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मगर - ३२४ :
समाधान--जिनसंहितामें ऐसा लिखा है कि ओ कोई पुरुष अनेक प्रकारके अनर्थ उत्पन्न करनेवाले जिनपूजा सम्बन्धी दोषोंको शांत करनेके लिये ऊपर लिखे अनुसार प्रायश्चित्त नहीं करना तो वह पुरुष अपने नगरसे, देशसे, राष्ट्रसे, सबसे भ्रष्ट हो जाता है, सबसे रहित हो जाता है। इसलिये पापोंकी शांतिके लिये ऊपर गुरु प्रायश्यिय वा करने जातीये । सो हो लिखा है--
इत्थं प्रायश्चित्तमनर्थे प्रतिषिद्धे जाते दोषे शीघ्रतरं लप्रविधेयम् । नो चेदेवं राष्ट्रमशेष परिहीनः नगरं राष्ट्रपति प्रविहीनः ॥ ३३ ॥
१८४-चर्चा एकसौ चौरासीवों प्रश्न--यदि कोई जैनी गृहस्थ श्रावक वा श्राविकाके किसी कारणसे अनाचार वा होनाचरण करनेमें आ जाय तो उस दोषको दूर करने के लिये क्या प्रायश्चित्त करना चाहिये ?
समाधान-यदि किसी श्रावक वा श्राविकाने अपने अजानपतमें बिना समझे मद्य, मांस, मधु (शहर), बड़फल, पीपल फल, गूलर, अंजीर और पाकर इन आठ वस्तुओं से किसी एक वस्तुका भक्षण कर लिया हो। है तो उसको नीचे लिखे अनुसार प्रायचित्त देना चाहिये । अलग-अलग तोन उपवास करना, बारह एकासन
करना, जिनके साथ अपना पंक्तिभोजन है ऐसे एकसौ आठ पुरुषोंको पंक्तिभोजन कराना, भगवान अरहन्तदेव को प्रतिमाका एकसौ आठ कलशोंसे अभिषेक करना, अपनी शक्ति के अनुसार केशर, चंदन, पुष्प, अक्षत मावि द्रव्योंसे भगवानकी पूजा करना, एकसौ आठ बार पुष्पोंके द्वारा णमोकार मंत्रका जप करना और दो तीर्थयात्रा
करना, इस प्रकार प्रायश्चित्त लेनेपर वह शुद्ध होता है पंक्तिमें बैठने योग्य होता है । सो ही लिखा है॥ मथं मांसं मधु भुक्ते अज्ञानात्फलपञ्चकम् । उपवासत्रयं चैकभक्तद्वादशकं तथा ।। ७५ ॥ । अन्नदानाभिषेकश्च प्रत्येकाष्टोत्तरं शतम् । तीर्थयात्राद्वयं गन्धपुष्पाक्षतस्वशक्तितः ॥ ७६ ॥
यदि कोई श्रावक-श्राविका म्लेचछ जातिके घर वा किसी नीचके घर भोजन-पान कर ले तो उसको तीस उपवास, तिरेपन एकासन, अपनी जातिके दोसो पुरुषोंको आहार दान, गौ-दान, पांच-पांच घड़ोंसे दोसौ बार भगवानका अभिषेक, गंध, पुष्प अक्षतादिकसे भगवानको पूजन और विशेषताके साथ दो तीर्थक्षेत्रोंकी यात्रा
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