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सागर ३५६ ]
जो मुनि पूजाके आरंभ से उत्पन्न होनेवाले दोषोंको नहीं जानता है वह यदि एक बार गृहस्थों को पूजा करनेका उपदेश दे तो उसके आरंभके अनुसार आलोचना अथवा कायोत्सर्ग को आदि लेकर उपवास पर्यंत प्रायश्चित है। यदि वे मुनि बार-बार उपदेश दे तो उसका प्रायश्चित्त कल्याणक है ।
जो मुनि पूजाके आरंभके दोषोंको जानते हैं वे यदि एकबार पूजाके आरंभका उपदेश दें तो उसका प्रायश्चित्त प्रतिक्रमण सहित कल्याणक है । यदि वे बार-बार उपदेश दें तो उनका प्रायश्चित्त मासिक पंच कल्याणक है । तथा जिस पूजाके उपदेश देनेसे छह काधिक जीवोंका वध होता हो तो उसका प्रायश्चित छेदोपस्थापना वा पुनर्दीक्षा है ।
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यदि कोई सल्लेखना करनेवाला साधु क्षुधा तृषासे पीड़ित होकर लोगोंके न देखते हुये भोजन कर ले अथवा सल्लेखना न करनेवाला साधु अनेक उपवासोंके कारण भूख प्यास से पीड़ित होकर लोगोंके न देखते हुए भोजन कर ले तो उसका प्रायश्चित्त प्रतिक्रमण सहित उपवास है । यदि ऊपर लिखे दोनों प्रकारके मुनि किसी रोगी मुनिके देखते हुये भोजन कर लें तो उसका प्रायश्चित्त पंचकल्याणक है ।
यदि कोई मुनि सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हुये लोगोंके साथ अपना व्रतोंसे भ्रष्ट हुए लोगोंके साथ विहार करें उनकी संगति करें तो उसका प्रायश्चित्त पंचकल्याणक है। यदि वे अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, सर्व साधुओंमें अवर्णवाद लगायें, उनकी निंदा करें, झूठे दोष लगायें तो उसका प्रायश्वित्त प्रतिक्रमण कायोत्सर्ग सहित उपवास करना है ।
यदि कोई मुनि सिद्धांतके अर्थको जानते हुये भी उपदेश न दें, सिद्धांतको विनय करके हो अलग हो जाँय तो उसका प्रायश्चित आलोचना पूर्वक कायोत्सर्ग है। यदि वे सिद्धांतके श्रोताओंको संतोष उत्पन्न न कर क्षोभ उत्पन्न करें तो उसका प्रायश्चित एक उपवास है।
afa कोई मुनि विद्या, मंत्र, तंत्र, यंत्र, वैद्याबिक अष्टांग निमित्त, ज्योतिष, वशीकरण, गुटिका चूर्णं आदिका उपदेश दें तो उसका प्रायश्चित्त प्रतिक्रमण पूर्वक एक उपवास है ।
यदि कोई अप्रमत्त मुनि ( उमाद रहित ) जोव जंतुओंसे रहित प्रदेशमें सांथरेको न शोधकर सो गये हों तो उसका प्रायश्चित कायोत्सर्ग है यदि ये मुनि उमादसे जीव जंतुओंसे रहित स्थान में सांथरेको न शोधकर
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