चले गये परन्तु उस समय उन सब लोगोंने विचार कर उन भ्रष्ट यत्तियों से कहा कि "इस समय यह नग्न भेष पल नहीं सकता। इसलिये एक खंड वस्त्रकी धोती पहिनो और मस्तकपर एक केवलका अर्द्धफाल्क (कंधलका आधा टुकड़ा ) र रक्खो। फिर रातको भोजन लाकर उपाश्रयम रख लो और दिनमें खा लो।" इस प्रकार उन मुनियों से निवेदन फिया । वे मुनि भ्रष्ट तो थे ही उन्होंने इन श्रावकोंकी सब बातें स्वीकार कर ली। इसके बाद उन श्रावकोंने ! उन मुनियोंसे यह भी कहा कि आप लोग इन कंगालोंको दुर्गन्ध रोकने के लिये हाथमें एक वस्त्र रक्खो। दुर्गन्ध । आनेपर उससे मुंह नाक बंद कर लिया करो । सो भी उन्होंने स्वीकार कर लिया। इस प्रकार अर्बफाल्कोंको उत्पत्ति हुई है। राजा चन्द्रगुप्तने उन सोलह स्वप्नोंका फल सुनकर वीक्षा धारण कर ली थी और मुनिराज भद्रबाहु aPATHANDARISHAamsanel r Saha १. इसके बाद कितना ही काल बीत जाने पर कितने ही श्वेताम्बर साधुओंने हाथ में वस्त्र लेने के बदले उसमें डोरा लगाकर मुंहसे बांध लिया जिससे वे महन्ट्रोवाले कहलाये। यदि कोई उनसे इसका कारण पूछता है तो कहते हैं कि बायु कायके जीवोंकी रक्षाके लिये यह पट्टी बांधी गई है। Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर - ४८३ ] के साथ दक्षिण देशको चला गया था। बारह वर्षका दुष्काल बीत जानेपर जब सब मुनि उज्जयिनी नगरीकी ओर चलने लगे तब भद्रबाहु स्वामी अपनी आयु निकट जानकर चन्द्रगुप्त के साथ वहीं रह गये । आयु पूर्ण होनेपर भद्रबाहु मुनि तो समाधिमरण धारणकर स्वर्ग पधारे और मुनिराज चन्द्रगुप्त यहीं रह गये। शेष बारह हजार मुनि धीरे-धीरे बिहार करते हुए उज्जयिनी नगरीमें आ पहुँचे । उन मुनियोंको आया जानकर ने पहलेके रहे हुए भ्रष्ट मुनि भी उनकी वंदना करनेके लिये आये परन्तु इन मुनियोंने उनको तपसे भ्रष्ट देखकर प्रतिवदना नहीं की । तथा उनको छेदोपस्थापना आदि प्रायश्चित्त लेनेके लिये उपदेश दिया । सो कितने ही साधु तो उन मुनिके उपदेशके अनुसार प्रायश्चित्त लेकर यथार्थ मुनि हो गये परन्तु रामल्याचार्य आदि मुनि वैसेके वैसे ही भ्रष्ट बने रहे। उन्हीं भ्रष्टोंमें एक स्थूल भद्राचार्य थे उन्होंने उन सब भ्रष्ट मुनियोंसे फिरसे दीक्षा धारण करनेके लिये कहा। तब सब भ्रष्ट मुनियोंने उस स्थूलभद्राचार्यको मारकर उसके मृतक शरीरको किसी एक गड्ढे में छिपाकर डाल दिया । वे स्थूलभद्राचार्य आर्त्तध्यानसे मरे थे, इसलिये मरकर व्यंतर देव हुए। उस व्यंतर देव ने विभंगावधिसे अपने पहले भवको सब बात जान ली और फिर उसने उन भ्रष्ट मुनियोंपर अनेक उपद्रव किये। तब उन सब भ्रष्ट मुनियों उस जोड़े जनस्कार किया और उसकी हड्डियाँ लाकर उनकी पूजा की तब कहीं जाकर उनको शांति मिली। तबसे ही ये लोग खम्मणहडी नाम रखकर फाटकी पट्टीको ( तखतीको ) अबतक पूजते हैं इसके सिवाय इन्होंने अनेक शास्त्र बनाये और आचारांग सूत्र आदि नाम रखकर उनमें बहुतसे शिथिलाचारोंका निरूपण किया तथा बहुतसी विपरीत बातोंका निरूपण किया और बहुतसी बातें दिगम्बराम्नायसे विरुद्ध लिखीं। इस प्रकार अर्द्धफाल्ककी प्रवृत्ति हुई । इसके कितने ही वर्ष बाद उज्जयिनी नगरीमें एक चन्द्रकोति नामका राजा हुआ । उसके चन्द्रलेखा नामकी पुत्री हुई थी। वह चन्द्रलेखा अर्द्धफाल्की गुरुओंके समीप पढ़ने लगी। वह क्रमसे यौवन अवस्थाको प्राप्त हुई और सोरठ देशके बलभीपुर नगरके राजा प्रजापालके पुत्र लोकपालको परणाई । किसी एक दिन उस चन्द्रलेखाने अपने पति से कहा कि हे स्वामिन् | मेरे गुरु कान्यकुब्ज देशमें हैं सो बहाँसे बुलाओ। राजाने उसके आग्रह से उनको बुलाया । वे चन्द्रलेखा के गुरु राजाके बुलानेसे आये । राजा लेनेके लिये उनके सामने गया परन्तु उनको भ्रष्टलिंग देखकर रानी चन्द्रलेखा से कहा कि तुम्हारे गुरु गुरु नहीं हैं। ये निग्रंथ नहीं हैं सग्रन्य हैं सो हमारे वंदना करने योग्य नहीं हैं। इनका भेष निवनीय भेष है तब रानी चन्द्रलेखाने अपने गुरुके पास [ ४८३ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर [ YEY ] 10 जाकर कहा कि महाराज इस मलिन भेषको हंसी हमारे सामने हुई है । इसलिये इस भेषको तो छोड़ो और ये सफेद वस्त्र धारण करो तबै उन सब भ्रष्ट मुनियोंने सफेद वस्त्र धारण कर लिये । तदनंतर ये राजा रानी उनको उत्सवके साथ अपने नगरमें लाये और उन्होंने बड़ी भक्ति की । तबसे यह अफाल्कों का मत श्वेत वस्त्र धारण करने से श्वेतांबर कहलाया। इस प्रकार राजा विक्रमके मरनेके एक सौ छत्तीस वर्ष बाद श्वेताम्बर मत प्रगट हुआ । सो ही भद्रबाहुचरित्र में लिखा है- मृते विक्रमभूपाले पत्रिंशदधिके शते । गताब्दानामभूल्लोके मतं श्वेताम्बराभिधम् । इन्हीं श्वेताम्बरियोंमें एक जिनचन्द्र नामका श्वेताम्बर हुआ है। उसने सूत्रोंमें अनेक प्रकारको विपरीत रचना की है। उसने उन सूत्रोंका नाम आचारांग सूत्र आदि नाम रक्खा है और उनमें मूलसंघसे अत्यन्त विरुद्ध कथन किया है। उन विरुद्ध बातोंमेंसे कुछके नाम यहाँ लिखते हैं । १. केवलज्ञानीके कबलाहारका सद्भाव मानना । २. केवलज्ञानीके रोगोंको उत्पत्ति मानना । ३. केवलज्ञानीके मलमूत्रका नीहार मानना । ४. केवलियोंके परस्पर नमस्कार करनेका व्यवहार मानना । ५. केवलज्ञानोके उपसर्गका सद्भाव मानना । ६. जिनबिम्बोंके आभूषणोंका सद्भाव मानना । ७. तीर्थकुरोका पाठशालामें पढ़ना । ८. केवलकी पहिलो वाणीका व्यर्थ जाता । ९. श्रीवर्द्धमान स्वामीका बेवनन्दा ब्राह्मणीके गर्भमें तिरासी विनतक रहना और इन्द्र के द्वारा उस गर्भको वहाँसे उठाकर त्रिशला नामकी क्षत्राणीके गर्भ में रखना । इस प्रकार श्रीमहावीर स्वामीका गर्भापहरण करना । १०. श्री ऋषभदेव तीर्थङ्कर और उनकी रानी सुनंदाको घुगलिया मानना अर्थात् श्रीऋऋषभदेवने अपनी सगी बहन के साथ विवाह किया मानना । [NG Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्यासागर EिPANJASTHAN ११. केवलोको छींकका सभाष मानना। १२. सुनन्दा ब्राह्मणो मिथ्यादृष्टिनी और असंयमी थी तो भी उसका सत्कार करनेके लिए भगवान महावीर स्वामीकी आज्ञासे गौतम स्वामीका उसके सामने जाना। १३. स्त्रियोंके महानतका सद्भाव मानना । १४. स्त्रियोंके केवलज्ञानकी उत्पत्ति मानना । १५. स्त्रियोंको मोक्षको प्राप्ति होना मानना । १६. दीक्षा लेनेके बाद तोपतरोंको इन्द्र श्वेत वस्त्र देता है सो साधु अवस्थामें तीर्थङ्कर उन्हीं इन्द्रके दिए हुए सफेद वस्त्रोंको पहिनते हैं । दोक्षा लेनेके बाद भी तीर्थकर नग्न नहीं रहते ऐसा मानना। १७. जिनप्रतिमाके लंगोट और करधनीका चिह्न मानना। १८. मल्लिनाथ तीर्थङ्करको स्त्री मानना अर्थात् उनको पुरुष न मानकर मल्लियाई कहना। १९. देवता लोग युगलियोंका छोटा शरीर बनाकर उनको भरत क्षेत्रमें लाये थे उनसे हरिवंशको उत्पत्ति मानना। २०. श्रीमहावीर तपश्चरण कर रहे थे उस समय किसी मवालियेने आकर उनके कानमें लोहेके कीले ठोंक दिये तब महावीर स्वामीने पुकार को और पुकारनेके लिए पर्वत पर चढ़े ऐसा मानना।। २१. साधु लोग दण्ड, पात्र, ओंधा, पुंजणी, बड़ो पोती, कवल, मुहपट्टी आदि चौदह उपकरण रखते । हैं, ये धमके सापन है, इनके रखने में दोष नहीं है ऐसा मानना। २२. श्रीमुनिसुव्रतनाथके एक घोड़ा मणधर हुआ था ऐसा मानना। २३. साधु लोग श्रावकोंके घरसे अपने पात्र में आहार, पानी लाकर अपने उपाश्रयमें खा लेधै तो कोई दोष नहीं है ऐसा निरूपण करना । २४. यदि आहार बाकी बच जाय तो तेला आदि अधिक उपवास करनेवाले साधुओंको उपवासमें ही खिला देनेको निर्दोष मामना । २५. यवि गर्म जलके मिलने की विधिन बने तो अपने पेशाब पीनेको भी निर्दोष मानना। Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धासागर ४८६ र APAIPAHammer T न्यामकबरामरामबरन्ड २६. निन्वक जीवोंके मारनेमें पाप न गिनना। २७. युगलियोंको नरकगति होना । २८. भरतने अपनी बहिन ब्राह्मोसे विवाह करनेका विचार किया था ऐसा मानना । २९. वीक्षा लिए बिना ही अर्थात् महावत धारण किये बिना ही भरत चक्रवर्तीको केवल भावनाओंके बलसे आरोसा भवन में हो केवलज्ञानको उत्पत्ति मानना । ३०. शिष्य झालको समझानेके लिए श्रीमहावीर स्वामीका कुम्हारके बाड़े समवशरण सहित रहना मानना । ३१. अर्जुनको स्त्री द्रोपदोफो सोलहसे तीनमें सती कहना और उसको पांचों भाइयोंकी स्त्री मानना ।। ३२. एक बूढ़ा गुरु किसी कुंवारे ( अविवाहित ) शिष्यके कन्धे पर बैठा किसी मार्गमें जा रहा था। गुरुने देखा कि वह शिष्य ईसमितिसे गमन नहीं कर रहा है। इसलिए उस गुरुने उस शिष्यके शिरमें ओघेके बण्डको मार लगाई परन्तु उस शिष्यने क्षमा धारण करते हुए यह मार सह लो ।। इसीसे उस शिष्यको उसी समय केवलज्ञान उत्पन्न हो गया और गुरु कन्धे पर बैठा ही रहा। केवलज्ञान होने पर गुरूने पूछा कि क्या तो केवलज्ञान उत्पन्न हो गया है इससे मालूम होता है तू ईर्यासमिति सहित चलता है। तब शिष्यने कहा महाराज आपके प्रसादसे ही केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है । इतने कह-सुन लेने पर उस गुरुने उस केवलज्ञानी शिष्यका शिर कूटना बन्द किया और फिर वह उसके कन्धेसे नोचा उतरा। इस प्रकार मानना। ३३. श्रीमहाबोर स्वामीने अपना विवाह किया था, उनके पुत्री हुई थी और उसका विवाह जयमिली। नामको जातिके मालीके साथ किया मानना । ३४. कमिल नारायणको केवलज्ञान उत्पन्न हुआ मानना और उसी अवस्था में उसका नृत्य करना मानना। ३५. वसुदेयके बहत्तर हजार रानियों का मानना । ३६. साधु, शूद्रके घरसे आहार, पानी लाकर खा लेवे तो उसमें कोई दोष न मानना। यदि कोई मांस भी दे देवे तो उसको रक्खे नहीं केवल प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध हो जाय ऐसा मानना । RASTURADEEPASHRAZMAI Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बासागर ४८७] ३७. देवोंका मनुष्य स्त्रियोंसे भी भोग करना मानना और उनसे पुत्रादिककी उत्पत्ति मानना। एक सुलसा नामको श्राविकासे किसी देवने भोग किया था और उससे उसके पुत्र उत्पन्न हुआ ऐसा मानना। ३८. चक्रवतियोंके छयानबे हजार स्त्रियों का नियम न मानना । ३९. बाहबलिके शरीरको ऊँचाई सवा पांचसौ धनुष न मानकर केवल पाँचसौ धनुषको मानना। ४०. श्रीमहावीर स्वामीफा म्लेच्छखण्डोंमें भी विहार करना मानना । ४१. चौथे कालमें साधु लोग असंयमियों की पूजा करते थे ऐसा मानना । ४२. देवोंका एक कोश मनुष्योंके चार कोशके बराबर है ऐसा मानना । ४३. तीर्थकर केवली भगवान समवशरणमें वस्त्र सहित दिखाई पड़ते हैं नग्न नहीं ऐसा मानना । ४४. साधुओंको हाथमें दण्डका रखना । ४५. श्रीवृषभदेवकी माता मरुदेवो मिथ्यावृष्टिना श्रो। जब श्रीवृषभदेवने धोक्षा ली थी तब वह उनके वियोगसे बहुत रोयी थी और रोते-रोते अन्धी हो गई थी परन्तु पीछे समवशरणको देखकर सूझती हो गई थी ऐसा मानना । ४६. भादेवको हाथो पर बैठे-ही-बैठे फेवलज्ञानका होना । ४७. चांडालादिक नीच कुलों में उत्पन्न होनेवालोंको भी पांच महावतोंका धारण करना मानना । ४८. केसोकुमार जातिके भंगोको भो केवलज्ञान और मोक्षका होना मानना । ४९. श्रीमहावीर स्वामीके समवशरण में चंद्र, सूर्यदेवोंका मूल शरीर सहित धंदना करनेके लिए आना। ५०. पहले स्वर्गका इन्द्र दूसरे स्वर्गमें जाकर इन्द्र होवे और दूसरे स्वर्गका इन्द्र पहले स्वर्गमें आकर इन्द्र होवे ऐसा मानना। ५१. युगलियोंका शरीर मरने के बाद कपूरके समान खिरता नहीं, पड़ा रहता है ऐसा मानना । ५२. तोर्थङ्कराविक केवलज्ञानियों के निर्वाग गरे बाद उनके शरीरका पड़ा रहना कपूरके समान उड़ना न मानना । ५३. यदि किसी यतिका मन स्त्रीसेवन के लिए चलायमान हो जाय तो श्रावकोंको उसे स्त्रो देकर उसका मन स्थिर रखनेमे कोई पाप नहीं है ऐसा मानना । बामगरलचEERINTERY [ ४८७ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यासागर ४८८] ५४. तीर्थरोंका स्वरूप अठारह दोष सहित प्ररूपण करना । ५५. केवलज्ञानीके मूल शरीरसे पांच प्रकारके स्थावर जीवोंके धाप्तका सद्भाव मानना । ५६. भगवानके गर्भ में आनेके समय माताका चौवह स्वप्नोंका देखना । सोलह स्वप्न न मानना । ५७. स्वाँकी संख्या सोलहके बदले बारह मानना। ५८. गंगादेवीके साथ पचास हजार वर्षतक किसी गलियाने भोग किया मानना । ५९. प्रलयकालमें देवता बहत्तर स्त्री, पुरुषोंके जोड़ोंको उठा ले जाते हैं। ६०. चर्मके पात्रमें रक्खे हुए घी, तेल, हींग, जल आदिके खाने-पीनेमें कोई दोष नहीं मानना। ६१. बासे भोजनके भक्षण करने में दोष न मानना, पक्वान्नको निर्दोष मानना। ६२. महावीर स्वामोके दीक्षा लेने के पहले ही उनके माता-पिताकी मृत्यु मानना । ६३. बाहुबलिको मुगलोंका रूपवान कहना तथा बाहुबलिने ही मुसलमान बनाये मानना । ६४. पूरे फलको खानेमें कोई बोल मानना । ६५. युगलिया भो परस्पर ईष्या करके युद्ध करते हैं ऐसा मानना । ६६. शास्त्रोंको अचेतन मानकर उनकी विनय न करना । ६७. तिरेसठ शलाका पुरुषोंके नोहारका सद्भाव मानना । ६८. इन्द्रोंको संख्या सौ न मानकर चौसठ मानना । ६९. यदुर्यशियोंको मांसाहारी मानना । ७०. मानुषोत्तर पर्वतके बाहर तेरह द्वीप तक ऋद्धिधारी साधुओंका तथा विद्याधर आदि मनुष्योंका गमन मानना । ७१. कामवेयोंको संख्या चौबीस न मानकर होनाधिक मानना। ७२. तीर्थस्थरोंके मोक्ष होनेके बाद देवता उनके मुख मेंसे दाढ़ निकाल कर ले जाते हैं और स्वर्गमें उसको ! [ve पूजा करते हैं ऐसा मानना । ७३. नव प्रवेयकके देवोंका नव अनुदिश तक गमन करना मानना । ७४. नाभिराय और मरुदेवीको युगलिया मानना। Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर [ ४ ] ७५. किसी एक शिष्यने छमछरोका ( वार्षिक प्रतिक्रमणके दिन } उपवास नहीं किया था उसने आहार लाकर गुरुको दिखाकर खानेको आज्ञा माँगी थी सो गुरुने उसकी निन्दाकर उसके भोजनके पात्रमें थूक दिया था परन्तु उस शिष्यने उससे घृणा न की उस जुगुप्साको जीत लिया और गुरुके थूक सहित उस उच्छिष्ट भोजनको खा गया इसी कारण उसको केवलज्ञान उत्पन्न हो गया ऐसा मानना । ७६. गृहस्थोंको कुदेवोंकी उपासना में दोष न मानना । ७७. कुदेवोंकी पूजासे भी सम्यक्त्वका घात न मानना । ७८. कुठेयोंकी पूजा करना गृहस्थोंका कार्य मानना । ७९. बोलते समय मुखके ऊपर वस्त्रको पट्टी बांधकर बोलना चाहिये उघाड़े मुखसे नहीं बोलना चाहिये ऐसा मानना । ८०. जहाँ चित्रामको लिखो हुई स्त्रियों हों वहाँ पर साधु न रहें परन्तु व्याख्यानमें सैकड़ों स्त्रियों के पास रहते हुए भी दोष न मानना । ८१. बाहुबलि साधु अपने अभिमान के कारण पृथ्वीको भरतको पृथिवी जानकर एक अँगूठेके सहारे खड़े रहे । इसलिए उनको ध्यानकी प्राप्ति नहीं हुई ऐसा मानना । ८२. बाहुबलिके चारों ओर केवलज्ञान फिरते रहा उत्पन्न नहीं हुआ । तब ऋॠषभवेनके वचनसे भरतने आह्मीसे कहा कि तू अपने भाईको समझा जिससे वह मानरूपी हाथीसे उतरे । तब ब्राह्मीने जाकर समझाया तब वह चारों ओर फिरनेवाला केवलज्ञान बाहुबलीको प्रगट हुआ । ८३. श्रीमहावीर स्वामी के समवशरण में किसी गोशालामें जन्म लेनेवाला कोतका पुत्र गोशाला आया था उसने आकर भगवानको गालियाँ बीं, बहुतसे निन्दनीय वचन कहे 'रे', 'तू' आदि बुरे शब्द कहकर उसके ऊपर तेजोलेश्या चलाई । जिसको लोकमें मूठ कहते हैं। उस मूठसे वे भगवान मरे नहीं क्योंकि उनका बहुत बड़ा अतिशय था परन्तु रक्तातिसार नामकी व्याधि ( खूनके दस्त ) हो गई ऐसा मानना । ८४. जिस समय गोशालाने तेजो लेश्या चलाई थी उस समय समवशरणमें दो साधु भगवानका यह ६२ [ ४ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर [१०] अपमान देख नहीं सके थे और वे दोनों क्रोधित होकर उस गोशालासे लड़ने लगे। परन्तु उस4 गोशालाने अपनी तेजो लेवघासे अर्यात अग्निको ज्वाला रूप मंत्रसे उन दोनों साधुओंको भी जला दिया जिससे वे गोगो मार मया । ऐसा मानना । इस प्रकार कितनी ही विपरीत बातें चलायीं जिनप्रतिमाके नेत्रों के ऊपर और नेत्र लगाना, उनके मुखको सिन्दरफसे रंगना, नौ अंगोंको चन्वनादिकसे पूजना आदि कितनी ही विपरीत बातें स्थापन को जिनका विशेष वर्णन अन्य ग्रन्थों में लिखा है । इस प्रकार श्वेताम्बरोंका स्वरूप बतलाया। इसी श्वेताम्बर मतमेंसे कितने ही कालके बाद पहले लिखा हुआ यापनीय संघ उत्पन्न हुआ। उसका थोड़ा-सा वर्णन इस प्रकार है । श्वेताम्बरोंका भक्त एक लोकपाल राजा था। उसके चित्रलेखा नामको रानी यो । उसके एक नुकुला नामकी पुत्री हुई थी। वह करहाट नगरके राजा भूपालको ब्याही गई थी। वहाँ जाकर । किसी एक दिन उस रानोने अपने गुरु बुलाये । राजा उनको लेनेके लिए सामने गया परन्तु उस श्वेताम्बरीको । देखकर अर्थात् गुरुको निम्रन्य न देखकर राजा पोछे लौट आया। तब रानी बहुत लज्जित हुई और उसने अपने गुरुके पास जाकर प्रार्थना की कि माप मेरे आग्रहसे फिर एक बार निर्ग्रन्थ हो जाइए। वस्त्रोंका त्याग कर बीजिये। तब रानीके आग्रहसे वे नग्न तो हो गये परन्तु उनका आचरण शिथिल हो रहा । इस प्रकार आयाल । संघ उत्पन्न हुआ । उसके गुरुओंका रूप तो नग्न था परन्तु क्रिया आचरण सब श्वेताम्बरोंके थे। इस प्रकार उसने नटका-सा स्वांग बनाकर नया मत चलाया । तदनन्तर उनमें भी परस्पर क्रोध, मान आदि कषायें बढ़ने लगों और उनमें भी विजय तपा खरतरा पुन्या आदि चौरासो गच्छ उत्पन्न हो गये। इसके भी कुछ दिन पीछे इस श्वेताम्बर मतसे राग-द्वेष कर मान कषायके आवेशसे इन्हीं श्वेताम्बरोंका विरोधी लोकागच्छ नामका मत प्रगट हुआ । आगे उसीका थोड़ा-सा स्वरूप लिखते हैं। महाराज विक्रमके मरनेके पन्द्रहसौ सत्ताईस वर्ष बाद गुजरात देशके अणहल्ल नगरमें प्राग्वाट कुलका एक लंका नामका ओसवाल वैश्य हुआ था। उसने यतियोंसे उनके सूत्र पढ़े और फिर अपने नामका एक गच्छ। स्यापन किया । उसोने यह लुका नाममा धर्म चलाया। सीव मिथ्यात्वके उदयसे उसने श्रीजिनप्रतिमाकी पूजा करनेका भी निषेध किया तथा जिनपूजा, तीर्थयात्रा, पात्रदान, जिनमन्दिर प्रतिष्ठा आदि धर्म कार्योंमें हिंसा PATREasaram A Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और आरम्भ बतलाकर इन सब कार्योंका निषेध किया, इन सब कार्योंको उसने पापरूप बतलाया और सबका निषेध करता हुआ जैनधर्मका शत्रु बन गया। इस प्रकार उसने अपना विपरीत मिथ्यात्व धर्म चलाया। सो चर्चासागर ही भद्रबाहु चारित्रमें लिखा है१. मृते विक्रमभूपाले सप्तविंशतिसंयुते । दशपंचशतऽब्दानामतीते शृणुता परम् ॥ १ ॥ लुङ्कामतमभूदेकं लोपकं धर्मकर्मणः । देशेऽत्र गौर्जरख्याते विद्वत्ताजिननिर्जरे ।। २ ।। अणहल्लपत्तने रम्ये प्राग्वाटकुलजो भवेत् । लुकाभिधो महामानी श्वेतांशुकमताश्रयी ॥३॥ अन्योन्यमीय॑या दुष्टः कुपितः पापपण्डितः। तीव्रमिथ्यात्वपाकेन लुकामतमकल्पयत् ॥४॥ सुरेन्द्रार्चिज्जिनेन्द्रार्चा तत् पूजादानमुत्तमम्। समुत्थापितवान् पापी प्रतीपो जिनसूत्रतः॥ इस प्रकार लुगाम्मा गर हुआ। सवनन्तर इस लुकामतके दो गच्छ हुए । एक तो जिनप्रतिमा, मन्दिर, पूजा, प्रतिष्ठा आदि करनेका श्रद्धान करते हुए उपाश्रयमें रहने लगे और दूसरे ज्योंके त्यों बने रहे। तवनन्तर ऊपर कहे हुए जिन प्रतिमाको उठानेवाले लुकामतके साधुओंसे ढूंढ़िया मत प्रगट हुआ। उसने श्वेताम्बरोंसे भी विरुद्ध कथन निरूपण किया। तथा जिनप्रतिमाको निन्दाकर उसके दर्शन, पूजन, वन्दना आदि करनेका निषेध किया और लोगोंको अपना मिथ्यात्व धर्म हो सम्चा धर्म बतलाया। अनेक प्रकारके भ्रष्टाचरणोंका निरूपण किया। आगे इसीकी उत्पत्ति बतलाते हैं किसी एक समय मेवाड़ देशके भीला शहरमें लुकामतके यति माणिक ऋषिने चतुर्मास किया। उसके व्याख्यानमें प्रतिदिन सब श्रावक आते थे। वहांपर वहींका रहनेवाला एक ढेड भी आता था उसने अपनी जाति हंजा जाति बतलाई तथा राम-राम जपता हआ वह प्रतिदिन पुराण सुनने आया करता था दैवयोगसे । उसको कुछ ज्ञान प्राप्त हो गया । अतएव माणिकऋषिने उससे जीवोंको हिंसाका त्याग करा दिया। तदनन्तर वहाँपर वर्षा हुई। किसान लोग सब अपने-अपने हल, बैल और मजदूर लेकर खेत जोतने चले उस समय यह हंजा भी अपनो स्त्री और पुत्रके कहनेसे हल लेकर खेतकी ओर गया। वहाँ उसने बहुतसे गिडोरे देखे सो उन Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [ ४२ ] == = = TJM_______ 23. पर क्या धारण करता हुआ यह पीछे लौट आया। उसको लौटकर आते हुए देखकर पुत्रने पूछा कि आप पीछे क्यों आये । स्त्रीने कहा कि लाजका मुहूर्त ऐसा है जो आजका बोया धान्य बारह महीने तक निबट नहीं सकता। आज तू लौट क्यों आया। इन सबको हंजेने उत्तर दिया कि में इस संसारमें बाइसे जोवनके लिए ऐसा हिंसारूप पाप नहीं करता। यह सुनकर स्त्री, पुत्रने क्रोधकर उसको घरसे बाहर निकाल दिया। तब वह हंजा बनकर माणिक ऋषिके समीप आया और यति बनने की वीक्षा माँगने लगा | माणिक ऋषिने कहा तू जातिका टेड है इसलिए तुझे दीक्षा लेनेका अधिकार नहीं है । सब हंजेने कहा - "यह पुद्गल हो शूद्र है जोब तो शूद्र नहीं है ।" इस प्रकार अद्वैत ब्रह्मज्ञानका निरूपणकर ऋषिसे दीक्षा ले ली। ये माणिक ऋषि चतुर्मास तक तो वहाँ रहे फिर वहाँसे बाहर चले गये । किसी एक दिन माणिक गुरु किसी श्रावकके घरसे कसारके लाडू लाये थे सो उनका बाँट कर हंजाको दूरसे हाथ बढ़ाकर बिना उसको छुए दिया और उसे दूर बिठा दिया तब हंजेने कहा कि पहले तो भोजन में इतना जुखापन नहीं था अब इतना जुदापन क्यों दिखलाते हो इसपर दोनों में विवाद हो गया और माणिक ऋषिने उस इंजेको अपने यहांसे निकाल दिया । तब हंजेने सोचा कि अब क्या करना चाहिये अब तो दूसरा नया त स्थापन करना चाहिये। ऐसा विचारकर अहमदाबाद आया वहाँ पर एक हंजा नामके पोरकी कुछ चमत्कार दिखानेवाली कबर थी । वहाँपर जाकर वह सात दिन तक भूखा रहा तब वहाँ बालोंने पीर बनकर कहा कि तू गुरुद्रोही है इसलिए हमारी दरगासे चला जा तेरा मुँह देखने योग्य नहीं है। तब हंजेने उसकी बड़ी स्तुति की उसको प्रसन्न किया। सब पीरने कहा - " यदि तू मेरा नाम चलायेगा जैसा मैं हूँ उसी प्रागंले चलेगा तो तेरा मत चलेगा। तू सब ओरसे मलिन रहना, मुँहपट्टी सदा रखना, शूद्र आदि सबके घरको भिक्षा लेना, बर्तन धोनेका वा और भी ऐसा ही उच्छिष्ट पानी पीना इस प्रकारको मलिनता रखना। यदि कोई तुझे वन्दना करे तो बबलेंमें धर्मलाभ नहीं कहना किन्तु हांजी कहकर मेरा नाम लेना ऐसा तू कर तब उस इंजेने सब स्वीकार किया । इस प्रकार सम्वत् पन्द्रहसौ पिचासीके भादोंसुदो अष्टमी रविवारके दिन ऊपर लिखे हुए कामतसे उस हंजा नामके ढेडने यह दूँ दियाओं का मत चलाया और नाहंजा पीरको सहायताले चलाया है । कालांतर में उसमें बाईस यति और आकर मिल गये। उनके नाम ये हैं- संघनाथ १, भीष्म २, Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चासागर [४९३] चाहानाब जयमल्ल ३, पैमा ४, जगरूप ५, कान्हा ६, सांवला ७, मनरूप ८, रतना ९, नायू १०, माणी ११, चौथ २. भारमल्ल १३. केशों १४, रामचन्द्र १५. लच्छो १६ गमाना १७ टीकम १८ जसरूप १९, । वित्रा २०. माना २१. पानाचन्द २२ इस प्रकार होनकली बाईस यति और मिल गये। इसीलिये ये सब बाईस Hोलाके साधु कहलाते हैं। इन्होंने अनेक प्रकारको विपरीत बातें निरूपण की हैं ये सब सम्यग्जानियोंको श्रद्धान। । ज्ञान, आचरण करनेके सर्वथा अयोग्य हैं । यह कथन हमने मरुस्थलके ( मारवाड़के ) कुचेरा गांवके रहनेवाले खरतरगच्छ को बड़ो शाखाके गच्छके ज्ञानकोतिनामके यतिके शिष्य हेमकीतिकृत 'हेम विलास' नामको भाषा । छन्दको ढालसे लिखा है। इसका विस्तार जानना हो तो वहाँसे जानना । तदनन्तर सम्वत अठारहसौ तेईसकी सालमें ऊपर लिखे हुए दिया मतमें एक रघुनाथ नामके साधुका शिष्य भीष्म नामका टूढ़िया साधु था। उसने किसी एक समय मारवाडके बगड़ी गांव में चौमासा किया। वहाँपर उसने अपने गुरुसे ईर्ष्या को, गुरुकी आज्ञाका लोप किया उससे जुदा हो गया और उसने अपने नामका जुदा ही पंथ चलाया। उसने उस अपने नये पंयमें जैनधर्मसे तथा दिया मतमें भी बहुत-सी विरुद्ध और विपरीत बातें निरूपण की। उसने बतलाया कि कोई मांसभक्षी हिंसक जीव किसी दूसरे जीवको । पकड़कर मारता हो तो उसे छुड़ाना वा बचाना नहीं चाहिये। जो छुड़ाता है वह दूसरेके ( पकड़नेवाले के ) प्राणोंको पीड़ा देता है । इसलिए उसे अठारह पाप लगते हैं। वे कहते हैं कि जो कोई किसी जोवके काम या भोगमें अन्तराय करता है तो उसके अन्तराय कर्मका आलव होता है इसलिए किसीके द्वारा पकड़े हुए जीवको नहीं छुड़ाना चाहिये। इसी प्रकार यदि किसो मांवमें अग्नि लग गई हो वा और कोई घोर उपद्रव आ गया हो और उससे अनेक जीव मरते हों । गाय, भैंस, घोड़ा, बकरे, मनुष्य, पशु-पक्षी आदि जीवोंके समूह मरते । हों तो उनको बचाना नहीं चाहिए का बहानेका कोई उपाय नहीं करना चाहिये। उन्हें मरने देना चाहिये, है | दुःख सहन करने देना चाहिये । क्योंकि उनके कर्मोका ऐसा हो उदय आया है सो अपना फल देकर निर्जरित हो जायगा। इस प्रकार ( मरनेपर ) उन कर्मोको निर्जरा हो जानेपर वे जीव सुलो हो जायेंगे। जो लोग क्या पालन करनेके लिये उन्हें बचाते हैं उन्हें अठारह पाप लगते हैं। इस महाहिंसामयी कथनके साथ-साथ वे । लोग यह भी कहते हैं कि यदि कोई अपने कुटुम्बका हो या कोई साधु हो वा श्रावक हो तो उसे बचा लेना चाहिये । इस प्रकार उसने बहुत-सी निवंय और विपरीत बातें बतलायीं । उसने जिनप्रतिमापूजनका भी निषेष RSAToury Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IR किया और इस प्रकार हलिया मतसे भी अपना भिन्न मत और गच्छ स्थापन किया उनका मत तेरहपंथी साधु कहलाया और उसकी माननेवाले तेरहपंथी साघु कहलाये। उन्होंने अपना नवीन ढाला बनाया है तथा और भी कई प्रकारसे अपना मत पुष्ट किया है सो वह भी सम्परशानियों को श्रद्धान ज्ञान या आचरणके योग्य नहीं है । यह सब विपरीत मिथ्यात्व है । इस प्रकार भीमपंथीको उत्पत्ति बतलाई। प्रश्न--तेरहपंथी तो दिगम्बराम्नायमें होते हैं इन ढूंढ़ियाओंमें तेरहपंथी कैसे ? उत्सर--इनमें भी तेरह साधु मिले थे इसलिए उनको माननेवाले तेरहपंथी साधु कहलाते थे। वह मत भीष्मपंथी ही रहा। प्रश्न-दिगम्बर आम्नायर्मे जो तेरहपंथीकी आम्नाय है सो उसको उत्पत्ति किस प्रकार है तथा उसका श्रद्धान ज्ञान आचरण ठीक है का नहीं ? समाधान-~-एक भाषा छन्दका नाटक संग्रह ग्रंथ है उसमें इसको उत्पत्तिका वर्णन लिखा है। उससे लेकर यहां थोड़ा-सा लिखते हैं । यथा-- छन्द चौपाई भाषा आदिपुरुष यह जिन मति भाष्यो । भवि जीवनि नीके अभिलाष्यो। पहले एक दिगम्बर जानो । तातै श्वेताम्बर निकसानो ।। १६ ॥ तिनमें ईकसि भई अति भारी । सो तो सब जानत नर नारी। ताही माँहि रहसि अब करिके । तेरह पंथ चलायो अडिकें ॥ १७ ।। तब कितेक बोले बुधिमान । उपज्यो पंथ यह केही थान । किहि सम्मत कारण कहु कौन । सो समुझाय कहो तजि मौन ॥ १८ ।। वोहा प्रथम चल्यो मत आगरे श्रावक मिले कितेक।सोलहसै तीयासीये गही कितेक मिलि टेक॥ काह पंडितपै सुने किते अध्यातम ग्रन्थ । श्रावक किरिया छोडिके चलन लगे मुनिपंथ ॥ , Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 फिरि कामामें चलि परयो ताहीके अनुसारि । रीति सनातन छांडिके नई गही अघकारि यासागर १५ .. कितै महाजन आगरै जात करण व्योपार । बनि आये अध्यातमी लखि नूतन आचार ॥ __ सोरठा से मिलिके दिनरात छाने चर्चा करत नित।प्रगट भए जिह भांति जा नगरीसों विधि सुनो। चौपाई जयपुर निकट वसै इक और । सांगानेर आदितें तौर। सर्व सुखी ता नगरी माहि ।श्रावक तिनमें सुवसि बसाहि ॥२७॥ बड़े बड़े चैत्यालय जहां । ब्रह्मचारि इक निवसे, तहां। अमरचंद्र है ताको नाम । शोभित सकल गुणनिको धाम ॥२८॥ ताके डिंग मिलि आवत पंच । कथा सुनत तजिकै परपंच । ।, तिनमें अमरा भवसा जाति। गोदीका यह व्योक कहात ॥ २६ ।। धनको गर्व अधिक तिन धियो। जिनवाणीको अविनय कियो। तब वाको श्रावकनि विचारि । जिनमंदिर” दियो निकारि ॥३०॥ जब उन कीन्हों क्रोध अनन्त । कही चलाऊ नृतन पंथु । तब उनमें अध्यात्म कितेक । मिले भये सब द्वादश एक ।। ३१ ।। उनको कछु इक लालचे देय। अपने मतमें आने लेय। लालच ठानि ठानि मनमांहि । मूढ मिले कछु समझे नाहि ।। ३२ ॥ Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बासागर पूजा पाठ रचै बहु जोर । कही तासमें नूतन ओर । सत्रहसौ तिहोत्तर साल। मत थाप्यो ऐसो अघजाल ॥ ३३ ।। लोगनि मिलिकै मतो उपाय। तेरह पंथ नाम ठहराय । तिनमें नृप मन्त्री मिलि एक । बांधी नये पंथकी टेक ॥ ३४॥ दे दै खिदमत पंथ बधायो । नहिं भायो ताही डरपायो । कछु लालच कछु डरतें साह । भयो गडरियाके परवाह ॥ ३५ ॥ आदि सेति चलि आयो धर्म । मूढ न समझे ताको मर्म। इहि विधि फैल्यो नगरनि माहि। उत्पति कही झूठ कछु नाहि ॥३६ ॥ . .. . दोहा मानत उस ही ग्रंथको अर्थ करत कछ और। धर्म अधर्म गिने नहीं चलत अकलिके जोर ।। इस प्रकार इसको उत्पत्तिका वर्णन किया। आगे इसके श्रद्धान और आचरण कहते हैं । छन्द पद्धरी सिद्धि श्री सांगानेर थान । अनेक वोपरमा जोग जान । भाईजी श्री मुकुन्ददास । फुनि दयाचन्द्र महस्यघमास ॥१॥ छाजू कल्ला सुन्दर सुषह । फुनि लेहि विहारीलाल जेहि । सिन जोग्य सुपत्री जानि लेहु। कामातें सब मिलि लिखत एह ॥२॥ हरिकिसनदास चिंतामणीस। देवी फुनिलाल निशा धणीस । जगन्नाथ केन श्रीशब्द जाति । लिखी सबै साहि मिली हुमानि ॥३॥ ये बात लिखी हम सप्त वीस । सो तुमहू करियो विश्ववीस। ताकी तफसील कहूँ सुनाय । सु अब सुन लीजो चिक्षलाय ॥४॥ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर पहले केसरकी मुबहु बात । आगे जिन चरननिको लगात। सो हम यह मेटि दई सुचाल । तुमह मिलि ऐसे करहु लाल ॥ ५ ॥ फुनि पूजा बैठे करत कोय । सो अब ऊभै ही करहु लोय । चैत्यालयमें रहतो भंडार । सो हु मति राखहु अब लगार ॥ ६ ॥ प्रभुकों जलौट ऊपर धराय। ढालत कलशा विधिवत बनाय। सो विधि तजि अब इमिकरि सुजान।प्रतिमाको राखि विराजमान॥७॥ ज्योंकी त्यों वेदी माहि मीत । प्रभु आगे कलश ढलोत चित्त । मनमें अजहूँ यह रहत नीत । तजि वेगि दीजिये एह रीत ॥८॥ पूजा शांतिक फुनि क्षेत्रपाल। नवग्रह पूजनकी हुती सुचाल । सो हूँ अब तो सब छोडि दीन्ह ।यो कपन योह मख रचि कीन्ह ॥६॥ देवलमें खेलत जुआ लोय । पंखेत लेते पवन कोय । आरीतें मांझ घला घलात । सोह सब तजियो क्षिप्र भ्रात ॥ १०॥ प्रभु माला लेते हरषि गात । देवलमें भोजक आत जात । पुनि पनही देवल माझि मान । एतीनवात त्यागो सुजान ॥ ११ ॥ जपिके अठोतर लवंग आदि । पहुंचारे मधि धरते सुसादि । प्रभुको चढावत हैं भविक लोय।सो हू तजियो साहसी होय ॥ १२ ॥ छन्द चाल जल प्रभु पूजनको ल्यावन । भोजकपै राछ मजावन । ए विधि कर लेहु महाजन । आपसहीमें मिलि साजन ॥ १३ ॥ न्हावण घरघर सू लावें । भोजक सो नाहि सुहावै।। अब एक महाजन जावो। इक ही घर सेती ल्यावो ॥ १४ ॥ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A वर्षासागर PadtATAAAAAAAE-REATER जो होइ कुलिंगी कोई । निरमायल लेवे सोई। तिनको नहिं मानहु भाई। यह नूतन रीत चलाई ॥ १५ ॥ माली बाजे न बजा३। श्रावक ही बजावे गावें। रांध्यो निज नाज चढावो । थालोडी मत करवावो ॥१६॥ ताजी मन कोऊ काहीं। मति करहु दोहरे मांही। सुदि चौदस भादौं आई। वेदी चौगिरद लुगाई ॥ १७ ॥ कूटलका फेरा, लेहै । सोहू न करो भवि जो है। तिस पूजन श्री जिनराई । करते सुन करियो भाई ॥१८॥ रथजात्रा करह न कोई। जीवनिकी घात सु होई। नहि सवत दया अब तातें । यह वरजी ह हम यातें ॥ १६ ॥ सोवत हैं देवल माही। गोली ढालत हैं लुगाई। ग्रह दोऊ बात न कीजो। तजिके जगमें यश लीजो ॥ २० ॥ घर घर प्रतिमा ले जाहीं। रोगी रवि जोगी पाहीं। सोह हम तो अब त्यागी । तुमहूँ तजियो बडभागी ॥२१॥ जो देत आशिषा कोई । सोह त्यागो भवि लोई। निरमाल्य द्रव्य चढ़या सो। मन्त्रनि करके मु पढयोसो॥२२॥ भोजक जे घर ले जावें । सो पुरमें विकन उपावें। ए विधि सब ही गिन लीजो। इनमेंते घाट न कीजो ॥ २३ ॥ फनि और विधि है ये है। पहुंचारो भोजक लेहै । स्वाहाको पढयो जो कोई । निर्मायल विषसम होई ॥ २४ ॥ - - -- - - Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासागर [ १९] ताकों जो कोऊ खाहीं। ते नरक निगोदे जाहीं। ताते यह होम करीजे । तो योग्यकाज यह कीजे ॥ २५ ॥ सोरठा आई सांगानेर पत्री कामातें लिखी। फागुण चौदसि हेर सत्रहसै गुणचास सुदि ॥ २६ ॥ इस प्रकार पात्रोंका वर्णन किया। इसके सिवाय पुष्प न चढ़ाना, दीपक न जलाना आदि और भो मनःकल्पित बहुत-सी विपरीत बातें लिखी हैं। सो मनके बेगका कुछ प्रमाण नहीं है । सब कहाँतक लिखा जाय । इस प्रकार उत्पत्ति तथा श्रद्धान, ज्ञान, आचरण आदिका थोड़ा-सा स्वरूप बतलाया। विशेष नाटक । संप्रहसे जान लेना चाहिये। म उसी समय बागरेमें २० ग्रानतरायजी पं० बनारसीदासजी, पं० रूपचंदमी, पं० चतुर्भुजजी, पं० कुमारपालजी, पं० भगवतीदासजी हुए थे। इन्होंने श्रावक धर्मको गौणता कर दी और अध्यात्मपक्ष मुख्य मान लिया। इन्होंने अपने-अपने नामको प्रगट करने के लिए अपने-अपने नामके भाषा छन्दोबद्ध मन्य बनाये थे मचानसविलास, बनारसीविलास, ब्रह्मविलास आदि ग्रन्थोंको बनाकर अध्यात्मशैलीके भाई कहलाये। इनके बाद जयपुर नगरमें एक गुमानीराम श्रावक हुए थे। उन्होंने तेरहपंथ आम्नायसे भी विपरीत से बातें बनाकर अपने नामका गुमान पंथ चलाया। इन्होंने बतलाया कि जलसे वस्त्र गीला कर प्रतिमाजीका प्रक्षाल किया जाता है सो भी नहीं करना चाहिये। इसमें भी पाप लगता है। इसके बदले सूके वस्त्रसे प्रतिमाजी पर लगी हुई धूलि आदि झाड़ लेनी चाहिये । सो कितने दिनों तक तो यह बात चली परन्तु निभ न सको। इसलिए फिर पीछे ये लोग थोड़े जलसे प्रक्षाल करने लगे। इसके सिवाय नव स्थापना पूर्वक दूरसे । पूजन करना चाहिये । पूजा पढ़नेवालोंको भी खड़े होकर पढ़ना चाहिये । बैठकर नहीं पढ़ना चाहिये । मंडल की पूजा करनी हो तो उसके ऊपर थाल रखकर उसमें द्रव्य चढ़ाना चाहिये। मंडलके कोठेमें द्रव्य नहीं ! चढ़ाना चाहिये । यदि कोई इसका कारण पूछे तो कह देना चाहिये कि यह तो बिछोना है और केवल शोभा. के लिये है । यदि दो-चार दिन तकका पाठ हो तो प्रतिदिन जितनी पूजाएं हो जांय उतना ही शाति-पाठ कर विसर्जन कर देना चाहिये और द्रव्य उठा लेना चाहिये । यदि शास्त्रोंका स्वाध्याय करना हो तो जिनप्रतिमा चायाalaSansaARAI Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पसागर ५०० ] Samipr-we की पूजनके समान स्नान कर स्वाध्याय करना चाहिये। यदि इस प्रकार स्नान करना किसीसे न बने तो । स्नान करनेवाले एक पुरुषको अलग रखना चाहिये वह शास्त्रजीके पन्ने उलटता रहे। जिसने स्नान नहीं किया। है उसको शास्त्रजीका स्पर्श नहीं करने देना चाहिये । इसी प्रकार पूजाके द्रव्यको अग्निमें जला देना चाहिये। मालो थ्यास आदिको देनेमें निर्माल्यका पाप लगता है और कुगति प्राप्त होती है। वह पाप अपनेको भी । लगता है। इसलिए किसीको नहीं देना चाहिये । इस प्रकार उन्होंने सबको बतलाया परन्तु यह रीति भी थोड़े। ही दिन चलो। इसके सिवाय उन्होंने बतलाया कि गंधोदक लगाकर हाथ धोना चाहिये यदि जिन प्रतिमाके चरणों पर केशर, चन्दन आदि लगा हो तो वहाँके दर्शन वा बन्दना नहीं करनी चाहिये । तथा दूसरोंको भी दर्शन, बन्दना आदि न करनेका नियम दिलाना चाहिये । रात्रिमें जिन मतिके सामने वा जिनमन्दिरमें यत्नपूर्वक भी दीपक नहीं जलाना चाहिये । फल, पुष्पोंमें नारियल बदाम आदि की मिगी निकाल कर चड़ाना चाहिये । अखण्ड फल नहीं चढ़ाना चाहिये । केशरको पूजामें लेना ही नहीं चाहिये। केवल चंदन घिस लेना । चाहिए। पुष्प चावलोंके बनाने चाहिए चावलोंको कसूम वा हरसिंगारके फूलोंसे रंग लेना चाहिए इत्यादि । बहुत-सी बाते विपरीत कल्पना की है। यदि इसकी कोई कारण पूछता है तो केशरमें अनेक दोष बसला देते हैं। कहते हैं केशर बनाने में रुधिरका संस्कार दिया जाता है। इससे केशर काममें लाना अयो कोई दुष्ट लोग खोटो केशर बनाते हैं उसमें भी रुधिरका संस्कार देते हैं। इस प्रकार बतलाकर दोष देते हैं। इस प्रकार अपनी बुद्धि के बलसे दूसरोंको भ्रममें डाल देते हैं। इनके सिवाय और भी अनेक प्रकारको कल्पनाएँ। । अपने मनसे करते हैं। कोई अपने नामसे पंथ चलाता है। जैसे गुमानपंयोको आम्नाय है। इसे लोग छोटी । । सहेलोके भाई कहते हैं । इस प्रकार परस्पर पत्रोंके लेखोंसे तथा देखादेखी या क्रोध, मान, माया, लोभके वशसे बहुत-सी विरुद्ध बातोंका प्रचार किया है। इन्होंने अपने बनाये हुए भाषा वचनिकाके. शास्त्रों में अपने आम्नायको पुष्टिके वचन रखकर ऊपर लिखी बातोंका प्रचार किया है। मैनपुरोके एक घंशोधर नामके श्रावकने अपने उपदेशसे पूर्ववेश बुन्देलखण्ड आदि देशों में इसकी प्रवृत्ति की है । सो यह सब हुंडावसर्पिणोका दोष है। " प्रश्न-ऊपर जो एकांत विपरीत आदि पांच प्रकारके मिथ्यात्व बसलाये हैं वे कबतक रहेंगे ? उत्तर-थे सब मिथ्यात्व पांचवें कालके अन्त तक रहेंगे। पांचवें कालके अन्तमें सब नष्ट हो जायेंगे। Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर - ५०१ ] I शुद्ध मूलसंघके एक साधु, एक अर्जिका, एक आवक, एक भाविका ये चार धर्मात्मा रहेंगे । ये चारों कल्कीके द्वारा उपसर्ग पाकर संन्यास धारण कर स्वर्गलोक जायेंगे । सो हो लिखा है--- तत्तोण कोवि भणिऊ गुरुएणहरपु गवेहि मिच्छत्तो। पंचमकालवसाणे मित्थादंसणविणासेहिं ॥ एक्कोविय मूलगुणो वीरं गयणा मउज्जई होई । सो अप्पसुदेविवरं वीरोब्व जणं यब्वोई ॥ ऐसे वाक्य हैं। इनके सिवाय अन्यत्र भी लिखा है I सहसाणिवरस वीसा ण वसई पंच एवं सच हयदरु । वे घडिय वे वलियं विहरति वीरणि धम्मं ॥ प्रश्न - यह कथन यहां क्यों लिखा क्योंकि अन्यमतका लिखना तो ठीक है परन्तु घरके एक धर्मके विरुद्ध तो नहीं लिखना चाहिये । उत्तर - आपका कहना ठीक है । परन्तु जीवोंके परिणामोंके अंश कितने हो तरहके हैं। धर्मके अनेक अंग हैं इनमें से किसीके परिणाम कहीं धर्मसाधन करते हैं और किसीके अन्य किसी अंग में धर्मसाधन करते हैं । farare as feat अंग में भाव लगते हैं और किसीके किसी अंगमें किसीका मन कथामें लगता है। किसीप्रथमानुयोग में, किसीका करणानुयोगमें, किसीका चरणानुयोग में और किसीका प्रव्यानुयोग में मन लगता है। किसीका मन आक्षेपिणीमें, किलोका विक्षेपिणीमें, किसीका संवेगिनी में और किसीका निर्देदिनी कयामें लगता है। इसी प्रकार किसोका मन छहों रसोंके स्वादिष्ट भोजनोंमेंसे किसी रसके भोजनमें लगता है। किसीको कोई रस अच्छा लगता है। राग-रागिनी अनेक प्रकार हैं उनमेंसे किसीको कोई राग अच्छा लगता है और किसीको कोई रागिनी अच्छी लगती है। इसी प्रकार चर्चाएं अनेक प्रकार की हैं। किसीका मन किसी चर्चा प्रसन्न है और किसीका किसी चर्चासे प्रसन्न है । इसीलिए यहाँ पर यह चर्चा लिखी है कुछ राग-द्वेष वा अभिमान वा ईव्यसेि नहीं लिखी है। यदि इससे किसीके राग-द्वेष उत्पन्न हो तो हम उससे क्षमा माँग लेते हैं। प्रश्न - यह जो कुदेवोंकी स्थापना हुई है सो इसका कारण क्या है ? समाधान --- जिस प्रकार कुदेवोंकी स्थापना हुई है उसका स्वरूप लिखते हैं। किसी एक समय स्वर्गलोकमें नौवें बलभद्रके जीवने विचार किया कि श्रीकृष्ण कहाँ है? अवधिज्ञानसे मालूम हुआ कि वह बालुकाप्रभा नामकी तीसरी पृथिवीमें है। वह बलभद्रका जीव तीसरे नरकमें पहुंचा । कृष्णके जीवको धर्मोपदेश दिया । [901 Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ amroSENILARATNANAGAR ॥ संसारका अनित्यपना दिखलाया तथा उसके धर्मको बक्षा अत्यन्त निश्चल को। सवनंतर कृष्णके जीवने कहा कि संसारमें हमारो लीलाका विस्तार करो। यह सुनकर बलभनका जीव भरतक्षेत्रमे आया और उसने इस I बासागर लोकमें कृष्णको अनेक बाल लीलाएं प्रकट की। तबसे इस संसारमें कृष्णको अनेक लीलाएं प्रगट हुई हैं। [१०२ ब्राह्मणोंने लोभके घशीभूत होकर वे सब लीलाएं स्वीकार कर ली और उसके उपासक बन गये जो आज तक बने हैं। ऐसा कथन लघु हरिवंशपुराण वा बृहद् हरिवंशपुराण वा और अनेक पुराणोंमें लिखा है। हरिवंशपुराणमें लिखा है॥ अथ श्रीबलदेवोऽसौ ब्रह्मकल्पोऽम रोशित यःजालुकालास्थितं दंतु सतमार स्नेहनोदितः॥ दूसरे हरिवंशपुराणमें लिखा है किहै एवं तस्य हृदि स्थाप्य सम्यक्त्वमणिमुज्वलम् । सुरो निवर्तितः पश्चात् भ्रातृदुःखेन दुःखितः । आगत्य भारतं क्षेत्रं प्रियं व्यरचयत्परम् । विमानं किंकिणीघंटानानानादमनोहरम् ॥८॥ तत्र पीतांबरं कृष्णं सश्यामं गरुडध्वजम् । लोकेभ्यो दर्शयामास वामांगे कमलावृतम्॥८॥ स्वयं च कथयामास लोकेभ्यो भो जनाः शुभाः।श्रूयतां च त्रिलोकीशः उत्पत्तिप्रलयक्षमः॥८६॥ गोविंदो मम भ्राता लोकानां हितचिंतये। नृलोकेत्रावतारं स"..."परिपूर्णवत् ॥८॥ परोपकारनिपुणस्त्रिलोकीपुरुषोत्तमः । दैत्यानां च प्रणाशाय क्रीडारसकुतूहली ।।८|| कृष्णेच्छया पुरी रम्या द्वारिकायां प्रतिष्ठिताः।पुनः प्रज्वलिता तस्य लीला या स्फुटम(?)M । कृतिरस्यैकसंसारे धर्मस्थापनकारिणः । दुष्टानां च्छेददक्षस्य रक्षणं कुर्वतः सताम् ॥ ६ ॥ विष्टपादिमयं सर्वं सर्वं कृष्णेन च कृतम् । नररूपेण पश्यंती एवं ज्ञानमयं विभुम् ।। ६१ ॥ रत्नाकरोस्मै श्रीभार्यां ददौ रत्नादिसंपदम् । जगतामुपकाराय अवतारो भवेद्विभोः॥६२ ।। य एनं पूजितं श्रीदं ध्यायते हृदयेऽमलम् । स भवेत् सदृशोनेन ऐश्वर्येण विवर्द्धते ॥१३॥ कीर्तनं यः स्वगेहस्य गीतनृत्यैःप्रकीर्त्यते । तेषां लक्ष्मीर्वशा देहे आरोग्यं च यशोमलम्॥६४ : । विप्रा ये स्थापिताः पूर्व प्रथमेन सुचक्रिणा।तेषां पुरः सुरोगस्वा नायया तान् व्यमोहयत् ॥६५ :: RAMAH Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ५०३ ] KAWA किसी एक समय बलभद्र दीक्षा लेनेके बाद तुंगीगिरि पर्वत पर घोर तपश्चरण कर रहे थे। वहाँ पर जरासन्धुके वंशके शत्रु इनको देखकर घोर उपसर्ग करने लगे। उस समय बलवेदके सारथी सिद्धार्थका जीव स्वर्गमें या उसने अपने अवधिज्ञानसे स्वामीका घोर उपसर्ग जाना। वह शीघ्र हो वहाँपर आया और मायामयी अनेक सिंह बनाकर उन मुनिके चारों ओर कर दिये। सिंहोंको देखकर वे सब शत्रु भाग गए। तबसे ये ब्राह्मण लोग उन मुनिको मनुष्य जानकर और उनके चारों ओर सिंह जानकर नृसिंह अवतार मानकर पूजा करने लगे। उन्होंने नृसिंह मूर्तिकार की और पूजने लगे। यह कथा दोनों हरिवंशपुराणोंमें लिखी है । यथा 'गीभृंगं समाश्रित्य तपस्तेपेऽपि दुष्करम् । भवभ्रमणतः शांतो वलदेवो दिगम्बरः ||५.६ || एकद्वित्रिचतुः पंचषण्मासो पोषणत्रती । शांतं चक्रे कषायाणां पोषयन्"" *॥५७॥ एकदा विहरन् स्वामी ध्यानधारणहेतवे । वने वैरिजनैदृष्टः शुद्धाहारदिदृक्षया ॥५८॥ पूर्व वैरं स्मरेतोमी श्रुखा ख्यातिं तपस्विनः । संभूय ते समाजग्मुः भूभृतो भूरि सनटाः ॥५६॥ समंततो भ्रमित्वा ते तत्स्थं प्रहरणोद्यताः । आत्मानमिव कर्माणि वेष्टयित्वा तपस्विनम् ॥ ६०॥ कायोत्सर्गस्थितं साधु' निर्भयं स्तंभवत् स्थिरम् । सिंहरूपेण सिद्धार्थं तं ते हंतु ं प्रचक्रमे ॥ ६१ पादपीठान् मुनेस्तावत् सिंहरूपाननेकशः । भयभीताः पलायागुर्हष्ट्वा दशदिशं पृथक् ।। ६२ ।। स्वस्वस्थानैर्गत भूपैः भयलज्जाकुलैस्ततः । नरसिंह इति ख्यातिं चक्रे तस्य सभा स्थितः ॥६३॥ केचित् प्रहरणान्मुक्ता मुनेः शरणमागताः । प्रणामं चक्रिरे केचित् दैवतस्य धियाभयात् ॥ ६४ सिंह्नादेन संत्रस्ते नारसिंहेन विश्रुतः । मूर्तिः कृता धृता मूढैः पूजिता श्रेयसे स्थिता ॥ ६५ ॥ नारसिंहसुरेशस्य प्रथिता भुवि वै तदा । तदा प्रभृति मिथ्यात्वमेकमेतद जायत ॥ ६६ ॥ इस प्रकार संसार में नृसिंह अवतारकी कल्पना हुई है । किसी एक दिन मथुरामे देवकीने बलभद्रके मुखले श्रीकृष्णके अप्रमाण पराक्रमकी महिमा सुनी तब उसे कृष्णको बेलने की इच्छा हुई। उसने सोचा कि बलभद्र के किसी प्रपंचसे ही कुष्णसे मिल सकते हैं। यही [५०३ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर - सोचकर बछड़े सहित गौके पूजने के नतका प्रपंच किया। बलवको लेकर वह देवको गोकुल गई और गायोंके । वनमें खेलते हुए नारायणको देखा । बहानेके लिए गोकी पूजा को और फिर देवकीने कृष्णका स्पर्ण किया। कृष्णका स्पर्श करते ही वह बहुत प्रसन्न हुई । अपना मनोरथ सिद्ध किया। उस समय महा-मोहके उदयसे देवकीके दोनों स्तनोंसे दूधको धारा स्वयमेव निकलने लगी। उस समय बलभद्रने सोचा कि यदि इन दोनोंका माता और पुत्रपना प्रगट हो जायगा तो दुष्ट कंस न जाने क्या अपराध करेगा। अतएव तूधका निशान मिटानेके लिए बलदेवने दूषका घड़ा उठाकर देवकीके ऊपर डाल दिया यर्थात वृधसे देवकीका अभिषेक कर दिया जिससे उसका सब शरीर वृषसे सफेव हो गया। तदनन्तर देवकीने श्रीकृष्ण यशोदाको सौंपे और आप बलभद्रके साथ मथुरा आयो । उस समयसे लेकर भेड़िया धसानकी तरह इस संसारमें स्त्रियां भावों कृष्णा द्वादशीके दिन बछड़े सहित गोको पूजा करतो हैं और इसको व्रत मानती हैं। यह कथा भी दोनों हरिवंशपुराणोंमें लिखी है । यथा-लघु हरिवंशपुराणमेंएकदा बलभद्रेण वर्ण्यमानं विचेष्टितं । तस्य मानुष्यमाकर्ण्य देवकी विस्मयं ययौ ॥७२॥ कृतोपवासव्याजेन सुतदर्शनहेतवे। वजं ययौ गोपगोपीजनगानविराजितम् ॥७३॥ तारघंटारवै रम्यैर्गोधनै राचितं क्वचित् । नानावृक्षगणेष्ट्वा सा सती प्रभूपगता ॥७॥ नंदगोपस्ततः सार्द्धमागत्य च यशोदया । ननाम देवकी भक्त्या पश्यंती गोकुले श्रियः॥७५ ततो यशोदयानीय क्रीडन्तं गोधनान्तरे। शिखिपिच्छकृतापिंडं वसानं पीतवाससी ॥७६॥ । सुवर्णकर्णाभरणं श्याम जनमनःप्रियम् । मृदुपाणिपदाम्भोजलीलाकृतनमस्कृतिम् ॥७॥ देवक्या मातुरुत्संगे तया निन्ये स्वगर्भजम् । आलुलोक चिरं दृष्ट्वा जननी मुमुदेतराम् ॥ तलोललोचनं बाल मृदुकोमलविग्रहम् । स्पृशन्ती निजहस्तेन मेने स्वजन्म सार्थकम् ।।७६ । अहो हो वंचितो वैरी मया कंसो दुराशयः। पुगिस्पर्शपीयर्ष अर्थेवास्वादि तस्किल ॥८॥ सा देवकी ततः प्राह वनेपि वसति तव । श्याध्या यशोदा या नित्यमीहशं पुत्रमीक्षसे॥१॥ ॥ इन्द्रः पुत्रविहीनोऽत्र राज्यलाभोपि नोचितः। तस्मात्त्वयासि वो नित्यं त्वदादेशपरायणैः॥ । ARRUPTION चामरचनामामा-मानाचा Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [ ५०५ जगाद गोपी पुत्रोयं स्वामिन्यास्तव पाल्यते । अस्माभिः सेवकैर्नित्यं वदा देश परायणैः॥८३॥ अत्र चिरं वस्तु तत्तवैवास्ति निश्चितम् । तेनायं खलु पुत्रोपि तवैवेह ममास्ति कः ॥ ८४ ॥ अत्रांतरे प्रस्तुतस्याः पुत्रदर्शनतः स्तनौ । शशाक संवरीतु नो क्षरंतो रहितान्तरौ ॥८५॥ यथोज्झितोस्ति पुत्र रे दुष्टकंसस्य साध्वसात् । अत्यंत शुद्धमात्मीयं दर्शनं नीरराजसा ॥ ८६ ॥ प्रकाशभीरुसहसा हली क्षीरघटैश्च ताम् । अभ्यषिंचन् महाबुद्धः दक्षः कार्येण मुज्झति ॥८७ हरिप्रेक्षणतः प्राप्तसुखां तां मथुरां पुनः आनीय प्रवेश्याथ पित्रे वार्ता तमब्रवीत् ||८|| ततःप्रभृति तज्जातं गोवत्साचननामकम् । मिथ्यात्वं वनितालोकमुग्धचित्तैः प्रतिष्ठितम् ॥८ जब कृष्णकी बहिनका जन्म हुआ था तब फंसने उसकी नाक काट ली थी। बड़ी होनेपर किसी एक दिन उसने अपना मुँह दर्पण में देखा । सो अपना कुरूप देखकर संसारसे उदास हो दीक्षा धारण कर ली और वह आजका बन गई । किसी एक दिन वह अजिंका विन्ध्याचल पर्वतके ऊपर एक वनमें रात्रिमें ध्यान धारण कर बैठी थी । उसी मार्गले एक भीलोंका राजा अन्य बहुतसे भोलोंके साथ किसी पथिकका धन लूटनेके लिये जा रहा था । उन्होंने वह अजिका देखो और समझा कि यह कोई वनदेवी हैं। इसकी पूजा की, मानता करो । यदि इसकी पूजा करनेसे बहुत-सा धन मिलेगा तो हम बलिदान देकर तेरी पूजा करेंगे। ऐसी प्रतिज्ञा कर वे चले गये । दैवयोगसे उस दिन उनको बहुत सा धन मिल गया। तब उन चोरोंने देवीका प्रत्यक्ष चमकार जानकर उसकी पूजा करनेका विचार किया। इधर उन भोलोंके चले जानेपर उस अर्जिकाके पास सिंह आ गया वह उस आर्जिकाका भक्षण कर चला गया। अर्जिका समाधिमरण कर स्वर्ग सिधारी। इसके बाद वे भील यहाँपर वेवीकी पूजा करनेके लिए आये । परन्तु उन्हें वह वनदेवी ( अजिका ) न मिली वहाँपर केवल उसकी तीन उँगलियाँ पड़ी मिलीं। उन्होंने उन्होंको खड़ा कर लिया और त्रिशूल मानकर उसकी पूजा करने लगे । बनके अरणा, भैंसा और बकरे आदिको मारकर उससे झरते हुए मस्तकके रुधिरसे उस त्रिशूलको पूजा करने लगे। इस प्रकार बलिदान देकर देवीको स्थापना की और उसका नाम विन्ध्यवासिनी देवी रक्खा । तबसे ही भील आदि नीच, पापी लोग परम्परासे ऐसा करते चले आ रहे हैं। वह महापापस्थान आज तक मिरजापुरके निकट विन्ध्याचल पर्वतपर है। वहाँपर अब भी भैंसे, बकरे आदि पशुओंका वध होता है। बड़े-बड़े नामधारी ૪ [ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । पढ़े-लिखे पण्डिस लोग भी वहां जाकर पूजा करते हैं। तो यह सब महापापका कारण है । सो हो हरिवंशपुराण में लिखा हैचासागर । प्राप्ता बिध्याटवी मार्गवशाबानाद्रुमांचिताम्। बहुभिल्लगणाकोणां भीरूणां भयदायिनीम्॥ तत्र सा निशि निःशंका निषण्णप्रतिमास्थिता। भिल्लेरदर्शि मुष्णातु सार्ववाहान्समागतमा ज्ञात्वैतां वनदेवीं ते सप्रणामा निजे हृदि । भिल्लाश्च प्रार्थयन्तेति ॥७॥ ............. .... "॥७२॥ . अर्चयिष्याम आदरात् ॥७३॥ कृत्वेति प्रार्थना यातास्ते भिल्ला विधियोगतः। धनवस्त्रादिसंपूर्णान् सार्थवाहान् महावनि॥ प्राप्य हत्वा च तानेव दुकुलकनकादिकम् । नीस्वा हृष्टाशया राजन् देविपार्वे समागताः॥ तत्र सा संयता भिल्ले तथैव प्रतिमा स्थिता । अदर्शि प्रणतैश्चित्ते मनोरथविधायिनी ॥ तत्कालमेव सा प्राप्य समाधिमरणं ययौ। प्रतिमाप्रभूतिः स्वर्गे विधिना नशने कृते ॥ ततो विचारमुक्तास्ते तत्रारोप्यातिदैवतम् । निपात्य विषमारण्यहिषं तत्पुरोऽवधुः ॥७॥ रुधिररक्तमांसस्य वलिं विचिकिरुमुदा । विनत्समक्षिकाकीर्ण जयदेवीति वादिनः ॥७॥ । तदाप्रभृति लोकोयं देवमूढोऽविवेकवान् । महिषादीन् पशून् हत्वा पूजयेविंध्यवासिनीम् ॥ । तदा तैः शवरैः पापैः स्थापितं तदघप्रदम् । लोके विस्तारेऽगमद्देवी विप्रपूजनमीदृशम् ॥८१ ॥ तदनन्तर अनेक लोगोंने पुर, नगर, गांव, वन, उपवन, पर्वत, तीर्थ आदि स्थानोंमें चण्डी, मुंडी, दुर्गा, भवानी, कात्यायनी, बीजासणी, शीतला, भैरव, क्षेत्रपाल आदि अनेक नामधारी देवी-देवताओंकी स्थापना । को और ये अनेक जीवोंका वध कर उनकी पूजा करने लगे। इस प्रकार मांसभक्षी भोल और शूद्र जातियोंने इन । कुदेवोंको स्थापना को है । तथा कितने हो लोभी ब्राह्मण भी ऐसा ही करने लगे हैं। सो यह विपरीत मिथ्यात्व । अब तक चला आता है । यह सब विपरोतता श्रीअरिष्ट नेमिनाथ तीर्थकरके समयसे हुई है। Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ५०७ ] इसी प्रकार श्रीमहावीर स्वामीके तीर्थमें एक मुनि और एक ज्येष्ठा नामकी अजिकाने अपनी दीक्षा भंग कर परस्पर सम्भोग किया। उससे ज्येष्ठा के गर्भ रह गया । वह ज्येष्ठा अर्जिका राजा श्रेणिककी पटरानी चेलनाकी बहिन थी। इसीलिये बेलनाने धर्मकी हंसी मिटानेके लिए उस ज्येष्ठाको अपने घरमें लाकर रक्खा। समय पूरा होने पर उसके पुत्र हुआ । सो अजिका तो छेदोपस्थापना प्रायश्चित्त लेकर तपोवनको चली गई तथा मे सुनि भी छंदोपस्थापना प्रामयित लेकर में जले गये । तथा पुत्र चेलनाके यहाँ पलने लगा और बढ़ने लगा । परंतु पापकर्मके उदयसे खेलता हुआ भी वह सब बालकोंसे विरुद्ध रहता था। चेलनाके पास उसके बहुतसे झगड़े आने लगे। तब किसी एक दिन चेलनाने कहा कि किससे तो उत्पन्न हुआ और किसको दुःख देता है । अपनी यह बात सुनकर उस बालकने चेलनासे पूछा कि मेरे माता-पिता कौन है। तब चेलनाने उसे पहला सव वृत्तांत सुनाया । उसे सुनकर वह बालक अपने पिता मुनिके पास गया और उसने उससे जिनदीक्षा ले ली। उस पुत्रका नाम सत्त्यकी या सो मुनि होनेपर भी उसका नाम सात्यकी हो रहा । क्रम-क्रमसे यह पढ़ने लगा सो ग्यारह अंग और चौदसवें विधानुवाद नामके अंग तक पढ़ गया। उस समय अनेक विद्याऐं आकर कहने लगीं कि हमें आज्ञा दीजिये। जो काम हो सो करें। तब वह सात्यकी मुनि ग्यारहवां रुद्र उन विद्याओंकी रूप संपदा देखकर तथा मुनिपनेसे शिथिल होकर कहने लगा कि जब हम स्मरण करें तब आकर हमारी आज्ञामें रहना । किसी एक प्रसंग पाकर भगवान महावीर स्वामीने अपनी दिव्यध्वनिमें कहा कि "यह सात्यकी मुनिवीक्षासे व्युत हो जायगा, भगवानकी यह वाणी सुनकर वह सात्यकी मुनि पर्वतोंके एकांत स्थानोंमें रहने लगा । किसी एक दिन यहाँपर किसी जलाशय में कोई राजकन्या स्नान करने आई थी उससे सात्यकी रुद्रने कहा तू मुझसे विवाह कर ले। तब कन्याने कहा विवाहकी बात हमारे माता पिता जानें। यह सुनकर रुद्रने कहा कि अच्छा यह बात अपने माता पितासे कहना । कन्याने कहा अच्छा कहेंगे । तदनंतर कन्याने घर जाकर अपने माता पितासे सब बात कही। इधर उस रुखने भी जाकर वह कन्या मांगी। माता पिताने वह कन्या उस स्वको विवाह । परंतु उस उनके कामसेवनसे वह कन्या भर गई । इस प्रकार कितनी हो कन्यायें मरणको प्राप्त हुई। अंतमें उसने एक पर्वत राजाको कन्या पार्वतीके साथ विवाह किया वह इसके कामसेवनसे मरी नहीं सो वह सात्यकी रुद्र अत्यंत कामो होकर तथा अत्यंत निर्लज्ज होकर उससे कामसेवन करने लगा। उस [ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ५०८ ] wesweswes ने राजा पर्वतको भी बहुत दुःखी किया। इससे चिढ़कर राजा पर्यंतने इसके मारनेका उपाध सोचा । परन्तु रुके पास बहुत-सी विद्याएँ थीं इसलिये वह मार न सका । तब राजा पर्वत ने अपनी कन्या पार्वती से पूछा कि ये fear किसी समय इससे दूर भी रहती हैं या सदा इसके पास रहती हैं। पार्वतीने यह बात रुद्रसे पूछो । रुद्रने कहा कि ये विधाएँ संभोग के समय तो दूर रहती हैं और किसी भी समय दूर नहीं रहतीं सदा पास रहती हैं। पार्वतीने यह बात जानकर राजा पर्वतसे कह दो । तदनंतर किसी एक दिन राजाने उस रुद्रको संभोग करते समय नग्न अवस्थामें ही मार डाला । अपने स्वामीका मरना देखकर उन विद्याओंने अनेक उपद्रव करना प्रारंभ किया और ये सबको पीड़ा देने लगों । तब सब लोगोंने प्रार्थना की कि हे देवियाँ अब शांत हो जाओ । अब क्षमा करो। तब उन सब देवियोंने कहा कि "इस राजाने जिस अवस्थामै सात्यकोको मारा है, उसी आकार को उसकी मूर्ति बनाकर स्थापना करो और फिर उसकी पूजो तब शांति होगी । अर्थात् योनि मैथुनाकार स्तंभित लिंगको मूर्ति बनाकर जो तब सुख मिलेगा अन्यथा दुःख ही पाते रहोगे । देवियोंकी यह बात सुनकर राजा प्रजा सबने ऐसा ही किया । उनको देखकर भेडियाधसान के समान और लोगोंने भी ऐसे ही रूपकी मूर्ति बनाकर स्थापना की और लोग उसे पूजने लगे । सबसे शिवकी स्थापना प्रारंभ होने लगी । यह सब कथन उत्तरपुराण आदि अनेक शास्त्रों में लिखा है । विशेष बहाँसे जान लेना । यहाँ अत्यंत संक्षेपसे लिखा है । रुद्र ग्यारह होते हैं सो इस कालमें भी ग्यारह हुए हैं परन्तु यह शिवको स्थापना अंतके रुद्रसे हुई है । यह सब कालदोष है । इसी कालदोषसे कितने ही स्वार्थी ब्राह्मणोंने अपनी आजीविका के लिये अनेक प्रकारके स्वरूप बनाकर कितने ही निद्य देवताओंकी स्थापना की है तथा लोगों को ठगनेके साधन बनाकर कितनी हो विपरीत बातें फैलाई हैं सो सब प्रत्यक्ष दिखाई देती हैं। वे सब सम्यग्दृष्टियोंके लिये श्रद्धान, ज्ञान या आचरण करने योग्य नहीं हैं । सर्वत्र हेय हैं । आगे थोडेसे कुशास्त्रों की उत्पत्ति लिखते हैं । ऋषभदेव के पुत्र महाराज भरत थे तथा भरतका पुत्र मारीच था । उसने मिथ्यास्य कर्मके उदयसे मुनिपदसे भ्रष्ट होकर सांख्य शास्त्र बनाया। उसने पृथ्वी आदि पच्चीस तत्वोंसे आत्मा बनता है ऐसा ०८ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर 1408 Swa बतलाया । जिसप्रकार बेर, अड़ी, गुड़ और मधुके फूल जुवे जुड़े हैं परंतु उन सबके मिलनेसे मद्य बन जाता है। पहले उन सबमें मद्य बनने की शक्ति थी वही शक्ति अथ मिलनेसे प्रगट हो गई और मद्य बन गया उसीप्रकार पच्चीस तत्त्वों में आत्मा बननेकी शक्ति है उन सबके मिलनेसे आत्मा बन जाता है । इसप्रकार अनेकप्रकारके विपरीत कथनको कहनेवाले सांख्यमतके शास्त्र बनाये । उसीने पातंजलि मतके शास्त्र बनाये । उसमें हठयोग, पवनका साधन और शुद्ध ध्यानाविकका निरूपण किया। तदनंतर श्रीशीतलनाथ तीर्थंकरके समय में शालि ब्राह्मणने दश प्रकारके कुदानोंकी स्थापना की और उनकी परिपाटी चलानेके लिये ऐसे दान देनेका विधान करने वाले ग्रंथ बनाये। उनमें अपना स्वार्थ सिद्ध करने और आजीविकाकी परंपरा चलाने के लिये ब्राह्मणोंको गोदान, सुवर्णदान आदि अनेक प्रकारके दान देना बतलाया । सबका फल स्वर्गे मोक्ष बतलाकर उन बानोंको पुष्टि की। तथा इसप्रकार लोगोंको ठगनेका उपाय बनाकर उसकी परंपरा चलाई । इसप्रकार उसने जैनधर्मके अत्यन्त विरुद्ध कथन निरूपण किया और लोगोंको खूब ही भुलावा दिया । एक धारणयुगल नामका नगर था उसमें अयोध नामका राजा राज्य करता था उसकी दसो नामकी रानीसे सुलसा नामकी अत्यंत रूपवती पुत्री हुई थी। राजाने उसका विवाह करनेके लिये स्वयंपर रचा था और अनेक राजा बुलाये थे। उसमें सगर आदि अनेक राजा आये थे । उनमें एक मघुविंगल नामका राजा भी आया था। राजा मधुपिगलने सुलसाके पास अपनी भूआ ( फफी ) भेजी और कहलाया कि तु मधुपिंगलके कंठमें वरमाला डालना । उस फूफोने मधुपिंगलका बहुत यश गाया। सुलसाने उसका भारी यश सुनकर उस फूफोकी बात स्वीकार कर ली । इधर सब राजाओं में मुख्य राजा सगरने भी सुलसाको रूप संपदा देखकर उसके साथ विवाह करनेकी इच्छा की । तथा उसने ऊपर लिखा हुआ मधुपगल और सुलसाका विचार भी सुना । तब राजा सगरने अपने मंत्रियोंसे विचार किया। उस राजाके एक विश्वभूति नामका पुरोहित था। जो सामुद्रिक शास्त्रके जानकारोंमें मुख्य था । उन मंत्रियोंको सलाहसे उसने एकांत में बैठकर एक नवीन सामुद्रिक शास्त्र बनाया । उसमें मधुपिंगल मांजार नेत्रोंको देखकर उसको ठगनेके लिये उसके बहुत दोष दिखलाये । तथा राजा सगरके चिह्नोंके बहुत गुण बतलाये । ऐसा नवीन जाली ग्रन्थ बनाकर उसे धूऍमें धूसरित कर पुराने वस्त्रमें बांधकर एक [40 Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर लोहेके संदूक रक्खा और उसे स्वयंवर भूमिके निकटका पृथिवीमें एक गढा सोवकर संदूक समेत गाड़ दिया। । ऊपरसे वह गढा मिट्टीसे भरकर एकसा कर दिया। यह सब काम उसने इस प्रकार किया जो किसीको मालूम नहीं होने दिया तदनंतर जब सब राजा इकट्ठे हुए तब किसी अपरिचित पुरुषसे वह अन्य मंगवाया और उस पुरोहितने सब राजाओं के सामने उस ग्रन्थका व्याख्यान किया। उसमें सगरके चित्रोंका बहुत कुछ शुभ निरूपण किया और मधुपिंगलके बिल्लोकेसे नेत्रोंका वर्णन करते हुए बहुतसे दोष दिखलाये। यह सब कथन वहाँ बैठे हुए सम राजाओंने सुना, राजा मधुपिंगलने सुना । राजा मधुपिंगल अपने बुरे चित्रोंको सनकर तथा अपने शरीरमें भाग्यहीन परिद्रियोंके लक्षण जानकर उदास होकर वहाँसे उठ गया। उसने सलसाके साथ विवाह करनेको इच्छा छोड़ दो और विरक्त होकर जिनदोक्षा धारण कर ली। वह प्रतिदिन घोर तप करने लगा। जिससे उसका शरीर बहुत ही कृश हो गया। किसी एक दिन विहार करते-करते वह एक स्थानपर पहुंचा वहाँपर अनेक सामुद्रिक शास्त्रको जाननेवाले विद्वान् बैठे थे। एक सामुद्रिक शास्त्रीने इसके लक्षण देखकर कहा कि इस सामुतिकशास्त्रको भी विषकार है। क्योंकि देखो इसके शरीरमें कैसे पुण्याधिकारियोंके लक्षण हैं परंतु यह कंसा कष्ट सह रहा है। उस शास्त्रोको यह बात सुनकर दूसरा शास्त्री कहने लगा। कि क्या तुझे मालूम नहीं है कि सुलसाके स्वयंवरमें इस मपिंगलको ठगनेकेलिये एक नया सामुद्रिक शास्त्र । बनाया गया था और राजा सगरने यह सब प्रपंच रचकर सुलसाके साथ विवाह किया था। इसके बिल्लीके नेत्रोंमें बहुतसे दोष निकाले थे। परंतु यह भोला है उस समय इसने कुछ समझा नहीं, बिना ही समझे यहाँसे। निकलकर उदास होकर दीक्षा ग्रहण कर लो। उन दोनों शास्त्रियों की बात मधुपिंगलने भी सुनी और सुनते ही क्रोधको प्राप्त हुआ। अंतमें वुःखसे मरकर असुर जातिके देवोंमें महाकाल नामका असुर हुआ। उसने ! अपने कुअवधिज्ञानसे राजा सगरके पहलेके सब समाचार जान लिये उसने जो ठगाई को थी सो भी सब जान । ली । तया उससे शत्रुता धारण कर वह उसके नाश करनेका उपाय सोचने लगा। पहले क्षारफदंव ब्राह्मणके पुत्र पर्वतका वर्णन कर चुके हैं पर्वतका नारदसे विवाद हुआ या राजा वसु को साक्षी बनाया था। राजा वसु मूठ बोलनेके कारण सिंहासन सहित पृथ्वीमें वंसकर नरक पहुंच चुका था , । और उस सूक्तिमति नामके नगरसे लोगोंने उस पर्वतको निकाल दिया था वहाँसे निकाल कर पर्वत ब्राह्मण , F ore A bor . Thana Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीसागर देशांतरोंमें फिरता हुआ बहुत दुखी हो रहा था कि इतनेमें हो दैवयोगसे उसको यह महाकाल नामका असुर मिल गया। महाकालने पर्वतसे कहा कि अब तू दुःख मत कर अब मैं तेरी सहायता करूंगा। पर्वतने कहा कि "क्या करूं तू कहे सो करूं" तब महाकाल नामके असुरने कहा कि तू किसी उपायसे राजा सगर और सुलसाको अग्निमें होम दे। इसके लिये चमत्कार सब मैं बतलाता रहूंगा। महाकालकी यह बात सुनकर पर्वतने होमके सब शास्त्र बनाये। उनमें अनेक प्रकारके यज्ञ करनेका विधान लिखा। पशमेष, नरमेध आदि कितने ही प्रकारके यज्ञ लिखे। उन सबका फल स्वर्ग बतलाया । अनेक प्रकारके पापोंका प्रायश्चित्त भी यज्ञ करना १ बतलाया। और बतलाया कि इसी यज्ञसे सब पाप दूर हो जाते हैं और करने करानेवाले सब स्वर्गमें जाते हैं। पज्ञका करनेवाला आचार्य, करानेवाला यजमान और यज्ञमें जो बफरे, भैंसे, घोड़े, मनुष्य आदि होमे जाते हैं । वे सब मरकर स्वर्ग जाते हैं । उसने उन शास्त्रों में यह भी लिखा कि "यज्ञमें वा होममें जो जीव घात होता है । उससे आचार्य या करानेवाले यजमानको उनको हिसाका पाप नहीं लगता। क्योंकि यज्ञमें मरे हुए सब जीब स्वर्ग जाते हैं ।" मंत्रसे मरना वा मारना पाप नहीं है । इसप्रकार पापोंका निरूपण करनेवाले अनेक शास्त्र । बनाये। उन सम शास्त्रोंका नाम वेद रक्खा । ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्वणवेद ऐसे अलग-अलग चार देव बनाये । इन सब शास्त्रोंको बनाकर और वह पर्वत स्वयं ब्राह्मण बनकर उस महाकालासुरको सहायतासे । संसारमें उन वेद शास्त्रोंका प्रचार करने लगा। उसने लोगोंको समझाया कि यह वेद आर्षवेद है, यह स्वयं सिद्ध है यह किसीने बनाया नहीं है । यह अपने आप प्रगट हुआ है। इसप्रकार कह-कह कर वह पर्वत लोगों को ठगने लगा। क्योंकि उसका अभिप्राय तो और ही कुछ था। उस पर्वत और कालासुरने यह उपाय सोचा कि वह कालासुर तो पहले किसी देशमें महामारी आदि अनेक प्रकारके उपद्रव करता था जिससे सब लोग बहुत ही दुखी होते थे। तब पर्वत वेदिया ब्राह्मण बनकर उसकी शांतिके लिये लोगोंको अनेक प्रकारके यज्ञ करनेका उपदेश देता था। जब वे लोग यज्ञ करते थे और अनेक पशुओंका होम करते थे तब वह कालासुर शांति कर देता था। उपद्रव करना बंद कर देता था । अनेक देशोंमें इस प्रकार करता हुआ वह पर्वत कालासुरके साथ राजा सगरके वेशमें पहुंचा। असुरने जाफर वहाँ। बहुतसा उपद्रव फैलाया । तब पर्वतने राजासे कहा कि तू शांति करना चाहता है तो यज्ञ कर । तब राजाने Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर [१२] । यज्ञ कराया। यश हो चुकने पर राजाके यहां शांति हो गई यह देखकर अनेक जीव मरनेके डरसे पर्वतके शरण-4 । में आये तथा पर्वतके कहे अनुसार श्रद्धान करने लगे। तदनन्तर उस पर्वतने राजा सगरसे बहुतसे पशु मॅगा कर यज्ञमें होमे। उसे पशुमेध यज्ञ बतलाया। फिर घोड़े होमे उसको अश्वमेध यज्ञ बतलाया। इसी प्रकार उसने गोमेध यज्ञ तथा नरमेध यन किये। फिर। । उस पर्वतने राजा सगरसे कहा कि हे राजन् ! देख; ये पशु जो इस यज्ञमें होमे गये हैं वे सब मर कर स्वर्गलोक गये हैं सो तू देख । यह कहकर कालासुरको मायासे स्वर्ग जाते हुए दिखलाया। उसको देख-देखकर सब लोग। जसको भाडा करने लगे। तदनन्तर राजासे पर्वसने कहा कि अब तू राजसूय यज्ञ कर। बहुतसे राजाओंको बुलाकर या क राजसूय यज्ञ कहलाता है । सगरने पर्वतके कहे अनुसार अनेक राजाओंको बुलाया। उन राजाओंमें कितने हो राजा कालासुरके ( मघुपिंगलके ) शत्रु थे सो वे सब अपनेको स्वर्गमें जानेको इच्छासे उस होमकुण्डमें पड़कर मर गये, कालासुरने अपनी मायासे उन सबको स्वर्ग जाते हुए दिखलाया तदनंतर राजा सगर भी अपनी बल्लभा रानी सुलसाके साथ यज्ञमें पड़कर मर गया और मरकर अधोगतिमें पहुंचा। इस प्रकार कालामुर अपना कार्य कर अपने स्थानको चला गया। तथा पर्वतने संसारमें वेद शास्त्रों१ को परिपाटो चलानेके लिए उसके तीन कांड बनाये। पहला कर्मकांड बनाया जिसमें यज्ञ आदि करनेका विधान, किया । दूसरा उपासनाकार बनाया जिसमें स्नान, सन्ध्या, आचमन, तर्पण, श्राद्ध, पूजन, जप, ध्यात, स्तोत्र, पाठ, तीर्थयात्रा, दान आदिके द्वारा देवों के आराधना करनेको विधि बतलाई। उसने तीसरा कांड ज्ञान बनाया। जिसमें वेदांत मार्ग, अध्यात्म स्वरूप, परमब्रह्म मय योगाभ्यास आदिकी विधिका निरूपण किया और बतलाया कि कर्मकांड और उपासनाकांडसे यह जीव शरीर और भोगादिकसे रहित मुक्त हो जाता है। इस प्रकार उसने अनेक प्रकारकी विधियोंका निरूपण किया और उसकी परम्परा चलाई। अन्तमें मरण कर वह अधोगतिको प्राप्त हुआ। इस प्रकार नवीन सामुद्रिक शास्त्रको तथा वेद-शास्त्रोंकी उत्पसि हुई। सो सम्पगमानियोंके श्रद्धान, ज्ञान वा आचरण करनेके योग्य नहीं है। पांचवें श्रुतकेवली श्रीभत्रबाहुके एक गुरुभाई थे। जिसका नाम वराहमिहर था । वे वराहमिहर । MAHARASHTRAMAHARASHTRADAMERADAKAASH Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [NE] ब्राह्मण थे उन्होंने अपने नामसे बारह हजार प्रमाण एक वराहसंहिता बनाई। उसमें बहुत-सा गणित लिखा है और बहुत-सी जन्मपत्रियोंका स्वरूप लिखा । यह सब मिष्यारूप लिखा है। इनके सिवाय अनेक लोगोंने अपनी आजीविकाके लिए अनेक पुराण तथा अनेक कथाओंके शास्त्र लिखे हैं । उनमें अनेक प्रकारके विपरीत कथन लिखे हैं। वे केवल अपने पालन-पोषण करनेके लिए लिखे हैं और अपनी आजीविका बनाये रखनेके लिए उनको प्रसिद्ध किया है। इस प्रकार खोटे शास्त्रोंकी उत्पत्ति हुई है लो सब हंडावसर्पिणीकाल बोषसे हुई है । इस प्रकार ऊपर लिखे हुए एकांत, संज्ञाय, विनय, अज्ञान और विपरीत मिथ्यात्वकी उत्पति हुई है। इनके उत्तर, भेव तीनों तिरेसठ है ये तीन सौ तिरेसठ भेद अनादिकालसे चले आ रहे हैं। तथा नवीन रूपसे जो इनकी उत्पत्ति होती है इसलिये उनको सादि कहते हैं। इन्होंका नाम अगृहीत और गृहीत है । इन दोनोंसे अगृहीतसे गृहीतका फल बहुत बुरा होता है। जिस प्रकार किसी पुरुषके पीढ़ी-दर-पीढ़ीसे किसीका ऋण चला आ रहा है वह इतना दुःख नहीं देता जितना कि नवोन हालका लिया हुआ ऋण दुःख देता है। इसी प्रकार अनादि मिध्यात्व अगृहोत है । वह अनादिकालसे इस जीवके साथ लगा हुआ है तथा फिर भी यह जोव नवीन सादि ferureent वा गृहीत मिथ्यात्वको धारण करता है वह इसे अत्यन्त दुःख देता है। ऐसा जानकर पहले कहे हुए समस्त मिथ्यात्वों को छोड़कर भगवान अरहन्त देवके कहे हुए मोक्षमार्गका यथार्थ श्रद्धान करना चाहिये इसका ज्ञान और आचरण करना चाहिये। यही इस जीवके उद्धार करनेको समर्थ है। इसके सिवाय अन्य कोई धर्म जीवका उद्धार नहीं कर सकता । यह सामुद्रिक देवकी उत्पत्तिका कमन बृहद हरिवंश तथा बृहत्पद्मपुराण तथा द्वितीय बृहत्पद्मपुराणसे लेकर संक्षेपसे लिखा है । इनके सिवाय इस संसारमें और भी अनेक लोभी जीवोंने अपना द्रव्य उपार्जन करनेके लिए अनेक कुशास्त्रोंको रचना को है। ज्योतिष्क, वैद्यक, मंत्र, तंत्र, यंत्र, शृंगार, युद्ध, कोक आदि अनेक शास्त्रोंकी रचना को 1 तथा अनेक देवी-देवताओंकी मूर्ति बनाकर स्थापन की है उनके प्रसादको खाते हैं और अपनी आजीविका चलाते हैं यह सब उनका लोभ समझना चाहिये । वे लोग इसको धर्म बतलाते हैं सो सम मिया है । इनके सिवाय लोगोंने अनेक व्रत, उपवास, उत्सव आविके दिन स्थापन कर रक्खे हैं उनसे ६५ अपनी [ ५ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्चासागर 1५१४] A आजीविका चला रहे हैं। द्वीपावली, यमद्वितीया, अक्षय नोमा पूर्णिमा, मकर संक्रांति, कर्क संक्रांति, माघकृष्णा सुपी, माघशुक्ला पंचमी, हाला, गोरी, दोलोत्सव, नवदुर्गा, रावणवध, वशमी (चैतसुवी वशमी ) अभय तृतीया, पारक्षिक बंधन, गोवत्सार्चन, श्राद्ध और वर्ष दिनको छब्बीस एकावशी आदि अनेक रूपसे धर्मको रचना कर डाली है। इसी प्रकार मुसलमान, ईसाई आदि यवन लोगोंने भी अनेक फुशास्त्रोंकी रचना कर । अपने-अपने परम्परा स्थापन करने के लिए अनेक कुशास्त्रोंकी रचना कर डाली है। सो सब मिथ्यात्व है, ऐसा जानना। २३०-चर्चा दोसौ तीसवीं ज्योतिष्काः सूर्याचंद्रमसौ ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णकतारकाश्च ।। १२ ॥ मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके ॥ १३॥ -तत्त्वार्थसूत्र अ० ४ सूत्र १२ अर्थ—सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और चारों ओर फैले हुए तारे ये पांच प्रकारके ज्योतिषो देव हैं। सो ये सब ज्योतिषो देव ढाई द्वीपमें मेरु पर्वतको प्रदक्षिणा दिया करते हैं। तस्कृतः कालविभागः। -तस्वार्थसूत्र अ० ४ सूत्र १४ प्रश्न-इन्हीं घूमते हुए ज्योतिषी वेवोंसे कालका विभाग होता है। ऐसा सूत्रोंमें कहा है । सो ये ज्योतिषी देव जो मेरुको प्रदक्षिणा देते रहते हैं सो कुछ अन्तरसे देते हैं या मेरुसे लगकर ही घूमते हैं। समाधान-मेरु पर्वतसे ग्यारहसौ कईस योजन हटकर साधारण तारे तथा प्रह, नक्षत्र घूमते हैं। सूर्य, चन्द्रमा मेरु पर्वतसे बहुत हटकर जम्बूद्वीपको परिषिके समीप जाकर घूमते हैं। उसमें भी उत्तरायण, दक्षिणायन होते रहते हैं सो उत्तरायणके समय कम अन्तर रहता है और दक्षिणायनके समय अधिक अन्तर रहता है । ऐसा त्रिलोकसारमें लिखा है। यथा-- इगवीसेयारसयं विहाय मेरु चरति जोइगणा। ___ चंदतियं वज्जित्ता सेसा हु चरंति एक्कपहे ॥ ३४५ ॥ LAaram. Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ५१५ ] Re14 २३१ - चर्चा दोसौ इकतीसवीं तीसरे वर्ष में एक अधिक मास ( लोंदका महीना ) होता है। जो संसारमें भी प्रसिद्ध है और ज्योतिषके गणितशास्त्र में भी लिखा है । सिद्धांतशिरोमणिमें लिखा है ---- द्वात्रिंशद्भिर्गतैर्मासैर्दिने षोडशमेव च । चतुर्थघटिकानां च यतितोधिकमासकः ॥ अर्थ- बत्तीस महोना सोलह दिन और चार घड़ी बीत जानेपर एक अधिक मास होता है। ऐसा ज्योतिषशास्त्रों में लिखा है। तथा पंचांग आदिमें भी लिखा जाता है और व्यवहार में भी ऐसा ही बर्ताव किया जाता है। सो जनमत इसका वर्णन किया है या नहीं? समाधान -लघु हरिवंशपुराण, बृहद्हरिवंशपुराण, उत्तरपुराण आदि ग्रंथोंमें लिखा है कि यादव लोग अब द्वारिकासे निकल गये थे और फिर वापिस आये थे तब वे अधिक मासको भूल गये थे। इसीलिए द्वारिकाके भस्म होते समय सब जल गये थे, ऐसा वर्णन है। तथा त्रिलोकसारमें लिखा है कि एक महीने के साथ एक दिन बढ़ता है । इस हिसाब से तोस महीने में तीस दिन बढ़ जाते हैं अर्थात् ढाई वर्षमें एक महीना बढ़ जाता है। अथवा पांच वर्ष में वो महीने बढ़ जाते हैं। यथा इगमासे दिणवड्ढी वस्से बारह दुवस्सगे सदले | अहिओ मासी पंचयवासप्पजगे दुमासहिया ॥ ४१० ॥ प्रश्न- हीनमास किस प्रकार होता है ? उत्तर --- मुहूर्तचिंतामणिमें लिखा है कि इष्टार्कसंक्रांतिविहीनयुक्तो, मासोधिमासः क्षयमासकस्तु । अर्थात् - यदि एक अमावस्यासे लेकर दूसरी अमावस्या तक एक महीने में यदि वो संक्रांति पड़ जाँय तो वह क्षयमास गिना जाता है। ऐसा परमतके ज्योतिषशास्त्रमें लिखा है। जैनमतके शास्त्रोंमें इसका विशेष वर्णन देखने में नहीं आया । प्रशन - अधिक मासमें कार्य अकार्यको विधि किस प्रकार करनी चाहिये ? ११५ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तर-जो महीना अधिक हो उसके व्रत-विधान आवि दूसरे महीनेमें करने चाहिये, पहिलेमें नहीं। सो ही लिखा हैपासागर पस्मिन् संवत्सरे स्याता दौमासावधिको यदा। उत्तरे व्रतकार्याणि प्रथमे न कदाचन ॥ ! ५१६ अभिप्राय यह है कि कृष्णपक्षके व्रत पहले महीनेमें कर लेने चाहिये और शुक्लपक्षके व्रत दूसरे महीनेमें करने चाहिये । (पहले महीनेका शुक्लपक्ष और दूसरे महीनेका कृष्णपक्ष अधिक मास गिना जाता है) २३२-चर्चा दोसो बत्तीसवीं प्रश्न-तीर्थरोंके कल्याणकोंमें इन्द्राविक चतुणिकायके देव मध्यलोफमें आते हैं। उनमें इन्द्रके हाथियोंकी सेनामें ऐरावत हाथी मुख्य बतलाया है और उसे एक लाख योजनका बतलाया है। सो वह एक लाख । योजन ऊँचा है या एक लाख योजनका उसका विस्तार है। समाधान-ऐरावत हाथीका विस्तार एक लाख योजन है। उसकी ऊँचाई पच्चीस हजार योजन है। । सो ही आदिपुराणमें भगवानको केवलज्ञाम उत्पन्न होने के समय बाईसवें पर्वके ५२ श्लोकमें लिखा है। यथा इति व्यावर्णितारोहपरिणाहचतुर्गुणम् । गजानीकेश्वरश्चक्रे महेरावतदन्तिनम् ।। प्रश्न-भावा मंगलमें उस हाथीके सौ मुंह बतलाये हैं। यथा-'योजन लक्ष गयन्द बबन सौ निरमये' सो क्या ठीक है उत्तर-किसी आर्ष ग्रन्थमें तो सौ मुख बतलाये नहीं हैं केवल भाषाकारके बच्चन है तथा काष्ठसंघ आम्नायके वचन हैं । शास्त्रोंमें इस ऐरावत हापोके बत्तीस मुख तो लिखे हैं। सो हो आदिपुराण बाईसर्वे पर्वमें पचासवे इलोकमें भगवामके केवलज्ञानकी उत्पत्तिके समय लिखा है तमैरावतमारूढः सहलाक्षोधुतत्तराम् । पद्माकर इवोत्फुल्लपंकजो गिरिमस्तके ॥५३॥ | द्वात्रिंशद्वदनान्यस्य प्रत्यास्यं च रदाष्टकम्। सरः प्रतिरदं तस्मिन्नब्जिन्येका सरः प्रति ॥५३॥ द्वात्रिंशत्प्रसवास्तस्यां तावत्प्रमितपत्रकाः। तेषु पत्तेषु देवानां नर्तक्यस्तत्प्रमाः पृथक् ॥५४॥ A लघु आरिपुराणमें भी बारहधे सर्गमें लिखा है। द्वात्रिंशब्ददनान्यस्य दन्तां अष्टौ मुखं प्रति। प्रतिदन्तं सरश्चेकमब्जिन्यैका सरः प्रति ॥१७ । Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर - ११७ ] हरिवंशपुराण में अट्ठाईसवें सर्गमें ऐसा ही लिखा है अनेकवर्णनोपेतं दिव्यरूपं गतोपमम् । नागदत्ताभियोग्येशो नागमैरावतं व्यधात् ॥ ५० ॥ तमैरावणमारूढः सहस्राक्षः तरां बभौ । उद्याचल मारुतो यथा भानुः खतेजसा ॥ ५१ ॥ द्वात्रिंशब्ददनान्यस्य सदक्षाणि भवन्ति हि । सिद्धान्तसार प्रदोषकके छठे अधिकारमें लिखा है अथेन्द्रस्यैरावतदन्तिनः किंचिद्वर्णनं करोमि । जम्बूद्वीपप्रमाणगं वृत्ताकारं शंखेन्दुकुन्दधवलं नानाभरणघंटा किंकिणीतारिका हेमकक्षादिभूषितं कामगं कामरूपधारिणं महोनतमैरावतगजेन्द्रं नागदत्ताभियोग्येशो वाहनामरो विकरोति । तस्य दंतिनः बहुवणविचित्रतानि रम्याणि द्वात्रिंशद्वदनानि संति । श्रीपार्श्वपुराण के अठारहवें सर्गमें लिखा है तमैरावतमारूढः सहस्राक्षो व्यमान्तराम् । उदयाचलमारूढो यथा भानुः स्वतेजसा ॥ १६ ॥ द्वात्रिंशब्ददनान्यस्य सद्दन्तानि भवन्ति च । इन सब प्रमाणोंसे बसीस मुख सिद्ध होते हैं। प्रश्न-रूपचन्द भाषा पंच मंगलको तुम काष्ठसंघका किस प्रमाणसे बतलाते हो उत्तर --- इसी पंख मंगलमें आगे चौथे मंगलमें समवशरणका वर्णन करते समय तीन गंधकुटी बतलाई उसके ऊपर भगवान के विराजमान होनेका सिंहासन बतलाया। तदनन्तर फिर उसके ऊपर एक कमल बतलाया । और फिर उसके ऊपर अन्तरिक्ष अधर ) भगवान् अरहन्तदेवका विराजमान बतलाया । जैसा कि उसमें लिखा है । यथा--- मध्यप्रदेश तीन मणिपीठ तहां बनी । गन्धकुटी सिंहासन कमल सुहावनी || तीन छत्र सिर शोभित त्रिभुवन मोहिये । अन्तरिक्ष कमलासन प्रभुतन सोहिये ॥ इस कथमसे काष्ठसंघका सिद्ध होता है। क्योंकि यह कथन मूलसंघका नहीं है। मूलसंघमें श्रीभवभ १ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ देवके समवशरणको रचनाका वर्णन करते समय भगवजिनसेनाचार्यने सिंहासनके ऊपर कमलका वर्णन नहीं है किया है। केवल सिंहासन पर हो चार अंगुल मधे भगवानका विराजना लिखा है। सो ही आदिपुरागके तेईसवे पर्व में लिखा हैमेखलायां तृतीयस्यामथैक्षिष्ट जगद्गुरुम् । वृषभं...............श्रीमद्गंधकुटीस्थिते ॥ तद्गर्भरत्नसन्दर्भरुचिरे हरिविष्टरे । मेरुश्रृंग इवोत्तुंगः सुनिविष्टमहासनुः ।। ___ अर्थात्-भगवान ऋषभदेव सोसरी मेखलाकी गंधकुटी पर रखे हुए सिंहासन पर विराजमान थे। प्रश्न-सिंहासन पर कमलका वर्णन कई जगह आया है । देखो तिह विच सिंहासन वन्यो जगसार हो, ऊपर कमल अनूप। अन्तरिक्ष जापर रहे जगसार हो, अतिशय श्री जिनभूप ॥ इसके सिवाय समवसरणके पूजनके पाठ तथा और भी ग्रन्थों में कमलका वर्णन लिखा है । सो इसका निषेध क्यों करना चाहिये । शास्त्रोंमें लिखा है इसलिये हम कमल बनाते है । उसर--आदिपुराणके २३ पर्वमें तथा इस प्रकरणके अन्यपर्यो में देखनेपर भी ये श्लोक मिले नहीं इससे मालूम होता है कि ये श्लोक लघु आदिपुराणके होंगे । आदिपुराणमें लिखा हैविष्टरं तदलंचक्रे भगवानादितीर्थकृत् । चतुर्भिरंगुलैः स्वेन महिम्नाऽस्पृष्टतत्तलः॥ -पर्व २३ श्लोक २९ । अर्थात् भगवान ऋषभदेव उस सिंहासनपर अपने अगुलोंसे चार अंगुल ऊंचे अधर विराजमान थे। ये वचन मूलसंघके नहीं हैं । यदि मूलसंघके होते तो जिनसेनाचार्य कैसे भूलते। यवि कदाचित् ऐसा मान भी लिया जाय तो फिर आठ प्रातिहार्यके बदले नौ प्रातिहार्य मानने पड़ेंगे। सो होते नहीं। प्रातिहार्य आठ ही होते हैं । जैसा कि लिखा है अशोकवृक्षः सुरपुष्पवृष्टी दिव्यध्वनिश्वामरमासनं च । भामंडलं दुदुभिरातपत्रं सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ॥ बालमनचाहिन्य [५१० Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर Its 1 कराराम इसप्रकार प्रातिहार्य आठ ही होते हैं। यदि सिंहासन के ऊपर एक कमल और मान लिया जायगा तो नौ प्रातिहार्य मानने पड़ेंगे सो है नहीं इसलिये भगवान सिहानपर ही विराजमान हैं, कमल पर नहीं । २३३ - चर्चा दोसौ तेतीसवीं प्रश्न -- एक दिनके दीक्षित मुनिराजको भी सौ वर्षकी दीक्षित आर्जिका नमस्कार करे या नहीं ? समाधान --- एक दिनके दीक्षित मुनिराजका सौ वर्षकी दीक्षित अजिंका अथवा अजिकाओंको गुराणी गणिनी अजिफा भी नमस्कार करती है इसका कारण यह है कि एक विनके दीक्षित मुनिराज महाव्रती हैं और अजिका महाव्रती नहीं हैं उसके उपचारसे महाव्रत है, साक्षात् नहीं है। इसलिये तुरंत वीक्षित मुनिको अधिक दिनोंकी दीक्षित आर्जिका भी आकर नमस्कार करती है। सो हो नीतिसारमें लिखा हैमहत्तराप्यर्यिकाभिवंदते भक्तिभाविता । अद्यदीक्षितमप्याशुवतिनं शान्तमानसम् ॥ १॥ २३४ - चर्चा दोसौ चौतीसवीं प्रश्न- गृहस्य वा मिथ्यादृष्टी वा स्पृश्य शूत्र वा अस्पृश्य शूद्र जो मुनिराजको वंदना करते हैं सो मुमिराज सबको एकसो घर्मवृद्धि देते हैं अथवा और भी कुछ कहते हैं। समाधान -- यदि सम्यग्दृष्टो व्रती गृहस्य मुनिराजको नमस्कार करें तो मुनिराज उनको धर्मवृद्धि कहते हैं। यदि उच्च वर्णका मिध्यावृष्टि नमस्कार करता है तो उससे 'धर्मबुद्धि हो' ऐसा कहते हैं। यदि भील बा म्लेच्छ आदि शूद्रादिक नमस्कार करते हैं तो उनको 'धर्मलाभ' कहकर संतुष्ट करते हैं । अथवा 'सम्यग्वर्शनकी शुद्धि हो' ऐसा कहते हैं । यदि चांडाल आदि अस्पृश्य शूद्र नमस्कार करते हैं तो उनके लिये 'पापक्षयोस्तु' 'तेरे पापक्षय हों' ऐसा कहते हैं । इसप्रकार मुनिराज वंदनाके बदले कहते हैं सो ही नीतिसार में लिखा हैधर्मरसिक शास्त्र में भी लिखा है- धर्मवृद्धिगृहस्थस्य व्रतिनः शुद्धचेतसः । मिथ्यादृष्टेः सुवर्णस्य धर्मबुद्धिरुदाहृता ॥ १. पांडुक शिलापर जो सिंहासन है उसपर भी कमल नहीं है। अकृत्रिम चैत्यालयों में भी भगवान सिहासन पर विराजमान हैं कमक पर नहीं । ALMOS य [ ५१५ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२.1 । किरातान् म्लेच्छकान् सर्वान् धर्मलाभेन तोषयेत् । सम्यग्दर्शनशुद्धस्य मातंगस्य वदेन्मुनिः।। । पापक्षय इति स्पष्टं न तस्यास्ति परो विधिः। धर्मरसिक शास्त्र में भी लिखा है-- श्रावकाणां मुनीन्द्रा ये धर्मवृद्धिं ददत्यहो । अन्येषां प्राकृतानां च धर्मलाभमतःपरम् ॥ इस प्रकार शास्त्रोंको आम्नाय है। २३५-चर्चा दोसौ पैंतीसवीं प्रश्न--श्रावक पुरुषोंको मुनियोंसे वा अजिकाओंसे नमोऽस्तु किस प्रकार करना चाहिये। समाधान-मुनिराज गुरुको तो नमोस्तु करना चाहिये । ब्रह्मचारियोंको वंदना करनी चाहिये । अजिंकाओंको भी वंदामि करनी चाहिये । श्राधकोंको परस्पर इच्छामि वा इच्छाकार कहना चाहिये तथा लोकमें जुहार कहना चाहिये । अपने सज्जनोंको नमस्कार करना चाहिये तया योग्य-अयोग्य मनुष्योंको देखकर यथायोग्य उनका लिनय करना चाहियो ! जो दिशा तप और गण आदिसे श्रेष्ठ हों और अपनेसे आयुमें छोटे हों तो भी उनको बड़ा मानना चाहिये। यदि कोई जैनधर्मको धारण करनेवाला मनुष्य धर्मात्मा हो परंतु वह रोगी वा दुःखी हो तो मीठे वचन कहकर उसका समाधान करना चाहिये और उसे संतुष्ट करना चाहिये । जो मूर्ख अभिमानी जिनधर्मरहित कुवादी पुरुष हों उनको देखकर मौन धारण करना चाहिये। जो जैनधर्मको प्रभावना करनेवाले हैं उनसे नम्रोभूत होकर भक्तिके साथ मस्तक नवाकर मनोहर और मिष्ट वचन कहने चाहिये।। गृहस्थ श्रावकोंको इस प्रकार करनेका अधिकार है । सो ही धमरसिक ग्रन्थमें लिखा हैनमोस्तु गुरवे कुर्याद्वन्दना ब्रह्मचारिणे। इच्छाकारं समिभ्यो वन्दामि स्वर्णकादिष ॥१॥ आधाः परस्परं कुर्युरिच्छाकारं स्वभावतः । जुहारुरिति लोकेस्मिन् नमस्कारं स्वसज्जनाः॥ ॥ योग्यायोग्य नरं दृष्ट्वा कुर्वन्ति विनयादिकम् । विद्यातपोगुणैः श्रेष्ठो लघुश्चापि गुरुर्मतः॥ रोगिणो दु:खितान् जीवान जैनधर्मसमाश्रितान् ।। संभाष्य वचनैमिष्टः समाधान समाचरेत् ॥ ४॥ Dar Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सापर 1 मूर्खान मूढाश्च गर्विष्ठान जिनधर्मपिवर्जितान् । कुवादवादिनेऽस्यर्थ त्यजेन्मौनपरायणः॥ नम्रीभूताः परं भक्त्या जैनधर्मप्रभावकाः। तेषामुद्वर्त्य मूर्खानं घूयाद्वाचं मनोहराम् ॥६॥ नीतिशतकमें भी इसीप्रकार लिखा है। निम्रन्थानां नमोस्तु स्यादर्जिकानां च वंदना । तस्मै दानं च दातव्यं यः सन्मार्ग प्रवर्तते ॥ पाषंडिभ्यो ददहानं तन्मिथ्यात्वप्रवर्धकम् । श्रावकस्योच्चैरिच्छाकारोऽभिधीयते ॥२॥ si- को इलाकार करना बतलाया सो पहले चतुर्थकालमें किलोने किसीको किया भी है ? समाधान-रत्नोपमें एक अमितगति नामका विद्याधर मुनि हो गया था। उसके पास सिंहपीव और । बराहग्रीव नामके उसके पुत्र आये थे उसी समय सेठ चारवत्त वहां पहुंचा था। तब उन मुनिने अपने दोनों पुत्रोंसे कहा था कि यह चारुवत्त मेरा मित्र है तुम इसे इच्छाकार करो। तब उन दोनों पुत्रोंने उठकर चावतसे इच्छाकार किया । ऐसा कथन सप्तव्यसन चरित्रमें लिखा है । यथातदा तु मुनिना प्रोक्तं पुत्रो मित्रं ममैव हि । चारुदत्ताभिधानोयमिच्छाकारं कुरु द्रुतम् ।। यही कथन पुण्यालवपुराणमें आया है। रामचन्द्रविरचित पुण्यालबमें लिखा है तत्पुत्रौ सिंहनीववराहग्रीवो सविमानौ तं वंदितुमागतो । वंदित्वोपवेशने क्रियमाणे सति तेनोक्तं चारुदत्तस्येच्छाकारं कुरुतमिति कृते तस्मिन् । इसप्रकार लिला है लोगोंमें जो परस्पर जुहारु करनेके लिये कहा है उसको कथा इसप्रकार है। । जिणवरधम्मं गहियं हणेइ दुट्ठकम्माणं । संघइ आसवदारं जुहारु जिणवरो भणियं ॥ अर्थात्-ज से जिनवर धर्मको ग्रहण करनेवाला, हकारसे दुष्ट कर्माको हनन करनेवाला, और रु से आमवरूपी द्वारको रोषन वा बंद करनेवाला जो हो उसको जुहाए कहते हैं। दूसरी जगह भी लिखा हैयुगादिशषभं देवं हारिणं सर्वसंकटम् । रक्षन्ति सर्वजीवानां तस्माज्जुहारुमुच्यते ॥ . ६६ Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीसामर (५२२ } SHAREitteAIISEAR अर्थात–जु से युगको आदिमें होनेवाले वृषभदेवका ग्रहण है। हा शाम्बसे समस्त संकटोंसे दूर करने. ॥ वालेका ग्रहण है और र से समस्त जीवोंकी रक्षा करनेवालेका ग्रहण है । ऐसा यह जुहारु शम्ब है। २३६-चर्चा दोसो छत्तीसवीं प्रश्न-श्वेतांबरोंके साधुओंके मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदनासे जीवन पर्यंत छहों कायको हिंसाका त्याग होता है । सब मुहपट्टी न लगावे तो बोलने पर या सिद्धांताविकका पाठ करते समय या धर्मोपदेश देते समय वायुकायिक जीवोंकी हिंसा हो तथा वायुकायिक जीवोंको हिसा होनेपर उनके अहिंसा महानत नहीं पल सकता इसलिये श्वेतांबरी लोग जो मुहपट्टी रखते हैं सो बयाके लिये हो रखते हैं। ऐसा मानना चाहिये। समाधान-मुहपर पट्टो रखना दिगम्बर जैनधर्मके विरुद्ध है। महानती होकर वस्त्र रखना श्वेताम्ब। रियोंमें ही बतलाया है । दिगम्बर साधु तो चार अंगुल वस्त्र तो क्या तिल तुषमात्र भी परिग्रह वा वस्त्र नहीं रखते । क्योंकि वस्त्र रखनेवाले अनेक प्रकारके स्वाग बनाते हैं। नीतिसारमें लिखा है दिगम्बरमते नैव नैव पटो दिगम्बरः।चतुरंगुलमानस्तु शस्यते वदनेष्वपि ।। ___ जो वस्त्र रखते हैं सो निगोबके पात्र हैं । सो हो षापाग्में लिखा हैजहि जाइरुवसरिसा तिलतुसमत्तं सुजेह अत्थेसु।जहि लेहि अप्प बहुगं तत्तो पुण जाइ णिगोय।। यदि उस मुंहपट्टीको बयाके लिये कहोगे सो भी ठीक नहीं है। क्योंकि जब मुनियों के हिसा आविका सर्वथा त्याग है तब अपने आप होनेवाली हिंसाके स्वामी वे मनि नहीं होते जो हिंसा, मन, वचन, कायसे वा कृत, कारित, अनुमोवनासे की जाती है उसीसे वत भंग होता है। जो हिंसा स्वतः होती है उससे व्रत भंग नहीं होता। यवि एक महको बन्द करने के लिए पट्टी बांध लो तो फिर नाक आवि बाकीके नव द्वारोंको रोकनेका क्यों प्रबन्ध नहीं किया । उनके द्वारा जीवोंकी हिंसा क्यों होने दी। उसका भी प्रबन्ध करना चाहिये। इसके सिवाय सबसे बड़ी बात यह है कि उस पट्टीपर मुहके उच्छाससे तथा मुंहको लार व यूक, 1 आविके सम्बन्धसे, पसीनासे अनेक प्रकारके त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं तथा मरते रहते हैं सो महाव्रतो ऐसो । Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाँसामर १२३ ] । साक्षात् श्रस जीवोंकी संकल्पी हिंसा किस प्रकार कर सकता है । अर्थात् कभी नहीं। इसलिए मुंह पर पट्टो । बांधना मिथ्या श्रद्धान, मिथ्या ज्ञान और मिथ्या आचरण है। इसीलिए दिगम्बर आम्नाय में इसका त्याग करना लिखा है। २३७-चर्चा दोसौ सैंतीसवीं प्रश्न---श्वेताम्बो महावती साओंको मारह कुलोंका आहार लेना निर्वोष बतलाया है। यदि किसी दातारका कुल शूद्र हो तो इनको क्या दोष आता है ? समाधान—यह उत्तम कुल, उत्तम जाति तथा उत्तम धर्मका मार्ग नहीं है। यह तो शूद्रोंका भ्रष्टाधारमय, मद्य, मांस भक्षियोंका धर्म है । परन्तु ये श्वेताम्बरी इसको भी ग्रहण कर लेते हैं। ये श्वेताम्बर साधु जिन अठारह घरोंका भोजन ग्रहण कर लेते हैं उनके नाम ये हैं। जैसा कि नोतिशतक लिखा हैगायकस्य तरालस्य नीचकमोपजीविनः । मालिकस्य विलिंगस्य वेश्यायाः तैलिकस्य च ॥ दीनस्य वतिकायाश्च हिंपकस्य विशेषतः। मद्यविक्रयिणो मद्यपायिसंसर्गिणश्चन ॥ क्रियते भोजनं गेहे यतिना भोगमिच्छता। एवमादिकमप्यन्यत् चिन्तनीयं स्वचेतसा॥ PA जो गा-बजाकर उपजीविका करें ऐसे कमला मत ढोली आदिको गायक कहते हैं। जो नाच कर वा नाटक कर पेट करते हैं । उनको नृत्यकार कहते हैं । ये दोनों हो नोच कर्म कहलाते हैं। मालो, मसक, वेश्या, तेलो, दीन-भिलारी, खाली, कलाल, मद्य पोनेवाले आवि शरवसे मांस-भक्षी, शहद खानेवाले, हिंसक, यवन, " म्लेच्छ, भोल, जाट, गूजर, तबोली, कायस्थ, काछो, दर्जी, नाई, कुम्हार, कुलमी, धाकड़, मोना आवि छात्रों के घर यतियोंको आहार नहीं करना चाहिये । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीन वकि सिवाय अन्य घरका भोजन जो मुनि ग्रहण करते हैं उनके मद्य, मांस, मधुके भक्षणका मिथ्यात्वका तथा हिंसाविक महापापोंका दोष माता है, अन्तराय, भ्रष्टाचार, निर्दयपना मावि अनेक दोष प्राप्त होते हैं तथा अनेक वर्षोंके लगमेसे मुनिपरका नाश हो जाता है। मुनिपवका नाश होनेसे बीमा भंग हो जाती है और दीक्षा भंग होनेसे नरकाविक कुगतियोंमें माना ! Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पड़ता है । इसलिये मुनियाँको ऊपर लिखे शूगोंके घर कभी भोजन नहीं करना चाहिये । जो साघु ऐसे शूलोंके घर आहार लेते हैं वे सा नहीं हैं। क्योंकि ऊपर लिखे हुए सब नोंके हो समान हैं। चर्चासागर प्रश्न--मुनि ऊपर लिले शूद्रोंके यहाँ तो आहार ले नहीं तथा ब्राह्मणाविकके घर भोजनको विधि [ २४] मिले नहीं तो फिर क्या करना चाहिये ? उत्तर-मुनियोंका धर्म ही अनेक परोषहों का सहन करना है। इसलिए निर्दोष विषिके मिलने पर हो उन्हें आहार करना चाहिये । ऊपर लिखे शूद्रोंके धर कभी भोजन नहीं करना चाहिये। क्योंकि अपने हाथसे । चूल्हा जलाकर रसोई बनाकर भोजन कर लेना अच्छा है परन्तु मिथ्यावृष्टि ऊपर लिखे हुए जातिवालोंके घर A भोजन करना अच्छा नहीं। इसका भी कारण यह है कि ऊपर लिखे हए मिथ्यावृष्टि छद्रोंके यहाँ जो भोजन तैयार होता है वह समस्त पापोंके समागमसे उत्पन्न होता है। इसलिए उनके घरका भोजन नहीं करना चाहिये । यद्यपि मुनियों को अपने हापसे भोजन बनाना महापापका कारण और वीक्षा भंग करनेका कारण है महावतो ऐसा कभी नहीं करते तो भी शूत्रों के घरको अपेक्षा उसे उत्तम और योग्य बतलाया है। बालोंके घरका । आहार इतना निन्ध और अयोग्य है। सो हो नीतिशतकमें लिखा है.-- वरं कार्य स्वहस्तेन पाको नान्यत्र दुई शाम् । दुई शां मंदिरे यस्मात् सर्वसावयसंगमः॥ २३८-चर्चा दोसौ अड़तीसवीं प्रश्न-इस चतुर्यकाल में जो धर्मका विच्छेद हुआ था। मुनि, अजिका, श्रावक, श्राविका नहीं रहे थे। । सो कोनसे समयमें किन तीर्थरोंके समय में और कितने काल तक विच्छेद रहा था? दर्तमान समयमें कितने हो ब्राह्मण, अत्रिय, वैश्योंमें वा कितने हो कूल-कल र जैनियोंमें धरेजा चलने लगा है तथा कितने हो । लोग मुसलमान बा म्लेच्छोंके साथ खाने लगे हैं परंतु सदाचारको वा शुद्धाचारकी स्थिरता जाति और कुलकी शुद्धता पर तथा भोजन-पानकी शुद्धता पर ही निर्भर करता है । घरेजा करनेवालों की जाति वा कुल कमो शुद्ध नहीं हो सकता और शूदोंके __ साथ खाने-पीने वालोंका आचरण कभी शुद्ध नहीं हो सकता। धरेजासे जो सन्तान वा शरीर पिंड उत्पन्न होता है वह भो। अशुद्ध ही होता है। इसलिये धरेजा करनेवालोंको, उसको सन्तानको, शूद्रोंके साथ खानेवालोंको वा उनके साथ रहनेवाले उनको सन्तानोंको मुनियोंके लिये आहार देनेका अधिकार नहीं है और न जिनपूजन आदि करनेका अधिकार है। मुनियों को भी ऐसे घरोंका भोजन नहीं लेना चाहिये। जो लेते हैं ये मुनिपदसे भ्रष्ट हैं क्योंकि बरेजा करनेवाले मी शूद्रोके समान हैं और यवन, म्लेच्छ आदिके साथ खाने-पीनेवाले भी रुद्रोंके समान हैं। - - Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधान--इस चौथे कालमें इंगवसर्पिणी कालके बोबसे श्रीपुष्पदन्त तीर्थकरके समयसे लेकर श्री । शांतिनाथ तीर्थङ्करके समय तक का मारता हुआ और घटना हुआ विमछेव रहा था। सो हो त्रिलोकसारमें! वर्षासागर [१२] पल्लतुरियादि चय पल्लंतच उत्थूण पादपरकालं। ण हि सद्धम्मो सुविधीद् सतिअन्ते सगंतरए ॥ ८१४॥ अर्थ-श्रीपुष्पदन्त और शोतलनायके बीचमें पाव पल्यका विच्छेव रहा । शीतलनाथ और श्रेयांसनाथके बीच आधा पल्यका विच्छेद रहा। श्रेयांसनाथ और वासुपूज्य के मध्य में पौन पल्य तक धर्मका विच्छेव रहा। श्रीवासुपूज्य और विमलनाथके मध्यमें एक पल्यका विच्छेद रहा । श्रीविमलनाथ और अनन्तमाथके मध्यमें पौनी पल्य तक धर्मका बिच्छेद रहा। अनन्तनाथ और धर्मनाथके मध्य में आधे पल्य तक धर्मका विच्छेद रहा । तथा धर्मनाथ और शान्सिनायके मध्य में पाव पल्य तक धर्मका विच्छेद रहा। इस प्रकार विच्छेदका काल पावपल्यसे लेकर एक पल्य तक बढ़ता गया और फिर घटता हुआ पावपल्य तक रहा उसका यन्त्र इस प्रकार हैजिन तीर्थहरोंके समयमै धर्मका बिच्छेद रहा जितने समय तक विच्छेद रहा पुष्पवम्त पावपल्य शीतलनाथ आपापल्य श्रेयांसनाथ पौनपल्य वासुपूज्य एकपल्य विमलनाथ पौनपल्य अनंतनाथ आधा पल्य धर्मनाथ पावपल्य २३६-चर्चा दोसौ उन्तालीसवीं प्रश्न-तीर्थकर भगवान गृहस्थाश्रममें जन्मदिनसे लेकर वीक्षा समय तक जो वस्त्राभरण पहनते हैं सो देवोपनीत (वेवोंके यहाँसे आये हुए ) पहनते हैं । सोधे वस्त्राभरण कहाँसे आते हैं और उन्हें कौन लाता है। Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधान-सौधर्म और ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र स्वर्गाके युगलोंमें जो मानस्तम्भ है उसपर काबड़के आकारके संकलसे लटकते हुए दो-दो पिटारे हैं। उन पिटारोंमे तीर्थस्थरोंके पहननेके वस्त्राभरण रहते हैं । वहाँसे वर्षासागर वस्त्र, आभरण भगतान के पास पहुँलाने जाते हैं और वे भगवान उनको धारण करते हैं। उसमें भी इतना विशेष है कि सौधर्म स्वर्गके मानस्तम्भके पिटारेके वस्त्राभरण तो पांचों मेरुसम्बन्धी पांचों भरतक्षेत्रोंमें उत्पन्न हुए तीर्थङ्करोंको पहुँचाये जाते है । ईशान स्वर्गके मानस्तम्भके पिटारेके वस्त्राभरण पांचों मेरुसम्बन्धी ऐरावत क्षेत्रों में उत्पन्न हुए तीर्थकरोंको पहुँचाये जाते हैं । सनत्कुमार स्वर्गके मानस्तम्भके पिटारेके वस्त्राभरण पूर्वविवेहोंमें उत्पन्न हुए तीर्थरोंको पहुंचाये जाते हैं । माहेन्द्र स्वर्गके मानस्तम्भके पिटारेके वस्त्राभरण पश्चिम विदेहोंमें उत्पन्न हुए तीर्थङ्करोंके यहां पहुंचाये जाते हैं। उन पिटारोंकी रक्षा देवियां । करती है और वे ही उन वस्त्राभरणोंको पहुंचाती। उनकी ऊंचाई आदिका वर्णन अन्य ग्रन्थ चाहिये। यहाँ संक्षेपसे कहा है सो हो त्रिलोकसारमें लिखा है चिट्ठति तत्य गोरुदचउत्थवित्थार कोसदीहजुदा । तित्थयराभरणचिदा करंडया रयणसिक्कधिया ।। ५२० ।। तुरियजुद विजुदछज्जोयणाणि उवरिं अधोवि ण करंडा। सोहम्मदुगे भरहेरावदतित्थयरपडिबद्धा ॥ ५२१ ।। । साणककुमारजुगले पुब्ववरविदेहतित्थयरभूसा । टविदच्चिदा सुरेहिं कोडीपरिणाहि बारंसो॥ २४०-चर्चा दोसौ चालीसवीं प्रश्न-इस समय के जिनाप्रमो भोजनके समय बस्त्रोंको उतारकर नग्न होकर भोजनपान करते हैं सो है इसका क्या अभिप्राय है ? समाधान-षट्पाहुड़में लिखा है। णिचेलेयाणिपत्तं उवइट्ठपरमजिणवरिंदेहिं ।इकोवि मोक्खएमग्गो सेसाय असग्गया सब्वे ॥ अर्थ-भगवान अरहंतदेवने उत्कृष्ट मोक्षमार्ग वस्त्ररहित नग्नरूप ही बतलाया है। इससे सिद्ध होता Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ है कि मोक्षमार्ग नग्नरूप है । जो जिनाश्रमी वती होकर भी नग्न नहीं रह सकते वे भोजनके समय नग्न होकर भोजन करते हैं और पाणिपात्र में भोजन करते हैं । यही अभिप्राय है। चिसिागर २४१-चर्चा दोसौ इकतालीसवीं प्रश्न-ज्ञान पांच हैं-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलनान । इनमेंसे किसी एक जीवके एक ही समयमें अधिकसे अधिक कितने ज्ञान हो सकते हैं । सब हो सकते हैं या नहीं। समाधान—किसी एक जीवके एक हो समयमें अधिक से अधिक बार ज्ञान तक होते हैं, पांचों ज्ञान एक साथ नहीं होस । यदि एक मान होता वाबसमान होला । केवलज्ञानके साथ और कोई ज्ञान नहीं होता। । इसका भी कारण यह है कि केवलज्ञान क्षायिक ज्ञान है । मानावरणका अत्यंत क्षय हो जानेपर क्षायोपमिक । ज्ञान नहीं हो सकते क्योंकि मायोपमिक चारों ज्ञानोंमें देशघाती कर्मोके उपयको अपेक्षा रहती है। केवल शान समस्त ज्ञानावरण कर्मके नाश होनेसे होता है। इसीलिये यह अकेला होता है। यदि दो ज्ञान होंगे तो मतिज्ञान, श्रुतज्ञान ये दो ज्ञान होंगे। यदि तीन होंगे तो मतिजान, श्रुतझान, अवधिज्ञान अथवा मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, मनःपर्ययशान ये तीन ज्ञान होंगे। यदि चार होंगे तो मतिबान, श्रुतहान, अवधिप्तान और मनःपर्ययज्ञान येचार ज्ञान होंगे सो ही मोक्षशास्त्र लिखा है तदादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्ना चतुर्व्यः। -अ० २ सूत्र ४३ २४२-चर्चा दोसो वियालीसवीं प्रश्न-चतुर्णिकाय देवोंके मैथुन किस प्रकार होता है। किसके समान होता है। सबके समानरूपसे । । होता है या अलग-अलग रूप से । समाधान-मोक्षशास्त्रमें लिखा है कायप्रवीचारा आ ऐशानात् । -अ० ४ सूत्र ७ १. साधुओंकी दीक्षा लेकर भी जो नग्न नहीं रहते वे वास्तवमें साधु नहीं हैं। ऐसे लोगेको भोजनके समय भी नग्न होना व्यर्थ है। उन्हें चाहिये कि वे सातवीं या सातवी प्रतिमासे ऊपरको दोक्षा लेवे जिससे उन्हें यह मायाचारोन करनी पड़े। Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर १२८ ] 11/1 अर्थात् भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क और सौधर्म तथा ऐशान स्वगौके देवोंके मनुष्योंके समान शरीर से प्रवीधार होता है। स्त्री पुरुषोंके परस्पर मंथुन सेवनको प्रवीचार कहते हैं । सो ऊपर लिखे देवोंके तो मनुष्योंके समान शरीरसे प्रवीचार होता है । तथा आगेके स्थगोंमें भिन्न-भिन्न रूपसे प्रयोचार होता है। जैसा कि मोक्षशास्त्र में लिखा है--- शेषाः स्पर्शरूपशब्द मनःप्रवीचाराः । -अ० ४ सूत्र ८ अर्थात् बाकी स्वर्गीमें स्पर्श, रूप, शब्द और मनसे प्रवीचार होता है । इसका भी अभिप्राय यह है कि सनत्कुमार माहेन्द्र स्वर्गके देव अपनी-अपनी देवांगनाओंके शरीरका स्पर्श या आलिंगन आदि करनेमात्रसे हो संतुष्ट हो जाते हैं। ब्रह्म ब्रह्मोत्तर लांब, कापिष्ट स्वर्गके देव अपनी-अपनी देवांगनाओंका रूप देखकर ही संतुष्ट हो जाते हैं। शुक्र, महाशुक्र, सतार, सहबार स्वर्गौके देव अपनी-अपनी देवांगनाओंके शब्द वा उनके आभूषणाविकों के शब्द सुनकर ही संतोषको प्राप्त हो जाते हैं। आनत, प्राणत, आरण, अच्युत स्वर्गके देव अपनीअपनी देवांगनाओंको चितवन करने मात्रसे संतुष्ट हो जाते हैं। जिसप्रकार देव संतुष्ट होते हैं उसी प्रकार देवियां भी अपने-अपने स्वामीको देखने, उनके शब्द सुनने या उनको चितवन करने मात्रसे संतुष्ट हो जाती है। इस प्रकार सोलह स्वर्गीका प्रवीचार बतलाया। आगे सोलह स्वर्गौसे ऊपर प्रवीचार किस प्रकार है सो मोक्षशास्त्र में इसप्रकार लिखा है परे ऽप्रवीचाराः । - अ० ४ सूत्र ९ अर्थात् सोलह स्वर्ग से ऊपर नौ ग्रैवेयक, नौ अनुदिश और पांचों पंचोत्तरोंके देव प्रवीचार रहित हैं उनके तज्जन्य वेदना नहीं होती इसलिये वे देव सबसे अधिक सुखी गिने जाते हैं ऐसा नियम है । २४३ - चर्चा दोसौ तैंतालीसवीं प्रश्न- यदि किसी मुनिके फोड़ा वा घाव हो जाय तो भक्त भावकजन उसको अच्छा करनेके लिए किसी शस्त्रके द्वारा उसकी चीर-फाड़ कर सकते हैं या नहीं। धीर-फाड़ करने से उनको अधिक वेदना होगी सो करनी चाहिये या नहीं । समाधान – किसी फोड़े वा घावको किसी शस्त्रसे चीरा बेनेमें निर्णय भाव नहीं होते किन्तु उसको [१२ Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . : - - सागर १२९ । अच्छा करनेके क्यारूप परिणाम होते हैं इसलिए उसमें पापबंध नहीं है किन्तु पुष्यबन्ध हो होता है। क्योंकि । करनेवालेके बयारूप परिणाम हैं, कोमलभाव हैं और उस घाव, फोड़ेको अस्छा करनेका उपाय मात्र करता है । उसके हृदय में दुःख देनेका किंचित् भाव भी नहीं है। इसलिए किसी घाव या फोड़ेको अच्छा करनेके लिये शस्त्रसे चीर-फाड़ करना भी योग्य ही है। उसमें पापका बंध नहीं होता । सो हो मोक्ष-शास्त्रको श्रुतसागरी टोकामें लिखा हैन दुखं न सुखं यद्धेतुरिष्टचिकिसिमले चिनिनलागत सुताय यादगुःखमथवा सुखम् ।। अर्थात्-चिकित्सा वा उपाय ( इलाज ) करनेसे सुख देने अथवा दुःख वेनेका अभिप्राय नहीं होता किन्तु उस व्याधिको दूर करनेका अभिप्राय रहता है । फिर चिकित्सा करते समय उस रोगोको चाहे सुख हो । वा दुःख हो . प्रश्न-यदि उपाय करते हुए उसकी वेदनासे मुनिका मरण हो जाय लब तो पापका बंध होगा? उत्तर-नहीं, तब भी पापका बंध नहीं हो सकता क्योंकि उस उपायसे उस व्याधिको दूर करनेका । अभिप्राय है उनको दुःख देने वा मारनेका अभिप्राय नहीं है। जहां मारने वा दुःख देनेका अभिप्राय होता है । वहाँ हिंसा न होने पर भी पापका यंध होता है । सो हो पुरुषार्थसिचघुपायमें लिखा है-- हिंसाफलमपरस्य तु ददात्यहिंसातु परिणामे। इतरस्य पुनर्हिसा दिशत्यहिंसाफलं नान्यत्॥ अर्थात् कोई अहिंसा हिंसाका फल देती है और कोई हिंसाका फल देती है। २४४-चर्चा दोसौ चवालीसवीं चार्वाक्रमतवाला कहता है कि आत्मा कोई पदार्थ नहीं है । यदि आत्मा होता तो दिखाई पड़ता परंतु आत्मा कोई पदार्थ है नहीं, इसलिए दिखाई भी नहीं पड़ता । यदि कहा जाय कि जन्म-मरण होनेसे आत्मा मानना पड़ता है सो ठीक नहीं है । क्योंकि जन्म-मरण करने पर भी आज तक आत्मा किसीको दिखाई नहीं । पड़ा है इसलिये मोक्ष मानना और मोक्षका उपाय करना व्यर्थ है। प्रश्न—सांख्यमतवाला कहता है कि आत्मा तो है पर वह सदा मुक्त है । जो सदा मुक्त है उसके फिर । मोक्षको प्राप्ति मानना वा मुक्त होनेका उपाय करना सब व्यर्थ है । इस प्रकार लोग मानते हैं सो क्या ठीक है? [५२ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधान-ये ऊपर लिखे हुए दोनों ही श्रद्धान ठीक नहीं हैं। पदि आत्मा कोई पदार्थ न होता तो । । जाति-स्मरण जानके द्वारा पहले जन्मको पर्यायको तथा उसकी समस्त वशाको यह जीव किस प्रकार जान लेता सागर । है अथवा किस प्रकार देख लेता है। यदि आत्मा कोई पदार्थ न होता तो भूत-प्रेत आदिक नीच देव अपने १०] पूर्व जन्मको सब बातें किस प्रकार बतला देते हैं। ये दोनों ही बातें संसारमें देखी जाती हैं और उससे लोग पूर्व जन्मका विश्वास करते हैं इसलिए चार्वाकका कहना सब व्यर्थ और भ्रमरूप है। क्योंकि यह आत्मा । अनादिकालसे कर्मबंधसे बंधा हुआ चला आ रहा है । उस कर्मबंधसे हो नवीन कर्मोंका आस्रव करता है। वह आस्रव इसके क्रोधादिक कषायोंसे होता है। क्रोधादिक कषाय प्रमादसे उत्पन्न होते हैं । प्रभाव हिंसादिक । महापापोंसे होता है । हिंसादिक अवतरूप महापाप मिथ्यात्वसे पुष्ट होते हैं और मिथ्यात्वसे यह आत्मा सदा मलिन रहता है। वह मलिन आत्मा काललब्धि पाकर एक मनष्यभवमें सम्यग्दर्शन व्रत स्वपर विवेक और। निष्कषायताके योगसे कोका नाश करता हुआ मक्त होता है। यदि आत्मा न होता तो अहधार वा ममत्व। आदि किसको होता? इससे सिद्ध होता है कि आत्मा है इसमें किसी प्रकारका सन्देह नहीं है । 'आत्मा नहीं है' यह कहना सर्वथा व्यर्थ है। यदि तू आत्माका अभाव मानता है सो यह मानना भी आत्माके बिना जड़ पदार्थके कैसे हो सकता में है। यह मानना वा समझना आत्माका ही लक्षण है । क्योंकि ऐसा ज्ञान चैतन्यरूप आत्माके बिना जड़ पदार्थमें हो सकता । दूसरी बात यह है कि त आत्माका अभाव कहनेवाला कौन है। जड़ है या चैतन्य है। । यदि तू तन्य है तो आत्मा स्वतः सिद्ध हो गया, और यदि तू जड़ है तो जड़को ऐसा ज्ञान हो नहीं सकता। इसलिये आत्माका अभाव कहना सरासर मिथ्या है। तथा इस प्रकार मिथ्या भाषण करनेसे आत्माका कभी, कल्याण नहीं हो सकता। सांख्य आत्माको सदा मुक्त मानता है। यदि यह आत्मा सदा मुक्त होता तो चारों गतियोंकी चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण क्यों करता ? वहाँके दुःख या सुख क्यों भोगता? और ऊँच-नीच अवस्था किस प्रकार धारण करता ? इससे मानना पड़ता है कि सम्यग्दर्शनके बिना आत्मा सदा अशुद्ध है। सम्यग्दर्शनके होने पर इसकी शुद्धता होती है । इसमें किसी प्रकारका संदेह नहीं। आत्माको सदा मुक्त मानना सर्वथा मिथ्या है। सो ही आत्मानुशासनमें लिखा है PagesaxpreesmammAtamentarNEPARAMPAIN ३० । १३० - - --- - - -- Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्धासागर - ५३१ ] अस्त्यात्मास्तमितादिबंधन गतस्तद्बंधनान्यास्त्रवे स्तेकोधादिकृताः प्रमादजनिताः क्रोधादयस्तेऽत्रतात् । मिथ्यात्वोपचितात् स एव समलः कालादिलब्धौ क्वचित्, सम्यक्त्वतदक्षता कलुषता योगेः क्रमान्मुच्यते ॥ २४१ ॥ २४५ - चर्चा दोसौ पैंतालीसवीं प्रश्न --- मोक्षशास्त्र में लिखा है- 'तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्' तत्वोंके द्वारा निश्चय किये हुए पदार्थोंका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है । फिर लिखा है- 'तन्निसर्गादिधिगमाद्वा" वह सम्यग्दर्शन निसर्ग और अधिगमसे उत्पन्न होता है । इस प्रकार मोक्षशास्त्र में लिखा है । सो क्या सम्यग्दर्शनको उत्पत्तिके कारण ये दो हो हैं या इसके उत्पन्न होनेके और भी कोई कारण है । समाधान — सम्यग्दर्शन के उत्पन्न होनेके लिये ऊपर लिखे दो कारण तो हैं ही परन्तु इनके सिवाय शास्त्रों में सम्यग्दर्शनके उत्पन्न होने के लिए दस कारण और बतलाये हैं। आगे उन्होंको बतलाते हैं । आज्ञा १, मार्ग २, उपदेश ३, सूत्र ४, बीज ५, संक्षेप ६, विस्तार ७, अर्थ ८, गाढ़ ९, परमावगाढ़ १० | इस प्रकार अलग-अलग कारणोंसे उत्पन्न होनेसे सम्यग्दर्शनके दस भेद हो जाते हैं। जो शास्त्रोंके बिना पढ़े ही वीतरागको वाणी सुनकर श्रद्धान करना सो आज्ञा सम्यग्दर्शन है ॥ १ ॥ ग्रन्थोंको विस्तारपूर्वक सुने बिना ही चौबीस प्रकारके परिग्रहको स्याग कर मोक्षमार्गका निर्ग्रन्थ पद धारण करता मार्ग सम्यग्दर्शन है ॥ २ ॥ त्रेसठ शलाका के पुरुषोंके चरित्रोंको सुनकर सम्यग्दर्शन धारण करना उपदेश सम्यग्दर्शन है ॥ ३ ॥ मुनियोंके आचरणोंको प्रतिपादन करनेवाले चरणानुयोगको सुनकर सम्यग्दर्शन धारण करना सूत्र सम्यग्दर्शन ॥ ४ ॥ करणानुयोगके द्वारा गणितके ज्ञानके कारण बीजोंसे पदार्थोंका श्रद्धान होना सो बोज सम्यग्दर्शन है ॥ ५ ॥ पदार्थोंका स्वरूप संक्षेपसे जानकर श्रद्धान करना सो संक्षेप सम्यग्दर्शन है ।। ६ ।। द्वादशांगको सुनकर रुचि वा श्रद्धान करना सो विस्तार सम्यग्दर्शन है ।। ७ ।। जो जिनागमके वचनके बिना ही किसी अर्थके निमित्तसे सम्यग्दर्शन उत्पन्न होना सो अर्थ सम्यग्दर्शन है ॥ ८ ॥ अंग वा अंगबाह्य सहित जिनागमको जानकर [ ५३१ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर १५२] गाढ़रूप श्रद्धान होना गाड़ सम्यग्दर्शन है ॥ ९॥ वही सम्यग्दर्शन जो अत्यन्त गाढ़ श्रद्धानरूप हो उसको परमाबगाढ़ सम्यग्दर्शन कहते हैं ।। १० ।। इस प्रकार कारण भेदसे सम्यग्दर्शनके बस भेव और हो जाते हैं । तथा ऊपर लिखे हुए निसर्गज और अधिगमज ये सम्यग्दर्शनके दो भेद भी इसीमें शामिल हो जाते हैं । सो ही श्री गुणभद्राचार्य विरचित आत्मानुशासनमें लिखा है| आज्ञामार्गसमुद्भवमुपदेशात्सूत्रबीजसंक्षेपात्। विस्तारार्थाभ्यां भवमवगाढपरमावगाढे च ॥ इन बसोंका विशेष वर्णन आत्मानुशासनसे जान लेना चाहिये। यहाँ बहुत संक्षेपसे लिखा है । २४६-चदोसो छालीसवीं प्रश्न-धर्मध्यानके चार भेद हैं-आज्ञाविषय, अपायविधय, विपाकविच्य और संस्थानविचय। इनके सिवाय धर्मध्यानके और भी भेव कहे आते हैं सो कौन-कौन हैं ? समाधान-इस धर्मध्यानके दस भेद बतलाये हैं उनमें ऊपर लिखे चार भेद भी शामिल हैं अर्थात् ऊपर लिखे चार भेदों सहित बस भेव हैं उनके नाम ये हैं। अपायविषय १, उपाविचय २, जीवविषय ३, अजीवविचय ४, विपाकविषय ५, बैराग्यविचय ६, भविचय ७, संस्थानविषय ८, आजाविषय ९ और हेतुविश्चय १० ये दस भेद हैं। कर्मोके नाश होनेके कौन-कौन कारण हैं, किस-किस उपायसे कर्म नष्ट होते हैं। इस प्रकार चितवन करना तथा कर्मबंधके कारण रानादिक भावोंसे अरुचि करना और मेरे वीतराग भावोंको प्राप्ति कम हो इस प्रकार वोतराग भावोंका चितवन करना अपायविचय है ॥ १ ॥ राग-द्वेषसे रहित वीतरागमय पवित्र भाव वा ज्ञान, वैराग्य आदि जो-जो मोक्षके कारण हैं वे मेरे कब प्राप्त होंगे। किस प्रकार प्राप्त होंगे इस प्रकार निरन्तर चितवन करना उपाविचय है॥२॥ यह जीव द्रव्याथिक नयसे अनादिनिधन तथा ध्रवरूप है और पर्यायाथिक नयसे उत्पायव्ययरूप है, वा उपयोगरूप है इस प्रकार जीवके स्वरूपका चितवन करना सो जीवविचय है ॥ ३ ॥ पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये पांच द्रव्य अजीव है। इनके स्वरूपका चितवन । करना अजीवविषय है ।। ४ ।। शुभ-अशुभ कर्मों के उदयका वा उनके सुख-दुःखरूप फलोंका चितवन सो विपाकविषय है ॥ ५॥ संसार शरीर इन्द्रिय भोग आहिसे उदास वा विरक्त होना, इनको दुःखका कारण Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर १३] ब-यामराया चितबन करना वैराग्यविचय है ॥ ६ ॥धारों गतियों में होनेवाले दुःखोंका चितवन करना तथा इस संसारको त्याग करनेका चितवन करना संसारसे भयभीत होना भवविश्चय है ॥७॥ लोक और अलोकके स्वरूपका चितवन करना संस्थानयिचय है ।। ८॥ सर्वज्ञदेवकी आमाको प्रमाणताका चितवन करना आज्ञाविचय है॥९॥ स्यावादका आश्रय लेकर युक्ति के अनुसार नित्य-अनित्य, अस्तित्व-नास्तित्त्र आदिका विचार करना सो हेतुविचय है ॥ १०॥ इस प्रकार यस प्रकारके धर्मध्यानोंका स्वरूप है । सो ही सारचविंशतिकामें लिखा है भ्रमतां च भवेऽनादौ स्वात्मनां वान्यदेहिनाम् । कर्मशृंखलबद्धानां कदापायो भविष्यति ॥ । कर्मणां तपसा हज्ञामयतादि सदस्योः । इति यश्चित्यते भव्यैरपायविचयं हि तत् ।।६।। मनोवाकाययोगाः स्युः केनोपायेन मे शुभाः। कर्माश्रवनिरोधो निर्जरा मुक्तिश्रा जायते ॥७॥ ध्यानेन तपसा वात्र हग्विशुद्धयादिनेति यः। सङ्कल्पः क्रियते दक्षैः ध्यानं तत्स्याद्वितीयकम्॥ उपयोगमयो जीवोऽनाद्यनन्तो गुणी महान् ।असंख्यातप्रदेशो निश्चयाच्च व्यवहारतः।।६।। शुभाशुभविधेर्भोक्ता कर्ता कायसमोऽसुखो। अनादिकर्मबद्धो हि मोक्षगामी हि तत्क्षयात्॥ इत्यादिचिंतनं यत्र जीवस्य क्रियते बुधैः । गुणस्थानभवात्सिद्धय सजीवविचयं खु तत् ॥११॥ अजीवपंचद्रव्याणां चिन्तनं यद्विधीयते । गुणपर्यायकर्मायैरजीवविचयं हि तत् ॥१२॥ अष्टधाकर्मणां यत्र विषाकः चिंत्यते पृथक् । सुखदुःखकरो नित्यं प्रतिक्षणसमुद्गतः ।।१३॥ । अनंतभेदभिन्नो हि तरक्षयाय मुमुक्षुभिः । तीवमंदस्वभावादिर्विपाकविचयो हि सः ॥१४॥ । स्वदेहभोगभवादि सर्ववस्तुषु शर्मसु। विधीयते विरक्तिर्या विरागविचयोऽत्र सः ॥१५॥ । चतुरशीतिलक्षेषु जीवयोनिषु देहिनाम् । अनादिभ्रमणं दुःखं पूर्णयत् कमेणां शुभम् ॥१६॥ जन्ममृत्युजरालीनं पराधीनं विचिन्स्यते । प्रत्यहं तत्तु भवं ध्यानं भवादिविचयान्तिकम् ॥१७॥ याः समस्ता अनुप्रेक्षाः चिंत्यते हृदि संयतः। एकचित्तेन तद् ध्यानं संस्थानविचयायम् ॥ प्रमाणीकृत्य तीर्थेशवाक्याज्ञा सरलागमे । सर्वज्ञगोचरे सूक्ष्मपदार्थादौ च निश्चयः ॥१६॥ । क्रियते द्रव्ययाथालयं योजनाद्भिर्महद्धनम् । तदाज्ञाविचयं ध्यानं प्रणीतं सर्वदर्शिभिः॥२०॥ HARIFSariचाचसामानाचासाच्या Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बर्षासागर पाPRASHNESSreatrenceTR पूर्वापराविरोधेन प्रमाणनयवेदिभिः। स्याद्वादेन परीक्षानुचिन्तनं क्रियते बुधैः ॥२१॥ जिनसूत्रगुणानां च तर्कशास्त्रमतान्वितैः । मिथ्यावदोषवर्गाणां यद्धेतुविचयं हि तत्॥२२॥ इस प्रकार इनका स्वरूप है । ऐसा ही कथन ज्ञानार्णव तथा बृहद्हरिवंशपुराण आदि ग्रन्थों में लिखा है वहाँसे जान लेना चाहिये। २४७-चर्चा दोसो सैंतालीसवों प्रश्न-धर्मध्यानके ऊपर लिखे दस भेद तो जाने परन्तु पिंडस्थ पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत ये ध्यानके चार भेद और हैं सौ कौनसे ध्यानके हैं। समाधान-ये चारों ही धर्मध्यानके भेद है । तथा धर्मध्यानके संस्थानविषय नामके चौथे भेदमें अंतभूत है ऐसा ज्ञानार्णवको टोकामें लिखा है। अपने शरीरका तथा लोकका चितवन करना पिंडस्थ ध्यान है। पंच नमस्कार मन्त्र वा एक, दो, चार आदि अक्षरोंके मन्त्रोंको वाचिक, उपांशु वा मानसिकके भेदोंसे जप करना पवस्थ ध्यान है। अपनी आत्माको शरीरके समान अथवा समधातके द्वारा लोकाकाशके समान विसवन करना अथवा छयालोस गुणोंसे सुशोभित केबलो भगवानके स्वरूपके समान चितवन करना सो रूपस्थ ध्यान है तथा शुद्ध आत्माका स्वरूप, कर्मकलकरहित, रूपादिक रहित, शुद्ध ज्ञान, वर्शनमय सिद्धोंके समान चितवन करना रूपातीत ध्यान है । इस प्रकार ये सब धर्मध्यानके भेद हैं। २४८-चर्चा दोसौ अड़तालीसवीं प्रश्न- ऊपर जो धर्मध्यानोंके भेद लिखे हैं वे फिस-किस गुणस्थानमें होते हैं। समाधान-यह सब प्रकारका धर्म्यध्यान मिथ्यात्य, सम्यग्मिथ्यात्व, और सम्यक्प्रकृति मिथ्यात्व इन तीनों दर्शनमोहनीयको प्रकृतियोंको तथा अनन्तानुबन्धी, क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार प्रकृतियोंका इस प्रकार सम्यग्दर्शनको घात करनेवालो सातों प्रकृतियोंको नाश करनेवाला है । तथा मोहनीयको शेष बचो हुई इक्कीस प्रकृतियोंको उपशम करनेका कारण है यह धर्म्यध्यान असंयत नामके चौथे गुणस्थानसे लेकर प्रमत्त- ।। A NSWwwra श Ant Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर -३५] LATIONITENTREATRE संयत नामके छठे गुणस्थान तक तीन लेश्याओंके बलसे होता है। छठे गुणस्थानमें रहनेवाले मुनियों के उत्कृष्ट । धर्म्यध्यान होता है । चौथे गुणस्थानमें रहनेवाले अविरत सम्यग्दृष्टिके जघन्य होता है। तथा दूसरी प्रतिमासे लेकर ग्यारहवीं प्रतिमा तक क्रमसे बढ़ता हुआ मध्यम होता है । सो ही सारस्तुविशतिकामें लिखा हैसप्तप्रकृतिनिःशेषक्षयहेतुमिद स्मृतम् । एकविंशतिमोहप्रकृतिनाशनकारणम् ॥२६॥ चतुर्थाद्यप्रेमत्तान्त गुणस्थानेषु जायते । लेश्यात्रयबलाधानं धर्म्यध्यानं सुधीमताम् ॥३०॥ सर्वोत्कृष्टमिदं ध्यायेदप्रमत्तो मुनीश्वरः । सदृष्टिश्च जघन्यं वै मध्यमं बहुधा व्रती ॥३१॥ इस प्रकार इनका स्वरूप है। ___२५-चर्चा दोसौ उनचासवीं प्रश्न--जो शुद्ध आत्मध्यानके या शुद्धोपयोगके कारण हैं ऐसे अध्यात्मरूप जैन सिद्धांतोंके पड़ने वाले सुननेका अधिकार गृहस्थोंको है वा नहीं। समाधान-नयारहदों प्रतिमाको धारण करनेवाले उस्कृष्ट श्रावकको भी ( क्षुल्लक वा ऐलकको भी) नीचे लिखी बातोंका अधिकार नहीं है। दिन में प्रतिमायोग धारण करना, वीरचर्या धारण करना, निकाल योगका नियम तथा सिद्धांतके रहस्यका पठन-पाठन इन सब बातोंका अधिकार देशव्रती श्रावकको नहीं है। भावार्थ-मुनियों के समान नान होकर दिनमें प्रतिमायोग धारण करना, मुनियों के समान अकेला रहकर बीरचर्या धारण करना, नियम लेकर योग धारण करना अर्थात् मुनियों के समान शीतकालमें नदी वा सरोवरके किनारे, वर्षा ऋतुमें वृक्षके नोचे और उष्णकालमें पर्वतके शिखर पर नियमपूर्वक योग धारण करना तथा सिद्धांत ग्रन्थों के रहस्यका पढ़ना-पढ़ाना, सुनना-सुनाना आदिका अधिकार पांचवें गुणस्थानमें रहनेवाले देवव्रती श्रावकको नहीं है । सो ही श्रीवसुनन्दिसिद्धांतचक्रवर्ती विरचित श्रावकाचारमें लिखा है१. सातवें गुणस्थानके दो भेद हैं एक सातिशय दूसर निरतिशय । जहाँसे श्रणी चढ़ता है, वहाँल सातिशय अप्रमत्त कहलाता है। और श्रेणी चढ़नेसे पहले निरतिशय अप्रमत्त कहलाता है। जहाँस श्रेणी चढ़ता है वहाँसे शुक्लध्यान आरम्भ हो जाता है। तथा श्रेणी चढ़नेसे पहिले सातवें गणस्थान में उत्कृस्ट धर्मध्यान है । S RAN Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ५१६] 15 दिणपडिमवीरचरियातियालजोगे नियमेण । सिद्धांत रहस्साधयणं अहियारो णत्थि देसविरियाणं ॥ दूसरे श्रावकाचारमें लिखा है वीरचर्या च सूर्यप्रतिमात्रिकालयोगधारणं नियमश्च । सिद्धान्तरहस्यादिष्वध्ययनं नास्ति देश विरतानां ॥ धर्मामृतश्रावकाचार में लिखा है श्रावको वीरचर्याहः प्रतिमातापनादिषु । स्यान्नाधिकारी सिद्धांत रहस्याध्ययनेऽपि वा ॥ धर्मोपदेश पीयूष वर्षा रावकाचार में भी लिखा है कृतकारितं परित्यज्य श्रावकाणां गृहे सुधीः । उदम्बुभिक्षया भुक्तिं चैकवारं सयुक्तितः ॥ १ ॥ त्रिकालयोगनियमो वीरचर्या च सर्वथा । सिद्धांताध्ययनं सूर्यप्रतिमा नास्ति तस्य वे ॥२॥ 1 प्रश्न- गृहस्थों को सिद्धांत ग्रन्थोंके अध्ययन करनेका निषेष लिखा है। उसके सुनने वा बाचनेका निषेध नहीं लिखा है समाधान- सुनना वा वाचना अध्ययनसे जुदा नहीं है। सबका एक ही अर्थ है । कोई सामान्य है कोई विशेष है । परन्तु हैं सब समान । यदि सुननेको, वाचनेको अध्ययन से जुदा माना जाय तो भी इन्द्रनन्दि सिद्धांतीने नीतिसार में लिखा है आर्यिकाणां गृहस्थानां शिष्याणामल्पमेधसाम्। न वाचनीयं पुरतः सिद्धांताचारपुस्तकम् ॥ अर्थ — अजिकाओंके सामने, गृहस्थोंके सामने और अल्पबुद्धिको धारण करनेवाले शैक्ष्य मुनियों के सामने सिद्धांताचारके शास्त्र नहीं वाधने चाहिए। इस प्रकार लिखा है । इसलिए इस समय गृहस्थोंको सिद्धांत ग्रन्थोंका स्वाध्याय नहीं करना चाहिये । प्रश्न-भावकोंको सिद्धांत ग्रन्थोंके पठन-पाठनका निषेध किया वोरचर्या प्रतिमायोग आदिका निषेध fear तो फिर धावकोंको करना क्या चाहिए ? [ ५३६ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बासागर १३७ __समाधान-सत्पात्रोंको दान देना और श्री जिनेन्द्रदेवको पूजा करना ये दो हो धर्म श्रावकोंको मुख्य ती धर्म बतलाए हैं। इसका भी अभिप्राय यह है कि सम्पग्दर्शन पूर्वक अहिंसादिक पांचों अणुवतीको तथा गुणवत शिक्षावतोंको धारण करनेवाले पाँच गुणस्थानवर्ती गृहस्थोंको श्रावक कहते हैं । तथा दर्शनप्रतिमाको पालनकरनेवाले चौथे गुणस्थानोंमें रहनेवाले गृहस्थोंको अश्रावक (ईषत् श्रावक-श्रावकों के समान) कहते हैं । श्रावकअभावक दोनोंका मुख्य धर्म सत्पात्रोंके लिये बान देना तथा देव-शास्त्र-गुरुको पूजा करना है। इन्हीं श्रावक वा अश्रावकोंके लिये वीर्यचर्या प्रतिमायोग और सिद्धान्तके पठन-पाठनका निषेध किया है । इसीप्रकार ध्यान धारण करना और सिद्धान्तके रहस्योंका अध्ययन करना मुनियोंका मुख्य धर्म है। पूजा और दानके बिना गृहस्थोंका धर्म नहीं है और ध्यान अध्ययनके बिना मुनियोंका धर्म नहीं है। यही इसका तात्पर्य है सो हो। श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने लिखा है-- दाणेपूआ मुक्खं सावयधम्म असावगो तेण विणा । झाणज्झयणं मुक्खं जइधम्म तं विणा तहा सोवि ।। कितने हो लोग सिद्धान्तशास्त्रोंका पठन-पाठन करते हैं । उनको कालशुद्धि तथा अक्षर मात्रा स्वरसंधि आदिका भी ज्ञान नहीं होता तथा योग्य-अयोग्यका भी विचार नहीं होता। परन्तु केवल बड़े बननेके लिये, महन्त बननेके लिये उसका अध्ययन करते हैं। सो वे शास्त्रोंके बचनोंसे विरुद्ध चलते हैं । अपनी पद्धप्ति पद A और योग्यताके अनुसार चलना योग्य है । केवल मूठो प्रतिष्ठा बढ़ानेमें कुछ सिद्धि नहीं होती। प्रश्न----इस समयमें जो सिद्धान्त अन्य उपलब्ध हैं उनके पठन-पाठनका निषेध नहीं है। गृहस्थोंके न वाचने योग्य सिद्धान्तग्रन्थ तो और हो है। जो इस समय उपलब्ध नहीं हैं। वे मुनियोंके हो पढ़ने योग्य है और इनसे जुबे हैं। जैसे एक अक्षरके संयोगी, दो अक्षरके संयोगी, तोन अक्षरोंके संयोगो इसी प्रकार चौसठ | अक्षर तकके संयोगी अक्षरोंके जो पद हैं उनका निषेध किया है ? समाधान-ऊपर लिखे प्रश्नमें जो एक, वो, मार आदि चौसठ अक्षरोंके संयोगी अक्षरोंके बने हुए पदोंको सिद्धान्त अन्य बतलाया है सो उनका उच्चारण तो ऋद्विधारी मुनि हो कर सकते हैं विना ऋद्धिधारी । मुनियों के अन्य साधारण मुनियोंसे भी उनका उच्चारण नहीं हो सकता। फिर गृहस्थकी तो बात हो क्या है ।। ६८ TASHATरस्याचाराबार Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर १३८] जो आचारांगाविक द्वादशांगके पाठी हैं वे ही उसके उच्चारण करनेमें समर्थ हैं उनके उच्चारण करने की शक्ति और किसी में नहीं है। ऐसे सिद्धान्त ग्रन्थ तो चौथे कालमें थे ( वा भद्रबाहु श्रुतकेवली तक रहे ) इस समय में पंचमकालमें उनका अभाव हो है इस समय का महापर निषेध किया है। २५० - चर्चा दोसौ पचासवीं प्रश्न -- यदि गृहस्थ सिद्धान्त शास्त्रोंका अध्ययन न करे तो उसको आत्मध्यानकी सिद्धि और अनेक गुणोंकी प्राप्ति किस प्रकार हो सकती है। इसलिये यह बात कुछ समझमें नहीं आती। यदि सिद्धान्त ग्रंथोंका अध्ययन न किया जायगा तो शूद्धोपयोगमय आत्मज्ञान तथा ध्यानकी सिद्धि नहीं हो सकती । गृहस्थका धर्म शुद्ध सुवर्णके समान शुद्धोपयोगमय है । यही मोक्षका कारण है। जो स्वर्गका कारण हो वह तो बन्धरूप है इसलिये वह कार्यकारी नहीं हो सकता। हम तो अध्यात्ममार्ग पर चलनेवाले हैं इसलिये हमें व्यवहार धर्म प्रिय नहीं है। हम तो आत्मज्ञानी हैं इसलिये एक शुद्धोपयोग मय चर्चा ग्रन्थोंको प्रमाण मानते हैं । व्यवहार रूप पुराणादिकके वचनोंकी श्रद्धा गौणरूपसे करते हैं । सो इसमें क्या हानि है ? समाधान - इस प्रकार कहना जैनमार्गके विरुद्ध है । क्योंकि सिद्धांतशास्त्रोंको मुख्य मानना और पुराणाविकोंको गौण मानना यथार्थ श्रद्धानले बाहर है क्योंकि सिद्धान्त ग्रंथ किसी अन्य आम्नायके अनुसार हो और पुराण ग्रन्थ किसी अन्य आम्नायके अनुसार हों सो तो है ही नहीं । सिद्धान्त और पुराण सब जिना - गम है। भगवान अरहंतदेवकी दिव्यध्वनिके अनुसार ही गणधराविक ऋद्धिचारी श्रुतकेवलियोंने तथा अंग पूर्व पाठी आचायोंकी रचना है। सो इसमें संदेह करना वा आचायके वचनोंको उल्लंघन करना महादोष है सोही पद्मनविपंचविंशतिकामें लिखा है । संप्रत्यस्ति न केवली किल कलौ त्रैलोक्यचूड़ामणिः, तद्वाचः परमासतेऽत्र भरतक्षेत्रे जगद्योतिकाः । सद्रत्नत्रयधारिणो यतिवरांस्तासां समालंबनं, तत्पूजा जिनवाचि पूजनमतः साक्षाज्जिनः पूजितः ॥ ६८ ॥ [ ५३८ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मर्यासागर [५३९] अर्थात्--इस पंचमकालमें साक्षात् केवली नहीं है। परन्तु उनकी वाणीको जाननेवाले और रत्नत्रयको धारण करनेवाले आचार्य हैं सो उनको पूजा करनी चाहिये। आचार्य वा उनकी वाणीको पूजा करना। साक्षात् केवलीको पूजा करना है। इस प्रकार इसका अर्थ है जब आचार्योको पूजा साक्षात् केवलोकी पूजा कहलाती है तब आचार्योंके वचनोंका उल्लंघन करना साक्षात् केवली भगवानकी आज्ञाका उल्लंघन करना है। तथा केवली भगवानको आज्ञाका उल्लंघन करना सबसे बड़ा अविनय है। ऐसे लोगोंके लिये पद्मनन्दि पंचविशतिकामें विशेष रीतिसे लिया है । श्या--- यः कल्पयेत किमपि सर्वविदोपि वाचि संदिह्य तत्त्वमसमंजसमात्म्यबुद्धया । खे पत्रिणां विचरतां सुदृशेक्षितानां संख्या प्रति प्रविदधाति स वादमन्धः ॥ अर्य—जो मनुष्य सर्वज्ञके वचनोंमें संदेह कर केवल अपनी बुद्धिके बलसे तस्वोंका स्वरूप अन्यथा कल्पना करता है अर्थात् प्राचीन आचरणोंका लोपकर नवीन-नवीन कल्पना करता है वह पुरुष मानों अंधा होकर भी आकाशमें उड़ते हुये पक्षियोंके समूहकी गिनती करना चाहता है। भावार्थ-वह पुरुष समस्त कार्योको मिथ्या करता है। प्रश्न-हमलोग केवलोके धचनोंमें संदेह नहीं करते उनमें तो हमारी गाढी श्रद्धा है। उत्तर--यह बात ठीक नहीं है क्योंकि आचार्योके वचनोंमें संदेह होना अपने आप सिद्ध हो जाता है । जैसा कि पहले लिखा जा चुका है। प्रश्न--वर्तमान समयके बनाये हये शास्त्रोंमें जो कथन है सोकहीं संदेह सहित है। इसलिये वह पूर्णरूपसे प्रमाण नहीं कहा जा सकता। उत्तर-मालूम होता है कि आप लोगोंके पास चतुर्थकालके बने हुये ग्रन्थ भी होंगे तभी इस प्रकार कह रहे हो । परंतु चतुर्थ कालके ग्रन्थ विखाई नहीं पड़ते । वर्तमानमें जो ग्रन्थ हैं सो सब भूलरूप इस पंचमकालमें होनेवाले आचार्योके बनाये हुये हैं और उनकी भाषा बचनिकायें आप लोगोंने की हैं सो आप लोगोंकी को हुई वनिका तो प्रमाण और सत्य है परंतु आचार्योंके किये हुये मूल शास्त्रोंका श्रवान प्रमाणमें नहीं . आता ? णमोकार मंत्रके ध्यानको व्यवहारमयी मानकर उसमें गौणता धारण करना तथा अध्यात्मभादोंको Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धनयके द्वारा आत्मभावनायुक्त शुद्धोपयोगमय अवस्थाको "सोहं सोह" इस प्रकारके जप और आरमध्याम को मुख्य मानता, शुद्धोपयोग रूप अवस्थाको कार्यकारी मानना और बाकी सब कार्योको व्यवहार मानकर वर्गासागर । छोड़ते जाना इस प्रकार शुख निश्चयरूप अवस्था मानना और परिग्रह भी रखमा सर्वथा शास्त्र विरुद्ध है क्योंकि :५४०) ज्ञानार्णवमें लिखा है कि गृहस्थोंके ध्यानकी सिद्धि नहीं हो सकती। यथा । न प्रमादजयं कर्तुं धीधनैरपि पार्यते। महादुःखेन संकीर्णे गृहवासेऽतिनिंदिते ॥ शल्यते न वशीकत ग्रनभिश्चपलं मनः। अतश्चित्तप्रात्यर्थं सद्भिस्त्यक्तगृहस्थितिः ॥ अर्थात्--यह गृहजाल अनेक संकटोंसे भरा हुआ है तथा अत्यंत निंदनीय है। इसमें रहते हुए भव्य । जीव बिना आत्मशुद्धिके प्राप्त हुए प्रमादको जीत नहीं सकते। तथा जबतक प्रमाद जीते नहीं जाते तबतक शुद्धोपयोग रूप भाव नहीं हो सकते। और जब शुद्धोपयोग रूप भाव नहीं हो सकते तबतक ध्यानको सिद्धि किस प्रकार हो सकती है। इसके सिवाय गृहस्थ लोग अपने चंचल मनको वश नहीं कर सकते। इसलिये। चित्तको शांत करनेके लिये वश करने के लिये सबसे पहले गृहवास छोड़ देना चाहिये। गृहवासके छोड़ देनेसे। हो ध्यानकी सिद्धि हो सकती है । सो हो लिखा है प्रतिक्षणं द्वन्द्वशतार्तचेतसा, नृणां दुराशाग्रहपीडितात्मनाम् । नितंविनीनां लोचनचारुसंकटे,गृहाश्रमे नश्यति स्वात्मनो हितम् ॥ ४॥ अर्थ--इस गृहस्थाश्रममें रहनेवाले लोगोंका हृदय क्षण-क्षणमें होनेवाले सकड़ों आर्त वा वुःखोंसे वा उपद्रवोंसे भरा हुआ रहता है तथा उनका आत्मा खोटी आशारूपो पिशाचिनीसे पीड़ित रहता है । इसके सिवाय । वह गृहस्थ स्त्रियों के नेत्रोंकी चंचलता रूपी संकटमें सदा पड़ा रहता है इसलिये ऐसे गृहस्थके आत्माका हित कभी नहीं हो सकता। और भी लिखा है-- निरन्तरार्तानलदाहदुर्गमे, कुवासनाध्वान्तविलुप्तलोचने । अनेकचिन्ताज्वरजीर्णतात्मना, नृणां गृहे नात्महितं प्रसिद्धयति ।। अर्थ-गृहस्थमें रहनेवाले लोग आर्स, रौद्र ध्यानरूपी दुर्गम अग्निसे सवा जलते रहते हैं तथा पुरी Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर [ ५४१ ] वासनारूपी महा अंधकार से उनके नेत्र सवा बंद रहते है और अनेक चिंता रूपों ज्वरसे जिनका आत्मा सदा संतप्त रहता है ऐसे घरमें रहनेवाले गृहस्थोंके आत्महितकी सिद्धि किस प्रकार हो सकती है अर्थात् कभी नहीं हो सकती। यदि किसीके घर में अग्नि लग जाती है तो वह अपने धन आदिको लेकर वहाँसे निकलनेका विचार करता है। परंतु प्रथम तो वहाँसे उसका निकलना कठिन हो जाता है । यद्यपि देवके अत्यंत अनुकूल होनेपर निकलना कुछ कठिन और आश्चर्य करनेवाला नहीं है तथापि यदि चारों ओर दुर्गम अग्नि लग रही हो तथा निकलने का कोई मार्ग न हो, निकलनेवाला अंधा हो और ज्वरसे अत्यंत पीड़ित हो तो वह अपना धन किस प्रकार उठा सकता है और किस प्रकार वहाँसे निकल सकता है । अर्थात् ऐसा पुरुष वहाँसे न तो निकल सकता है और न अपने धनको रक्षा कर सकता है उसी प्रकार गृहस्थ भी आतं, रौद्र, चिता आदिसे अत्यंत दुखी रहता है इसलिये वह अपना हित कभी नहीं कर सकता । न शुद्ध ध्यान या शुद्ध आत्माकी प्राप्ति कर सकता है । जो लोग अपने मनमें जबर्दस्ती मान लेते हैं वे केवल कहनेके लिये ही मान लेते हैं उनके शुद्ध ध्यान वा शुद्ध आमाकी सिद्धि कभी नहीं होती। ऐसे गृहस्थोंके लिये आगे और भी लिखा है- विपन्महापंक निमग्न बुद्धयः, प्ररूढरा गज्वरयंत्रपीडिताः । परिप्रहव्यालविषाग्निमूर्हिताः, विवेकवीथ्यां गृहिणः स्खलत्यमी ॥ ये गृहस्थ अर्थ - इन गृहस्थोंकी बुद्धि अनेक प्रकारको विपत्तिरूपी महा कीचड़में डूबी रहती है। राग-द्वेषरूपी ज्वरके यन्त्रसे सदा पोड़ित रहते हैं और परिग्रहरूपी सर्पोंके विषरूपी अग्निसे सवा मूच्छित रहते हैं इसीलिये वे गृहस्थ विवेकरूपी गलीमें चलते हुए सदा ठोकर खाकर गिरते रहते हैं। ठीक-ठीक तरहसे चल नहीं सकते । ऐसे गृहस्थोंके लिये और भी लिखा है हिताहितं त्रिमूढात्मा स्वं शश्वद्वेष्टयेत्तराम् । अनेकारम्भजैः पापैः कोशकारकृमी यथा ॥६॥ अर्थ - जिस प्रकार रेशमका कोड़ा अपने आप जाल बनाकर उसमें घिर कर मर जाता है उसी प्रकार अपने हित और अहितको नहीं जाननेवाले गृहस्थ अनेक आरम्भोंसे उत्पन्न हुए पापोंसे अपने आप ही सदा घिर जाते हैं अर्थात् गृहस्यों का आत्मा पापोंसे सवा लिप्त रहता है । भावार्थ - जिस प्रकार रेशमका कोड़ा अपने [ Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर [५४२ । F आप जाल बांधता है और उसमें फंसकर मर जाता है तथा जिस प्रकार मकड़ी जाल फैलाकर उसमें अपने आप मर जाती है । उसी प्रकार यह गृहस्थोंका आत्मा अनेक प्रकारके पापरूप आरम्भोंको करता हुआ कर्मबंध करता रहता है । इसलिये उसके शुद्ध ध्यानको सिद्धि कभी नहीं हो सकती। यैर्जन्मशतेनापि रागाद्यरिपताकिनी। विना संयमशस्त्रेण न सद्भिरपि शक्यते । गृहस्थ लोग चाहे जितने बुद्धिमान हों तथापि उनसे बिना संयमरूपी शस्त्रके सैकड़ों जन्मोंमें भी रागद्वेषरूपी शत्रुओंकी सेना नहीं जीतो जा सकती। भावार्थ-गृहस्थ अवस्थामें राग-द्वेषाविक जीते नहीं जा सकते। तथा बिना रागद्वेषोंको जीते आत्माका हित करनेवाला खोपयोगरूप ध्यानको सिद्धि न प्रचंडपवनैः प्रायश्चलन्तेऽचलभूभृतः । तत्रांगलादिभिः स्वान्तं निसर्गतरलं न किम् ॥ ____ अर्थ-जब कि प्रचंर पवनके द्वारा अचल पर्वत भी बलायमान हो जाते हैं तो फिर स्वभावसे ही चंचल मन स्त्रियोंके द्वारा क्यों नहीं चलायमान हो सकता अर्थात् गृहस्थोंका मन स्वभावसे ही चंचल होता है फिर उसको और चलायमान करनेके लिये स्त्रियां कारण हो जाती है इसलिये गहस्योंका मन निश्चल होना अत्यन्त कठिन है तथा जबतक मन निश्चल वा एकान नहीं होता तबतक ध्यानको सिद्धि नहीं हो सकती। खपुष्पमथवा श्रृंगं खरस्यापि प्रतीयते । न पुनः देशकालेऽपि ध्यानसिद्धि हाश्रमे ॥ ६ ॥ स अर्थ-यद्यपि आकाशपुष्प होता नहीं, गधेके सींग होते नहीं तथापि यदि इन दोनोंकी कल्पना की माय तो हो सकती है परन्तु गृहस्थके किसी भी वेशामें तथा किसी भी कालमें ध्यानकी सिद्धि नहीं हो सकती।। यदि कोई पुरुष जबर्वस्तो गृहस्थावस्थामें ध्यानको सिद्धि मानता है तो उसके लिए श्रीशुभचन्द्राचार्यने ज्ञानार्णवमें ऊपर लिखा इलोक लिखा है । इसके सिवाय इसी अभिप्रायको लिये हुए श्रीगुणभद्राचार्यने आत्मानशासनमें लिखा है । यथा--- सर्व धर्ममयं क्वचित्क्वचिदपि प्रायेण पापात्मक, क्वाप्येतवयवत्करोति चरितं प्रज्ञाधनानामपि । तस्मादेष तदन्धरज्जवलनं स्नान गजस्याथवा, मत्तोन्मत्तविचेष्टितं न हितो गेहाश्रमः सर्वथा ॥ ४१ ॥ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर [ ५४३ अर्थ - इस गृहस्थाश्रम में यह जीव कभी तो सामायिक, प्रतिक्रमण, व्रत, उपवास, यम, नियम आदि धर्ममयी क्रिया हो करता है। कभी स्त्रीसेवन आदि पाँचों पापोंका सेवन करता है। तथा कभी-कभी पूजा-प्रतिष्ठा, तोर्थयात्रा आदि पुण्य पाप रूप मिली हुई क्रियाएँ करता है। इस प्रकार गृहस्थाश्रम बुद्धिमान लोगोंके लिये भी अधेकी रस्सीके समान है अथवा हाथीके स्नान के समान है अर्थात् जिस प्रकार अन्धा पुरुष रस्सो बटता जाता है और पीछे से गाय उसे खाती जाती है अथवा हाथी स्नान करनेके बाद भो मार्गको धूलको वा कूड़े, कर्कटको सड़से ले लेकर अपने सब शरीर पर डालकर शरीरको मैला कर लेता है उसी प्रकार यह गृहस्थाश्रम मदोन्मत वा पागल पुरुषोंकी चेष्टाओंके समान है। इसमें आत्माका हित कभी नहीं हो सकता । यह जीवको कल्याणकारी नहीं हो सकता । इस प्रकार जो लोग गृहस्थाश्रममें भी शुद्धोपयोग अध्यात्मभाव तथा आत्मध्यानकी सिद्धि मानते हैं उनका समाधान किया । सिद्धि मुनिराजके भा आठवें गुणस्थानसे लेकर बारहवें गुणस्थानके अन्त में पूर्ण होती है। छठे गुणस्थानमें भी यदि विचार किया जाय तो शुद्धोपयोगकी गुणस्थान तक क्रमसे बढ़ती हुई होती है। तथा बार शुभोपयोग है। छठे सातवेंमें यथासाध्य शुद्धोपयोग है। आत्मध्यानको प्राप्ति नहीं है । जब छठे गुणस्थानमें भी यह हाल है तो फिर जिसके चौथे गुणस्थानका भी निश्चय नहीं है और अपनेको अध्यात्मी, आत्मध्यानी शुद्धोपयोगरूप मानता है उसके शुभोपयोग तो छूट जाता है और शुद्धोपयोगकी प्राप्ति नहीं होती इस प्रकार वह दोनोंसे च्युत हो जाता है। भावार्थ — ऐसा पुरुष देवपूजा आदि शुभोपयोगसे अपना भाव हटा लेता है और शुद्धोपयोगी प्राप्ति होतो नहीं। इस प्रकार वह शुद्धोपयोग और शुभोपयोग दोनोंसे छूटकर अशुभोपयोगमें आ जाता है तथा अशुभोपयोग होनेसे उसके पाप बंध ही होता है इसलिये गृहस्थों को शुद्धोपयोग बननेका अधिकार नहीं है। गृहस्थोंको तो अशुभोपयोगका त्याग कर देना चाहिये और शुभोपयोगरूप रहना चाहिये । यदि ऐसा न माना जायगा तो अणुव्रत, महाव्रत, अट्ठाईस मूलगुण, श्रावककी ग्यारह प्रतिमाएँ, चतुविध संघ, पूजा, प्रतिष्ठा, तोर्थयात्रा, व्रत, उपवास, सत्पात्रोंको दान देना, करुणा दान, जप, तप, यम, नियम आदि शुभपयोगमय व्यवहार धर्म सब व्यर्थ हो जायगा । तथा इन सबके व्यर्थ होनेसे फिर शास्त्रोंका स्वाध्याय किस काममें आयेगा । परंतु ये सब क्रियाएं व्यर्थ नहीं है सार्थक हैं सो ही तत्त्वज्ञानतरंगिणी में लिखा है [ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्गासागर ५४] याता यान्ति च यास्यति ये भव्याः मुक्तिसंपदम् । आलंब्य व्यवहारं ते पूर्व पश्चाच्च निश्चयम् ।। १६ ॥ कारणेन विना कार्य न स्यात्तेन विना नयम् । व्यवहारं कदोत्पत्तिनिश्चयस्य न जायते ॥ १७ ॥ जिनागमे प्रतीतिः स्याज्जिनस्याचरणेऽपि च।। निश्चयं व्यवहारं तन्नयं भज यथाविधि ॥ १८ ॥ व्यवहारं विना केचिन्नष्टाः केवलनिश्चयात् । निश्चयेन विना केचित् केवलव्यवहारतः ॥ १६ ॥ द्वाभ्यां दृग्भ्यां विना न स्यात् सम्यग्द्रव्यावलोकनम् । यथा तथा नयाभ्यां चेत्युक्तं चे स्याद्वादिभिः ॥ २० ॥ निश्चयं क्वचिदालम्ब्य व्यवहारं क्वचिन्नयम् । विधिना वर्तते प्राणी जिनवाणीविभूषितः ॥ २१ ।। अर्थ-जो भव्य जीव पहले व्यवहार धर्मका आलंबन करते हैं तदनंतर निश्चयको ग्रहण करते हैं वे हो जीव मोक्ष जाते हैं ऐसे हो जोब मोक गये हैं और ऐसे हो जायंगे । यह नियम है कि बिना कारणके कार्य को उत्पत्ति नहीं होती। उसी प्रकार बिना व्यवहार धर्मके निश्चय धर्मको उत्पत्ति नहीं होती। इसलिये भव्य जीवोंको जितागमका बखान और जिनाचरणका पालन करना विधिपूर्वक निश्चय और व्यवहार दोनों नयोंसे । होना चाहिये । केवल एकके सेवन करनेसे कार्यको सिद्धि नहीं होती। कहीं पर तो व्यवहारके बिना केवल निश्चय नयका एकांत पक्ष लेनेसे केवल निश्चय नयका पालन करनेसे कितने ही जीव नष्ट हो जाते हैं । कितने । हो लोग बिना निश्चयके केवल व्यवहार नयके आश्रयसे नष्ट हो जाते हैं। तथा किसने ही लोग धोनों नयोंसे । तथा सम्यग्दर्शनसे रहित होकर द्रव्योंके यथार्थ स्वरूपके श्रद्धानसे वंचित रह जाते हैं। इसलिये स्याद्वादियोंने 1. पदार्थीका स्वरूप जिस नयसे बतलाया है उसको उसी रूपसे ग्रहण करना चाहिये । जहाँ निश्चय नयसे बतलाया । Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचासागर [ m] मालवा- है कहां निपज्ञासाइल करना हालिये और जहाँ व्यवहारसे बतलाया है वहां व्यवहारसे ग्रहण करना चाहिये।।। व्यर्थका हट नहीं करना चाहिये । प्रश्न-निश्चय धर्मको माने बिना सम्यग्वां नको प्राप्ति किस प्रकार होगी । उत्तर-आत्मज्ञानको धारण करनेवाले सम्यग्दृष्टो जीव इस पंचमकालमें बहुत थोड़े बतलाये हैं। ऐसे । सम्यग्दष्टियोंकी संख्या वो तोन हो बसलाई है। अथवा दुर्लभतासे चार पांच होना बतलाया है। सो हो । । स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षाको संस्कृत टोकामें लिखा है विद्यन्ते कति नास्मबोधविमुखा संदेहिनो देहिनः प्राप्यन्ते कतिचित् कदाचित् पुनर्जिज्ञासमानाः क्वचित् ।। आत्मज्ञाः परमप्रमोदसुखिनः प्रोन्मीलन्त शो। द्वित्राः स्युबहवो यदि त्रिचतुरास्ते पंचषट् दुखभाः॥ तत्त्वज्ञामतरंगिणी नामके शास्त्रमें लिखा है गणिकचिकित्सिकतार्किकपोराणिकवास्तुशब्दशास्त्रज्ञाः । संगीतादिषु निपुणाः सुलभा न हि तत्त्ववेत्तारः॥ अर्थ-ज्योतिष, वैद्यक, न्याय, पुराण, शिल्प, व्याकरण, संगोत, श्रृंगार, मंत्र, तंत्र आवि प्रास्त्रोंमें निपुण विद्वान् तो इस संसारमें बहुत हैं परंतु आत्मतत्वको जाननेवाले विद्वान् इस संसारमें है ही नहीं, हैं तो बहुत दुर्लभ हैं एक दो होंगे वा दो चार होंगे अधिक नहीं है। प्रश्न-इस समय जो हजारों लाखों जैनो जैनधर्म पालन करते हैं सो क्या बिना सम्यग्दर्शनके पालन करते हैं । यदि वे बिना सम्यग्दर्शनके धर्म पालन करते हैं तो उनका पालन करना व्यर्थ है। भूसोको फूटनेके । समान उनका परिश्रम करना व्यर्थ है। उत्तर-जो लोग व्यवहार धर्मको छोड़कर शुद्धोपयोग अध्यात्म भाबों सहित अपनेको आत्मज्ञानी | सम्पत्यो मानते हैं वे दोनोंसे रहित होनेपर सम्यग्दर्शन रहित हो सकते हैं परंतु जो देवपूजा आदि व्यवहार- . याचारASA R ALESED Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर रामाय-मान्यामक जनधर्मका अशान जान आचरण करते हैं ये सर्वप्रणीत आनाके पालन करनेवाले होनेके कारण योग्य । 1 और व्यवहार सम्यग्दृष्टी हैं। उनका धर्म पालन करना अपने-अपने भावोंके अनुसार सब सफल है । ऐसा समझना चाहिये। २५१-चर्चा दोसौ इक्यावनवीं प्रश्न-जिन प्रतिमाके जंगम और स्थावर ऐसे दो भेद सुने हैं तो इसका क्या अभिप्राय है ? समाधान--यह कथन श्रीकुन्दकुन्दाचार्य ने अपने पाहुड़ ग्रन्थों में मुनियोंके धर्म क्रिया और आचरणोंको अपेक्षासे किया है। यह कथन सद्भूत निश्चय नयका विषय है । अनादिकालसे चले आये इस दिगम्बर आम्नायसे श्वेताम्बर धर्म निकला । उसने आयतन आदि वस्तुओंका स्वरूप विपरीतरूपसे पुष्ट किया । उनको समझामेके लिए आचार्योने उनका यथार्थ स्वरूप प्रतिपाबन किया है । आयतन १, चैत्यगृह २, जिनप्रतिमा ३, वर्शन ४, जिनबिम्ब ५, जिनमुद्रा ६, ज्ञान ७, देव ८, तीर्थ ९, अरहन्त १०, शुद्धप्रवज्या ११ इन वस्तुओंका स्वरूप बतलाया है। उसमें जिन प्रतिमाको चेतना लक्षण सहित भी बतलाया है और उसके जंगम और स्थावर ऐसे दो भेव बतलाये हैं । सो ही बोधपाहुड़में लिखा हैसपरा जंगमेदहा दंतणणाणेण सुद्धचरणाणाणिग्गंथवीयराया जिणमग्गे एरिसा पडिमा।।१० अर्थ-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञानके द्वारा जिसके चरित्र अत्यन्त निर्मल हैं ऐसा अपना वा दूसरेका चलता हुआ जो शरीर है उसको जिनमार्ग निर्गन्थ वीसरागमयी, चलती प्रतिमा अथवा जंगम प्रतिमा कहते हैं।। जं चरीद सुद्ध चरणं जाणइ पिच्छेद सुद्ध सम्मत्तं । सो होइ बंदणीया णिग्गंथा संजदा पडिमा ॥१॥ ___ अर्थ-जो मुनि शुद्ध आचरणोंको धारण करते हैं । अपने शुद्ध ज्ञानके द्वारा पदार्थोके स्वरूपको यथार्थ जानते हैं और जो सम्यग्दर्शनके द्वारा अपने आत्माको देखते हैं ऐसे शुद्ध सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र गुण जिनके विद्यमान हों ऐसो निर्ग्रन्य संयमस्वरूपी प्रतिमा सदा वंदना करने योग्य है । अन्य श्वेतामर आदिके द्वारा कल्पना को हुई प्रतिमा का श्वेताम्बरोंके द्वारा कल्पना किये हुए अरहन्त वा साधु बन्दना करने योग्य नहीं है । इस प्रकार जंगम प्रतिमाका स्वरूप है । Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाa दसण अणंतणाणं अणंत वीरिय अणंत सुक्खायासासबसुमन्य अदेहा मुआनाम्मट्ठबंधेय॥ णिरुवममचलमखोहा णिमाविया जंगमेण रूवेण । वर्षासागर सिद्धट्ठाणम्मिया वो सर पडिमा माधुवा सिद्धा॥ [ 1 अर्थ-जो अनन्तदर्शन, अनंतज्ञान, अनंतवीर्य और अनंतसुख इन अनंत चतुष्टयोंसे सुशोभित है, जो शाश्वत, अविनाशीक, सुख सहित हैं, जो ज्ञानावरणादि आठों को बंधसे रहित हैं, जो सब तरहको उपमाओं से रहित हैं, अचलप्रदेशी हैं. क्षोभरहित हैं, जंगमरूपसे बनी हुई है और एकाग्र सिद्धस्थानमें ध्रुवरूप वा निश्चल रूपसे विराजमान हैं ऐसे सिद्ध परमेष्ठी स्थावर प्रतिमा हैं। ऊपर वो गाथाओंमें जंगम प्रतिमा या चलती हुई प्रतिमाका स्वरूप बतलाया है और फिर दो गाथाओं" में स्थावर प्रतिमाका स्वरूप बतलाया है इन्हीं स्थावर और जंगम भेवसे दो प्रकारको जिनप्रतिमाका पूजन, वन्दन, स्तवन, दर्शन आदि भक्तिके लिये उन्हींको धातुपाषाणमयो प्रतिमा बनाकर प्रतिष्ठापूर्वक जिनालयमें विराजमान करते हैं । वह भी महापुण्यका कारण है। असद्भूतव्यवहार नयका विषय है। इनके सिवाय मेह पर्वत पर नन्दीश्वर आदि द्वीपोंमें कुलाचल, गजवंत, विजयाधं पर जो अनादि, अनिधन, शाश्वती अरहन्त । । परमेष्ठीको जिनप्रतिमा विराजमान है जहाँ पर इन्द्रादिक, चतुणिकायके देव तथा ढाई छोपोंके विद्याधर और। ऋद्विषारी मुनि उनकी पूजा, वंदना आदि करके महापुण्योपार्जन करते हैं सो सब धर्मानुरागके लिए करते हैं। तथा वे विद्याधराविक उनकी वन्दनासे प्राप्त हुए पुण्योपार्जनसे इन्द्राविकके सर्वोत्तम पद पाकर क्रमसे थोड़ेसे उत्तम भव धारण कर मोक्षपद प्राप्त करते हैं। इस प्रकार धातुपाषाणको बनो हुई कृत्रिम वा अकृत्रिम जिनप्रतिमाको भक्ति करनेका फल है। इनके विशेष-विशेष फलोंका स्वरूप अन्य ग्रन्थों से जान लेना चाहिये। प्रश्न-ऊपर जो कथन बतलाया गया है वह मूल गाथाओंमें नहीं है टोकामें लिखा है । इसलिये वह पूर्णरूपसे प्रमाण नहीं है इसलिये हम तो ऊपर लिखी हुई जंगम और स्थावर प्रतिमाको ( अरहंत सिद्धकी ) बंदना करते हैं। इनके सिवाय अन्य जो धातु पाषाणकी कल्पना की हई प्रतिमाएं हैं वे निश्चयनयसे मोक्षमार्गके स्वरूपमें कारण नहीं है। केवल व्यवहारसे कारण हैं सो व्यवहारसे कोई सिद्धि होती नहीं। यह धातु पाषाणसमयी प्रतिमा तो अल्पज्ञानियोंके लिये असमझ लोगोंके लिए बनाई है आत्मज्ञानियोंके लिए नहीं है। सो हो योगीन्द्रदेवकृत योगसारमें लिखा है aGANISATTARAISAAR E NTIALA Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तामकु तित्थययरीभमधुत्तिमतांम करे । गुरु वयसा राजामणि विदेह हदेह मुणेय ॥४१॥ तित्यह देहणवि इमि सुइ केवलि वत्त । देही देवल देउ जिण ए उजाणि णिभंतु ॥४२॥ चर्चासागर देहा देवल देव जिणु देवल हीणी एदोइ । सामइ पडिहा इदह सिघीभी स्वयमेइ ॥४३॥ [ १४८] मूढा देवलि देवणिविण विसला लिपइ चित्तादेहा देवल देव जिणु सो बुझ्झइ समचित्त॥४४॥ तीरथई देव जिण सव्वुवि कोइ थणेइ । देहा देवलि जो भुणइ सो बहु कोवि हवेइ ॥४५॥ इससे सिद्ध होता है कि अपने दारोररूपी मंदिर में अपना आत्मा हो यथार्थ देख है । तोर्य और मंदिरों। में कोई देव नहीं है। जो मानते हैं सो अज्ञानो है अन्य मतमें भी इस प्रतिमापूजनका निषेष किया है और बसलाया है कि यह तो लौकिक कदि है। गृहस्थों के लिये हैं परमार्थ रूप नहीं है, संघरूप है । सो हो चाणिक्यमें लिखा हैअग्निहोत्रेषु विप्राणां हृदि देवो मनीषिणाम् । प्रतिमास्वल्पबुद्धीनां सर्वत्र विदितात्मनाम् ।। अर्थात्-जाह्मण लोग अग्निहोत्रमें देव मानते हैं, अल्पबुद्धिवाले गृहस्थ प्रतिमा हो देव मानते हैं और आत्माको जाननेवाले सब जगह देव मानते हैं। इसीलिये प्रतिमा मानने में हमारी अरुचि है। जिस प्रकार धातु, पाषाण, मिट्टो, काठ आविका बनाया हुआ हाथी, घोड़ा, मनुष्य को सच्चा समझकर बालक खेला करता। है परंतु जब वह समझ लेता है तब उनको झूठा समझकर उनसे क्रीडा करना छोड़ देता है और अन्य कार्योंमें लग आता है उसी प्रकार अल्प बुद्धिवार्लोको धर्मसेवनके लिये जिनप्रतिमा है। वह परमार्थरूप नहीं है केवल खेद उत्पन्न करनेवालो है । वह प्रतिमा अचेतन है, जड़ है इसलिये उससे इच्छानुसार फल नहीं मिल सकता, इसके सिवाय अचेतन प्रतिमाको पूजन करने आदिमें अनेक प्रकार से पृथ्वीकाय आदि छहों कायके जोधोंको महा हिंसा होतो है तथा हिसासे पापकर्मका बंध होता है और पापकर्मोके बंधसे नरकादिक बुर्गतियोंको प्रारित होती है इसलिये प्रतिमापूजन करना सर्वथा अयोग्य है । धर्म तो एक बयारूप है । बया हो सब धर्मोमें मुख्य हे सो हो लिखा है "हिंसारहिये पम्मे" अर्थात् जिसमें हिंसा नहीं है वही धर्म है फिर लिखा है-"आरंभे थियदया" अर्थात्-मारंभमें दया नहीं पल [.. Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर [are] सकती । और भी लिखा है "अहिंसालक्षणो धर्म" अर्थात् धर्मका लक्षण अहिंसा ही है। इन सब प्रमाणोंसे प्रतिमापूजनका श्रद्धान करना योग्य नहीं मालूम होता। यदि किसी स्त्रोका पति मर जाय और वह स्त्री उसकी धातु या पाषाणकी मूर्ति बनाकर उसकी सदा भक्ति करती रहे तो भी उससे उसके संतान नहीं हो सकती । इसी प्रकार धाडुगामी प्रमिको कोई फल नहीं मिल सकता । इस प्रकार कितने हो लोग कुयुक्तियोंके द्वारा मूर्तिपूजाका खंडन करते हैं। कितने ही अध्यात्मी, समैया, श्वेताम्बर मतसे निकले लोकगच्छके ढूढिया साधु toris, अन्य मतके वेदान्ती आदि बहुतसे मतवाले अपनी बुद्धिके बलसे मूर्तिपूजा में दोष कल्पना करते हैं तथा उनकी वंदना, पूजा, तीर्थयात्रा, दर्शन, स्तोत्र, स्तुति आदिमें अरुचि उत्पन्न करते हैं निषेध करते हैं सो सब मिथ्या है। इन सबका यहाँपर परिहार करते हैं सबका उत्तर देते हैं । सबसे पहले अध्यात्मी, शुद्धोपयोगी, आत्मज्ञानी आदि समैया मतके लिये कहते हैं। जैनधर्मके जितने सिद्धांत ग्रन्थ हैं, पुराण चरित्र हैं उन सबमें जिनमंदिर तथा प्रतिमाओंके अनेक भेव वर्णन किये हैं सममें तोर्थयात्रा, दर्शन, वंदना, पूजन, स्तवन आदि अनेक प्रकार की भक्तिका वर्णन किया है। मुनि अर्जिका श्रावकश्राविकाओं को भगवान अरहंत वेवकी भक्ति करना महा पुण्धका कारण बतलाया है। तथा परंपरासे मोक्षका कारण बतलाया है । रत्नत्रयरूप धर्मका हेतु बतलाया है। भगवान अरहंत देवकी प्रतिमाकी भक्ति करनेसे अनेक जीवोंको मोक्षकी प्राप्ति हो रही है, हुई है और आगे होगी ऐसा अनेक शास्त्रों में वर्णन किया है । इनके सिवाय मेरु पर्वतपर वा कुलावल विजयार्थ आदि पर्वतों पर अनादिकाल से अकृत्रिम जिन स्यालय और जिन प्रतिमाजी चली आ रही हैं तीनों लोकोंमें अकृत्रिम जिन चैत्यालय विराजमान है जिनका वर्णन समस्त शास्त्रों में है। अनेक भव्य जीव उनकी मेवा पूजाकर परमानंद पद प्राप्त करते हैं तथा अनेक प्रकारके महा दुःख देनेवाले नरकादिक दुर्गतियोंका नाश करते हैं और जन्म-जन्मांतरके पापोंको नष्ट कर महान् धर्मको प्राप्त होते हैं। यह कथन और यह रोति अनाविकालसे परंपरा चली आ रही है । इनका वर्णन समस्त जैन शास्त्रोंमें है। ऐसा कोई शास्त्र नहीं है जिसमें इसका निषेध हो । केवल थोड़ेसे समैया लोग हो ऐसा कहते हैं सो उसकी श्रद्धा ज्ञान आचरण किस प्रकार किया जाय । तुम्हारा यह कहना और उसका श्रद्धान करना सब सर्वज्ञ देवके वचनों के विरुद्ध है महा अविनयरूप है। अनंत संसारको बढ़ानेवाला है मिय्यास्वका [4 Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण है, सम्यग्दर्शनका घातक है शुद्धोपयोग और शुभोपयोगका विरोधी है सदा अभोपयोगको बढ़ानेवाला है। नरकादिक अधोगतिसे ले जानेवाला है । आत्माके गुणोंका धातक है। शुद्ध ज्ञान और आचरणका लोप करने वर्धासागर वाला है । रत्नत्रयका बाधक है, मोक्षमार्गका नाश करनेवाला है । सन्मार्गका नाश करनेवाला है । उन्मार्गको १५.] वा कुमार्गको पुष्ट करनेवाला है तथा स्वच्छंदताको प्रवृत्ति करनेवाला है । कहाँ तक कहा जाय अनेक विपरो तताका कारण है । तुम्हारा इस प्रकारका (प्रतिमासीका पूजा न करनेका ) जो श्रद्वान, ज्ञान वा आचरण है सो! प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग आदि समस्त द्वादशांगमय जिनागमरूप सिद्धांत के विरुद्ध ॥ है। कथा, पुराण, चरित्र आदिको लोप करनेवाला है समस्त शास्त्रोंकी आज्ञाको भंग करनेवाला और अविनय। की प्रवृत्ति करनेवाला है। सिर्भात ग्रन्थोंमें जो शुद्धोपयोगका कथन किया है तत्त्वोंके स्वरूपका निर्णय बतलाया है और उसमें पुण्य पदार्थको गौण बतलाया है । मोक्ष तत्वको मुख्यता बतलाई है तथा मोक्षतत्त्वको मुख्यताका वर्णन करते समय जीव तत्वमें आप हो को परमात्मा बतलाया है अन्य सबको व्यवहार बतलाकर सबका त्याग कराया है । सो यह सब कथन एकविहारी जिनकल्पो मुनियोंके लिये है यह सब उपवेश सात-आठ आदि ऊपरके गुणस्थानोंकी अपेक्षासे दिया गया है । सो इन ऊपरके गुणस्थानों में व्यवहारका स्याग हो हो जाता है । ये सब गुणस्थान तो शुद्ध ध्यान अवस्थाके हैं इनमें व्यवहारका क्या काम है। इसीलिये ऐसा कहा गया है। यदि ऐसा न माना जाय और इस शुद्ध निश्चयनयसे कहे हुए कथनको चतुर्थगुणस्थानवर्तो गृहस्थोंके लिये हो मान लिया जाय तो फिर श्रावकको ग्यारह प्रतिमाएं तथा छठे गुणस्थानमें रहनेवाले मुनियों के पालन करने योग्य अट्ठाईस मलगुण आदि समस्त व्यवहारधर्मका लोप करना पड़ेगा। परन्तु इन सब व्यवहार धर्मोका लोप हो नहीं सकता। इसके सिवाय एक बात यह भी है कि समस्त व्यवहारधर्म निश्चयधर्मको प्राप्तिका कारण है। इस लिये वह सम्यग्दर्शन पूर्वक गृहस्य और मुनियोंको ग्रहण करने योग्य है । यदि इस व्यवहार धर्मके बिना स्वच्छंद ।। होकर आत्मज्ञानी बनना और विषय कषायोंमें तुप्त रहना है सो आत्माको ठगना है, क्योंकि अणुव्रत, महाव्रत । आदिका पालना, तीर्थयात्रा करना, यथायोग्य वर्शन, पूजन आदि करना, धर्मोपदेश देना, ध्यान, अध्ययनका सिद्ध Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्यासागर करना, तप और स्वाध्याय करना आदि सब समस्त कर्तव्य एक चैतन्य स्वरूप शुद्ध आत्माको प्राप्तिके लिये हैं। जिस प्रकार दर्शनविशुद्धि, विनयसंपन्नता आदि सोलहकारण भावनाएं तीर्थंकर प्रकृतिके आस्रवके कारण हैं उसी प्रकार व्यवहारधर्म निश्चयधर्मका कारण है, जिस प्रकार तीर्थकर प्रकृति के लिये सोलह कारण भावनाओंका चितवन करते हैं उसी प्रकार आत्मस्वरूपको प्राप्तिके लिये भगवान अरहन्तदेवकी प्रतिमाको पूजा सत्पात्र वान आवि समस्त व्यवहारधर्म करना चाहिये । इसलिये पूजा, नुति, जप, ध्यान, भक्ति, विनय आदि किये जाते हैं। सो हो जैनगीतामें लिखा है जिनेशिनः स्नानात्स्तुतियजनजयान्मंदिरा_विधानात्, चतुर्थादानादध्ययनरव "जयतो ध्यानतः संयमाच्च । व्रताच्छीलात्तीर्थादिकगमनविधेः क्षातिमुख्यप्रधर्मात , क्रमाच्चिद्रपाशि भवति जाति रोनालकास्तस्य तेषाम् । देवं श्रुतं गुरु तीर्थ भदंतं च तदाकृतिम् । शुद्धचिद्रपसद्ध्यान हेतुत्वाद्भजने सुधीः। अर्थ-जो जीव शुद्ध चिप शुद्ध आत्माको प्राप्ति करना चाहते हैं उनके भगवानका अभिषेक करने । से, भगवानको स्तुति करनेसे, जप करनेसे, मंदिर प्रतिमा आदिकी प्रतिष्ठा, पूजा आदि करनेसे, चार प्रकारका ॥ दान वेनेसे, शास्त्रोंका अध्ययन करनेसे, इन्द्रियोंको जोतनेसे, ध्यान और संयम पालन करनेसे, व्रत तया शोलके । पालन करनेसे, तीर्थयात्रा करनेसे और उत्तम क्षमा आदि दश धर्मोके पालन करनेसे अनुक्रमसे शुद्ध आत्माकी प्राप्ति होती है । इसी प्रकार अरहंत देवकी निरनन्ध गुरुकी द्वादशांगरूप श्रुप्तज्ञानकी, जिनका सहारा लेकर यह जीव पार हो ऐसे कैलाश, सम्मेदशिखर, गिरनार, चंपापुर, पावापुर वा और भो निर्वाणक्षेत्र आदि तीर्थको तथा भदंत आदि भट्टारक तीर्थकर परमदेवकी और उनकी प्रतिमाको जो बुद्धिमान सेवा भक्ति करते हैं उनका र्शन, । पूजन,नमस्कार आदिके द्वारा अनेक प्रकारको भक्ति करते हैं, उनका ध्यान जप स्तुति करते हैं सो सब चिद्रूप सिद्धस्वरूप आत्माके ध्यानके लिये हो करते हैं । अर्थात् इन सबके करनेसे शुद्ध आत्माके ध्यानको प्राप्ति होतो । है। इस प्रकार जैनगीताके तीसरे अध्यायमें लिखा है सो सब पथार्थ है। पहले जो बिन प्रतिमाके स्थावर और जंगम ऐसे शे भेव बतलाये थे सो शास्त्रोंमें उनकी पूजा, वेदना, Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिागर : भक्ति आदि छह प्रकारसे बतलाई हैं। उन छोंके नाम ये हैं—नाम १ स्थापना, २ द्रव्य, ३ क्षेत्र, ४ काल, ५ और भाव ६। भगवान अरहंत, सिख, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधू आवि परमेष्ठियोंके एफसौ आठ अथवा एकहजार आठ नामोंसे पूजा बंदना करना नामपूजा है। स्थापनाके दो भेद हैं तदाकार और अतवाकार-जो तीर्थकरोंकी सदाकार प्रतिमा बनाकर तथा उनको प्रतिष्ठा कर जो पूजा भक्ति की जाती है वह तवाकार स्थापना पूजा है । तथा तदाकार प्रतिमाके बिना अक्षत सुपारी पुष्प आविमें अरहंत आदिको कल्पनाकर पूजा करना सो । मतदाकार स्थापना पूजा है ये सब पूजाएं आह्वान, स्थापन, सन्निधिकरण पूर्वक करनी चाहिये । द्रष्य पूजाके १. पूजाके पहिले जो आह्वान, स्थापन, सन्निधिकरण किया जाता है वह स्थापन निक्षेप नहीं है किंतु पूजाका एक-एक अंग है।। जिस प्रकार अपने यहां कोई बड़ा पुरुष आता है तो उसको सामने लेने के लिये उठकर खड़े होते हैं और कहते हैं कि आइयेआइये पधारिये यही विराजिवे, आप जो हमारे यहाँ पधारे सो आपने बड़ो कृपा को। इस प्रकार उन्हें संतुष्ट कर तथा भोजनादिकसे संतुष्ट कर जाते समय कुछ दूर तक जाकर शिष्ट वचनोंके साथ विदा करते हैं यह सब उनका आदर सत्कार है, यदि उसमें कुछ कमोकी जाय तो आदर सत्कारमें कमो समझी जाती है। तथा पूजा भी आदर सत्कार है। तीर्थकर परमदेव वा पंचपरमेष्ठी सर्वोत्तम पुरुष हैं इसलिये उनका आदर सत्कार सर्वोत्तम रोतिस किया जाता है इसीको पूजा कहते हैं। उस पूजाके ऊपर लिखे आह्वान स्थापन सन्निधिकरण पूजा और विसर्जन ये पांच अंग हैं। सो हो लिखा है आह्वान स्थापनं च सन्निधिकरणं तथा, पूजा विसर्जन वमुपधारस्तु पंचधा । अर्थात् आह्वान, स्थापन, सन्निधिकरण, पूजा, विसर्जन इस प्रकार पूजा पाँच प्रकार है ऐसा अकलंक प्रतिष्ठापाठमें लिखा है। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि आह्वान, स्थापन आदि पूजाके आदर, सत्कारके अङ्ग है स्थापना निक्षेप नहीं है। इसका। प्रबल कारण यह है कि स्थापना निक्षेपमें सोऽयम्', 'यह वहीं है। इस प्रकारका सङ्कल्प किया जाता है। लिखा भो है साकारे वा निराकारे काष्ठादो यन्निवेशनम् । सोपमित्यभिधानेन स्थापना सा निगद्यते॥ अर्थात् तदाकार व अतदाकार काष्ठादिकमें 'यह वही है। इस प्रकार संकल्प करना, निवेश करना स्थापना निक्षेप है आह्वान, स्थापनमें 'यह बड़ी है' ऐसा सङ्कल्प नहीं होता । इसलिये यह स्थापना निक्षेप कभी नहीं हो सकता । ___ जो लोग यह समझते हैं कि जहाँ प्रतिमा विराजमान हैं वहाँ स्थापना नहीं करनी चाहिये सो यह उनकी भारी भूल है। कोई-कोई लोग तो ऐसे हैं जो आह्वान, स्थापन, सन्निधिकरण करते ही नहीं हैं। उनका वह पूजन करना उसी प्रकार है जो त आये हुए किसी बड़े आवमीके लिए आइये, पधारिये यहाँ विराजिये आपने पधारने की बड़ो कृपा को, इत्यादि वचनोंके कहे बिना हो उसका यथेष्ट आदर, सस्कार किये बिना ही उसके सामने भोजनका थाल लाकर रख देना है। जो लोग ऐसा करते हैं वे अशिष्ट कहलाते हैं और उनका वह आदर, सस्कार योग्य नहीं कहलाता, न उस आदरसे किसी कार्यको सिद्धि होती। है। उसी प्रकार जो पूजाके आह्वान, स्थापन, सन्निधिकरणके बिना हो पूजन करते हैं उनको वह पूर्ण पूजन नहीं कहलाती । स्मारकमान्यायवाचETAweनिम्न [ ५५२ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर [५५३ ] तीन भेद हैं सचित, अचित्त और मिश्र । साक्षात् तीथंकुर केबली भगवानकी पूजा करना सचित्त ब्रव्य पूजा है। उनके निर्माण हो जाने पर उनको शरीरको पूजा करना अचेतन द्रव्य पूजा है । तथा आचार्य, उपाध्याय, साधु और उनके पास रहनेवाले दास्त्रोंकी सम्मिलित ( मिली हुई ) पूजा करना मिश्र द्रव्यपूजा है। तोयंकरों, पंचकल्याणक क्षेत्रोंमें जाकर उन क्षेत्रोंको पूजा करना सो क्षेत्रपूजा है। तीर्थखुरोंके पंचकल्याणक जिस महीने में, जिस पक्षमें, जिस तिथिमें, जिस नक्षत्र में और जिस समय में हुए हैं उस समय में उनकी पूजा करना कालपूजा है । तथा सामायिक करना णमोकार मंत्र का जप करना पिडस्थ, रूपस्थ, रूपातील आदिका चितवन करना जप व ध्यान करना भावपूजा है। इन सबका स्वरूप एकसौ बत्तीसवीं चर्चा में गाया और इलोकोंका प्रमाण देकर विस्तार के साथ लिखा है सो बहाँसे विचार लेना चाहिये । यहाँ पर इतना विचार और कर लेना चाहिये कि ऊपर लिखे हुए छहों निक्षेप धातु वा पाषाणको जनप्रतिमामें ही हो सकते हैं। इसलिए इसका निषेध करना बड़े अनर्थका मूल है, सम्यग्दृष्टि पुरुष इसका निषेध कभी नहीं कर सकता । प्रतिमा जो ऊपर स्थावर जंगम ऐसे दो भेद बतलाये हैं उनको व माननेका हो हठ हो तो फिर श्रावकों की ग्यारह प्रतिमा भी बतलाई है। उन प्रतिमाओंको तो मानना हो पड़ेगा। प्रतिमा शब्द का अर्थ, आकार, चिह्न अथवा रूपकका है। सो मुनिमें जंगम प्रतिमा है केवलोमें स्थावर प्रतिमा है और भावकों में दर्शन आदि ग्यारह प्रतिमा हैं । सो सब व्रत आचरण आदिकी अपेक्षासे है । तथा उनकी मूर्ति बनाकर पूजना सो रूपक प्रतिमा है ऐसा सिद्धांत है। प्रश्न- -यहाँ पर कामतो दूँढ़िया प्रश्न करता है कि हमारे सूत्रोंमें प्रतिमा तथा मन्दिर पूजाका किन्तु पाँच अंगोंमें एक अंग कहलाता है। क्योंकि आह्वान, स्थापन के बिना विसर्जन भी नहीं किया जा सकता। केवल पूजा रह जाती है । तथा पूजा में आह्वान, स्थापन, सन्निधिकरण और विसर्जन ये विशेष अंग हैं उनके न करनेसे पूजाका विशेष फल नहीं मिल सकता ! जैसे आया हुआ भद्रपुरुष 'आइये पधारिये' आदि मिष्ट वचनों के बिना प्रसन्न नहीं होता उसो प्रकार बिना आह्वान, स्थापन के पूजाका यथेष्ट फल नहीं मिलता। इसलिये बिना आह्वान, स्थापन, सन्निधिकरणके तथा विसर्जनके कभी पूजा नहीं करनी चाहिये । पूजा ने आह्नानादिकका होना अत्यन्त आवश्यक है । ७० [" Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर १५४] निषेध किया है। जो लोग प्रतिमाजीकी पूजा करते हैं उसमें हिंसादिक महापाप होता है सो हो श्वेताम्बरोंके यहाँ लिखा है । धम्मस कारणे मूढो जो जीवं परिहिंसई । दहिऊण चंणनं तरु करेइ अंगार वाणिज्जं ॥ अर्थ — जो जीव धर्मके लिए जीवोंकी हिंसा करते हैं वे मूर्ख हैं। वे लोग कोयला बेचनेके लिए चंदनवृक्ष जलाते हैं। भावार्थ -- कोयला बेखनेके लिये चंदनको जलाना बड़ी मूर्खता है। संसार में और अनेक वृक्ष हैं अन्य वृक्षोंका अभाव नहीं है इसलिए केवल कोयले बेचनेके लिये चंदन जलाना भारी मूर्खता है इसी प्रकार प्रतिमाको पूजा करना और उसमें हिंसा करना भारी भूल है इसको हम लोग ( दूँढ़िया ) कभी नहीं के मानते हैं । उत्तर --- प्रथम जिस गायाका प्रमाण दिया है वह प्राचीन नहीं है तुम्हारी बनाई हुई नवोन है इसलिए वह प्रमाण नहीं हो सकती। दूसरे यह गाथा छन्दशास्त्रके विरुद्ध है। क्योंकि इसमें जितनी मात्राएं होनी चाहिये उतना नहीं हैं, कम हैं। गायाओंमें, मात्राओंकी संख्या बारह, अठारह, बारह, पन्द्रह होती हैं । पहले चरणमें बारह, दूसरेमें अठारह तीसरेमें बारह और चौथे चरण में पन्द्रह मात्राएं होती हैं। इस प्रकार सब सत्तावन मात्राएं होती हैं, सत्तावन मात्राओंकी गाथा कहलाती है । सो हो भाषा छन्द शास्त्रमें लिखा हैआद द्वादश करिए। अठारह बार फिर धरिये ॥ संख्या शेष बताई । गाथा छन्दक हो भाई || सो इस गाथामें सत्तावन मात्राएँ नहीं है दूसरे चरण में कम मात्राएँ हैं इसलिये यह गाया अप्रमाण है । दूसरी बात यह है कि यह गाथा प्राचीन नहीं है श्वेताम्बरोंके यहाँ ही यह गाथा प्राचीन इस प्रकार है। हरिऊण परं दव्वं पूजं जो करेड़ जिणवरिंदाणं । दहिऊण चंदणतरु' करेइ अंगारवाणिज्जं ॥ अर्थ - जो मनुष्य दूसरेका द्रव्य हरण कर चोरी कर उस धनसे भगवान जिनेन्द्रदेवको पूजा करता है वह मानों कोयलेके व्यापार के लिए चंदन वृक्षको जलाता है । यह प्राचीन गाथा है सो प्रमाण है । इसलिए तुम्हारी बनाई हुई नवीन गाया प्रमाण नहीं है । [ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर २५५ ] SpiAAS यदि हटकर इसी गाथाको प्रमाण मानोगे तो देखो तुम्हारे महान् सीत नामके सूत्र में लिखा हैदेवधरमगुरुकज्जे चूरीज्जइ चक्कवट्टि सेपि । जोण विचुरई साहू लहु अनंत संसारिओ होई ॥ संघस्स कारणेणं चुरिज्जइ चक्कवट्ट सेर्णपि । जउ णउ चीज्जइ सौ अनंत संसारिओ होई ॥ अर्थ - यदि देव, धर्म, गुरुका काम आ पड़े तो उसके लिए चक्रवर्तीको सेनाको भो चूर्ण कर देना चाहिये अर्थात् मार देना चाहिये। जो साधु उसमें हिंसा समझकर नहीं मारता वह अनंतसंसारी होता है ॥ १ ॥ इसी प्रकार किसी चतुर्विधसंघके कामके लिए भी काम पड़ने पर चक्रवर्तीको सेनाको मार देना चाहिये। जो आधु उसमें पाप समझकर नहीं भरता है वह अनंतसंसारी होता है । ऐसो भगवानकी आज्ञा है । ऐसा तुम्हारे यहाँ लिखा है । सो यहाँ बताना चाहिये कि अहिंसारूप धर्मके लिये हिंसाका त्याग कहां रहा । तुम तो अपने सूत्रोंको भगवानके कहे हुए मानते हो सो झूठे हो नहीं सकते। परन्तु यहाँ आकर सब झूठे हो जाते हैं । और देखो -- गोशाल्याने भगवान महावीर स्वामी के ऊपर समवशरणमें तेजोलेश्या छोड़ी थी तथा उस समवशरणमें ही उसने भगवान के लिए माली आदि अनेक दुर्वचन कहे थे उसको सुनकर वो साधुओंको बड़ा क्रोध हुआ था और उस गोशाल्याको मारनेके लिए भी उठे थे ऐसा तुम्हारे यहाँ लिखा है तथा यह भो लिखा है कि उन साधुओंने धर्मके लिए हो क्रोध किया था और धर्मके लिए ही उसे मारनेको उठे थे । सो फिर यह कौन-सी अहिंसा रहो । धर्मके लिए यह हिंसा कैसी ? कहाँ तो पूजा में हिंसा मानना और कहाँ मारनेसे भी हिंसा न मानना इस पक्षपातका इस झूठका कुछ ठिकाना नहीं । इसके एक बात यह भी हैं "कि जिनप्रतिमाकी पूजा नहीं करना चाहिये जो कोई जिनप्रतिमा की पूजा करता है वह मिथ्यादृष्टि है। जिनप्रतिमाकी पूजा करनेवाला अमुक मनुष्य अनन्तसंसारी हुआ और नरकाविक दुर्गतियोंमें गया" इत्यादि वचन तुम्हारे किस सूत्रमें लिखे हैं । यदि कहीं लिखे हैं तो बतलाओ । कदाचित् कोई कामतका यह कहे कि हमारे किसी शास्त्र में प्रतिमा पूजनका विधान भो सो नहीं है। इसलिए हम लोग नहीं मानते हैं। तो इसका उत्तर यह है कि श्वेताम्बर सूत्रोंमें लिखा हैजो जड़ सीसंघ चिणंदरायं तहा विगयदोसं । सो तईय भवे सिज्झइ अहवा सन्तठभवे गाणी | [ ५५५ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर अर्थ—जो भव्यजीव जल, फलादिक द्रव्योंसे समस्त दोषोंसे रहित बोतराग सर्वज्ञदेवको तोन समय पूजा करता है वह ज्ञानी पुरुष तीसरे भवमें अथवा सातवें, आठवें भवमें मोक्ष प्राप्त करता है। इस प्रकार तुम्हारे ही शास्त्रोंमें पूजाका विधान है इसलिए तुम जो जिनपूजाका निषेध करसे हो तो सब मिथ्या है। तुम्हारे यहाँ भी नाम, स्थापना, ब्रव्य, भाव ये चार निक्षेप कहे हैं सो स्थापना निक्षेप बिना प्रतिमाके बन ही नहीं सकता 'यह वही है' इस संकल्पको स्थापना कहते हैं और जिसमें यह सङ्कल्प किया जाता है वही प्रतिमा कहलाती है । इसलिये तुम्हारे भतसे ही प्रतिमा पूजनका निषेध नहीं हो सकता । इसके महान सोतसूत्रमें लिखा है। किसी श्रावकने पूछा है कि पुण्यबंध किस प्रकार होता है तब इसके उत्सरमें कहा है कि नवीन जिनमंदिर बनवाना, उसमें जिनप्रतिमा बनवाकर, प्रतिष्ठा कर, स्थापन करना महापुण्यबंधका कारण है । इससे जीव बारहवें स्वर्ग में जाता है । भत्तपत्त नामके सूत्रमें लिखा है जिनमंदिर, जिनबिम्ब, जिनसत्र साधु-साध्यो, श्रावक-श्राविका इन सात क्षेत्रों में। करना प्रावकका प्रससे बड़ा धर्म है। हमारे हिना और कोई बड़ा धर्म नहीं है । ज्ञातृधर्मकया नामके सूत्रके सोला अधिकारमें लिखा है कि अर्जनकी रानो द्रोपवी नामको सतीने सर्याभ नामके देवके समान सत्तरभेद श्रीजिनप्रतिमाको पूजा को । उसीसे कर्माको नाश कर मोक्ष गई । यदि तुम्हारे यहाँ जिनप्रतिमाको पूजा करना नहीं लिखा है तो यह कथन कैसे लिखा है। प्रश्नव्याकरण सूत्रमें लिखा है कि पाटलीपुत्र नगरमें जीवन स्वामी श्रीमहावीरस्वामीको यति, श्रावक वन्दना करते हैं अर्थात् पटना नगरमें श्रोमन्दिरमें जो श्रीमहावीर स्वामीको प्रतिमा विराजमान हैं उनकी वंदना करते हैं। दशवकालिक सूत्रमें चैत्यवंदनाका अधिकार करना लिखा है। इसके सिवाय एक कथा लिखो है कि एकसेन मालो नित्य नवांगपूजा करता था। अर्थात् अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, दर्शन, ज्ञान, चारित्र और इनको पालन करनेवालोंको नव पुष्पोंसे प्रतिदिन पूजा करता था सो उसके फलसे यह नौ भव तक अनेक प्रकारको सम्पदाका उपभोग करता रहा और मोक्ष गया सो यह कथा तुम्हारे यहाँ है या नहीं ? इसके सिवाय तुम्हारे शास्त्रों में तोन लोकसंबंधी जिनमंदिर और जिनप्रतिमाओंका सदा निश्चलरूपसे रहनेका विधान लिखा है। तथा लिखा है-अद्विधारो मुनि और देव विद्याधर आदि आठवें नंदीश्वर द्वीपमें Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर R- SAMJHEHAREEReaperHACIDESHEHRP-मालमाMESSPOES चैत्यवंदना करते हैं और उसमें "णमोत्थाणु अरिहंताणं भगवंताणं" आदि पाठ पढ़ते हैं तथा "सित्येवं बंदामि बइएवं वदामि" पढ़ते हैं अर्थात् "भगवान अरहंत देवको में नमस्कार करता हूं, मैं तीर्थोको नमस्कार करता हूँ और जिना रिमाको मार करता हूँ।" इस प्रकार पाठ पढ़नेका विधान है। इससे भी प्रतिमाको पूजा करना सिद्ध होता है। यहाँपर चैत्यका अर्थ प्रतिमा होता है परंतु कोई-कोई लोग चैस्यका अर्थ प्रतिमा न करके शान अर्थ करते हैं तथा चैत्यका ज्ञान अर्थ करके प्रतिमापूजनका निषेध करते हैं सो उनका इस प्रकार निषेध करना व्यर्थ है क्योंकि ज्ञान तो सदा अपने पास रहता है फिर उसकी वंदना करनेके लिये नंदोश्वर द्वीपमें वा मेरु पर्वतपर जानेको क्या आवश्यकता है । नंदीश्वर वा मेरु पर्वतपर जाकर तो प्रतिमाको ही पूजा हो सकती है। ज्ञानको पूजा चाहे जहाँ हो सकती है वह तो सदा पास रहता है । उसको पूजा करनेके लिये अन्य देशमें वा अन्य क्षेत्रमें जानेकी आवश्यकता नहीं है। दूसरी बात यह है कि ज्ञानको वंदना करनेमें "णमो युग" इस पाठको क्या आवश्यकता है? परंतु यह पाठ भगवतीसूत्र में लिखा है। भगवान तीर्थकरके मोक्ष जानेके अनंतर इन्द्रादिक देव आकर उनकी पूजा करते हैं तथा मुंहसे दान। निकालकर स्वर्गमें ले जाते हैं और उसकी पूजा करते हैं। सो वह दाढ भी अचेतन है। उसकी पूजा क्यों को जाती है । उपासकाध्ययन नामके सूश्नमें श्रावकके बारह यतनों में जिनप्रतिमा और उसको पूजा करनेका वर्णन है और लिखा है कि आनंद नामके श्रावकने उनकी कथा कही थी । सो यह कथन भी किस प्रकार आया ? इसके सिवाय ज्ञातृस्वरूप, आवश्यकसूत्र और समय श्रेणीसूत्र आदि किलने हो सूत्रोंमे रत्न, सुवर्ण, चाँदी, पाषाण आदिको जिनप्रतिमा बनानेका विधान लिखा है । फिर उसका निषेध क्यों करते हो ? महायोर चरित्रमें जिनप्रतिमाके प्रतिष्ठाके अक्षर लिखे हैं । तथा कपिल नामके किसो केवलीको प्रतिष्ठा करना लिखा है । फिर प्रतिमापूजनका निषेध कैसे करते हो ? समवाय सूत्रमें ौतोस अतिशयों के निर्णयमें लिखा है कि जिनप्रतिमाकी पूजा करनेके लिये जलमें उत्पन्न हुए कमल आविक सपा स्थल में उत्पन्न हुए बेला, चमेली, गुलाब आदिके फूल चढ़ाने चाहिये। भगवतीमें लिखा है कि जिनप्रतिमाकी पूजा दीपक जलाकर, धूप लेकर तथा जल गंधाक्षतादि आठों द्रव्योंसे । करनी चाहिये । इस प्रकार सब जगह प्रतिमा पूजनका विधान है फिर प्रतिमापूजनका निषेध किस प्रकार किया जा सकता है? HEALTERATUREHENDE . .. . - - - -- Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्शनागर [ ५५८ इसके सिवाय सामायिकको पाटोमें एक लोगस्सको पाटो है उसमें पाठ पूर्ण होते समय लिखा है। कित्तिय वंदिय महिया एदे लोगुत्तमा जिणा सिद्धा। सो यहाँपर महियाका अर्थ क्या है ? महियाका अर्थ पूजा करना ही तो है। फिर प्रतिमापूजनका निषेध क्यों करते हो ? आवश्यक सूत्रमें लिखा है कि भरत चक्रवर्तीने चौबीसों तीर्थङ्करोंके जिनबिम्ब बनवाकर कैलाश पर्वतपर विराजमान किये। फिर भी प्रतिमापूजनका निषेध करते हो। जंबूद्वीप पण्णत्तीनामके सूत्रमें लिखा है कि पूजा करनेके लिये राजा करनेवालको तो चित्त जलसे स्नान करना चाहिये और जिनप्रतिमाका अभिषेका छने हुये सचित्त जलसे करना चाहिये। वहाँपर एक करोड़ कलशोंके सचित्त जलसे तीर्थकरका अभिषेक करना लिखा है। इसके सिवाय सूर्याभदेव अभयकुमार अंबड नामका श्रावक और जंघाचारी साधुने नंदीश्वर द्वीपमें जाकर जिनप्रतिमाकी वन्दना की। इस प्रकार अधिकारमें जिनप्रतिमाको पूजाका वर्णन लिखा है । कहाँ तक कहा जाय तुम्हारे । ही सूत्रोंमें प्रसंगानुसार स्थान-स्थानपर जिनप्रतिमापूजन का विधान लिखा है फिर भला इसका निषेध किस प्रकार किया जा सकता है। शास्त्रों के इतने प्रमाण मिलनेपर भी जा जिनप्रतिमाको पूजाका निषेध करते हैं वे सूत्रवाह हैं। ऐसे सूत्रवाह्य मिथ्यात्वो लोग हो जिनप्रतिमापूजनमें हिंसाविक पाप बतलाकर भोल जोधोंको भुलाते हैं सो । अत्यन्त अज्ञानी जीव ही इनके वचनरूपी विषसे ठगे जाकर इस अपार संसारमें परिभ्रमण करते हैं। इस प्रकार ! लुकामत तथा दूढिया मतके सूत्रों के अनुसार ही प्रतिमापूजनका निर्णय किया। कुछ वेवान्ती भी मूर्तिपूजाको नहीं मानते सो आगे उनके लिये लिखते हैं। लौकिकमें चार पेव हैं, अठारह पुराण ई उनमें जो कथन है सो क्या सब व्यर्थ है। परंतु इन सबका कथन तेरे मतसे भो व्यर्थ नहीं हो सकता। | इसलिये तेरा वेदांत तेरे ही पास रहेगा, विशेषज्ञानो ऐसे वेदांतको कभी स्वीकार नहीं कर सकते। पवि मूर्तिपूजन न मानी जाय तो मंदिर, मूर्ति, तीर्थयात्रा, वान, बत, उपवास, श्राड, पिंड, ब्राह्मणभाजन, जप, तप, यम, नियम, जागरण, भक्ति भाव, यशकथा, कोर्तन, उसका श्रवण आदि सब मिय्या मानना पड़ेगा। यदि वेदांतमत एक मोक्षरूप ही है तो फिर ऊपर लिखे पुण्यकार्योंके करनेको क्या आवश्यकता है ? परन्तु सो हो नहीं सकता क्योंकि ऊपर लिखे पुण्यकर्मोसे अनेक जीवोंका उद्धार हुआ है और अनेक जोय मुक्त हुए हैं ऐसा भागवत आदि पुराणोंमें। लिखा है उसको मर्प किस प्रकार कह सकोगे ? इसलिये केवल एकांतवाव मानना वैष्णव, शेव और पौराणिक Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सायर १५९ ] मतको दूषित करना है। इसलिये द्वैताद्वैत ब्रह्मपक्षका कहना शैव और वैष्णव दोनों मतोंका बाधक है और स्वछन्द उन्मत्त पुरुषके समान है इसलिए प्रमाणरूप नहीं माना जा सकता । सब शास्त्रोंसे मिले हुए वचन ही प्रमाण हो सकते हैं विरुद्ध वा विरोधी वचन प्रमाणरूप नहीं कहे जा सकते । प्रतिमाको जड़ और अचेतन मानकर निष्फल मानना वेद और पुराणके सर्वथा विरुद्ध है । इसलिये सर्वथा प्रमाण नहीं है । काचित् कोई यह कहे कि हमारे लघुचाणक्यमें ऐसा लिखा है न देवो काष्ठपाषाणे न देवो धातुमृण्मये । भावेषु विद्यते देवो तस्माद् भावो हि कारणम् ॥ और जगह भी लिखा है न देवो विद्यते काष्ठे पाषाणे न च मृण्मये । भावेषु विद्यते देवो तस्माद् भावो हि कारणम् ॥ अर्थ - देव न तो काठ है, न पाषाण में है, न घातुमें है, न मिट्टीमें है किन्तु भाषोंमें देव है इसलिये भाव हो मोक्षके कारण हैं दूसरे श्लोकका भी यही अर्थ है। अभिप्राय यह है कि काळ, पाषाण, धातु, मिट्टी आदिको मूर्ति बनाकर प्रतिष्ठाकर उसकी पूजा करते हैं सो उसमें परमेश्वर वा देव नहीं है यह तो धातु पाषाणकी जड़ रूप है, वेब तो केवल अपने भावों में है इसलिए केवल भाव ही कारण है, मूर्ति कारण नहीं हैं। इस प्रकार कोई वेदान्ती कहता है सो भो ठोक नहीं है। क्योंकि ऐसा माननेसे अनेक दोष आते हैं और ऊपर लिखे हुए यम-नियमादिक समस्त धर्मोका लोप हो जाता है। इसलिये ऊपर लिखा कथन ठीक नहीं है। क्योंकि उसी लघुचाणक्य में आगे ऐसा लिखा हैकाष्ठपाषाणधातूनां भावं निवेदयेद् यथा । तथा भक्तिस्तथा सिद्धिः तस्य देवो प्रसीदति ॥ - अर्थ -- जो मनुष्य काठ, पाषाण या धातुको प्रतिमामें अपने भाव जैसे लगाता है इस प्रतिमाएँ अमुक देव विराजमान है इस प्रकार अपने भाव लगाकर जैसी उसकी भक्ति करता है वैसी हो उसको सिद्धि होती है । तथा उसी प्रकार वह बेब उस पर प्रसन्न होता है उससे वह इच्छानुसार फल प्राप्त करता है । भावार्थ -- जो पुरुष उस मूर्ति में परमेश्वरादिक किसी वेवकी स्थापना कर अच्छे भावोंसे उसकी पूजा करता है सो अपना मनचाहा फल पाता । इस वचनसे यह भी सिद्ध हो जाता है कि जो मनुष्य उस मूर्तिको देखकर उसमें अपने [4 Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र परिणाम बुरे करता है । बुरे परिणामोंसे उसे पत्थर अचेतन जड़ आदि मानकर उसकी भक्ति वा पूजाका लोप " करता है वह नरकगतिको प्राप्त करता है । सो हो लिखा हैचर्चासागर, मंत्रे तीर्थे द्विजे देवे देवज्ञ भेषजे गुरो । यादृशी भावना तस्य सिद्धिर्भवति ताहशी ॥ [१६.3 अर्थ मन्त्र, तीर्थ, द्विज, देव, ज्योतिषशास्त्र, औषधि और गुरुम पुरुषों को जैसी भावना होती है वैसी । हो उनको सिद्धि होती है। भावार्थ-यदि मनमें इनमें आस्तिकरूप, श्रद्धारूप परिणाम हों तो उनको उससे ही है सब कामोंको सिद्धि हो जाती है । यदि मनमें विश्वासरहित नास्तिक भाव हों अश्रद्धासे सेवन करे तो उसके । कार्यको सिद्धि नहीं होती। उसका सेवन करना पूजाविक करना भी निष्फल हो जाता है क्योंकि ऐसा पुरुष | उसको निष्फल व्यर्थ समझता है इसलिए उसका फल भी व्यर्थ और विपरोत होता है। यदि प्रतिमाको अचेतन व जरूप मानकर उससे कार्यको सिद्धिका अभाव मानोगे तो फिर कल्पवृक्ष, चित्रावेलि, चिन्तामणि रत्न, पारस पत्थर, मन्त्र, यन्त्र, तन्त्र, औषधि तथा केवल परमात्माका शब्दोंके द्वारा। नाम उच्चारण करना आदि मन अचेतन और जङ्गरूप हैं और इन सबसे कार्यको सिद्धि होती है । इसलिये । अचेतन मूतिसे हो समस्त कार्योकी सिद्धिका होना अवश्य मानना पड़ेगा। सूत्र, सिद्धान्त, वेद, पुराण आवि सब मतोंके शास्त्र भो जड़ और अचेतन है परन्तु उन सबसे ज्ञानकी सिद्धि होती है इस बातको भला कौन नहीं मान सकसा ? अर्थात् सबको मानना पड़ता है। यह जो ऊपर कहा गया था कि पतिहीन, स्त्री, पुत्र प्राप्ति के लिये यदि पतिकी मूर्तिको भक्ति वा । । सेवा करे उससे पुत्रको प्राप्ति नहीं होती उसको वह भक्ति वा सेवा व्यर्थ है सो भी ठीक नहीं है। क्योंकि अन्य किसी पतिहीन स्त्रोने अपने पतिको मूर्ति तो बनाई नहीं वह केवल उसका ध्यान करतो रहो, माला लेकर। । उसके नामका जप करती रही तो भी तो उसके पुत्रकी प्राप्ति नहीं होती । भावार्थ-यवि प्रतिमाको पूजा १. पुत्रकी उत्पत्ति पतिके वीर्थसे होती है और वीर्य शरीरका एक धातु है पतिके मरनेपर या विदेश रहनेपर उसके शरीरसे उत्पन्न हुए वीर्यका ग्रहण होता नहीं इसलिए उसको भूतिसे वा जप, ध्यान आदिसे पुत्रकी उत्पत्ति नहीं होतो। परन्तु कोका क्षय वा शुभानव भावोसे होता है इसलिये मूर्तिमें यदि परमात्माके भाव हों तो उससे अवश्य कर्मक्षय होते हैं। वा शुभास्रव होता है। जप, ध्यान यादिसे भी यही बात होती है। . ..-:.- --.. Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर करनेसे मोक्षको प्राप्ति नहीं होती तो केवल नामका उच्चारण कर जप करनेसे वा उसका ध्यान करनेसे तो भो । मोक्षको प्राप्ति नहीं होती। क्योंकि जैसी मूर्ति जड़ है वैसा शब्द भो जड़ है। इसलिये मानना चाहिये कि मोक्षको प्राप्ति कर्मोंके क्षय होनेसे ही होती है। कर्मों के आय करनेके दो उपाय हैं एक सरागमार्ग और दूसरा वीतराग मार्ग । जिनप्रतिमाको पूजा करना, दान देना आदि तो सरागमार्ग है। महाव्रत धारण करना, इन्द्रिय तया कषायोको जीतना, ध्यान करना, तप करना, व्रत करना, उपवास करना, उपशम श्रेणीका चढ़ना, यथाख्यातचारित्रका धारण करना आदि वीतराग मार्ग है। इनमेंसे सरागमार्ग एक देश कौको क्षय करनेवाला है इसलिये परंपरासे मोक्षका कारण है और वीतराग मार्ग पूर्ण कर्मोको नाश करनेवाला है इसलिये वह साक्षात् मोक्षका कारण है । इस प्रकार दोनों हो मोक्षके कारण हैं । इसलिये अपनी जैसी पदवी हो उसीके अनुसार चलना चाहिये । तथा उच्च पदयोको भावना सदा रखनी चाहिये । भावार्थ गृहस्थोंका धर्म देवपूजा और दान देना मुख्य है तथा मुनिधर्म धारण करनेको आकांक्षारूप है और मुनियोंका । धर्म महावतादि रूप वीतराग मय है और केवलज्ञान प्राप्त करनेको आकांक्षारूप है ऐसा अभिप्राय समझना चाहिये । इस प्रकार जिनप्रतिमापूजनका निषेध करनेवालोंका निराकरण किया । २५२-चर्चा दोसौ बावनवीं कितने ही भागवतो वैष्णव तथा स्मातिक मतके शैवलोग वा अन्य धर्मके कितने ही लोग कहते हैं कि जैनमत तो नास्तिक मत है इसलिये प्रशंसा करने योग्य नहीं है मलिन धर्म है। वे लोग यह भी कहते हैं कि शैव और वैष्णवोंको जिनमंदिरों में नहीं जाना चाहिये। जो जाते हैं उनको बुद्धि छह महीने तक हो रहती है। अर्थात् जैन मंदिरमें जानेवाला पुरुष छह महीनेमें हो बुद्धिहीन हो जाता है । इसलिये जैन मंदिरमें कभी नहीं जाना चाहिये । लिखा भी हैअजां हत्वा सुरां पीत्वा गत्वा गणिकमंदिरम् । हस्तिना ताडयमानोपिन गच्छेज्जैनमंदिरम् ॥ अर्थ-बकरा मारना, शराब पीना और वेश्यागमन करना ये सब अयोग्याचरण हैं सो तो भले हो कर लेना चाहिये परंतु सामनेसे आते हुए हाथोके द्वारा प्राण नष्ट होनेपर भी अपने प्राण बचानेके अभिप्रायसे भी जैन मंदिर में नहीं जाना चाहिये । भावार्थ-प्राण नष्ट होते हों तो हो जाने देना चाहिये । किंतु उसी स्थानपर । Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोई जैम मंदिर हो और उसमें जाकर शरण लेनेसे उसमें जाने मात्रसे प्राण बचते हों तो भी उस जैन मंदिरमें। नहीं जाना चाहिये। ऐसा ब्राह्मणादिक लोग कहते हैं सो इसका क्या उत्तर है। चर्चासागर समाधान-इसका पहला उसर तो यह है कि यह वमन किसी ऋषिका नहीं है किसी मूर्खने ईर्ष्याके कारण गढ़ लिया है ! तथा उसका नाम लादने किये गानाचार्यका नाम रख दिया है अर्थात् उसे शंकराचार्यके वचन बतला दिये हैं सो प्रामाणिक नहीं हैं । केवल अंध परंपरासे चला आ रहा है। यदि कदाचित् इस श्लोकको मान ही लिया जाय तो उसका वास्तविक अभिप्राय ग्रहण करना चाहिये । उसका वास्तविक अभिप्राय यह है-भेड़, बकरे आदि जीवोंको मारकर अथवा शराब पीकर अथवा वेश्याके घर जाकर कोई पुरुष जैन मंदिरके समीपसे आ रहा हो और वहीं पर सामनेसे आते हुये किसी हाथीसे उसके माण नष्ट होते हों तो उसे अपने प्राण तो दे देने चाहिये कित उस महा अपवित्र अवस्थामें अपने प्राण बचानेके लिये उस पवित्र जैन मंदिरमें नहीं जाना चाहिये। क्योंकि जो पुरुष जीवोंका हिंसक है, शराब पीता है, और वेश्यागमन करता है वह महा पापी, महापातको, महा अधर्मों और महा अपवित्र है। ऐसे पुरुषको जैनमंदिरमें पैर रखना भी योग्य नहीं है मंदिर में जानेका उसे कोई अधिकार नहीं है। ऐसे पुरुषको तो जैन मंदिरसे । बहुत दूर होकर निकलना चाहिये । वह तो अस्पृश्य शूद्र के समान है। जैन मंदिरमें तो धर्मारमा पुरुषोंको ही जानेका अधिकार है। हत्या करनेवाले शरायो आदि लोगोंको जैन मंदिर में जानेका कोई अधिकार नहीं है । लोकमें बालगोपाल सब यह कहावत कहा करते है कि "गधोको । गंगा नहीं हैं उसी प्रकार श्रीजिन मंदिर गंगारूप है, श्रीजिनमूर्तिका वर्शन हो उसका निर्मल जल है वह ऊपर लिखे महापापीको प्राप्त नहीं हो सकता। यह उस इलोकका अभिप्राय है । इस समयमें भी कितने हो लोग ब्राह्मणोंके कहनेसे जिनमंदिरमें न जानेका नियम करते हैं सो कहनेवाले और न जानेका नियम लेनेवाले दोनों ही ऊपर लिखे जोयोंके समान हिंसक और शराबिघोंके समान महापापी समझना चाहिये । यही उस इलोकका अभिप्राय है। जो लोग यह कहते हैं कि जो कोई जैन मंदिर में जाता है उसको बुद्धि छह महोने में नष्ट हो जाती है। । सो. जिसकी बुद्धि जन्मसे हो भ्रष्ट हो गई है ऐसे ही पुरुष पागल पुरुषों के समान उन्मत्त होकर प्रलाप करते हैं। Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है उनकी बुद्धि जन्मसे हो भ्रष्ट है जन्मसे ही अंधे पुरुषके समान उन्हें किसी भी पवार्थका यथार्थ ज्ञान नहीं होता। ऐसे लोग अपनी इच्छानुसार पदार्थोके स्वरूपको मानते हैं किसी दूसरेकी नहीं सुनते । न मानते हैं। जो अपने मनमें आता है सो ही मानते है और यही करते हैं। उसी प्रकार अंधेकी लकड़ोके समान ब्राह्मणोंका कहना 1 है। तथा दूसरे लोग भी अन्धोंके समान हैं । ऐसे ही लोगोंके लिये यहाँपर एक प्रसिद्ध लौकिक उदाहरण दिख लाते हैं। सागर (६३ 22RREAD किसी राजाने किसी एकदिन सबेरे उठकर हो किसी सूमका मुंह देखा । जब भोजनका समय हुआ तब राजा भोजनके लिए बैठने ही जा रहा था कि सेवकोंने आकर समाचार दिये कि "महाराज सिंह धिर गया है" तब राजा अपने क्षत्रिय धर्मका स्मरण कर उसको मारनेके लिये चल दिया, उसने परोसा हुआ भोजन छोड़ दिया और भखा ही चला गया। बह राजा उस दिन सब दिन बनमें रहा उसने बहतसे । उपाय किये परन्तु वह सिंह वशमें नहीं आया। उस सिंहने अनेक लोग घायल किये और संध्या होते-होते वह भाग गया । तब राजा लाचार और उदास होकर भूखसे सताया हुआ ही अपने नगरमें आया। राजाने समझा कि उस सूमका मुख देखनेसे हो आज मुझे भोजन नहीं मिला है। तब वह उस सूमपर क्रोध करने लगा, । उसको बुलाया और सेवकोंको आज्ञा दी कि इसको मार डालो। दूसरे दिन सबेरे ही राजा सब लोगोंके साथ । बैठा था उस समय उस सूमने आकर पूछा कि महाराज ! ऐसा मेरा क्या अपराध है जिससे मेरे प्राण लिये जाते हैं। तब राजाने कहा कि तेरा मुख देखनेसे आज हमें अन्न नहीं मिला है आज हमें सब दिन भूखा मरना। पड़ा, इसीलिये तुझे मारनेकी आज्ञा दी है । राजाको यह बात सुनकर मूमने कहा कि मेरा मुंह देखनेसे आपको । एक दिन भूखा रहना पड़ा परन्तु शामको भोजन मिल गया। मेरे मुंह देखनेका इतना हो फल हुआ परन्तु महाराज आपका मह मैंने देखा था सो उसके फलसे तो मेरे प्राण ही जा रहे हैं अब आप हो कहिये इन। Hदोनोंमें किसका मुंह दुख देनेवाला और पापी है इससे तो राजाका ही मुख अधिक बुरा हुआ। क्योंकि उसके उसके देखनेसे समके प्राण गये। इसी प्रकार वह मनुष्य है जो यह कहता है कि जिनमविरमें जानेसे छह महीनेमें बुद्धि नष्ट हो जाती है ऐसे लोगोंको पीछेसे बुद्धि आती है । तथा कहनेवालेकी बुद्धि जन्मसे हो नष्ट। भ्रष्ट समझनी चाहिये। ऐसे लोग जन्म-जन्मान्तर तक ही होनबुद्धि रहते है और इसीलिये वे जिनप्रतिमाके " Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ५६४ ] दर्शन करनेमें दोष बतलाते हैं तथा मूर्ख लोगोंको भुलाकर रोकते हैं । इस प्रकार कहनेवाले और माननेवाले दोनों ही मूर्ख राजाके समान हैं, इसीलिये वे ऐसा मानते हैं । और देखो इस प्रकार कहनेवाले महा मिथ्याभाषो हैं 'जिनप्रतिमा के दर्शन करनेसे महापुण्य होता है और स्वर्ग मोक्षके फलकी प्राप्ति होती है" ऐसा पुराण और शास्त्रोंमें लिखा है परंतु अपनी आजीविका नष्ट होनेके डरसे ये लोग कहते नहीं हैं। तथा अपने मतके पक्षके अभिमानसे अनेक प्रकार के द्वेषरूप अन्यथा ( मिथ्या ) वचन कहते हैं और झूठो निंदा करते हैं। कदाचित कोई यह कहे कि हमारे पुराण वा शास्त्रोंमें जिनप्रतिमाके दर्शन करना कहाँ लिखा है तो उसके लिये कहते हैं कि देखो शिवपुराण में लिखा है Share विमले रम्ये वृषभोयं जिनेश्वरः । चकारास्तेवतारो यः सर्वज्ञः सर्वगः शिवः ॥ अर्थ-- कैलाश पर्वत के शिखर पर श्रीवृषभदेव नामके जिनेश्वर भगवान अवतरित हुये हैं पधारे हैं सो ये ही सर्वज्ञ हैं के हो ज्ञानके द्वारा सर्वव्यापी हैं और वे ही कल्याण करनेवाले शिव हैं । अर्थात् इनके सिवाय न कोई सर्वज्ञ है, न कोई सर्व व्यापक है, न कोई विष्णु और न कोई शिव है । सर्वज्ञ सर्वव्यापक विष्णु और शिव ये ही वृषभदेव हैं । प्रभासपुराण में लिखा है महापुण्यादर्शरूपा दृश्यते द्वारिका पुरी । अवतीर्णो हरियंत्र प्रभासशशिभूषणः ॥ १ ॥ रेवताद्रो जिनो नेमियुगादिविमलाचले । ऋषीणामादिदेवश्च मुक्तिमार्गस्य कारणम् ॥ 11 पद्मासनासमासीनः श्याममूर्तिदिगम्बरः । नेमिनाथः शिवेत्याख्यां चकारास्य व वामनः ॥ अर्थ- दक्षिण देशमें एक बामन हुआ है उसने गिरनार पर्वतपर श्रीनेमिनाथ भगवान के दर्शन किये थे । नेमिनाथ महापुण्यरूप और आदर्शस्वरूप द्वारिका नगरीमें जन्मे थे जहाँ कि चंद्रमाके समान कांतिको धारण करनेवाले नौवें नारायण कृष्णने अवतार लिया था । जिस प्रकार युग के प्रारंभ में श्रीवृषभदेव कैलाश पर्वतपर विराजमान हुये थे और अनेक ऋषियोंको मोक्षके कारण हुये थे उसी प्रकार धोनेमिनाथ भगवान गिरनार पर्वतपर विराजमान हुये थे । उस समय वे पद्मासन से सुशोभित थे, श्याममूर्ति थे और दिगम्बर थे । इस प्रकार नेमिनाथके दर्शन करनेपर वामनने उनकी स्तुति की और उनका शिव ऐसा नाम रक्खा और स्पष्ट शब्दों में Relea 6 [ ५६४ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर F कहा कि हे नेमिनाथ ! तुम्हीं साक्षात शिव हो, अन्य कोई शिव नहीं है । इसी प्रकार कानपुर में जलागि एक वाहमें शियके वचन लिखे हैं-- कलिकालमहाधोरसर्वकल्मषनाशनम् । दर्शनात्स्पर्शनादेवी कोटियज्ञफलप्रदः ॥ ऊर्जयंतगिरी रम्ये माघकृष्णा चतुर्दशी । तस्यां जागरणं कृत्वा स जातौ निमलो हरिः॥ अर्थ-पार्वतीसे महादेव कह रहे हैं कि हे देवि ! अत्यंत मनोहर ऐसे गिरनार पर्वतपर श्रीनेमिनाथजी विराजे हैं। उनके दर्शनसे तथा उस पर्वतके स्पर्श करनेसे फलिकालके महा घोर पाप नष्ट हो जाते हैं तथा । करोड़ों यज्ञोंका फल होता है। जो कोई पुरुष माघकृष्णा चतुर्दशीको रात्रिको वहां जाकर जागरण करता है वह निर्मल विष्णपदको प्राप्त होता है। इस प्रकार श्रीनेमिनाथके वर्शन करनेका तथा गिरनारके वर्शन करनेका और वहाँ जाकर जागरण करनेका फल बतलाया है इसलिये शैव लोगोंको विचार करना चाहिये कि दोनों में कौन उत्तम है। भर्तृहरिकाव्यमें सरागियोंमें मुख्य शिवको बतलाया है और योतरागियोंमें मुख्य श्रीजिनेन्द्रदेवको बतलाया है । यथा एको रागिष राजते प्रियतमा देहार्द्धधारी हरो, नीरागेषु जिनो विमुक्तललनासंगो न यस्मात्परः ॥ दुर्वारस्मरवाणपन्नगविषव्यासक्तमुग्धो जनः। शेषःकामविडंबितो हि विषयान् भोक्तुन भोक्तु क्षमः॥ रागियोंमें सबसे मुख्य महादेव है जिसने अपनी प्रियतमाको आधे शरीरमें धारण कर रक्खा है तथा वीतरागियोंमें जिनेन्द्र भगवान हैं कि जिनसे बढ़कर स्त्री और परिग्रहका त्यागो और कोई नहीं है। कामके द्वारा विंडबना किये हुये बाकीके मूर्ख लोग जबर्दस्त कामके वाणरूपो सर्प के विषसे मूछित हो रहे हैं जो न तो विषयोंको छोड़ सकते हैं और न भोग सकते हैं। इससे भगवान जिनेन्द्रदेवको उत्तमता ही सिद्ध होती है। दक्षिणमूति सहस्रनाममें शियके वचन लिखे हैं--- जिनमार्गरतो जैनो जितक्रोधो जितामयः । Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A बर्षासागर sme ACTICAL- ग्रहांपा निको भी भौशिवदेशको इत्तम और क्रोध, रोग आदि दोषोंसे रहित बतलाया है तथा । जिनेन्द्रदेवको स्तुति की है। दुर्वासाकृत महिन्मस्तोत्रमें लिखा है तत्र दर्शनमुख्यशक्तिरिति च त्वं ब्रह्म कर्मेश्वरी। कर्ताईन् पुरुषो हरिश्च सविता बुद्धः शिवस्तं गुरुः ॥ यहाँपर अन्य नामों में अरहंत नाम भी कहा है सो अरहंत नाम थोजिनेन्द्रदेवका हो है। इस प्रकार B संक्षेपसे शैवमतका निराकरण समझना चाहिये। कदाचित् कोई राजस गणवाला वैष्णवमत माननेवाला यह कहे कि शैव धर्ममें कहा है सो तो ठोक है। परन्तु भागवत आदि पुराणोंमें तो नहीं लिखा है। तो इसका उत्तर यह है कि भागवतके पंचम स्कंधम श्रीवृषभदेवका वर्णन किया है सो प्रसिद्ध ही है। श्रीमद्भागवतमहापुराणको टोकामें भी लिखा है नाभः सुतः स ऋषभो मरुदेविसुनुः मुनियोगचर्याम् । ऋषयः पदमामनन्ति स्वस्थाः समाहितधिया जयतां हिताश्च । अर्थ-राजा नाभिगाय और श्रीमरुदेवोके पुत्र श्री ऋषभदेव हुये थे जिन्होंने मुनियोंके लिए योगमार्ग दिखलाया था। इस प्रकार संसारका हित करनेवाले ऋषि लोग कहते हैं। नगरखंडमें लिखा हैस्पृष्ट्वा शत्रु जयं तीर्थं नत्वा रैवतकाचलम् । स्नात्वा गजपथःकुडे पुनर्जन्मो न विद्यते।। अर्य-जो मनुष्य शत्रुजय तीर्थका स्पर्श करता है । गिरनार पर्वतको बंदना करता है और गजपंथ नामके कुण्डमें स्नान करता है उसको फिर दुबारा जन्म नहीं लेना पड़ता। यहां भी जैनधर्मको उत्तमता बतलाई हैं। सो ठोक ही है। २५३-चर्चा दोसौ तिरेपनवीं प्रश्न-जैनशास्त्रोंमें सात परमस्थान बतलाये हैं सो कौन-कौन हैं ? SAREERSARDHAZZAZirupanारिसमाचार HTAKARMI Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सागर ५६७ ] समाधान --- पहला परमस्थान सज्जाति है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यको शुद्ध जाति और शुद्ध कुलमें जन्म लेना सज्जाति है । दूसरा परमस्थान सद्गृहस्थपना है, सम्यग्दर्शनपूर्वक श्रावकों के व्रत और आचरणोंका पालन करना सद्गृहस्थपना है। तीसरा परमस्थान परिव्राजकपना है । रत्नत्रयसे सुशोभित अट्ठाईस मूलगुणोंको पालनकर मुनियोंके व्रत पालन करना परिव्राजकपना है। चौथा परमस्थान सुरेन्द्रता है । उस महाव्रतके फलसे इंद्रपदा प्राप्त होना सुरेन्द्रता है । पाँच परमस्थान साम्राज्य है । इंद्रका शरीर छोड़कर चरम शरीर धारणकर चक्रवर्ती वा तीर्थङ्करपद पाकर साम्राज्य से विभूषित होना साम्राज्य परमस्थान । छठा परमस्थान अरहंतपद है । उस साम्राज्यका त्याग कर, दीक्षा लेकर तथा घातिया कर्मोंको नाश कर केवलज्ञान प्राप्त कर अरहंतपद प्राप्त करना छठा परमस्थान है। सातवां परमस्थान निर्वाण है अरहंतपद प्राप्त होनेके अनन्तर बाकी अघातिया कर्मोंका नाश कर निर्वाणपद प्राप्त करना सातवाँ परमस्थान है। इस प्रकार ये सात परमस्थान हैं तो जीवोंको बड़े पुण्योदयसे प्राप्त होते हैं। सो ही महापुराण में लिखा हैसज्जातिः सद्गृहस्थस्त्वं पारिव्राज्यं सुरेन्द्रता । साम्राज्यं परमार्हन्त्यं निर्वाणं चेति सप्तधा ॥ ये सातों परमस्थान हमारे भी हों ऐसो हमारी प्रार्थना है इसके सिवाय हमारी और कुछ इच्छा नहीं है। सो भी महापुराण में दूसरी जगह लिखा है- सज्जातिभागी भव, सद्गृहस्थस्त्रभागी भव, , मुनीन्द्रत्व भागी भव, सुरेन्द्रभागी भव, साम्राज्यभागीभव, अर्हभागी भव, निर्वाणभागी भव । इस प्रकार श्रीमज्जिनसेनाचार्यने आदिपुराणके चालीसवें पर्व में आराधनादि क्रियाओंके मंत्रोंमें लिखा है । इस प्रकार सप्त परमस्थान बतलाये । २५४ - चर्चा दोसौ चौवनव णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरिआणं । णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं ॥ तर मंगलं, अरहंत मंगल, सिद्ध मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं । [ १६७ Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्तारि लोगुत्तमा, अरहंत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा,साह लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो । लोगुत्तमा । चत्तारि सरणं पव्वज्जामि, अरहंत सरणं पठवज्जामि, सिद्धसरणं पव्वज्जामि, । सिागर साहसरणं पवज्जामि, केबलिपण्णत्तो धम्मोसरणं पन्वज्जामि । १९८] प्रम-इस प्रकार यह णमोकारमअपूर्वक मंत्र है । सो णमोकारमंत्रमें तो अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु इन पांचों परमेष्ठियोंका वर्णन आया है और उन पांचों परमेष्ठियोंको नमस्कार किया है परंतु । चत्तारि मंगलं आदि मंत्रमें पहले तो अग्हंत, सिद्ध दो परमेष्ठी कहे फिर साधु परमेष्ठीको स्मरण किया और फिर केवली प्रणीत धर्मको कहा । तया इन्हों चारोंको मंगल लोकोत्तम और शरणभूत बतलाया। सो यहाँ। आचार्य और उपाध्याय परमेष्ठोको क्यों छोड़ दिया? तोन परमेष्ठियोंको हो क्यों स्मरण किया इसका क्या । A कारण है ? समाधान—यह कहना ठीक है परंतु साधुके कहनेसे आचार्य और उपाध्याय भी आ जाते है । क्योंकि जिस प्रकार साधुओंको अट्ठाईस मूलगुण पालन करने पड़ते हैं उसी प्रकार आचार्य और उपाध्यायोंको भी। अट्ठाईस मूलगुण पालन करने पड़ते हैं। इनमें विशेषता इतनो हो हैं कि जो साधु होकर भी दर्शन, जान, चारित्र, तप, वीर्य इन पांचों आचारोंको विशेषताके साथ स्वीकार करे, पालन करें तथा औरोंसे पालन करावें और छत्तोस । गुणोंको विशेषताके साथ पालन करें ऐसे साधुओंको आचार्य कहते हैं अथवा ऐसे साधुओंको आचार्य पद प्राप्त होता है। इससे सिद्ध होता है कि आचार्य भी साधु ही हैं। तथा अट्ठाईस मूलगुणों के साथ-साथ ग्यारह अंग, चौवह पूर्वोको अंतर्मुहूर्तमें अर्थसहित शुद्ध पाठ करनेको जिनमें शक्ति हो ऐसी ऋद्धि जिनको प्राप्त हो जो स्वयं पढ़ें, अन्यको पढ़ावें ऐसे साधुओंको उपाध्याय पद प्राप्त होता है। इसलिये उपाध्याय भी साधु ही हैं। इस प्रकार गुणोंकी अधिकताफी मुख्यतासे ही साधुओंमें आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु ऐसे तीन भेद हैं । वास्तवमें। देखा जाय तो तीनों हो साधु हैं । क्योंकि सभी अट्ठाईस मूलगुणोंको पालन करते हैं। अभिप्राय यह है कि आचार्य ई और उपाध्याय पद भी साधुओंको हो प्राप्त होता है अतएव तोतों होके लिये साधु कह दिया है । साधु कहनेसे आचार्य, उपाध्याय, साधु तीनोंका ही ग्रहण कर लेना चाहिये । एक साधुका हो नहीं लिखा भी है महापुरुषाणां एकवचनोपि बहुवचनोस्ति । मलाsevaaeesaHISRUS .... चा reme - - - Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल' । अर्थात् चौय अर्थात् महापुरुषों के द्वारा कहा हुआ एक वचन भी बहुवचन कहलाता है । अर्थात् महापुरुषोंके द्वारा कहा हुआ साघु शब्द भी आचार्य, उपाध्याय, साधु तीनोंका हो वाचक समझना चाहिये । इस प्रकार ऊपर लिखे । पर्चासागर प्रश्नका समाधान है। FIFA आगे इन मंत्रों का अर्थ विस्तारके साथ लिखते हैं। तारि मंगल' अर्थात मंगल चार है। 'अरहत। । मंगलं' पहला मंगल अरहत भगवान है । 'सिद्ध मंगल दूसरा मंगल सिद्ध परमेष्ठी है। 'साहू मंगलं' तीसरा । मंगल साधु परमेष्ठी है अथवा आचार्य, उपाध्याय, साधु तीनों परमेष्ठी मंगलमय है। 'केवलिपणत्तो धम्मो र्थात चौथा मंगल केवली भगवानका कहा था ATEL लायजामा सात मन ही मंगल है। इस प्रकार अरहंत, सिख, साधु और फेवलीप्रणीत धर्म ये चारों मंगलमय हैं। मंग सुखको कहते हैं तथा ल का अर्थ वेना है जो मंग अर्थात् सुखको ल अर्थात् देवे उसको मंगल कहते हैं (मैगं सुखं लाति वदातोति मंगलम्) अथवा मं शब्दका अर्थ पाप है और गल शम्बका अर्थ गलाना वा नाश करना है। जो मं अर्थात् पापको गल अर्थात् गला देवे, नाश कर देवे उसको मंगल कहते है ( में पापं गालयति नाशयतीति मंगलम् ) इस प्रकार निरुक्तिपूर्वक मंगल शब्दके वो अर्थ बनते हैं। अन्यमती गणेश आदिको मंगलरूप कहते हैं सो ठोक नहीं है ऊपर कहे हुए अरहंत, सिद्ध आदिक हो मंगलरूप समझने चाहिये । 'बत्तारि लोगुत्तमा' अर्थात् संसारमें चार ही लोग उत्तम हैं। 'भरहंस लोगुत्तमा' प्रथम तो अरहत भगवान उत्तम हैं । 'सिद्ध लोगुत्तमा' दूसरे सिद्ध लोग उत्तम हैं। 'साहू लोगुतमा' आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु रूप साधु परमेष्ठी उत्तम हैं । 'केलिपगत्तो धम्मो लोगुतमा' केवली भगवानका कहा हुमा अहिंसा| मय दयामय धर्म ही उत्तम है। र संसारमें ब्राह्मण लोग अपने को उत्तम बतलाते हैं सो नहीं है। उनके वंशमें पहले जो ऋषि हुये हैं। [ ५६ जिनको संतान ये ब्राह्मण कहलाते हैं वे हीन थे, शूद्र कुलके थे, पशु आदिसे उत्पन्न हुए थे। ये ब्राह्मण लोग अपनेको उन्हींकी सन्तान बतलाते हैं जैसा कि भारतके शान्तिपर्वमें लिखा है तथा पहले इसी ग्रन्यमें लिख चुके हैं। " नार-मानायक ७२ Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चर्चासागर इससे सिद्ध होता है कि ये ब्राह्मणादिक उत्तम नहीं है किन्तु तीनों लोकोंमें अरहन्त, सिद्ध, साधु और केवलीप्रणीत धर्म ये चारों ही उत्तम हैं । अरहंत, सिद्ध, साधु और केवलोप्रणोत धर्म ये चारों ही मंगलमय हैं और चारों ही लोकोत्तम हैं। क्योंकि इनके सिवाय अन्य कोई भी इष्ट पदार्थ नहीं है ऐसा जानकर 'चत्तारि सरणं पवजामि' अर्थात् मैं चारोंके ही शरण प्राप्त होता हूँ। 'अरहन्त सरणं पश्वज्जामि' दूसरे सिद्ध परमेष्ठोके कारण जाता हूँ । 'साहू सरणं पब्वज्लामि' तीसरे आचार्य, उपाध्याय, सर्व साधुओंके शरण जाता हूँ। तथा 'केवलिपण्णत्तो धम्मो शरणं पव्वजामि' केवलीप्रणीत क्यामय धर्मको तथा उत्तम क्षमा, माईव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्यरूप दशलक्षण धर्मको शरण जाता हूँ अथवा निश्चय वा व्यवहार लक्षणोंसे सुशोभित सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय धर्मको शरण जाता हूँ। इस प्रकार अरहन्त, सिद्ध साहू, और केवलोप्रणीत धर्मको शरणमें ही मैं प्राप्त होता हूँ। इस संसारमें इन्द्र, चमे, धरणे, अzi, राजाधिराज, देव, दानव, भूत, प्रेत, यक्ष, राक्षस, पिशाच, कुलदेवी, भैरव, क्षेत्रपाल, चंडो, मुण्डी, कालो, शीतला, धोजासणो अकत, पितर, सूर्य, सतो, मणि, मंत्र, यंत्र, तंत्र, आवित्यादिक नवग्रह, औषधि, ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा और भी कितने हो प्रकारके देवी, देवाताओंको । शरण मानते हैं और कहते हैं कि इनसे मरण आदिका भय दूर होता है सो सब मिथ्या है। क्योंकि ये सब देवी, बेवता अपनेको कालसे नहीं बचा सके। जब वे कालसे अपनेको ही नहीं बचा सके तो फिर वे औरोंकी रक्षा किस प्रकार कर सकते हैं। इसलिये जन्म, मरणके भयसे रहित, स्वर्गमोक्ष देनेवाले और समस्त जोधोंका कल्याण करनेवाले श्रीअरहन्त, सिद्ध, साधु और केवलोप्रणीत धर्म हो परम पवार्य है और ये हो शरण लेने योग्य | हैं। इनके सिवाय अन्य सब देवी, देवता कालके ग्रास बन चुके हैं सो ही कालज्ञानमें लिखा हैकाले देवा विनश्यन्ति काले चासुरपन्नगाः । नरेन्द्रादिसुरेन्द्राश्च कालेन कवलीकृताः॥ अर्थ-इस कालमें सब देव नष्ट हो चुके हैं इस कालमें ही राक्षसादिक असुर और नागकुमारादिक पन्नग नष्ट हो चके हैं। तथा नरेन्द्रादिक समस्त मनुष्य और सुरेन्द्राविक समस्त देव सब इस कालके ग्रास बन चुके हैं। भावार्थ-इन सबको कालने खा डाला है इसीलिये कालको सर्वभक्षी कहते हैं। Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस कालसे बातराण पदयअरहन्त परमेष्ठी, सिद्धपरमेष्ठो, आचार्यादिक साधुपरमेष्ठी और केवलोप्रणीत धर्म ये चारों ही बचे हैं। इसलिये ये ही मंगलरूप हैं, ये हो लोकोत्तम हैं और ये ही शरण ग्रहण वर्षासागर करने योग्य हैं। ५७१ । CAMERA इस प्रकार अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय साधुमय साधु और केवलोप्रणीत धर्म ये चारों हो हमको मंगल करनेवाले हों। ये चारों हो हमारे सब प्रकारके जालोंको ( विनोंको हरम करें। तीनों लोकोंमें ये हो चार उत्तम पदार्थ है और भव-भवमें हमें इन चारोंको शरण प्राप्त हो यही हमारी प्रार्थना है। मेरे समस्त दुःखोंका क्षय हो, समस्त आठों कोका नाश हो, मुझे आत्मबोधि ( आत्मज्ञान वा रत्नअय) को प्राप्ति हो, मुझे सद्गति प्राप्त हो, समाधिमरण प्राप्त हो और जिनेन्द्रदेव के मुणरूपी संपबाकी प्राप्ति हो । यही हमारी श्रोसर्वज्ञ, वीतराग, अरहंत, परमात्मा, परमेष्ठी आदि अनेक नामोंसे सुशोभित तीनों लोकोंके। स्वामी श्रीकेवली भगवानसे प्रार्थना है। सो हमारी यह प्रार्थना पूर्ण हो। इस प्रकार यह चर्चालागर ग्रन्थ समाप्त हुआ। इसमें दो सौ चौवन पर्चायें हैं उममेंसे यह अन्तको चर्चा शिखररूप है इसलिये इसमें मंगलभूत सर्वोत्तम और शरणभूत परमेष्ठियोंका नाम उच्चारण कर अन्तिम मंगल किया है। आगे इस शास्त्रमें जो-जो चर्चायें आई हैं उनको पूर्ण सूची लिखते हैं । प्रश्न--सूची तो पहले लिखनी चाहिये अन्तमें क्यों लिखी ? समाषान-कथा पुराण आदि प्रबन्ध शास्त्रोंकी सूची तो पहिले ही लिखी जाती है परम्परासे आम्नाय! भी यही है। परन्तु यहां पर तो प्रश्नोत्तरोंका तरंगमय शास्त्र बता है सो ज्यों-ज्यों तरंग आती गई त्यों-त्यों शास्त्र बनता गया। पहलेसे कुछ प्रमाण निश्चित या नहीं। इसीलिये प्रमाणके बिना पहले नहीं लिखी गई । । इसी कारण अब आगे लिखो जाती है । ऐसा समझ लेना चाहिये। यह चर्चासागर किन-किन ग्रन्योंसे लेकर बनाया है उनकी सूची शास्त्रका विस्तार होनेके भयसे नहीं । लिखी है उन सब शास्त्रोंकी संख्या १९१ (एफसौ इक्यानवे) है। इनके सिवाय उक्तं च श्लोक हैं, गाथा हैं । । अन्यमतके श्लोक हैं इस प्रकार इस चर्चासागरमें अनेक शास्त्रोंका मत प्रगट किया है। १. इस ग्रन्थमें सूची इसके आगे है परन्तु सबके सुभीतेके लिये हमने विस्तारके साथ लिखकर पहले लगा दी है। [ ५७१ Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्षासागर ५७२] प्रश्न-इस शास्त्र अनेक प्रन्योंका प्रमाण देकर गाथा-इलोक रखकर इस शास्त्रको क्यों बढ़ाया और क्यों इतना परिश्रम किया केवल उनके नाम ही लिख देते थे। अधिक विस्तारसे क्या लाभ केवल नाममात्र हो लिखना था। समाधान-इतना..परिश्रम करनेपर भी आजकल के कितने होठग्राहो जीवोंके फिर भो यथार्थ बहान नहीं होता फिर भला केवल ग्रन्थोंका नाम ले देने मात्रसे वे लोग कैसे मानते ? इसलिये स्पष्ट अर्थ विस्खलानेके लिये तथा भ्रम और संवेहको दूर करनेके लिये इतना बढ़ाकर लिखा है। लौकिक शिक्षा में गुरु शिष्यका संवाद है उसमें एक प्रश्नोत्तर यह है । गुरुजीका प्रश्न लांवो वड फैल्यो नहीं, मरू मालवे जाय ॥ लिखिया खत झूठा पडै, कहो चेला कुण राय ॥ शिष्यका उत्तर—'गुरुजी शाख नहीं' अर्थात् बिना शाख शाखा वा अलियोंके बड़का वृक्ष फैलता नहीं।। बिना शाखाके अर्थात कातिक वा वैसाखको फसल-थान हए बिना मारवाडके लोग प्रायः सब हो गजारा करनेके लिए माल में भेग जाते हैं । तथा बिना शाख के, बिना विश्वास वा प्रमाणके लिखा हुआ खत्त अर्यात् । पन्न भी तमस्सुख ( दलोल) झूठा पड़ जाता है इसलिये गृहस्थ लोगोंके द्वारा बनाये हुये नवीन-नवोन शास्त्र यद्यपि पहलेके आचार्यों बनाये हुए शास्त्रोंके वचनोंके अनुसार ही हैं तथापि उनमें शाल वा प्रमाणरूप शास्त्रोंके वचन अवश्य रख देना चाहिये । प्रमाणरूप शास्त्रोंके वचन रखनेसे फिर किसोके हृदयमें भी जिनवाणीमें संदेह नहीं रहता। प्रश्न-यदि किसीके हृदयमें प्रमाणरूप शास्त्रोंके वचनोंको देखकर भी सन्देह दूर न हो तो क्या करना चाहिये। समाधान-ऐसे मनुष्यों के सामने मौन धारण करना अच्छा है। क्योंकि मूखोंके समझानेका संसारमें कोई उपाय नहीं है । संसारमें उनके स्वभावको औषधि हो नहीं है । भर्तृशतकमें लिखा है१. मालवा ऊँची जगह पर है इसलिये वहाँ प्रायः पानी बरसता ही है दुष्काल नहीं पड़त" इसीलिये लोग दुष्काल पड़ने पर वहां चले जाते हैं। Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर ३] "मूर्खस्य नास्त्यौषधम् ” अर्थात् मूर्खको कोई औषधि नहीं है । प्रश्न- यदि कोई समझदार पढ़े लिखे विद्वान लोग भी प्रमाणरूप कथनको देखकर भी भान न करें तो फिर उनके लिये भी प्रमाणोंका लिखना व्यर्थ ही हुआ । उत्तर—जो प्रमाणरूप वचनोंको देखकर भी श्रद्धान न करें तो फिर उनको भी मूर्ख समझना चाहिये । क्योंकि क्रोध करना, हठ पकड़ना, दुर्वचन कहना, अपनी कथा कहते हो जाना और दूसरोंकी मानना ही नहीं, ये पाँच मूर्खोके चिन्ह है। लिखा भी है— मूर्खस्य पंच चिह्नानि कोधी दुर्वचनी तथा । हठी च दृढवादी च परोक्तं नैव मन्यते । इसलिये ऐसे लोगों के सामने भी मौन धारण करना हो श्रेष्ठ है। लिखा भी है - 'दोषवावे च मौनम्' अर्थात् जहाँ दोषवाद हो, जहाँ किसीको बुरा कहना पड़े वहाँपर भी मौन धारण करना श्रेष्ठ है । यह न्याय सब जगह लगा लेना चाहिये । मूर्ख लोगोंको उपदेश देनेमें बड़े-बड़े बोष उत्पन्न होते हैं। लिखा भी है मूर्खशिष्योपदेशेन दुष्टस्त्रीभाषणेन च । पयःपानं भुजंगानां केवलं विषवर्द्धनं ॥ अर्थ - मूर्ख शिष्यको उपवेश वेनेसे, दुष्ट स्त्रीके साथ बातचीत करनेसे और साँपको पिलाने से दूध केवल विष हो बढ़ता है । इसलिये मूर्खोके लिये वा दुष्ट पुरुषोंके लिये यह ग्रन्थ नहीं है। यह वर्षासागर ग्रन्थ तो सम्यग्दृष्टी सज्जन संत जिनाशाको प्रतिपालन करनेवाले भव्य जीवोंके लिये है । इसके सुनने-सुनाने से पढ़तेमोक्ष इन चारों पढ़ानेसे, लिखने- लिखाने से केवल धर्मामुतकी ही वृद्धि होती है तथा धर्म, अर्थ, काम, पार्थोकी सिद्धि होती है। ऐसा यह शास्त्र सवा जय शील हो । पुरु इस प्रकार ऊपर लिखे हुए बोसौ चौअन प्रश्नोत्तरोंसे सुशोभित यह चर्चासागर ग्रन्थ पूर्वाचायोंके किए हुए सिद्धांत पुराण चरित्र आदिके अनुसार अपनी बुद्धिसे पूर्ण किया है। धर्मात्मा भव्य पुरुषोंको स्वाध्यायके पांचों भेवोंसे इसकी प्रवृत्ति करनी चाहिये । यदि इस ग्रन्थ में मेरी मंद बुद्धिके द्वारा कुछ विपरीत अर्थ लिख गया हो अथवा विरुद्ध श्रद्धान ज्ञान आचरण आदि लिख गया हो तो विशेष जाननेवाले सम्यग्दृष्टी साधर्मों सज्जनोंको हमपर कमाभाव धारण [ ५७ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर इसको शुद्ध कर लेना चाहिये । मेरी मंद बुद्धिपर हँसना नहीं चाहिये इसी प्रकार हठपाही बनवायी बुर्जन पुरषों को भी हमपर क्षमा करनी चाहिये। यदि इस शास्त्रमें आप लोगोंको अपने प्रवान, ज्ञान, आचरणके । मार योग्य कथन न मिले तो मूल शास्त्रोंके गाथा श्लोक आदिको मिलाकर श्रद्धान कर लेना चाहिये। यदि हमने PM, मूल शास्त्रों के विरुद्ध लिखा हो तो उन ग्रन्थोंकी टोकाओंसे तथा अन्य मूल ग्रन्थोंसे शुखकर हमपर समाभाव। धारण करना चाहिये । इस प्रकार हमारी ये दो प्रार्थनाएं हैं। राग-द्वेषको छोड़कर श्री वीतरागके वचनोंके । पर कहनेवाले गणधरोंके वचनों पर तथा गणघराधिकोंके वचनोंके अनसार कहनेवाले आचार्योके वचनोंपर अहान, शान, आचरण कर अपना आस्मधर्म प्रतिपालन करना चाहिये । यह चर्चासागर ग्रंथ हमने अनेक शास्त्रोंको देखकर लिखा है सो इसका पठनपाठन विचार आदि करना चाहिये । इसमें प्रमाद नहीं करना चाहिये । यह ग्रन्य हमने अपने और दूसरोंके उपकारके लिए लिखा है। है। जैनवचन अगाध हैं गणपराविक देव भी इसका पार नहीं पाते। फिर भला हमारे समान अत्यन्त तुच्छ । बुद्धिको धारण करनेवाले इसको कैसे कह सकते हैं। इसलिए हमारी जिसनो बुद्धि यो उतना ही हममे लिखा है। यह सिधाची अपार है इसरि ऐसे जिन बधीको हम बारम्बार नमस्कार करते हैं। जो कोई मनुष्य । " कोई शुभकार्य करता है और अपने शुभकार्यको सिद्धि हो जानेपर भी उसके पार तक नहीं पहुंच सकता तो वह अपने कार्यको सिद्धि होने तक उस कार्यको सिद्धि कर लेता है । और शेषको नमस्कार कर लेता है इसी प्रकार हमने भी अपने कार्यको सिद्धि कर शेष गुणों से सुशोभित अपने इष्टदेवको ममस्कार किया है। इस प्रकार यह चर्चासागर ग्रन्थ समाप्त हुआ। आगे इस शास्त्रके बनानेका कारण लिखते हैं। श्री जिनवर श्री सिद्ध मुल बेहउ जिनगुण रिख । सूरी पाठक साधु सब वेह सिद्धि फुनि ऋखि ॥ १॥ चर्चासागर शास्त्रकर कीनो सो सुनि भ्रात । समाचार ताके कहूँ संशयनाशक बात ॥ २॥ स्वस्तीश्री गर्गा सुवेश जाहि, शुभ झालावाड वसै ता माहिं । तहाँ झल्लरपत्तन पुरि अनूप, तहं पृथ्वीराज शुभ जानि भूप ॥ ३ ॥ सहां शांतिनाथ फनि पाश्र्वनाथ, श्रीऋषभदेवके विम्म साथ। जिन चौबीसी युत भवन तीन, शोभा लिझते ह पापछीन ॥ ४ ॥ Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बासागर नर नारी भव्य अनेक आय, बने पूर्जे मन वचन फाय । फुनि श्रवण करें जिनवाणि नित, श्रावक सुश्राविका एक वित्त ॥५॥ यहाँ बहे नर पण कर, लामें जैनी जन धर्मकार । सामें बागंबर शुभवेश सार, साकरि आए हूमड विचार ॥ ६ ॥ शातीय बागड्या ब्रउफ साह. लघुशाखा गोत्र बघाणु ताह। है बालसोसित गोज बास ताको सत जितभ्रमरपास ॥७॥ शुभ सुमन तामें अरुण अंत, ताने बहु शास्त्र सुदेखि तंत। फुनि प्रश्नोत्तर सू और पास, निर्णय करि शास्त्रनिमें खुलास ॥८॥ निजपर निज अनुज मनु काजे, मुर अरी अरुण युत अंतराज । कौमार लाल कुम नाम छाज, समान हित कोनो यह समाज ॥९॥ बहुसंशयनावाक गुण प्रकाश, भव्यनिको श्रद्धन रूप खास। हठयाही टेको श्रद्ध क्षीन, लखि दुर्वच बोले बुद्धि होन ॥१०॥ यह स्व स्व धर्मनि करत त्याग, सहकार पलाडू पिक कुकार्ग । जिम जाणो याको जाति भाव, नहि होय गईभी रूप गाव ॥११॥ संवत्सर विक्रम अर्क राज्य, समयेते विगै हरि चन्न' छाल । माघमास शशि पा शुख, पंचम गुरुवार अनंग' युद्ध ॥१२॥ १. सुमन शब्दका अर्थ फूल है फूलों में सबमें उत्तम कूल चंपाका है और अन्त में अरुण अर्थात् लाल है इस प्रकार चनालाल नाम निकलता है । २. छोटे भाईके पुत्र के लिए, ३. मुरारी, ४. लाल ( ३ + ४ = मुरारीलाल) ५. आम, ६. प्याज, ७, कोयल, ८. कौा । वे लोग धर्मको इस प्रकार छोड़ते हैं जैसे कोयल आमको छोड़ती हो और कौआ @ प्याजको छोड़ता हो अर्थात् कोयल आमको छोड़ती नहीं यदि छोड़े तो वह मुर्ख है तथा प्याजको छोड़नेवाला कोआ मूर्ख है उसी प्रकार धर्मको छोड़नेवाले महामूर्ख हैं। ९. गधी कभी गाय नहीं बन सकतो, 10. दिशाएँ दश है। ११. चंद्र एकको कहते हैं। इन सबके मिलानेसे तथा अंकानां वामतो गतिः अर्थात् अंकोंकी गति बाई ओर होती है इस न्यायसे १८१० है । अर्थात् विक्रम सम्बत् १८१० में यह ग्रन्थ बना । १२. बसंत पंचमी । Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चासागर ME-RAJAPANES तिस दिन शुभ वेला पूर्ण कोन, वर्धा सिधू बह कथन पीन / नंको वृद्धो जयवंत होऊ, यावत रवि शशि छिति' वादि लोउ // 13 // छप्पय मंगल श्री अरहंत सिद्ध मम करो सुमंगल / मंगल करो सुसाधु उक्त केवलि दुषमंगल // मंगल यह चत्वारि और न विनायक मंगल / मंगलमें वरदाय श्रेष्ठ मंगलमें मंगल / / यह ही चउ लोगोत्तमा यह चउ शरण सुमानिये / अरहंत सिद्ध फुनि साधु वृष श्रीजिनकथित सु जानिये // 14 // सोरठा विघ्नव्यूह विलाय शाकिनी भूत सुसर्प सब / विष अमृत है जाय श्रीजिन तेरे स्मरणते // 15 // दोहा रामनारा चंद्रप्रभु चंद्राम तनु, पा-वप्रभु छवि नील। ला-भ करत श्रीशिवतनौ ल-गि ध्यावें तजि ढील / / 16 // चउ पदके धुर वर्ण चउ क्रमकरि पंक्ति अनूप / चर्चासागर ग्रंथको कर्ता नाम स्वरूप // 17 // इस प्रकार पंडित-प्रवर चंपालाल कृत वर्षासागर ग्रन्थ समाप्त हुमा / नम्माना 1. जबतक छिति अर्थात् आकाशमें सूर्य है और वाति अर्थात् समग्रमें चंद्रमा है 11 पहले अक्षर / सोलहवें दोहेके चारों पर्वोके - - - - - - - -