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पर्वासापर [ २३७ ]
MITORREचाला
भगवानके घरण स्पर्शित पुष्पोंको कठमें धारण करनेका कपन इस प्रकार है।
करकंडूके पूर्वभवमें गोपालने धीमुनिराजके उपदेशसे पुष्पराज और सेठके साथ एक सहलबलका कमल भगवानके चरणोंपर क्षेपण किया था जिससे उसको महा पुण्यका बंधा था। तथा उसो पुण्यसे वह राजा करकंडू हुआ था । इसकी कथा आराधना कथाकोशमें विस्तारसे लिली है । यथा
तदा गोपालकः सोपि स्थित्वा श्रीमज्जिनाग्रतः। भो सर्वोत्कृष्ट ते पद्म गृहाणेदमिति स्फुटम् ॥
उक्त्वा जिनेन्द्रपादाब्जो परिक्षिप्त्वा सुपंकजम् ॥ इत्यादि पाठ है। इसका अर्थ ऊपर लिखे अनुसार है।
तथा मनिराजके उपदेशसे मैना सन्दरीने सिद्धचक्रको पुजा की थी। उस पूजामें भगवानका अभिषेक किया था, चरणोंपर गंध लगाया था और उन घरणोंपर पुष्प मढ़ाये थे। इस प्रकार पूजा करनेके बाद वह अभिषेकका गंधोदक तथा पूजाका गंध और पुरुष ये तीनों ही चीजें मैना सुन्दरीने कुष्ठ (कोढ़ ) रोगको दूर करनेके लिये अपने पति श्रीपालको तथा उनके अंगरक्षक सातसौ योद्धाओंको बड़े हर्षसे दिया था। सो ही श्रीपालचारित्रमें लिखा है। तत्र नंदीश्वराष्टम्यां सिद्धचक्रस्य पूजनम् । चक्रे सा विधिना द्रव्यैर्जलैः कपूरचन्दनैः॥ अक्षतैश्चंपकायैश्च पक्वान्नैर्वरदीपकैः। धूपैः सुगंधिभिर्भक्त्या नालिकेरादिसस्फलैः ॥ तद्विलेपनगंधांबुपुष्पाणि सा ददौ मुदा । श्रीपालायांगरक्षेभ्यः पाणिभ्यां रुग्विहानये ॥
यहाँपर भी गंधपुष्प ऊपर चढ़ाना लिखा है । दूर चढ़ाना नहीं लिखा है।
तवनंतर मैनासुन्दरीने मुनिराजके उपदेशानुसार सिद्धचक्रके मंत्रोंके द्वारा चमेली यारिके पुष्पोंसे । सिखचक्रके यंत्रके ऊपर हो जप किया है अर्थात् जपके पुष्प उसके ऊपर ही रक्खे हैं ऐसा श्रीपालचरित्रमें। लिखा है । यथायंत्रस्योपरि दातव्या अष्टोत्तरशतप्रमा । जाप्या एकाग्रचित्तेन जातिपुष्पेन धीधनः॥
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