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सिागर :
भक्ति आदि छह प्रकारसे बतलाई हैं। उन छोंके नाम ये हैं—नाम १ स्थापना, २ द्रव्य, ३ क्षेत्र, ४ काल, ५ और भाव ६। भगवान अरहंत, सिख, आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधू आवि परमेष्ठियोंके एफसौ आठ अथवा एकहजार आठ नामोंसे पूजा बंदना करना नामपूजा है। स्थापनाके दो भेद हैं तदाकार और अतवाकार-जो तीर्थकरोंकी सदाकार प्रतिमा बनाकर तथा उनको प्रतिष्ठा कर जो पूजा भक्ति की जाती है वह तवाकार स्थापना पूजा है । तथा तदाकार प्रतिमाके बिना अक्षत सुपारी पुष्प आविमें अरहंत आदिको कल्पनाकर पूजा करना सो । मतदाकार स्थापना पूजा है ये सब पूजाएं आह्वान, स्थापन, सन्निधिकरण पूर्वक करनी चाहिये । द्रष्य पूजाके
१. पूजाके पहिले जो आह्वान, स्थापन, सन्निधिकरण किया जाता है वह स्थापन निक्षेप नहीं है किंतु पूजाका एक-एक अंग है।। जिस प्रकार अपने यहां कोई बड़ा पुरुष आता है तो उसको सामने लेने के लिये उठकर खड़े होते हैं और कहते हैं कि आइयेआइये पधारिये यही विराजिवे, आप जो हमारे यहाँ पधारे सो आपने बड़ो कृपा को। इस प्रकार उन्हें संतुष्ट कर तथा भोजनादिकसे संतुष्ट कर जाते समय कुछ दूर तक जाकर शिष्ट वचनोंके साथ विदा करते हैं यह सब उनका आदर सत्कार है, यदि उसमें कुछ कमोकी जाय तो आदर सत्कारमें कमो समझी जाती है। तथा पूजा भी आदर सत्कार है। तीर्थकर परमदेव वा पंचपरमेष्ठी सर्वोत्तम पुरुष हैं इसलिये उनका आदर सत्कार सर्वोत्तम रोतिस किया जाता है इसीको पूजा कहते हैं। उस पूजाके ऊपर लिखे आह्वान स्थापन सन्निधिकरण पूजा और विसर्जन ये पांच अंग हैं। सो हो लिखा है
आह्वान स्थापनं च सन्निधिकरणं तथा, पूजा विसर्जन वमुपधारस्तु पंचधा । अर्थात् आह्वान, स्थापन, सन्निधिकरण, पूजा, विसर्जन इस प्रकार पूजा पाँच प्रकार है ऐसा अकलंक प्रतिष्ठापाठमें लिखा है। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि आह्वान, स्थापन आदि पूजाके आदर, सत्कारके अङ्ग है स्थापना निक्षेप नहीं है। इसका। प्रबल कारण यह है कि स्थापना निक्षेपमें सोऽयम्', 'यह वहीं है। इस प्रकारका सङ्कल्प किया जाता है। लिखा भो है
साकारे वा निराकारे काष्ठादो यन्निवेशनम् । सोपमित्यभिधानेन स्थापना सा निगद्यते॥ अर्थात् तदाकार व अतदाकार काष्ठादिकमें 'यह वही है। इस प्रकार संकल्प करना, निवेश करना स्थापना निक्षेप है आह्वान, स्थापनमें 'यह बड़ी है' ऐसा सङ्कल्प नहीं होता । इसलिये यह स्थापना निक्षेप कभी नहीं हो सकता । ___ जो लोग यह समझते हैं कि जहाँ प्रतिमा विराजमान हैं वहाँ स्थापना नहीं करनी चाहिये सो यह उनकी भारी भूल है। कोई-कोई लोग तो ऐसे हैं जो आह्वान, स्थापन, सन्निधिकरण करते ही नहीं हैं। उनका वह पूजन करना उसी प्रकार है जो त आये हुए किसी बड़े आवमीके लिए आइये, पधारिये यहाँ विराजिये आपने पधारने की बड़ो कृपा को, इत्यादि वचनोंके कहे बिना हो उसका यथेष्ट आदर, सस्कार किये बिना ही उसके सामने भोजनका थाल लाकर रख देना है। जो लोग ऐसा करते हैं वे अशिष्ट कहलाते हैं और उनका वह आदर, सस्कार योग्य नहीं कहलाता, न उस आदरसे किसी कार्यको सिद्धि होती। है। उसी प्रकार जो पूजाके आह्वान, स्थापन, सन्निधिकरणके बिना हो पूजन करते हैं उनको वह पूर्ण पूजन नहीं कहलाती ।
स्मारकमान्यायवाचETAweनिम्न
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