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और आरम्भ बतलाकर इन सब कार्योंका निषेध किया, इन सब कार्योंको उसने पापरूप बतलाया और सबका
निषेध करता हुआ जैनधर्मका शत्रु बन गया। इस प्रकार उसने अपना विपरीत मिथ्यात्व धर्म चलाया। सो चर्चासागर ही भद्रबाहु चारित्रमें लिखा है१. मृते विक्रमभूपाले सप्तविंशतिसंयुते । दशपंचशतऽब्दानामतीते शृणुता परम् ॥ १ ॥
लुङ्कामतमभूदेकं लोपकं धर्मकर्मणः । देशेऽत्र गौर्जरख्याते विद्वत्ताजिननिर्जरे ।। २ ।। अणहल्लपत्तने रम्ये प्राग्वाटकुलजो भवेत् । लुकाभिधो महामानी श्वेतांशुकमताश्रयी ॥३॥ अन्योन्यमीय॑या दुष्टः कुपितः पापपण्डितः। तीव्रमिथ्यात्वपाकेन लुकामतमकल्पयत् ॥४॥ सुरेन्द्रार्चिज्जिनेन्द्रार्चा तत् पूजादानमुत्तमम्। समुत्थापितवान् पापी प्रतीपो जिनसूत्रतः॥
इस प्रकार लुगाम्मा गर हुआ।
सवनन्तर इस लुकामतके दो गच्छ हुए । एक तो जिनप्रतिमा, मन्दिर, पूजा, प्रतिष्ठा आदि करनेका श्रद्धान करते हुए उपाश्रयमें रहने लगे और दूसरे ज्योंके त्यों बने रहे।
तवनन्तर ऊपर कहे हुए जिन प्रतिमाको उठानेवाले लुकामतके साधुओंसे ढूंढ़िया मत प्रगट हुआ। उसने श्वेताम्बरोंसे भी विरुद्ध कथन निरूपण किया। तथा जिनप्रतिमाको निन्दाकर उसके दर्शन, पूजन, वन्दना आदि करनेका निषेध किया और लोगोंको अपना मिथ्यात्व धर्म हो सम्चा धर्म बतलाया। अनेक प्रकारके भ्रष्टाचरणोंका निरूपण किया।
आगे इसीकी उत्पत्ति बतलाते हैं
किसी एक समय मेवाड़ देशके भीला शहरमें लुकामतके यति माणिक ऋषिने चतुर्मास किया। उसके व्याख्यानमें प्रतिदिन सब श्रावक आते थे। वहांपर वहींका रहनेवाला एक ढेड भी आता था उसने अपनी
जाति हंजा जाति बतलाई तथा राम-राम जपता हआ वह प्रतिदिन पुराण सुनने आया करता था दैवयोगसे । उसको कुछ ज्ञान प्राप्त हो गया । अतएव माणिकऋषिने उससे जीवोंको हिंसाका त्याग करा दिया। तदनन्तर
वहाँपर वर्षा हुई। किसान लोग सब अपने-अपने हल, बैल और मजदूर लेकर खेत जोतने चले उस समय यह हंजा भी अपनो स्त्री और पुत्रके कहनेसे हल लेकर खेतकी ओर गया। वहाँ उसने बहुतसे गिडोरे देखे सो उन