________________
नेऽतिधर्मेण देवा हो भुक्त्वा सौख्यं परंदिवि । चरमांगं तपोभारक्षम श्रयंति नान्यथा।६।।
। निर्वाणक्षेत्रभूत्यादीन् येऽर्चयंति नमंति च। स देवत्वं तु कमान्नूनं निर्वाणं प्राप्नुयात्यहो।६६ र्चासागर । पंचकल्याणकालाधैधसका स्तौलिगुण प्रमो: कल्याणसुखसाराणि हीहामुत्र लभेत् सः॥६७४
केवलज्ञानदृष्ट्यादिगुणैः स्तुवंति ये विभोः। भवंति तेऽचिरात् स्युश्च त्वत्समास्त्वद्गुणैसहा६८।। । इति षड्विधनिक्षेपैः स्तवनार्हाय ते नमः । नमस्तीर्थात्मने तुभ्यं नमो मोहारिनाशिने ।६।। इस प्रकार और भी जैनशास्त्रों में पूजाधिकारमें लिखा है सो जानना ।
१३५-चर्चा एकौ पैंतीसवीं प्रश्न- ऊपर जो पूजाके छ: निक्षेप बतलाये उसमें स्थापनानिक्षेपके दो भेद बतलाये एक तदाकार । दूसरा अताकार । अक्षतादिकोंको ऊंचे स्थानपर रखकर तथा उसमें किसी देवका संकल्प कर उसकी जल, गन्धाविकसे पूजा करना सो दूसरी असद्भावस्थापना बतलाई। सो इस पंचमकालमें इसके करनेको प्रवृत्ति कैसी है?
समाधान--यह ऊपर लिखी हुई असद्भावस्थापना इस हुण्डावपिणी कालमें इस कालके दोषके कारण ! नहीं करनी चाहिये । ऐसी आचार्योकी आज्ञा है । इसका भी कारण यह है कि इस लोकमें अनेक कुलिंगी भी। (मिथ्यादृष्टि ) ऐसा करते हैं उसमें लोग मोहित होकर भ्रममें पड़ सकते हैं। इसलिए अतवाकार स्थापना की पूजा नहीं करना चाहिये । सो ही वसुनन्दिसिद्धान्तचक्रवर्तीने श्रावकाचारमें लिखा है--
हुंडावसप्पिणीए विइया ठवणा ण होइ कायनो।
लोए कुलिंगमयमोहिया जदो होइ सन्देहो ॥३८६॥ अन्य मतके लोग बिना मूतिके ही मंदिरमें, क्षेत्रमें, घर वा वनमें सुपारी आदिको रखकर उसमें मंत्रों द्वारा किसी देवका सङ्कल्प कर जल, गंधादिकसे उसकी पूजा वा विसर्जन आदि करते हैं सोह विसर्जन आदि करनेका यहाँ निषेध किया है । तथा जिनमंदिरोंमें अरहंत आदिका जो आह्वान, स्थापन, सन्निधी
ऊपरको टिप्पणोंमें जो आह्वान, स्थापनः आदिको पूजाका अंग बतलाया है वह इससे भी सिद्ध हो जाता है । वह स्थापना निक्षेप नहीं है, किन्तु पूजाका अंग है।