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र परिणाम बुरे करता है । बुरे परिणामोंसे उसे पत्थर अचेतन जड़ आदि मानकर उसकी भक्ति वा पूजाका लोप
" करता है वह नरकगतिको प्राप्त करता है । सो हो लिखा हैचर्चासागर, मंत्रे तीर्थे द्विजे देवे देवज्ञ भेषजे गुरो । यादृशी भावना तस्य सिद्धिर्भवति ताहशी ॥ [१६.3
अर्थ मन्त्र, तीर्थ, द्विज, देव, ज्योतिषशास्त्र, औषधि और गुरुम पुरुषों को जैसी भावना होती है वैसी । हो उनको सिद्धि होती है। भावार्थ-यदि मनमें इनमें आस्तिकरूप, श्रद्धारूप परिणाम हों तो उनको उससे ही है सब कामोंको सिद्धि हो जाती है । यदि मनमें विश्वासरहित नास्तिक भाव हों अश्रद्धासे सेवन करे तो उसके । कार्यको सिद्धि नहीं होती। उसका सेवन करना पूजाविक करना भी निष्फल हो जाता है क्योंकि ऐसा पुरुष | उसको निष्फल व्यर्थ समझता है इसलिए उसका फल भी व्यर्थ और विपरोत होता है।
यदि प्रतिमाको अचेतन व जरूप मानकर उससे कार्यको सिद्धिका अभाव मानोगे तो फिर कल्पवृक्ष, चित्रावेलि, चिन्तामणि रत्न, पारस पत्थर, मन्त्र, यन्त्र, तन्त्र, औषधि तथा केवल परमात्माका शब्दोंके द्वारा।
नाम उच्चारण करना आदि मन अचेतन और जङ्गरूप हैं और इन सबसे कार्यको सिद्धि होती है । इसलिये । अचेतन मूतिसे हो समस्त कार्योकी सिद्धिका होना अवश्य मानना पड़ेगा। सूत्र, सिद्धान्त, वेद, पुराण आवि सब मतोंके शास्त्र भो जड़ और अचेतन है परन्तु उन सबसे ज्ञानकी सिद्धि होती है इस बातको भला कौन नहीं मान सकसा ? अर्थात् सबको मानना पड़ता है।
यह जो ऊपर कहा गया था कि पतिहीन, स्त्री, पुत्र प्राप्ति के लिये यदि पतिकी मूर्तिको भक्ति वा । । सेवा करे उससे पुत्रको प्राप्ति नहीं होती उसको वह भक्ति वा सेवा व्यर्थ है सो भी ठीक नहीं है। क्योंकि अन्य
किसी पतिहीन स्त्रोने अपने पतिको मूर्ति तो बनाई नहीं वह केवल उसका ध्यान करतो रहो, माला लेकर। । उसके नामका जप करती रही तो भी तो उसके पुत्रकी प्राप्ति नहीं होती । भावार्थ-यवि प्रतिमाको पूजा
१. पुत्रकी उत्पत्ति पतिके वीर्थसे होती है और वीर्य शरीरका एक धातु है पतिके मरनेपर या विदेश रहनेपर उसके शरीरसे उत्पन्न
हुए वीर्यका ग्रहण होता नहीं इसलिए उसको भूतिसे वा जप, ध्यान आदिसे पुत्रकी उत्पत्ति नहीं होतो। परन्तु कोका क्षय वा शुभानव भावोसे होता है इसलिये मूर्तिमें यदि परमात्माके भाव हों तो उससे अवश्य कर्मक्षय होते हैं। वा शुभास्रव होता है। जप, ध्यान यादिसे भी यही बात होती है।
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