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________________ सागर १३८] जो आचारांगाविक द्वादशांगके पाठी हैं वे ही उसके उच्चारण करनेमें समर्थ हैं उनके उच्चारण करने की शक्ति और किसी में नहीं है। ऐसे सिद्धान्त ग्रन्थ तो चौथे कालमें थे ( वा भद्रबाहु श्रुतकेवली तक रहे ) इस समय में पंचमकालमें उनका अभाव हो है इस समय का महापर निषेध किया है। २५० - चर्चा दोसौ पचासवीं प्रश्न -- यदि गृहस्थ सिद्धान्त शास्त्रोंका अध्ययन न करे तो उसको आत्मध्यानकी सिद्धि और अनेक गुणोंकी प्राप्ति किस प्रकार हो सकती है। इसलिये यह बात कुछ समझमें नहीं आती। यदि सिद्धान्त ग्रंथोंका अध्ययन न किया जायगा तो शूद्धोपयोगमय आत्मज्ञान तथा ध्यानकी सिद्धि नहीं हो सकती । गृहस्थका धर्म शुद्ध सुवर्णके समान शुद्धोपयोगमय है । यही मोक्षका कारण है। जो स्वर्गका कारण हो वह तो बन्धरूप है इसलिये वह कार्यकारी नहीं हो सकता। हम तो अध्यात्ममार्ग पर चलनेवाले हैं इसलिये हमें व्यवहार धर्म प्रिय नहीं है। हम तो आत्मज्ञानी हैं इसलिये एक शुद्धोपयोग मय चर्चा ग्रन्थोंको प्रमाण मानते हैं । व्यवहार रूप पुराणादिकके वचनोंकी श्रद्धा गौणरूपसे करते हैं । सो इसमें क्या हानि है ? समाधान - इस प्रकार कहना जैनमार्गके विरुद्ध है । क्योंकि सिद्धांतशास्त्रोंको मुख्य मानना और पुराणाविकोंको गौण मानना यथार्थ श्रद्धानले बाहर है क्योंकि सिद्धान्त ग्रंथ किसी अन्य आम्नायके अनुसार हो और पुराण ग्रन्थ किसी अन्य आम्नायके अनुसार हों सो तो है ही नहीं । सिद्धान्त और पुराण सब जिना - गम है। भगवान अरहंतदेवकी दिव्यध्वनिके अनुसार ही गणधराविक ऋद्धिचारी श्रुतकेवलियोंने तथा अंग पूर्व पाठी आचायोंकी रचना है। सो इसमें संदेह करना वा आचायके वचनोंको उल्लंघन करना महादोष है सोही पद्मनविपंचविंशतिकामें लिखा है । संप्रत्यस्ति न केवली किल कलौ त्रैलोक्यचूड़ामणिः, तद्वाचः परमासतेऽत्र भरतक्षेत्रे जगद्योतिकाः । सद्रत्नत्रयधारिणो यतिवरांस्तासां समालंबनं, तत्पूजा जिनवाचि पूजनमतः साक्षाज्जिनः पूजितः ॥ ६८ ॥ [ ५३८
SR No.090116
Book TitleCharcha Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalal Pandit
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages597
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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