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सागर
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दुःख पहुंचानेमें कोई बया, धर्म बतलावे तो सब लोग उसको झूठा कहते हैं। तथा है भी इसी प्रकार । परन्तु । । यदि किसी जीवके बात-व्याधि ( वायुका रोग) हो जाय, विसूचिका होकर उदरमें शूल हो जाय अथवा किसी
बालकके ऊवश्वास आदि रोग हो जाय अथवा सन्निपात, तिल्ली आदि अनेक प्रकारके रोग हो जाय और कोई
परोपकारी भव्य पुरुष उसपर क्याकर उस रोगको शान्त करनेके लिए लोहेको जलती हुई लाल सलाईसे दाग । ।। देकर शरीरके किसी एक भागको अथवा अधिक भागको जलाता है और उस समय वह रोगी अथवा बालक
उस जलानेको वेदनासे दुःखी होकर करुणाजनक त्राहि-त्राहि पुकारता हुआ चिल्लाता है। इसी प्रकार गाय, बैल, घोड़ा आदि पशुओके हाथ, पांव बांधकर तथा पृथ्वीपर पटक कर किसी रोगको दूर करनेके लिये उपकारी पुरुष वाग देते हैं और वे पशु उसको भारी वेदनाको सहते हैं । इसी प्रकार यदि किसीके फोड़ा हो जाता है तो उसके उस फोड़ेको शस्त्रसे फाड़ते हैं, चोरते हैं, सोते हैं इत्यादि आसुरी उपाय करते हैं उनसे यह जीव बड़ा भारी कष्ट पाता है। तथा ऐसे उपायोंसे कोई जीव मर भी जाता है। कोई-कोई भव्यजीव किसी मुनिक बन । वेदनाओंके हो जानेपर यही उपाय करते हैं तथा ऐसा उपाय करते-करते भी किसी-किसीका मरण हो जाता है। परन्तु ऐसे उपाय करनेवाले परोपकारीको हिमा होते हुए भी क्या, धर्मका हो महापुण्य होता है। लौकिकमें भो ऐसे पुरुषको हत्याके पापका प्रायश्चित्त नहीं देते हैं। इसका विशेष वर्णन श्रीअमृतचन्द्रसूरिकृत 'पुरुषार्थसिद्धघुपायमें स्पष्ट रीतिसे किया है । तथा इस ग्रन्थमे भी पहले चर्चाओं में लिखा है वहाँसे देख लेना चाहिये।
इसी प्रकार असत्य त्याग व्रतको धारण करनेवाला अन्य जीवोंको हिसा होनेक समय केवल बया-धर्मके लिए उन जीवोंको हिसा न होने देनेके लिए सत्यालको छोड़कर असत्य भाषण करता है तो भी उसका सत्यत्रत भंग नहीं होता ऐसे भगवानके वचन हैं। इसका भी कारण यह है कि हिंसा करनेवाला जानबूझकर हिंसा करता हो और उससे वह हिंसा न हो सके तो भो उसको उसके पापका फल मिलता ही है यदि हिंसाका उद्देश्य न हो केवल धर्मके लिए कोई पुण्य कारण किया जाय और उसके निमित्तसे अनाश्रित हिंसा हो । जाय तो उसका फल क्यारूप ही लगता है क्योंकि वह हिंसा जानबूझ कर तो को नहीं है तथा हिंसा करनेके , भाव भी नहीं हैं। १. यह ग्रंथ विस्तृत हिन्दी टीका सहित भारतीयजैनसिद्धांतप्रकाशिनो संस्था नं. १२ विश्वकोष लेन, पोस्ट बाघबाजार, कलकत्तामें
छपा है और वहाँसे मिल सकता है।
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