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सागर २७१]
अग्निका एक छोटा-सा कणा भारीसे भारो मासके तरको पोष्ट ही भस्म कर देता है उसी प्रकार वान, पूजाविकके पुण्यसे उससे होनेवाले आरम्भजनित पाप शीघ्र ही भस्म हो जाते हैं। यदि वह अग्निका कणा फिसो
सूखे पुराने धासके पूलेको भी न जला सके तो वह अग्निका कणा हरी वनस्पतियोंको किस प्रकार जला A सकेगा। इसी प्रकार पूजा, दान आविसे उत्पन्न होनेबाला पुण्य यदि उस पूजा, दानाविकके आरम्भसे उत्पन्न । होनेवाले थोड़ेसे पापको ही नष्ट नहीं कर सकेगा तो फिर वह पूजा, दानादिकसे उत्पन्न होनेवाला पुण्य एक। # जन्मके अथवा अनेक जन्मोंके पापोंको किस प्रकार नष्ट कर सकेगा? अर्थात् ऐसे उस पूजा, वानसे अनेक
अन्मके पाप कभी नहीं मिट सकते। क्योंकि जिस मनुष्यसे एक सरसोंका बोशा नहीं उठाया जा सकता वह मेरुपर्वसको किस प्रकार उठा सकेगा। हाँ, जो मेरुपर्वतको उठा सकता है वह सरसोंको सहज रीतिसे उठा सकता है । अथवा विषका छोटा-सा कणा शीतोपचार करनेवालेको वा शोतलादि युक्त पुरुषको किसी प्रकार
का दोष नहीं कर सकता किन्तु उस शोत था सन्निपात आदि दोषोंको दूर कर अनेक प्रकारके गुण उत्पन्न । 1 करता है। उसी प्रकार भगवानको पूजा, पूजा करनेवालेके आरम्भादिक सावध दोषों को दूर कर महापुण्यराशिको उत्पन्न करती है ऐसा श्रीसमन्तभद्रस्वामीने कहा है जो पहले भी लिख चुके हैं । यथा--
पूज्यं जिनं वाचर्यतो जनस्य सावद्यलेशो बहुपुण्यराशिः। अर्थात् "जो पुरुष पूज्य भगवानको पूजा करता है आरंभजनित पाप बहुत थोड़ा होता है और पुण्यराशि बहुत होती है।
श्रीवसुनन्दिस्वामीने भी लिखा हैमालाधूपप्रदीपायः सचित्तैः कोर्चयेज्जिनम् । सावधसंभवं वक्ति यः स एवं प्रबोध्यते । जिनार्चानेकजन्मोत्यं किल्विषं हति यत्कृतम् । सा किन्न यजनाचारैर्भवं सावधमंगिनाम् ॥ प्रेर्यन्ते यत्र वातेन दन्तिनः पर्वतोपमाः। तत्राल्पक्तितेजस्सु का कथा मशकादिषु ॥
भुक्तं स्यात्प्राणनाशाय विषं केवलमंगिनाम् । जीवनाय मरीच्यादि सदोषधविमिश्रितम् ॥ I तथा कुटुंबभोगार्थमारंभः पापकृद् भवेत् । धर्मकृद् दानपूजादो हिंसास्लेशो मतः सदा॥
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