SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 377
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चर्चासागर [ ३५५ यदि कोई मुनि मर्यादापूर्वक स्थिरे योग धारण करे तो जितने कालकी मर्यादा थी उसके बीच में ही किसी कारण से योग समाप्त करना पड़े तो जितना काल शेष रहा है उतने हो उपवास करना उसका प्रायश्चित्त है। एक महीनेके तोन भाग करना चाहिये। ऐसा करने से वश-दश दिनका एक-एक भाग होता है। यदि कोई मुनि महीने के पहले भागमें प्रतिक्रमण न करे तो उसका प्रायश्चित्त एक पंचकल्याणक है। यदि दूसरे भागमें प्रतिक्रमण न करे तो जितने दिन प्रतिक्रमण न किया हो उतने दिन उपवास करना चाहिये । यदि तीसरे भाग में प्रतिक्रमण न किया जाय तो एक लघु कल्याणक करना चाहिये । सो ही लिखा हैथिर जोगाणं भंगे वाही पडिकारकं च जावंतं । जड़ दिवसा तइ खमणं इष्णगं हि रायण्णं ॥ स पडिकमणं मासि तब्बुववासा तहेब लहुमांस । पढमे पक्खे वदिये पच्छिम पक्खेय जोगहिदे ॥ इस प्रकार ये उत्तर गुणोंके प्रायश्चित्त हैं । यदि किसी मुनिने किसी अप्रासुक भूमि एकचार योग धारण किया हो तो उसका प्रायश्चित्त प्रतिक्रमणपूर्वक एक उपवास है। यदि किसी अप्रासुक भूमिमें अनेक बार बाग धारण किया हो तो उसका प्रायश्विस पंचकल्याणक है । यदि कोई मुनि किसी योगकी भूमिको मनोहर बेख कर उससे मोह वा प्रेम करे तो उसका प्रायश्चित पंचकल्याणक है। यदि कोई मुनि किसी योगको मनोहर भूमिको देखकर उस पर अहंकार करे तो फिर उसका व्रत भंग हो जाता है। सो हो लिखा है अप्पासह सत्तो य बहुवेर मोहहंकारे । उक्वासा पणयमासिय सोट्ठाणं इणइ मूलगुणं ॥ जो मुनि गांव, नगर, घर, वसतिका आदिके बनवाने में दोषोंको न जानता हुआ उनके बनवानेका उपवेश करता है उसका प्रायश्चित्त एक कल्याणक है। यदि उनके बनवानेके दोषों को जानता हुआ उनके आरंभका उपदेश देता है उसका प्रायश्चित्त पंच कल्याणक है। यदि वह गर्व वा अहंकार में चूर होकर उनके बनवानेका उपवेश दे तो उसका व्रत भंग हो जाता है। १. वृक्षमूल और अतोरण ये योग स्थिर योग हैं आतापन, स्थिर और चल दोनों प्रकार है । अभ्रावकाश स्थाने मौन और वीरासन योग हैं। अथवा सभी योग स्थिर हो सकते हैं। 200 [ ३५
SR No.090116
Book TitleCharcha Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalal Pandit
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages597
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy