SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 357
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पर्चासागर [३३५ ] इसी प्रकार अपनी शक्तिके अनुसार प्रत्येक गांवमें अन्नक्षेत्र बनवाना चाहिये जहाँसे लोगोंको अन्न मिलता रहे तथा शीतकालमें शीतकी बाधा दूर करनेके लिये सुपात्रोंको रुईको सौड, बिछौना, अंगरखा, टोपा आदि वस्त्र वेना चाहिए । सो ही लिखा है अन्नक्षेत्रं यथाशक्ति प्रतिग्राम समर्पयेत् । शैत्यकाले सुपात्राय वस्त्रदानं सतूलकम्॥ जिन लोगोंके साथ अपने अन्न-पानीका व्यवहार है ऐसे अपनी जाति के लोगोंका व्यवहार चलाने के लिये और उनको अन्न-जल भरनेका सुभीता हो इसके लिये धर्मात्मा सुपात्रों को कांसे आदिके थाल, लोटा आदि वर्तन देना चाहिये । महाव्रतो मुनियों के लिये पोछी, कमण्डलु देना चाहिये। जिनमंदिरों में सोने-चांदी, तांबे, कासे आवि धातुओंके बने हुए थाल, भुंगार आदि पूजाके उपकरण देना चाहिये और पूजा, मन्त्र आदिको विधि को जाननेवाले जैनशास्त्रों के ज्ञाता विद्वानोंको अच्छे भूषण देना चाहिये । सो हो लिखा हैजलान्नव्यवहाराय पात्राय काश्यभाजनम्। महाव्रतियतोन्द्राय पिच्छं चापि कमंडलुम्॥ जिनगेहे प्रदेयानि पूजोपकरणानि वै। पूजामंत्रविधेष्टाय पण्डिताय सुभूषणम् ॥ इस प्रकार दानके अनेक भेद हैं सो विवेको पुरुषोंको यथायोग्य अपनी शक्तिके अनुसार देना चाहिये। इनके सिवाय और भी प्रकारान्तरसे गृहस्थोंको दान देना बतलाया है । यथा-इस संसारमें उत्तम पात्र निर्ग्रन्थ महामुनि हैं, मध्यम पात्र ग्यारह प्रतिमाओंको धारण करनेवाले श्रावक हैं और जघन्य पात्र अव्रत सम्यग्दृष्टि श्रावक हैं। ऐसे मुनि, अजिका, श्रावक-श्राविका आदि चारों प्रकारके संघको आहारदान, अभयवान, औषधदान, शास्त्रदान, वसतिकादान, वस्त्रदान आदि यथायोग्य वेना चाहिये। तथा स्त्री आदि सांसारिक सुखमें रहनेवाले धर्मात्मा पात्रोंको श्रावक धर्मको सिद्धि के लिये अपनो शक्तिके अनुसार शुभ वस्त्र वा आभरण देना चाहिये। जो देने योग्य होकर भी नहीं देता और उस धर्मात्माके वचनको नहीं मानता तो फिर उसके घरमें पूजा-दान । आदि धर्म कार्पोका लोप हो जाता है। सो ही लिखा है-- भोगपात्र तु दारादिसंसारसुखदायक। तस्य देयं सुभूषादि स्वशक्त्या धर्महेतवे ॥ यदि न दीयते तस्मै करोति न वचस्तदा। पूजा दानादिकं नैव कार्य हि घटते गृहे ॥ संसारमें अपनी कोतिको बढ़ानेवाले भाट आदि याचक जन है इसलिये यश बढ़ाने और सुखी होनेके ।।
SR No.090116
Book TitleCharcha Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalal Pandit
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages597
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy