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________________ बर्षासागर पाPRASHNESSreatrenceTR पूर्वापराविरोधेन प्रमाणनयवेदिभिः। स्याद्वादेन परीक्षानुचिन्तनं क्रियते बुधैः ॥२१॥ जिनसूत्रगुणानां च तर्कशास्त्रमतान्वितैः । मिथ्यावदोषवर्गाणां यद्धेतुविचयं हि तत्॥२२॥ इस प्रकार इनका स्वरूप है । ऐसा ही कथन ज्ञानार्णव तथा बृहद्हरिवंशपुराण आदि ग्रन्थों में लिखा है वहाँसे जान लेना चाहिये। २४७-चर्चा दोसो सैंतालीसवों प्रश्न-धर्मध्यानके ऊपर लिखे दस भेद तो जाने परन्तु पिंडस्थ पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत ये ध्यानके चार भेद और हैं सौ कौनसे ध्यानके हैं। समाधान-ये चारों ही धर्मध्यानके भेद है । तथा धर्मध्यानके संस्थानविषय नामके चौथे भेदमें अंतभूत है ऐसा ज्ञानार्णवको टोकामें लिखा है। अपने शरीरका तथा लोकका चितवन करना पिंडस्थ ध्यान है। पंच नमस्कार मन्त्र वा एक, दो, चार आदि अक्षरोंके मन्त्रोंको वाचिक, उपांशु वा मानसिकके भेदोंसे जप करना पवस्थ ध्यान है। अपनी आत्माको शरीरके समान अथवा समधातके द्वारा लोकाकाशके समान विसवन करना अथवा छयालोस गुणोंसे सुशोभित केबलो भगवानके स्वरूपके समान चितवन करना सो रूपस्थ ध्यान है तथा शुद्ध आत्माका स्वरूप, कर्मकलकरहित, रूपादिक रहित, शुद्ध ज्ञान, वर्शनमय सिद्धोंके समान चितवन करना रूपातीत ध्यान है । इस प्रकार ये सब धर्मध्यानके भेद हैं। २४८-चर्चा दोसौ अड़तालीसवीं प्रश्न- ऊपर जो धर्मध्यानोंके भेद लिखे हैं वे फिस-किस गुणस्थानमें होते हैं। समाधान-यह सब प्रकारका धर्म्यध्यान मिथ्यात्य, सम्यग्मिथ्यात्व, और सम्यक्प्रकृति मिथ्यात्व इन तीनों दर्शनमोहनीयको प्रकृतियोंको तथा अनन्तानुबन्धी, क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार प्रकृतियोंका इस प्रकार सम्यग्दर्शनको घात करनेवालो सातों प्रकृतियोंको नाश करनेवाला है । तथा मोहनीयको शेष बचो हुई इक्कीस प्रकृतियोंको उपशम करनेका कारण है यह धर्म्यध्यान असंयत नामके चौथे गुणस्थानसे लेकर प्रमत्त- ।। A NSWwwra श Ant
SR No.090116
Book TitleCharcha Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalal Pandit
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages597
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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