________________
बर्षासागर
आत्मार्थं यः पशुहन्यात सोऽवश्यं नरक बजेत् ।
देवान् पितृन् समभ्यर्थ्य खादन्मासं न दोषभाक् ॥ ३५ ॥ ___ इस प्रकार बहुतसे ग्रामण उप शिया करते हैं परंतु उनका यह उपदेश देना महा मिथ्या है। क्योंकि उपदेश देनेसे करनेसे भी अधिक पाप लगता है। करनेसे एक ही जीव द्वारा हिंसा होतो है और उपदेश देनेसे हजारों जीवोंके द्वारा हिंसा होतो है तथा हजारों जीवोंको मिथ्या श्रमान और मिथ्या ज्ञान हो जाता है । इसलिये ऐसा करना वा कराना सत्पुरुषोंका धर्म नहीं है। ऐसा समन्न कर उत्तम धर्मका सेवन करना चाहिये और हिंसामयो धर्मका दूरसे हो त्याग कर देना चाहिये । यही कहनेका अभिप्राय है।
इनके वेद पुराणोंमें भी जीवोंको प्रत्यक्ष हिंसा तथा अनेक अनाचारोंमें धर्म बतलाया है । तथा बड़ेबड़े विरुद्ध वचन लिखे हैं । जैसे-मत्स्यावतारके मरस्यका उदर बनाते हैं, कच्छपावतारमें कछुएका मुँह बताते हैं, वराह ( सूअर ) अवतारमें सूअरका तुण्ड कहते हैं, नृसिंहावतारमें सिंहका मह बताते हैं । इस प्रकार उन अवतारोंको पशुओं के आकारके बतलाते हैं तथा उन्हें पशुओंको योनि मानते हैं। इसी प्रकार कल्की अवतारको केवल अश्यरूप ( घोड़ेके आकारका ) मानते हैं और कहते हैं कि परमेश्वरने देस्याविक दुष्ट जीवोंका वध करने के लिये अथवा भक्तोंका पालन करने के लिये उस घोड़ेमें आकर निवास किया है। ऐसे पुराणोंके वाक्य है। ऐसे वाक्योंको कहते हुए भी बड़े-बड़े वैष्णव तथा शैवधर्म वाले अथवा भील आदिक जीव उन मत्स्योंको, कछुओंको, सूअरोंको और सिंहोंको शस्त्रोंसे वा जालमें पकड़ कर मारते हैं और फिर उसको शिकार कहते हैं । वे लोग उनके मांसको खाते हैं और कहते हैं हम वैष्णव हैं । वे लोग जनेऊ पहिनते है, तिलक लगाते हैं, कण्ठी पहिनते हैं, स्नान, सन्ध्या, आचमन, तर्पण, पूजन, वान आदि करते हैं और फिर पोछे भोजनके समय जो छूने । योग्य नहीं ऐसी अस्पृश्य रसोईमें बैठकर उन्हों पात्रोंमें जीवोंका मांस भक्षण करते हैं। उसे अपना कुलधर्म बतलाते हैं। उस मांसको बड़ी प्रशंसा करते हुए खाते हैं और साथ मद्य भी पीते हैं। ऐसे अनेक निध कर्तव्य करते हैं। परन्तु उस समय वे लोग ठोक शूबोंमें खटीक जातिके शूद्रोंके समान तथा मुसलमानों में
मको करनेवालों के समान दिखाई पडते लोग जो जनेऊ पहिनते हैं और अपनेको पवित्र ॥ मानते हैं सो उनका जनेऊ पहिनना वा पवित्र मानमा मद्य भरे हुए पके समान है। जिस प्रकार मचके घड़े।