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चर्चेसागर [५० ]
गिण्छे दिवि संदि चहा पासुगों हि यद्दारण्हादि । चण गच्छ एकोसे एगोगां दोण्णि डुग खमणं ॥ काउस्सगे सुद्धदि सत्तसु पादेसु पिच्छि विण गमणे । सुगमणादि पडिक्कमणं णो खमणं होदि नियमेण ॥ जहं हि विजो सगो खमणं चउंगलं हि तसुवारं । तं भोयदुगण दुगणे उववासा अंगुलं चडके ॥ इस प्रकार यह ईयसमिति नामके मूलगुणका प्रायश्चित्त है ।
यदि कोई मुनि लोगों में जाकर भाषा समितिमें दोष लगाते हुए वचन कहें तो उसका प्रायश्चित्त एक कायोत्सर्ग है । यदि कोई मुनि सम्यग्दृष्टि श्रावकके दोष प्रकाशित करें तो उसका प्रायश्चित्त चार उपवास है । यदि कोई मुनि जल, अग्नि, बुहारी, चक्की, उखली और पानी आदि छः कर्मोके करनेका वचन कहे तो उसका प्रायश्चित्त तीन उपवास है । यदि कोई मुनि श्रृंगारादिकके गोत स्वयं गावे या किसीसे गवावे तो उसका प्रायश्चित्त चार उपवास है। सो ही लिखा है-.
भाताण पउज्जो वेज्जो वोल्लइ पुवस्थिणं दोस । काउस्सग्गो अट्टम अविरदया सुभबोधं हि ॥
छक्कम देश करणे उपवासे अट्टमं तु गिदिदिंचा । वण अवराह गाणं गदि दालणं होई ॥
इस प्रकार भाषासमिति नामके मूलगुणका प्रायश्चित्त बतलाया ।
यदि कोई मुनि बिना जाने कन्द मूलाबिक साधारण प्रत्येक सचित्त, अचित्त वनस्पति एक बार भक्षण करें अर्थात् कन्दमूल अचित्त भी भक्षण करे तथा अन्य वनस्पति सचित भक्षण करे तो उसका प्रायश्चित्त एक कायोत्सर्ग है । यदि बिना जाने अनेक बार कन्दादिक वनस्पतियोंका भक्षण करे तो उसका प्रायश्चित्त एक उपवास है । यदि कोई मुनि रोगके वशीभूत होकर कन्दादिक वनस्पतियोंका भक्षण करें तो उसका प्रायश्चित्त एक कल्याणक है । यदि कोई मुनि अपने सुख के लिये एकबार कंवादिकका भक्षण करें तो उसका प्रायश्चित्त
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