SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 455
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४३३ अर्थ-यहाँ मांस मनुष्यकी विष्ठाके समान है। विष्ठा और मांसमें कोई भेद नहीं है। दोनों एक ही हैं इसलिये मांस विष्ठाके समान है। पांधफे सूअर तथा कोवे, गीय मांसाहारी जीव मांस और विष्ठा दोनों पर्चासागर को खाते हैं इससे साबित होता है कि मांस बिल्कुल विष्ठाके समान है। इसके सिवाय वह मांस लट तथा । अन्य छोटे-छोटे जन्तुओंसे भरा हुआ है। अत्यन्त दुर्गन्धमय घुणित है। पैरसे भी छूने योग्य नहीं है। और न कोई उसके पास जाता है। ऐसा मांस भला भक्षण योग्य किस प्रकार हो सकता है ? अर्थात कभी नहीं हो सकता। ऐसे महा निन्दनीय मांसको खाना अत्यन्त अशुभ कर्मके उदयका माहात्म्य है । ऐसे घृणित मांसको घृणित जानते हुये जो खा जाते हैं वे अवश्य नरकके पात्र हैं इसमें कोई संदेह नहीं। ऐसे जिन शास्त्रोंके वचन हैं। इसका विशेष स्वरूप अन्य ग्रन्थोंसे जान लेना चाप्रिये । मांसारित भएकरने में व्यापमंका लोप होता है। जो जीव इनका त्याग नहीं करते वे उस पापM के उदयसे नरकमें हो जाते हैं ऐसा सिद्धांत है। जो लोग लोभी हैं, कपटी हैं, मानी हैं, क्रोधी हैं, इन्द्रियोंको ॥ पुष्ट करनेवाले विषय भोगोंके लंपटी हैं उन्होंने अपना स्वार्थ सिद्ध करनेके लिये तथा राजा, महाराजा आदि। बड़े लोगोंको ठगनेके लिये हिंसामयी शास्त्र बनाये हैं । तथा ऐसे शास्त्रोंफा पढ़ना-पढ़ाना भी स्वार्थके हो लिये। होता है। राजा, महाराजाओंको खुश रखनेके लिये उनको इच्छानुसार अर्थ निरूपण किया है। धर्मके अनुसार चलनेवाले स्पष्ट वेत्ताओंके स्पष्ट वाक्य नहीं है इसलिये विपरीत हैं और सम्यग्दृष्टियोंके श्रद्धान करने योग्य नहीं हैं। शास्त्रोंमें जो यह लिखा है कि येषां न विद्या न तपो न दानं । न चापि शीलं न दया न धर्मः।। ते मर्त्यलोके भुवि भारभूताः मनुष्यरूपेण मृगाश्चरंति ॥ अर्थात्-जिसके पास न विद्या है, न तप है, न वान है, न शील है, न क्या है, और न धर्म है अर्थात् जो जीवोंकी हिंसा करते हैं । मांस भक्षण करते हैं मद्यपान करते हैं ऐसे जीव इस मृत्युलोको पृथ्वीके भार [४६ हैं। ऐसे मनुष्य मनुष्यके आकारके पशु ही समझने चाहिये। यह जो शास्त्रों में लिखा है सो ऐसे ही हिंसक वा मांसाहारियोंके लिये लिखा है।
SR No.090116
Book TitleCharcha Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalal Pandit
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages597
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy