SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पासागर ११३ ] जीर्ण चातिशयोपेनं तद्व्यंगमपि पूजयेत् । शिरोहीनं न पूज्य स्थान्निक्षेप्यं तन्नदादिषु ॥ इस प्रकार जानना । यदि इसका विशेष स्वरूप जानना हो तो जिनसंहिता, प्रतिष्ठापाठ, सरस्वतीकल्प, पूजासार, शिल्पशास्त्र आदि ग्रन्थोंसे जान लेना चाहिये। १०६-चर्चा एकसौछट्ठी प्रश्न--इस पंचमकालमें भरतक्षेत्रमें साक्षात् केवलज्ञानी नहीं हैं फिर भला उनको किस प्रकार मानना चाहिये और उनकी पूजा-भक्ति किस प्रकार करनी चाहिये । उनकी प्रतिमा तो स्थापना है निक्षेपरूप साक्षात् समाधान--केवली भगवान्को वाणीका पठन-पाठन करनेवाले आचार्य है। इसलिए आचार्यको मानना वा उनको पूजा-भक्ति आदि करना साक्षात् केवलीको मानने और उनकी पूजा-भक्ति करनेके समान है, क्योंकि जिसने केवलीप्रणीत शास्त्रोंको पठन-पाठन करनेवाले मान लिये तो उसने साक्षात केवली भी मान लिये। इस पंचमकालमें श्रीमहावीर स्वामीके पीछे जिन सत्रोंको पठन-पाठन करनेवाले और रत्नत्रयको धारण करनेवाले । अनेक बड़े-बड़े आचार्य हुए हैं उनके वचनोंको आनाको मानना ही केवली भगवानको मानना है । सो हो " श्रीपमनंदिविरचित पद्मनंदिपंचविंशतिकामे लिखा है-- संप्रत्यस्ति न केवली किल कलौत्रैलोक्यचूणामणि स्तद्वाचः परमासतेऽत्र भरतक्षेत्रे जगढ्योतिकाः॥ १. शास्त्रकारोंने स्थापनाका लक्षण “सोयमित्यभिधानेन स्थापना सा निगद्यते" अर्थात् "ये वे हो हैं" ऐसा संकल्प करना ही स्थापना निक्षेप है। मूर्ति वा प्रतिमामें जो स्थापना की जाती है वह भी ये तीर्थङ्कर हो हैं ऐसो कल्पना की जाती है, इसलिये जिन प्रतिमाको पूजा-भक्ति करना भी केवली भगवान्की ही भक्ति-पूजा करना है तथा यह बात केवली भगवानकी कही हुई है या नहीं कही हुई है, इस प्रकारका जहाँ निश्चय करना हो, वहाँपर आचायोंके वचनोंसे हो निश्चय करना चाहिये। क्योंकि भावान महावीर स्वामीने जो उपदेश दिया था, वही उपदेश गौतम स्वामी, सुधर्माचार्य और जबस्वामीने दिया तथा वही श्रुत- केलियोंने व उनके शिष्योंने दिया। उन्हीं शिष्यों के शिष्य-प्रतिशिष्य आचार्य हुए हैं इसलिये जैसा उनके गुरुओंने उपदेश दिया है वैसा ही उन्होंने उपदेश दिया है और वैसा ही शास्त्रोंमें लिखा है इसलिये आचार्यों के बनाये हुए शास्त्रों में जो लिखा है वह केवलीप्रणीत ही है ऐसा निश्चय करना चाहिये । जो ऐसा नहीं करते वे केवली भगवान्का तिरस्कार करते हैं। [११
SR No.090116
Book TitleCharcha Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalal Pandit
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages597
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy