________________
सागर
[५५३ ]
तीन भेद हैं सचित, अचित्त और मिश्र । साक्षात् तीथंकुर केबली भगवानकी पूजा करना सचित्त ब्रव्य पूजा है। उनके निर्माण हो जाने पर उनको शरीरको पूजा करना अचेतन द्रव्य पूजा है । तथा आचार्य, उपाध्याय, साधु और उनके पास रहनेवाले दास्त्रोंकी सम्मिलित ( मिली हुई ) पूजा करना मिश्र द्रव्यपूजा है। तोयंकरों, पंचकल्याणक क्षेत्रोंमें जाकर उन क्षेत्रोंको पूजा करना सो क्षेत्रपूजा है। तीर्थखुरोंके पंचकल्याणक जिस महीने में, जिस पक्षमें, जिस तिथिमें, जिस नक्षत्र में और जिस समय में हुए हैं उस समय में उनकी पूजा करना कालपूजा है । तथा सामायिक करना णमोकार मंत्र का जप करना पिडस्थ, रूपस्थ, रूपातील आदिका चितवन करना जप व ध्यान करना भावपूजा है। इन सबका स्वरूप एकसौ बत्तीसवीं चर्चा में गाया और इलोकोंका प्रमाण देकर विस्तार के साथ लिखा है सो बहाँसे विचार लेना चाहिये ।
यहाँ पर इतना विचार और कर लेना चाहिये कि ऊपर लिखे हुए छहों निक्षेप धातु वा पाषाणको जनप्रतिमामें ही हो सकते हैं। इसलिए इसका निषेध करना बड़े अनर्थका मूल है, सम्यग्दृष्टि पुरुष इसका निषेध कभी नहीं कर सकता ।
प्रतिमा जो ऊपर स्थावर जंगम ऐसे दो भेद बतलाये हैं उनको व माननेका हो हठ हो तो फिर श्रावकों की ग्यारह प्रतिमा भी बतलाई है। उन प्रतिमाओंको तो मानना हो पड़ेगा। प्रतिमा शब्द का अर्थ, आकार, चिह्न अथवा रूपकका है। सो मुनिमें जंगम प्रतिमा है केवलोमें स्थावर प्रतिमा है और भावकों में दर्शन आदि ग्यारह प्रतिमा हैं । सो सब व्रत आचरण आदिकी अपेक्षासे है । तथा उनकी मूर्ति बनाकर पूजना सो रूपक प्रतिमा है ऐसा सिद्धांत है।
प्रश्न- -यहाँ पर
कामतो दूँढ़िया प्रश्न करता है कि हमारे सूत्रोंमें प्रतिमा तथा मन्दिर पूजाका
किन्तु पाँच अंगोंमें एक अंग कहलाता है। क्योंकि आह्वान, स्थापन के बिना विसर्जन भी नहीं किया जा सकता। केवल पूजा रह जाती है । तथा पूजा में आह्वान, स्थापन, सन्निधिकरण और विसर्जन ये विशेष अंग हैं उनके न करनेसे पूजाका विशेष फल नहीं मिल सकता ! जैसे आया हुआ भद्रपुरुष 'आइये पधारिये' आदि मिष्ट वचनों के बिना प्रसन्न नहीं होता उसो प्रकार बिना आह्वान, स्थापन के पूजाका यथेष्ट फल नहीं मिलता। इसलिये बिना आह्वान, स्थापन, सन्निधिकरणके तथा विसर्जनके कभी पूजा नहीं करनी चाहिये । पूजा ने आह्नानादिकका होना अत्यन्त आवश्यक है ।
७०
["