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________________ सागर धर्मको रक्षाके लिये और पूजा-बानको दृढ़ताके लिए, उसके रहने योग्य घरका देना वास्तुवान कहलाता है वास्तु-4 दान देनेसे उसके परिणाम निश्चल और निर्मल रहते हैं और धर्मसाधन बन सकता है। सो ही लिखा हैनिराधाराय निःस्वाय श्रावकाचाररक्षिणे। पूजादानादिकं कर्तुं गृहदानं प्रकीर्तितम्॥ यदि कोई धर्मात्मा पुरुष अपने पैरीस तीर्थयात्रा आदि धर्मकायाक लिये जाने में असमर्थ हो और वह पूजा, मन्त्राविक गुणोंसे सुशोभित हो, जिनधर्मी सुपात्र हो उसको तीर्थयात्रा आदि धर्मसाधनके लिये गाड़ी, घोड़ा । आदि सवारी देना जिसके कि उसकी तीर्थयात्रा आदि धर्मसाधन अच्छी तरह हो जाय अथवा भगवानको में विराजमान करने के लिये और प्रभावना अंगको सिद्धि के लिये जिनालयमें अमूल्य रथ बनवा कर देना गृहस्थका ! कर्तव्य है । सो हो लिखा है पद्भ्यां गन्तुमशक्ताय पूजामंत्रविधायिने । तीर्थक्षेत्रसुपात्राय स्थाश्वदानमुच्यते ॥ तथा भट्टादिक आदि जिनाश्रमों में रहनेवाले प्रभाव बढ़ानेवाले धर्मात्मा है उनके लिये धर्मको प्रभावना प्रगट करने और अपनी कोसि बढ़ानेके लिये हाथी आदिका वान देना बतलाया है। ऐसे कीर्तिपात्रों को हाथीका दान देना भी निष्फल नहीं है । सो ही लिखा है भट्टादिकाय जैनाय कीर्तिपात्राय कीर्तये । हस्तिदान परिप्रोक्त प्रभावनांगहेतवे ॥ इसी प्रकार जो मार्ग निकट और कठिन हो और जिसमें कुआ, तालाब, बाबड़ी आदि कोई जलाशय न हो ऐसे मार्ग में चलनेवाले लोगोंको प्यास व दाह बुनाने के लिये शुद्ध छना हुआ शीसल मीठे जलको प्याऊ बनवा देना चाहिये । इसको प्रपाशालाका वान कहते हैं । सो ही लिखा हैन दुर्घटे विघटे मागें जलाशयविवर्जिते । प्रपास्थानं परं कुर्यात् शोधितेन सुवारिणा ॥ १. किसी समय श्रीपूज्य सम्मेदाचल पर्वतको तलहटी मधुवनके जिनालयमें किसोका दान दिया हुआ हाथी या । जाड़े दिनों में जब यात्री लोग तीर्थयात्रा करने आते हैं और उनमें से जो वहाँपर रथोत्सबको शोभामें वह हाथी काम आता था। कभी-कभी वह हाथी जैनधर्म ध्वजा फहराता हुआ आगे चलता था और कभी-कभो भव्यजनोंको सवार कराकर उनकी शोभा बढ़ाता था। इस प्रकार वह धर्मको प्रभावना करता था। इसमें भी सिद्ध होता है कि धर्मकी प्रभावनाके लिए हाथो देना भी सफल है। तथा जिनालय आदिमें हाथो देनेक रोति प्राचीन है।
SR No.090116
Book TitleCharcha Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalal Pandit
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages597
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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