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पर्चासागर [स ]
धर्मको पालन करते हुए भी मिध्यावृष्टी और पापी हैं, सम्यग्दर्शनके घातक हैं और केवल निन्दा करनेवाले हैं ऐसा सारसंग्रह नामके शास्त्रमें लिखा है । यथा
जिनाभिषेके जिनपप्रतिष्ठा जिनालये जैनसुपात्रकायाम् ।
सावधलेशो वदते स पापी स निन्दको दर्शनघातकश्च ।। यहाँपर ऐसे पुरुषको दर्शनका घातक बतलाया है और श्रीकुन्दकुन्दस्वामीने अपने षड्पाहड़में ऐसे धातीको मोक्ष प्राप्त हा निषेध किया है। जैसा कि दर्शनपाहुउमें लिखा है---
दसणभट्टा भट्टा दंसणभट्टस्म णस्थि णित्राणं ।
सिझंति चरिये भट्टा दसणभट्टाण सिझति ॥ अर्थात् दर्शनसे भ्रष्ट हैं वे भ्रष्ट हैं क्योंकि जो दर्शनसे ( सम्यादर्शनसे-जैनशास्त्रोंके यथार्य श्रद्धानसे ) भ्रष्ट हैं उनको मोक्ष कभी नहीं मिल सकती तथा इसका भी कारण यह है कि जो चारित्रसे भ्रष्ट हैं वे समय पाकर मोक्षमार्गमे लग जाते हैं परन्तु जो सम्यग्दर्शनसे भ्रष्ट हैं वे मोक्षमार्गमें कभी नहीं लगते हैं।
श्रीयोगोन्द्रदेवने भी अपने श्रावकाचारमें लिखा है कि जो पुरुष भगवानके अभिषेकमें पाप गिमता है उसके सम्यग्दर्शन कभी नहीं हो सकता । ययाआरंभे जिणण्हाइयेजोसावज्जभणंति दसणं । तेण जिम इयलीयो इच्छुण काई उभंति ॥
कोई-कोई लोग ऐसा कहते हैं कि रात्रिमें प्राषिक-श्राविका आदि चतुर्विध संघ भी भोजनका त्यागी हो जाता है फिर भला रात्रिमें श्री अरहंतवेषको पूजा किस प्रकार करनी चाहिये, उनको नैवेद्य किस प्रकार चढ़ाना चाहिये। यह तो बड़ा अपराध है क्योंकि जो पुरुष रात्रिमें स्वयं नहीं खाता यह भगवानकी जल, फलाविकसे रात्रिमें किस प्रकार पूजा कर सकता है इसलिये रात्रिमें भगवानको पूजा करनेका वा नैवेद्य चढ़ानेका निषेष है। परन्तु इसका समाधान यद्यपि ऊपरके श्लोकोंसे हो जाता है तथापि थोड़ासा फिर भी बतलाते हैं।