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चर्चासागर ३४१ 1
धेनुरेका प्रदीयते ॥
एक गाय देनी चाहिए ।
इस प्रकार अकलंक वेवने अपने प्रायश्चित्त ग्रन्थ कहा है। यहाँ कथा (गोड़ा-सा वर्णन ) किया है। विशेष विस्तार जानता हो तो बोरसेनकृत तथा अकलंकदेवकृत प्रायश्चित्त ग्रन्थोंमें देखना चाहिये ।
प्रश्न - प्रायश्चित प्रत्योंमें जो शिरमुंडन लिखा है सो यह आम्नाय तो अन्य मतियोंका है सो जैनशास्त्रोंमें क्यों लिखी गई है।
समाधान- प्रायश्चिसके समय जैन शास्त्रोंमें शिर मुंडन करानेका उपवेश है। इसलिये लिखा है । देखो मुनि आजका प्रायश्चित्त ग्रन्थों में भी लिखा है
तहय सुवण्णादीणं दव्वं इच्छयाणजह जोगं । सिर मुंडर्ण च कुज्जा लेयाणं किं गाहणटुं ॥ अर्थात् - यथायोग्य सुवर्णादिक ग्रथ्य लेना चाहिए। और सिर मुण्डन करना चाहिए। इसमें भी शिर मुण्डन लिखा है। तथा दूसरी जगह लिखा है
सकृद्भांत्यथ दर्पाद्वा सेविता दुर्जनेरिता । प्रायश्चित्तोपवासाः स्युः त्रिशतं शीर्षमुडनम् ॥ अर्थात् किसी दुष्टht प्रेरणासे वा प्रमावसे एकबार मुण्डन सेवन की हो तीन सौ उपवास शिर मुण्डन करना उसका प्रायश्चित्त है । किसी दुष्टकी प्रेरणा से एक बार अभक्ष्य सेवन किया हो ।
१८५ - चर्चा एकसौ पचासीवीं
प्रवन - मुनियोंके प्रायश्चिस विधि क्या है ?
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समाधान---बारह प्रकारके तपोंमें एक प्रायश्चित्त नामका तप है। यदि किसी मुनिके अज्ञान अथवा प्रमावसे पांच महाव्रताविक, अट्ठाईस मूलगुणोंमें वा अन्य किसी क्रया आचरणमें किसी प्रकारका अतिचार वा अनाचार लग जाय तो ये मुनिराज अपने गुरु आचार्यके निकट जाकर अपने किये हुए दोषको प्रगट करते हैं । तदनन्तर आचार्य महाराज जो प्रायश्चित वे उसे दे अपने दोष दूर करनेके लिये बड़े हर्षके साथ स्वीकार करते हैं। गुरुके दिये हुए प्रायश्चित्तोंमें किसी प्रकारका विवाद नहीं करते किन्तु उसको यथोचित रीतिसे पाल कर