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________________ सागर WP] ही बल पराक्रम बढ़ जाता है । इत्यादि भावप्रकाशके वचनोंके आधारसे वे लोग जीवोंको तुरन्त मारकर उनके मांस खानेको पुष्टि करते हैं सो केवल अपने स्वार्थके लिये अनेक प्रकारके वचन जाल फैलाकर लोगों को ठगते हैं यह सब उनके मिध्यात्व कर्मके उदयका माहात्म्य हैं। ऐसे लोग संसारके नासमझ लोगों को यह समझाया करते हैं कि जो बाजे चमड़ेसे मढ़े जाते हैं वे सब जीवोंको तुरन्त मारकर उनके चमड़े से मढ़े जाते हैं इसीलिये उस चमड़ेको जीवित चमड़ा कहते हैं परन्तु अपने आप मरे हुएके चमड़े से मढ़ा हुआ बाजा कभी नहीं बजता । इसी प्रकार मरे हुए जोवका मांस नहीं खाना चाहिये किन्तु जीवको तुरन्त मारकर उनका मांस खाना चाहिये परन्तु उनका यह कहना महा पापका कारण है । 'ताजे चमड़े से बाजे मड़े जाते हैं, अपने व्याप मरे हुए जीवोंके चमड़ेसे नहीं मढ़े नाते' उसका कारण तो यह है कि अपने आप मरे हुए पशु घड़ी दो घड़ी घंटे पहर रात दिन आदि किसने काल तक पड़े रहते हैं इसलिये उनका रुधिर वा शरीरका द्रव ( पतला ) भाग उनके चमड़के रोम-रोम में भर जाता है। इसी कारण चमड़ा गूंगा हो जाता है इसीलिये लोग उसी समय निकाल लेते हैं रोम सब बन्द हो जाते हैं और वह मारे हुये जीवका चमड़ा वे कसाई वह चमड़ा भारी हो जाता है उसके वह बजता नहीं है । परन्तु उसी समय इसलिये उसके रोमोंमें रुधिर भर नहीं सकता रोमोंमें रुधिरके न भरनेसे चमड़ा भारी और गूंगा नहीं होता तथा रोम खुले रहते हैं इसलिये वह ठीक तरहसे बजता है इसके सिवाय उसमें और कोई भेद नहीं हैं । तथा मांस तो दोनोंका ही महा घृणित और अपवित्र है इसलिये कभी ग्रहण करने योग्य नहीं हो सकता । ऐसे ही ऐसे बुष्टोंके वचनोंको सुनकर कितने ही क्षत्रिय भी ऐसा ही कहने लगे हैं तथा जीवोंको मारकर मांस भक्षण करने लगे हैं सो वे भी उन्हीं के समान हैं। क्षत्रियोंका धर्म तो यह है कि जो कोई अपराधी भी हो परन्तु उनके सामनेसे भाग जाय तथा उस अपराधको क्षमा करानेके लिए पीछे उनके सामने आवे, अपने केशोंको छूटे हुए रक्खे, मुखमें तृण बनाये तो फिर उसको वे क्षत्रिय लोग कभी नहीं मारते हैं, उनके छोड़ देते हैं तो फिर हिरण आदि पशु तो सबा बनमें ही रहते हैं, किसी का कोई अपराध नहीं करते, केश सवा छूटे रहते हैं, मुखमें सवा तृण दाबे रहते हैं और मनुष्योंको देखते ही भाग जाते हैं। ऐसे हिरण आदि पशुओंको क्षत्रिय होकर भी शस्त्रसे मारना और मारकर उनका मांस खाना कभी योग्य और क्षत्रियोंका [
SR No.090116
Book TitleCharcha Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalal Pandit
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages597
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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