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चर्चासागर ४८)
बतलाया है । वह व्यर्थ हो जायगा। भगवान वीतराग सर्वज्ञदेवने अपने फेवलज्ञान वा केवलवर्शनके द्वारा अत्यन्त सूक्ष्म पदार्थोंका भी निरूपण किया है। उनका जानना वा देखना छपस्थ पुरुषोंके ज्ञानगम्य नहीं है।। एक जलको व्दमें असंख्यात त्रस जीव बतलाये हैं यदि वे कबूतरका शरीर धारण कर उड़ने लगे तो इस एक लाख योजन व्यासवाले जंबूद्वीपमें भी न समावें । इसी प्रकार पृथिवीकाय आदिमें जीवोंको संख्या बसलाई है। एक निगोविया जीवके शरीरमें अनन्तानन्त निगोविया जीवोंका निवास बतलाया है। उनमेंसे यदि एक जोवका मरण हो तो सबका मरण हो जाता है। एकका जन्म हो तो सबका जन्म हो जाता है । इनके सिवाय मेहपर्वत, कुलाचल पर्वत, गंगा, सिन्धु आदिक नदियां, विदेहक्षेत्र, समुद्र, असंख्यात द्वीप समुद्र, स्वर्ग, नरक, तीनों लोक. अलोक. छह तव्य, सात तत्त्व, नौ पदार्थ, पंचास्तिकाय आदिका वर्णन किया है सो इनसे नेत्रों के द्वारा वा इन्द्रियों के द्वारा बहुत थोड़ा देखा वा जाना जाता है। बाकी सब सर्वज्ञगोचर है। छपस्थके ज्ञानगोचर नहीं है। यदि उन सबकी परीक्षा कर ही श्रद्धान किया जायगा तो यथार्थ श्रद्धानको विराधना माननी पड़ेगो।। तथा इसके साथ-साथ अनन्त संसारका परिभ्रमण स्वीकार करना होगा । सो हो नरेन्द्रसेनकृत सिद्धांतसारसंग्रहको चौथो संधि लिखा हैजिनोक्तानां हि भावानां श्रद्धानमेकलक्षणम् । शुद्धाशुद्धविमिश्रादि भेदतस्तत्रिधा मतम् ।। । कथमप्यक्षरं यस्तु जिनोदितमनिंदितम् । अन्यथा कुरुते तस्यात्मानंतसंसृतेभवेत् ॥१४॥ । यस्तुतत्त्वमिदं सम्यक् जीवाजीवादिगोचरम् । विपरीतं करोत्येषः किं स्यात् ज्ञानादिकेवली।।
इससे सिद्ध होता है कि परम्परापूर्वक सनातनसे जो शास्त्रोक्त तथा प्रमाण पुरुषोंके द्वारा विधि चली आ रही है वही करनी चाहिये। अपने बुद्धिके बलसे केवल संशय धारण नहीं करना चाहिये। जो ऐसा । संशय करते हैं वे श्वेताम्बरों के समान मिथ्यावृष्टि समझे जाते हैं।
एक बात बहुत विचारनेकी यह है कि श्रीपाश्वनाथको प्रतिमाजीपर फणाका चिह्न परम्परा पूर्वक । चतुर्थ कालसे ही चला आ रहा है उसका वर्णन शास्त्रोंमें जहां-तहाँपर बहुत मिलता है। उदाहरणके समान योड़ा-सा यहाँ लिखते हैं। आराधना कथाकोशमें आचार्य पात्रकेशरीको एक कथा लिखो है। पात्रफेसरीने जब आप्तमोमांसाका पाठ सुना और अष्टशती उसको टोका वेखी सम उनको ब्राह्मणोंके माने हुए ( नैयायिक
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