________________
सागर
२८२ ]
कार्य करते हैं वह केवल अपनो स्तुति अथवा दूसरोंकी निन्दा करनेके लिये ही केवल वंभरूप करते हैं। अपने कल्याणके लिये नहीं करते ।
यहाँपर कदाचित् कोई यह कहे कि हम लोग भेषियोंके द्वारा प्रतिष्ठित जिनबिम्ब के चरणोंसे लगे हुए गंध, पुष्प आदि सब दोषोंको हटाकर तथा उसे निर्दोष कर फिर उसकी पूजा, वंदना करते हैं । सो भी ठीक नहीं है क्योंकि यदि इस प्रकार सदोष पदार्थ निर्दोष हो जाय तो जो कोई बालक अपनी जाति वा कुलका नहीं है उसको भी स्थान कराकर अपना एक बार सेना चाहिये, उसे सब द्रव्यका स्वामी बना देना चाहिये और उसे अपनी जातिमें व्याह देना चाहिये । यदि केवल स्नान करा देने मात्रसे शुद्धि मान लो जायगी तो फिर किसी को भी स्नान कराकर तथा इस प्रकार निर्वाध बनाकर अपना कार्य सिद्ध कर लेना निर्दोष माना जायगा यदि ऐसा होना अयोग्य और बुरा है तो फिर तुम्हारा ऊपर लिखा श्रद्धान भी दंभमय हो सिद्ध होगा। फिर उसे परमार्थ या यथार्थ नहीं कह सकते ।
इसपर कदाचित् कोई यह कहे कि "तुम्हारा कहना असत्य है इसको हम नहीं मानते। हम जो कार्य करते हैं सो यथार्थ श्रद्धान सहित हो करते हैं, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि यदि आप लोग जिनागमकी आज्ञाप्रमाण कार्य करते हो तो भगवानने उसका शास्त्रों में ऊपर लिखे अनुसार अभिषेकपूर्वक पूजा करना तथा पूजा में गंध, पुष्प, फल आदि चढ़ानेका विधान बतलाया है उसका निषेध आप लोग क्यों करते हो ?
देखो भगवानकी पूजा करने से अनेक जन्मके इकट्ठे हुए पाप, महापाप नष्ट हो जाते हैं तथा परम पुण्य प्राप्त होता है। ऐसा पूजा, पाठ आदि समस्त जिन ग्रन्थोंमें विस्तार के साथ लिखा है तथा जिन्होंने भगवानको पूजा की है उनको महाशुभ फलोदयसे स्वर्ग मोक्षके सुख प्राप्त हुए तथा जिन्होंने निन्दा की उनके पहले किये हुए समस्त महापुण्य नष्ट हो गये महापापका बंध हुआ और अत्यन्त दुःख देनेवाली नरकादिक नीच गति प्राप्त हुई। ऐसे जीवोंकी अलग-अलग कथाएँ स्थान-स्थानपर लिखी हैं तथा पूजा करनेवालोंकी महाव्याधियां नष्ट होती हैं और निम्बा करनेवाले कोढ़ आदि अनेक प्रकारके रोग दुःख, दरिद्रता और दुर्गन्धादिमय शरोरकी प्राप्ति होती है। ऐसा अनेक पूजा, पाठ ग्रन्थोंमें तुम लोग प्रतिदिन पढ़ते हो, पढ़ाते हो, सुनते हो, सुनाते हो तथापि अभिषेक, पूजा आदि कार्योंमें होनेवाले थोड़ेसे आरम्भसे डरकर यथार्थ श्रद्धानसे च्युत होकर पूजा, पाठ
[ २८२