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________________ सागर -३५] LATIONITENTREATRE संयत नामके छठे गुणस्थान तक तीन लेश्याओंके बलसे होता है। छठे गुणस्थानमें रहनेवाले मुनियों के उत्कृष्ट । धर्म्यध्यान होता है । चौथे गुणस्थानमें रहनेवाले अविरत सम्यग्दृष्टिके जघन्य होता है। तथा दूसरी प्रतिमासे लेकर ग्यारहवीं प्रतिमा तक क्रमसे बढ़ता हुआ मध्यम होता है । सो ही सारस्तुविशतिकामें लिखा हैसप्तप्रकृतिनिःशेषक्षयहेतुमिद स्मृतम् । एकविंशतिमोहप्रकृतिनाशनकारणम् ॥२६॥ चतुर्थाद्यप्रेमत्तान्त गुणस्थानेषु जायते । लेश्यात्रयबलाधानं धर्म्यध्यानं सुधीमताम् ॥३०॥ सर्वोत्कृष्टमिदं ध्यायेदप्रमत्तो मुनीश्वरः । सदृष्टिश्च जघन्यं वै मध्यमं बहुधा व्रती ॥३१॥ इस प्रकार इनका स्वरूप है। ___२५-चर्चा दोसौ उनचासवीं प्रश्न--जो शुद्ध आत्मध्यानके या शुद्धोपयोगके कारण हैं ऐसे अध्यात्मरूप जैन सिद्धांतोंके पड़ने वाले सुननेका अधिकार गृहस्थोंको है वा नहीं। समाधान-नयारहदों प्रतिमाको धारण करनेवाले उस्कृष्ट श्रावकको भी ( क्षुल्लक वा ऐलकको भी) नीचे लिखी बातोंका अधिकार नहीं है। दिन में प्रतिमायोग धारण करना, वीरचर्या धारण करना, निकाल योगका नियम तथा सिद्धांतके रहस्यका पठन-पाठन इन सब बातोंका अधिकार देशव्रती श्रावकको नहीं है। भावार्थ-मुनियों के समान नान होकर दिनमें प्रतिमायोग धारण करना, मुनियों के समान अकेला रहकर बीरचर्या धारण करना, नियम लेकर योग धारण करना अर्थात् मुनियों के समान शीतकालमें नदी वा सरोवरके किनारे, वर्षा ऋतुमें वृक्षके नोचे और उष्णकालमें पर्वतके शिखर पर नियमपूर्वक योग धारण करना तथा सिद्धांत ग्रन्थों के रहस्यका पढ़ना-पढ़ाना, सुनना-सुनाना आदिका अधिकार पांचवें गुणस्थानमें रहनेवाले देवव्रती श्रावकको नहीं है । सो ही श्रीवसुनन्दिसिद्धांतचक्रवर्ती विरचित श्रावकाचारमें लिखा है१. सातवें गुणस्थानके दो भेद हैं एक सातिशय दूसर निरतिशय । जहाँसे श्रणी चढ़ता है, वहाँल सातिशय अप्रमत्त कहलाता है। और श्रेणी चढ़नेसे पहले निरतिशय अप्रमत्त कहलाता है। जहाँस श्रेणी चढ़ता है वहाँसे शुक्लध्यान आरम्भ हो जाता है। तथा श्रेणी चढ़नेसे पहिले सातवें गणस्थान में उत्कृस्ट धर्मध्यान है । S RAN
SR No.090116
Book TitleCharcha Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalal Pandit
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages597
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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