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चर्चासागर [३]
सज्जन जनतें वीनती, करूँ सुनहु अल्पबुद्धि परमादतें, लिखूँ चूकि तो श्रुतधारी वीर तुम, दयाभाव use शुद्धकरि ग्रंथ, यह मम वच सुखदाय ।। १५ ।।
मम भ्रात । अकुलात ॥ १४ ॥ उर लाये |
इस प्रकार अपने इष्ट देवको अच्छी तरह नमस्कार करके या मंगलाचरण करके चर्चासागर ग्रन्थ लिखता हूँ । इस ग्रन्थके लिखनेका खास कारण यह है कि इस समय इस कलिकाल में मिथ्यात्व और तीव्र earth उदयसे तथा किन्हीं - किन्हीं सत्पुरुषों की भी बुद्धि भ्रष्ट हो जानेसे और पक्षपात बढ़ जानेसे जोवोंके हृदय में इस पवित्र जैन को अनेक प्रकारके संशय उत्पन्न हो गये हैं। जिससे वे पदार्थोके स्वरूपका श्रद्धान और ही प्रकार करने लग गये हैं। तथा जो अज्ञानो जन हैं, वे अपनी प्रवृत्ति अन्यथा रूप ( वा शास्त्राज्ञाके विपरीत ) करने लग गये हैं और ऐसे लोग अपना हठ किसी प्रकार नहीं छोड़ रहे है उन लोगों को समझानेके लिये अनेक जैन शास्त्रोंको देखकर यह निसंदेह चर्चा लिखता हूँ । इस चर्चा ग्रन्थके लिखतेमें मेरा और कोई खास कारण ( प्रयोजन ) नहीं है ।
जिस प्रकार पहले चर्चाशतक, चर्चासमाधान और चर्चा कोश आदि ग्रन्थ बने है उसी प्रकार यह चर्चासागर लिखा है । इसलिये हे सज्जन पुरुषो ! तुम इसे पढ़ो, सुनो। यह शास्त्र अपने और दूसरोंको समझनेके लिये सबका हित करनेवाला समझ कर लिखा है ।
इस शास्त्रको समुद्रकी उपमा दी है सो जिस प्रकार समुद्र अगाध है उसी प्रकार इस शास्त्रमें जिनवाणीका रहस्य अगाध है। जिस प्रकार समुद्रके वो तट वा किनारे हैं, उसी प्रकार इस शास्त्रके भी आदि अन्त बो तट हैं। जिस प्रकार समुद्र मर्यादासहित है उसी प्रकार यह ग्रन्थ भी आचार्योंके वचनोंकी आम्नायरूपी मर्यादा कर सहित है। जिस प्रकार समुद्रमें अनेक पर्वत और द्वीप है उसी प्रकार इस शास्त्ररूपो समुद्र में भी अनेक प्रश्न रूपी ऊँचे ऊँचे पर्वत है तथा उनके उत्तररूपो अनेक द्वीप हैं। जिस प्रकार समुद्रके द्वीपाविकोंमें अनेक रन आदि पदार्थ भरे हुए हैं उसी प्रकार इस ग्रंथ में भी भगवान् जिनेन्द्रके गुणोंको प्रकाशित करनेवाले अनेक रत्न हैं। जिसप्रकार समुद्र में अनेक तरंगें उठती हैं उसी प्रकार ग्रन्थमें भी अनेक शंका समाधानरूपी तरंग हैं ।
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