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लिए ऐसे भाट मादि याचकजनोंको भी बहुत-सा धन शेमा चाहिये । क्योंकि संसारमें यदि पनो लोगोंको कोत्ति न हो तो लोकापवाद होने के कारण उनका जन्म ही व्यर्थ हो जाता है। अपनी निन्दाके सुननेसे मानसिक वुःख
होता है, मानसिक दु:खसे आतंध्यान होता है और आतंत्र्यानसे पापबंध होता है । इसलिये अपनी यशःकोतिके विसिागर
लिये समयानुसार और योग्यतानुसार भाट आदिको भी धन देना चाहिये । सो हो लिखा है। भट्टादिकं यशस्पात्र लोके कीर्तिप्रवर्तकम् । देयं तस्मै धनं भूरि यशसे च सुखाय च ॥१॥ विना कीर्त्या वृथा जन्म मनो दुःखप्रदायकम् । मनोदुःखे भवेदातः पापबंधस्तथार्ततः ॥२॥
वासी-दास, नौकर-चाकर आवि जो सेवाके पात्र हैं उनको यथेष्ट ( आवश्यकतानुसार ) अन्न, वस्त्र देना चाहिये । तथा वया पालन करनेके लिये समस्त जीवोंको अपनो शक्तिके अनुसार यथोचित् दान देना चाहिये । इसी प्रकार पाय, सा, भैस आदि मूखे-प्यासे जानवरोंको घास, भुस और छना पानी आदि देना चाहिये । सोही लिखा हैसेवापात्रं भवेदासी दासभृत्यादिकं ततः। तस्मै देयं पटाद्यन्नं यथेष्टं च यथोचितम् ॥१॥ दोहेतोस्तु सर्वेषां देयं दानं स्वशक्तितः । गोवत्समहिषीनां च जलं च तृणसंचयम् ॥ ?
___इस प्रकार दानका स्वरूप अनेक प्रकार है और इन सबका फल जुदा-जुदा है । सो ही लिखा हैपाशे धर्मनिबंधनं तदितरे श्रेष्ठं दयायापकं, मित्रो प्रीतिविवर्द्धनं रिपुजने वैरापहारक्षमम्।। । भृत्ये भक्तिभरावहं नरपतो सन्मानसंपादकं,
भट्टादौ तु यशस्करं वितरणं तत्क्वाप्यहो निष्फलम् ॥ अर्थात् अपने हायसे जो पात्रोंको दान दिया जाता है वह स्वर्ग:मोक्षको वेनेवाला और धर्मको वृद्धि करनेवाला है तथा उत्तम, मध्यम, जघन्य तीनों पात्रोंके सिवाय अन्य जीवोंको क्याके लिये दिया हुआ दान । उत्तम हो है । देखो मित्रको विया हुआ दान प्रेम बढ़ाता है। शत्रुको दिया हुआ शान वरको दूर करता है। वासी-दास, नोकर-चाकर आदिको विया हुआ वान भक्ति बढ़ाता है। राजाको विया हुआ दान अपना सन्मान बढ़ाता है । तथा भाट, राव आदि याचकोंको दिया हुआ दान अपनी कोत्तिको बढ़ाता है। इससे सिड होता है।
मानाmaliSadSARALIA