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वसामर १५० ]
नंदीसर अट्ठदिवसेसु तहय अण्णेसु उचियपव्वेसु ।
जं कीरड़ जिणमहिमा विष्णेया कालपूया सा ॥ ४५६ ॥ इस प्रकार कालपूजाका वर्णन किया ।
भगवान् अरहन्तवेधके अनन्त ज्ञान आदि अनन्त चतुष्टयोंका वर्णन करना, भक्तिपूर्वक उनकी त्रिकाल वन्दना करना अर्थात् भक्तिपूर्वक सामायिक स्थलका पाठ करना सो भावपूजा है। अथवा पंच णमोकार मन्त्रका उच्चारण कर जप करना, अपनी शक्तिके अनुसार भगवान् जिनेन्द्रदेवका स्तोत्र करना सो भावपूजा है । अथवा पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीतके भेदसे चार प्रकारका धर्मध्यान धारण करना सो भी भावपूजा है। सो हो लिखा है
काऊ णाणं तचउट्टयाइ गुणकीत्तणसुभत्तीए । जं नंगतियालं की भावनणं तं खु ॥ ४५७ ॥ पंचणमोयारेंहिं अइवा जावं कुणिज्ज सत्तीए । अवा जिणदत्थोत्तं वियाण भावच्चणं तंपि ॥ ४५८ ॥
पिंडत्थं च पयत्थं रूवत्थं रूववज्जिय अहवा । जंझाइज्जइ झाणं भावमहंतं विनिदिट्ठ ॥ ४५६
इस प्रकार भावपूजाका वर्णन समझना चाहिये। इसप्रकार श्रीवसुनंदि सिद्धान्तचक्रवर्तीने अपने श्रावकाचारमें इन छहों हो निक्षेप पूजाओं का वर्णन किया है। तथा यही वर्णन श्रीसकलकीर्तिने लध्याविपुराण का श्रीवृषभttereafter feया हैं। यथा-
इदं नामावलिदृब्धं स्तोत्रं पुण्यं पठेत्सुधीः । नित्यं योर्हद्गुणं प्राप्या चिरात्सोर्हन् भवादृशः। ६१ । त्वदीयाः प्रतिमाः नाथ येऽर्चयंति स्तुवंति च । नमंति च ते पुण्येन लभते त्रिजगच्छ्रियः ॥ ६२ ॥ साक्षावां मूर्तिमंतं ये भजंति स्तवनादिभिः । तेषां पुण्यफलादीनां संख्यां वेत्यत्र को बुधः ॥ ६३ ॥ दिव्यमोदारिकं देहं जगत्साराणुनिर्मितम् । भवदीयं सुभक्त्या ये स्तुवंति वर्णवर्णनैः ॥६४॥
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