________________
बासागर १३७
__समाधान-सत्पात्रोंको दान देना और श्री जिनेन्द्रदेवको पूजा करना ये दो हो धर्म श्रावकोंको मुख्य ती धर्म बतलाए हैं। इसका भी अभिप्राय यह है कि सम्पग्दर्शन पूर्वक अहिंसादिक पांचों अणुवतीको तथा गुणवत शिक्षावतोंको धारण करनेवाले पाँच गुणस्थानवर्ती गृहस्थोंको श्रावक कहते हैं । तथा दर्शनप्रतिमाको पालनकरनेवाले चौथे गुणस्थानोंमें रहनेवाले गृहस्थोंको अश्रावक (ईषत् श्रावक-श्रावकों के समान) कहते हैं । श्रावकअभावक दोनोंका मुख्य धर्म सत्पात्रोंके लिये बान देना तथा देव-शास्त्र-गुरुको पूजा करना है। इन्हीं श्रावक वा अश्रावकोंके लिये वीर्यचर्या प्रतिमायोग और सिद्धान्तके पठन-पाठनका निषेध किया है । इसीप्रकार ध्यान धारण करना और सिद्धान्तके रहस्योंका अध्ययन करना मुनियोंका मुख्य धर्म है। पूजा और दानके बिना गृहस्थोंका धर्म नहीं है और ध्यान अध्ययनके बिना मुनियोंका धर्म नहीं है। यही इसका तात्पर्य है सो हो। श्री कुन्दकुन्द आचार्य ने लिखा है--
दाणेपूआ मुक्खं सावयधम्म असावगो तेण विणा ।
झाणज्झयणं मुक्खं जइधम्म तं विणा तहा सोवि ।। कितने हो लोग सिद्धान्तशास्त्रोंका पठन-पाठन करते हैं । उनको कालशुद्धि तथा अक्षर मात्रा स्वरसंधि आदिका भी ज्ञान नहीं होता तथा योग्य-अयोग्यका भी विचार नहीं होता। परन्तु केवल बड़े बननेके लिये, महन्त बननेके लिये उसका अध्ययन करते हैं। सो वे शास्त्रोंके बचनोंसे विरुद्ध चलते हैं । अपनी पद्धप्ति पद A और योग्यताके अनुसार चलना योग्य है । केवल मूठो प्रतिष्ठा बढ़ानेमें कुछ सिद्धि नहीं होती।
प्रश्न----इस समयमें जो सिद्धान्त अन्य उपलब्ध हैं उनके पठन-पाठनका निषेध नहीं है। गृहस्थोंके न वाचने योग्य सिद्धान्तग्रन्थ तो और हो है। जो इस समय उपलब्ध नहीं हैं। वे मुनियोंके हो पढ़ने योग्य है
और इनसे जुबे हैं। जैसे एक अक्षरके संयोगी, दो अक्षरके संयोगी, तोन अक्षरोंके संयोगो इसी प्रकार चौसठ | अक्षर तकके संयोगी अक्षरोंके जो पद हैं उनका निषेध किया है ?
समाधान-ऊपर लिखे प्रश्नमें जो एक, वो, मार आदि चौसठ अक्षरोंके संयोगी अक्षरोंके बने हुए पदोंको सिद्धान्त अन्य बतलाया है सो उनका उच्चारण तो ऋद्विधारी मुनि हो कर सकते हैं विना ऋद्धिधारी । मुनियों के अन्य साधारण मुनियोंसे भी उनका उच्चारण नहीं हो सकता। फिर गृहस्थकी तो बात हो क्या है ।।
६८
TASHATरस्याचाराबार