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________________ सागर [७] मिच्छत्त परिणदप्पा तिव्वकसारण सुट्ट आविट्ठो। जीवं देहं एगं मण्णंतो होदि बहिरप्पा ॥ १६४॥ यह बहिरात्माका स्वरूप है। जो जीव जिनवचनमें कुशल होता है, जो श्रोजिनेन्द्रदेवकी कुशल आज्ञाका पालन करनेयाला होता है। । अथवा जीव और शरीरका भेवविज्ञानी होता है अर्थात् जोव और शरीरको भिन्न-भिन्न जाने, जो वक्ता हो सम्यग्दर्शनको घात करनेवाले दुष्ट आठों मोंको जीतने वाला हो उसे अन्तरात्मा कहते हैं। यह अन्तरात्मा सीन प्रकार है । सो हो स्वामिकातिकेयानुप्रेक्षामें लिखा है जो जिणवयणे कुसला भेयं जाणंति जीवदेहाणं । णिज्जय दुट्ठमयट्ठा अंतरअप्पा य ते तिविहा ॥१६॥ अन्तरात्माके वे तीन भेद इस प्रकार हैं-जो पांचों महावतोंको पालन करनेवाले हों, जो धर्मध्यान वा शुक्लध्यानमें निरन्तर लोन हों, ध्यानमें जिनका शरीर निश्चल रहे और जो समस्त अपाय अर्थात् कमोको जीतनेवाले हों ऐसे मुनियोंको उत्कृष्ट अन्तरात्मा कहते हैं, सो हो स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षामें लिखा है-- पंचमहव्वयजुत्ता धम्मे सुक्के विसंठिया णिच्च। णिज्जयसयलमपाया उक्किट्ठा अंतरा होति ॥१६॥ जो दर्शन, व्रत आदि श्रावकोंके ग्यारह प्रतिमारूय गुणोंको धारण करनेवाले हों, जो श्रावकोंकी तिरेपन क्रियाओंका पालन करते हों ऐसे पांच गुणस्थानवी श्रावक मध्यम अन्तरात्मा है तथा जो जिन-वचनोंमें सवा अनुरक्त रहते हैं, जिनके दर्शनमोहनीयको मिथ्यात्व आदि तीनों प्रकृतियां तथा चारित्रमोहनीयको क्रोधमानमायालोभ ये चारों प्रकृतियाँ इस प्रकार सातों ही प्रकृतियाँ उपशमभावको प्राप्त हो गई हों और क्षुधा, तषा मावि परिषहोंको सहन करने में खूब समर्थ हों ऐसे मुनियों को भी मध्यम अन्तरात्मा कहते हैं। सोही । स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षामें लिखा है।
SR No.090116
Book TitleCharcha Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChampalal Pandit
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages597
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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