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DिAEESEउनास्थाpahal
शिवधर्म में लिखा है कि मांसमें, मध, शहबमे और मक्खनमें उसी वर्णके ( मांस, मक्खन वा पाहवके । रंगके ) असंख्यात जीव हर समय उत्पन्न होते रहते हैं । यथामये मांसे मधुनि न नवनीते वहि न ते । उत्पद्यन्ते असंख्यातास्तवर्णास्तत्र जन्तवः ॥
इस प्रकार मांसमें महावोष है। पहले तो यह जीवोंको हिंसासे उत्पन्न होता है। तथा फिर उसमें अनेक दोष हैं यही समझकर धर्मात्मा पुरुष हिंसाका और मांस भक्षणका त्याग कर देते हैं।
जो जीव स्वयं मांस नहीं खाते परन्तु वूसरोंको उपदेश देते हैं। कहते हैं यह राजाओंका धर्म है । शिकार खेलना राजाओंका धर्म है। उसके लिये मुहूर्त देते हैं सो हिंसा करना या उसके लिये उपदेश देना, कारण सामग्री मिलाना सब एक है। जो लोग इन निय कार्यो का उपदेश देते हैं वे धर्मके नाश करने वाले पापको बढ़ानेवाले, इंद्रियोंके लंपटी, अधर्मी और महा पतित हैं। ऐसा समझना चाहिये।
प्रश्न-यदि मांसमें ऐसा दोष है तो श्राद्धमें मांस खिलानेका विधान क्यों लिखा है। स्मृतिशास्त्रमें लिखा है "मछलीका मांस खिलानेसे पितर लोग दो महीने तक तृप्त रहते हैं। हिरणके मांससे तीन महीने तक रहते हैं । भड़के मांससे चार महोने तक सप्त रहते हैं पक्षियोंके मांससे पांच महीने तक । करेके मांससे छह महीने तक, कबूतरके मांससे सात महोने तक, एण जातिके हिरणके मांसस आठ महोने तक, रोरव नामके हिरण नौ महीने तक, सूअर तथा भैसके मांससे दस महीने तक, खरगोश और कच्छपके मांससे ग्यारह महोने तक और गायके दूधको खोर खिलानेसे बारह महीने तक पितर लोग तृप्त रहते हैं। सो हो। लिखा है-- द्वौमासौ मत्स्यमासेन त्रिमासा हारिणेन वै। औरभ्रेण तु चत्वारः शाकुनेन तु पंचवै ॥ षट्मासाः छागमासेन पार्वतेन तु सप्त वै । अष्टावेणस्य मांसेन रोखेण नवैव तत् ॥२॥ दशमासास्तु तृष्यन्ति वराहमहिषामिषैः । शशकर्मस्य मांसेन मासा एकादशेव च ॥३॥
संवत्सरं तु गव्येन पयसा पायसेन वै। प्रश्न- इस प्रकार धादमें मांस का विधान लिखा है सो क्यों लिखा है ? समाधान-जो लोग इस प्रकार मांसका विधान करते हैं वे चाहे श्रद्धा करनेवाले गृहस्थ हों, चाहे
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