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सागर
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टीका - अभिषेकफलेन नरः अभिषेकं प्राप्नोति सुदर्शनमेरौ क्षीरोदधिजलेन सुरेन्द्रप्रमुख
देवैः भक्त्या ।
इस प्रकार लिखा है इसी प्रकार श्रीयोगोन्द्रवेवने अपने श्रावकाचारमें लिखा है ।
जो जिण व्हावइ घीयय पइ
जो भगवानका अभिषेक करता है वह उसी पदको प्राप्त होता है ।
इसके सिवाय और भी अनेक शास्त्रोंमें लिखा है जो सब लिखा भी नहीं जा सकता। दूसरी बात यह है कि इन कार्योंमें जो जलादि ब्रम्पका आरम्भ होता है उसले महापुज्य बाप्पा होता है। तथा उस आरम्भसे होनेवाला पाप शीघ्र हो नष्ट हो आता है । देखो इस लोक में अनेक प्रकारके विष हैं उनके खानेसे प्रत्यक्ष शीघ्र ही प्राण नष्ट हो जाते हैं परन्तु वही विष यदि किसी सुवेधके द्वारा विधिपूर्वक पकाकर संशोधन कर लिया जाय तो फिर उसको मिरच आदि अन्य औषधियोंके साथ खानेसे सन्निपाताविक महादुस्सह और प्राणांत करनेवाले रोग भी शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं और वह खानेवाला मनुष्य जीवित हो जाता है। यदि वही विष feet कुवैद्यके द्वारा विपरीत क्रियासे शोधा जाय तो वह शीघ्र ही प्राणोंको नष्ट कर देता है । क्योंकि संसारमें जितने पदार्थ हैं ये यथायोग्य पुरुषोंके सम्बन्यसे यथायोग्य गुणोंको धारण करते हैं । अयोग्य और सर्वथा त्याग करने योग्य विष भी अनुपानके द्वारा महागुणकारी हो जाता है । यदि हट करके सब तरहसे ग्रहण करने योग्य उस गुणकारी विषको न ग्रहण किया जायगा तो वह पुरुष मरणको प्राप्त होगा ही । इसलिये किसी एक नयसे तो वह विष है ग्रहण करने योग्य नहीं है त्याग करने योग्य है तथा वही विष दूसरे नपसे ग्रहण योग्य है। इसी प्रकार अपनी इन्द्रियोंके विषय-भोगोंके लिए किये हुए हिंसा आरम्भादिक सावध योग श्यागरूप हैं। परन्तु पूजा, दान, तीर्थयात्रा, प्रतिष्ठा, जिनमन्दिर, जिनप्रतिभादि, अभिषेक, रात्रिका जागरण, प्रभावना, रथयात्रा, नित्य दिन रात्रिगत पुजाभिषेक, गीत, वाविश्र, जिनमहिमा आवि जो-जो धर्मके कारण हैं और प्रवल पुण्य उत्पन्न करनेवाले कार्य हैं उनमें अनाश्रित यत्नाचारपूर्वक कर्तव्योंमें जो कुछ घोड़ा-सा आरम्भ होता है सो उस पूजा, दानादिकके होनेपर उसके प्रबल पुष्पके अतिशय से शीघ्र हो भस्म हो जाता है जैसे
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