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आदि कोई पनि एक बार स्नान करे तो उसका प्रायश्चित्त एक पंचकल्याणक है। यदि एकबार दन्त
धावन (बतौन ) करें तो उसका भी प्रायश्चित एक कल्याणक है। यदि एकबार कोमल शय्यापर शयन करें तो पर्यासागर
उसका प्रायश्चित्त भी एक कल्याणक है । यदि इनको बार-बार करें तो प्रत्येकका प्रायश्चित्त पंचकल्याणक है। [ ३५४ ] यदि कोई मुनि प्रमावसे एकबार बैठकर भोजन करें, खड़े होकर भोजन न करें तो उसका प्रायश्चित पंच
कल्याणक है। यदि कोई मुनि प्रमादसे विनमें दो बार आहार करें तो भी उसका प्रायश्चित्त पंचकल्याणक है। यदि कोई मुनि महङ्कारके वश होकर एक बार बैठकर भोजन करें अथवा विनमें दो बार भोजन करें तो उसका प्रायश्चित्त दीक्षा छेव है । यदि कोई मुनि बार-बार बैठकर आहार लें अपवा बार-बार दिनमें दो बार माहार लें तो उसका प्रायश्चित्त फिरसे दीक्षा देना है अर्थात् उसके मूलगुणका नाश हो जाता है । सो हो लिखा हैई अदन्त अण्हाणस्स भंगे गिहत्ते लिज्जासु एइए सुत्तो। ऐगेवारे पणगंबहुवारे पंचकल्लाणं॥
अच्छिय अणेय भुत्ते पमाद दप्पे हि एग बहुबारे ।
पणगं मासिय छेदो मूलं च कमेण जाणादि॥ यदि कोई मनि पांच समिति, पांचों इन्द्रियोंको निरोष, भू-शयन, केशलोंच और अवसाधावन इन। तेरह मूलगुणोंमें एकबार संक्लेश परिणाम करें तो उसका प्रायश्चित्त एक कायोत्सर्ग है। यदि कोई मुनि इन तेरह मलगणोंमें बार-बार संक्लेश परिणाम करें तो उसका प्रायश्चित्त एक उपचास है। यदि कोई मनि बाकी के पन्द्रह मूलगुणोंमें अर्थात् पांच महाव्रत, छः आवश्यक, खड़े होकर आहार लेना, नग्न रहना, स्नान करना । इन पन्द्रह मूलगुणोंमें एकबार संक्लेश करे तो उसका प्रायश्चित्त पंचकल्याणक है। यदि कोई मुनि इन पन्द्रह । मूलगुणोंमें बार-बार संक्लेश करे तो उनका महाप्रत भंग हो जाता है । सो हो लिखा हैसमिर्दिदिय खिदिसयणे लोचं दन्तधवण संकिलेसेण।
काउस्सग्गुववासो वहुवारे मूलभिदाराणं ॥ इस प्रकार मुनिराजके अट्ठाईस मूलगुण हैं उनके प्रमाव-अप्रमादसे होनेवाले दोषोंका ऊपर लिखे अनुसार प्रायश्चित्त समझना चाहिये।
इस प्रकार अट्ठाईस मूलगुणोंका प्रायश्चित्त समाप्त हुआ।
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