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वर्षासागर [१२]
। यज्ञ कराया। यश हो चुकने पर राजाके यहां शांति हो गई यह देखकर अनेक जीव मरनेके डरसे पर्वतके शरण-4 । में आये तथा पर्वतके कहे अनुसार श्रद्धान करने लगे।
तदनन्तर उस पर्वतने राजा सगरसे बहुतसे पशु मॅगा कर यज्ञमें होमे। उसे पशुमेध यज्ञ बतलाया। फिर घोड़े होमे उसको अश्वमेध यज्ञ बतलाया। इसी प्रकार उसने गोमेध यज्ञ तथा नरमेध यन किये। फिर। । उस पर्वतने राजा सगरसे कहा कि हे राजन् ! देख; ये पशु जो इस यज्ञमें होमे गये हैं वे सब मर कर स्वर्गलोक गये हैं सो तू देख । यह कहकर कालासुरको मायासे स्वर्ग जाते हुए दिखलाया। उसको देख-देखकर सब लोग। जसको भाडा करने लगे।
तदनन्तर राजासे पर्वसने कहा कि अब तू राजसूय यज्ञ कर। बहुतसे राजाओंको बुलाकर या क राजसूय यज्ञ कहलाता है । सगरने पर्वतके कहे अनुसार अनेक राजाओंको बुलाया। उन राजाओंमें कितने हो राजा कालासुरके ( मघुपिंगलके ) शत्रु थे सो वे सब अपनेको स्वर्गमें जानेको इच्छासे उस होमकुण्डमें पड़कर मर गये, कालासुरने अपनी मायासे उन सबको स्वर्ग जाते हुए दिखलाया तदनंतर राजा सगर भी अपनी बल्लभा रानी सुलसाके साथ यज्ञमें पड़कर मर गया और मरकर अधोगतिमें पहुंचा।
इस प्रकार कालामुर अपना कार्य कर अपने स्थानको चला गया। तथा पर्वतने संसारमें वेद शास्त्रों१ को परिपाटो चलानेके लिए उसके तीन कांड बनाये। पहला कर्मकांड बनाया जिसमें यज्ञ आदि करनेका
विधान, किया । दूसरा उपासनाकार बनाया जिसमें स्नान, सन्ध्या, आचमन, तर्पण, श्राद्ध, पूजन, जप, ध्यात, स्तोत्र, पाठ, तीर्थयात्रा, दान आदिके द्वारा देवों के आराधना करनेको विधि बतलाई। उसने तीसरा कांड ज्ञान बनाया। जिसमें वेदांत मार्ग, अध्यात्म स्वरूप, परमब्रह्म मय योगाभ्यास आदिकी विधिका निरूपण किया और बतलाया कि कर्मकांड और उपासनाकांडसे यह जीव शरीर और भोगादिकसे रहित मुक्त हो जाता है। इस प्रकार उसने अनेक प्रकारकी विधियोंका निरूपण किया और उसकी परम्परा चलाई। अन्तमें मरण कर वह अधोगतिको प्राप्त हुआ। इस प्रकार नवीन सामुद्रिक शास्त्रको तथा वेद-शास्त्रोंकी उत्पसि हुई। सो सम्पगमानियोंके श्रद्धान, ज्ञान वा आचरण करनेके योग्य नहीं है।
पांचवें श्रुतकेवली श्रीभत्रबाहुके एक गुरुभाई थे। जिसका नाम वराहमिहर था । वे वराहमिहर ।
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