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चर्चासागर [ २५३ ]
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अर्थात उस सती रानीने ऐसा निराधयकर सात दिन तक तीनों समय भगवानका अभिषेक किया और चंदन, अगुरु, कपूर आदि सुगंधित द्रव्योंसे विलेपन किया।
इस प्रकार और भी कथायें हैं।
श्रीउमास्वामीने अपने श्रावकाचारमें पूजा प्रकरणमें गंधके विलेपन करनेका वर्णन किया है सो पहले पूजामें लिख चुके हैं वहाँसे देख लेना चाहिये ।
श्रीउमास्वामीने इकईस प्रकारको पूजाके प्रकरणमें लिखा है कि सबसे पहले भगवानका अभिषेक करना सो स्नानपूजा है। तदनन्तर चन्दन आदि सुगन्धित द्रव्योंको घिसकर भगवामके घरणोंसे लगाना सो विलेपन पूजा है । फिर पुष्प चढ़ाना सो पुष्पपूजा है। इत्यादि और भी बहुतसा वर्णन है। यया
_ "स्नानैर्विलेपनविभूषितपुष्पवासा" इत्यादि । और भी पाठ है।
प्रश्न-तुमने जो ऊपर वर्णन किया है वह महा पापका कारण है क्योंकि पूजा आदिमें हिंसादिक महा आरम्भ होता है । इसी प्रकार कोई-कोई अधर्मी रात्रिमें भी पूजा करते हैं सो उसका पाप तो हम जान ही नहीं सकते क्योंकि उसमें महापाप होता है और धर्म जीव दयापूर्वक है। इसलिये ऐसे कथनको हम नहीं मानते । इस प्रकार कितने ही असमझ पुरुष इन कार्योको निन्दा करते हैं। उसका समाधान इस प्रकार है। जैनशास्त्रोंको बिना समझे केवल उद्धत पुरुषके समान इस प्रकारके निन्दारूप बघन कभी नहीं कहना चाहिये। अपना हिताहितका विचार कर विवेकरूप वचन कहना चाहिये । यह जैनमत एकांतपक्षरूप नहीं है अनेकांतरूप है । स्याद्वावरूप नयोंसे सिद्ध है। लिखा भी है.--'स्याद्वावनायकमनंतचतुष्टयाह' स्याद्वादके स्वामी अनंतचतुष्टयको धारण करनेवाले श्रीअरहतवेवकी मैं पूजा करता हूँ। इसलिये एक पक्षको दृढ़ करनेसे मिथ्यात्वका दोष आता है तथा ऐसा कहना अनेक अनाँको उत्पन्न करनेवाला है ।।
जो पुरुष भगवानके अभिषेक करनेमें, जिनेन्द्रदेवको प्रतिमाको प्रतिष्ठा करनेमें, जिनालय के निर्मापण ।। कराने में तथा जिनयात्रा, तीर्थयात्रा आदिमें सावध लेश अर्थात् हिंसादिक आरम्भका पाप बतलाते हैं, वे जैन- ।।
DAREsaच्या न्यानTHERMA