SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विमानके अहमित्रोंका अवधिज्ञान और विक्रिया सात मरक तक कही है और वे अहमिंद्र सातवें नरक तक अपने अवधिज्ञानको जोड़ भी लेते हैं परन्तु अपनो विक्रियाके द्वारा भी वे अपने विमानसे बाहर कभी नहीं चर्चासागर जाते । इस प्रकारके अनेक दृष्टांत है । इसी प्रकार मानुषात्तर पर्वतसे बाहर मनुष्यका गमन नहीं हो सकता। [८] जो लोग मानुषोत्तर पर्वतके बाहर भी मनुष्यका गमन मानते हैं उन्हें जेनी नहीं समझना चाहिये। तथा जो लोग मानुषोत्तरके बाहर तीर्थंकरोंके केशोंका गमन नहीं मानते वे भी मिथ्यावृष्टी है क्योंकि । भगवान् सीर्थकर परमवेव दीक्षा लेते समय जब केशलोंच करते हैं तब उन केशोंको इन्द्र मणिमय पात्रमें रख-1 कर क्षीरसागरमें क्षेपण करता है। ऐसा शास्त्रोंमें लिखा है। यदि वे केश मानुषोत्तरके बाहर नहीं जा सकते थे तो फिर ऐसा लिखा ही थयों है । पंचमंगल भाषामें लिखा है "क्षीरसमुद जल क्षिपिकरि गये अमरावती" कोई-कोई लोग इन केशोंको मायामयो मानते हैं सो भी मिथ्या है क्योंकि शास्त्रों में मायामयी केश नहीं लिखे हैं साक्षात् केश लिखे हैं। ऐसा जान कर जेसा शास्त्रों में लिखा है वैसा ही श्रद्धान करना ठीक है। शास्त्रानाके विपरीत श्रद्धान कभी नहीं करना चाहिये । ८२-चर्चा वियासीवी प्रश्न-आस्रव तत्वके पुण्यपाप वो भेद हैं सो उनका विशेष स्वरूप क्या है जिनसे पुण्यपापका विशेष स्वरूप जाना जाय ? समाधान--औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशभिक ये तीन प्रकारके सम्यग्दर्शन, देव, शास्त्र, गुरुको पूजा करना, अनशन आदि बारह प्रकारका तपश्चरण पालना, उत्तम, मध्यम, जघन्य तीनों प्रकारके सत्पात्रोंको वान। वेना, सब जीवों पर दयाभाव धारण करना, इन्द्रिय संयम ( इन्द्रियोंको वमन करना ) और प्राणिसंयम ( समस्त प्राणियोंको रक्षा करना ) ये दोनों प्रकारके संपम पालन करना, तेरह प्रकारके चारित्रको पालन करनेके लिये खूब अच्छी तरह उद्यम करना, पांचों प्रकारके झानोंको धारण करना, कषायोंके जीतनेकी वृद्धि M करना, बीपाविक छह प्रव्य तथा नो पार्योका पयार्य श्रदान करना मावि शुभापयोगके निसने कारण हैं। परतावामन्चतरारम्बार
SR No.090116
Book TitleCharcha Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalal Pandit
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages597
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy