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पासागर [१९]
इदं अध्यं चरु अमृतं बलिं यज्ञभागं च यजामहे यजामहे प्रतिगृह्यतां प्रतिगृह्यतां स्वाहा । इस प्रकार मंत्रपूर्वक है अर्घाविक द्रव्य चढ़ाना चाहिये और 'यस्यायं क्रियते पूजा' इत्यादि श्लोक पढ़कर जलधारा तथा पुष्पांजलि क्षेपण करना चाहिये। इसको यक्षार्चन कहते हैं।
तदनन्तर चार दिशाएँ, चार विदिशाएं और ऊपर नीचे इस प्रकार दशों दिशाओंमें दश दिक्पालोंका पूजन करना चाहिये । यथा
ओं ह्रीं इन्द्राग्नियमनैऋतवरुणपवनकुवेर ईशानधरणेन्द्रसोमाः सर्वेप्यायुधवाहनयुवतिजनसहिताः आग-1, । च्छत आगच्छत संवौषट् । अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः । अत्र मम सन्निहिता भक्त भवत वषट । इस मंत्रको
पुष्प चढ़ाकर अनक्रमसे आहवान, स्थापन सन्निधिकरण करना चाहिये। फिर ओं ह्रीं इन्द्राय । स्वाहा । ओं ह्रीं अग्नये स्वाहा । ओं ह्रीं प्रमाय स्वाहा । ओं ह्रौं नैऋताय स्वाहा। ओं ह्रीं वरुणाय स्वाहा । ॐ ह्री पवनाय स्वाहा । ओं ह्रीं कुबेराय स्वाहा । ओं ह्रीं ईशानाय स्वाहा ।ओं ह्रीं धरणेन्द्राय स्वाहा । ओं ह्रीं सोमाय स्वाहा । इदं अध्यं चरु अमृतं बलि यज्ञभागं च यजामहे यजामहे प्रतिगृह्यता प्रतिगातां स्वाहा । इस प्रकार मंत्रपूर्वक अर्घादिक द्रव्य चढ़ाना चाहिये तथा 'यस्यार्थं क्रियते पूजा' इत्यादि श्लोक पढ़कर जलधारा तथा पुष्पांजलि क्षेपण करना चाहिये । इसमें इतना विशेष है कि 'ओं ह्रीं इन्द्राय स्वाहा' यह मंत्र पढ़कर पूर्व विशामें अर्घ चढ़ाना चाहिये। 'ओं ह्रीं अग्नये स्वाहा' इस मंत्रसे आग्नेय दिशामें ( पूर्व दक्षिणके बीचमें ), ओं ह्रीं यमाय स्वाहा इस मंत्रसे दक्षिण दिशामें, ओं ह्रीं नैऋताय स्वाहा इस मंत्रसे नैऋतकोण (दक्षिण पश्चिम के बीच में ) 'ओं ह्रीं वरुणाय स्वाहा' इस मंत्रसे पश्चिममें, ओं ह्रीं पबनाय स्वाहा इस मंत्रसे वायव्यकोणमें (पश्चिम उत्तरके बीचमें ) ओं ह्रीं कुबेराय स्वाहा इस मंत्रसे उत्तर दिशामें ओं ह्रीं ईशानाय स्थाहा इस मंत्रसे। ईशान दिशामें ( उत्तर पूर्वके बीच ) ओं ह्रीं धरणेनाय स्वाहा इस मंत्रसे भूमिके अधोभागमें और ओं ह्रीं । सोमाय स्वाहा इस मंत्रसे ऊपरको विशामें । इस प्रकार दशों विशाओं में दश दिक्पालोंको पूजन करनी चाहिये।
फिर मंत्रकी चारों दिशाओंमें चारों विदिशाओंमें तथा दुबारा पूर्व दिशामें इस प्रकार नौ स्थानोंमें । आदित्यादिक नवग्रहोंका पूजन करना चाहिये । यथा-ओं हों आदित्य सोमांगार बुध वृहस्पति शुक्र शनिश्चर
राहुकेतवः सर्वेप्यायुषवाहनबधिहसपरिवारा अत्र आगच्छत मागच्छत संवौषट् । अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठः ठः ।