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सागर [ ३०० 1
पूजते हैं, सब काम करते हैं सो भी कहना अयोग्य ही है। क्योंकि सोधासा न्याय तो यह है कि एक बारका फल एक और अनेक बारका फल अनेक गुणा लिखा भी है, "अधिक अधिक कलत्" अर्थात् किका अधिक फल होता हो है ।" जब तक अत्यन्त निकटवर्ती न हुआ जाय तबतक अभिषेक, विलेपन, पुष्पार्चन आदि कार्यं सिद्ध नहीं होते। जो दूर रहते हैं उनके निकट रहनेवालोंके समान बार-बार भक्ति सिद्ध नहीं हो सकती । तथा उसका फल भी बहुत थोड़ा है। इसलिये जो यथार्थ श्रद्धानी हैं, सम्यग्दृष्टी है, बुद्धिमान हैं वे व्यर्था हटकर केवल अपने वचनोंका पक्ष लेकर अपना अकल्याण नहीं करते। तथा जो ऐसा करते हैं सम्यग् - दृष्टि वा यथार्थ श्रद्धानी नहीं हो सकते । उनको मनोमति वा अपने मनके अनुसार चलनेवाला समझना चाहिये। जैसे ब्राह्मणका लक्षण शास्त्रोंमें लिखा है "ब्रह्म जानाति ब्राह्मणः" अर्थात् जो ब्रह्म वा परमात्माको जाने उसको ब्राह्मण कहते हैं परन्तु इस गुणको धारण न करने पर भी सैकड़ों हजारों केवल जाति से ब्राह्मण हैं वैसे ही शास्त्रानुसार क्रिया न करनेवाले श्रावक भी केवल जातिसे श्रावक समझना चाहिये वे गुणोंसे श्रावक वायार्थ श्रद्धानी नहीं हो सकते। जिस प्रकार कोई सुनार चोरीका त्याग कर दे तो भी जातिसे चोर कहलाता है और वैश्य यदि धोरी कर ले तो भी जातिसे शाह कहलाता है । उसी प्रकार शास्त्रानुकूल क्रिया न करने वाले श्रावक समझना चाहिये। वे गुणसे ( सम्यक्त्वरूप गुणसे ) आवक नहीं हैं किंतु जाति या नामसे श्रावक हैं। ऐसा सम्यग्ज्ञानियों को समझ लेना चाहिये !
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इन पुरुषोंमें बहुतसे जीव मन्दकषायी भी हैं वे यत्नाचरणपूर्वक चलते हैं, विषय-भोगों में रुचि भी कम रखते हैं। क्षमा आदि गुणोंको भी धारण करते हैं, विद्वान् भी हैं और सब गुणोंसे सुशोभित हैं तथापि एक भगवानकी आज्ञा न माननेके दोषसे, राजाकी आज्ञा न माननेवाले वकके समान अपराधी हैं। आशाका मानना सबसे पहला कर्तव्य है। जो जीव राजाको आज्ञा मानते हैं उनके किये हुए अपराध छूट जाते हैं परन्तु जो जीव राजाकी आज्ञा नहीं मानते वे गुणवान होनेपर भी दोषी गिने जाते है इसी प्रकार भगवानको आज्ञा न माननेवाले अनेक गुणोंको धारण करनेपर भी दोषी ही समझे जाते हैं और भगवानकी आज्ञा माननेवाले यदि कुछ अपराध कर भी लें तो भी वह आज्ञा मानने मात्र से नष्ट हो जाता है। ऐसा समझकर विवेकी जीवोंको भगवानकी आशा अपने मस्तक पर धारण करनी चाहिये ।