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________________ चर्चासागर [४१७] श्राद्ध करानेवाले आचार्य हों अथवा तृप्त होनेवाले पितर हों वे सब राक्षस वा भील समझने चाहिए। क्योंकि मांसका विधान करना राक्षसोंका काम है। दूसरी बात यह है कि यदि मांस के विधानका ही दृढ़ विश्वास किया जायगा तो श्राद्ध अधिकारमें जो तिल, चावल, जल, शर्कश, घी, दूध, मधु, दही आदिका पिंड करना कैसे बतलाया। देखो श्राद्धकल्पमें लिखा भी है तिलान्नं चैव पानीयं शर्कराज्यं पयस्तथा । मधु दध्ना समायुक्तः अष्टांगः पिंड उच्यते ॥ इस प्रकार जो अष्टांग पिंड बतलाया है वह सब व्यर्थ हो जायगा । आगे तुम्हारे यहाँ लिखा है विन्ध्यस्य चोतरे भागे मांसभक्षी न दोषभाक् । अर्थात विन्ध्याचलके उत्तर भागमें मांस भक्षण करनेवाला दोषो नहीं गिना जाता। इस प्रकार कह कर बहुतसे शक्ति के उपासक कान्यकुब्ज, सनोडिया, सर्वरिया, पुरविया आवि ब्राह्मण, मछली, बकरा आदिका मांस भक्षण करते हैं। परन्तु उनका यह कहना और करना सब मिध्या है। क्योंकि मांस कुछ पृथिवी जलसे तो उत्पन्न होता ही नहीं है अथवा फलोंके समान वृक्षोंपर लगता नहीं है। वह जंगम जीवोंके घात करनेसे होता है । इस प्रकार जंगम जीवोंके घात करनेसे उत्पन्न हुए मांसको भक्षण करनेवाले लोगोंके भला जीवदया किस प्रकार पल सकती है क्योंकि श्राद्धादिकमें मांसका काम पड़ता ही है। इसलिये कहना चाहिये कि इस प्रकार कहनेवाले वा माननेवाले बड़े ही अधर्मी है। आगे जो लोग यह कहते हैं कि क्षत्रियोंके कुलमें परम्परासे मांस भक्षण वा शिकार खेलना चला आया है तथा उनमेंसे कितने ही इन्द्रियोंके लम्पटी, विषय- कषायों को पुष्ट करनेवाले, महाकामी, अधोगतिके जाने बाले, भ्रष्ट, महापापी, चांडालोंके समान क्रूर परिणामी, क्रोधी, अधर्मी लोग शास्त्रों में भी मांस भक्षणको पुष्टि करते हैं, धर्म मान कर हिंसाको वा मांसभक्षणको पुष्टि करते हैं परन्तु ऐसे लोग महादुर्बुद्धि और महामिध्यावृष्टि हैं। ऐसे लोग ग्रामीण सूअरोंके समान हैं। जैसे प्रामीण सूअरोंके सामने चाहे जैसे उत्तम पकवान रक्खे जाँय परन्तु वह सुअर उन उत्तम उत्तम पकवानोंको छोड़कर विष्ठापर ही पड़ता है। उसीको प्रेमसे खाता है और तृप्त होकर आनन्द मानता है । अथवा उल्लू जातिका पक्षी अनेक प्रकारके उत्तम उत्तम भोजनोंको ५३ I v
SR No.090116
Book TitleCharcha Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalal Pandit
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages597
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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