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________________ धर्म नहीं हो सकता। ऐसा यह निंदनीय कार्य कभी क्षत्रियोंका नहीं हो सकता। इस प्रकार जो लोग कहते है है वे सब मिथ्या है ये लोग नरकाविक कुगतियों के बीज बोते हैं । यह क्षत्रियोंका धर्म नहीं है किन्तु नीच शूद्रों-1 का कार्य है । क्षत्रिय शब्दकी व्याख्या तो इस प्रकार है "क्षतात् श्रायन्ति इति क्षत्रियाः" अथवा "क्षिति, पर्चासायरा इति सप्रिया जाति जो कत जर मरते हुएको प्राथति अर्थात् रक्षा करे उसको क्षत्रिय कहते हैं, [ ३] क्षत्रियका धर्म है कि किसोके द्वारा मारने नहीं देवे, सबको रक्षा करे वही क्षत्रिय कहलाने योग्य है। अथवा क्षिति अर्थात् पृथिवी की रक्षा करे उसको क्षत्रिय कहते हैं । जहाँ तक अपनी पृथ्वी है वहाँ तकके मनुष्य, पशु, भी जीवोंकी रक्षा करे उसको क्षत्रिय कहते हैं। इस प्रकार क्षत्रिय शब्दको निरुक्ति है। इस निरुक्तिसे भी सिद्ध होता है कि हिंसा करनेवाले कभी क्षत्रिय नहीं हो सकते । जो जीवोंकी हिंसा करते हैं, मह, मांसका । सेवन करते हैं और पृथ्वोकी प्रजाको लूटते हैं ऐसे अन्यायी अधर्मी वर्तमानके कुछ क्षत्रिय कभी क्षत्रिय नहीं । कहे जा सकते। ऐसे ऐसे ही मांसभक्षी क्षत्रियोंके आचरण वेखकर तथा उनके फुसलाने में आकर कितने ही श्वेताम्बर सम्प्रदायके वैश्य मांसभक्षण वा मद्यपान करते हैं यदि कोई उनको निन्दा करता है तो कहते हैं कि हम पहले। अत्रिय थे अब वैश्य हो गये तो क्या हो गया। हम तो पहलेके क्षत्रिय हैं इसलिए मांसभक्षण आदि करना तो हमारे लिए तो ठीक ही है। इस प्रकार मांस भक्षणाविकके लिए वे जबर्दस्ती क्षत्रिय बनते हैं परन्तु जिसको । जैसी होनहार होती है उसी प्रकार उसकी बुद्धि हो जाती है और फिर उसी प्रकार वह बकता है। आचरणों से कुछ क्षत्रिय वा वैश्य नहीं होता। चाहे क्षत्रिय हो, चाहे वैश्य हो, निंद्य आचरणोंसे निध कहलाता है और | उत्तम आचरणोंसे उत्तम कहलाता है इसका भी कारण यह है कि इस संसारमें साक्षात् सर्वज्ञ वीतराग अरहंत देवका कहा हुआ अहिंसामयो धर्म ही जीवोंको स्वर्ग, मोक्ष देनेवाला है। इसके सिवाय हिंसाका प्रतिपादन करनेवाले समस्त धर्म संसारके कारण हैं अनन्त कालतक दुःख देनेवाले हैं। इसलिए भगवान अरहंतदेवके कहे । हुए जैनधर्मका शरण लेना हो जीवोंका कल्याण करनेवाला है सो सवा जयवंत हो। २०--चर्चा दोसौ आठवीं प्रश्न-कोई कोई अन्यमती ऐसा कहते हैं कि तुम्हारे केवली भगवान अरहंतवेव अनन्तदर्शन, अनंत
SR No.090116
Book TitleCharcha Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalal Pandit
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages597
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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