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वर्षासागर [१०]
अपमान देख नहीं सके थे और वे दोनों क्रोधित होकर उस गोशालासे लड़ने लगे। परन्तु उस4 गोशालाने अपनी तेजो लेवघासे अर्यात अग्निको ज्वाला रूप मंत्रसे उन दोनों साधुओंको भी जला दिया जिससे वे गोगो मार मया । ऐसा मानना ।
इस प्रकार कितनी ही विपरीत बातें चलायीं जिनप्रतिमाके नेत्रों के ऊपर और नेत्र लगाना, उनके मुखको सिन्दरफसे रंगना, नौ अंगोंको चन्वनादिकसे पूजना आदि कितनी ही विपरीत बातें स्थापन को जिनका विशेष वर्णन अन्य ग्रन्थों में लिखा है । इस प्रकार श्वेताम्बरोंका स्वरूप बतलाया।
इसी श्वेताम्बर मतमेंसे कितने ही कालके बाद पहले लिखा हुआ यापनीय संघ उत्पन्न हुआ। उसका थोड़ा-सा वर्णन इस प्रकार है । श्वेताम्बरोंका भक्त एक लोकपाल राजा था। उसके चित्रलेखा नामको रानी यो । उसके एक नुकुला नामकी पुत्री हुई थी। वह करहाट नगरके राजा भूपालको ब्याही गई थी। वहाँ जाकर । किसी एक दिन उस रानोने अपने गुरु बुलाये । राजा उनको लेनेके लिए सामने गया परन्तु उस श्वेताम्बरीको । देखकर अर्थात् गुरुको निम्रन्य न देखकर राजा पोछे लौट आया। तब रानी बहुत लज्जित हुई और उसने अपने गुरुके पास जाकर प्रार्थना की कि माप मेरे आग्रहसे फिर एक बार निर्ग्रन्थ हो जाइए। वस्त्रोंका त्याग कर
बीजिये। तब रानीके आग्रहसे वे नग्न तो हो गये परन्तु उनका आचरण शिथिल हो रहा । इस प्रकार आयाल । संघ उत्पन्न हुआ । उसके गुरुओंका रूप तो नग्न था परन्तु क्रिया आचरण सब श्वेताम्बरोंके थे। इस प्रकार
उसने नटका-सा स्वांग बनाकर नया मत चलाया । तदनन्तर उनमें भी परस्पर क्रोध, मान आदि कषायें बढ़ने लगों और उनमें भी विजय तपा खरतरा पुन्या आदि चौरासो गच्छ उत्पन्न हो गये।
इसके भी कुछ दिन पीछे इस श्वेताम्बर मतसे राग-द्वेष कर मान कषायके आवेशसे इन्हीं श्वेताम्बरोंका विरोधी लोकागच्छ नामका मत प्रगट हुआ । आगे उसीका थोड़ा-सा स्वरूप लिखते हैं।
महाराज विक्रमके मरनेके पन्द्रहसौ सत्ताईस वर्ष बाद गुजरात देशके अणहल्ल नगरमें प्राग्वाट कुलका एक लंका नामका ओसवाल वैश्य हुआ था। उसने यतियोंसे उनके सूत्र पढ़े और फिर अपने नामका एक गच्छ। स्यापन किया । उसोने यह लुका नाममा धर्म चलाया। सीव मिथ्यात्वके उदयसे उसने श्रीजिनप्रतिमाकी पूजा करनेका भी निषेध किया तथा जिनपूजा, तीर्थयात्रा, पात्रदान, जिनमन्दिर प्रतिष्ठा आदि धर्म कार्योंमें हिंसा
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