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सबका जुदा-जुदा है और सबका उपवेश परस्पर विरुद्ध है। क्योंकि छहों दर्शनवालोंके कथन सर्वहरहित है
छयस्थोंके ( अल्प ज्ञानियोंके ) कहे हुए हैं इसलिये उनमें आविसे अन्त तक अविरोय नहीं आ सकता। पासागर
प्रश्न- इनमें विरोष कहाँ-कहाँ है ? १२०
___ समाधान-इनमें विरोध तो बहुत है और वह सब लिखा नहीं जा सकता । परन्तु उसमेंसे थोड़ासा । बतलाते हैं । वेदमें लिखा है-- अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्ग नैव च नैव च । तस्मात्पत्रमुखं दृष्ट्वा पश्चाद्भवति तापसः॥
अर्थात्-जिसके पुत्र नहीं है उसकी गति नहीं होती और उसे स्वर्ग भी नहीं मिलता इसलिये पुत्रका मुख देखकर ( विवाह कर और भोगोपभोग सेवन कर ) फिर तपस्वी होना चाहिये । तब हो सुगति प्राप्त हो सकती है। कुमारोंकी गति कभी नहीं हो सकती । तथा भारतके शांति पर्वमें लिखा हैअनेकानि सहस्राणि कुमारब्रह्मचारिणाम् । स्वर्ग गतानि राजेंद्र ! अकृत्वा कुलसंश्रितम् ॥
अर्थात हजारों कुमार ब्रह्मचारी स्वर्गमें गये इन दोनों कथनों में परस्पर विरुवता है।
सया एक सूर्यमें दो बार भोजन करनेमें ( दिनमें दो बार भोजन करनेमे ) महावोष मानकर रात्रि। में भोजन करनेका उपदेश दिया है । ऋषियोंको कंदमूल खानेका विधान किया है तथा राजाओंको मध, मांस
खानेका अधिकार बतलाया है । परन्तु भारतमें इसके विरुद्ध लिखा है । यथा - । मद्यमांसाशनं रात्रौ भोजनं कंदभक्षणम् । ये कुर्वति वथा तेषां तीर्थयात्रा जपस्तपः ॥ वथा एकादशी प्रोक्ता तथा च जागरणं हरेः । वृथा च पुस्करी यात्रा कृतं चांद्रायणं तपः॥
यहाँपर मद्य, मांसका, रात्रिभोजनका, कंदमूल खानेका निषेध लिखा है और इन कामोंको करनेवालोंकी तीर्थयात्रा जप, तप, एकादशी नारायणका जागना ( नारायणके लिये रात्रि जागरण करना ) पुष्करA की यात्रा, घान्द्रायण तप आदि सब व्यर्थ बतलाया है । सो यह पाहलेके कथनसे विरुद्ध है। मार्कंडेय ऋषिने । [ १२०
मार्कंडेय पुराणमें भी लिखा है। अस्तं गते दिवानाथे आपो रुधिरमुच्यते । अन्नं मांससमं प्रोक्तं माकंडेयमहर्षिणा ॥ ।