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________________ चर्चासागर [ १७३ ] पढ़कर आग्निकोणमें अपने विद्यागुरुके लिये अर्थात् णमोकार मंत्र आदि भगवान अरहंत देवके कहे हुए श्रुतजानको पढ़ानेवालेके लिये एक अर्ध देना चाहिये। यह विद्यागुरुकी पूजाका मंत्र है। फिर 'ओं ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिस्योऽयं समर्पयामि स्वाहा' यह मंत्र पढ़कर सिद्ध परमेष्ठीको एक अर्ध देना चाहिये। फिर सहस्रनामका पाठ करना चाहिये फिर पूजा करनेवालेको अपने अंग और मनकी शुद्धि करनेके लिये सकलोकरण करना चाहिये । सकलीकरणकी विधि इस प्रकार है । सबसे पहले अग्निमंडला चितवन करना चाहिये । एक त्रिकोण आकारका यंत्र बनाना चाहिये उसके तीनों ओर सौ ( १०० ) रेफ वा रकार बनाना चाहिये उन रकारों के ऊपर आधे रकारका आकार और बनाना चाहिये इसको अर्द्ध रेफकी ज्वाला कहते हैं। ऐसे रेफोंमें व्याप्त अग्नि मंडलके मध्यमें अपने शरीरको स्थापन करना चाहिये तथा ध्यान कर अपने शरीरके मलको दग्ध करना चाहिये जलाना चाहिये । उसकी विधि इस प्रकार है। 'ओ ह्रीं अहं भगवते जिनभास्कराय बोधसहस्रकिरणैर्मम किरणेन्धनस्य द्रव्यं शोषयामि घे घे स्वाहा। यह मंत्र पढ़कर अपने कर्म मलको सोखना चाहिये अर्थात् वाभके छोटे पूलेको वोपकसे सेक लेना चाहिये और फिर उस वासको अग्निमंडलमें भस्म कर देना चाहिये सो हो लिखा है— 'अग्निमंडलमध्यस्थै रेफेर्व्वालाशताकुलैः । सर्वांगदेशजेर्ध्यात्वा ध्यानदग्धं वघुर्मलम् ॥ इसीको यंत्र द्वारा दिलाते हैं- १. अर्थात् अग्निमंडलके मध्य में बैठकर सो रेफ ज्वालाओंसे व्याप्त होकर तथा सब शरीरसे ध्यान कर उस ध्यानके द्वारा शरीरके मलको जलाना चाहिये । [ १
SR No.090116
Book TitleCharcha Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalal Pandit
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages597
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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