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हुमा तब किसी अच्छे वैद्यने उसको थोड़ा-सा सर्पफेन अर्थात् अफीम देवो उसके खानेसे उसका नशा जाता रहा है
और वह सुखी हो गया। यह देखकर कोई कुवैद्य कहने लगा कि यह उपाय तो अनर्थ करनेवाला है क्योंकि बर्षासागर
इसको भांगका नवा हो हो रहा है यदि इसके ऊपर फिर अफीमका विष दिया जायगा तो यह मर जायगा। २६५ } इस प्रकार उस सुधको निन्दा कर उसको शीतल जलमें रहने की क्रिया बतलाता है परन्तु उससे उसका नशा ।
और बढ़ जाता है।
इसी प्रकार पापोंमें भी अनेक प्रकारके भेव हैं एक तो असि, मसि, कृषी, वाणिज्य, शिल्प, पशुपालन # आवि गृहस्थ सम्बन्धो पाप हैं । दूसरे हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रहरूप पाप हैं। तीसरे चरको, उखली,
चल. बहारी. पानी आदिसे होनेवाला पाप है। ये सब पाप निस्य होते हैं और इन्हीं पापोंसे यह जीव नरकादिक दुर्गतियों में जाता है। इन्हीं सब पापोंको दूर करनेके लिए तथा महापुण्य उपार्जन करनेके लिए परम्परासे मोक्षका साधनरूप धर्मके लिए भगवानने षट्कर्म करनेवाले गृहस्थोंको योड़ी-सी आरम्भजनित हिंसासे होनेवाले पूजा, दान आदि उपाय बतलाये हैं क्योंकि गृहस्थोंको असि, मसि आदि छहों कर्मोंसे अथवा इन्द्रियों के विषय में भोगोंसे होनेवाले त्रस स्थावर जीवोंकी हिंसासे महापाप उत्पन्न होता है। ऐसे आरम्भी श्रावकोंके लिये बान, पूजा आदि आरम्भमय कार्योंसे हो पुण्य उपार्जन हो सकता है । जो मुनिराज अनारम्भी हैं सब तरहके बारम्भ। के त्यागो हैं उनके उन आरम्भोंके त्यागसे हो धर्म होता है । गृहस्थ धर्ममें रहकर भी जो थोड़ा-सा मुनियोंका
सा आचरण पालन करते हैं उनके लिए ऐसा करना आमाधर्म नहीं है । पूर्वाचार्योंके वचनोंके विरुद्ध परम्परासे । चले आये मार्गका बाथ करना सर्वथा अयोग्य है । भावार्थ-ऐसा करना अपने कर्तव्यको विपरीतता है ।
देखो दूसरोंके प्राणोंफो पोड़ा पहुंचानेमें धर्म नहीं है साक्षात् पाप है इस बातको सब जीव मानते हैं अन्य मतो भी मानते हैं। सोही लिखा है
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् । अर्थात् "दूसरोंका उपकार करना पुण्य है और दूसरोंको पीड़ा पहुंचाना पाप है।" ये वेद व्यासके वचन हैं। श्रीआचार्य उमास्वामीने भी कहा है-"प्रमत्तयोगात् प्राणव्यरोपणं हिंसा" अर्थात् कषायोंके निमित्तसे । दूसरों के प्राणोंका घात करना हिंसा है" इत्यावि बहुतसे वचन हैं और सब निस्सन्देह रूप है यवि दूसरोंको ।
न्यायालयाच्याiciana
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