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सायर
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मतको दूषित करना है। इसलिये द्वैताद्वैत ब्रह्मपक्षका कहना शैव और वैष्णव दोनों मतोंका बाधक है और स्वछन्द उन्मत्त पुरुषके समान है इसलिए प्रमाणरूप नहीं माना जा सकता । सब शास्त्रोंसे मिले हुए वचन ही प्रमाण हो सकते हैं विरुद्ध वा विरोधी वचन प्रमाणरूप नहीं कहे जा सकते । प्रतिमाको जड़ और अचेतन मानकर निष्फल मानना वेद और पुराणके सर्वथा विरुद्ध है । इसलिये सर्वथा प्रमाण नहीं है ।
काचित् कोई यह कहे कि हमारे लघुचाणक्यमें ऐसा लिखा है
न देवो काष्ठपाषाणे न देवो धातुमृण्मये । भावेषु विद्यते देवो तस्माद् भावो हि कारणम् ॥
और जगह भी लिखा है
न देवो विद्यते काष्ठे पाषाणे न च मृण्मये । भावेषु विद्यते देवो तस्माद् भावो हि कारणम् ॥
अर्थ - देव न तो काठ है, न पाषाण में है, न घातुमें है, न मिट्टीमें है किन्तु भाषोंमें देव है इसलिये भाव हो मोक्षके कारण हैं दूसरे श्लोकका भी यही अर्थ है। अभिप्राय यह है कि काळ, पाषाण, धातु, मिट्टी आदिको मूर्ति बनाकर प्रतिष्ठाकर उसकी पूजा करते हैं सो उसमें परमेश्वर वा देव नहीं है यह तो धातु पाषाणकी जड़ रूप है, वेब तो केवल अपने भावों में है इसलिए केवल भाव ही कारण है, मूर्ति कारण नहीं हैं। इस प्रकार कोई वेदान्ती कहता है सो भो ठोक नहीं है। क्योंकि ऐसा माननेसे अनेक दोष आते हैं और ऊपर लिखे हुए यम-नियमादिक समस्त धर्मोका लोप हो जाता है। इसलिये ऊपर लिखा कथन ठीक नहीं है। क्योंकि उसी लघुचाणक्य में आगे ऐसा लिखा हैकाष्ठपाषाणधातूनां भावं निवेदयेद् यथा । तथा भक्तिस्तथा सिद्धिः तस्य देवो प्रसीदति ॥
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अर्थ -- जो मनुष्य काठ, पाषाण या धातुको प्रतिमामें अपने भाव जैसे लगाता है इस प्रतिमाएँ अमुक देव विराजमान है इस प्रकार अपने भाव लगाकर जैसी उसकी भक्ति करता है वैसी हो उसको सिद्धि होती है । तथा उसी प्रकार वह बेब उस पर प्रसन्न होता है उससे वह इच्छानुसार फल प्राप्त करता है । भावार्थ -- जो पुरुष उस मूर्ति में परमेश्वरादिक किसी वेवकी स्थापना कर अच्छे भावोंसे उसकी पूजा करता है सो अपना मनचाहा फल पाता । इस वचनसे यह भी सिद्ध हो जाता है कि जो मनुष्य उस मूर्तिको देखकर उसमें अपने
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